सीतामाता अभयारण्य में पाए जाने वाला कॉमन ट्री फ्रॉग एक ऐसी मेंढक प्रजाति है जो अन्य मेंढकों की तरह पानी में नहीं बल्कि पेड़ पर रहना ज्यादा पसंद करती है। प्रस्तुत आलेख द्वारा जानिये इसके बारे में…
चितोड़गढ़ और प्रतापगढ़ जिले में स्थित “सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य” जैव विविधता के दृष्टिकोण से राजस्थान के सबसे समृद्ध अभयारण्यों में से एक है। इस अभयारण्य का क्षेत्रफल लगभग 422.94 वर्ग किमी है और यह अभयारण्य अरावली, विंध्य और मालवा पठार के संगम पर स्थित है, जो अपने बांस और सागौन वनों के लिए जाना जाता है।
सीतामाता अभयारण्य का पारिस्थितिक तंत्र कई दिलचस्प और दुर्लभ जीवों एवं वनस्पतिक प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह उभयचरों (Amphibians) में भी समृद्ध है। राजस्थान में टॉड और मेंढकों की सबसे ज्यादा प्रजातियां यहीं पायी जाती हैं तथा राजस्थान से ज्ञात सभी मेंढक और टॉड प्रजातियां इस अभयारण्य के भीतर और आसपास उपलब्ध हैं। यहाँ से उभयचरों की 13 प्रजातियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से दो प्रजातियाँ – कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus) और पेंटेड कलौला (Painted Kaloula (Kaloula taprobanicus) अभयारण्य के विशेष हैं।
सीतामाता के वनों को छोड़कर, ये दोनों प्रजातियाँ राजस्थान के किसी और अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान में अभी तक नहीं पायी गई हैं। वर्ष ऋतु इन दोनों प्रजातियों को देखने के लिए सबसे अच्छा समय है, विशेष रूप से पहली कुछ वर्षा, जो इन मेंढकों का पता लगाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। जहाँ एक तरफ पेंटेड फ्रॉग राजस्थान का सबसे सुंदर मेंढक है, जिसकी पीठ, हाथ और पैरों पर विशिष्ट काला-भूरा और गहरा लाल रंग होता है, वहीँ दूसरी ओर हल्के भूरे बिलकुल गैर-आकर्षक रंग वाला के कॉमन ट्री फ्रॉग राज्य का सबसे विशिष्ट मेंढक है।
कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus)
वंशावली (Genealogy):
दुनिया में विभिन्न प्रकार के आवासों जैसे कि, नम भूमि, जल स्रोत और यहां तक कि झाड़ियां और पेड़ों पर कई मेंढक प्रजातियां व्यापक रूप से पायी जाती हैं। पेड़ और झाड़ियों पर पाए जाने वाले मेंढक Rhacophoridae कुल के होते हैं जिसमें अलग-अलग आकार के मेंढक शामिल हैं। उनका आकार (थूथन से मलद्वार तक लंबाई) 2.0 सेमी से 10.0 सेमी तक होता है। विश्व में Rhacophoridae कुल के मेंढक मुख्य रूप से पूर्वी देशों तक ही सीमित हैं। हालांकि, इस कुल के कई सदस्यों को मेडागास्कर और एक वंश Chiromatis- अफ्रीका से दर्ज किया गया है।
भारत में, Rhacophoridae कुल के छह वंश; Rhacophorus, Polypedates, Phailautus, Chrixalus, Nyctixalus और Theloderma पाए जाते हैं। जबकि राजस्थान में केवल एक वंश-पॉलीपेडटीस (Polypedates) और उसकी भी केवल एक ही प्रजाति Polypedates maculatus पायी जाती है, जो वर्षा ऋतु में सीतामाता अभयारण्य के आसपास, विशेष रूप से इमारतों के पास दिखाई देती है। इनके पिछले पतले और लम्बे पैरों की मदद से, यह प्रजाति लंबी छलांग लगा सकती है हालाँकि यह अच्छी तरह से तैरने में सक्षम हैं, परन्तु फिर भी ये पानी में नहीं रहते हैं।
कॉमन ट्री फ्रॉग (पॉलीपीडेट्स मैक्यूलैटस) एक आर्बोरियल मेंढक है अर्थात यह पेड़ व वनस्पतियों पर रहता है। इसकी हाथ की उंगलियों और पैर की उंगलियों पर चिपचिपा पदार्थ स्त्रावित करने वाली पतली डिस्क होती हैं। चिपचिपी डिस्कों की मदद से, यह मेंढक दीवारों और पेड़ के तनों के ऊर्ध्वाधर सतहों पर चढ़ने की क्षमता रखता है। कॉमन ट्री फ्रॉग की आँखें बड़ी और इनकी पुतलियां क्षैतिज (Horizontal) होती हैं। इस प्रजाति में नर आकार में मादा से छोटे होते हैं। इनके कानों के पर्दे “टाइम्पेनम (Ear-drum)” आंख के व्यास का लगभग तीन-चौथाई होते हैं। इनकी अगली भुजाओं की उँगलियों में झिल्ली होती है, जबकि पैर की उँगलियों में झिल्ली पूरी तरह से विकसित होती है।
इस मेंढक का रंग हल्का ही होता है – इसकी पीठ भूरे-पीले-हरे रंग की होती है जिसपर गहरे रंग के धब्बे होते हैं। जांघ के पास असमान आकार के गोल-गोल पीले धब्बे होते हैं, जो आमतौर पर गहरे भूरे रंग के पैरों से अलग होते हैं। कॉमन ट्री फ्रॉग में कुछ हद तक अपना रंग बदलने की क्षमता होती है, जो इसे प्रकृति द्वारा दिया गया एक सुरक्षात्मक उपाय है जिससे यह परिवेश के अनुसार छलावरण करता है।
विशिष्ठ गुण (Typical features):
कॉमन ट्री फ्रॉग एक प्रायद्वीपीय प्रजाति है, जो नम पर्णपाती जंगलों में रहना पसंद करती है। एक छोटी अवधि को छोड़कर, मानसून की शुरुआत के बाद, से ही यह आमतौर पर पूरे वर्ष इमारतों और उद्यानों में देखा जाता है। मानसून की समाप्ति के बाद जब बाहरी परिस्थितियां शुष्क हो जाती हैं, तो यह मानव घरों में वापस आ जाती है, और आमतौर पर स्नान घरों के अंदर और अन्य सुरक्षित, शुष्क स्थान (यदि उपलब्ध हो तो नम) में छिप जाती है।
दिन के दौरान, ये आमतौर पर पानी से दूर रहते हैं, लेकिन शाम होते ही ये बहार निकलते हैं और सबसे पहले ऐसे स्थानों पर जाते हैं, जहां उन्हें पानी मिलने की संभावना होती है। नम स्थानों में जाने से पहले, ये आकार में छोटे लगते हैं। ये कभी भी सीधे अपने मुंह से पानी नहीं पीते हैं, बल्कि अपनी त्वचा के माध्यम से पानी को अवशोषित करने के लिए काफी समय तक गीले स्थान पर बैठते हैं। पानी में बैठे रहने के बाद इनका आकार बड़ा हो जाता है।
अच्छी तरह से नमी सोखने के बाद, ये भोजन करने के लिए अपनी गतिविधि शुरू करते हैं और पूरी रात सक्रिय रहते हैं। प्रातःकाल होने से पहले ही ये अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाते हैं। आराम करते समय, टांगों को शरीर के नीचे अच्छी तरह से इकट्ठा कर लिया जाता है। दिन के इस समय, एक “सेवानिवृत्त” मेंढक सुस्त हो जाता है और उसे कुदाने और भागने के लिए काफी उकसाने की आवश्यकता होती है।
कई मेंढक प्रजातियों के विपरीत, कॉमन ट्री फ्रॉग नर में प्रजनन काल के दौरान विशेष प्रकार की कॉल करने के लिए एक उप-गूलर (sub-gular) थैली होती है। मानव घरों के अंदर, नर गर्मियों के अंत में बोलना शुरू करते हैं। तक- तक- तक या डोडो-डोडो-डोडो इनकी सामान्य आवाज़ होती है। बरसात के मौसम में ये मानव घरों को छोड़ देते हैं और प्रजनन गतिविधियों के लिए वनस्पति क्षेत्र में चले जाते हैं। और इस समय में झाड़ियों और पेड़ों के पास से नरों की आवाज़ को सुना जा सकता है।
उपयुक्त स्थान (Suitable sites):
अन्य मेंढकों की तरह, इस प्रजाति की मादाएं सीधे पानी में अंडे नहीं देती हैं, बल्कि ये अंडे झागनुमा-घोंसले में रखती हैं, जो की पेड़ों पर, पानी के टैंकों, जल भराव क्षेत्रों, नालों आदि पर रखा जाता है। सफेद रंग का झागनुमा-घोंसला रंग में सफ़ेद और आकार में अर्ध गोलाकार होता है जिसमें अंडे बिखरे हुए होते हैं। यदि नियमित रूप से बारिश नहीं हो रही हो और सूखे की स्थिति बनी रहे तो ये झागनुमा-घोंसला अंडों को पानी की कमी से बचने में मदद करता है। भ्रूण का प्रारंभिक विकास इन झागनुमा-घोंसलों में ही होता है। टैडपोल के उभरने के बाद, वे नीचे मौजूद पानी में कूद जाते हैं और उनका बाकी विकास जलस्रोतों में होता है।
सीतामाता अभयारण्य के बाहरी इलाके में बांसी नामक गांव में इमारतों पर यह कॉमन ट्री फ्रॉग अक्सर देखा जाता है। ये सीतामाता अभयारण्य के दमदमा द्वार पर स्थित वन चौकी के आस-पास भी देखे जाते हैं। सीतामाता के अंदर व सीमा पर स्थित सभी वन चौकियां इस मेंढक को देखने के लिए उपयुक्त स्थान हैं। यह प्रजाति बांसवाड़ा शहर में भी देखी गई है। इस प्रकार राजस्थान में, कॉमन ट्री फ्रॉग की वितरण सीमा बहुत ही सीमित है, इसलिए इसे उचित रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए।
स्वरूपाराम, एक ऐसा वन रक्षक जिसने न सिर्फ जंगल की आग बुझाकर वन्यजीवों की जान बचाई है बल्कि अपनी जान पर खेल कर अपने साथियों की भी रक्षा करी…
रेतीले धोरों की धरती बाड़मेर के एक छोटे से गांव खोखसर में जन्मे “स्वरूपाराम गोदारा” आज वनरक्षक (फॉरेस्ट गार्ड) के रूप में वन-विभाग में भर्ती होकर वन पर्यावरण व जीव जंतुओं के प्रति समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं। खोखसर, वह गांव है जहाँ से जाबाज़ प्रतिभावान “श्री खेताराम सियाग” आते हैं जिन्होंने रियो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। ये ऐसा क्षेत्र है जहाँ से स्वरूपराम गोदारा एकमात्र व्यक्ति हैं जो वन विभाग में कार्य कर रहे हैं और वर्तमान में ये अपने गांव ही नही बल्कि उस क्षेत्र के सभी युवा व आमजन के लिए एक प्रेरणा का केंद्र बने हुए हैं। आज उसी का परिणाम हैं कि उस क्षेत्र के सेंकडो युवा वनरक्षक भर्ती प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयारी भी कर रहे हैं।
स्वरूपाराम गोदारा का जन्म 8 जुलाई 1993 को बाड़मेर जिले की गिड़ा तहसील के खोखसर गांव में एक किसान परिवार में हुआ। खोखसर गांव जैसलमेर, बाड़मेर व जोधपुर की सीमा पर बसा हुआ एकमात्र गांव है जो इन तीनों जिलों का केंद्र बिंदु है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में व उच्च शिक्षा हीरा की ढाणी बाड़मेर में हुई। इनकी विशेषतया कबड्डी में काफी रुचि थी और विद्यालय से ये कई बार जिला स्तर पर कबड्डी खेल चुके हैं। पढाई के दौरान ही इनकी “टीपू देवी” से शादी हो गई थी और आज इनके दो जुड़वा बच्चे भी हैं। बच्चों के बारे में इनके मन में एक सपना हैं कि ये पढ़ लिख कर वन्यजीव संरक्षण के महत्व को समझे और इसी क्षेत्र में आगे बढ़े। स्वरूपाराम की पत्नी टीपू देवी एक ग्रहणी महिला हैं तथा वह अपने घर परिवार को संभालने हेतु गांव में ही रहती हैं। टीपू बाई अशिक्षित जरूर हैं लेकिन वे अपने परिवार के सभी लोगों व बच्चों को स्वरूपाराम के कार्यक्षेत्र को एक कहानी के रूप में सुनाती रहती हैं।
राजस्थान वन विभाग द्वारा निकाली गई वनरक्षक भर्ती परीक्षा 2015 में इनका चयन हुआ और 13 अप्रैल 2016 को इन्होंने पहली बार माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य में ज्वाइन किया। यहां जॉइन करने के तीन महीने बाद ही इनका चयन सीमा सुरक्षा बल में हो गया था लेकिन प्रकृति व वन्यजीवों के मोह ने इनको वहां से जाने की इजाजत नही दी। ये वनविभाग के साथियों के साथ घुल मिल गए थे और इनमें वन्य क्षेत्र में कार्य करने की रुचि भी बढ़ गयी थी। अभी पांच माह पूर्व ही इनका स्थानांतरण वन मण्डल उपवन संरक्षक बाड़मेर के अधीन हो गया है।
वन में गश्त करते हुए
माउंट आबू अभयारण्य में काम करने के दौरान इन्होने बहुत ही सराहनीय कार्य किये है जिसमें सबसे मुख्य है “उपवन संरक्षक” की जान बचाना। यह बात है कोरोनाकाल की जब नगरपालिका द्वारा वन्य क्षेत्र में साफ-सफाई के लिए अभियान चलाया गया था। इस अभियान के लिए मजदूर भी नगरपालिका की तरफ से ही थे तथा उनकी देखभाल व निगरानी का जिम्मा वन- विभाग कर्मियों का था। स्वच्छता अभियान चल ही रहा था कि, एक दिन स्वरूपाराम सहित उपवन संरक्षक महोदय (श्री बालाजी करी) और एक नेचर गाइड वन में ट्रेकिंग के लिए निकले। ये साथ-साथ आसपास के कचरे का संग्रहण करते हुए आगे बढ़ रहे थे और वन में स्थित अगलेश्वर महादेव मन्दिर पर पहुंच गए। इस मंदिर पर साधु के भेष में एक बाबा रहते थे तो वह साधु बाबा इनसे पूछने लगे कि आप आगे कहां जा रहें हैं ? इन्होने उत्तर दिया कि हम वन विभाग वाले हैं और गश्त के लिए आए हैं। जैसे ही ये नीचे की ओर गए तो वहाँ पर 4-5 साधु और बैठे थे जो अनैतिक गतिविधियां कर रहे थे। तभी पीछे से जो बाबा पहले मिले थे वो भी वहीं आ गए। उपवन संरक्षक साहब ने उनको रोका कि “यह प्रतिबंधित क्षेत्र है और यहाँ नगरपालिका द्वारा साफ सफाई का अभियान चला रहा है और आप इस तरह से यहाँ गंदगी फैला रहे हो, यह उचित नहीं है”। यह बात सुनते ही साधू लोग लड़ाई पर उतारू हो गए और उन्होंने लाठी-डंडे उठा लिए और हमला कर दिया। मुठभेड़ के दौरान स्वरूपाराम के सिर में चोट भी आई लेकिन उन्होंने कोशिश कर के हमलावरों से लाठी छीन ली। परन्तु उनके पास एक कुल्हाड़ी और थी जैसे ही वो कुल्हाड़ी लेकर उपवन संरक्षक की तरफ दौड़े, तो स्वरूपाराम बीच में आ गए और कहा कि “मुझे मार लो पर मेरे बॉस (उप वनसंरक्षक) को कुछ नही होना चाहिए”। यह बात सुन कर भी वह साधु नहीं रुका और जैसे ही वह स्वरूपाराम को मारने के लिए आगे बढ़ा तो स्वरूपाराम ने कुल्हाड़ी को पकड़ लिया और हिम्मत दिखाते हुए उपवन संरक्षक साहब व नेचर गाइड को ऊपर भेजा। जब तक वे ऊपर नही पहुँचे तब तक स्वरूपाराम ने कुल्हाड़ी को रोके रखा। उप वनसंरक्षक के वहां से सुरक्षित निकलते ही स्वरूपाराम भी फुर्ती से वहाँ से निकल लिए।
लगभग सभी संरक्षित वन क्षेत्रों में धार्मिक स्थल स्थित हैं जो की लगातार वन कर्मियों के लिए मुश्किल बने हुए हैं क्योंकि यहाँ पर साधू के रूप में लोग रहने लग जाते हैं जो अनैतिक गतिविधियों को अंजाम देते हैं और इन स्थानों पर आने वाले दर्शनार्थियों की वजह से जंगल में कचरा भी फैलता है।
वरिष्ठ अधिकारियों के साथ गश्त पर स्वरूपाराम
स्वरूपाराम बताते हैं कि माउंट आबू वन्यजीव क्षेत्र में आग लगने की गंभीर समस्या है, गर्मियों के मौसम में अक्सर वहां आग लगती रहती है जिससे न सिर्फ पेड़ों बल्कि वन में रहने वाले जीवों को बहुत नुक्सान पहुँचता है। स्वरूपाराम के अनुसार यहाँ आग लगने के कुछ मुख्य कारण हैं; आबू पर्वत के चारों ओर व ऊपर के भाग में बहु संख्या में आदिवासी गरासिया जनजाति निवास करती है। यह लोग जंगलों में ही रह कर अपना जीवन यापन करते हैं। पौराणिक मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार जब इनके घर, परिवार व समाज में कोई उत्सव या उत्साह का माहौल होता है तो यह लोग जंगल में आग लगाते हैं जिसको “मगरा जलाना” कहते हैं। इस खुशी के माहौल में यह लोग वनों में रहते हुए भी इस प्रकृति के महत्व को नहीं समझ पाते हैं। ऐसी घटनाओं से जीव-जंतुओं व पेड़ पौधों का नुकसान होता हैं और यह वन विभाग के लिए एक गंभीर चिंता का विषय हैं। आदिवासियों के अलावा यहां बांस के थूरों की बहुतायता है और गर्मी में बांस में घर्षण के कारण भी यहाँ आग लग जाती हैं।
एक बार इसी आदिवासी समुदाय की लापरवाही के कारण वन में आग लगा दी गयी और आग इतनी जबरदस्त थी कि, वह धीरे-धीरे करीब 500 हेक्टेयर वन्य क्षेत्र में फैल गई। पिछले तीस वर्षों में ऐसी भयावह आग कभी नहीं देखी थी और इस आग को लेकर स्थानीय लोग भी डरे हुए थे।
उस समय स्थिति ऐसी बन गई कि आग बुझाने के लिए वन विभाग को हेलीकॉप्टर उपयोग में लेना पड़ा, परन्तु वह प्रयास कारगर साबित नहीं हो पाया। क्योंकि हेलीकॉप्टर पानी भर कर जब तक ऊपर पहुंचता था तब तक 15 मिनट का समय लग जाता था और आग काफी तेजी के साथ आगे बढ़ रही थी। उस भयानक स्थिति को देखते हुए वायुसेना के जवान भी सहायता के लिए बुलाए गए और उपवन संरक्षक ने लोहे के पंजे मंगवाए और जिसकी सहायता से सभी कर्मियों ने झाड़ियों व वृक्षों को आग से दूर करना शुरू किया, लम्बी झाड़ियों को कुल्हाड़ी से काटकर आग से दूर किया और लगातार 17 दिन के प्रयास के बाद आग पर काबू हो पाया।
इसके बाद स्वरूपाराम ने जंगल में आग बुझाने के लिए कई तरीके सुझाये और नए रास्तों का पता लगाया जिनका आग के समय में इस्तेमाल किया जा सकता है।
जंगल में लगी आग को बुझाते हुए स्वरूपाराम
स्वरूपाराम बताते हैं कि विभाग में वन्य प्रबंधन सबसे बड़ी चुनौती है जैसे आग की घटनाएं, शिकारियों की घटनाएं व जंगल में बाहर से घूमने का बहाना लेकर कुछ असामाजिक तत्वों के जमावड़ा आदि प्रमुख़ हैं। इनकी निगरानी के लिए उच्च अधिकारियों के मार्गदर्शन व ग्रामीणों के सहयोग से समाधान निकालना पड़ता है। स्थानीय ग्रामीण लोगों के सहयोग से ही घने जंगल, दुर्गम पहाड़ी, रास्ता खोजना व अवैध गतिविधियों के बारे में जानकारी मिलती रहती हैं।
माउंट आबू एक घना जंगल है और यहां भालुओं की आबादी भी अच्छी है और उनके लिए प्रयाप्त भोजन भी है। वन्यजीव गणना के मुताबिक माउंट आबू के संरक्षित क्षेत्र के जंगलों में लगभग 300 से अधिक भालू हैं। यहां अक्सर सड़क के किनारे भालू को घूमते हुए देखा जा सकता है और कभी कभार भालू आबादी क्षेत्र में भी घुस जाते हैं। एक बार भालू जंगल से बाहर निकल कर गाँव गुफानुमा के आबादी क्षेत्र में आ गया और एक घर में अंदर घुस गया। आसपास के लोगों के द्वारा विभाग के पास सूचना पहुंची और स्वरूपाराम एवं टीम ने मौके पर पहुँचकर उसे देखा तो वह न तो आगे जा पा रहा है और न ही पीछे आ पा रहा था। तभी स्वरूपाराम ने सूझबूझ से काम लेते हुए पिंजरा मंगवाया और उसे सही सलामत रेस्क्यू करके जंगल मे ले जाकर छोड़ दिया।
वन क्षेत्र में कार्य करने के दौरान कई बार अवैध शिकार की घटनाएं सामने आती हैं और इस प्रकार की घटनाओ में स्वरूपाराम ने बड़ी ही हिम्मत और सतर्कता से कार्य करते हुए शिकारियों को भी पकड़ा है। एक बार ड्यूटी के दौरान आबू क्षेत्र के ज्ञान सरोवर के पास स्वरूपाराम गश्त कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक शिकारी ने भालू को पकड़ने के लिए तार का फंदा लगा रखा था और उसी जगह के आसपास भालू के बाल, अंग व नाखून बिखरे हुए थे। स्वरूपाराम व उनके साथियों ने शिकारी को खोजना शुरू कर दिया। काफी कोशिशों के बाद आसपास के ग्रामीण लोगों द्वारा मालूम हुआ की यह शिकारी और कोई नहीं बल्कि सोमाराम था जो योगी समाज का व्यक्ति था और लगातार शिकार की घटनाओं में शामिल रहता था तथा कभी पकड़ा नहीं जाता था। सारी सुचना मिलते ही स्वरूपाराम व उनकी टीम ने शिकारी को गिरफ्तार करने के लिए एक गुप्त योजना बनाई। योजना के मुताबिक स्वरूपाराम भेस बदलकर शिकारी के घर एक ग्राहक बनकर गए। शिकारी के घर पर एक महिला मौजूद थी जिससे स्वरूपाराम भालू के कुछ अंगों की जरूरत व उनको खरीदने की इच्छा के बारे में बताया। उस महिला ने कहा कि “अभी घर पर कोई नहीं है मेरा बेटा अभी बाहर है उसको आने दो मैं आपको दे दूंगी”। स्वरूपाराम ने मोबाइल नंबर ले लिए और उसको कॉल करके ग्राहक की तरह बात करी। सामने ग्राहक देख शिकारी भी पैसों के प्रलोभन में आ गया और सौदा पक्का कर दिया। फिर सौदा होने की जगह पर विभाग की पूरी टीम ने छापा मारा और शिकारी सोमाराम और उसके बेटे को पकड़ लिया। गिरफ्तार होने के बाद उसने कई राज भी खोलें और उसके बाद ऐसा सबक लिया कि उसने शिकार करने का धंधा ही छोड़ दिया।
स्वरूपा राम बताते हैं कि माउंट आबू अभ्यारण्य का पूरा क्षेत्र पिकनिक स्पॉट के लिए प्रसिद्ध है देश-विदेश के सैलानी यहाँ पर आते-जाते रहते हैं। सैलानियों को लेकर भी वन प्रबंधन काफ़ी चिंतित रहता हैं क्योंकि कुछ ऐसी किस्म के लोग भी यहाँ आते हैं जिनको वन संपदा व वन्यजीवों के महत्व से कोई मतलब नहीं होता बल्कि ये लोग सिर्फ मौज मस्ती के लिए घूमने यहाँ आते हैं। वन्य क्षेत्र में कचरा फैलाना, शराब पीना ऐसी अनैतिक गतिविधियों से परेशान होकर स्वरूपाराम उनको समझाते भी है परन्तु लोगों के बर्ताव में कोई फर्क नहीं आया। और जब
ऐसी गतिविधियां बढ़ने लगी तो विभाग वालों ने कैमरा लगाना शुरू कर दिया जिसके बाद कोई भी वन में अवैध रूप से आता था तो उन्हें पकड़ कर कार्रवाई करी जाने लगी।
स्वरूपराम समझते हैं कि आज जिस तरह से अवांछित मानवीय गतिविधियों के कारण पर्यावरण ख़राब हो रहा है उसके लिए जंगलों को सख्ती से बचाने और बनाए रखने की बहुत बड़ी जरूरत है। केवल ऐसा करने से हम सभी जीवों के भविष्य को बचा सकते हैं। दुनियाभर के वैज्ञानिक, पर्यावरण विशेषज्ञ, आदि वन संरक्षण की आवश्यकता पर ज़ोर दे रहे हैं। सरकारों ने जंगली प्रजातियों की रक्षा के लिए अभयारण्य बनाए हैं। वन संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण काम संभवतः ‘वृक्षारोपण’ सप्ताह देखकर किया नहीं जा सकता। इसके लिए वास्तव में महत्वपूर्ण योजनाओं की तर्ज पर काम करने की आवश्यकता है। यह भी एक या दो सप्ताह या महीनों के लिए नहीं बल्कि सालों के लिए तभी तो पृथ्वी का जीवन उसके पर्यावरण और हरियाली की सुरक्षा संभव हो सकती है।
प्रस्तावित कर्ता: श्री बालाजी करी (उप-वन संरक्षक उदयपुर (उत्तर), डॉ सतीश कुमार शर्मा (सेवा निवृत सहायक वन संरक्षक उदयपुर)
लेखक:
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
बाघ हमेशा पानी में सावधानी से प्रवेश करता है क्योंकि पानी में अनजान खतरे हो सकते हैं। यहाँ एक बाघिन अपने दो शावकों के साथ रणथम्भोर के एक तालाब के किनारे खड़ी होती है, जहाँ से उसे पानी के मध्य स्थित एक छोटे टापू पर जाना है।
तभी एक शावक छलांग लगा कर उस टापू पर पहुंच जाता है।
शावक को आगे जाता देखा उसकी सुरक्षा में बाघिन को भी उसके पीछे जाना पड़ता है, लेकिन तभी बाघिन को पानी में एक मगरमछ की झलक दिखाई देती है।
वो तुरंत शावकों को वापस जाने के लिए मोड़ लेती है। इस बार सबसे आगे बाघिन रहती है, परन्तु उसका पूरा ध्यान पीछे रहे उसके शावकों पर ही होता है।
माँ के पीछे शावक भी छलांग लगाते हैं पहला शावक पानी में गिर जाता है जिसे देख बाघिन चिंतित हो जाती है और परन्तु शावक तुरंत पानी से बाहर निकल जाता है।
दोनों शावक सही सलामत अपनी माँ तक पहुंच जाते हैं और वो तीनों वहां से चले जाते हैं।
राजस्थान के जंगली मुर्गे (Grey Jungle fowl Gallus sonneratii) पर अग्रवाल (1978,1979), अनाम (2010), अली एवं रिप्ले (1983), ओझा (1998), सहगल (1970), शर्मा (1998, 2007, 2017), तहसीन एवं तहसीन (1990) के अध्ययन का अवलोकन करने पर इस मुर्गे पर अच्छी जानकारी मिलती है लेकिन वितरण संबंधी पूर्ण ज्ञान अनुपलब्ध है। प्रस्तुत लेख में इस प्रजाति के वितरण संबंधी जानकारी को समाहित किया गया है। जंगलीे मुर्गे की राजस्थान के विभिन्न जिलों के भिन्न – भिन्न क्षेत्रों में उपस्थिति को जाँचने हेतु उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य का अध्ययन किया गया एवं सर्वे के द्वारा प्राथमिक तथ्य संग्रहीत किये गये। वितरण संबंधी उपलब्ध सूचनाएं सारणी 1 में प्रदर्शित की गई हैं।
नर ग्रे जंगल फाउल (फोटो: श्री ऋषिराज सिंह देवल)
मादा ग्रे जंगल फाउल (फोटो: श्री ऋषिराज सिंह देवल )
सारिणी – 1: ग्रे जंगल फाउल का राजस्थान में वितरण
क्र.सं.
जिला
स्थान
वर्तमान में उपस्थिति
सन्दर्भ
1
उदयपुर
लादन वन क्षेत्र
उपस्थित
तहसीन एवं तहसीन (1990), शर्मा (2007, 2017)
फुलवारी अभयारण्य, रामकुण्डा, तिनसारा, धरियावद, मानसी वाकल नदी के गुजरात सीमा तक किनारे, तोरना वन खण्ड
उपस्थित
शर्मा (2007, 2017), श्री रजा तहसीन (निजी वर्तालाप 2005)
पई, डोडावली, देवास, कर्नावली, उभेश्वर (उबेश्वर), नाल मोखी, ओगना, साण्डोल की नाल, सूरजबारा (पडावली के पास), खैरवाडा, बेडावल (सलुम्बर के पास), कोडियात, मोरवानिया, पुराना श्रीनाथ (घसियार), कुण्डेश्वर, दडीसा, अगदा, पागा, वनक्षेत्र, जामुडिया (जामुनिया) की नाल, गोगुन्दा (मजार के पास), खैरवाडा, धरियावद
वर्ष 1960 तक उपस्थित, वर्तमान में अनुपस्थित
श्री रजा तहसीन (निजी वर्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
2
उदयपुर, पाली, राजसमंद
कुंभलगढ़ अभयारण्य
उपस्थित
शर्मा (2007, 2017)
3
पाली, राजसमंद, अजमेर
टॉडगढ़ -रावली अभयारण्य (कालीघाटी भीलबेरी व काबरदाता क्षेत्र में अधिक दिखते हैं)
उपस्थित
शर्मा (2007, 2017)़
4
सिरोही
माउन्ट आबू
उपस्थित
सिंह एवं सिंह(1995)
अग्नेश्वर मंदिर (देलवाडा से 2 किमी. पश्चिम में)
उपस्थित
शर्मा (2007, 2017)
रेवदर, नीमाज, रव्वा बड़वज वन क्षेत्र
1961 तक उपस्थित, वर्तमान में नहीं
डॉ . रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
मोरस वन क्षेत्र
1970 तक उपस्थित, अब अनुपस्थित
डॉ . रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005)
5
उदयपुर, चित्तौड़गढ़ एवं प्रतापगढ़
लव-कुश आश्रम, वाल्मिकी आश्रम (सीतामाता अभयारण्य)
उपस्थिति
शर्मा (2007 2017), श्री. पी. सी. जैन उपवन संरक्षक (निजी वार्तालाप 2016), श्री मनोज पराशर उपवन संरक्षक (निजी वार्तालाप 2009)
6
चित्तौडगढ़
बस्सी
1970 तक उपस्थित लेकिन अब अनुपस्थित
ठाकुर विजय सिंह राव (निजी वार्तालाप 2014), मेजर दुर्गा दास (निजी 7वार्तालाप 2016),
सीतामाता अभयारण्य के क्षेत्रों के अलावा अन्य वन क्षेत्र
1970 तक सभी जगह उपस्थित लेकिन अब केवल सीतामाता अभयारण्य में उपस्थित
श्री रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
10
राजसमन्द
कटार, बरवाडा
1970 तक पश्चिमी ढाल के वनों में उपस्थित (पूर्वी ढाल में तत्समय नहीं थे)। वर्तमान में अनुपस्थित
श्री रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
उपरोक्त सारणी की सूचनाओं से स्पष्ट है कि जंगली मुर्गे का वितरण क्षेत्र 1960 से 2020 तक गत 60 वर्षो में राजस्थान में काफी कम हुआ है (चित्र 1)। यह प्रजाति मुख्यतः दक्षिणी राजस्थान के सघन वनों में ही निवास करती पाई जाती है । शिकार, आवास विनाश, गर्मी की ऋतु में अग्नि घटनाऐं, वनों एवं वनों के पास रहने वालेे लोगों द्वारा अण्डों को उठाने जैसे कारणों से इस मुर्गे की संख्या में कमी आई है। यह प्रजाति भूमि पर अण्डे देती है एवं आग की घटना के कारण अण्डे तथा बहुत छोटे चूजे जो उडने में असमर्थ होते हैं आग की चपेट में आ जाते हैं।
आवास सुरक्षा, शिकार पर प्रभावी अंकुश, अग्नि घटनाओं की प्रभावी रोकथाम, पेयजल व्यवस्था, जन जागरण आदि जैसे उपाय कर इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सकता है।
संन्दर्भ:
अग्रवाल, बी. डी. (1978) गजेटियर ऑफ़ इन्डिया, राजस्थान सीकर।
अग्रवाल, बी. डी. (1979) गजेटियर ऑफ़ इन्डिया, राजस्थान उदयपुर।
कमलेश, बिश्नोई समाज का वह बालक जिसने अपने दादाजी के साथ ऊंट चराते हुए वन्यजीवों के बारे में सीखा और आज वन-रक्षक बन गोडावण सहित अन्य वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है
“आई लव माई खेतोलाई”, खेतोलाई राजस्थान पोखरण में स्थित वह जगह है जहाँ प्रधानमंत्री स्व.श्री अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी सूझबूझ साहस और दूरदर्शिता दिखाते हुए 11 मई 1998 को परमाणु परीक्षण किया था। उस परमाणु परीक्षण के इंचार्ज मिसाइल मैन स्व. श्री ए. पी.जे.अब्दुल कलाम थे। श्री कलाम साहब ने 2002 में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद एक अंग्रेजी अखबार के इंटरव्यू में कहा था “आई लव माई खेतोलाई ।
इसी पोखरण की धरती में जन्म लेने वाले प्रकृति प्रेमी, कोमल ह्रदय कमलेश विश्नोई आज वनरक्षक में भर्ती होकर वन सम्पदा, जीव-जंतुओं एवं वन्य प्राणियों के प्रति समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं।
कमलेश बिश्नोई का जन्म 1 जुलाई 1990 को जैसलमेर जिले की पोखरण तहसील के खेतोलाई गांव में एक पशुपालक परिवार में हुआ। बचपन में ही जब इनकी उम्र मात्र 6 वर्ष थी इनके सिर से पिता का साया उठ चुका था। माता गृहणी थी और इनके दादाजी ऊंट चराते थे और घर चलाते। बचपन में कमलेश भी अपने दादाजी के साथ ऊंट चराने जाया करते थे, क्योंकि इनको ऊँटो की सवारी करना बहुत पसंद था। जब ये अपने दादाजी के साथ जाया करते थे तो आसपास की वनस्पतियां और जीव-जंतु इनको बड़ा आकर्षित करते थे और ये उनके बारे में अपने दादाजी से पूछते रहते थे और दादाजी इनको उन सभी जंतुओं के ग्रामीण नाम व उनकी विशेताएं बताया करते थे।
एक बार ये अपने दादाजी के साथ एक तालाब के पास बैठे हुए थे और तब इन्होने पहली बार ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) को देखा तभी से इनके मन वन्यप्राणियों के प्रति लगाव और उनको बचाने का जज़्बा आ गया और उस समय इनको लगा कि “मैं वन विभाग में ही कार्य करू जिससे मैं प्रकृति का प्रेमी बन सकू” साथ ही इनके दादाजी भी चाहते थे कि ये वनकर्मी बने और वे इन्हें प्रेरित भी करते रहते थे। कठिन घरेलू परिस्थितियों के चलते हुए भी इन्होंने हिम्मत नही हारी और बुलन्द हौसलों व जज्बातों के साथ एक उज्ज्वल व सफल भविष्य की ओर अग्रसर हो गए। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई व कक्षा 9 और 10 की पढ़ाई इन्होंने सागरमल गोपा स्कूल जैसलमेर से की थी 11वीं व 12वीं की पढ़ाई इन्होंने जयपुर से की थी इसी दौरान ये अंडर 16 व अंडर 18 में 800 मीटर तक की दौड़ में चार बार राष्ट्रीय स्तर पर खेलने भी गए थे। वर्ष 2013 में इनका वनरक्षक के पद पर चयन हुआ और ये सफलता इनके परिवार के लिए एक संजीवनी व इनके दादाजी के सपनो को साकार करने वाली थी।
विश्नोई समाज से आने वाले कमलेश बताते हैं कि हिरन को हम अपने परिवार का हिस्सा ही मानते है। यहां तक की इस समुदाय के पुरुषों को अगर जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरन का बच्चा या हिरन दिखता है तो वह उसे घर पर लेकर आते हैं फिर अपने बच्चे की तरह उसे पालते हैं। यहां तक बिश्नोई समाज की महिलाएं भी हिरनों को एक मां का पूरा प्यार देती हैं। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान जैसे कभी कोई हिरन का बच्चा बीमार या दुर्घटना से घायल इनको मिल जाता था तो ये अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसके इलाज की समुचित व्यवस्था उपलब्ध कराते थे।
घायल चिंकारा का इलाज करते हुए कमलेश
कमलेश की पहली पोस्टिंग कुम्भलगढ़ नाका (राजसमंद) में हुई और वर्तमान में ये वन्य जीव चौकी चाचा डेजर्ट नेशनल पार्क में तैनात हैं। वर्ष 2016 में जब इन्होने डेजर्ट नेशनल पार्क को ज्वाइन किया तो उस समय श्री अनूप के आर उप वन संरक्षक के पद पर कार्यरत थे। वन संरक्षक हमेशा गोडावण के संरक्षण के प्रति सोचते व कार्य करते रहते थे, तब कमलेश को भी बचपन में देखे हुए गोडावण की याद आ गई जिसके बारे में इनको बाद में पता चला था कि ये राज्य पक्षी है। तो साहब की प्रेरणा से कमलेश की भी “गोडावण बचाओ” के प्रति रुचि बढ़ती चली गई और इन्होने वन संरक्षक के निर्देशानुसार स्थानीय सरपंच व गांव वालों के सहयोग से डेढ़ सौ हेक्टेयर में एक व्यवस्थित ढंग से क्लोजर भी बनवाया था जिसे आसपास के लोग देखने भी आते हैं।
अपना कार्यभार संभालने के बाद जब कमलेश रोज़ पार्क में गश्त के लिए जाया करते थे तो इन्हे अनेक छोटे-छोटे गड्ढे देखने को मिलते थे जिनके बारे में इन्होने वहां घूमने वाले चरवाहों से जानकारी जुटाना शुरू किया। तब इनको मालूम कि भील समुदाय से आने वाले कुछ लोग जो अवैध गतिविधियों में शामिल हैं स्पाईनि टेल्ड लिजार्ड जिसको स्थानीय भाषा मे “सांडा” छिपकली कहा जाता है का शिकार करते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सांडा के ऊपरी हिस्से में से तेल निकलता है जो औषधि बनाने के काम में आता है। धीरे-धीरे कमलेश ने चरवाहों व पशुपालकों को विश्वास में लेने एवं उनका मनोबल बढ़ाने के लिए, वन संपदा और जीव-जंतुओं का प्रकृति में महत्व को समझाना शुरू किया। इस पहल से 8-10 चरवाहे कमलेश के लिए विश्वासपात्र मुखबिर बन गए और अपराधियों के नाम, पते और गतिविधियां बताने लगे। वर्तमान में 40 चरवाहे ऐसे हैं जो कमलेश को सहयोग करते हैं। कमलेश भी उन्हें जरुरत पड़ने पर सहायता करते हैं और ग्रामीण क्षेत्र में ये एक पहल हैं जो इनके बीच में सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए सामंजस्य स्थापित करती हैं।
इन चरवाहों के माध्यम से कमलेश ने चार बार सांडा के शिकारियों को पकड़ा। एक बार ये पोखरण थे तब इन्हे सुचना मिली कि, “रामदेवरा के पास तीन आदमी अभी-अभी साइकिल से आए हैं और वो ज़मीन खोद रहे हैं”। सुचना मिलते ही कमलेश ने अपनी पूरी टीम के साथ उनके ऊपर धावा बोलकर उनको पकड़ लिया जिनके पास से 6 सांडे बरामद हुए थे। बाद में उनके ऊपर कानूनी कार्रवाई की गई। इसी प्रकार ऐसा ही केस और आया ये घटना लोहारकी गांव के पास की हैं जब रात के समय गांव के स्थानीय लोग कहीं बाहर से आ रहे थे तो उनकी गाड़ी की लाइट में उन्होंने कुछ अवैध व्यक्तियों को सांडा के बिलों को खोदते हुए देखा तो उन लोगों ने तुरंत कमलेश को सूचित किया। सुचना मिलते है वन कर्मी टीम के साथ वहां पहुंचे और उनको पकड़कर उनपर कानूनी कार्रवाई की।
ऐसे ही एक बार कमलेश जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे थे तो उन्हें आदमी दिखा जिसका केवल सिर ही नज़र आ पा रहा था। वो एक पहाड़ी से नीचे की तरफ जा रहा था तो जैसे ही कमलेश पास गए तो पाया कि वहां दो आदमी थे और उन्होंने 16 सांडे खोदकर रखे हुए थे। कमलेश उस समय अकेले थे तो उन्होंने बुद्धिमता से काम लेते हुए रेंजर व अपने साथियों को फोन से मैसेज कर दिया और दूसरी ओर शिकारियों बातों में उलझाते रहे। इस से पहले कि शिकारी कमलेश को पहचान पाते वन-विभाग के अन्य लोग वहां पर पहुंच गए और अपराधियों को पकड़ लिया। एक बार और शिकारियों कि सुचना मिली थी परन्तु पहुंचने से पहले ही वे भाग गए थे तथा वहां से कुछ हथियार व 10 सांडे बरामद हुए थे।
शिकारियों से बरामद किये हुए सांडा
कमलेश बताते हैं कि “अवैध कार्यों में शिकारियों को गिरफ्तार करवाने पर मुझे जनप्रतिनिधि व असामाजिक तत्वों की धमकी भी सुनने को मिलती है लेकिन हम बिश्नोई समुदाय से आते हैं इसलिए जीव जंतुओं को हम हमेशा दया की भावना से ही देखते हैं तथा हमको कितनी भी धमकियां मिले लेकिन हम घबराते नहीं हैं”। साथ ही कमलेश मानते हैं कि आपराधिक तत्वों पर लगाम लगाने में कहीं न कहीं सुचना देने वाले ग्रामीण व चरवाहों का भी महत्वपूर्ण योगदान हैं।
कमलेश बताते हैं कि, आसपास के इलाके में चिंकारा का शिकार भी किया जाता है। एक घटना ऐसी हुई जब गांव के एक व्यक्ति ने सूचना दी कि “मावा गाँव के पास दो गाड़ियों पर चार व्यक्ति हैं और हिरन को मारने कि कोशिश कर रहे हैं, मई यहीं पर छिप कर बैठा हूँ आप जल्दी आजाओ “। चिंकारा का शिकार करने का यह सामान्य तरीका है, जब चिंकारा पानी पीता है तो तुरंत भाग नहीं पाता है ऐसे में शिकारी चिकारा कि तरफ गाड़ी चालते हैं। चिंकारा भागता है लेकिन जल्दी थक जाता है और मारा जाता है। उन शिकारियों ने भी चिंकारा के पीछे दौड़ा कर उसे मार दिया था तथा उसे जाल में डालकर शरीर को चीर रहे हैं। सुचना मिलते ही कमलेश ने स्टाफ के अन्य साथियों को सूचना दी और वहां पहुंचे थे। विभाग कि टीम के वहां पहुंचने से पहले वे शिकारी तीन और चिंकारा मार चुके थे। घटना स्थल पर पहुंचते ही उन शिकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया गया व कानूनी कार्यवाही की तथा उनको तीन महीने की जेल भी हुई। जेल से बाहर आने के बाद वे लोग कमलेश को धमकियाँ देने लगे। परन्तु ऐसी धमकियाँ कमलेश के जुनून व हौसले को कमजोर नहीं कर पाई।
समय के साथ-साथ कमलेश को विभिन प्रकार कि नई चीज़ें भी सीखने को मिली हैं, वरिष्ठ साथियों का अनुभव व अधिकारियों के मार्गदर्शन ने इनके इरादों को इतना मजबूत कर दिया कि प्रतिदिन इन्हे वन्य क्षेत्र में नया कार्य करने के लिए उत्सुकता रहती हैं। वर्ष 2019 में उपवनरक्षक महोदय ने कमलेश को बताया कि, “एक गोडावण ने अंडे दिए हैं और आपको विशेष तौर से उसकी निगरानी करनी होगी”। यह बात सुनते ही कमलेश इस कार्य के लिए तैयार हो गए और उस गोडावण व उसके अण्डों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले ली। कमलेश ने जरूरत का सारा सामान व एक टेंट पैक किया और उस स्थान के पास पहुँचा जहाँ गोडावण ने अंडे दिए थे। गोडावण को उनकी उपस्थिति से कोई परेशानी न हो इस बात को समझते हुए उन्होंने 100 मीटर की दुरी रखते हुए एक अस्थायी तम्बू तैयार किया। मादा गोडावण सुबह 9 बजे पानी पीने के लिए ताल पर जाती थी और सुबह-शाम भोजन के लिए इधर उधर टहलती थी और उस समय कमलेश उसके घोंसले की पूरी मुस्तैदी निगरानी करते थे ताकि कोई बाज़ या लोमड़ी अण्डों पर हमला न करदे।
गोडावण एक शर्मीला पक्षी होता है और इस बात को समझते हुए कमलेश टेंट में ऐसे रहते थे की जैसे वहां कोई है ही नहीं। ये पूरे 28 दिन तक उस तम्बू में रहे। गोडावण गर्मियों में अंडे देता है और उस समय पोखरण में रेत के धोरों पर दैनिक तापमान 45-46 डिग्री तक पहुँच जाता है और ऐसे तेज़ गर्मी वाले वातावरण में रहना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी जिसे कमलेश ने भलभाँति निभाया।
आज अधिकतर संरक्षित क्षेत्रों के आसपास मानव बस्तियां हैं और इन बस्तियों में आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी वन्यजीवों के लिए मुश्किल बनती जा रही है। ये आवारा कुत्ते संरक्षित क्षेत्रों की सीमा के अंदर भी जाने लगे हैं तथा कई बार बाहर आने वाले जानवर जैसे की हिरन, चिंकारा और नीलगाय को घायल कर देते हैं। ऐसी की मुश्किल कमलेश के कार्य क्षेत्र में भी है। कमलेश बताते हैं की “जब से मैंने यहाँ कार्यभार संभाला है रोज कुत्तों द्वारा एक न एक दिन हिरण को घायल करना, मार देना ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। वन क्षेत्र के आसपास गाँव हैं जिधर अधिकतर लोगो ने अपने खेतों की तार बाढ़ कर रखी है। ऐसे में भोजन की तलाश में कई चिंकारे इधर-उधर भटक जाते हैं तो रास्ता तलाश कर खेतों में प्रवेश कर जाते हैं और पीछे से कुत्ते भी खेतों में घुस जाते हैं और चिंकारा का पीछा करते हैं। रास्ता न मिल पाने के कारण वो इधर उधर टकराकर घायल हो जाता है और कुत्ते उसको आसानी से मार देते है। इस परेशान को देखते हुए कमलेश ने अपने उच्च अधिकारियों से सम्पर्क किया और इस समस्या का समाधान ढूंढना शुरु किया। इन्होने विभाग से एक पिंजरा लाकर ग्रामीणों के सहयोग से उनको पकड़ना शुरू किया। इनकी सोच कुत्तो के खिलाफ नही थी बल्कि ऐसी घटनाओं की रोज पुनरावृत्ति न हो इसीलिए इन्होने कुत्तों को पकड़ कर अन्यत्र स्थान पर ले जाकर छोड़ा जहाँ उन्हें भोजन भी मिल जाए और कोई वन्यजीव को खतरा भी न हो। इसी प्रकार से कमलेश अभी तक और अब तक 250 कुत्तो को ग्रामीणों के सहयोग से अन्यत्र स्थान पर छोड़ चुके हैं।
वरिष्ठ अधिकारियों के साथ कमलेश
कमलेश बताते हैं कि वर्ष 2019 में, कमलेश के इन सभी कार्यों को देखते हुए टाइगर वॉच संस्था और वाइल्ड लाइफ क्राइम कण्ट्रोल ब्यूरो (WCCB) द्वारा पुरुस्कृत भी किया गया है। साथ ही श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वनसंरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क कमलेश के बारे में बताते हैं कि “कमलेश एक बहुत ही आश्वस्त और समर्पित वन रक्षक है। वह न केवल अपने कर्तव्य की भावना कार्य करते हैं, बल्कि वन्यजीवों के प्रति गहरी लगन और प्रेम से भी प्रेरित हैं। इनका स्थानीय लोगों के साथ एक अच्छा संपर्क है और संरक्षण के लिए समुदाय के समर्थन का होना बहुत जरुरी होता है”।
कमलेश बताते हैं कि उनकी शादी 2011 में हो गई थी और उनके दो बच्चे हैं। इनकी पत्नी भी चिंकारों के संरक्षण में रुचि रखती हैं उन्होने ने भी चिंकारे के बच्चे पाल-पालकर बड़े किए हैं फिर उनको जंगल मे छोड़ा हैं। आज जब इनके घर कोई अतिथि आता है और बच्चों से पूंछते हैं कि बेटा तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो इनके बच्चे बड़े गर्व से कहते हैं कि “पापा गोडावण बचाते हैं”। और इसके चलते परिवार व सगे सम्बंदियो के लिए तो यह स्लोगन बन चुका हैं कि “कमलेश एक गोडावण प्रेमी” हैं।
कमलेश बताते हैं कि गोडावण संरक्षण को लेकर विभाग स्तर पर सराहनीय प्रयास किए गए हैं। गोडावण प्रजनन व रहवासी स्थलों पर खुफिया कैमरों की नजर, अंडों के सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधन, क्लोजरों में पानी की समुचित व्यवस्था, गोडावण रहवासी क्लोजरों में अन्य हिंसक वन्यजीवों के प्रवेश पर पाबंदी जैसी सुविधाओं का विस्तार कर गोडावण संरक्षण को लेकर विशेष कार्य किए गए हैं। और आगे बहुते से अन्य जरुरी कदम भी उठाये जाएगी जिनसे हमारे राज्य पक्षी गोडावण को बचाया जा सके।
हम कमलेश को उनके अच्छे कार्यों के लिए शुभकामनाये देते हैं।
प्रस्तावित कर्ता: श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वन संरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क
लेखक:
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.