पुस्तक समीक्षा: राजस्थान के बाघों का संसार

पुस्तक समीक्षा: राजस्थान के बाघों का संसार

पुस्तक का सारांश

“राजस्थान के बाघों का संसार” अरावली और विंध्यांचल की अद्भुत जैव विविधता और पारिस्थितिकी पर केंद्रित एक अनूठी कृति है। यह पुस्तक न केवल बाघों के संरक्षण के महत्वपूर्ण आयामों को सामने लाती है, बल्कि उन पहाड़ी क्षेत्रों में मौजूद वनस्पति, जीव-जंतुओं और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को भी विस्तार से समझाती है। इस पुस्तक के लेखक प्रवीण सिंह, मीनू धाकड़, धर्म सिंह गुर्जर और डॉ. धर्मेंद्र खांडल ने अपने अनुभव के आधार पर इस अद्वितीय पुस्तक को तैयार किया है।

विशेषताएं और सामग्री

विषयवस्तु की विविधता
पुस्तक में 13 अध्यायों के माध्यम से बाघों का महत्व, राजस्थान के प्रमुख टाइगर रिजर्व (जैसे रणथंभौर, मुकुंदरा, रामगढ़-विशधारी, धौलपुर-करौली), जैव विविधता, पारिस्थितिकी, संरक्षण जीवविज्ञान, सतत विकास, मानव-पारिस्थितिकी संघर्ष, विकास और अन्यान्य विषयों को समेटा गया है।

जैव विविधता का गहन विश्लेषण
पुस्तक अरावली-विंध्यांचल क्षेत्र की विशेष वनस्पति (जैसे धोक, पलाश, खैर) और जीव-जंतुओं का वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत करती है। यह क्षेत्र, भारत के शुष्क क्षेत्रों में होने के बावजूद, असाधारण जैव विविधता का घर है।

संरक्षण और सामुदायिक भागीदारी
इसमें टाइगर वॉच संस्था द्वारा किए गए संरक्षण कार्यों और स्थानीय समुदायों की भूमिका का विवरण मिलता है। संस्था के प्रयासों से न केवल वन्यजीव संरक्षण हुआ, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और शिक्षा के अवसर भी सृजित हुए।

वैज्ञानिक भाषा और स्थानीयता का सम्मिलन
इस पुस्तक में वैज्ञानिक तथ्यों को सुलभ भाषा में प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह शैक्षणिक संस्थाओं, छात्रों और आमजन के लिए भी उपयोगी बनती है। साथ ही, इसमें स्थानीय शब्दावली और कहानियों का समावेश इसे और भी रोचक बनाता है।

प्रेरक कथाएं
पुस्तक में खेजड़ली और अमृता देवी जैसी प्रेरणादायक गाथाओं का वर्णन है, जो राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत और पर्यावरण-संवेदनशीलता को उजागर करती हैं।

उपयोगिता

“राजस्थान के बाघों का संसार” पुस्तक न केवल वन्यजीव प्रेमियों और शोधार्थियों के लिए अमूल्य है, बल्कि छात्रों, शिक्षकों और राजस्थान के बाघ क्षेत्र में काम कर रहे प्रकृति मार्गदर्शकों (नेचर गाइड्स) के लिए भी एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। इस पुस्तक का लेखन शैली स्पष्ट, प्रवाहपूर्ण और वैज्ञानिक तथ्यों से परिपूर्ण है, जो इसे विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए समझने योग्य और प्रेरक बनाती है।

यह पुस्तक स्कूल के बच्चों और शिक्षकों के बीच जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से तैयार की गई है। साथ ही, बाघों के परिदृश्य में कार्यरत नेचर गाइड्स भी इससे लाभान्वित हो सकते हैं। पुस्तक में वैज्ञानिक तथ्यों को सहज भाषा में प्रस्तुत किया गया है, जिससे कठिन अवधारणाएं भी सरलता से समझाई जाती हैं। स्थानीय शब्दावली और सांस्कृतिक संदर्भों का समावेश इसे और भी रोचक बनाता है।

अतः, यह पुस्तक किसी भी व्यक्ति के लिए उपयोगी है, जो राजस्थान की जैव विविधता और पारिस्थितिकी में रुचि रखता है। यह पाठक वर्ग को न केवल अरावली-विंध्यांचल के अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र की सराहना करने में मदद करेगी, बल्कि इसके संरक्षण के प्रति प्रेरित भी करेगी।

नोट: इस पुस्तक की प्रति प्राप्त करने के लिए आप हमें tigerwatchtiger@gmail.com पर लिख सकते हैं या लेखकों से सीधे संपर्क कर सकते हैं।

राजस्थान और जलवायु परिवर्तन: संकट, संकेत और समाधान

राजस्थान और जलवायु परिवर्तन: संकट, संकेत और समाधान

देश का सबसे बड़ा राज्य आज सबसे बड़ी जलवायु चुनौती झेल रहा है

राजस्थान, जो भारत का सबसे बड़ा राज्य है (देश के भौगोलिक क्षेत्र का 10.4%), तेज़ धूप, रेतीले टीले और ऐतिहासिक किलों के लिए तो मशहूर है, लेकिन यही धरती आज बदलते मौसम की सबसे मुश्किल चुनौतियाँ झेल रही है। यहाँ की 6.85 करोड़ आबादी (2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी का 5.66%) अनियमित मानसून और बढ़ते तापमान के बीच जूझ रही है: खेतों में बूँद-बूँद पानी बचाने की होड़, गर्मी की लहरों में बिजली कटौती से बचने का संघर्ष, और बढ़ती महंगाई में दिन-प्रतिदिन जीवनयापन का तनाव।

यदि हमें “जलवायु परिवर्तन” शब्द सुनते ही सिर्फ ग्लेशियर पिघलने या समुद्रस्तर बढ़ने का खयाल आता है, तो राजस्थान के अनुभव उसे कहीं दूर तक ले जाते हैं। जब बारिश अपने सही समय और मात्रा से हटकर हो, तो यह आराम नहीं देती, बल्कि किसान के खेत सूख जाने का कारण बन जाती है; बिजली कटौती शहरों को “हीट आइलैंड” बना देती है, जहाँ हर दीवार तपती और हर कदम झुलसता है।

2022 में राजस्थान के पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन निदेशालय और आईआईटी मुंबई ने मिलकर जो स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (RSAPCC) जारी किया, वह सिर्फ एक कागजी दस्तावेज़ नहीं, बल्कि राज्य के सामने खड़ी उन आठ अहम चुनौतियों का नक्शा है जिनमें हम आज उतर रहे हैं—कृषि में सूखा-प्रतिरोधी फ़सलों से लेकर जल संचयन तक, वनों की रक्षा से लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य तक, ऊर्जा दक्षता से लेकर आपदा प्रबंधन तक।

यह योजना तय करती है कि किन-किन इलाकों को सबसे पहले प्राथमिकता देनी होगी और कैसे सामाजिक-आर्थिक संकेतक—जैसे जनसंख्या घनत्व, महिला साक्षरता, घरों का आकार, तथा अनुसूचित जाति-जनजाति की आबादी—हमें यह बताते हैं कि कहाँ सबसे अधिक तैयारी, सबसे सख्त कदम और सबसे सच्ची भागीदारी की दरकार है। जयपुर, सीकर और कोटा जैसे जिले जहाँ चक्रवात और गर्मी की लहरें आम बात हो गई हैं, उनकी कहानी अलग है; प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़ और बांसवाड़ा जैसे ग्रीन इलाके दूसरी दास्ताँ सुनाते हैं, जहाँ सूखे ने संस्कृति और आम जीवन को मुश्किलों में डाला है।

जलवायु परिवर्तन के प्रति राजस्थान राज्य में जिला-वार सामाजिक-आर्थिक संवेदनशीलता (सौजन्य: RSAPCC)

जलवायु परिवर्तन के प्रमुख प्रभाव

जब बरसात राहत नहीं, सिरदर्द बन जाए

राजस्थान में ग्रीष्म और शीत ऋतुओं की तीव्रता में स्पष्ट वृद्धि है—गर्मी पहले की तुलना में अधिक प्रचंड हो गई है और सर्दी अधिक कड़ाके की होने लगी है। मॉनसून की अनिश्चितता, वर्षा का देर से आगमन या अल्पावधि में अत्यधिक वर्षा जैसी स्थितियाँ सामान्य होती जा रही हैं। इसके परिणामस्वरूप कृषि प्रणाली बुरी तरह प्रभावित हो रही है।

यहाँ औसत वार्षिक वर्षा लगभग 572 मिमी है, पर यह बहुत असमान रूप से वितरित है: राज्य का उत्तर-पश्चिमी हिस्सा मात्र 200–400 मिमी बारिश प्राप्त करता है, जबकि दक्षिण-पूर्व में यह 900–1000 मिमी तक पहुँच जाती है।

अरावली पर्वत श्रृंखला राज्य को दो भिन्न जलवायु क्षेत्रों में विभाजित करती है; अरावली के पश्चिम का क्षेत्र शुष्क से अर्ध-शुष्क है, जबकि पूर्व का क्षेत्र अर्ध-शुष्क से उप-आर्द्र है और अत्यधिक तापमान, लंबे सूखे, तेज हवाओं और उच्च संभावित वाष्पीकरण की विशेषता है। इस असमानता और मॉनसून की कमी या अत्यधिक तीव्रता की वजह से अचानक सूखा और बाढ़ जैसी चरम घटनाएं आम हो गई हैं, जिससे कृषि प्रणाली बुरी तरह प्रभावित होती है। रिपोर्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि राजस्थान में सूखे के महीनों में वृद्धि हुई है।

सूखी और फटती ज़मीन के बीच जीवन की आखिरी उम्मीद — घटती जलधाराएँ सिर्फ प्यास नहीं बढ़ा रहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को संकट में डाल रही हैं।

गर्मी, सूखा और बाढ़: एक साथ तीन मोर्चों की मार

“राजस्थान की दो जलवायु अवधियाँ और बदलती वर्षा की तस्वीर”

रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में वर्षा की स्थिति का मूल्यांकन दो प्रमुख समयावधियों—1901 से 1950 तक और 1951 से 2015 तक निम्न बिन्दुओ के आधार पर किया गया है:

  • वार्षिक वर्षा के रुझान: 1950 तक प्रतापगढ़, बांसवाड़ा और दक्षिणी राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में अच्छी वर्षा हुआ करती थी, जबकि जैसलमेर और उत्तरी राजस्थान के कई हिस्सों में लगभग सूखे जैसे हालात थे। लेकिन 1951 से 2015 की अवधि में यह तस्वीर बदल गई — अब जोधपुर, बीकानेर जैसे पश्चिमी-उत्तर पश्चिमी क्षेत्र, पारंपरिक रूप से शुष्क माने जाने के बावजूद, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान से अधिक वर्षा प्राप्त करने लगे हैं। वहीं, पहले अधिक वर्षा वाले दक्षिणी क्षेत्र अब लगातार सूखाग्रस्त होते जा रहे हैं। ढोलपुर, जयपुर और मध्य राजस्थान के अन्य इलाके, जो पहले सामान्य वर्षा क्षेत्र थे, अब सूखे की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं।
  • अगर मानसून की बारिश की बात करें, तो 1901 से 1951 की अवधि के दौरान पूर्वी-दक्षिणी राजस्थान—जैसे प्रतापगढ़, उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और हाड़ौती क्षेत्र—में सर्वाधिक वर्षा होती थी। लेकिन 1951 से 2015 की अवधि में यह प्रवृत्ति बदल गई और जोधपुर, चूरू, झुंझुनूं जैसे शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर पूरे राज्य में वार्षिक मानसूनी वर्षा में गिरावट दर्ज की गई है।
  • गैर-मानसून वर्षा के बदलाव: 1950 से पहले कोटा, झालावाड़ जैसे हाड़ौती क्षेत्र में गैर-मानसून (ग्रीष्म एवं शीत ऋतु) वर्षा सामान्य रूप से होती थी, जबकि अरावली की तलहटी में बसे जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, पाली, नागौर आदि क्षेत्रों में इसकी मात्रा नगण्य थी। लेकिन 1950 से 2015 के बीच यह प्रवृत्ति उलट गई — अब जैसलमेर व उसके आसपास के क्षेत्रों में गैर-मानसून वर्षा अपेक्षाकृत अधिक देखी जा रही है, जबकि हाड़ौती क्षेत्र में यह लगभग समाप्त हो गई है।

बरसात के रंग: लाल से नीला होता रेगिस्तान

“मानचित्रों में जलवायु का इतिहास”

नीचे दिए गए मानचित्रों में राजस्थान में वर्षा के दशकों के बदलावों को रंगों के माध्यम से दर्शाया गया है। लाल रंग उन क्षेत्रों को दिखाता है जहाँ वर्षा में गिरावट या कम वर्षा हुई है, जबकि नीला रंग उन क्षेत्रों को चिन्हित करता है जहाँ वर्षा की मात्रा में वृद्धि देखी गई है।

1901-1951 अवधि के बीच कुल वार्षिक वर्षा, वार्षिक अधिकतम वर्षा, मानसून वर्षा और गैर-मानसून वर्षा का रुझान (सौजन्य: RSAPCC)

1951-2020 अवधि के बीच कुल वार्षिक वर्षा, वार्षिक अधिकतम वर्षा, मानसून वर्षा और गैर-मानसून वर्षा का रुझान (सौजन्य: RSAPCC)

पानी की प्यास और घटती ज़मीन के नीचे की नमी

“राज्य के पूर्वोत्तर हिस्से सबसे तेज़ी से सूख रहे हैं”

राजस्थान पहले से ही भारत के सबसे जल-अभावग्रस्त राज्यों में है। RSAPCC रिपोर्ट बताती है कि राज्य के उत्तर-पूर्वी जिलों (सीकर, जयपुर, अलवर, दौसा, धौलपुर, करौली, नागौर, राजसमंद) में भूजल स्तर तेजी से घट रहा है, जो तेजी से भूजल की कमी का संकेत है। भूजल पर अधिक दोहन और अनियमित वर्षा के कारण खेतों में पानी नहीं रुकता, ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल और सिंचाई दोनों के लिए संघर्ष बढ़ता जा रहा है। क्षेत्रीय जल संकट राजस्थान में एक गंभीर समस्या हो सकती है, जहां कम वर्षा और भूजल के अत्यधिक दोहन के प्रभाव भविष्य में और बढ़ने की संभावना है। भविष्य में दक्षिण-पूर्वी राजस्थान (प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, चित्तोडगढ़, एवं कोटा के कुछ हिस्से) में जल उपलब्धता में वृद्धि दिखाई देती है, लेकिन शेष राजस्थान में कोई परिवर्तन या कमी नहीं दिखती है।

मानचित्र: भूजल की उपलब्धता के रुझान 1996-2014 की अवधि में (सौजन्य: RSAPCC)

जल की माँग बनाम उपलब्धता: एक असंतुलन की तस्वीर

“हनुमानगढ़ से भरतपुर तक अधिक जल उपयोग, लेकिन संकट हर ओर”

राजस्थान में जल की वार्षिक मांग को विभिन्न उपयोग श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिनमें घरेलू उपयोग, पशुधन, संस्थागत जरूरतें, अग्निशमन, सिंचाई तथा विद्युत संयंत्रों की शीतलन आवश्यकताएं शामिल हैं। इन सभी श्रेणियों की कुल मांग को मिलाकर राज्य का वार्षिक जल उपयोग तय किया गया है। संलग्न मानचित्र में राजस्थान के विभिन्न जिलों में जल उपयोग की मात्रा (मिमी में) को रंगों के माध्यम से दर्शाया गया है, जिसमें अधिक जल उपयोग वाले क्षेत्र लाल और कम जल उपयोग वाले क्षेत्र नीले व बैंगनी रंग में दिखाए गए हैं। यह विश्लेषण दर्शाता है कि राज्य के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी हिस्सों (हनुमानगढ़, गंगानगर, अलवर, जयपुर,  भरतपुर, बूंदी, सीकर, और दौसा) में जल उपयोग अपेक्षाकृत अधिक है, जबकि पश्चिमी और दक्षिणी भागों में यह कम पाया गया है। यह वितरण मुख्यतः सिंचाई, पशुपालन और जनसंख्या घनत्व जैसे कारकों पर निर्भर करता है।

वार्षिक जल उपयोग (सौजन्य: RSAPCC)

कृषि की लड़ाई: जलवायु के सामने किसान बेबस

“65% आबादी की रोज़ी पर मंडराता संकट”

राजस्थान जैसे सूखा-प्रभावित राज्य में, जहां लगभग 65% आबादी की आजीविका सीधे खेती और मौसम पर निर्भर है, जलवायु परिवर्तन की मार सबसे तीव्र रूप से महसूस की जा रही है। बार-बार सूखा पड़ना, भूजल स्तर में गिरावट, जल संसाधनों की कमी, अकुशल जल प्रबंधन, बिगड़ती मिट्टी की गुणवत्ता और घटती उत्पादकता जैसे संकट कृषि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं। इसके साथ ही, बेमौसमी तूफान, लंबा सूखा, ओलावृष्टि और अचानक बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाएं अब आम हो गई हैं, जिनकी आवृत्ति लगातार बढ़ रही है। जिन जिलों में मौसम की अनिश्चितता अधिक है, वहां कृषि सबसे अधिक संकटग्रस्त है, जिससे फसलें बर्बाद हो रही हैं और किसान आर्थिक असुरक्षा की स्थिति में फंसते जा रहे हैं।

“बारमेर से सिरोही तक अलग-अलग संकट, अलग-अलग कारण”

राज्य-स्तरीय आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि कृषि संवेदनशीलता और जलवायु संकट के बीच एक सकारात्मक संबंध है। बाड़मेर, जैसलमेर, चूरू और जालोर जैसे ज़िले सर्वाधिक संवेदनशील पाए गए हैं, जबकि बूंदी, चित्तौड़गढ़, दौसा, करौली, राजसमंद, अलवर, बारां और धौलपुर जैसे ज़िलों में यह संवेदनशीलता सबसे कम है। हालांकि कुछ ज़िले इस सामान्य प्रवृत्ति से अलग भी हैं—जैसे गंगानगर और हनुमानगढ़, जहां जलवायु संकट तो अधिक है, लेकिन सिंचाई की बेहतर सुविधाओं के कारण कृषि अपेक्षाकृत सुरक्षित है। इसके विपरीत सिरोही ज़िले में जलवायु संकट अपेक्षाकृत कम होते हुए भी कृषि की संवेदनशीलता अधिक है, क्योंकि वहां सिंचाई सुविधा और उत्पादकता दोनों बहुत कम हैं।

इन हालातों का सामाजिक प्रभाव भी गहरा है—स्थानीय बाजारों में अंशकालिक मजदूरी, ऋणग्रस्तता और प्रवासन की प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिससे ग्रामीण सामाजिक संरचना अस्थिर हो रही है।

तपिश और बीमारी: जनस्वास्थ्य पर दोहरी मार

“हीट स्ट्रोक से लेकर डेंगू तक, जलवायु बदल रही है बीमारियों का नक्शा”

तापमान में वृद्धि, जल संकट और भोजन की असुरक्षा का सीधा असर जनस्वास्थ्य पर पड़ रहा है, विशेषकर कमजोर और वंचित समुदायों में। अत्यधिक गर्मी ‘हीट स्ट्रोक’ और ‘हीट एक्सहॉस्टन’ जैसी बीमारियाँ ला रही है, जबकि बाढ़ और जलजमाव के कारण डेंगू, मलेरिया जैसे पानीजनित रोग तेजी से फैल रहे हैं। राजस्थान में पहले से ही डेंगू और मलेरिया का प्रकोप अधिक है। जलवायु परिवर्तन से प्रेरित अप्रत्यक्ष स्वास्थ्य प्रभावों में व्यावसायिक रोग, खराब पोषण और मानसिक स्थिति भी शामिल हैं।

बढ़ती आर्द्रता और सर्दी से अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसे श्वसन संबंधी रोगों में भी वृद्धि हो रही है। इन सभी कारणों से अस्पतालों में भीड़ बढ़ रही है, स्वास्थ्य बजट पर दबाव पड़ रहा है और लोगों की जीवन गुणवत्ता में गिरावट आ रही है—यहाँ तक कि छुट्टियाँ भी अब स्वास्थ्य संबंधी चिंता से घिर गई हैं।

शहरों की गर्मी और जलभराव: हीट आइलैंड बनते शहर 

“जब हर सड़क तपती है और हर गली में पानी भरता है”

शहरों में ग्रीन स्पेस कम होने से “अर्बन हीट आइलैंड” इफ़ेक्ट बढ़ता है। बारिश का पानी सही ढंग से निकासी न मिलने से जलभराव होता है, ट्रैफिक जाम और प्रदूषण दोगुना होता है। रिपोर्ट बताती है कि राजस्थान के शहरी क्षेत्रों, विशेषकर सीकर जिले में, वार्षिक न्यूनतम दैनिक तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है। वहीं, दक्षिण और पूर्वी राजस्थान के शहरों (बांसवाड़ा, बारां, बूंदी, चित्तौड़गढ़, झालावाड़, पाली, सिरोही, चूरू और जयपुर) के साथ-साथ पश्चिम में जैसलमेर में दैनिक अधिकतम तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है। ऐसे हालात में पानी सोखने वाले फर्श और वर्षा जल संचयन जैसे स्थानीय उपाय ही कारगर समाधान हैं।

वनों की आग और जैव विविधता की पुकार

“2035 तक वन आवरण का 61% बदल सकता है”

वन और जैव विविधता पर भी गंभीर खतरा मंडरा रहा है। अरावली की पहाड़ियों से लेकर अन्य जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ी हैं, जिससे कई प्रजातियों के आवास प्रभावित हुए हैं और पारिस्थितिक असंतुलन पैदा हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण वनों की आग, पौधों और जानवरों की प्रजातियों के निवास स्थान में बदलाव और वनस्पति संरचना में गिरावट देखी जा रही है। इससे पारिस्थितिक तंत्र की स्थिरता को खतरा है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण राजस्थान में वनस्पति आवरण में परिवर्तन 2035 तक 61.22% और 2085 तक 78.18% हो सकता है।

जलते जंगलों की लपटें सिर्फ पेड़ों को नहीं, भविष्य की उम्मीदों को भी राख कर रही हैं।
राजस्थान की सूखी धरती पर हर चिंगारी एक चेतावनी है।

त्योहार, संस्कृति और परंपरा: जलवायु से बदलता जन-जीवन

“मानसून आधारित त्योहारों का समय अब यादों में खोता जा रहा है”

जलवायु परिवर्तन ने परम्परागत त्योहारों, लोककथाओं और रीति-रिवाजों को भी प्रभावित किया है। मानसून पर आधारित उत्सवों का समय खिसक रहा है, नदी-तीर्थ यात्रा जोखिमभरे हो गए हैं, और पारंपरिक कृषि-आधारित त्यौहारों में हिस्सा लेने वाले युवा शहर की ओर पलायन कर रहे हैं।

कभी हरियाली तीज की झूला गीतों से गूंजते आँगन, आज सूखी धरती और धुंधली यादों में बदल गए हैं। मानसून-आधारित त्योहार अब सिर्फ दीवारों की फीकी पेंटिंग में बचे हैं।

कभी हरियाली तीज की झूला गीतों से गूंजते आँगन, आज सूखी धरती और धुंधली यादों में बदल गए हैं।
मानसून-आधारित त्योहार अब सिर्फ दीवारों की फीकी पेंटिंग में बचे हैं।

2030 की चेतावनी: उत्सर्जन और अवसर दोनों साथ

“यदि आज नहीं चेते, तो 1.7 गुना बढ़ जाएगा उत्सर्जन”

रिपोर्ट के अनुसार, यदि वर्तमान विकास की दिशा में कोई परिवर्तन नहीं किया गया तो राजस्थान में 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वर्तमान मूल्य का लगभग 1.7 गुना तक बढ़ सकता है। राजस्थान का कुल अनुमानित योगदान 137 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष है, जिसमें लगातार वृद्धि की प्रवृत्ति है।

प्रमुख उत्सर्जक क्षेत्र और अनुमान:

  • बिजली उत्पादन: यह क्षेत्र लगभग 2 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन करता है और सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक है।
  • कृषि क्षेत्र: यह भी लगभग 8 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का योगदान देता है, जिसमें फसल अवशेषों को जलाना, पशुधन से मीथेन उत्सर्जन और उर्वरकों का उपयोग शामिल है।
  • उद्योग: औद्योगिक उत्पादन लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है ।
    • सीमेंट उद्योग: यह औद्योगिक उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा है ।
    • वस्त्र और चमड़ा, एवं रसायन और उर्वरक उद्योग भी महत्वपूर्ण योगदानकर्ता हैं ।
  • परिवहन: यह क्षेत्र लगभग 34 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है और 2030 तक इसके उत्सर्जन में 2.7 गुना वृद्धि का अनुमान है ।
  • आवासीय क्षेत्र: लगभग 10 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन, मुख्य रूप से खाना पकाने और प्रकाश व्यवस्था के लिए पारंपरिक ईंधन के उपयोग से होता है । 2030 तक इसमें 20% वृद्धि की संभावना है ।
  • ईंट उत्पादन: लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष उत्सर्जित करता है । यदि वर्तमान तकनीक (मुख्य रूप से फिक्स्ड चिमनी बुल्स ट्रेंच किल्न – FCBTKs) में बदलाव नहीं किया गया तो 2030 तक ईंट निर्माण से होने वाला उत्सर्जन दोगुना से अधिक हो सकता है ।
  • अपशिष्ट प्रबंधन: लगभग 4 मीट्रिक टन CO₂-तुल्यांक/वर्ष का उत्सर्जन करता है ।

नीतियाँ नहीं, समाधान चाहिए: अवसरों की सूची

“जल, ऊर्जा, कृषि, वन और स्वास्थ्य—हर क्षेत्र में सुधार की राह है”

हालांकि, यह संकट एक अवसर भी प्रदान करता है। राजस्थान राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (RSAPCC) में कई समाधान सुझाए गए हैं, जैसे:

  • जल प्रबंधन: पुनः उपयोग और रिचार्ज को बढ़ावा देना। जल संरक्षण के पारंपरिक और वैज्ञानिक तरीकों को एकीकृत करना। इसमें वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाना और भूजल पुनर्भरण के लिए नवोन्मेषी तकनीकों का उपयोग करना शामिल है।
  • हरित ऊर्जा में निवेश: सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं का विस्तार। राजस्थान में सौर ऊर्जा की अनुमानित क्षमता 142 GW और पवन ऊर्जा की 7 GW है।
  • स्मार्ट कृषि: जल-कुशल तकनीकों और फसल विविधीकरण को अपनाना। इसमें ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना शामिल है।
  • शहरी नियोजन: हरित भवन, सार्वजनिक परिवहन और टिकाऊ बुनियादी ढांचे की ओर अग्रसर होना। शहरों में ग्रीन स्पेस बढ़ाना और वर्षा जल निकासी प्रणालियों में सुधार करना।
  • स्वास्थ्य प्रणाली को जलवायु के अनुकूल बनाना: स्वास्थ्य सेवाओं, पोषण, स्वच्छता और निगरानी तंत्र को सुदृढ़ करना। इसमें गर्मी और सर्दी से संबंधित बीमारियों के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली विकसित करना और वेक्टर जनित रोगों के लिए निगरानी बढ़ाना शामिल है।
  • वन और जैव विविधता का संरक्षण: वनीकरण को बढ़ावा देना, मौजूदा वनों की सुरक्षा करना और आग की घटनाओं को रोकने के उपाय करना।
  • उत्सर्जन में कमी: औद्योगिक प्रक्रियाओं में सुधार, ईंट भट्टों में स्वच्छ तकनीक का उपयोग और परिवहन क्षेत्र में इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष: आज की तैयारी, कल का भविष्य

“अगर आज ठोस कदम उठाए, तो राजस्थान बन सकता है मॉडल राज्य”

जलवायु परिवर्तन कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक जीवंत, वर्तमान संकट है — और राजस्थान इसके सबसे सामने खड़े राज्यों में है। यदि आज हम समुचित नीति, समुदायिक भागीदारी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ ठोस कदम उठाते हैं, तो न केवल हम इस संकट से बच सकते हैं, बल्कि राजस्थान को जलवायु-संवेदनशीलता से मुक्त एक टिकाऊ राज्य के रूप में स्थापित भी कर सकते हैं। इस कार्य योजना का प्रभावी कार्यान्वयन राजस्थान को भारत में जलवायु कार्रवाई के लिए एक बेंचमार्क बना सकता है।

गर्मी की मार झेलता एक ग्रामीण – तपती ज़मीन, दीवारों में समाई लू, और पेड़ की छांव ही है राहत का एकमात्र सहारा। राजस्थान के गाँवों में अब यही दृश्य आम हो चला है। (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

नोट: यह लेख राजस्थान राज्य जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (Rajasthan State Action Plan on Climate Change – RSAPCC) पर आधारित है, जिसे 2022 में राजस्थान सरकार के पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) मुंबई के सहयोग से तैयार किया गया था। इस योजना के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाने वालों में राजस्थान सरकार के तत्कालीन प्रमुख सचिव (वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन) श्री शिखर अग्रवाल (IAS) और IIT मुंबई के प्रोफेसर के. नारायणन (मुख्य परियोजना प्रभारी) शामिल थे। IIT मुंबई की टीम में प्रोफेसर रंगन बनर्जी, प्रोफेसर सुभीमल घोष, प्रोफेसर अर्नब जना, प्रोफेसर त्रुप्ति मिश्रा, प्रोफेसर डी. पार्थसारथी, प्रोफेसर आनंद बी. राव और प्रोफेसर चंद्रा वेंकटरमन जैसे विशेषज्ञों ने योगदान दिया। इस योजना का उद्देश्य राजस्थान को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक लचीला और अनुकूल बनाने के लिए रणनीतियाँ विकसित करना है।

Fading sound of the sparrow

Fading sound of the sparrow

For a child one of the first things that catch his attention is the flying and fluttering of birds and most often it is the house sparrow, it will encounter which will be a part of its childhood amusement. May be it is not today’s reality but it was true until recent past.

May be we are not as adaptive today that we can accommodate the chirpy little birds which at times brings in some dry grass or foliage to build its nest inside our houses, but for their safety concerns like fan and appliance running in our houses, we may also restrict their movement in our houses.

The house sparrow is a native to most of Europe, Mediterranean region and entire Asia. House sparrow is classified into 12 different subspecies depending upon the evolution. These are among the first animals to be getting a scientific name in the modern system of biological classification mainly because it was the common species found around man. Its scientific name is Passer domesticus. The Passer genus has 25 different species and domesticus is one of the 25 species. In India, two subspecies of sparrows are found – one is parkini found only in Kashmir and indicus found throughout India.   

The house sparrow is a very social bird, it does a lot of activates socially such as dust and water bathing, social singing, foraging etc. they are monogamous birds and their mate is the same throughout life, although they stay as a pair yet the male copulates with other female sparrows from time to time. The female lays a clutch of 4-5 eggs at one time and the eggs get hatched in 14-15 days, the young sparrow stays in the nest for 11-23 days and in this time both the parents feed the young ones.

But the little bird has many predators such as the cat, sparrow hawks but its only in the past few years that a drastic decline has been seen in the sparrow population. Some people attribute it to the electromagnetic pollution emitted through modern day appliances such as mobile phones. Some do not blame this as the prime reason but the use of pesticide for crops which has upset the insect population which are needed as food base for the chicks and the pesticide induced crops are a cause of secondary poisoning in the bird population.

Now that the food is filled with toxins and there is no safe nesting space for the little bird so what is its future? In India, there is an interesting initiative by Maharashtra based Nature forever society where they started an amazing campaign for the neglected common species where 20th march is celebrated as World Sparrow Day to raise awareness among common man. Bird feeders and nest boxes are developed after research, now we may have to work a bit for these creatures by keeping these bird feeders, having nest boxes for them. Allotting spaces by keeping nest boxes in an area, that is beyond reach of the house cat and other predators and has offerings of millet, wheat and water around its nesting site. The opening of the nest box should not be too wide so that no predators can enter inside it.

If you remember the good old days of watching Doordarshan where the song played ‘ek chidiya…anek chidiya’ may be those days will come back soon if you do these small efforts those days might come back. Let’s work on so that this fading chirping of the gullible sparrow is saved from getting lost due to our carelessness. 

रणथंभोर में बाघ संरक्षण की वर्तमान चुनौतियां

रणथंभोर में बाघ संरक्षण की वर्तमान चुनौतियां

राजस्थान में बाघ संरक्षण में रणथंभोर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और यहीं से राज्य के अन्य क्षेत्रों के लिए बाघों को भेजा जा रहा है। अक्सर यह देखा गया है की राजनीतिक दबाव के कारण नए स्थापित रिजर्वों में भेजे जाने वाले बाघों का चयन जल्दबाजी में अवैज्ञानिक तरीके से किया जाता रहा है, जिससे रणथंभोर के बाघों की आबादी पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। यह लेख रणथंभोर में बाघों की आबादी से जुड़ी मुश्किलों और चुनौतियों पर प्रकाश डालता है, साथ ही यह आलेख स्पष्ट करता है की किस प्रकार कुछ वर्षों में किये गए बाघों के अन्यत्र स्थानांतरण ने रणथंभोर को किस प्रकार मुश्किल में डाला है।

यहाँ मुख्यतः निम्न प्रश्नों पर टिप्पणी की गई है:

  • रणथंभोर के बाघों में अक्सर नर अपना जीवनकाल पूरा नहीं कर पाते और समय से पहले ही अपना क्षेत्र खो देते हैं, जबकि मादा अधिक समय तक जीवित रहती हैं, कुछ तो 19 वर्ष की आयु भी पार कर जाती हैं। इसके पीछे क्या कारण रहते है? यदि स्थान की कमी मात्र एक कारण होता तो यह प्रभाव दोनों पर देखने को मिलना चाहिए था?
  • रणथंभोर में बाघों की वर्तमान जनसंख्या के आंकड़े क्या हैं? और रणथंभोर की बाघ आबादी में कितने नर और मादा हैं?
  • बढ़ते मानव-बाघ संघर्ष के पीछे क्या कारण हैं?

1.   वयस्क नर-मादा अनुपात में असंतुलन

वर्तमान में, रणथंभोर (डिवीजन I) की बाघ आबादी 46 (वयस्क) हैं – इनमें 23 नर और 23 मादा है। हालांकि, 23 में से केवल 18 मादा ही प्रजनन योग्य हैं। जबकि पाँच बाघिनें (T08, T39, T59, T69, और T84) 15 वर्ष से अधिक या समकक्ष आयु अथवा बीमार हैं और उनके आगे प्रजनन करने की संभावना अत्यंत क्षीण है। हालाँकि अभी 23 नर में से कोई भी नर 11 वर्ष से अधिक का नहीं हुआ है, जो नरों के बीच उच्च संघर्ष दर का कारण है। वयस्क नर समय से पहले ही उनकी टेरिटरी से भगा दिए जा रहे है।

रणथंभोर में 46 वयस्क बाघों के अलावा 15 शावक भी हैं। इसके अतिरिक्त, कैलादेवी क्षेत्र (रणथंभोर के डिवीजन II) में 4 बाघ हैं, जिससे रणथंभोर बाघ अभयारण्य में बाघों की कुल आबादी 65 हो गई है। हालांकि, रणथंभोर में कुछ लोगों की माने तो 88 बाघ है, परन्तु यह दावे गलत हैं। एक समय यह संख्या निश्चित रूप से 81 तक पहुँच गई थी, लेकिन कई बाघ प्राकृतिक कारणों से समय से पहले मर गए और अनेक बाघ इधर उधर भेज दिए गए। आजकल शावकों को भी गिनती में शामिल किया जाने लगा है, जिससे बाघों की बढ़ी हुई संख्या सामने आती है। हालाँकि छोटे शावकों को गिनती में शामिल करना एक सही तरीका नहीं है। अक्सर वन अधिकारियों द्वारा इन बढ़े हुए आंकड़ों को मीडिया में बढ़ावा दिया जाता रहा है। इसका उद्देस्य असल में रणथंभोर से बाघों के स्थानांतरण को विरोध का सामना नहीं करना पड़े इसलिए किया जा रहा है।

2.   बाघों के स्थानांतरण के परिणाम: बिगड़ा हुआ लिंग अनुपात, परिणाम स्वरूप मानव-बाघ एवं बाघ-बाघ संघर्ष में बढ़ोतरी।

अब तक 11 बाघिनों (T1, T18, T44, T51, T52, T83, T102, T106, T119, T134, और T2301) और 5 नर बाघों (T10, T12, T75, T110, और T113) को रणथंभोर से दूसरे रिजर्व में स्थानांतरित किया जा चुका है। मादा-से-नर के इस 2:1 स्थानांतरण अनुपात ने रणथंभोर में नर-मादा के अनुपात को पूरी तरह असंतुलित कर दिया है। पारिस्थितिकी जरूरत के अनुरूप बनाए जाने के बजाय,  राजनीतिक प्रभाव में स्थापित किए गए नए रिजर्व एवं बिना इकोलॉजिकल सुधार के बाघों के स्थानांतरण के कारण अनेक स्थानांतरित बाघों (T10, T12, T44, T75, T83, T102, और T106) की मृत्यु दर्ज की गयी, साथ ही उनको प्रजनन सफलता की कमी और मानव-वन्यजीव संघर्षों का सामना करना पड़ा है। रणथंभोर के भीतर गुढ़ा और कचिदा जैसे प्रमुख क्षेत्र अब बाघों के हटाए जाने के कारण खाली पड़े हैं, जिससे आबादी का सामाजिक ढांचा बाधित हो रहा है क्योंकि इन जगह से अनेक बार रेजिडेंट बाघों को उठाया गया है। जैसे स्थानांतरित बाघिन T102 का क्षेत्र तीन वर्षों से अधिक समय से खाली पड़ा है। इसी तरह, नर T12 के स्थानांतरित होने के बाद, उसकी मादा  साथी T13 पार्क छोड़कर चली गयी और अंततः उसके दो शावक मारे गए। यह सभी कारण प्रदर्शित करते है कि बाघों के संरक्षण में अवैज्ञानिक तरीके अपनाए गए है।

3.   युवा नर बाघों की अधिक संख्या से संघर्ष बढ़ रहे हैं

रणथंभोर में आज के समय जो 23 नर हैं, उनमें सबसे अधिक उम्र का मात्र एक बाघ है, जो 10-11 साल का है।  इन 23 बाघों में से 20 बाघ छह साल से कम उम्र के हैं, जो दर्शाता है कि इनके मध्य संघर्ष बढ़ने की संभावना है और यह सब भी संघर्ष का ही नतीजा प्रतीत हो रहा है। इन बाघों के बीच क्षेत्रीय संघर्ष के कारण बाघ अपनी उम्र से पहले ही टेरिटरी छोड़ रहे है।

कुछ को नए क्षेत्रों की तलाश में बाहरी क्षेत्रों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। रणथंभोर में विषम लिंग अनुपात के बारे में पता होने के बावजूद, पिछले साल तीन बाघिनों को अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर दिया गया था। संतुलन बहाल करने और संघर्ष को कम करने के लिए नर बाघों की अधिक संख्या को नियंत्रित करने की आवश्यकता है और मादाओं के स्थानन्तरित करने पर रोक की ओर अधिक बल देना चाहिए।

4.   रणथंभोर में बाघिनों की दीर्घायु के कारण

रणथंभोर में मादाएँ अक्सर लंबे समय तक जीवित रहती हैं, कुछ की आयु 19 वर्ष से अधिक पहुंची है। यह दीर्घायु आंशिक रूप से पार्क अधिकारियों द्वारा किए गए हस्तक्षेपों के कारण है, जो अक्सर स्वास्थ्य चुनौतियों या शिकार की कठिनाइयों का सामना करने वाले बाघिनों को शिकार उपलब्ध करवाकर के उनकी सहायता करते हैं। हालाँकि ये उपाय उनके कठिन समय के दौरान जीवित रहने को सुनिश्चित करते हैं, परन्तु वे उन्हें जंगल की प्राकृतिक प्रतिकूलताओं से बचाकर कृत्रिम रूप से उनके जीवनकाल को भी बढ़ाते हैं। इसमें सबसे बड़े कारण हमारे मीडिया बंधु होते है अथवा बाघ प्रेम प्रदर्शित करने वाले सोशल मीडिया के बाघ प्रेमी जो इसके लिए अक्सर कई तरह से दबाव बनाते है। दूसरा कारण है की बाघिनें पार्क के भीतर अधिक आसानी से दिखाई देती हैं, अक्सर अधिकारियों को अधिक दिखाई देती है और वे उनके प्रति नरम दृष्टिकोण अपनाते हैं ओर उन्हें बुढ़ापा आने तक भी मरने नहीं देते है।

इसके अलावा, युवा बाघिनों को अन्य रिजर्व में स्थानांतरित करने से रणथंभोर में मादाओं की संख्या में और कमी आई है। परिणामस्वरूप, शेष बाघिनों, जिनमें से कई बड़ी उम्र की हैं को शिकार, पानी और सुरक्षित क्षेत्रों जैसे संसाधनों के लिए कम प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है ओर वे आधी उम्र तक जिंदा रहती है।

हालाँकि, प्रजनन क्षमता वाली कम उम्र की मादा बाघिनों के स्थानांतरण के साथ, सीमित प्रजनन क्षमता वाली वृद्ध मादा बाघिनों की उपस्थिति इस भ्रामक धारणा को और मजबूत करती है कि पार्क में संतुलित या अधिक मादा आबादी है। यह क्षेत्र में बाघ आबादी की दीर्घकालिक स्थिरता को कमजोर करता है।

5.   क्या रणथंभोर से बाघों के स्थानांतरण को पूरी तरह से रोक दिया जाना चाहिए?

नहीं, बाघों के स्थानांतरण को पूरी तरह से रोकना समाधान नहीं है। रणथंभोर की बाघ आबादी राज्य और उसके बाहर के अन्य पार्कों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालाँकि, ऐसे स्थानांतरण के लिए धैर्य, सावधानीपूर्वक योजना और सूचित निर्णय की आवश्यकता होती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि स्रोत आबादी को खतरे में डाले बिना (स्रोत और प्राप्तकर्ता) दोनों क्षेत्रों को लाभ हो।

रणथंभोर में वर्तमान में 15 शावक वयस्कता के करीब हैं, जो भविष्य के स्थानांतरण की संभावना प्रदान करते हैं। हालाँकि, इस स्तर पर मादा बाघिनों को और हटाने से आबादी की स्थिरता गंभीर रूप से बाधित हो सकती है। अन्य अभयारण्यों की जरूरतों को रणथंभोर की बाघ आबादी के दीर्घकालिक स्वास्थ्य और स्थिरता के साथ संतुलित करना महत्वपूर्ण है।

सुझाव

1.  बाघिनों के स्थानांतरण पर तुरंत रोक लगाएं

रणथंभोर की आबादी को और अधिक अस्थिर होने से बचाने के लिए बाघिनों के स्थानांतरण को रोका जाना चाहिए। यदि स्थानांतरण आवश्यक है, तो  कुछ नर बाघों को स्थानांतरित करने से क्षेत्रीय टकराव कम होगा और महत्वपूर्ण मादा आबादी सुरक्षित रहेगी।

2.  आनुवंशिक विविधता के लिए अन्य राज्य का सहयोग करें एवं उनसे मदद

राजनीतिक रूप से समान विचारधारा के राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से नए बाघ मांगे जा सकते है।  उनसे बाघों के आदान-प्रदान का अवसर ढूँढने पर बल देना चाहिए। इससे राजस्थान की बाघ आबादी में नई आनुवंशिक विविधता का संचार होगा और इसकी दीर्घकालिक व्यवहार्यता मजबूत होगी।

3.  डिवीजन II के विकास पर ध्यान केंद्रित करें

नए रिजर्व बनाने के बजाय, संसाधनों को रणथंभोर के डिवीजन II के विकास के लिए आवंटित किया जाना चाहिए। स्रोत आबादी को मजबूत करना पूरे राजस्थान में बाघ संरक्षण प्रयासों को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।

4.  विचारशील स्थानांतरण रणनीतियों को अपनाएं

बाघ SBT 2303 के हालिया स्थानांतरण उल्लेखनीय कदम है, यह कोर आबादी को प्रभावित किए बिना भटकते बाघों को स्थानांतरित करने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। कड़ी निगरानी और विशेषज्ञ परामर्श द्वारा समर्थित इसी तरह के स्थानांतरण को बढ़ावा देना चाहिए ।

5.  स्थानांतरण पर एक साल का स्थगन लागू करें

स्थानांतरण पर अस्थायी रोक बाघों की निगरानी और अध्ययन में सहायता करेगा और साथ ही स्थानांतरण के लिए संभावित उम्मीदवारों पहचान में भी लाभकारी होगा। यह विराम सुनिश्चित करने में मदद करेगा कि भविष्य के स्थानांतरण विज्ञान-संचालित और न्यूनतम विघटनकारी हों।

पारिस्थितिकी नोट्स 1: प्राकृतिक रूप से मरे बाघों का शव क्यों नहीं मिलता?

पारिस्थितिकी नोट्स 1: प्राकृतिक रूप से मरे बाघों का शव क्यों नहीं मिलता?

आज कल जब भी बाघ अभयारण्य से कोई बाघ गायब होते है तो मीडिया के लोग और वन्य जीव प्रेमी वन अधिकारियों को एक कटघरे में खड़ा कर देते है की मृत बाघ का शव क्यों नहीं मिला? यह जवाब आसान नहीं है परन्तु हमें समझाना होगा की – अक्सर दो तरह के बाघ गायब होते है – बूढ़े अथवा आपसी लड़ाई में घायल हुए अन्य बाघ।  हालाँकि देखे तो बाघों का पूरा जीवन ही संघर्ष मय होता और कोई भी बाघ वनों में 15 वर्ष से अधिक उम्र आसानी से प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी जैविक गतिविधियां जैसे प्रजनन आदि सिमित होने लगती है।  ऐसे में उन्हें अपने साथी बाघ का सहयोग भी नहीं मिल पाता और आपसी संघर्ष अधिकांशतया नए नए वयस्कता हासिल किये हुए बाघों में अधिक होती है। हालांकि दोनों ही तरह के बाघ अभयारण्य से बाहर भी निकल जाते है।

आप जानते है की बाघ सर्वोच्च शिकारी प्राणी है जिसने जीवन पर्यन्त शिकार से ही अपना पेट पालन किया है।  शिकार करना एक अत्यंत दुष्कर कार्य है जिसके लिए कई प्रकार के जतन करने पड़ते है और पूरा जीवन शारीरिक क्षमता और बौद्धिक कुशलता पर निर्भर करता है।  एक बाघ 15 -16 वर्ष के अपने जीवन काल में 600 -800 जीवों (चितल के आकार के) को अपना भोजन बनता है, क्योंकि उन्हें 40 -50 प्राणी हर वर्ष भोजन के रूप में चाहिए। शिकार के सम्बन्ध में हर समय चौकना रहना और प्रयासरत रहना ही बाघ के जीवन का मूल आधार है- इसके लिए ही वह प्रशिक्षित है और इसके लिए ही वह विकसित हुए है। उनके शरीर की बनावट, लचक और ताकत एवं साथ ही उसके दिमाग की फितरत और मानसिक दृढ़ता का उद्देश्य मात्र बड़े से बड़ा प्राणी और अधिक से अधिक प्राणियों के शिकार के अनुरूप ही बने है।

दूसरी तरफ बाघ एक टेरीटोरियल प्राणी है जिसे अपने क्षेत्र की रक्षा करनी है जिससे उसे निर्बाध रूप से पर्याप्त भोजन मिल सके और साथ ही आसानी से अन्य जरूरत भी पूरी होती रहे।   टेरिटरी बनाने के लिए वह निरन्तर दूसरे बाघों से द्वन्द्व करता रहता है। इसी प्रकार मादा और नर का साथ पाने के लिए भी संघर्ष ही एक मात्र रास्ता है। मादा बाघ के लिए, चुनौती बढ़ जाती है क्योंकि उसे अपने शावकों को अन्य बाघों से बचाना होता है। क्षेत्र को सुरक्षित और संरक्षित करने में विफलता के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, जिससे भुखमरी, चोट या यहां तक कि मृत्यु भी हो सकती है।

मौत के 48 घंटे बाद मिले शव की यह हालत है; यह उसी स्थान पर दूसरे बाघ से संघर्ष के बाद मारा गया था। अगर यह घायल होता तो छिपकर मारा जाता।

क्षेत्रीय संघर्षों (टेर्रीटोरैल फाइट)  के कारण विस्थापित हुए वृद्ध और युवा बाघों के लिए और भी अधिक खतरनाक स्थिति तब पैदा होती है जब वे घनी आबादी वाले गांवों के पास जाते हैं। यहां, उन्हें मवेशियों और अन्य पशुओं के रूप में आसान शिकार का सामना करना पड़ता है, लेकिन ग्रामीणों के साथ संघर्ष का जोखिम बहुत अधिक रहता है।

साथ ही बाघ के जीवन में भोजन के लिए द्वन्द्व तो है ही और अन्य द्वन्द्व भी है जैसे – टेरिटरी के लिए द्वन्द्व, साथी हासिल करने के लिए जंग और खुद की और अपने परिवार की रक्षा के लिए जंग यह सभी सतत प्रक्रियाएं है।

इस प्रकार, बाघ का जीवन भोजन, क्षेत्र, संभोग और सुरक्षा के लिए संघर्षों से भरा होता है। जीवित रहने के लिए, बाघ मृत्यु दर और संभावित खतरों के बारे में तीव्र जागरूकता विकसित करता है। वह समझता है कि अगर वह कमजोर हो गया, तो प्रतियोगी उसे मार देंगे, जैसा कि उसने दूसरों को किया है। बाघ जैसे जैसे कमजोर और वृद्ध होता है वह डर और भय वश अपने आप को अन्य बाघों से अलग- थलग कर लेता है, अपने विचरण को संयमित कर लेता है – खुले में घूमने की बजाय छुप कर रहने लगता है। अक्सर यह  दो बाघों की टेरिटरी के मध्य सबसे  एकांत स्थान का चयन करते है।  अपनी जरूरतों को संकुचित करते है।  टेरिटरी की रक्षा नहीं करते, बच्चे का लालन पालन आदि से निवृत्त हो ही जाते है।  परन्तु कभी न कभी यह किसी मजबूत और उस क्षेत्र के मुख्य बाघ के द्वारा मार भी दिए जाते है या रुग्ण अवस्था में किसी गुफा या कटीली झाडी के मध्य जा कर यह अपनी अंतिम साँस लेते है। अतः इनका अंतिम समय में दिखना अत्यंत मुश्किल हो जाता है।

यहाँ आप बाघ के शव को तेज़ी से सड़ते हुए देख सकते हैं। माना जा रहा है कि यह शव सिर्फ़ 5-6 दिन पुराना है और जंगली सूअरों और दूसरे जानवरों द्वारा सड़ने और खा जाने के कारण इसका वज़न सिर्फ़ 18-20 किलोग्राम रह गया है।

चूंकि मांसाहारी जानवर शाकाहारी जानवरों की तुलना में तेजी से सड़ते हैं, इसलिए मृत बाघों या अन्य मांसाहारियों के अवशेषों को ढूंढना विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण हो सकता है। बाघों में उच्च मांसपेशी घनत्व और कम शरीर वसा होता है, जो मांसपेशियों के ऊतकों की प्रकृति के कारण अधिक तेज़ी से टूटता है, जिसमें महत्वपूर्ण मात्रा में पानी और प्रोटीन होता है। मांसपेशियों के ऊतक बैक्टीरिया और एंजाइमेटिक गतिविधि के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, जो अपघटन को तेज करता है। इसके विपरीत, शाकाहारी जानवरों में आमतौर पर अधिक शरीर में वसा और संयोजी ऊतक होते हैं। वसा, मांसपेशियों के विपरीत, अपनी कम पानी की मात्रा और माइक्रोबियल टूटने के प्रतिरोध के कारण अधिक धीरे-धीरे विघटित होती है।

इसके अतिरिक्त, शाकाहारी जीवों के पाचन तंत्र और आहार एक अलग माइक्रोबायोम बनाते हैं जो मांसाहारियों की तुलना में मृत्यु के बाद क्षय प्रक्रिया को धीमा कर सकता है। बाघों के उच्च प्रोटीन आहार में बैक्टीरिया और एंजाइम होते हैं जो मृत्यु के बाद अपघटन को तेज करते हैं। हालांकि, शाकाहारी जीवों में ऐसे बैक्टीरिया होते हैं जो पौधों की सामग्री को किण्वित करते हैं, जिससे अपघटन प्रक्रिया धीमी हो जाती है।

बाघ जैसे शिकारी प्राणियों के साथ विभिन्न प्रकार के कीड़े और सूक्ष्मजीव साहचर्य के रूप में रहते है जैसे फलेश फ्लाई जो इनके आस पास मंडराते हुए देखी जा सकती है। बाघ जैसे मांसाहारियों की गंध एवं उनका निरंतर किसी शिकार के संपर्क में रहना इन प्राकृतिक अपघटक कीटों एवं सूक्ष्मजीवों को आकर्षित करता है। बाघ की मृत्यु के बाद यही अपघटक इनका स्वयं का ही अपघटन को तेज कर देते हैं। साथ ही बाघ जैसे मांसाहारी प्राणी की आंत में बैक्टीरिया का अधिक लोड होता है जो मांस को पचने में अधिक माहिर होते हैं। जब बाघ स्वयं मर जाता है, तो ये बैक्टीरिया तेजी से गुणात्मक रूप से बढ़ते है, शाकाहारी प्राणियों की तुलना में ऊतकों को तेजी से तोड़ते हैं, जिनमें पौधों की सामग्री को पचाने के लिए अनुकूलित सूक्ष्मजीव होते हैं। इसीलिए जब आप बाघ बघेरे के शव को देखते है तो पाएंगे की इनकी खाल तुरंत सड़ने लगती है जबकि की किसी शाकाहारी प्राणी की खाल शरीर से चिपक कर सुख जाती है। बाघ आदि के शव की खाल से बाल तुरंत झड़ने लगता है जबकि शाकाहारी प्राणी की त्वचा से बाल चिपके रहते है।

सार्कोफेगा बरकेया, एक मांसाहारी मक्खी है जो लगातार बाघों और अन्य जानवरों पर अंडे देने के अवसरों की तलाश करती है। जब उसे कोई मृत जानवर मिलता है, तो वह तुरंत अपने अंडे जमा करके अपघटन प्रक्रिया शुरू कर देती है, जिससे लार्वा निकलते हैं जो शव को खाते हैं।

अक्सर यह भी माना जाता है, की अनेक प्रकार के स्कैवेंजर जैसे लकड़बग्घा एवं सियार आदि इन्हें खाने नहीं आएंगे परन्तु जंगली सूअर भी उतना ही सक्षम स्कैवेंजर है और वह निर्भीक रूप से इनके शरीर को सड़ने के साथ ही कुछ समय बाद खाने लगता है। बस यही सब कारण है हमें बूढ़े बाघ मरने के बाद आसानी से नहीं मिलते। रणथम्भोर में पिछले दो दशकों के मैंने पाया की मात्र दो बाघ ही उम्र दराज हो कर मृत अवस्था में मिले थे- बाकि बाघ अप्रकार्तिक रूप से मारे जाने के बाद ही उनका शव बरामद हुआ है। यह दो बाघ भी इंसानों द्वारा पोषित थे जैसे मछली बाघिन (T16) एवं बिग डैडी (T2)। इन सभी कारणों की वजह से मृत बाघ वनों में आसानी से नहीं मिलते है।

रणथम्भौर से गायब हुए बाघों का रहस्य

रणथम्भौर से गायब हुए बाघों का रहस्य

राजस्थान के मुख्य वन्यजीव संरक्षक ने रणथम्भौर से 25 बाघों के लापता होने की जांच के लिए एक जांच समिति का गठन किया है। प्रारंभिक निष्कर्षों के अनुसार, ये बाघ दो चरणों में गायब हुए: 2024 से पहले 11 बाघों का पता नहीं चला था, और पिछले 12 महीनों में 14 बाघ गायब हो गए। जांच शुरू होने के बाद, अधिकारियों ने रिपोर्ट किया कि इनमें से 10 बाघों को खोज लिया गया है जबकि 15 अभी भी लापता हैं।

तो, बाकी 15 बाघों का क्या हुआ?

टाइगर वॉच के विस्तृत डेटाबेस पर आधारित यह लेख इन लापता बाघों के प्रोफाइल और अंतिम ज्ञात रिकॉर्ड का विश्लेषण करता है, ताकि उनके गायब होने के संभावित कारणों को उजागर किया जा सके।

बाघों की जानकारी और गायब होने के संभावित कारण

बाघ IDलिंगअंतिम रिपोर्टेडजन्म वर्षउम्र (गायब होने के समय)गायब होने का संभावित कारण
T3नर03-08-2022200418-19 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T13मादा17-05-2023200519-20 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T38नर04-12-2022200814-15 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T41मादा15-06-2024200717-18 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T48मादा12-09-2022200715-16 वर्षवृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T54मादाअक्टूबर-22201113-14 वर्षउम्र के कारण प्रमुख बाघ द्वारा बाहर किया गया
T63मादाजुलाई-23201113-14 वर्षउम्र और प्रतिस्पर्धा के कारण मरा हो सकता है
T74नर14-06-2023201212-13 वर्षप्रमुख बाघ T121 और T112 द्वारा बाहर किया गया
T79मादा16-06-2023201311-12 वर्षसंदिग्ध मृत्यु; पार्क के बाहर रहती थी
T99मादा26-07-202420169 वर्षगर्भावस्था में जटिलताएं, फरवरी 2024 में गर्भपात
T128नर05-07-202320204 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T131नर30-11-202220194 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T138मादा20-06-202220203 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T139नर17-07-202420214 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T2401नर04-05-202420223 वर्षक्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है

निरीक्षण और तार्किक अनुमान

यह 15 बाघ अब तक गायब हैं, और उनके गायब होने के संभावित कारण निम्नलिखित हो सकते हैं:

  • वृद्ध बाघ: इन बाघों में से पांच—T3, T13, T38, T41, और T48—15 साल से ऊपर के हैं, जिनकी उम्र 19-20 साल तक पहुंच चुकी है।
  • दूसरे दो, T54 और T63, 13-14 साल के हैं और संभवतः अपने प्राकृतिक रूप से जीवन के अंतिम दौर के करीब हैं।
  • मादा बाघ T99 को फरवरी 2024 में गर्भावस्था में जटिलताएं आई थीं, जिससे उनका गर्भपात हो गया था। उन्हें व्यापक चिकित्सा देखभाल दी गई थी और वे जीवित रही थीं। हाल ही में रिपोर्ट आई थी कि वे फिर से गर्भवती हो सकती हैं, हालांकि यह पुष्टि नहीं हो पाई है। संभव है कि इसी प्रकार की जटिलताएं फिर से उत्पन्न हुई हों, जिसके कारण उनका वर्तमान स्थिति समझी जा सकती है।

फोटो: बाघिन T99 के गर्भपात के दौरान लिया गया चित्र

  • बाघ T74, जो 12 साल से अधिक उम्र की है, को डोमिनेंट बाघ T121 और T112 द्वारा उनके क्षेत्र से बाहर किया जा सकता है।
  • बाघिन T79 अजीब परिस्थितियों में गायब हो गई, जिसके बाद वन विभाग ने उसकी खोज शुरू की और उसकी दो शावकों को पाया। वह रणथम्भौर के बाहर कंडुली  नदी क्षेत्र में रहती थी, और ऐसी चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में उसका अब तक जीवित रहना आश्चर्यजनक था।
  • सबसे महत्वपूर्ण नुकसान पांच युवा नर बाघों का है, जो रणथम्भौर के प्रमुख बाघों के मध्य प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गए। वन्य जीवन में, नर बाघों को क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जो अक्सर घातक मुठभेड़ों की ओर ले जाता है, जिनमें केवल सबसे मजबूत जीवित रहते हैं। वन विभाग के विस्तृत विश्लेषण के अनुसार, युवा नर  बाघों जैसे T128, T131, T139, और T2401 को अक्सर अप्रयुक्त क्षेत्रों की तलाश करते हुए देखा गया था।प्रमुख बाघों के साथ क्षेत्रीय संघर्ष उनकी गायब होने का एक संभावित कारण हो सकता है।
  • बाघिन (T138) का गायब होना चिंता का विषय है, तथा 15 लापता बाघों में से इस अल्प-वयस्क बाघिन की अनुपस्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है।
  • प्राकृतिक प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त, मानव से संबंधित संघर्ष को भी ध्यान में रखना चाहिए। ये युवा बाघ स्थानीय समुदायों के साथ संघर्षों का शिकार भी हो सकते हैं, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों का सामना करना। क्षेत्र में पहले के घटनाएं, जैसे कि T114 और उसकी शावक, और T57 की जहर से मौत, मानव-बाघ संघर्ष के जोखिम को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।

सारांश

रणथम्भोर से बाघों के गायब होने के कारणों में बढ़ती आयु, स्वास्थ्य समस्याएं, क्षेत्रीय संघर्ष और अन्य मानवजनित कारण शामिल हो सकते  हैं। उम्रदराज बाघ, जैसे T3, T13, T38, T41, और T48, अपनी उम्र के कारण स्वाभाविक रूप से मरे हो सकते हैं। बाघ सामान्यतः 15 साल तक जीवित रहते हैं, और उसके बाद उनका जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। 15 साल की उम्र के बाद, उन्हें स्वास्थ्य और क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके जीवित रहने की संभावना घट जाती है।

T54, T63, T74, और T79 जैसे बाघ, जो अपनी उम्र के कारण कमजोर हो चुके थे, शायद युवा और प्रमुख बाघों से अपने क्षेत्रों की रक्षा करने में असमर्थ भी। इस कारण उनके जीवन का संकट में पड़ना स्वाभाविक है, खासकर जब वे पार्क के बाहरी इलाकों में रह रहे होते हैं, जैसे कि T54 जो तालरा रेंज के बाहरी इलाके में रहता था।

जब परिपक्व बाघिन T63, जिसने पहले तीन बार शावकों को जन्म दिया था और खंडार घाटी में पार्क के केंद्र में रहती थी, को औदी खो क्षेत्र में वन अधिकारी द्वारा लगभग मृत घोषित कर दिया गया था, तो अधिकारियों ने उसे शिकार भी उपलब्ध कराया था, यहाँ तक कि एक समय कहा गया कि वह जीवित नहीं बचेगी। अउ समय यह बाघिन अत्यंत दुर्बल अवस्था में मिली थी।

सबसे महत्वपूर्ण नुकसान युवा चार नर एवं एक मादा बाघ (T128, T131, T139, T2401 और T138) का है, जिनका सामना डोमिनेंट बाघों से क्षेत्रीय संघर्षों में हुआ। ये युवा बाघ अक्सर नए क्षेत्रों की तलाश में रहते है, और ऐसे संघर्षों के कारण उनकी मौत हो सकती है।

हालांकि, मानव जनित कारणों पर भी विचार करना जरूरी है। इन युवा बाघों ने स्थानीय समुदायों से भी खतरों का सामना किया हो सकता है, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों से मुठभेड़।

अंततः, बाघिन T99, जो गर्भावस्था की जटिलताओं से जूझ रही थी, शायद इन समस्याओं के कारण गायब हो गईं।

यह समीक्षा यह रेखांकित करती है कि रणथम्भौर में बाघों की स्थिति को लेकर लगातार निगरानी और सक्रिय उपायों की आवश्यकता है, ताकि हम इन खतरों को समझ सकें और अधिक प्रभावी रणनीतियाँ तैयार कर सकें, जिससे इस सुंदर प्रजाति का दीर्घकालिक संरक्षण सुनिश्चित हो सके।