राजस्थान के मुख्य वन्यजीव संरक्षक ने रणथम्भौर से 25 बाघों के लापता होने की जांच के लिए एक जांच समिति का गठन किया है। प्रारंभिक निष्कर्षों के अनुसार, ये बाघ दो चरणों में गायब हुए: 2024 से पहले 11 बाघों का पता नहीं चला था, और पिछले 12 महीनों में 14 बाघ गायब हो गए। जांच शुरू होने के बाद, अधिकारियों ने रिपोर्ट किया कि इनमें से 10 बाघों को खोज लिया गया है जबकि 15 अभी भी लापता हैं।
तो, बाकी 15 बाघों का क्या हुआ?
टाइगर वॉच के विस्तृत डेटाबेस पर आधारित यह लेख इन लापता बाघों के प्रोफाइल और अंतिम ज्ञात रिकॉर्ड का विश्लेषण करता है, ताकि उनके गायब होने के संभावित कारणों को उजागर किया जा सके।
बाघों की जानकारी और गायब होने के संभावित कारण
बाघ ID
लिंग
अंतिम रिपोर्टेड
जन्म वर्ष
उम्र (गायब होने के समय)
गायब होने का संभावित कारण
T3
नर
03-08-2022
2004
18-19 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T13
मादा
17-05-2023
2005
19-20 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T38
नर
04-12-2022
2008
14-15 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T41
मादा
15-06-2024
2007
17-18 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T48
मादा
12-09-2022
2007
15-16 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T54
मादा
अक्टूबर-22
2011
13-14 वर्ष
उम्र के कारण प्रमुख बाघ द्वारा बाहर किया गया
T63
मादा
जुलाई-23
2011
13-14 वर्ष
उम्र और प्रतिस्पर्धा के कारण मरा हो सकता है
T74
नर
14-06-2023
2012
12-13 वर्ष
प्रमुख बाघ T121 और T112 द्वारा बाहर किया गया
T79
मादा
16-06-2023
2013
11-12 वर्ष
संदिग्ध मृत्यु; पार्क के बाहर रहती थी
T99
मादा
26-07-2024
2016
9 वर्ष
गर्भावस्था में जटिलताएं, फरवरी 2024 में गर्भपात
T128
नर
05-07-2023
2020
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T131
नर
30-11-2022
2019
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T138
मादा
20-06-2022
2020
3 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T139
नर
17-07-2024
2021
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T2401
नर
04-05-2024
2022
3 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
निरीक्षण और तार्किक अनुमान
यह 15 बाघ अब तक गायब हैं, और उनके गायब होने के संभावित कारण निम्नलिखित हो सकते हैं:
वृद्ध बाघ: इन बाघों में से पांच—T3, T13, T38, T41, और T48—15 साल से ऊपर के हैं, जिनकी उम्र 19-20 साल तक पहुंच चुकी है।
दूसरे दो, T54 और T63, 13-14 साल के हैं और संभवतः अपने प्राकृतिक रूप से जीवन के अंतिम दौर के करीब हैं।
मादा बाघ T99 को फरवरी 2024 में गर्भावस्था में जटिलताएं आई थीं, जिससे उनका गर्भपात हो गया था। उन्हें व्यापक चिकित्सा देखभाल दी गई थी और वे जीवित रही थीं। हाल ही में रिपोर्ट आई थी कि वे फिर से गर्भवती हो सकती हैं, हालांकि यह पुष्टि नहीं हो पाई है। संभव है कि इसी प्रकार की जटिलताएं फिर से उत्पन्न हुई हों, जिसके कारण उनका वर्तमान स्थिति समझी जा सकती है।
फोटो: बाघिन T99 के गर्भपात के दौरान लिया गया चित्र
बाघ T74, जो 12 साल से अधिक उम्र की है, को डोमिनेंट बाघ T121 और T112 द्वारा उनके क्षेत्र से बाहर किया जा सकता है।
बाघिन T79 अजीब परिस्थितियों में गायब हो गई, जिसके बाद वन विभाग ने उसकी खोज शुरू की और उसकी दो शावकों को पाया। वह रणथम्भौर के बाहर कंडुली नदी क्षेत्र में रहती थी, और ऐसी चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में उसका अब तक जीवित रहना आश्चर्यजनक था।
सबसे महत्वपूर्ण नुकसान पांच युवा नर बाघों का है, जो रणथम्भौर के प्रमुख बाघों के मध्य प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गए। वन्य जीवन में, नर बाघों को क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जो अक्सर घातक मुठभेड़ों की ओर ले जाता है, जिनमें केवल सबसे मजबूत जीवित रहते हैं। वन विभाग के विस्तृत विश्लेषण के अनुसार, युवा नर बाघों जैसे T128, T131, T139, और T2401 को अक्सर अप्रयुक्त क्षेत्रों की तलाश करते हुए देखा गया था।प्रमुख बाघों के साथ क्षेत्रीय संघर्ष उनकी गायब होने का एक संभावित कारण हो सकता है।
बाघिन (T138) का गायब होना चिंता का विषय है, तथा 15 लापता बाघों में से इस अल्प-वयस्क बाघिन की अनुपस्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है।
प्राकृतिक प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त, मानव से संबंधित संघर्ष को भी ध्यान में रखना चाहिए। ये युवा बाघ स्थानीय समुदायों के साथ संघर्षों का शिकार भी हो सकते हैं, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों का सामना करना। क्षेत्र में पहले के घटनाएं, जैसे कि T114 और उसकी शावक, और T57 की जहर से मौत, मानव-बाघ संघर्ष के जोखिम को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।
सारांश
रणथम्भोर से बाघों के गायब होने के कारणों में बढ़ती आयु, स्वास्थ्य समस्याएं, क्षेत्रीय संघर्ष और अन्य मानवजनित कारण शामिल हो सकते हैं। उम्रदराज बाघ, जैसे T3, T13, T38, T41, और T48, अपनी उम्र के कारण स्वाभाविक रूप से मरे हो सकते हैं। बाघ सामान्यतः 15 साल तक जीवित रहते हैं, और उसके बाद उनका जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। 15 साल की उम्र के बाद, उन्हें स्वास्थ्य और क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके जीवित रहने की संभावना घट जाती है।
T54, T63, T74, और T79 जैसे बाघ, जो अपनी उम्र के कारण कमजोर हो चुके थे, शायद युवा और प्रमुख बाघों से अपने क्षेत्रों की रक्षा करने में असमर्थ भी। इस कारण उनके जीवन का संकट में पड़ना स्वाभाविक है, खासकर जब वे पार्क के बाहरी इलाकों में रह रहे होते हैं, जैसे कि T54 जो तालरा रेंज के बाहरी इलाके में रहता था।
जब परिपक्व बाघिन T63, जिसने पहले तीन बार शावकों को जन्म दिया था और खंडार घाटी में पार्क के केंद्र में रहती थी, को औदी खो क्षेत्र में वन अधिकारी द्वारा लगभग मृत घोषित कर दिया गया था, तो अधिकारियों ने उसे शिकार भी उपलब्ध कराया था, यहाँ तक कि एक समय कहा गया कि वह जीवित नहीं बचेगी। अउ समय यह बाघिन अत्यंत दुर्बल अवस्था में मिली थी।
सबसे महत्वपूर्ण नुकसान युवा चार नर एवं एक मादा बाघ (T128, T131, T139, T2401 और T138) का है, जिनका सामना डोमिनेंट बाघों से क्षेत्रीय संघर्षों में हुआ। ये युवा बाघ अक्सर नए क्षेत्रों की तलाश में रहते है, और ऐसे संघर्षों के कारण उनकी मौत हो सकती है।
हालांकि, मानव जनित कारणों पर भी विचार करना जरूरी है। इन युवा बाघों ने स्थानीय समुदायों से भी खतरों का सामना किया हो सकता है, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों से मुठभेड़।
अंततः, बाघिन T99, जो गर्भावस्था की जटिलताओं से जूझ रही थी, शायद इन समस्याओं के कारण गायब हो गईं।
यह समीक्षा यह रेखांकित करती है कि रणथम्भौर में बाघों की स्थिति को लेकर लगातार निगरानी और सक्रिय उपायों की आवश्यकता है, ताकि हम इन खतरों को समझ सकें और अधिक प्रभावी रणनीतियाँ तैयार कर सकें, जिससे इस सुंदर प्रजाति का दीर्घकालिक संरक्षण सुनिश्चित हो सके।
अंग्रेजो ने अपने राज में किस कदर बेहूदगी से इस देश में शिकार किये है, इसका एक उदाहरण विलियम राइस के अनुभवों से समझा जा सकता है। विलियम राइस २५ वी बॉम्बे रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट पद पर थे और उन्होंने अपने शिकार के संस्मरण में लिखा है कि, किस प्रकार से उन्होंने पांच वर्षो के समय में 156 बड़े शिकार किये जिनमें 68 बाघ मारे एवं 30 को घायल करते हुए कुल 98 बाघों का शिकतर किया, मात्र 4 बघेरे मारे एवं 3 घायल करते हुए कुल 7 बघेरे एवं 25 भालू मारे एवं 26 घायल किये और इस तरह कुल 51 भालुओं का शिकार किया।
उन्हें लगता था कि, लोग उनके इस साहसिक कार्य को सही नहीं मानेगे इसलिए उन्होंने सात चश्मदीद अफसरों के नाम इस तथ्य के साथ में उल्लेखित करें हैं। यह अधिकांश प्राणी उन्होंने कोटा के वर्तमान में गाँधी सागर, जवाहर सागर, राणा प्रताप सागर, बिजोलिया, मांडलगढ़, भेरोडगढ़ आदि क्षेत्र से मारे थे। यदि आप वन्यजीव प्रेमी हो उनके लिखे हुए हर एक पृष्ठ को पढ़ने के बाद उन्हें कोसना नहीं भूलेंगे। भावनाओ की नदी में बहते हुए यदि इतिहास पढ़ते है तो उस ज़माने की असली तस्वीर धूमिल हो जाति है अतः विलियम राइस द्वारा लिखे उदाहरण हमें आज के परिपेक्ष्य में बाघ संरक्षण की आज तस्वीर के हिस्से लगते है।
टाइगर शूटिंग इन इंडिया से ‘जाट पैंथर हमला करते हुए’: सर विलियम राइस द्वारा 1850 से 1854 तक गर्मियों के दौरान राजपूताना में पैदल किये गए शिकार के अनुभवों का लेखा-जोखा जिसमें पैंथर का अर्थ है तेंदुआ
एक उन्होंने लिखा कि जब उन्हें पांच दिन भैंसरोडगढ़ के सामने चम्बल के उस पार स्थित अम्भा गांव के जंगल में कोई बड़ा प्राणी शिकार के लिए नहीं मिला तो उन्होंने जानकारी हासिल की क्या कारण है तो उन्हें लोगों ने बताया की कुछ समय पूर्व पशुपालको ने २-3 बाघों को आर्सेनिक ज़हर देकर मार दिया है। लगभग वर्ष 1850 -54 के मध्य भी ज़हर देकर मारना कितना आम रहा होगा।
टाइगर शूटिंग इन इंडिया से ‘एक घायल बाघ का पीछा करती हुई लोगों की भीड़’: सर विलियम राइस द्वारा 1850 से 1854 तक गर्मियों के दौरान राजपूताना में पैदल शिकार के अनुभवों का लेखा-जोखा।
वर्तमान में बाघों से बदला लेने के लिए उन्हें ज़हर देकर मारने की घटनाये किस कदर आम है इसका अंदाज लगाना आसान नहीं है। रणथंभौर में पिछले दस वर्षो में कम से कम 5 बाघ मृत मिले है जिनको मारने के लिए ज़हर दिया गया था। यह पांच बाघ वह थे, जिन्हें ज़हर देना फॉरेंसिक विभाग ने प्रमाणित किया था। ना जाने कितने ही ऐसे मामले सामने नहीं आये हैं। टाइगर वाच की इन तथ्यात्मक रिपोर्टों – https://tigerwatch.net/status-of-tigers-in-ranthambhore-tiger-reserve/ के अनुसार पिछले १० -११ वर्षों के रणथमभोर के बाघों के गायब होने के आंकड़ों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि, प्रति वर्ष 3 बाघ गायब होते रहे हैं। पिछले वर्ष 2019 -20 में तो यह संख्या 12 पहुँच गयी है- https://tigerwatch.net/the-missing-tigers-of-ranthambhore-2020-2021/। इन गायब बाघों के बारे में तय तौर पर नहीं कहा जा सकता कि कितने बाघ इंसानी दखलंदाजी की वजह से ही गायब हुए है।
टाइगर शूटिंग इन इंडिया से ‘दयपुरा में भगदड़’: सर विलियम राइस द्वारा 1850 से 1854 तक गर्मियों के दौरान राजपूताना में पैदल शिकार के अनुभवों का लेखा-जोखा।
विलियम राइस ने लिखा है कि, बाघ जब भी गाय का शिकार करता था तो पशुपलक उससे बदला लेने के लिए उसका ध्यान रखते और बाघ के इधर उधर होने पर वह उसक गाय के पिछले पुट्ठे को चाकू से लम्बवत काटते एवं आर्सेनिक से भर देते थे। साथ ही राइस लिखते है कि, एक लाल रंग की बेरी का चूर्ण भी इसी तरह से विष का कार्य करता था। सायद यह बेरी कुचला हो सकती है क्योंकि यह आम विष था जो भारत के आम लोगों द्वारा इस्तेमाल किये जाते थे आज की तरह उस समय रासायनिक विष मौजूद ही नहीं थे। इन दोनों विष में किसी भी प्रकार की गंध नहीं होती है एवं बाघ बड़े बड़े मांस के लोथड़े निगलते हुए खाता है और मारा जाता है। आज कल पशुपालक इंजेक्शन में कीटनाशक भरकर पशुओं को जहरीला बनाते है।
लक्ष्मीपूरा के रामसिंह मोगिया ने स्वयं कहा की आज कल किस प्रकार जानवरो का विनाश किया जा रहा है और यह बढ़ रहा है। इस तरह जानवरो को मरते देख अक्सर शिकारी चाहे वो विलियम राइस हो या मोगिया समाज के लोग वो सभी भी दुखी हो जाते है।
सन्दर्भ:
Tiger Shooting in India : Being an account of Hunting Experiences on Foot in Rajpootana, During the Hot seasons from 1850 to 1854
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Colonel Kesri Singh, the famed tiger hunter from Rajasthan wrote that when the Maharaja of Datia (Madhya Pradesh), Gobind Sinh arrived in Gwalior to for a hunt, there was very little time for preparation, and he hurriedly consulted his men in the state shikarkhana for any information on tigers in the area. He learnt that a tiger had hunted a cow in a nearby village. Upon investigation, he learnt to his consternation, that the kill was lying out in the open and that there was no feasible location to erect a machan. Kesri Singh ji then decided to erect a machan on a banyan tree 500 metres away from the cattle kill site and had a domestic pig tied to bait the tiger. However, the pig was not the only lure for the tiger, he also relied on a rather curious plant. They believed that the aroma of this particular plant would attract the tiger ! The plant was the jatamansi or Indian Spikenard (Nardostachys jatamansi). Today, this plant species is critically endangered, and therefore quite ironically, in far greater peril than the tiger.
To lure the tiger, Kesri Singh ji had two sacks filled with this plant, soaked them in water, tied them up and handed them to two members of his hunting staff. The two men were then ordered to drag the wet jatamansi filled sacks for 500 yards on two different routes, both of which eventually led to the banyan tree with the machan, in order to leave two strong scent trails. Kesri Singh ji believed that the scent was very similar to that of a tigress, and would prove irresistible to the tiger.
Jatamansi or Nardostachys jatamansi
This unconventional method proved successful, and at 9 pm, the tiger appeared before their machan following one of the scent trails and was shot.
In more recent times, when a tigress in Maharashtra was believed to have killed dozens of people, forest officials were spraying a specific cologne in the forest in the hope of locating her. You must think that this is quite a strange way to locate a tigress, however this method is not novel at all and has been used on big cats all over the world. South American biologists have resorted to this method to lure jaguars to camera trapping sites. Researchers also employ this method under special circumstances, such as when a tiger strays outside of a protected area. The cologne of choice for such an endeavour is usually made by the brand Calvin Klein, and contains.a special kind of pheromone called civetone. Civetone was traditionally procured from the glands of members of the civet and badger families. Today, it is produced synthetically. In the past, the secretion of badger glands was the main component for perfumes.
The Bronx Zoo collected data on their tigers’ reactions to a variety of colognes and perfumes. They reported that the tigers spent 11.1 minutes smelling Calvin Klein’s Obsession for Men, 10.4 minutes smelling Ricci’s L’Air du Smells Temps, and spent a measly 2-15 seconds on other brands.
A tiger will spray urine on the most prominent tree on a pathway or choose a tree that is leaning into a pathway. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
Tigers scent mark trees and stones with their urine sprays and various glands to mark their territories. While the smell itself is relatively mild, it is dissolved in an oily substance (lipid), which sends a message to other tigers for several days, communicating which tiger the territory belongs to and what condition it is in. The choice of location to scent mark is such that it remains for several days and is not washed away by the rain. Often, a tiger will spray urine on the most prominent tree on a pathway or choose a tree that is leaning into a pathway. Raindrops will not be able to easily wash away the scent mark on a tree that is leaning in such a manner, and there is also a much larger surface area to spray urine on. If you look up photographs of tigers urine scent marking on the internet, you will find most photographs will be of tigers spraying urine on trees leaning into pathways. Tigers also avoid urine scent marking trees which contain resin, for their scent will get overpowered by the strong smell of resin.
A chemical called 2 acetyl-1-pyrroline (2AP) is found in tiger urine. Interestingly, this chemical is also formed when bread, basmati rice or even a roti , is put on an open flame and turns brown. Just as the actions and attributes of different kinds of flora and fauna are similar in nature, such is the case with chemicals. Thus rather curiously, tigers and other cats are also attracted by a solution prepared from the placenta of the American bobcat. In 2017, senior forest official Sh. Gobind Sagar Bhardwaj and his team adroitly lured a subadult male tiger to a specific location using the urine of a tigress, in order to capture and release it to a safer area in Sariska Tiger Reserve. The urine itself was procured from a tigress in a zoo for this unique intervention.
Therefore, this method has historically been used to put tigers in mortal danger, but in recent times has been used to protect them.
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
राजस्थान के माहिर बाघ शिकारी कर्नल केसरी सिंह लिखते हैं कि, जब दतिया महाराज श्री गोबिंद सिंह शिकार करने ग्वालियर आये तो उन्हें तैयारी का बहुत कम समय मिला और आनन-फानन में केसरी सिंह जी ने अपने शिकारख़ानों के कर्मचारियों से बाघ के बारे में जानकारी ली। बाघ ने एक गांव के पास एक गाय का शिकार किया था। स्थिति का जायजा लेने वह स्वयं वहां गये, उन्होंने पाया कि, शिकार खुले में पड़ा था और आस पास मचान बांधने की उचित जगह ही नहीं थी। उन्होंने तय किया की उस से 500 गज दूर एक बरगद के पेड़ पर मचान बांधा जाए साथ ही एक घरेलु सूअर को उसके लिए प्रलोभन के रूप में बांधा गया। परन्तु केसरी सिंह जी ने बाघ को उस सूअर तक लाने के लिए एक अनोखी वनस्पति की गंध का इस्तेमाल किया। उनका मानना था कि, इस वनस्पति की सुगंध बाघों को लुभाती है। यह वनस्पति है – जटामासी (Indian Spikenard) जिसे वनस्पति शास्त्र की भाषा में Nardostachys jatamansi के नाम से जाना जाता है। यह आज बाघों से भी अधिक एवं घोर-संकटग्रस्त (Critically Endangered या CR) श्रेणी में राखी गयी पादप प्रजाति है।
बाघ को अपनी और लुभाने के लिए उन्होंने दो बोरों में जटामासी को भर कर पहले उसे गिला किया एवं दो अलग-अलग सहयोगियों को उन बोरों के रस्सी बांध के दे दिया। उन्हें कहा गया कि, इनको दो दिशाओ में 500 मीटर जमीन पर घसीटते हुए मचान की और लाये ताकि जमीं पर इसकी सुगंध फ़ैल जाये। केसरी सिंह मानते थे कि, इस वनस्पति में मादा बाघिन के समान गंध आती है।
जटामासी Nardostachys jatamansi
यह तरीका काम कर गया एवं रात्रि 9 बजे बाघ उनके मचान के पास गंध के पीछे-पीछे आ गया था, जिसका सफलता पूर्वक शिकार किया।
जब महाराष्ट्र में एक बाघिन जो दर्जन भर लोगो को मारने के लिए उत्तरदायी मानी जा रही थी, तो कुछ वन अधिकारी जंगल में उसे ढूंढने के लिए एक खास प्रकार का परफ्यूम छिड़क रहे थे। आप सोच रहे होंगे यह बड़ा विचित्र तरीका है, बाघिन को ढूंढने का, परन्तु कई जगह इसक तरीके को इस्तेमाल किया गया है जैसे दक्षिण अमेरिका में परफ्यूम से जैगुआर को आकर्षित किया जाता रहा है, ताकि बायोलॉजिस्ट उसका कैमरा ट्रैप में फोटो ले सके। शोधकर्ता यह तरीका खास परिस्थिति में इस्तेमाल करते है जब कोई बाघ जंगल से भटक कर कहीं बाहर निकल जाता है। यह परफ्यूम अधिकांश तय कैल्विन क्लेइन नामक ब्रांड का होता है और इसमें एक खास तरह का फेरोमेन है, जो सीवेटोन कहलाता है। यह एक खास तरह की बिज्जू या सिवेट प्रजाति के स्तनधारी की विशेष ग्रंथियों में मिलता है। यह फेरोमेन आज कल कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है। परन्तु कृत्रिम रूप से प्राप्त बिज्जू की ग्रंथि का स्त्राव प्राचीन समय में इत्र का मुख्य घटक था।
ब्रोंक्स ज़ू ने कई प्रकार के इत्रों पर बाघों की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में आंकड़े जुटाए और बताया कि, सबसे अधिक ‘कैल्विन क्लेइन’स ओबसेशन फॉर मेन’ को बाघों ने 11.1 मिनट तक सूंघते रहा, वहीँ ‘रिक्की’स ल’एयर दू टेम्प्स’ को 10.4 मिनट तक सुंघा वहीँ अन्य कुछ परफ्यूम को मुश्किल से 2-15 सेकंड ही दिये।
बाघ रास्ते के सबसे मुख्य पेड़ के तने पर मूत्र की बौछार करता है, एवं अक्सर उस पेड़ को चयन करता है जो रास्ते की और झुका हुआ हो। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
बाघ अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए अपने मूत्र और अंगो की विभिन्न ग्रंथियों से पेड़ो और पत्थरों पर अपनी गंध छोड़ते है। यह गंध इतनी हल्की होती है, परन्तु तेलिये पदार्थ (लिपिड) में घुली हुई यह गंध कई दिनों तक अन्य बाघों को सन्देश देती है, कि यह किसका इलाका है या गंध छोड़ने वाला बाघ किस प्रकार की स्थिति में है।
मूत्र की बौछार उस स्थान पर छोड़ी जाती है जहाँ वह कई दिनों तक रहे एवं बारिश से धुले नहीं। अक्सर बाघ रास्ते के सबसे मुख्य पेड़ के तने पर मूत्र की बौछार करता है, एवं अक्सर उस पेड़ को चयन करता है जो रास्ते की और झुका हुआ हो। झुके हुए पेड़ पर बारिश की बुँदे गंध युक्त मूत्र को जल्दी से बहा नहीं पाती है एवं झुके होने के कारण मूत्र का छिड़काव भी अधिक बड़ी सतह पर भी हो पाता है। यदि आप इंटरनेट पर टाइगर सेंट मार्किंग की फोटो ढूंढेगे तो अधिकांश फोटो रास्ते की और झुके हुए पेड़ों की ही मिलेगी जिन पर बाघ मूत्र कर रहा होता है। इसके अलावा जिन पेड़ो में गंध युक्त रेसिन होती है, उनपर बाघ अपनी गंध नहीं छोड़ते है, क्योंकि उनकी गंध पेड़ो के रेसिन की तेज गंध में खो जाती है।
टाइगर के मूत्र में 2 acetyl-1-pyrroline (2AP) नामक रसायन मिलता है, जो बासमती चावल या ब्रेड या रोटी जब आग में भून कर भूरे रंग में परिवर्तित होती है, यही रसायन उस समय भी बनता है। प्रकर्ति में वनस्पति एवं जीव जंतुओं में की अनेक क्रिया मिलती जुलती है एवं उसी प्रकार कई रसायन भी समान होते है।
कई बार अमेरिका में मिलने वाली बॉब कैट के प्लेसेंटा के द्वारा तैयार किये गये घोल से भी बाघ एवं अन्य बिल्लियों को आकर्षित किया जाता है।
वर्ष 2017 में सरिस्का में वरिष्ठ वन अधिकारी श्री गोबिंद सागर भरद्वाज एवं उनके सहायक अधिकारियो ने बड़ी सूझबूझ दिखाते हुए एक नर अल्पवयस्क बाघ को मादा के मूत्र से इच्छित स्थान पर आकर्षित किया और पुनः सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया। यह अनूठा प्रयोग चिड़ियाघर की एक मादा के मूत्र का इस्तेमाल कर के किया गया।
इस प्रकार कई तरीके इस्तेमाल कर बाघों को खतरे में डाला गया है अथवा निकला गया है।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
बाघिन के मर जाने पर उसके बच्चों को पिता के रहते हुए भी अनाथ मान लिया जाता था और उनके बचने की सम्भावना को बहुत ही निम्न माना जाता था। ऐसे में रणथम्भौर के वन प्रबंधकों ने कठिन और चुनौतियों से भरी परिस्थितियों का सामना करते हुए उन शावकों का संरक्षण किया…
9 फरवरी 2011 की उस सुबह, सूरज पहली किरण के साथ ही, कचीदा चौकी के वन रक्षको की एक टीम कचीदा घाटी के लिए निकल पड़ी, क्योंकि रात भर से घाटी की निवासी बाघिन (T5) की दर्द से करहाने आवाज़े आ रही थी। घबराते और डरते हुए वन रक्षक एक बांध की ओर बढे और देखा कि, बाघिन चट्टान पर मरी पड़ी हुई थी। पीछे 3 महीने के दो शावकों को छोड़कर बाघिन T5 की बिमारी के कारण मौत हो गई थी। बाघ के शावक बेहद संवेदनशील होते हैं और इसीलिए बाघिनें अपने बच्चों के लिए बहुत समर्पित और गंभीर होती हैं। वो अपने शावकों की सुरक्षा और पालन-पोषण के लिए पूरे दो साल समर्पित करती हैं; इस बीच वो कई बार अपने क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अन्य बाघों से लड़ाई भी कर लेती है तो कई बार गभीर रूप से घायल भी हो जाती है। साथ ही बाघ के शावक शिकार करने की कला जैसे की अपने शिकार का पीछा करना, चकमा देना, पकड़ बनाना और संभावित खतरों से बचना लगभग हर ज्ञान के लिए पूरी तरह से अपनी माँ पर निर्भर रहते हैं।
रणथम्भौर में पिछले सात सालों में ये चौथी दफा था जब किसी बाघिन की मौत हो गई और वह पीछे अपने शावकों को छोड़ गई थी। आमतौर पर, ऐसे मामलों में पहला विचार मन में यही आता है कि, शावकों को बचाने और जीवित रखने के लिए उन्हें पकड़ कर किसी सुरक्षित स्थान जैसे एक बाड़े (enclosure) में स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन शावकों को इंसानों के इतने करीब रख के पालने से उनका जंगली स्वभाव बिलकुल खत्म हो जाता है।
हालांकि, रणथम्भौर में अनाथ शावकों के चार मामलों में, वन प्रबंधकों ने एक सहज तरीका अपनाया। यह प्रक्रिया बेहद कठिन और चुनौतियों से भरी थी, लेकिन इससे बाघों के व्यवहार पर कुछ अनोखे और आश्चर्यजनक अवलोकन मिले और इन सभी मामलों में रणथंभौर वन विभाग के कर्मचारियों का प्रयास निश्चित रूप से काबिल-ए-तारीफ है।
बाघिन T5 के तीन महीने के दो अनाथ शावक (फोटो: देश बंधु वैद्य)
बाघिनों का गर्भकाल केवल 90 से 110 दिनों का ही होता है और गर्भ का उभार अंतिम दिनों में ही दिखाई देता है ताकि बाघिन गर्भावस्था के दौरान भी ‘शिकार करने योग्य’ बनी रहे और न ही उस पर अतिरिक्त वजन का बोझ हो। लेकिन इस छोटे गर्भकाल का अर्थ यह भी है कि, शावकों का जन्म पूर्ण विकसित रूप में नहीं होता है, और उनमें कुछ विकास उनका जन्म के बाद होता हैं। वहीं शाकाहारी जीवों जैसे कि, हिरणों में, गर्भकाल की अवधि लंबी होती है तथा गर्भावस्था का एक स्पष्ट उभार उनकी जीवन शैली में कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन एक बार जब वे जन्म देते हैं, तो उनके बच्चे (fawn) पल भर में चलने लगते हैं। इसके विपरीत, बाघ के शावक बिलकुल असहाय, बहरे (उनके कान बंद होते हैं) और अंधे (पलकें कसकर बंद) पैदा होते हैं। इसीलिए, वे बहुत कमजोर और हर चीज के लिए पूरी तरह से अपनी मां पर निर्भर होते हैं। शुरूआती महीनों में बाघिन अपना अधिकतर समय शावकों की देख भाल में लगाती है और जैसे-जैसे शावक बड़े होते है यह समय कम होने लगता है।
अब कल्पना कीजिए क्या होगा जब, ऐसे ध्यान रखने वाली माँ की मृत्यु हो जाए और असहाय शावक पीछे अकेले छूट जाए।
परन्तु यह पहली बार नहीं था, रणथम्भौर में पहले भी अनाथ शावकों को जंगल में ही देखरेख कर उन्हें बड़ा किया जा चुका था। वर्ष 2002 में, एक बाघिन की अचानक मौत ने दो शावकों को अनाथ कर दिया था। ऐसे में रणथंभौर के प्रबंधकों ने उन्हें चिड़ियाघर भेजने के बजाय जंगल में ही उनकी देखभाल करने का फैसला किया। लेकिन उस समय कैमरा ट्रैप उपलब्ध नहीं होने के कारण वन विभाग अपनी सफलता को साबित नहीं कर सका। खैर जो भी हो, यह वन्यजीव प्रबंधन में एक नए अध्याय की शुरुआत थी।
अब, आधुनिक निगरानी तकनीकों और उपकरणों की उपलब्धता के साथ, अनाथ शावकों की इन-सीटू (in-situ) देखभाल के लिए किए गए प्रयासों को सही ढंग से दर्ज किया गया था। निम्नलिखित चार मामले रणथंभौर के अनूठे प्रयोग में आने वाली चुनौतियों और उससे मिलने वाली सफलताओं एवं व्यवहार संबंधी नई जानकारी को उजागर करते हैं। आइये जानते हैं इनके बारे में।
क्वालजी क्षेत्र के नर मादा शावक
1 सितंबर 2008 को, बाघिन T15 मृत पाई गई थी; और शरीर पूरी तरह से सड़ जाने के कारण मौत का कारण पता लगाना पाना बहुत मुश्किल था। वह अपने पीछे 7 महीने के दो शावकों, एक नर (T36) और एक मादा (T37) को छोड़ गई थी। इस घटना के बाद शावक गायब हो गए और वन रक्षकों द्वारा गहन खोज और प्रयासों के बावजूद भी कोई सफलता नहीं मिली। एक हफ्ता बीतते ही दौलत सिंह (एसीएफ) को पता चला कि, बाघिन कभी-कभी अपने शावकों के साथ इंडाला पठार पर भी जाती थी। टीम ने तुरंत इंडाला क्षेत्र में खोज करी और कुछ घंटों में ही, कई पगमार्क पाए गए। तुरंत एक भैंस के बछड़े के शव की व्यवस्था की गई क्योंकि शावक किसी जानवर को मारने के लिए बहुत छोटे थे और कैमरा ट्रैप तस्वीरों से पता चला कि, दोनों शावक रात में शव को खाने आए थे। इंडाला में कुछ दिन बिताने के बाद, शावक अपनी माँ के पसंदीदा क्षेत्र में लौट आए और वे वन विभाग द्वारा दिए गए भोजन पर ही जीवित रह रहे थे।
फिर लगभग 2 महीने बाद, शावक फिर से गायब हो गए, लेकिन इस बार एक उप-व्यस्क बाघिन, T18 की वजह से, जो खाली क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए वहां आ गई थी।
विभाग ने खोज कर पता लगाया कि, नर शावक लकारदा क्षेत्र (रणथम्भौर का मध्य भाग) में मौजूद है। कुछ दिनों के बाद वह और आगे उत्तर में अनंतपुरा क्षेत्र में चला गया और अब तक वह पार्क के पूर्वी भाग से उत्तरी भाग में पहुंच चुका था। एक माँ की सुरक्षा न होने के कारण, उसे एक बार फिर से पार्क की पश्चिमी सीमा की ओर धकेल दिया गया।
दूसरी ओर, मादा शावक दक्षिण की तरफ चली गई। वह पार्क के दक्षिणी छोर पर चंबल के बीहड़ों की ओर पहुंच गई थी, लेकिन वापस लौटकर सवाई मानसिंह अभयारण्य में जोजेश्वर क्षेत्र में बस गई।
नर शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने की तलाश में घूम ही रहा था कि, 21 मार्च 2009 को, वह एक खेत में घुस गया और स्थानीय लोगों ने उसे घेर लिया। दौलत सिंह और उनकी टीम ने उसको बचाया और रेडियो कॉलर लगाकर सवाई मानसिंह अभयारण्य के आंतरी क्षेत्र में उसे छोड़ दिया, क्योंकि वहां से एक मादा बाघ के पगमार्क की सूचना मिली थी। बाद में वह आंतरी से जुड़े हुए क्वालजी नामक क्षेत्र में चला गया।
बाघ T36 का रेस्क्यू ऑपरेशन (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
जून में, वह उस क्षेत्र की बाघिन के आमने-सामने आया, जो उसकी बहन T37 निकली! और फिर भाई-बहन की वह जोड़ी सवाई मानसिंह अभयारण्य के निवासी बन गए। हालांकि ऐसा अनुमान था कि, उप-वयस्क बाघ मानसून के दौरान वहां से चले जाएंगे, परन्तु वे रुके रहे और T36 ने क्वालजी को अपने क्षेत्र के रूप में कब्जे में ले लिया।
वर्ष 2010 में, एक अन्य नर बाघ, T42 क्वालजी पहुंचा और दुर्भाग्य से, एक लड़ाई में 20 अक्टूबर 2010 को, उप-वयस्क बाघ T36 ने दो साल और नौ महीने की उम्र में ही अपनी जान गंवा दी। उसकी मृत्यु के बाद, T42 T37 के साथ क्वालजी क्षेत्र में बस गया। समय के साथ यह जोड़ी पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय भी हुई।
18 मार्च 2013 को बाघिन T37 के बीमार होने की सूचना मिली और शाम तक वह मृत पायी गई। जांच (Autopsy) से पता चला कि, उसके शरीर में बहुत अधिक चर्बी जमा थी और दिल के दौरे से उसकी मृत्यु हो गई।
हालांकि दोनों शावकों की दुखद मृत्यु हो गई, परन्तु वे वयस्कता तक पहुंच गए थे, जो कि, यह साबित करता है कि उचित देखभाल की जाए तो अनाथ शावक भी जीवित रह सकते हैं।
बेरदा वन क्षेत्र के शावक
4 अप्रैल 2009 को, 17-18 महीने की उम्र के दो उप-वयस्क शावकों को छोड़कर बाघिन T4 की मृत्यु हो गई। शावकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण उम्र होती है, क्योंकि इस उम्र में ही उन्हें अपनी माँ से अधिकांश कलाएँ सीखनी होती है। इस बार भी इन दो शावकों में से एक नर (T40) और एक मादा (T41) थी। T15 के शावकों से लिए गए अनुभव से वन विभाग को भरोसा था कि, वे इन्हें भी पाल लेंगे। बेरदा क्षेत्र में पर्याप्त पानी और प्रचुर मात्रा में शिकार दो शावकों के लिए वरदान साबित हुआ। कुछ साल बाद वर्ष 2013 में T41 ने एक मादा शावक को जन्म दिया और रिकॉर्ड के अनुसार, वह पहली अनाथ बाघिन थी जिसने प्रजनन किया था। वहीं नर T40 पार्क से बाहर चला गया और जून 2010 के बाद से उसकी कोई खबर नहीं।
कचीदा क्षेत्र के शावक और उनका पिता
अब वापस कहानी पर आते हैं जहां बाघिन T5 की मौत तीन महीने के दो शावकों (B1 और B2) को छोड़कर हुई थी। विभाग का विचार था कि, शावक बहुत छोटे हैं और ऐसे में उन्हें सरिस्का भेज देना ही उचित होगा, जहां उन्हें एक बाड़े में पाला जाएगा। हालांकि, कुछ समय तक शावकों का कोई पता नहीं चला। लेकिन अंत में, एक वीडियो कैमरा ट्रैप से शावकों के उस स्थान पर आने की फुटेज प्राप्त की, जहां विभाग द्वारा उनके लिए भोजन और पानी रखा गया था। उन्होंने खाया, पिया और फिर गायब हो गए।
पार्क प्रबंधकों ने शावकों को पालने का फैसला किया परन्तु इस परिस्थिति में शावकों के लिए भोजन, पानी और सुरक्षा महत्वपूर्ण पहलु थे। भोजन और पानी का प्रबंध तो किया जा सकता था, लेकिन रणथभौर के घने जंगल में जहाँ कई अन्य जंगली जानवर भी मौजूद हैं सुरक्षा का वादा और पुष्टि नहीं दी जा सकती थी।
फिर एक दिन कचीदा रोड पर एक साथ दोनों शावकों और एक नर बाघ के पगमार्क मिले। और कैमरा ट्रैप की तस्वीरों ने पूरी कहानी का खुलासा किया जिसने बाघों के व्यवहार अध्ययन में एक नया अध्याय जोड़ दिया। तस्वीरों में एक शावक नर बाघ T25 के सामने चलते हुए देखा गया, जिसके बाद दूसरा शावक चल रहा था। यह एक असाधारण खोज थी कि, नर बाघ, जिसके क्षेत्र में शावक रह रहे थे, उनकी रक्षा कर रहा था। जहां अब तक यह माना जाता था कि, शावकों के पालन-पोषण में नर की कोई भूमिका नहीं होती है T25 के इस व्यवहार ने नर बाघों की अपनी संतानों की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन शावकों के पालन के दौरान किए गए प्रेक्षणों से पता चला कि, बाघों के व्यवहार को समझ पाना इतना आसान नहीं है और संतान के अस्तित्व में पिता की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
इन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगातार प्रयाप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराये जाना बहुत जरुरी था और वो भी ऐसे कि, किसी दूसरे शिकारियों का ध्यान आकर्षित न हो। इसीलिए भोजन की मात्रा और देने की विधि समय-समय पर बदली जाती थी। विभाग द्वारा वैकल्पिक भोजन प्रदान कर, शावकों को शिकार करने के कौशल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। जिसमें शुरुआत में, वो बहुत अनाड़ी और बड़ी मुश्किल से अजीब तरीके से शिकार को मारते थे और उस समय तो बकरी भी शावकों पर हमला करने का साहस करती थी। हालांकि, शावकों ने तेजी से सीखा और जल्द ही वन्यजीवों को मारने में माहिर हो गए। इन शावकों के पालन-पोषण के दौरान, यह भी देखा गया कि, उनका पिता T25 उन्हें अपने द्वारा किए गए शिकारों को खाने के लिए ले जाता था।
चूंकि अब इस क्षेत्र पर किसी भी बाघिन का कब्जा नहीं था, T17 झीलों के आसपास रहने वाली बाघिन ने अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया, और खतरनाक रूप से उस क्षेत्र के करीब आ गई जहां अनाथ शावक रह रहे थे। ऐसे में एक वीडियो फुटेज सामने आया जिसमें बाघ T25, बाघिन T17 को डरा रहा था, क्योंकि वह शावकों का पीछा कर रही थी, और T25 स्पष्ट रूप से उसे शावकों से दूर रहने की चेतावनी दे रहा था। B1 और B2 वास्तव में भाग्यशाली थे कि, उन्हें अन्य बाघों से बचाने के लिए T25 जैसा पिता मिला।
नर बाघ T25 (मध्य में) अपने शावकों को बाघिन T17 से बचाते हुए | (फोटो: देश बंधु वैद्य)
अचानक से दस दिनों के लिए शावक गायब हो गए। विभाग ने तुरंत उनकों खोजना शुरू किया और हर उस इलाके को खोजै गया जहाँ उन्हें ः२५ के साथ देखा गया था परन्तु कोई निशान नहीं मिला।
फिर एक दिन, एक गार्ड ने अधिकारियों को सूचित किया कि, उसने एक पहाड़ी पर कुछ हिलते हुए देखा है। जब खोज दल लगभग आधा ऊपर चढ़ गया, तो उन्हें एक ऐसी जगह पता चली जो दो चट्टानों के बीच एक गहरी दरार थी और एक गुफा बनाती थी और वह इतनी संकरी थी कि उसमें केवल शावक ही घुस सकते थे। दरार के निचले हिस्से में एक अर्ध-गोलाकार चबूतरा सा था। शावक इसी दरार में रह रहे थे, बाहर आकर चबूतरे पर एक-दूसरे का पीछा करते और खेलते। दरार के पास, ऊपर की ओर लटकी हुई चट्टान थी, जिससे एक जल धारा बहती थी और तेज गर्मियों के दौरान भी वहां पानी का एक छोटा सा भरा रहता। उन छोटे शावकों ने इस शानदार घर की खोज कैसे की यह बात अपने आप में ही एक रहस्य है।
जैसे-जैसे शावक बड़े हुए, उन्हें धीरे-धीरे और बहुत सावधानी से विभाग द्वारा दिए जाने वाले शिकार की आदत छुड़वाई। धीरे-धीरे, उन्होंने अपने आप वन्यजीवों का शिकार करना शुरू कर दिया। हालांकि, बाघिन T17 का लगातार दबाव बना हुआ था, और वह इन शावकों के प्रति असहिष्णु हो रही थी। जिसके चलते, दोनों शावकों ने पार्क की बाहरी सीमा में अपना क्षेत्र बना लिया। उन्होंने क्षेत्र को दो इलाकों में बाँट लिया, और एक ऐसा क्षेत्र के बीच में रखा जहां वे अक्सर मिलते और साथ समय बिताते थे। परन्तु वे पार्क की सीमा के पास रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष में आ सकते थे, इसलिए अधिकारियों द्वारा उन्हें सरिस्का भेजने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2013 की सर्दियों में उन्हें सरिस्का भेज दिया गया था और उनमें से एक ने शावकों को भी जन्म दिया, जो इस कहानी की सफलता में और सकारात्मकता भर देती है।
सरिस्का में शावक B2। सरिस्का में स्थानांतरित होने के बाद शावकों को जन्म देने के बाद यह तस्वीर क्लिक की गई थी। फोटो: भुवनेश सुथार
झीलों की रानी और उसके तीन शावक
बाघिन T17 उर्फ़ लेडी ऑफ़ थे लेक्स (Lady of the Lakes) ने राजबाग झील के पास तीन शावकों को जन्म दिया था। जब बारिश का मौसम शुरू हुआ तो उसे अपने शावकों को उस जगह से ले जाना पड़ा, और वह झील के किनारे के इलाके को छोड़ कर काचिदा से आगे भदलाव नामक स्थान पर चली गई। वर्ष 2013 की सर्दियों में वह किसी अन्य बाघ के साथ लड़ाई में बुरी तरह घायल पाई गई थी। यह देख विभाग कर्मियों द्वारा उसका इलाज किया गया; उसके घाव गहरे थे जिनमें कीड़े पड़े हुए थे। उसे शिकार भी दिया गया ताकि वो खुद से शिकार करने की कोशिश में अपने घावों को और न बढ़ा ले। चोट लगे होने के बावजूद, अगले ही दिन वह नर बाघ T25 से लड़ती हुई पाई गई। और शायद तीन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने का दबाव पहली बार मां बनने वाली बाघिन के लिए मुश्किल साबित हो रहा था। फिर अप्रैल 2013 में, भदलाव इलाके में 10 महीने के तीन शावकों (2 नर और एक मादा) को छोड़कर, वह लापता हो गई। संयोग से ये शावक भी उसी क्षेत्र में थे जहां T5 के शावक थे। कई लोगों को उम्मीद थी कि, उनकी देखरेख भी T25 कर लेगा। भले ही वे उसके साथ B1 और B2 की तरह देखे नहीं गए थे, लेकिन यह स्पष्ट था कि, T25 ने इन अनाथ शावकों को सुरक्षा प्रदान की थी।
एक जंगल में अनाथ शावकों का भविष्य बड़ा ही अनिश्चित सा होता है। मां के बिना, कमजोर और असहाय शावकों के लिए जंगल एक क्रूर स्थान होता है जहाँ अन्य सभी जानवर व बाघ उनके दुश्मन होते हैं। लेकिन इस निराशाजनक स्थिति में भी वन प्रबंधकों के प्रयास और नियति रणथंभौर के इन अनाथ बच्चों के पक्ष में ही रही है।
(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)
Cover photo credit: Dr. Dharmendra Khandal
अंग्रेजी आलेख “Foster Cubs” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम दिसंबर 2018 में Saevus magazine में प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://www.saevus.in/foster-cubs/