जानते है किस प्रकार पक्षी समूह “बटनक्वेल” में नर और मादा अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते है…
हम सभी जानते हैं कि, पक्षी जगत में नर, मादा की अपेक्षा अधिक सुंदर और चटकीले रंगों का होता है और प्रजनन काल के दौरान प्रणय (Courtship) का आगाज़ भी नर ही करता है। नर हमेशा मादा के ऊपर अपना दबदबा (Dominance) बनाये रखता है। वहीँ दूसरी ओर मादा धूसर रंगों की होती है ताकि वह खुद को सफलतापूर्वक छुपाये रखते हुए, अंडो को सेह कर चूज़ों का लालन पालन कर सके। परन्तु पक्षी जगत बहुत ही विविधता भरा है और इसमें कुछ पक्षी ऐसे भी पाए जाते हैं जिनमें उल्टा होता है, यानी इनमें नर की भूमिका मादा और मादा की भूमिका नर निभाता है। इनमें मादा ज्यादा सुंदर एवं चटकीले रंगों की होती हैं तो वहीँ दूसरी ओर नर धूसर रंगों के होते हैं और यही नहीं इनमे प्रणय का आगाज़ भी मादा ही करती है। नर अण्डों को सेते व चूज़ों का लालन पालन करते है तथा मादा इलाके पर राज करती है और नर के ऊपर मादा का दबदबा रहता है। यदि कभी नर घोंसले से दूर चला जाए और यह बात मादा को पता चल जाए तो, नर की खैर नहीं। इस तरह के दिलचस्ब व्यवहार वाले पक्षी हैं “बटनक्वेल”। आइए जानते हैं इनके व्यवहार से जुड़े कुछ और रोचक पहलु।
भारत में कई प्रकार के क्वेल अथवा बटेर मिलते है, यह छोटे और ज़मीन पर रहने वाले पक्षियों का एक समूह है। परन्तु इन कई बटेरो में मात्र तीन बटनक्वेल प्रजातियां हैं। यह तीनो प्रजातियां राजस्थान भी पायी जाती हैं; बार्ड बटनक्वेल, येलो लेग्गड बटनक्वेल और स्माल बटनक्वेल। स्थानीय भाषा में इन्हें बटेर के साथ “लवा” भी कहा जाता है। बटनक्वेल को “हेमीपोड” भी कहा जाता है, जो एक ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है “आधा पैर”। यानी इन पक्षियों के पैरों में अंगूठा नहीं होता है, जिसके कारण अपने जीवन में यह कभी भी पेड़ पर नहीं बैठ सकते हैं और अपना पूरा जीवन ज़मीन पर ही बिताते हैं। बटनक्वेल आकार में अन्य बटेर से छोटे होते हैं। अन्य बटेर वे होते हैं जिनके पैरों में अंगूठा होता है परन्तु यह भी ज़मीन पर ही रहते हैं।
मुख्य पहचान बिंदु:
बटनक्वेल में प्रजनन :
बटनक्वेल में प्रजनन काल आने पर कोर्टशिप का आगाज़ मादा ही करती है तथा इस समय पर मादा विशेष प्रकार की आवाज़ भी निकालती है। यह आवाज दूसरी मादाओं को चुनौती देने के लिए की जाती है। मादाओं की इन आवाज्ज़ो की भी एक विशेषता है जिसे वर्ष 1879 , में प्रकाशित ऐ.ओ. ह्यूम की पुस्तक “गेम बर्ड्स ऑफ इंडिया बर्मा एंड सैलन” में कर्नल टिकल (Samuel Tickell) बताते हैं कि, जब मादा 50 से 60 मीटर की दूरी से आवाज करती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह एक 2 मीटर दूर हो और जब वह पास होती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि वह 50 से 60 मीटर दूर है। और अपनी इसी खूबी से यह पक्षी माहिर शिकारियों को भी चकमा दे देता है।
मादाएँ विशेष आवाज़ निकाल कर एक-दूसरे को चुनौती देती हैं जिसके बाद मादाओं में संघर्ष होता है और विजेता मादा नर के साथ सहवास करती है। सेत स्मिथ (Seth Smith) अपनी पुस्तक “एवीकल्चरल मैगजीन (Vol 1 1903)” में लिखते हैं कि, कई बार मादा नर को भोजन देकर भी अपनी तरफ लुभाती है। सहवास करने के बाद मादा घोंसला बनाकर अंडे देती है और फिर से एक नए साथी की तलाश में निकल जाती है। वहीँ दूसरी ओर नर अंडों को सहता है और चूजों का पालन पोषण भी करता है। यही चीज बटनक्वेल को दूसरे पक्षियों से अलग और अनूठा बनाती है। इस भूमिका के परिवर्तन और मादा का एक ही प्रजनन काल में अलग-अलग नरों के साथ सहवास करना और अलग-अलग घोंसलो में अंडे देना ही पॉलिएंड्री (polyandry) कहलाता है।
बार्ड बटनक्वेल में प्रजनन काल अलग-अलग स्थानों के साथ बदलता है और इसमें मादा dr-r-r-r और hoon-hoon जैसी आवाज़ निकालती है और आवाज़ निकालते समय उसका गला और छाती फूल जाती है। येलो लेग्गड़ बटनक्वेल में प्रजनन मार्च और सितंबर के बीच होता है, इनमें मादा hoot-hoot जैसी आवाज निकालती है। स्माल बटनक्वेल में प्रजनन कॉल जून से सितंबर तक रहता है और इस दौरान मादा गहरी hoon-hoon-hoon जैसी आवाज निकालती है।
घोंसला:
बटनक्वेल अपना घोंसला घास के मैदानों, छोटी सूखी झाड़ियों वाले इलाकों में सीधे ज़मीन पर या फिर हल्के गहरे गड्ढे में बनाते हैं जो की ऊपर से घास में ढका होता है। इनके घोंसले के चारों तरफ भी झाड़ियां होती है ताकि आसानी से कोई उस तक न पहुंच पाए। ह्यूम अपनी पुस्तक “गेम बर्ड्स ऑफ इंडिया बर्मा एंड सैलन” में बताते हैं कि, बटनक्वेल कभी-कभी घोंसला बनाने के लिए गाय या भैंस के खुर से बने गड्ढे का भी इस्तेमाल कर लेते है और मूंझ या सरपट (Saccharum munja) इनकी पसंदीदा घास होती है।
बार्ड बटनक्वेल कई बार अपना घोंसला मानव उपस्थिति वाले इलाकों में भी बना लेती है जिससे यह पता चलता है कि, इन्हें मानव उपस्थिति से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ह्यूम अपनी पुस्तक में बताते हैं कि, एक बार मेरठ में एक मुगल शिकारी ने उन्हें बताया की मादा की अनुपस्थिति में नर घोंसले के आसपास भोजन ढूंढ़ने व खाने लग जाता है परन्तु जैसे ही उसे मादा की आवाज सुनाई पड़ती वह फटाफट घोंसले पर जाकर ऐसे बैठ जाता था जैसे कि कभी वहां से हिला ही न हो। यह वाक्या इनमें मादाओं के दबदबे को दर्शाता है।
येलो लेग्गड़ बटनक्वेल का घोंसला स्कूप के आकार का होता है जिसमें घुसने के लिए घास के बीच में से रास्ता होता है। यह एक बार में तीन से चार अंडे देते हैं। सभी बटनक्वेल में नर 12 से 13 दिनों तक अंडों को सहता है। चूज़ों की त्वचा पर पंख अंडे में ही आ जाते हैं जो कि बारीक रोयें जैसे होते हैं और इनके चूजे अंडों से निकलते ही दौड़ लगा सकते हैं। इनका रंग भी इनके आवास के समान होता है और ये अपने आसपास के पर्यावास में ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि एक सरसरी नज़र में तो दिखाई ही न दे। जब इन्हें खतरा महसूस होता है तो चूजे दुबक कर बैठ जाते हैं और यह किसी कंकड़ पत्थर की तरह प्रतीत होते हैं तथा सामने होकर भी सामने नहीं हो जैसे लगते हैं। खतरा टलने के बाद चूजे आवाज करते हैं और इस आवाज को सुनकर पिता इन्हें आसानी से ढूंढ लेता है और यह फिर से एकत्रित हो जाते हैं। इनकी यह खूबियां इन्हें जीवित रहने में मदद करती हैं।
बटनक्वेल, शिकार और कुछ बचाव के तरीके:
वर्ष 1903 में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के “ई.डब्ल्यू . हारपर (E W Harper)” पुस्तक “एवीकल्चरल मैगजीन” में बताते हैं कि, उस समय एक साल में हजारों की तादात में बटनक्वेल और क्वेल कोलकाता के बाजारों में बेचे जाते थे। इन क्वेल को पकड़ने वाले कई सारे पिंजरों में एक-एक बटनक्वेल रखते थे, और जब वह आवाज निकालते तो दूसरे बटनक्वेल इनकी ओर आकर्षित होते। सुबह सूर्योदय से कुछ समय पहले 3-4 शिकारी घास में शोर कर इन सभी बटनक्वेल को जाल की ओर खदेड़ते और साथ ही पिंजरे वाले पक्षियों की आवाज सुनकर बटनक्वेल जाल की ओर बढ़ते जाते और फिर उस में फंस जाते थे। पालतू बटनक्वेल को आहार की तौर पर सादा दाना जैसे कि, बाजरा और पानी दिया जाता था। उस समय बड़ी तादाद में बटनक्वेल पकड़े जाते थे परंतु वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम,1972 के तहत बटनक्वेल के शिकार पर रोक लगा दी गई। आजकल तो क्वेल को मीट और अंडे के लिए पोल्ट्री फॉर्म में पाला जाता है और इससे जंगली बटनक्वेल प्रजातियों का शिकार काफी हद तक कम हो गया है परन्तु आज भी कई जगहों पर स्पीकर से रिकॉर्डेड आवाज निकाल कर बटनक्वेल को आकर्षित करके पकड़ा जाता है।
भारत में घास के मैदानों और झाड़ीदार इलाकों को बेकार ज़मीन समझकर तबाह करा जाता है पर असल में यही इलाके क्वेल के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए के लिए आवश्यक हैं। फिलहाल तो आई.यू.सी.एन. सूची के मुताबिक यह खतरे की श्रेणी से बाहर है परंतु इनके आवास खत्म होने के साथ ही यह खतरे की कगार पर पहुंच जाएंगे। इन पक्षियों की और इनके आवासों को सुरक्षा की बहुत जरूरत है क्योंकि यह प्रकृति में बहुत सारे कीटों का नियंत्रण करके मानव समाज को बहुत लाभ पहुंचाते हैं।
1.बार्ड बटनक्वेल (Barred Buttonquail) (Turnix suscitator)
बटनक्वेल की इस प्रजाति को पहली बार वर्ष 1789 में, एक जर्मन प्रकृतिविद “जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin)” ने खोजा था।
राजस्थान में बार्ड बटनक्वेल उत्तरी-पश्चिमी रेगिस्तानी इलाके के अलावा सभी जगह पाए जाते हैं तथा इन्हें खेत-खलियान,घास के मैदान और खुले झाड़ीदार इलाकों में रहना पसंद है। भारत के अलावा यह प्रजाति इंडोनेशिया,थाईलैंड,बर्मा और श्रीलंका में भी पायी जाती है।
2. येलो लेग्गड बटनक्वेल (Yellow legged Buttonquail) (Turnix tanki):
इस बटनक्वेल को पहचानने का सबसे विशिष्ट गुण इसके नाम में ही छुपा है और वो है “येलो लेग्गड़” यानी “पीली टाँगे”। अर्थात इस बटनक्वेल की टाँगे पीली होती हैं जिसकी वजह से इसे बाकि बटनक्वेल से अलग पहचाना जा सकता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप दक्षिणी पूर्वी एशिया की स्थानिक प्रजाति है जिसे वर्ष 1843 में, एक अंग्रेज जीव वैज्ञानिक “एडवर्ड ब्लायथ (Edward Blyth)” ने खोजा था। ब्लायथ, कलकत्ता में स्थित एशियाटिक सोसाइटी के संग्रहालय (museum of the Royal Asiatic Society of Bengal) में प्राणी शास्त्र के क्यूरेटर के रूप कार्य करते थे और इस बीच इन्होने पक्षियों की कई नई प्रजातियां खोजी थी।
राजस्थान में पाई जाने वाली उप-प्रजाति –Turnix tanki tanki , भारत,पाकिस्तान,नेपाल और अंडमान-निकोबार द्वीप में पाई जाती है। मानसून के दौरान यह प्रजाति दक्षिण से राजस्थान के सूखे इलाकों की तरफ प्रवास करती है जहाँ इसे जून से सितंबर तक देखा जा सकता है। राजस्थान में अभी तक इसे अजमेर,उदयपुर और सवाई माधोपुर में घास के मैदानों में देखा गया है। इसे सूखे छोटी झाड़ियों वाले इलाके पसंद होते हैं |
3. स्माल बटनक्वेल (Small Buttonquail) (Turnix sylvaticus):
बटनक्वेल की इस प्रजाति को पहली बार वर्ष 1789 में, एक जर्मन प्रकृतिविद “जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin)” ने खोजा था। यह प्रजाति आकार में तीनों बटनक्वेल में सबसे छोटा होता है। इसकी चाल इंडियन कोरसर जैसी होती है जिसमें यह छोटी-छोटी दौड़ लगाकर चलता है और बीच-बीच में रुक कर आसपास मुआइना करता है और फिर से भागता है।
राजस्थान में यह प्रजाति अजमेर, बूंदी और सवाई माधोपुर में देखी गयी है। इन्हे खेत-खलियान, घास के मैदान और छोटी झाड़ियों वाले इलाकों में रहना अधिक पसंद होता है। भारत के अलावा यह मोरक्को,अफ्रीका और इंडोनेशिया तक पाई जाती है। पहले यह स्पेन में भी पाई जाती थी परन्तु अब वहां से विलुप्त हो गई है।
सन्दर्भ:
- Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
- Birds of Asia a Book by John Gould 1850.
- The Avicultural Magazine A Journal by Avicultural Society Volume 1 1903
- The Game Birds Of India,Burmah& Ceylon by Hume and Marshall Volume 2 १८७९
Excellent article Dharmveer singh ji
Thank you Dharmendra Sir
Very interesting article…. Thanks !!
बहुत ही रोचक जानकारी धर्मवीर जी जोधा 👌🏻👌🏻👌🏻👍
Great information of a neglected bird during safari @ Ranthambhore…..
WhatsApp no is 8005947433
बहुत सुंदर एंव रोचक जानकारी से लबरेज़ लेख
Thank you so much
excellent definitions….
Very informative article written in interesting way….
Good news for this bird, I am very shocked about it habitat, and heartily salute of you, for providing best knowledge for us.
Very nice information