वन्यजीव जगत में भोजन/शिकार की चोरी एक आम बात है और ऐसी चोरियों के दौरान कई बार शिकारी और चोर के बीच संघर्ष भी देखने को मिलते है। परन्तु कई बार कुछ जीव बड़े ही साहसी तरीके से चोरी करते हैं। ऐसी ही एक घटना इस चित्र कथा में दर्शाई गई है।
एक शाम एक नेवला (Indian grey mongoose (Urva edwardsii) घास में आसपास कुछ तलाश रहा था मानो अपना पेट भरने के लिए वो कुछ छोटे कीड़े और चूहों की तलाश में था। लेकिन तभी अचानक नेवला लकड़ी के एक बड़े लट्ठे की ओर चला गया और पेड़ के तने के नीचे से एक कोबरा (Indian cobra (Naja naja) निकला और उसने अपना फन खोलकर इस बात का संकेत दिया जैसे वह लड़ने के लिए तैयार है। लेकिन नेवला कोबरा को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हुए उसके सामने लट्ठे के नीचे चला गया।
कुछ पल बाद नेवला लट्ठे की दूसरी तरफ दिखाई देता है और उसके मुंह में आधा मरा हुआ ट्रिंकेट (Trinket snake (Coelognathus helena) सांप था।
दरअसल उस ट्रिंकेट का शिकार कोबरा ने किया था और वह अपनी आखिरी सांस ले रहा था। परन्तु नेवले ने उसे पूरी तरह जान से मारा और फिर अपने जबड़े में दबा कर कोबरा की आँखों के सामने से चुरा कर ले गया।
इस प्रकार का व्यवहार एक जीव अपना समय और मेहनत बचाने के लिए करते हैं।
According to most experts, it is becoming increasingly evident that human-wildlife conflict is on the rise. Almost every other day, shocking videos and photographs of tiger attacks proliferate all over the media. There seems to be an overall consensus over the fact that conflict between humans and wildlife is increasing rapidly. However, no one ever bothers to ask that while the numbers of tigers and leopards have come down from the lakhs to the thousands, and with current populations only a meagre 5-10% of their erstwhile numbers, why is there an elevation in human-wildlife conflict? Some answer that given the exponential rise in the population of humans, perhaps the tiger’s prey base has also reduced, hence an increase in attacks. Well, let’s see what historical records have to tell us.
Rudyard Kipling, by John Collier, ca.1891. Despite changing times and outlooks, Kipling is still synonymous with the Indian jungle as a result of the popularity of The Jungle Book, adaptations of which continue to be immortalized in film.
One of the more unique historical records of human-wildlife conflict, was found in the town of Bundi in Rajasthan, and it was written by none other than the celebrated Victorian era British author and poet, Rudyard Kipling. Kipling was in fact, born in India. He also received the Nobel Prize for Literature at the relatively young age of 41, and is still the youngest individual to have ever won the prize. Most are familiar with his collection of fictional stories titled “TheJungle Book” , centered around a protagonist named Mowgli, and his interactions with different kinds of anthropomorphic wildlife in the central Indian jungle.
Kipling described his observations of the number of victims of tiger attacks recorded in a Bundi dispensary, all the while sparing the reader none of his trademark wit. He wrote that between 1887 -1889, he travelled through many parts of India, including Rajasthan, and whilst walking down a street in Bundi one afternoon, someone suddenly called out to him in “rusty” English, “Come, and see my dispensary”.
Bundi in the present. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
This came as a bit of a shock to Kipling, for at the time, the only people said to be conversant in English in the whole town were two teachers at a local school. The unprecedented third, was a local doctor who had studied 20 years previously at the Lahore Medical College, and ran a charitable dispensary. However, the good doctor’s proficiency in English was not that of a first language speaker. The doctor proceeded to describe the different kinds of patients that visited him, and how his 16 bed dispensary functioned. According to Kipling, there was a crowd of some 25 -30 people, and he approved of the dispensary. The dispensary’s patient records were also written in English, where none of the ailments were spelled correctly (“Asthama, Numonia, Skindiseas, Dabalaty”), but also contained figures under a rather curious heading, “Loin-bite”. When Kipling asked the doctor what he meant by this, the latter responded in Hindi, “Sher se mara” (Kipling was fluent in Hindi, it was believed to be his first language). Following which Kipling humorously commented, ” it was ‘lion bite’ or tiger, if you insist upon zoological accuracy”. Both tigers, and leopards could have been behind the attacks, the chances of a lion being very slim for obvious reasons. According to Kipling, tigers used to injure approximately 3-4 people in Bundi every week. Today, this figure dwarfs the current figure for the entire state of Rajasthan, and bear in mind, this was just a small town.
It appears that as a consequence of the easy availability of cameras, and smartphones, an increasing number of videos and photographs of cases of human-wildlife conflict are rapidly proliferating in the media. Where there are humans and wildlife, conflict is inevitable, to learn the art of living with it is necessary. Indians, it must be said, know this art relatively well.
Today the jungles of Bundi have become tigerless, but the government is now paying attention to the area, and seeks to prepare it for the tiger’s return. With the unprecedented success of the adjacent Ranthambore Tiger Reserve, the residents of Bundi have also become aware of the benefits of tourism revenue, and eagerly await new tigers.
References:
Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Cover photo caption & credit: Human-wildlife conflict is as old as mankind itself. A revealing cave painting from Bundi. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
आजकल यह विषय चर्चा में रहता है कि, मानव और वन्यजीवन के मध्य संघर्ष तेजी से बढ़ रहा है। आये दिन मीडिया में बाघ बघेरे के हमलो के हैरान करने वाले वीडियो और तस्वीरें देखने को मिलती हैं। सभी इस बात पर हामी भरते हैं, कि मानव और वन्य जीवन के मध्य संघर्ष तेजी से बढ़ते ही चले जा रहे है। परन्तु कभी कोई यह प्रश्न नहीं पूछता की जब बाघ और बघेरो की संख्या लाखो हजारों से घट कर अब मात्र 5 -10 % रह गयी ही तो फिर संघर्ष कम क्यों नहीं हो रहा है? कुछ इसका जवाब भी दे देते हैं कि, मानव संख्या भी कई गुना बढ़ गयी और शायद बाघ बघेरो का आहार भी कई गुना घट गया अतः वे सब अब इंसानो पर अधिक हमले करते हैं।
रुडयार्ड किपलिंग, जॉन कोलियर द्वारा, सीए.1891। बदलते समय और दृष्टिकोण के बावजूद, द जंगल बुक पुस्तक की लोकप्रियता के परिणामस्वरूप किपलिंग नाम अभी भी भारतीय जंगल का पर्यायवाची है।
पढ़िए रिकॉर्ड क्या कहते हैं।
मानव और वन्यजीव के संघर्ष का सबसे अनोखा रिकॉर्ड बूंदी शहर से मिला और जिसे महान लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने अपने मजाकिया अंदाज में बखूबी अपनी एक पुस्तक में लिखा है। रुडयार्ड किपलिंग कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे, वह एक ब्रिटिश भारतीय थे जो भारत में ही जन्मे थे। उन्हें 41 वर्ष की उम्र में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिला था। आज भी उन्हें सबसे छोटी उम्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाला माना जाता है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “जंगल बुक” से हम सब भली भांति वाकिफ है। इस पुस्तक में एक मोगली नामक किरदार है और उसके साथी विभिन्न वन्यजीव है जो कई प्रकार की कहानियों के माध्यम से पाठकों का मनोरंजन करते हैं।
वर्तमान में बूंदी शहर (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
रुडयार्ड किपलिंग ने लिखा है कि, वह 1887 -1889 के वर्षों में भारत के कई हिस्सों में घूमने निकले थे, तभी उन्हें राजस्थान की एक लम्बी यात्रा का मौका भी मिला। एक दोपहर जब वह बूंदी के आम रास्ते पर टहल रहे थे, तो अकस्मात पीछे से किसी ने आवाज दी “Come and see my discrepancy “। यह उनके लिए चौकानेवाला बुलावा था कि, कोई उन्हें अंग्रेजी में बुला रहा है, जबकि पूरी बूंदी में उस ज़माने में दो लोग ही अंग्रेजी बोलते थे एक वहां की स्कूल के प्रमुख अध्यापक और दूसरे थे एक अंग्रेजी के अध्यापक। तीसरे व्यक्ति किपलिंग को यही मिले जो लाहौर मेडिकल कॉलेज से 20 वर्ष पूर्व पढ़ कर आये थे और अब एक चिकित्शालय के प्रमुख्झ थे। यदपि इनको भी अंग्रेजी के कुछ यहाँ वहां के शब्द ही आते थे। उन्होंने चर्चा के दौरान बताया की किस प्रकार के रोगी उनके पास आते है और किस तरह उनका 16 बिस्तर का अस्पताल कार्य करता है। उस समय वहां कोई 25 -30 लोगों की भीड़ रही होगी और उन्हें यह एक अच्छी भली डिस्पेंसरी लग रही थी। रिकॉर्ड को भी अंग्रेजी में दर्ज किया गया था, जिसमें एक भी स्पेलिंग सही नहीं थी। खैर उसमें एक आंकड़ा दर्ज था लोइन-बाईट (loin-bite)। जब उनसे पूछा गया की इसका क्या मतलब तो उन्होंने बताया की “शेर से मारा” हुआ। किपलिंग लिखते हैं कि, loin नहीं lion से मतलब था प्राणी शास्त्र के अनुसार सही भाषा टाइगर लिखना सही होगा। खैर वह टाइगर एवं पैंथर दोनों हो सकते है लायन की सम्भावना तो क्षीण ही है। इस दर्ज आंकड़े के अनुसार लगभग 3 -4 लोग हर सप्ताह इस चिकित्शालय में बाघ बघेरो के घायल वहां आते थे। आज यह आंकड़ा पुरे राज्य के लिए भी बहुत ज्यादा है, जो कभी मात्र एक छोटी बूंदी शहर के आस पास के क्षेत्र का था।
शायद मानव और वन्यजीव के मध्य सघर्ष सदैव ही रहा है परन्तु आजकल लोगों के पास कैमरे की आसानी से उपलब्धता के कारण मीडिया में वन्य जीव और मानव के मध्य होने वाले संघर्ष के वीडियो और फोटोग्राफ्स की संख्या अत्यंत बढ़ती जा रही है। जहाँ वन्य जीव और इंसान रहेंगे तो वहां इनके मध्य संघर्ष भी रहेगा ही, जरुरत है इसके साथ जीने की कला सिखने की, भारतीयों को तुलनात्मक रूप से यह कला भली भांति जानता भी कौन है। तभी तो हमारे देश में इतने संघर्ष के बाद वन्य जीव मिलते है एशिया के और कई देशों में तो अच्छे भले वन खाली पड़े है।
आज बूंदी के जंगल बाघ विहीन हो गये है परन्तु सरकार अब इसे पुनः विकसित करने की तरफ ध्यान देने लगी है। रणथम्भोर की अभूतपूर्व पर्यटन सफलता को देख बूंदी के लोग भी अब जागरूक हुए है और बाघों के स्वागत के लिए तत्पर है।
सन्दर्भ:
Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Cover photo caption & credit:मानव-वन्यजीव संघर्ष उतना ही पुराना है जितनी स्वयं मानव जाति तथा इसका प्रमाण देती हुई बूंदी से एक गुफा चित्र। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
In nature, it is very rare to see the hunter become the hunted. However, there is just such a tale from Jaipur, Rajasthan. A falconer once came to meet the police chief of Rajasthan, the late Mr. Shantunu Kumar (DGP – Rajasthan). The said falconer is a resident of Jaipur, and was permitted to keep birds of prey even after the introduction of the Wildlife Protection Act of 1972. This is because he had no suitable course of action for his captive birds following the act, and was therefore permitted by the Forest Department to keep his birds of prey.
Peregrine falcon (Falco peregrinus) (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
A bevy of grey francolins (Ortygornis pondicerianus) (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
For many years he used to fly his birds to give them the exercise they needed, and they all came back to their master in the end. When the falconer went to meet Shantanu ji, he informed him that he had his peregrine falcon with him that day. Shantanu ji expressed a desire to see the bird, the falconer took out the peregrine falcon and promised to show him just how spectacular it was in full flight. Bear in mind, this is perhaps the only example of permission being granted to keep a live bird of prey in post 1972 India.
A cockfighting display. Grey francolins (Ortygornis pondicerianus) were also used in this blood sport.
The late Sh. Shantanu Kumar (right), with Sh. Fateh Singh Rathore (left), former Field Director of Ranthambhore, and founder of Tiger Watch. (Photo: Hemant Singh)
Shantanu ji used to live on the outskirts of Jaipur, where many birds etc. also lived on his agricultural farm, including a bevy of grey francolin (formerly called grey partridge) who knew no fear of humans, and thus roamed wherever they pleased. After taking off, the peregrine falcon showed it’s true predatory nature, and immediately dove straight at a francolin! This happened within the flash of an eye, and everyone watched with their mouths agape.
A cockfighter’s blade attached to the spurs of fighting birds. The blade is meant to enhance the devastating impact of the spur.
A pair of river lapwing: check small spurs (spines like structures) on its shoulders.
But there was a completely unexpected outcome, the francolin’s spur (sharp growths on the hind feet) had sunk deep into the peregrine’s heart before it could make its claim! The francolin quickly extracted itself from the peregrine’s talons and ran off, while the raptor lay dead. Spurs are seen in many birds, including chickens. Often cockfighters also tie a small knife-like blade to the spurs of roosters, and sometimes the cockfighters themselves become victims of these enhancements. Once upon a time, cockfighting was a very common and popular sport in rural India, and grey francolins were also used in this blood sport.
In the end, Shantanu ji had a good laugh at the falconer’s expense, and commented that even a ‘police officer’s partridge’ overwhelms a falcon (police waalon ka teetar bhi baaz pe bhaaree padta hai).
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
यह बहुत दुर्लभ है कि, प्रकर्ति में शिकारी खुद शिकार बन जाता है। एक बार राजस्थान के पुलिस प्रमुख श्री शांतुनु कुमार (DGP – Rajasthan) से मिलने एक बाजदार आया। शांतनु जी वन्यजीवों में अत्यधिक रूचि रखते थे और गहरी समझ भी। यह बाजदार जयपुर के रहने वाले है और इन्हें वन्यजीव अधिनियम आने के बाद भी बाज रखने की इजाजत थी। क्योंकि इनके पालतू बाज यह कहाँ छोड़ते अतः उन्हें बाज आदि शिकारी पक्षियों के रखने की वन विभाग से अनुमति मिल गई। शायद यह भारत का एक मात्र उदाहारण है जब जिन्दा बाज पलने की इजाजत मिली थी।
पेरेग्रीन फाल्कन (Falco peregrinus) (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
ग्रे फ्रैंकोलिन का समूह (Ortygornis pondicerianus) (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
कई वर्षो तक वह उन बाजों को हवा में उड़ाता और उनकी थोड़ी बहुत शारीरिक श्रम कराता ताकि वह स्वस्थ रहे। इन उड़ानों के बाद वह प्रशिक्षित बाज अंत में पुनः उस बाजदार के पास आ जाते थे। जब वह बाजदार शांतनु कुमार से मिलने गए तो उन्होंने बताया की आज उसके साथ उसका बाज भी है। शान्तनुजी ने उसे देखने की इच्छा जाहिर करने पर बाजदार अपना एक बाज लेकर आया और कहाँ की में आपको इसकी शानदार उड़ान दिखता हूँ। शांतनु जी जयपुर के बाहरी क्षेत्र में रहते थे जहाँ अनेक पक्षी आदि भी रहते उनके कृषि फार्म में एक तीतर का झुण्ड भी रहता था जो इंसानो से भय नहीं होने के कारण निडर होकर घुमा करते थे।
एक मुर्गा लड़ाई प्रदर्शन। इस खुनी खेल में ग्रे फ़्रैंकोलिन्स (Ortygornis pondicerianus) का भी उपयोग किया जाता था।
स्वर्गीय श्री शांतनु कुमार (दाएं) और साथ में श्री फतेह सिंह राठौर (बाएं), रणथंभौर के पूर्व फील्ड निदेशक और टाइगर वॉच के संस्थापक। (फोटो: श्री हेमंत सिंह)
बाज ने उड़ान भरने के बाद अपनी असली फितरत दिखायो और सीधा एक तीतर पर झपटा मारा। यह इतना तेजी से हुआ की सब देखते रह गये। परन्तु माजरा और भी चौकाने वाला था, बाज अपना दाव लगाता इस से पहले तीतर का स्पर या पांव का कांटा उसके दिल में धंस चूका था। तीतर तेजी से पंजो से छूट कर भाग गया परन्तु बाज अपनी जान गवा चूका था। यह स्पर कई पक्षियों में होते है जिसमें मुर्गे भी शामिल है। स्पर (spur) कुछ पक्षियों के पांव में एक बढ़ी हुई हड्डी होती है जो एक केरीटिन से ढका हुआ होता है। कुछ पक्षियों में यह स्पर उनके पांव के पीछे होने की बजाय पंख के कार्पल पर स्थित होते है एवं आपस और दुसरो के साथ संघर्ष में उपयोगी होते है।
लड़ने वाले पक्षियों के स्पर्स से जोड़े जाने वाला ब्लेड और यह ब्लेड स्पर के विनाशकारी प्रभाव को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
रिवर लैपविंग की एक जोड़ी: इसके कंधों पर छोटे स्पर्स (रीढ़ जैसी संरचना) मौजूद होते हैं। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
मुर्गो के पांव में भी स्पर होते है परन्तु अक्सर मुर्गे लड़ने वाले उन पर एक छोटी छुरी जैसा दिखने वाला चाकू भी बांध देते है और कई बार मुर्गे लड़नेवाले भी खुद इस छुरी के शिकार होजाते है। मुर्गा लड़ाना एक ज़माने में ग्रामीण भारत का एक बहुत प्रसिद्ध खेल था।
खैर शान्तनुजी हँसते हुए बोले पुलिस वालो का तीतर भी बाज पर भारी पड़ता है।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.