क्या आपने कभी सुना है गाँवों में बने ‘कीडी नगरा’ के बारे में, जहाँ इंसान चींटियों के लिए बाड़ा बनाते हैं और खाना परोसते हैं? यह अनोखी परंपरा राजस्थान की संस्कृति और प्रकृति के रिश्ते की दिलचस्प कहानी है।
चींटियाँ, मधुमक्खियाँ, एवं ततैये हाईमिनोप्टेरा गण के सदस्य कीट हैं इनके झिल्ली जैसे पंखो के आर-पार देखा जा सकता है। तितलियों की तरह इनके पंखों पर स्केल नहीं होते। इनके अग्र जोडी पंख बडे एवं पश्च जोडी पंख आकार में छोटे होते हैं। इस वर्ग के कीटों के जबडे कुछ बडे व अच्छी तरह विकसित होते हैं। इस गण के कीट अकेले न रहकर एक बडे परिवार के रूप में सामाजिक जीवन यापन करते हैं।
मधुमक्खियों व ततैयों में हर समय शरीर पर पंख पाये जाते हैं जबकि लैंगिक रूप से प्रौढ, परिपक्व एवं प्रजनन क्षमता युक्त चींटियों में प्रजनन काल में ही पंख आते हैं। नर – मादा के मिलन के बाद दीमकों की तरह पंख झड कर गिर जाते हैं। चींटियों के एक ही परिवार में कई तरह के विशिष्ट सदस्य पाये जाते हैं जो काॅलोनी में अलग – अलग तरह का कार्य संपादित करते हैं। चींटियों की यह बहुरूपता अद्भुत होती है। कुछ प्रजातियों में तो बहुरूपों की संख्या 29 तक पहुँच जाती है। फिर भी 4 बहुरूप श्रमिक, सैनिक, उर्वर मादा एवं उर्वर नर सबसे आम व जाने पहचाने होते रूप होते हैं। चींटियों का अध्ययन एक विशेष विज्ञान में किया जाता है जिसे चींटी विज्ञान (Myrmecology) कहते हैं।
राजस्थान में वन्यजीवों के संरक्षण की परंपरा कीडी यानी चींटी जैसे छोटे से प्राणी से प्रारंभ होती है और बाघ जैसे बडे प्राणी तक पहुँच जाती है। ऐसी संरक्षण की विविधता राजस्थान की लोक संस्कृति में सदियों से चली आ रही है। हमारे राज्य में चींटी तक को मारना पाप समझा जाता है।
राजस्थान के गाँवों में चींटी को कीडी नाम से जाना जाता है। चींटी लोक कहावतों में भी स्थान रखती है। कोई सामान्य सा व्यक्ति अपने बूते से कुछ बडा करने की बात कहे या बडी-बडी डींगें हाँके या दुःसाहस करे तो उसे “चींटी के भी पर निकलने लगे हैं” जैसे मुहावरे से वर्णित-मंडित किया जाता है।
राजस्थान में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ चीटियाँ नहीं हों। हर गाँव में चींटियाँ मिल ही जाती हैं। कुछ जगह तो चीटियों के प्राचीन बिल मिलते हैं जिनमें लाखों चींटियाँ निवास करती हैं। ये बिल वहाँ कब से हैं कोई नहीं जानता। स्थानीय बुजुर्गों से पूछो तो बतायेंगे – साब मैं तो इनके इस बिल को मेरे जन्म से यहीं देख रहा हूँ। चींटियों के बिल, उनमें निवास करने वाली चीटियाँ और उनके आने-जाने से बने रास्ते सब मिला कर चीटियों का एक नगर जैसा होता है। चींटियों की छोटी, मध्ययम और बडी बस्तियाँ प्रकृति में जगह-जगह देखने को मिलती हैं। चींटियों की छोटी एवं मध्ययम बस्तियाँ तब तक ध्यान आकर्षित नहीं करती जब तक की वे बडी न हो जायें। बडी होने पर उनके चलने के पथ एक सँकरी सी, साफ-सुथरी सडक जैसी दूर से ही नजर आने लगती हैं। आते-जाते लोग चींटी पथ पर पैर नहीं रखते तथा लाँघ कर ही अपना आगे का रास्ता चलते जाते हैं। ये चींटी पथ सीधे, दूर तक अशाखित, एक समान चैडाई वाले या कई बार कुछ दूर जाकर घुमावदार व सँकरे भी हो जाते हैं यानी ये कई आकार के एवं अलग-अलग चैडाई के हो सकते हैं। आने एवं जाने, दोनों दिशाओं का ’’ट्रैफिक’’ उसी एक रास्ते पर चलता है। हमारी तरह चींटियों को दायें एवं बायें का ज्ञान नहीं होता है वे रास्ते की चौडाई के अन्दर रहते हुऐ कहीं से भी अपना रास्ता बना सकती हैं। चींटी पथ पर वे अपना भोजन मुँह में दबाये, बिल की तरफ आती हुई नजर आती हैं तथा भोजन के दानें व दूसरी वस्तुऐं बिल के भण्डार गृह में जमा कर वे बिना सुस्ताए फिर से अगले फेरे के लिये फिर निकल पडती हैं। यह सारा कार्य श्रमिक वर्ग की चींटियों को करना पडता है। चींटी पथ पर ’’चींटियों का ट्राफिक’’ ऐसा लेगता है मानों सडक पर कुछ ट्रक लोड लेकर भरे हुये आ रहें तो कुछ लोड भरने के लिए खाली जा रहे हैं। जो काम हमारे लिये हमारे हाथ करते हैं वही काम चीटियों के जबडे उनके लिये करते हैं। वे भार को जबडों से पकड कर ’’चीटीं पथ’’ पर चलती हैं। यदि वस्तु भारी है तो कई चींटियाँ मिल कर भार को खींचती हैं। कहा जाता है, चींटी अपने शरीर के वजन से भारी वजन खींचने की क्षमता रखती हैं। श्रमिक चींटियों का एक दल वहीं बिल में खुदाई-सफाई के कार्य में मशगूल नजर आता है।
एक ही परिवार की चींटियों का यह विशाल कुनबा हर किसी का ध्यान आकर्षित करता है। बिल, चींटी परिवार तथा दूर-दूर तक ’’चींटी पथों’’ का यह जाल राजस्थान में ’’कीडी नगरा’’ या ’’कीडीनारा’’ के नाम से जाना जाता है। कीडी नगरा चींटियों का एक ऐसा नगर है जैसा हम मनुष्यों का नगर होता है। हमारे नगरों में भी भवन, बाशिंदे, सडके और न जाने क्या – क्या चीजें विद्यमान होती हैं। यही नही, एक पूरी कानून व्यवस्था एवं नियम पालन सदाचार भी हमारे नगरों की व्यवस्था का एक हिस्सा होती हैं। ऐसे ही नियम कायदे एवं उनका पालन किसी भी कीडी नगरा का अहम हिस्सा होते हैं।
चींटियों को मोटे तौर पर 3 वर्गो में बाँट सकते हैंः
भूमि पर रहने वाली चीटियाँ
वृक्ष के तनो पर रहने वाले चींटियाँ
वृक्षों की पत्तियों में घौंसला बना कर रहने वाली चींटियाँं।
वृक्षों के तनो पर रहने वाली चीटियों के अनेक प्रकार हैं। कुछ तने पर रहती हैं तथा आकार में बडी व मोटी होती हैं तथा काले रंग की होती हैं जिनको राजस्थान में जगह-जगह ’’मकोडा’’ नाम से जाना जाता है। कुछ चीटियाँ वृक्ष के तने के ऊपरी भागो में गोलाकार गुम्बद जैसी रचना बना कर उसमें निवास करती हैं जो क्रीमेटोगास्टर वंश (Crematogaster Genus) में वर्गीकृत की गयी है। लाल चीटिंयाँ (Oecophylla smaragdina) पत्तों को आपस में जोड व सिलाई कर उनमें घौंसला बना ऊपर वृक्षों पर निवास करती हैं। हाँलाकि वे वृक्षों से नीचे भी उतरती हैं लेकिन अपना कार्य पूर्ण कर वापिस ऊपर घौंसले में चली जाती हैं। वृक्ष के तने व पत्तों में रहने वाली चीटिंयाँ ’’कीडी नगरा या कीडी नारा’’ बस्ती नहीं बनाती।
भूमि पर अनेक प्रजातियों की चींटियों का निवास है लेकिन जो चींटियाँ बडा कुनबा बना कर अनाज के दानों को भी बिलों में ले जाकर भण्डारित करने व खाने की शौकीन होती हैं वे चींटियाँ कीडी नगरा के रूप में जानी – पहचानी जाती हैं। राजस्थान में जगह- जगह कीडी नगरा मिल जायेंगे। कई जगह तो बाकायदा बोर्ड लगाया जाता हैं। कई जगह बोर्ड नहीं भी होते। कई जगह बाकायदा काँटेदार तारों या दूसरी तरह की बाड लगाई जाती है ताकी पालतू व जंगली प्राणी कीडी नगरा को रौंदे नहीं। पश्चिमी राजस्थान में कीडी नगरा जगह-जगह ग्रामीण अँचल में देखने को मिल जाते हैं।
राजस्थान के लोग जिस तरह जगह-जगह पक्षियों को दाना-पानी व अन्य जीवों हेतु भोजन, पानी व शरण देने के स्थान बनाते हैं, उसी तरह चीटीयों को भी अनाज, अनाज का दलिया, चीनी, गुड के छोटे-छोटे टुकडे आदि खाद्य पदार्थ प्रातःकाल में बिल के आस-पास फैलाते हुये बिखेरे जाते हैं। कई जगह मोटा पिसा आटा भी चुग्गे के रूप में चींटियों के बिल के आस – पास शृद्धापूर्वक डाला जाता है। लोग स्वयं व अपने परिवार जनों के साथ चींटियों के बिलों के पास चुग्गा डालने आते हैं। यदि अधिक मात्रा में भोजन देना है तो एक दिन में डालकर उसे खराब नहीं किया जाता बल्कि कीडी नगरा के संचालक-प्रबंधक की भूमिका निभाने वाले व्यक्ति को कीडियों का भोजन या भोजन की कीमत जमा करा दी जाती है। प्रबंधक का फोन नम्बर बोर्ड पर अंकित रहता है। शृद्धालु बोर्ड पर अंकित नम्बर पर फोन कर प्रबंधक तक पहुँच जाता है तथा चींटियों को भोजन आपूर्ती का जिम्मा प्रबन्धक को लेकर स्वयं निवृत हो जाता है।
चित्र 1: कीडी नगरा प्रबंधक द्वारा लगाया गया बोर्ड
चित्र 2: कई जगह कीडी नगरा काॅलोनी को पशु रौंद कर नुकसान पहुँचाते हैं अतः सुरक्षा हेतु फैंसिंग तक की जाती है।
लोगों का मत है यदि चींटियों को उनके आवास के आस-पास ही भोजन मिल जायेगा तो वे घरों, खेतों, खलिहान व गोदामों की तरफ रूख नहीं करेंगी जिससे उनमें दूर जाकर कहीं भोजन की तलाश में किसी एक परिवार या जगह को नुकसान पहुँचाने की संभावना नहीं रहेगी। साथ ही वे जगह-जगह मार्गों पर कुचल कर मरने से भी बचेंगी। चींटियाँ बीज व फल प्रकीर्णन, परागण, छोटे कीटों का नियंत्रण के साथ-साथ अपने बिलों द्वारा भूमी की गहराईयों में वायु संचार करती हैं। भूमि में संचारित वायु वृक्षों, झाडियों जैसी वनस्पतियों की जडों को, जो गहराई तक पहुँच जाती हैं, उन्हें स्वश्न हेतु ऑक्सीजन उपलब्ध कराती हैं। इसी का कमाल है कि पेड पौधे हरे – भरे रहकर हमें ऑक्सीजन, फल-फूल, बीज, चारा, लकडी और न जाने क्या – क्या उत्पाद उपलब्ध कराते हैं।
यों तो राजस्थान में अनगिनत कीडी नगरा हैं लेकिन पाली जिले में गढवाडा, सिणगारी, दुदली आदि गाँवों में जाकर कीडी नगरा व उनके प्रबंधन को देखा व समझा जा सकता है। कुछ जगह जैसे तालछापर अभयारण्य के कीडीनगरा तो और भी दर्शनीय हैं। तालछापर के कीडी नगरा के चीटीं मार्ग बिल को केन्द्र मानते हुये एक तरफ 200-300 मीटर लम्बे व कहीं- कहीं तो इससे भी अधिक दूर तक पहुँच जाते हैं जिन पर हजारों चीटियाँ एक साथ आना-जाना करती हैं। कुछ कीडी नगरा तो तालछापर में इतनें विशाल हैं कि एक कीडी नगर में हजारों नहीं लाखों चींटियाँ होती हैं। इस अभयारण्य में आने वाले पर्यटकों को वन कर्मी सावधानी से इस तरह घुमाते हैं कि कीडी नगरा की चींटियों को कुचलने से बचाया जा सके।
चित्र 3: सूखे मौसम में तालछापर अभयारण्य में एक अशाखित चींटी पथ पर गतिमान चींटियों का ट्राफिक
चित्र 4: तालछापर अभयारण्य में एक शाखित चींटी पथ
वन्यजीवों को मानवीय या मानवों द्वारा भोजन दिया जावे या नहीं इस पर बहस होती रहती है। लोगों के पक्ष और विपक्ष में विचार सुनने – पढने को मिल जाते हैं। यदि कुछ देर इस बहस से अलग होकर देखें तो यह स्पष्ट महसूस होता है कि राजस्थानी लोग बडे- बडे वन्य प्राणी ही नहीं, चींटी जैसे छोटे प्राणी को भी संरक्षित -सुरक्षित करते रहे हैं और इतनी आधुनिकता आ जाने के बाद भी समाज के ये मूल्य आज भी अक्षुण हैं जो वन्यजीव संरक्षण की आस जगाये हुये हैं।
चित्र 5: तालछापर अभयारण्य में एक चींटी पथ कर क्लोज अप
गिद्ध, हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के अभिन्न अंग हैं, जो सफाईकर्मी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि, बीते कुछ दशकों में गिद्धों की आबादी में खतरनाक गिरावट आई। गिद्धों के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाना उनके संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
गिद्ध, प्रकृति के सफाईकर्मी के रूप में जाने जाते हैं, ये मृत जानवरों को खाकर पर्यावरण को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, विश्वभर में गिद्धों की संख्या पिछले तीन दशकों में चिंताजनक रूप से कम हुई है और इस गिरावट से राजस्थान भी अछूता नहीं रहा। हालांकि हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत में गिद्धों की संख्या स्थिर हुई है, लेकिन बढ़ नहीं रही है।
भारतीय गिद्धों का एक समूह (फ़ोटो: बनवारी यदुवंशी)
भारत में कभी नौ गिद्धों की प्रजातियाँ पाई जाती थीं, जिनमें से तीन – वाईट-रम्प्ड गिद्ध (Gyps bengalensis), भारतीय गिद्ध (Gyps indicus) और स्लेंडर-बिल्ड गिद्ध (Gyps tenuirostris) – गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं।
राजस्थान, अपने शुष्क वनों और खुले मैदानों के कारण, गिद्धों के लिए महत्वपूर्ण आवास स्थल है। यहाँ बेयरडेड गिद्ध और स्लेंडर-बिल्ड गिद्ध को छोड़कर बाकी सातों प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से चार प्रजातियाँ निवासी हैं और यहीं प्रजनन करती हैं, जबकि तीन अन्य प्रजातियाँ प्रवासी पक्षी के रूप में ऑक्टोबर से मार्च के महीनों में यहाँ देखी जाती हैं, कभी-कभी अप्रैल के मध्य तक भी यहाँ देखी जा सकती हैं। राजस्थान में पाए जाने वाले प्रवासी गिद्धों की प्रजातियों में हिमालयन ग्रिफॉन, यूरेशियन ग्रिफॉन, और सिनेरियस गिद्ध शामिल है।
कोटा ज़िले में स्थितः भारतीय गिद्ध का ब्रीडिंग और नेस्टिंग साइट (फ़ोटो: बनवारी यदुवंशी)
यहाँ ध्यान दें कि गिद्धों की संख्या में तेजी से गिरावट आने का कारण मुख्य रूप से पशुओं में इस्तेमाल की जाने वाली स्टेरॉयडमुक्त प्रज्वलनरोधी (NSAIDS) दवाएँ थी। नसाइड्स दवाओं में भी डाईक्लोफेनाक का उपयोग गिद्धों के अस्तित्व के लिए घातक साबित हुआ। डाईक्लोफेनाक को पशुओं के लिए दर्द निवारक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, जो की मृत पशुओं के अवशेषों में रह जाता और जब गिद्ध इन मृत जानवरों को खाते तो डाईक्लोफेनाक उनके शरीर में प्रवेश कर उनके गुर्दे की कार्यक्षमता को नष्ट कर देता जिससे उनकी मृत्यु हो जाती थी।
डाईक्लोफेनाक के उपयोग से मुख्य रूप प्रभावित प्रजातियों में वाईट-रम्प्ड गिद्ध, भारतीय गिद्ध और स्लेंडर-बिल्ड गिद्ध शामिल थे। इन तीन प्रजातियों की आबादी में 95% से अधिक की गिरावट आई थी। अन्य प्रजातियाँ भी कम संख्या में पाई जाती हैं, जिससे गिद्धों के पारिस्थितिक कार्यों पर व्यापक प्रभाव पड़ा, और शहरों और गाँव में मृत जीवों के शव कई दिनों तक सड़ते हुए देखे जाने लगे।
डाईक्लोफेनाक को पशुओं के लिए दर्द निवारक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, जो की मृत पशुओं के अवशेषों में रह जाता और जब गिद्ध इन मृत जानवरों को खाते तो डाईक्लोफेनाक उनके शरीर में प्रवेश कर उनके गुर्दे की कार्यक्षमता को नष्ट कर देता जिससे उनकी मृत्यु हो जाती थी। (फ़ोटो: प्रवीण)
गिद्धों के लिए अन्य खतरों में शामिल है उनके आवास का नुकसान। पेड़ों को काटना और चट्टानों को तोड़ना गिद्धों के घोंसले बनाने के लिए उपयुक्त स्थानों को कम कर देता है। दूसरा कारण है विद्युत लाइन। गिद्ध बड़े पंखों वाले पक्षी होते हैं, और वे अक्सर विद्युत लाइनों से टकराकर मारे जाते हैं। इसके अलावा कुछ क्षेत्रों में, गिद्धों का उनके शरीर के अंगों के लिए अवैध रूप से शिकार किया जाता है, जिन्हें तांत्रिक क्रियाओं में इस्तेमाल करने की गलत धारणा है।
गिद्धों की इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए 2000 के दशक के मध्य में डाईक्लोफेनाक के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया और साथ ही पशु चिकित्सकों को गिद्धों के लिए सुरक्षित दवाओं के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया गया। पूरे भारत की तरह, राजस्थान में भी डाईक्लोफेनाक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने के बाद से गिद्धों की संख्या में मामूली सुधार तो हुआ है, लेकिन उनकी आबादी अभी भी अपने मूल स्तर से बहुत कम है।
गिद्धों के संरक्षण के लिए भारत सरकार और वन्यजीव संस्थाएं मिलकर कई प्रयास कर रही हैं जिनमें वल्चर सेफ ज़ोन (वल्चर सेफ़ ज़ोन), गिद्ध अभयारण्य, संरक्षण और प्रजनन केंद्र, और जागरूकता अभियान शामिल हैं।
गिद्ध अभयारण्य: “गिद्ध अभयारण्य” नामक विशेष क्षेत्रों की स्थापना की जा रही है। इन क्षेत्रों में पशुओं के मृत शरीरों को जहर रहित दवाओं से उपचारित किया जाता है ताकि गिद्धों के लिए सुरक्षित भोजन उपलब्ध हो सके। देश का एकमात्र गिद्ध अभयारण्य रामदेवरा बेट्टा हिल है, जो की कर्नाटक के रामानगर जिले में स्थित है।
संरक्षण और प्रजनन केंद्र: देश भर में कई गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केंद्र स्थापित किए गए हैं। इन केंद्रों में घायल गिद्धों का उपचार किया जाता है और स्वस्थ गिद्धों को प्रजनन के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इन केंद्रों से भविष्य में जंगल में गिद्धों को छोड़ा जा सकता है। भारत में नौ गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केंद्र (वीसीबीसी) हैं, जिनमें तीन बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) और बाकी सेंट्रल जू अथॉरिटी द्वारा प्रशासित हैं:
पिंजौर, हरियाणा: 2001 में गिद्ध देखभाल केंद्र के रूप में स्थापित, यह 2004 में भारत का पहला वीसीबीसी था
राजभटखावा, पश्चिम बंगाल: 2005 में स्थापित
रानी, गुवाहाटी, असम: 2007 में स्थापित
केरवा, वन विहार राष्ट्रीय उद्यान, भोपाल, मध्य प्रदेश: 2011 में स्थापित
हैदराबाद के नेहरू प्राणी उद्यान में हैदराबाद गिद्ध प्रजनन केंद्र
जूनागढ़ गिद्ध प्रजनन केंद्र , सक्करबाग प्राणि उद्यान, जूनागढ़
भारत मे मौजूद गिद्ध प्रजनन केंद्र (वल्चर ब्रीडिंग सेंटर) (मैप: प्रवीण)
वल्चर सेफ ज़ोन (वीएसजेड): वल्चर सेफ़ ज़ोन न केवल गिद्धों को बचाने में महत्वपूर्ण हैं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी लाभदायक हैं। प्रत्येक वीएसजेड, गंभीर रूप से लुप्तप्राय गिद्ध प्रजातियों में से कम से कम एक प्रजाति के जीवित कॉलोनी पर केंद्रित होती है। वीएसजेड को 100 किमी (30,000 किमी 2 से अधिक) के दायरे वाले क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया है, और यह क्षेत्र ओरिएंटल व्हाइट-बैकड गिद्धों (SAVE, 2014) के रेंज के आधार पर निर्धारित किया गया है।
SAVE के अनुसार वीएसजेड में:
पशु चिकित्सा उपयोग के लिए दुकानों पर डाइक्लोफेनाक उपलब्ध नहीं होना चाहिए,
कम से कम 800 मवेशियों के शव के जिगर के नमूनों में कोई डाइक्लोफेनाक नहीं पाया जाना चाहिए,
वीएसजेड क्षेत्र के भीतर मृत गिद्धों में कोई डाइक्लोफेनाक या आंत संबंधी गठिया नहीं पाया जाना चाहिए,
वीएसजेड में गिद्धों की आबादी में स्थिरता या वृद्धि होनी चाहिए।
गिद्धों के लिए सुरक्षित भोजन की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है। इसके लिए इन क्षेत्रों में मवेशी आश्रयों अथवा गौशालाओं के साथ मिलकर काम किया जाता है, जहाँ गिद्धों को खाने के लिए मृत गायों को उपलब्ध कराया जाता है।
कैलादेवी क्षेत्र में मौजूद गंभीर रूप से संकटग्रस्त भारतीय गिद्ध (फ़ोटो: प्रवीण)
अस्थायी गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र (पीवीएसजेड): जब उपरोक्त मानदंड पूरे होते हैं तभी वीएसजेड पूरी तरह से स्थापित होता है। जब तक यह स्थापित नहीं होता की उक्त मानदंड पूरे हो गए हैं तब तक इन क्षेत्रों को अस्थायी गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र (प्रविशनल वल्चर सेफ़ ज़ोन) माना जाता है।
वल्चर सेफ़ ज़ोन की शुरुआत: वर्ष 2011 में नेपाल ने स्थानीय समूहों और गैर सरकारी संगठनों का एक नेटवर्क विकसित करके वीएसजेड स्थापित करने का नेतृत्व किया, और डाईक्लोफेनाक के उपयोग में कमी और रोक सुनिश्चित करने के लिए गिद्धों के प्रजनन इलाकों के आसपास के क्षेत्रों में एक साथ काम किया।
नेपाल द्वारा वल्चर सेफ़ ज़ोन बनाने के लिए सबसे पहले गिद्धों के प्रजनन इलाकों के आसपास के क्षेत्रों से पशु चिकित्सा के लिए डाइक्लोफेनाक के सभी उपलब्ध स्टॉक को हटाया गया और इसकी जगह गिद्ध सुरक्षित दवा मेलॉक्सिकैम को स्थापित किया गया। यह बदलाव उन्होंने प्रजनन क्षेत्रों के 50 किमी की दूरी तक के दायरे में स्थापित किया।
डाइक्लोफेनाक को मेलोक्सिकैम से बदलने के बाद स्थानीय समुदाय के बीच एक व्यापक शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रम चलाया। इस कार्यक्रम में गिद्धों के शवों को साफ करने की क्षमता के संबंध में जानकारी दी और यह भी बताया की किस प्रकार ये बीमारी के खतरों को कम करते हैं और कुत्तों की बढ़ती संख्या को भी नियंत्रित करने में मदद करते हैं। इसके अलावा किसानों, पशुचिकित्सकों और फार्मासिस्टों के साथ कार्यशालाएँ आयोजित की ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे डाइक्लोफेनाक के उपयोग से होने वाली समस्याओं के बारे में जानते हैं।
नेपाल के बाद भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ने भी वल्चर सेफ़ ज़ोन के माध्यम से गिद्धों के इन-सीटू संरक्षण पर जोर दिया।
कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य गिद्धों की एक छोटी आबादी को संरक्षित करता है, जो की एक संभावित वल्चर सेफ़ ज़ोन भी घोषित किया जा सकता है (फ़ोटो: प्रवीण)
राजस्थान के गिद्ध संरक्षण के प्रयास: गिद्धों की आबादी के हिसाब से देखा जाए तो राजस्थान एशिया के गिद्धों के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के साथ ही यहाँ 22 जिलों में गिद्धों का आश्रय पाया गया है, जिनमें निवासी और प्रवासी गिद्ध दोनों ही शामिल हैं। प्रवासी पक्षी (मुख्यतः ईगिप्शियन वल्चर) प्रजनन के लिए यहाँ घोंसलों का निर्माण कर प्रजनन करते हैं इसलिए यहाँ गिद्धों के संरक्षण के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाना आवश्यक है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए राजस्थान के संरक्षणवादी और गैर सरकारी संस्थाएँ काफी समय से राजस्थान में गिद्ध प्रजनन केंद्र की मांग कर रहे हैं।
गिद्ध संरक्षण के लिहाज से बीकानेर स्थित जोरबीड गिद्ध संरक्षण रिजर्व राजस्थान द्वारा किया गया एक सफल प्रयास है। हालांकि अभी तक इस क्षेत्र को वीएसजेड का दर्ज नहीं मिल पाया है।
गिद्ध संरक्षण के लिए काम कर रहे प्रोफेसर डॉ दाऊ लाल बोहरा ने जोरबीड को वीएसजेड घोषित करवाने हेतु यहाँ आ रहे मवेशियों के शवों जी जांच कारवाई और पाया की किसी भी शव के उपचार के लिए गिद्धों के लिए हानिकारक दवाओं का उपयोग नहीं किया गया बल्कि उनके लिए सुरक्षित दवाएँ ही उपयोग की गई हैं। इसके अलावा संदिग्ध जानवरों को कुत्तों के खाने के लिए रखा जाता है। साथ ही स्थानीय औषधि विक्रेताओं को जागरूक किया जा रहा है ताकि जल्द से जल्द इस क्षेत्र को वीएसजेड घोषित किया जा सके।
जोरबीड का गिद्धों के लिए महत्तव देखते हुए यहाँ आ रहे गिद्धों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिंगिंग और टैगिंग कार्यक्रम चलाया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीएमएस सीओपी में भी राजस्थान के महत्तव और यहाँ गिद्ध संरक्षण के प्रयासों को और मजबूत करने हेतु चिंता जताई जा चुकी है। सीएमएस सीओपी उन पार्टियों का सम्मेलन है, जो जंगली जानवरों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर प्राथमिक निर्णय लेने और उनकी पालना सुनिश्चित करने के लिया बनाया गया है।
भारत में वल्चर सेफ ज़ोन: वीएसजेड के मुख्य लक्ष्य सभी देशों में समान हैं, हालांकि मॉडल अलग-अलग देशों में और यहां तक कि एक देश के भीतर भी भिन्न देखने को मिल जाते हैं। नेपाल ने वीएसजेड पर वर्ष 2011 में काम शुरू किया, जिसके बाद भारत ने 2012 के शुरुआत में काम शुरू किया। बांग्लादेश देश ने 2014 में काम शुरू किया और वीएसजेड को गजेट अधिसूचना के माध्यम से कानूनी दर्जा देने वाला पहला देश बन गया। जबकि नेपाल और भारत में वीएसज़ेड को कोई कानूनी दर्जा नहीं प्राप्त है। भारत में 9 चयनित क्षेत्रों को गिद्धों के लिए संभावित गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र (वीएसजेड) के रूप में पहचाना गया है। ये सारे क्षेत्र गिद्ध प्रजनन केंद्रों को ध्यान में रखते हुए पहचाने गए हैं। हरियाणा में पिंजौर, पश्चिम बंगाल में राजाभटखावा, असम में माजुली द्वीप के आसपास, एमपी में बुक्सवाहा, यूपी में दुधवा राष्ट्रीय उद्यान और कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य, झारखंड में हज़ारीबाग़, और गुजरात में सौराष्ट्र।
संरक्षणवादी एवं गैर सरकारी संस्थाएँ मौजूदा गिद्ध सुरक्षित क्षेत्रों को स्थापित एवं मजबूत करने और नए क्षेत्र बनाने के लिए काम कर रहे हैं। उम्मीद है कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में इस पहल से गिद्धों के संरक्षण में सफलता मिलेगी।
(कवर फ़ोटो (बनवारी यदुवंशी): कोटा के गैपरनाथ क्षेत्र के पास भारतीय गिद्धों का एक समूह
A few years back Menar was not so known in the area as it is known today. Menar is a small village on the Udaipur – Chittorgarh National Highway (NH 76), 50km away from Udaipur City. It is a Menaria Brahmin-dominated village. This village is well known for its cultural legacy. Two beautiful water bodies are present in this village nearly 1 km apart from each other which have created a new history in recent years. The small-sized waterbody is present towards the northwest outskirts of the village, called Braham Talab. A giant Lord Shiva statue is present on the embankment of this pond in a sitting posture. Another big-sized pond called Dhand Talab is present towards the southern end of the village near Menar – Bhinder Road. Both the ponds have beautiful earthen embankments. Many old, aged mango trees (Mangifera indica) are present on each embankment. A big-sized colony of a Megabat species, the Indian Flying Fox (Pteropus giganteus) is present among the Mango trees of Braham Talab.
Menar is known to protect its wetlands and avifauna. Village people are very pro-nature. They have been conserving their wetlands and birds since ancient times. Forest Department, Rajasthan started celebrating the “Udaipur Bird Festival” in 2014. Every year the birders participating in the Udaipur Bird Festival, reach Menar wetlands for bird watching. Local media also played a vital role in highlighting the conservation ethos and practices of the local community to protect their wetlands and avifauna. In 2016, the Bombay Natural History Society and BirdLife International notified both ‘Menar Ponds’ as an Important Bird Area (IBA). Presently, Rajasthan has 31 Important Bird Areas and Menar is one of them. More than 100 species are known from Menar village ponds and surrounding habitats. Many Critically Endangered, Vulnerable and Near Threatened species are known from waterbodies and surrounding terrestrial habitats as shown below:
Category
Common English name of the bird
Latin name
Critical Endangered
White-rumped Vulture
Gyps bengalensis
Endangered
Egyptian Vulture
Neophron percnopterus
Vulnerable
Sarus Crane
Grus antigone
Indian Skimmer
Rhynchops albicollis
White-naped Tit
Parus nuchalis
Near Threatened
Oriental Darter
Anhinga melanogaster
Spot-billed Pelican
Pelecanus philippensis
Painted Stork
Mycteria leucocephala
Black-necked Stork
Ephippiorhynchus asiaticus
Lesser Flamingo
Phoeniconaiaf minor
Ferruginous Duck
Aythya nyroca
Black-tailed Godwit
Limosa limosa
Black-headed Ibis
Threskiornis melanocephala
Great Thick-knee
Esacus recurvirostris
River Tern
Sterna aurantia
European Roller
Coracias garrulus
Alexandrine Parakeet
Psittacula eupatria
A journey from an ordinary village pond to an important bird area:
During the last one-decade, Menar became an important birding destination not only in Rajasthan but in India as well. Gradually, this small village is also establishing its shining presence on the world birding map. So far, many honours and titles have been credited to the account of this bird village. A few of them are as follows:
S. no.
Year
Event
1.
2014
First Udaipur Bird Fair birders team reached for bird watching. From 2014 to 2023 birders participating in the Udaipur Bird Festival are regularly visiting the Menar Wetland complex.
2.
2016
Menar became an IBA site.
3.
2021
A bird fair was celebrated on December 14, 2021, by the Rajasthan Patrika at IBA Menar.
4.
2023
Menar Village was awarded the “Best Tourism Village 2023” in the silver category by the Ministry of Tourism, Government of India.
The audience award is given to the film “Wings of Hope: A Bustling Village and Their Bird Friends” by “The UN World Wildlife Day Film Showcase”. This film is related to the wetland and bird conservation legacy of Menar village.
Menar village wetlands were declared as a notified “wetland” by the Government of Rajasthan.
Beyond Important Bird Area:
Now Forest Department, Rajasthan is trying to make the Menar wetland complex a Ramsar Site. The required proposal has been prepared by the department. Hopefully, soon one more feather will be in the turban of Menar village.
Impact of Menar conservation legacy:
Menar has become a conservation model in Rajasthan. Many wetlands like Nagawali, Badwai, Kishan Kareri, Kheroda, Ramakheda, Puthiyan, Rundeda, Bhinder, Roma Talab (Mangalwad), Menpuria, Bhatewar, Bhupalsagar etc. which are present in the vicinity of Menar village are now on the way to become new “Menars” in southern Rajasthan. There is a competition in various villages to protect their wetlands like the people of Menar are doing. The conservation ethos of the people of Menar Village is now inspiring many villages of southern Rajasthan to protect and conserve their village wetlands and the aquatic fauna and flora present there.
Local youth earn their livelihood through birding (Photo: Umesh Menaria).
A stone at Bhupalsagar, dated back May 05, 1937, tells the story of wetland and bird conservation in the Mewar region (Photo: Author).
राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या
सन 1900 में, तंदुरुस्त ऊंटों पर बैठ के बीकानेर राज्य की एक सैन्य टुकड़ी, ब्रिटिश सेना की और से चीन में एक युद्ध में भाग लेने गयी थी। उनका सामना, वहां के उन लोगों से हुआ जो मार्शल आर्ट में निपुण थे। ब्रिटिश सरकार ने इन मार्शल योद्धाओं को बॉक्सर रिबेलियन का नाम दिया था। यह बड़ा विचित्र युद्ध हुआ होगा, जब एक ऊँट सवार टुकड़ी कुंग फु योद्धाओं का सामना कर रही थी। यह मार्शल लोग एक ऊँचा उछाल मार कर घुड़सवार को नीचे गिरा लेते थे, परन्तु जब उनके सामने ऊँचे ऊँट पर बैठा सवार आया तो वह हतप्रभ थे, की इनसे कैसे लड़े। इस युद्ध में विख्यात बीकानेर महाराज श्री गंगा सिंह जी ने स्वयं भाग लिया था। बीकानेर के ऊंटों को विश्व भर में युद्ध के लिए अत्यंत उपयोगी माना जाता है।
गंगा रिसाला का एक गर्वीला जवान (1908 Watercolour by Major Alfred Crowdy Lovett. National Army Museum, UK)
राजस्थान में मिलने वाली ऊंटों की अलग अलग नस्ल, उनके उपयोग के अनुसार विकशित की गयी होगी।
1. बीकानेरी : – यह बीकानेर , गंगानगर ,हनुमानगढ़ एवं चुरू में पाया जाता है |
2. जोधपुरी :- यह मुख्यत जोधपुर और नागपुर जिले में पाया जाता है |
3. नाचना :- यह तेज दौड़ने वाली नस्ल है, मूल रूप से यह जैसलमेर के नाचना गाँव में पाया जाता है |
4. जैसलमेरी :-यह नस्ल जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर में पाई जाती है |
5. कच्छी :- यह नस्ल मुख्यरूप से बाड़मेर और जलोर में पाई जाती है |
6. जालोरी :- यह नस्ल मुख्यरूप से जालोर और सिरोही में पाई जाती है |
7. मेवाड़ी :- इस नस्ल का बड़े पैमाने पर भार ढोने के लिए उपयोग किया जाता है | यह नस्ल मुख्यत उदयपुर , चित्तोरगढ़ , प्रतापगढ़ और अजमेर में पाई जाती है |
8. गोमत :- ऊँट की यह नस्ल अधिक दुरी के मालवाहन के लिए प्रसिद्ध है और यह तेज़ धावक भी है। नस्ल मुख्य रूप से जोधपुर और नागौर में पाई जाती है |
9. गुढ़ा :- यह नागौर और चुरू में पाया जाता है |
10.खेरुपल :- यह बीकानेर और चुरू में पाया जाता है |
11. अल्वारी :- यह नस्ल मुख्य रूप से पूर्वी राजस्थान में पाई जाती है |
भारत में आज इस प्राणी की संख्या में अत्यंत गिरावट आयी है जहाँ वर्ष 2012 में इनकी संख्या 4 लाख थी वहीं वर्ष 2019 में 2.5 लाख रह गयी है। राजस्थान में पिछले कुछ वर्षो में ऊंटों की संख्या में भरी गिरावट देखी गयी है। भारत की 80% से अधिक ऊंटों की संख्या राजस्थान में मिलती है एवं वर्ष 2012 में जहाँ 3.26 लाख थी वहीँ सन 2019 में यह घट कर 2.13 लाख रह गयी जो 35% गिरावट के रूप में दर्ज हुई। ऊँटो की सर्वाधिक संख्या राजस्थान में वर्ष 1983 में दर्ज की गयी थी जब यह
इस गिरावट का मूल कारण जहाँ यातायात एवं मालवाहक संसाधनों के विस्तार को माना गया वहीँ राज्य में लाये गए ”The Rajasthan Camel (Prohibition of Slaughter and Regulation of Temporary Migration or Export) Act, 2015 ” के द्वारा इसके व्यापार की स्वतंत्रता पर लगे नियंत्रण को भी इसका कारण माना गया है।
राजस्थान के गौरव शाली इतिहास, रंगबिरंगी संस्कृति, आर्थिक विकाश के आधार रहे इस प्राणी को शायद हम पूर्ववर्ती स्वरुप में नहीं देख पाएंगे, परन्तु आज भी इनसे जुड़े लोग ऊँटो के लिए वही समर्पण भाव से कार्य कर रहे है, उन सभी को हम सबल देंगे इसी आशा के साथ।