जानिये कैसे गूगल से पौधों की सरल पहचान बने खतरा ए जान?
क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे चारों ओर कितने प्रकार के पेड़-पौधे और जीव-जंतु पाए जाते हैं? सोचिये अगर इन सभी के भिन्न-भिन्न नाम ही न होते तो? इन्हें अलग-अलग समूहों में बांटा ही न गया होता तो?… यह स्थिति सोच कर ही कितनी कठिनाई महसूस होती है? इस कठिनाई को हल करने के लिए ही विभिन्न वैज्ञानिकों ने इस पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी पौधों व् प्राणियों को विभिन्न समूहों में बांटा व उनका नामकरण किया है। जैविक जगत में अज्ञात जीवों को समझने, पहचानने तथा उनको समानता व असमानता के आधार पर विभिन्न समूहों में बांटने को “वर्गिकी (Taxonomy) या वर्गीकरण विज्ञान” कहते हैं। वर्गिकी, जीव जगत की एक ऐसी महत्वपूर्ण शाखा हैं जिसमें यदि कोई वैज्ञानिक किसी विशेष प्रजाति पर शोध के दौरान यदि उसकी पहचान ही गलत कर दे, तो उसका पूरा शोध कार्य गलत व व्यर्थ हो सकता है। यदि इस प्रकार की गलती दवा विज्ञान में हो जाए तो पूरे समाज और विज्ञान के लिए घातक साबित हो सकती है।
हाल ही में हमें “The End of Botany” नामक एक आलेख पढ़ने का मौका मिला, जिसे क्रिसी एवं साथियों (2020) ने लिखा है। इस आलेख के लेखकों का कहना है की “आजकल वैज्ञानिक आम पौधों को पहचानने में असमर्थ होते जा रहे हैं और लगातार वनस्पति विज्ञान के छात्रों, शिक्षकों, पाठ्यक्रमों, विश्वविद्यालयों में प्रकृति विज्ञान के विभागों की और हर्बेरियमों की पौधे पहचान क्षमता में गिरावट आ रही है। ये गिरावट सिर्फ और सिर्फ वनस्पति विज्ञान की क्षमताओं की गिरावट को उजागर करती हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं की पौधे हमारे जीवन का आधार हैं, एवं उनकी सही पहचान बहुत जरूरी है फिर भी हम इस संकट तक कैसे पहुंचे? इसके क्या कारण हैं? हम इस हालात को कैसे सुधार सकते हैं?” Crisci et al. (2020) ने जो भी लिखा वो बिलकुल सही और चिंताजनक है। दिन प्रतिदिन वनस्पतियों की सही पहचान करना एक कठिन कार्य बनता जा रहा है और राजस्थान भी इस स्थिति से अछूता नहीं है।
भारत की आज़ादी से पहले (वर्ष 1947 से पहले) और 1970 तक पौधों को पहचानने के लिए हम केवल Hooker et al. (1872-1897) एवं Brandis (1874) द्वारा लिखित पुस्तकों का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उस समय राजस्थान की वनस्पतियों के लिए कोई एक विशेष “सटीक फ़्लोरा” उपलब्ध नहीं था। यदि कोई जानकारी उपलब्ध भी थी तो विभिन्न शोधपत्रों के रूप बिखरी हुई थी। परन्तु आज़ादी के बाद रामदेव (1969), भंडारी (1978) और शर्मा व त्यागी (1979) राजस्थान के अग्रणी वर्गीकरण वैज्ञानिक (Taxonomist) के रूप में उभरे तथा उन्होंने राज्य के क्षेत्रीय “फ़्लोरा” बनाने की पहल की। उन्होंने राजस्थान राज्य की वनस्पति सम्पदा जानने हेतु हर्बेरियम भी विकसित किये। इन शुरूआती प्रयासों के बाद कई फ़्लोरा अस्तित्व में आये जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण फ़्लोरा निम्नलिखित हैं:
Sr. no.
Period
Name of flora published (year of publication )
Author(s)
Coverage
1
1947-1980
Contribution to the flora of Udaipur (1969)
K.D. Ramdev
South- East Rajasthan
Flora of the Indian Desert (1978)
M.M. Bhandari
Jaisalmer, Jodhpur and Bikaner districts
Flora of North- East Rajasthan (1979)
S. Sharma &B. Tiagi
North – East Rajasthan
2
1981-2000
Flora of Banswara (1983)
V. Singh
Banswara district
Flora of Tonk (1983)
B.V. Shetty & R. P. Pandey
Tonk district
Flora of Rajasthan, Vol. I,II,III (1987,1991,1993)
B.V. Shetty & V. Singh
Whole Rajasthan
Flora of Rajasthan(Series – Inferae ) (1989)
K.K. Sharma & S. Sharma
Whole Rajasthan
Illustrated flora of Keoladeo National Park , Bharatpur , Rajasthan (1996)
Prasad et al.
KNP Bharatpur
3
2001-2020
The flora of Rajasthan (2002)
N. Sharma
Hadoti zone
Flora of Rajasthan (South and South- East Rajasthan ) (2007)
Y. D. Tiagi & N.C. Arey
South and South- East Rajasthan
Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic zones of India (2011)
S.K. Sharma
Orchids of whole Rajasthan (including parts of adjacent states )
Flora of South – Central Rajasthan (2011)
B. L. Yadav & K.L. Meena
South- Central Rajasthan
ऊपर दी गयी सारणी यह दर्शाती है कि 21वी शताब्दी में हमने राजस्थान से संबंधित एन्जियोस्पर्मिक फ्लोरा की बहुत कम पुस्तकें प्रकाशित की हैं। हमारे वरिष्ठ वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक जो विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों से सम्बंधित थे जैसे श्री के. डी. रामदेव, डॉ. शिवा शर्मा, प्रोफेसर बी. त्यागी, प्रोफेसर एम. एम. भंडारी और प्रोफेसर वाई. डी. त्यागी जो हमारे बीच नहीं रहे। इन विद्वानों के समय में, फील्ड स्टडीज के लिए नियमित बाहर जाना, हर्बेरियम बनाना, अन्य राज्यों के दौरे करना, सूक्ष्मदर्शी निरिक्षण आदि अध्यन्न गतिविधियों का नियमित हिस्सा थे। उस समय पौधों की पहचान करने के लिए पुस्तकालय या बाजार में शायद ही कोई रंगीन चित्रों वाली फील्ड गाइड उपलब्ध थी, और तो और इंटरनेट व् गूगल जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। पौधों की पहचान करने का एकमात्र तरीका था बिना चित्रों वाले फ़्लोरा। ऐसे में यदि किसी छात्र को कोई नया पौधा मिलता था तो शिक्षकों द्वारा उसे निर्देशित किया जाता था, कि वह स्वयं फ़्लोरा का निरिक्षण कर, पौधे को पहचानने कि कोशिश करे। क्योंकि विकल्प कम थे अतः छात्र अलग-अलग फ़्लोरा का प्रयोग कर पौधे को पहचानने की कोशिश करते थे। इस प्रकार का वातावरण एक छात्र को “एक्टिव टैक्सोनोमिस्ट” बनाने के लिए बहुत ही सहायक हुआ करता था। जब छात्र फ़्लोरा कि मदद से किसी पौधे की स्वयं पहचान करते थे, तो उनमें पौधों के वर्गीकरण के लिए एक विशेष रूचि विकसित होती थी।
इस सभी के प्रभाव का नतीजा जानने हेतु यहाँ एक उदाहरण देना उचित होगा और इस उदहारण के रूप में श्री रूप सिंह को याद करना उचित होगा। “श्री रूप सिंह”, राजस्थान विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग (Botany Department) में हर्बेरियम को सँभालते थे। श्री रूप सिंह एक प्रशिक्षित वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं थे परन्तु फिर भी उन्होंने डॉ. शिव शर्मा को एक हर्बेरियम बनाने में अदभुत योगदान दिया था। डॉ. शिव शर्मा द्वारा लाये गए सभी पौधों का हर्बेरियम बनाने कि पूरी प्रक्रिया जैसे; नमूनों को सुखाना, हर्बेरियम शीट पर चिपकाना, लेबलिंग, वर्ग और प्रजाति फ़ोल्डर में रखना, तथा उनको अलमारी में क्रमानुसार रखने का कार्य श्री रूप सिंह किया करते थे। वे बहुत बारीकी से पौधों का अवलोकन कर उनकी पहचान करते थे, तथा उन्होंने डॉ शिव शर्मा से एन्जियोस्पर्मिक वर्गीकरण विज्ञान (Angiospermic Taxonomy) के विभिन्न पहलुओं को बड़े मनोयोग से सीखा। जल्द ही उन्होंने वनस्पति वर्गीकरण कि एक अद्भुत समझ विकसित कर ली तथा उनकी पहचान करने की क्षमता बहुत विश्वसनीय और सटीक थी। श्री रूप सिंह के उदहारण को देखकर, एक सवाल उठ सकता है कि आखिर वह पौधों की पहचान में इतने अच्छे कैसे थे? इसका उत्तर यह है कि वह पौधों का स्वयं निरीक्षण करते थे और उन्होंने कभी भी “बनी बनाई पहचान प्रक्रिया” पर विश्वास नहीं किया। यदि एक फ़्लोरा उनको संतोषजनक परिणाम नहीं देता था, तो वह अन्य फ़्लोरा का उपयोग शुरू कर देते थे, और तब तक वे ऐसा करते जब तक कि उनको एक सही पहचान नहीं मिल जाती थी। हम इस आदत को “सक्रिय पहचान प्रक्रिया” कह सकते हैं। इस प्रकार, एक सक्रिय वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक बनने के लिए, छात्रों को पौधों कि सक्रिय पहचान की आदत विकसित करनी चाहिए।
परन्तु आजकल स्थिति बिलकुल विपरीत है। लोगों के पास बाहर जाने का समय नहीं होता है और यदि कोई चले भी जाए तो हमेशा जल्दी में ही रहते हैं। यहां तक कि कई तो स्वयं एक अज्ञात पौधे की पहचान करने के लिए चंद मिनट भी खर्च नहीं करना चाहते हैं। उन्हें पहचान के लिए एक सीधी, सरल बानी बनाई सुविधा चाहिए। इंटरनेट, गूगल, मोबाइल में विभिन्न व्हाट्सऐप ग्रुप्स आदि ऐसे तरीके हैं जिसमें लोग अपने अज्ञात पौधों की तस्वीरें भेजते हैं और कुछ सेकंड के भीतर पहचान उनके हाथों में आ जाती है। हालांकि, इस तरह के तरीकों का उपयोग करके, पहचान जल्दी संभव है लेकिन ऐसे लोग कभी भी “श्री रूप सिंह” नहीं बन सकते हैं। दिन प्रतिदिन लोग पौधों की सुविधाजनक पहचान के आदी होते जा रहे हैं। आज “passive identification” और “passive taxonomy” का यह चलन हर जगह वर्गीकरण विज्ञान के पुराने तरीकों की जगह ले रहा है। अब पौधे की पहचान आसान हो रही है, लेकिन राज्य के विभिन्न विश्वविद्यालयों के वनस्पति विज्ञान विभागों में नए वनस्पति वर्गीकरण वैज्ञानिक विकसित नहीं हो रहे हैं। वन विभागों और आयुर्वेद विभागों में भी यही स्थिति है। एक समय था जब डॉ. सी. एम. माथुर और श्री. वी. एस. सक्सेना जैसे वन अधिकारी राजस्थान के वन विभाग में थे, जो वन वनस्पति वर्गीकरण विज्ञान के विद्वान थे। इसी प्रकार से, डॉ. महेश शर्मा, डॉ. आर. सी. भूतिया और कुछ अन्य लोग आयुर्वेद विभाग में पौधों की पहचान के मशाल वाहक थे, लेकिन उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, अब बस एक खालीपन है।
हमें अब देर हो रही है। हमारे राज्य में नई पीढ़ी का शायद ही कोई विश्वसनीय और प्रमुख एन्जियोस्पर्मिक टैक्सोनोमिस्ट उपलब्ध है। समान स्थिति प्राणी वर्गीकरण विज्ञान के क्षेत्र में भी है। राजस्थान में कई विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं, लेकिन पारंपरिक प्लांट टैक्सोनॉमी वहां ज्यादा पसंद नहीं कि जाती है। “सक्रिय वर्गीकरण विज्ञान” को पुनर्जीवित करने का अभी भी समय है नहीं तो बाद में बहुत देर हो जाएगी। यह हर विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभागों एवं वन और आयुर्वेद विभागों का एक नैतिक कर्तव्य है।
सन्दर्भ:
Cover Photo- PC: Dr. Dharmendra Khandal
Bhandari , M.M. (1978) : Flora of the Indian desert. (Revised 1990)
Brandis , D. (1874) : The forest flora of the North – West and Central India. London.
Crisci , J.V. , L. Katinas , M.J. Apodaca & P.C. Hode (2020): The end of Botany. Trends in plants science. XX (XX) : 1-4.
Hooker, J.D. et al. (1872-1897) : The flora of British India. Vol. 1-7. London (Repr. Ed. 1954-1956, Kent).
Prasad V. P., D. Mason , J.P. Marburger & C.R. Ajitkumar (1996) : Illustrated flora of Keoladeo Nation Park , Bharatpur.
Ramdev , K. D. (1969) : Contribution to the flora of Udaipur .
Sharma K.K. & S. Sharma (1989) : Flora of Rajasthan (Series- Inferae) .
Sharma N. (2002) : The flora of Rajasthan
Sharma , S. K. (2011) : Orchids of Desert and Semi- arid Biogeographic Zones of India.
Sharma ,S. &B. Tiagi (1979) : Flora of North – East Rajasthan.
Shetty , B. V. & R.P. Pandey (1983) : Flora of Tonk.
Shetty B.V. & V. Singh (1987,1991,1993) : Flora of Rajasthan , Vol. I , II & III .
Singh , V. (1983) : Flora of Banswara .
Tiagi , Y.D. & N.C. Arey (2007) Flora of Rajasthan (South & South- East Rajasthan )
Yadav , B.L. & K.L. Meena (2011) : Flora of South – Central Rajasthan. Scientific Publishers , Jodhpur .
अक्षय ऊर्जा के स्रोतों में से जैसलमेर क्षेत्र में मुख्यतः पवन ऊर्जा एवं सौर ऊर्जा की विभिन्न इकाइयां स्थापित हैं। ये सौर एवं पवन ऊर्जा के संयंत्र बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन में सक्षम हैं। अक्षय ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में पवन एवं सौर ऊर्जा सबसे उन्नत एवं विकसित तकनीकें हैं। पवन चक्कियों को चलाने वाली उच्च गति से बहती, सतत हवा और साफ़ आकाश के साथ खिली धूप जो सौर ऊर्जा के लिए जरूरी विकिरण उपलब्ध करवाती है। जैसलमेर क्षेत्र इन दोनों ही स्त्रोतों की उपलब्धता के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर अग्रिम पंक्ति में आता है। ये दोनों संसाधन मिल कर जैसलमेर को देश की प्रमुख सौर-पवन Hybrid site बनाते हैं।
गोडावण पक्षी
अक्षय ऊर्जा की यह स्थापित परियोजनाएं, राज्य को ही नहीं बल्कि राष्ट्र को ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना रही हैं वहीँ कोयले एवं अन्य पेट्रोलियम जनित ऊर्जा स्रोतों पर हमारी निर्भरता भी कम कर रही है। यह स्वच्छ एवं हरित ऊर्जा, कार्बन उत्सर्जन को कम कर पर्यावरण को स्वच्छ करने में अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है। यद्दपि यह आज कल चर्चा का विषय है की इस के पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव भी है।
राज्य में स्थापित 4292 मेगा वाट के पवन ऊर्जा परियोजनाओं में से 3464 मेगा वाट जैसलमेर जिले में हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र अत्याधुनिक तकनीक से युक्त होते हैं, परिष्कृत कंप्यूटर गणनाओँ एवं अनुसंधान के पश्चात इन्हे स्थापित करने के स्थान का चयन किया जाता है। हवा के बहाव एवं भौगोलिक क्षेत्र के वर्षो तक किये गये अध्ययन के उपरांत एक परियोजना क्षेत्र निर्धारित किया जाता है। इसी कारण इन परियोजनाओं के लिए भारी निवेश की भी आवश्यकता होती है।
इन ऊर्जा परियोजनाओं को स्थापित करने के प्रारंभिक चरण के दौरान, राज्य सरकार द्वारा उन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमि आवंटित की गई थी, जहां डेवलपर्स ने अपने पूर्व परियोजना अनुसंधान डेटा के आधार पर आवेदन किया था। भूमि आबंटन हर चरणों में जाँच के साथ एक बहुत ही विस्तृत और सख्त प्रक्रिया है। फिर इन आवेदनों का विश्लेषण भूमि प्रतिबंध, रक्षा, आवास, खनन आदि जैसे विभिन्न प्रतिबंधों के आधार पर किया जाता है और उनमें से एक प्रमुख प्रतिबंध डेजर्ट नेशनल पार्क (डीएनपी) से बचने के लिए है, जहां गोडावण यानि ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) पाया जाता है। कोई भी डेवलपर डेजर्ट नेशनल पार्क की सीमा में प्रवेश नहीं करता है और यह सभी परियोजनाओं के नियोजन चरण में एक स्पष्ट No-Go क्षेत्र है।
जुलाई 2013 में सलखा, कुचड़ी इलाकों के पास जीआईबी देखे जाने की पहली रिपोर्ट आई थी। ये ऐसे क्षेत्र थे जो DNP सीमा से परे हैं। इस समय तक, इन क्षेत्रों के पास भूमि पार्सल पहले ही आवंटित किए गए थे और परियोजनाएं स्थापना के चरण में थीं। इस क्षेत्र को इको सेंसिटिव ज़ोन घोषित करने के लिए कवायद शुरू हुई और इस क्षेत्र में सभी नई परियोजनाओं को रोकने के निर्देश के लिए लगभग 3 साल लग गए और स्थापना रुक गईं। पिछले वर्षों में 2017 से अब तक जैसलमेर या राजस्थान में कोई नई पवन संयंत्र की स्थापना नहीं हुई है।
रेगिस्तान में पवन चक्किया
इस वर्ष, पवन, सौर और पवन-सौर हाइब्रिड परियोजनाओं के लिए नई नीतियों की घोषणा के साथ, राजस्थान सरकार फिर से राज्य में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने का प्रयास कर रही है और राजस्थान फिर इस उद्योग के लिए एक पसंदीदा विकल्प बन रहा है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के संरक्षण के लिए, डीएनपी से परे आवासों की रक्षा हेतु अब जैसलमेर में एक “GIB arch” प्रस्तावित है। यह GIB arch अब क्षेत्र में पवन परियोजनाओं की “NO-Go Area List” में शामिल है, और इस GIB arch और DNP के बाहर ही सभी पवन परियोजनाओं की योजना बनाई गई है।
अक्षय ऊर्जा की ये परियोजनाएं, नवीन दिशा निर्देशों एवं नीतियों के अनुसार “Reverse Bid Process” द्वारा आवंटित की जाती है जिस से इनसे जनित बिजली न्यूनतम दरों पर विभिन्न सरकारी उपक्रमों द्वारा क्रय की जाती है। अतः इन परियोजनाओं का बजट प्रतिस्पर्धात्मक रहने हेतु बहुत ही कम और पूर्व निर्धारित रहता है। परियोजनाओं से बिजली ओवर हेड ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से प्रेषित होती है। यह लाइनें, सब स्टेशन और पवन ऊर्जा संयंत्रों के समूह जिन्हें विंड फार्म के रूप में संदर्भित किया जाता है, के बीच की दूरी के कारण, विद्युत् प्रसारण का व्यावहारिक साधन हैं।
गोडावण पक्षी
विशेषज्ञों की राय में कहा गया है कि गोडावण की दृष्टि सामने की बजाय, पार्श्व दिशाओ में देखने के लिए अनुकूल होती है, जिसके कारण आमतौर पर इनके उड़ते समय ट्रांसमिशन लाइनों से टकराने का खतरा रहता है और हमने हाल के दिनों में भी ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को देखा है। यह वजन में भारी पक्षी जब तीव्र गति से उड़ता हुआ तारो से टकराता है, तुरंत इसकी गर्दन की हड्डी टूट जाती है और तत्पश्चात इसे बचाना नामुकिन होता है।
ट्रांसमिशनलाइनोंकोभूमिगतकियाजासकताहैयानहीं ?
यह मांग अक्सर आती है कि इन ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत केबलों द्वारा बदल दिया जाना चाहिए। यहां, यह समझना चाहिए कि इन उच्च वोल्टेज केबलों और सहायक उपकरण की सामग्री की ही लागत ओवर हेड लाइनों की तुलना में कुछ गुना अधिक है, और इसकी स्थापना के लिए उच्च कौशल वाले कार्यबल की आवश्यकता होती है जो समग्र रूप से एक परियोजना की लागत को अत्यंत महँगा बना देगी। इन परियोजनाओं में प्रयोग में ली जाने वाली एकल सर्किट 33kv लाइन की कुललागत जहाँ २० लाख रुपये प्रति किलोमीटर आती है वहीँ, केबल की लागत 40 लाख रुपये से भी अधिक आती है। चूँकि यह केबल सुरक्षा की दृष्टि से भूमि के अंदर दबायी जाती है, किसी तकनीकी ख़राबी आने पर तुरंत ही फॉल्ट स्थान का पता लगाकर उसे खोदा नहीं जा सकता इसलिए सामान्यतः दोहरी केबल का जोड़ा भी लगाया जाता है जिससे किसी फॉल्ट की स्थिति में दूसरी केबल को तुरंत प्रयोग में लाया जा सके, यह इस केबल प्रणाली को और भी महंगा बना देता है। सामान्यतः यह 33kv ओवरहेड लाइन किसी भूमि से निकलती है तो प्रति खम्भे के बीच 60 – 70m की दुरी होती है और लाइन जमीन से सामान्यतः 10m की ऊंचाई पर होती है, जो और हाई वोल्टेज लाइन के टॉवर में और भी बढ़ जाती है, वहीँ पर केबल के सन्दर्भ में पूरी भूमि को ही खोद कर उसमे यह केबल दबायी जाती है, यह किसी भी भू मालिक को सहज ही अस्वीकार्य होता है, एक हाई वोल्टेज केबल का अपने भूमि में से गुजरना जिस से उच्च शक्ति विद्युत् प्रवाह होता हो, भू मालिकों को सदैव आशंकित रखता है और वो राजी नहीं होते हैं।और इन लाइनों का बीच में किसी भूमि विवाद में पड़ जाना, पूरी परियोजना को ही ख़तरे में डाल सकते हैं। इसी लिए नए प्रतिष्ठानों के लिए, अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं में आयी रिवर्स बिड नीलामियों और कम दरों पर टैरिफ के साथ, बिजली प्रसारण के लिए विकल्प के रूप में भूमिगत केबल के लिए जाना असंभव है। अतः गोडावण प्रवास क्षेत्रों को चिन्हित कर पहले ही सुरक्षित करना चाहिए |
जिन क्षेत्रों में लाइन पहले से ही स्थापित है वहां एक संभव समाधान हो सकता है, अगर वन विभाग, प्रभावी पक्षी डायवर्टर प्रदान कर सके और संबंधित परियोजना एजेंसी को उचित मार्गदर्शन के साथ उन्हें स्थापित करने में मदद कर सकते हैं। यह एक विकल्प है जो सभी हित मालिकों के लिए उपयुक्त हो सकता है और इन ट्रांसमिशन लाइनों के साथ जीआईबी के ऐसे टकराव को रोकने में मदद कर सकता है। महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए वन विभाग द्वारा तत्काल बजट जारी किया जाना चाहिए जो उन्होंने ऐसे पक्षी डायवर्टर स्थापित करने के लिए चिन्हित किये हैं। इनके पूर्णतया प्रभावी होने पर कुछ लोग शंका भी रखते है।
यह एक संयोग है कि पवन परियोजनाएं उन क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त हैं जो मैदानी हैं और इनमें हवा का सुगम प्रवाह हो सकता है और ये क्षेत्र, ऐसे घास के मैदान ही गोडावण के आवास हैं। लेकिन, यह भी सच है कि कोई भी पवन ऊर्जा एजेंसी उस क्षेत्र में काम करने की इच्छा नहीं रखती है जहां पर्यावरण के लिए कोई भी संभावित खतरा हो सकता है, क्योंकि ऐसे क्षेत्र इन परियोजनाओं के निवेशकों को पीछे हटा देती हैं और ऐसी परियोजनाएं हमेशा कानूनी रूप से ठप होने के जोखिम में होती हैं और व्यावसायिक हितों के प्रतिकूल होती हैं । इस प्रकार आवश्यकता है कि अधिकारियों और उद्योग के बीच बेहतर समन्वय हो और पारिस्थिकी तौर से संवेदनशील क्षेत्रों का अग्रिम सीमांकन किया जाए। राजस्थान ने 2017 से इस अवधि का उपयोग इस जीआईबी आर्क को मैप करने के लिए किया और अपने राज्य पक्षी और पवन उद्योग के सह-अस्तित्व के लिए एक समाधान तैयार किया। हाल ही में जैसलमेर के रामगढ़ कुचड़ी क्षेत्र के पास एक केंद्र सरकार के सबस्टेशन की योजना जैसलमेर के दक्षिण में स्थानांतरित की गई थी, क्योंकि डेवलपर्स ने ट्रांसमिशन लाइनों से GIB arc को बचाने के लिए अनुरोध किया था, यह एक बहुत स्वागत योग्य कदम था। मौजूदा तर्ज पर डायवर्टर जैसे उपकरणों के उपयोग के लिए इसी तरह की त्वरित कार्रवाई की जानी चाहिए। यूरोप में नए शोध आ रहे हैं जो बताते हैं कि एक टरबाइन के रंगीन ब्लेड भी पक्षियों से होने वाली दुर्घटनाओं की संभावना को कम करते हैं। इस तरह के शोध भारत में भी किए जा सकते हैं। कुल मिलाकर हमारे अनमोल वन्यजीवों के साथ-साथ अक्षय ऊर्जा क्षेत्र के लिए विभिन्न हितधारकों के बीच बेहतर समन्वय के साथ एक संवाद विकसित करने की आवश्यकता है, यह उद्योग जो पृथ्वी को साफ और हरा-भरा रखने के लिए कृत संकल्प है
वर्तमान में संरक्षित क्षेत्रों (अभयारण्य / राष्ट्रीय उद्यान) को बाघ अभ्यारण्य में परिवर्तित करने की लगातार मांग हो रही है। वह क्षेत्र भले ही बाघों के लिए उपयुक्त हो या नहीं , लेकिन गैर-सरकारी संगठन, स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता और राजनेता अपने आसपास के पार्क को टाइगर रिज़र्व घोषित करवाने को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में लेते हैं। परन्तु सिर्फ कागज़ों में संरक्षण के स्तर को बदलना आसान हैं, लेकिन इतना मात्र पर्याप्त नहीं है, बल्कि किसी भी क्षेत्र में बाघों को बनाए रखना, उनके लिए अनुकूल हैबिटैट बनाना, वह भी इस भीड़ भरे देश में एक बड़ी ज़िम्मेदारी है और यह आसान भी नहीं हैं।
वर्तमान में राजस्थान में रणथंभौर ही एक अकेला स्वस्थ बाघ रिज़र्व है जहाँ अच्छी मात्रा में बाघ रहते हैं। अक्सर राजस्थान के अन्य हिस्सों से बाघों की मांग रणथंभौर से जुड़े लोगो को चिंतित कर देती हैं। रणथंभौर ‘समर्थकों’ के मध्य यह विचार बन रहा हैं की सरिस्का एवं मुकन्दरा आदि जैसे अन्य संरक्षित क्षेत्र बाघों के लिए असुरक्षित हैं। यह लोग मानते हैं की रणथंभौर के अलावा, राज्य के अन्य सभी क्षेत्र बाघों के लिए नरक के सामान हैं।
दूसरी ओर, उन क्षेत्रों से जुड़े लोग मानते हैं कि रणथंभौर में पर्यटन लॉबीस्ट, बाघों को राज्य के अन्य क्षेत्रों में भेजने का विरोध करते हैं, ताकि बाघ पर्यटन पर अपना एकाधिकार बनाए रख सकें।
मुझे लगता है कि दोनों तरफ के लोग कहीं बाघ संरक्षण के मूल आधार से विचलित हो रहे हैं। मेरी राय में, हमें राजस्थान में बाघों के लिए हर संभव और अधिक से अधिक उपयुक्त क्षेत्र विकसित करने चाहिए। यह रणथंभौर के बाघों की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए आवश्यक है। इस महामारी के युग में यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है एक अकेली आबादी किसी भी अनजान बीमारी की चपेट में आ सकती है और कुछ ही दिनों में यह पूर्ण तय समाप्त भी हो सकती हैं। आजकल कई सारे बैंक खाते रखना, होने संभावित वाली लूट के खिलाफ एक सुरक्षित रणनीति है, एक कालातीत मुहावरा आपने अवश्य सुना होंगे की अपने सभी अंडे एक टोकरी में नहीं डालने चाहिए, इस संदर्भ में यह पूरी तरह से उपयुक्त है।
इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब किसी एक प्राणी की बड़ी आबादी मात्र कुछ ही हफ्तों में ही विलुप्त हो गयी। किसी ने बहुत ही सावधानीपूर्वक इस तरह के विलोपन की जानकारी एकत्रित की है, जिसे आप यहां देख सकते हैं-
यह पूरी तरह गलत नहीं हैं की MHTR – कोटा, सरिस्का, रामगढ़ विषधारी -बूँदी, कुंभलगढ़ आदि आज भी अत्यंत असुरक्षित स्थान हैं एवं बाघों के लिए अत्यंत जोखिम भरे हैं। फिर हम क्यों नहीं कोई सुरक्षित रणनीति बना पा रहे हैं, इसके दो मुख्य कारण हैं-
एक स्थान से बाघ पकड़ कर नए स्थानों पर छोड़ना शायद सबसे आसान काम हैं परन्तु उन स्थानों को विकसित एवं सुरक्षित आवास में तब्दील करने में बहुत अधिक धन और निवेश की आवश्यकता होती है, और साथ ही हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, इसके बाद उस निवेश को पुनः कैसे प्राप्त किया जायेगा, इसीलिए अभी तक सरकारें बाघों के संरक्षण को एक बोझ की तरह समझती हैं।
आमतौर पर बाघों का परिचय जल्दबाजी में लिए जाने वाले राजनीतिक फैसले होते हैं और जब सरकार बदलती है तो सब ठंडा हो जाता है।
हम सब जानते हैं की MHTR के मामले में, 4 बाघ छोड़े गये थे, लेकिन असल में मात्र 2 बाघों को ही स्थानांतरित किया गया था। दो बाघ अपने आप पहुंच गए। MT3 (T98) अपने आप उस सटीक जगह पर पहुंचा जहां वाल्मिक थापर और डॉ। जीवी रेड्डी की टीम ने MHTR में बाघों को लाने का फैसला किया था। उसे रणथम्भौर से वहाँ पहुँचने में मात्र एक महीना लगा। इसी तरह, MT1 (T91) ने पहले ही रणथंभौर को छोड़ दिया और रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभ्यारण्य की ओर बढ़ गया था और यहां तक कि वह इसे भी पार कर भीलवाड़ा जिले में पहुंच गया था और एक बार तो उसने MHTR तक पहुंचने की कोशिश भी की थी, लेकिन रस्ते के अवरोध के कारण वह MHTR से कुछ ही किलोमीटर दूर रह गया था।
एक लम्बे समय तक T91 का रामगढ विषधारी में रुके रहना शायद यह भ्रम देता हैं की यह एक सुरक्षित ठिकाना हैं, वास्तव में यह पूरी तरह सही नहीं हैं क्योंकि उसे रोके रखने के लिए कई तरह के प्रयास किये गये थे, जैसे उसे तय समय पर, तय स्थान पर खाना देना, यह असल में उसे पकड़ने की रणनीति का एक हिस्सा था। रामगढ़ विषधारी के समर्थक अक्सर यह कसक दिल में रखते हैं की बाघ को यहाँ से पकड़ कर कोटा क्यों छोड़ा गया? क्योंकि आज भी रामगढ़ विषधारी पूरी तरह सुरक्षित नहीं एवं इतिहास की घटनाओ ने भी सिद्ध किया हैं की सामाजिक स्टार पर बाघों के अनुकूल माहौल बनाना अभी बाकि हैं, मात्र एक दो वन्यप्रेमीयो के अखबारों के बयान रामगढ़ विषधारी को बाघों के लिए मुफीद नहीं बनाता।
रणथंभौर ने निश्चित रूप से T83 और T106 नमक दो मादा बाघों को स्थानांतरित किया था । लाइटनिंग अथवा T83 लगातार बाहर जा रही थी और शेरपुर / खव्वा गांव के निवासी के लिए कई तरह की समस्या पैदा कर रही थी, वे निरंतर यह मांग कर रहे थे, कि उसे एक सुरक्षित क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया जाए और इसी तरह T106 भी उसकी माँ और दो अन्य बहनों के बीच रणथम्भौर के एक कोने में अपर्याप्त स्थान में रह रही थी। मैं यहां यह साबित करने की कोशिश कर रहा हूं, MHTR में बाघों को छोड़ना, आंशिक रूप से एक प्राकृतिक घटना थी और आंशिक रूप से रणथम्भौर के लिए एक तनाव मुक्त करने का जरिया भी।
MHTR में छोड़े गये बाघों का चयन तकनीकी रूप से बहुत सही था और यह किसी भी तरह से रणथम्भौर के लिए भार नहीं था, जैसे सरिस्का के समय WII के जीवविज्ञानी और अधिक दबाव वाले वन अधिकारियों ने गलत बाघों का चयन किया था – जिसमें कोई भाई-बहन था, कोई बाघ ऐसे थे जिन्होंने अपनी टेरिटरी स्थापित करली थी अथवा पर्यटन क्षेत्र को प्रभावित करने वाले बाघ।
सरिस्का के समय अत्यंत गलत बाघों का चयन किया गया, जिससे बाघो के परिवारों को भी नुकसान पहुंचा। T12 का चयन यह भलीभांति साबित करता है। सरिस्का के लिए हर समय रणथम्भौर में आसानी से मिलने, दिखने वाले बाघों का चयन किया गया और इससे निश्चित रूप से रणथम्भौर में पर्यटन से जुड़े लोगों में आक्रोश भी रहा। यह प्रयास पुनः भी किया गया, जब T65 का चयन सरिस्का के लिए किया गया, जो T73 मादा के साथ उसके 4 शावको का पिता हैं। खैर इस बार श्री अयान साधु – WII के वैज्ञानिक ने इसे समर्थन नहीं किया वरना पूर्व फील्ड डायरेक्टर उसे सरिस्का भेजने पर तुले हुए थे।
राजनीतिक रूप से प्रेरित या तर्कहीन अवैज्ञानिक रूप से बाघों की अनुचित हैं। जैसे रामगढ़ विषधारी-बूँदी से पहले कुंभलगढ़ में बाघों को लाने का कोई औचित्य नहीं है।
बूँदी के जंगल रणथम्भौर की बाघों की एक बड़ी आबादी के करीब हैं और उनके बीच टुटा फूटा एक गलियारा भी मौजूद है। यदपि कुम्भलगढ़ भी एक अच्छा निवास स्थान है, लेकिन यह रणथम्भौर के बाघों की मुख्य आबादी से तुलनात्मक रूप से दूर है, लेकिन रामगढ़ और MHTR के विकास को प्राथमिकता देने के बाद, कुंभलगढ़ को बाघों के लिए भी विकसित किया जाना चाहिए ।
अतः अन्य क्षेत्रों में बाघों को छोड़ा जाना अत्यंत आवश्यक है ताकि हम अपने बाघों को आजकल फैलने वाली महामारियों से बचा सके । दूसरा हम रणथम्भौर को बाघों की बढ़ती आबादी के दबाव से मुक्त रख सकें। परन्तु सही बाघ का चयन आवश्यक है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नये क्षेत्रों को सुरक्षित बनाना और उनके लिए एक दीर्घकालिक संरक्षण रणनीति बनाना हैं । अप्राकृतिक कारणों से बाघों को मरते देखना बहुत दर्दनाक होता है।
There is a persistent demand for converting Protected Areas (sanctuaries/ national park) into tiger reserves in India is a new trend. The area may not be suitable for tigers or habitat is degraded but NGOs, local environmental activists and politicians take the conversion issue as an achievement. Elevating conservation status just into papers is not enough but to sustain tiger’s in any areas, in this over crowded country is a big responsibility.
Rajasthan has a lone, but healthy tiger population in Ranthambhore. Each demand for tigers from other parts of Rajasthan raises eyebrows in Ranthambhore (including people who may not necessarily live in Ranthambhore, since some Ranthambhore tigers popular with tourists have fan followings across the globe). There is a common belief among the Ranthambhore ‘supporters’, that we should not give tigers to other protected areas like Sariska, MHTR etc. because they are not safe and therefore not good habitats for tigers. In their words, besides Ranthambhore, all other areas in the state are hell for tigers. On the other hand, there are also many people who believe that there are lobbyists in Ranthambhore resisting the introduction of tigers to other areas in the state, only so that they can maintain their monopoly on tiger tourism in Rajasthan. I think both beliefs are misinformed and wrong. In my opinion, we should develop all possible and suitable areas in Rajasthan for tigers. This is essential to the long-term safety of Ranthambhore tigers. It is not difficult to imagine, especially in the pandemic era, just how vulnerable a lone population is to disease and how it can be wiped out within a few days if things go wrong. Keeping multiple bank accounts is a safe strategy against loot and I think the timeless warning of ‘not putting all your eggs in one basket’ is perfectly apt in this context.
There are many historical examples of when even the large size of an animal population hasn’t prevented it from diminishing in a few weeks. Check here (http://end-times-prophecy.org/animal-deaths-birds-fish-end-times.html) someone has meticulously gathered lots of information. While most of us agree on this, we still harbour doubts that the areas are not safe homes for introduced tigers and that if we do take a risk to introduce tigers to MHTR, Sariska, RBS- Bundi, Kumbhalgarh etc. their chances of perishing increase manyfold.
This line of thought is not entirely unreasonable, because the authorities are not making a fool proof strategy for a couple of reasons- 1. All such programs need high fund investment, and we are not ready to accept that there should be a clear-cut money recovery plan, so that governments do not consider the introduction of tigers a burden on their funds. 2. Usually tiger introductions are hasty political decisions and when the government changes programs, all goes cold.
In the case of MHTR, 4 tigers have been introduced, but only 2 tigers were actually relocated. Two tigers reached on their own. MT3 (T98) arrived on his own bang on the exact spot where Valmik Thapar and Dr. GV Reddy’s team decided to introduce tigers in MHTR. He took a month to reach there from Ranthambhore. Similarly, MT1 (T91) left Ranthambhore and moved towards the Ramgarh Bishdhari Wildlife Sanctuary and even crossed RBS and reached Bhilwara district and he was trying to reach MHTR, but remained only a few kilometres away from the place. You may not be aware that he turned back because we were luring him to localize him in a particular spot in RBS, so he could be captured and introduced in MHTR. Ranthambhore definitely relocated T83 and T106. T83 was continuously going out and causing problems for the Sherpur/ Khawa villagers, they were demanding that she should be shifted to a safe area and similarly T106 was also squeezed among her mother and two other sisters in Sultanpur. What I am trying to prove here is that this introduction was partly a natural phenomenon and partly a stress buster for Ranthambhore too.
The selection of these tigers was technically very correct and was not at all like the haphazard Sariska introduction, where a time crunched WII biologist and over pressurized forest officials selected the wrong tigers for introduction- such as siblings, resident tigers or tigers from the centre of the park. Erroneous tiger selection not only disrupted sightings etc in Ranthambhore, but also damaged tiger families. The selection of T12 proves this. They always selected easily accessible tigers in Ranthambhore and this definitely scared those involved in tourism in Ranthambhore among others.
Politically motivated or irrational demands for tigers are also harmful. There is no point in introducing tigers to Kumbhalgarh before RBS- Bundi. The forests of Bundi are not only suitable, but are also very close to the bulk population of RTR and a more or less safe corridor also exists between them. Kumbhalgarh is good habitat, but it is comparatively far from the source population in RTR, but after prioritizing the development of RBS & MHTR, Kumbhalgarh can also be developed for tigers.
So, introducing tigers to other areas is necessary because it is always good to keep your eggs in many baskets. Second it is essential to introduce tigers to other areas so we can keep Ranthambhore pressure free. Selection of the right tiger is essential and the most important thing is to secure the areas of introduction and make a long term conservation strategy that is fool proof. It is always very painful to see tigers die due to unnatural reasons.
विभिन्न वनस्पत्तियों के लिए स्थानीय समूदायों का पारम्परिक ज्ञान हमेशा से ही एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक विरासत है, परन्तु इन समुदायों की कई परम्परायें ऐसी भी हैं जो प्रकृति के संरक्षण की मुहिम की खिलाफत भी करती हैं।
स्थानीय समूदायों का पारम्परिक ज्ञान एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक विरासत है। यह ज्ञान समस्त स्थानीय समुदायों के स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, साँस्कृतिक, धार्मिक, व्यापारिक, भौतिक विकास एवं कृषि उत्पत्ति का माध्यम तो है साथ ही उनके स्थानीय पर्यावरण की सुरक्षा भी करता है तथा उनकी विशिष्ठ पहचान को भी बनाये रखने में मदद करता है।
परम्परागत चिकित्सकीय ज्ञान प्रथायें समाज के स्वास्थ्य देखभाल में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की आबादी का 80 प्रतिशत भाग परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों का लाभ लेता है तथा इस कार्य में हर्बल दवायें बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। रासायनिक क्रांति के बाद अनेक परम्परागत आदिम दवाओं के रासायनिक संघटन को समझने में मदद मिली एवं उन दवाओं की प्रभाविता को आधुनिक विज्ञान ने भी पहचान व मान्यता प्रदान की। निश्चय ही यह हमारे परम्परागत समुदायों के लिए गर्व का विषय है। प्राचीन समय से ही इफेड्रा का उपयोग दमा व कम रक्तचाप उपचार के साथ-साथ हृदय रोगों के निवारण में होता रहा है। सर्पगंधा (Rauwolfia serpentina) उच्च रक्तचाप को कम करने की अग्रणी दवा रही है; तो अफीम ने दर्द निवारक दवायें प्रदान की हैं। सदाबहार (Catharanthus roseus) ने रक्त केंसर के ईलाज का मार्ग खोला है तो मधुमेह से निजात पाने की दवायें भी दी हैं। सैलिक्स प्रजाति से “सालिकिन” मिला है जिसके संश्लेषित विकल्प एसिटाइल सेलिसाइलिक अम्ल (एस्प्रिन) ने गठिया से बचने का मार्ग प्रशस्त किया है। अनेक मनोरोगों के ईलाज हेतु धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजनों में अनेक पौधों के अर्क के उपयोग का विवरण आदिम जातियों के सन्दर्भ में कटेवा एवं जैन (2006) ने प्रस्तुत किया है। औषधियों से सम्बन्धित पौधें विरासत है जिस पर समय के साथ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की इमारत खड़ी हुई है। चिकित्सा का परम्परागत ज्ञान आदिवासियों द्वारा संजोई बड़ी विरासत है जिस पर समय के साथ चिकित्सा और वनस्पतियों का विविध तरह से उपयोग कुछ ऐसे ज्ञान क्षेत्र हैं जिसमें आदिवासी समुदायों के योगदान को मानवता भूल नहीं सकती (सुलीवस, 2016; यादव 2019; वेद एवं साथी, 2007; कटेवा एवं जैन 2006; जोशी, 1975; शर्मा एवं जैन, 2009)।
एक कटोरी हथियार का इस्तेमाल कर के लंगूरों को पकड़ा जाता है तथा उनके शरीर के विभिन्न अंगों को निकाल लिया जाता है।(डॉ. अनिता जैन)
राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है जो देश के उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। राज्य की कुल जनसंख्या में 13.47 प्रतिशत आदिवासी समुदायों का प्रतिनिधित्व हैं। यह प्रतिशत देश की औसत आदिवासी आबादी से लगभग दुगना है। राजस्थान में भील, मीणा, गरासिया, डामोर एवं सहरिया प्रमुख जनजातियाँ हैं। राजस्थान की जनजातियाँ अपने परम्परागत ज्ञान में बहुत घनी हैं। इन जातियों ने सदियों से जल, जंगल, पहाड़ों एवं प्राकृतिक स्त्रोतों का किफायती उपयोग के साथ-साथ उनकों संरक्षित भी किया है। वन सुरक्षा एवं संरक्षण का सिलसिला उनकी परम्पराओं, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों में ना-ना तरह से रचा-बसा आ रहा है। वे जंगल व पहाड़ को देवता का रूप मानते हैं। दक्षिण राजस्थान में आदिवासी जंगल एवं पहाड़ को बड़े आदर के साथ सदियों से “मगरा बावसी” यानी “पर्वत देव” मानते चले आ रहे हैं।
लेकिन एक दूसरा पहलू भी महत्त्वपूर्ण है। जनजातियों में अनेक परम्परायें ऐसी भी हैं जो प्रकृति के संरक्षण की मुहिम की खिलाफत भी करती हैं। इन परम्पराओं से जैविक विरासत/प्राकृतिक विरासत को नुकसान भी पहुँचता है। यहाँ ऐसी ही कुछ परम्पराओं की जानकारी दी जा रही है।
“मगरा स्नान” पर्वत देव यानी मगरा बावसी की एक विशेष पूजा की एक परम्परा है। जिसमे भील समुदाय के लोग अपने आराध्य देव मगरा बावसी से अपनी मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना करते हैं। जब उनका मनोरथ पूर्ण हो जाता है तो वे कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु पर्वत देव को “अग्नि स्नान” या “मगरी स्नान” कराते हैं। यह आयोजन गर्मी के मौसम में किया जाता है तथा पूजा के रूप में पहाड़ के जंगल में आग लगाई जाती है। जंगल की आग आगे और आगे फैलती जाती है तथा सूखी घास-पत्तों के साथ हरी-भरी वनस्पत्तियाँ, नये उगे नन्हें पौधे, कीट-पतंगे व धीरे चलने वाले जीव-जन्तु सभी मारे जाते हैं। भूमि की नमी को काफी नुकसान पहुँचता है तथा भूमि में रहने वाले उपयोगी जीवाणु व कनक भी मारे जाते हैं। कई बार आग इतनी विषम जगह पहुँच जाती है जहाँ न तो आग बुझाने के लिये वाहन से पानी पहुँचाया जा सकता है न ही सहजता से मनुष्य पहुँच पाता है। फलतः कई दिनों तक जंगल जलता रहता है। लकड़ी के रूप में जमा कार्बन इस समय वाजिक कार्बन डाई ऑक्साइड बनकर वातावरण में पहुँच जाता है। हवा में पहुँचा यह कार्बन जलवायु के परिवर्तन हेतु उत्तरदायी है। हम सहज ही अनुमान लगा सकते है गर्मी की अनियंत्रित विनाशकारी आग में कितनी जैव विविधता का नाश होता होगा (जोशी,1995)।
मगरा पूजा के दौरान पहाड़ के जंगल में लगाईं जाने वाली आग का भीष्म रूप। (डॉ. अनिता जैन)
मधुमक्खियों का शहद परम्परागत विधि से ही संग्रह करने की परिहारी है। जब शहद जोड़ना होता है, छत्ता तोड़ने में माहिर व्यक्ति, जिसे “मामा” कहा जाता है, अपने हाल में घास-फूस का एक बत्ता सा सुलगा कर मधुमक्खियों को धुँआ कर उड़ाता है। कई बार हवा के प्रावह से छत्ता जल उठता है तथा मधुमक्खियों के झिल्लीनुमा नाजुक पंख जल जाते हैं। अब उनके लिये उड़ना संभव नहीं हो पाता एवं वे असहाय छत्ते के नीचे गिर जाती है। कई बार रात्रि को ठंडा पानी छत्ते पर उड़ेल कर मधुमक्खियों को छत्ते से हटाया जाता है। दिनचारी मधुमक्खियाँ रात में उड़ नहीं पाती है, तथा इधर-उधर गिर जाती हैं। इन सभी तरीकों से कितनी बड़ी संख्या में मधुमक्खियाँ मारी जाती हैं, हम सहज अनुमान लगा सकते हैं। यह भी सर्व विदित है यह नुकसान मानवता के लिए बड़ा नुकसान है क्योंकि मधुमक्खियाँ परागण द्वारा फल, सब्जियाँ, बीज उत्पादन करती हैं। वनों में उनकी संख्या में गिरावट आने से प्राकृतिक रूप से बीज बनने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे वनों का प्राकृतिक पुनरूद्भाव भी बाधित होता है।
महुआ वृक्ष, आदिवासी समाज में एक सम्मानित वृक्ष हैं। गर्मी के मौसम में एक लघु वन उपज के रूप में महुआ-फूल संग्रह किया जाता हैं। जब महुआ वृक्ष फूलों से लड़ जाता है, तो फूलों को आसानी से इकठ्ठा करने हेतु, वृक्ष की छाँया में पड़ी सूखी पत्तियों में आग लगा दी जाती हैं। कई जगह महुआ वृक्ष बहुत पास-पास होते हैं तथा सूखी पत्तियों की निरन्तरता वन क्षेत्र तक रहती हैं। ऐसी स्थिति में आग बढ़ती हुई जंगल तक पहुँच जाती है। प्रायः देखा जाता है, लोग महुये की पत्तियों की आग को फैलाने से नहीं रोकते। किसी पगदंडी पर यदि कौंच की फली लटकी है तो वहाँ आग लगा कर फली के रौंये से झुलसाये जाते हैं ताकि मार्ग सुरक्षित हो जाये। इस कार्य से भी जंगल में जब-तब आग फैल जाती हैं।
जंगली पक्षियों को पकड़ने का उपकरण। (डॉ. अनिता जैन)
मकर संक्रान्ति पर आदिवासी समाज की लड़कियाँ सुबह विदारी कंद (Pueraria tuberosa) की तलाश में निकल जाती है। वनों से सामूहिक रूप से एक ही दिन में बड़ी संख्या में विदारी कंदों का दोहन हो जाता है। घर लाकर इसको खाने की प्रथा है। जून माह में किसान हल्दी, अदरक, सूरण, रतालू आदि कंदीय फसलों को खेत में उगाने का कार्य करते है। इन फसलों को बीज से नहीं, कन्दों से ही उगाया जाता है। खेत में कन्द मिट्ठी में दबा कर उन पर पलाश (Butea monosperma) की पत्तियाँ तोड़ कर ढकाई का कार्य किया जाता है। इस समय फूल एवं पातड़ी पैदा कर पलाश में आई सभी नई पत्तियाँ तोड़ कर खेत में कन्द रोपाई के काम में “पत्ति मल्य” (Leaf mulch) लगाने के काम में प्रयुक्त हो जाती हैं। पलाश वृक्षों को बड़ी मात्रा में अपने पत्तियाँ खोनी पड़ती हैं। दक्षिण राजस्थान में होली का “डाँडा” रोपने हेतु सेमल की लकड़ी काम में ली जाती हैं। होली पर्व पर जंगलों से बड़ी संख्या में हरे सेमल काट कर शहरों एवं कस्बों में पहुँचाये जाते हैं। इस तरह चयनात्मक कटाई (Selective Felling) से दक्षिणी राजस्थान में सेमल वृक्ष अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है (जैन, 2009)।
Eulophia ochreata के कंद का बाजार।(डॉ. अनिता जैन)
वनों में अतिक्रमण एक बड़ी समस्या है। यह धीमी प्रक्रिया से किया जाता हैं। पहले वृक्षों के आधार पर घेरे में छाल उतारी (Girdling) जाती हैं। जब ये सूख जाते हैं, इन्हें काट कर आग के हवाले कर दिया जाता है। नदियों के तट पर यह कार्य बढ़-चढ़ कर किया जाता है क्योंकि नदि के तट पर यदि खेत बनता है तो नदि का पानी सिंचाई में प्रयोग करने की सुविधा रहती हैं। इससे नदियों के तट के “राइपेरियन वन” बर्बाद हो जाते हैं तथा नम क्षेत्र की जैव विविधताएं नष्ट हो जाती है।
कई जगह खजूर का रस निकाला जाता हैं एवं उससे ताड़ी भी बनाई जाती है। बार-बार रस निकाले जाने से खजूर की सेहत काफी खराब हो जाती है। खजूर के संग्रहित रस को पानीे बड़ी संख्या में मधुमक्खियाँ आती हैं तथा रस के घड़ों में गिर कर मर जाती हैं। कई बार इन घड़ों का रस पीने एवं मधुमक्खियों को खाने भालू भी आने लगते हैं। इस तरह भालूओं के व्यवहार में परिवर्तन होने लागता है जिससे उनका मानव से संघर्ष बढ़ने लगता हैं।
केरिया, बहते पानी में आदिवासियों द्वारा मछली पकड़ने का उपकरण। (डॉ. अनिता जैन)
आदिवासी मछलियाँ पकड़ने हेतु कई मीन विषों का उपयोग करते हैं। ये मीन विष पेड़-पौधों से प्राप्त कर ठहरे पानी में फैंके जाते हैं जिससे मछलियाँ मर कर तैरने लगती हैं। कई बार आदिवासी पानी में विस्फोटक फैंक कर मछली मारते हैं। इस प्रयास में मेंठक, पानी के साँप, कछुये एवं कई बार मगर जैसे प्राणी भी मारे जाते हैं। इन सभी विधियों से न केवल बड़ी बल्कि नन्ही-नन्ही मछलियाँ भी मारी जाती हैं एवं आने वाले वर्षों में प्रजनन लायक मछलियाँ भी नहीं बचने से उनकी संख्या में भारी गिरावट आ जाती है। इससे जलीय पक्षियों एवं मछलियों पर निर्भर करने वाले दूसरे जीवों को भी भोजन संकट से जूझना पड़ता है।
हम यदि अपने आदिवासी समुदायों को जागरूक करें तो निसंदेह उसके सकारात्मक परिणाम आयेंगे इससे उनका सदियों से प्रकृति के साथ का रिशता अटूट रहेगा।
सन्दर्भ:
Sullivan, A.M. (2016). Cultural heritage and new media: A future for the past. 15:604 (www.repository.jmls.edu).
Yadava, R.N. (2019). Significance of Medicinal plants as antiviral agents. Everyman’s Science LIV(4): 215-16.
Ved, D.K., G.A. Kinhol, R. Kumar, S.K. Jain, R.V. Sankar, & R.O. Sumathi (2007). Conservation Assessment & management Prioritization for the medicinal, plants of Rajasthan. Forestry Training institute, Jaipur, Rajasthan & FRLHT Banglore, India.1-14.
Katewa, S.S. & A. Jain (2006). “Traditional folk Herbal Medicines” Apex Publishing House, Jaipur Rajasthan.
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Sharma, S. (2009). Study of Biodiversity and Ethnobiology of Phulwari wildlife Sanctuary Udaipur, (Rajasthan). Ph. D. thesis, Department of Botany, M.L.S.U, Udaipur.
Jain, V. (2009). Myths, traditions and fate of multipurpose Bombax ceiba L. – An appraisal. IJTK 8(4):638-44.
लेखक:
Dr. Anita Jain (L): Dr. Anita Jain, is currently FES Head, Department of Botany, Vidya Bhawan Rural Institute, Udaipur. She has published several research papers in National & international journals and authored reference books.
Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.
कुत्तों से फैला कैनाइन मोर्बिली वायरस या कैनाइन डिस्टेंपर वायरस शेर और बाघ के लिए खतरा बना गया है। यह वायरस कभी भी उनपर कहर बरपा सकता है। अभी तक इसके संक्रमण से जूझ रहे शेर-बाघों को बचाने वाली कोई वैक्सीन तक नहीं है।
अखिल भारतीय बाघ सर्वेक्षण में उपयोग किए गए कैमरा-ट्रैप ने 17 बाघ अभयारण्यों में बाघों की तुलना से ज्यादा आवारा कुत्तों को कैप्चर किया। कुत्तों और पशुधन दोनों की उपस्थिति महत्वपूर्ण संख्या में कम से कम 30 टाइगर रिजर्व में दर्ज की गई थी। विशेषज्ञों का कहना है कि पहले से ही अवैध शिकार और पर्यावास कि कमी आदि चुनौतियों से जूझ रहे बाघ, शेर और अन्य जंगली मांसाहारी, इन जंगली और परित्यक्त कुत्तों और पशुओं (कैटल), के प्रसार से विभिन्न रोगों का संचरण और संक्रमण जल्द ही इनकी विलुप्त हो रही आबादी को लुप्तप्राय कर सकता है।(Jay Mazumdar, 2020)
यहाँ आप वन्यजीवों में खतरे के रूप में उभरे वायरस के बारे में पढ़ने जा रहे हैं। वर्ष 2018 में गुजरात के 23 शेरों कि मौत का कारण बना कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस (सीडीवी) एक संक्रामक वायरस है। मूलतः कुत्तों में फैलने वाले इस वायरस से ग्रसित जानवरों का बचना बेहद मुश्किल होता है। सीडीवी पॅरामीक्सोविरइडे (Paramyxoviridae) परिवार के मोर्बिली वायरस जीनस का सदस्य है। सीडीवी एक एनवेलप्ड़पले ओमॉरफीक आरएनए वायरस है, जिसका बाहरी एन्वेलपहेमगलुटिनीन और फ्यूज़न प्रोटीन का बना होता है। ये प्रोटीन, वायरस को नॉर्मल सेल से जुडने और अंदर प्रवेश कर संक्रमित करने में मदद करते हैं। मोर्बिलीवायरस, मध्यम-से-गंभीर श्वसन, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, इम्युनोसुप्रेशन और न्यूरोलॉजिकल रोगों को भिन्न प्रकार के जीवों जैसे की मनुष्य (खसरा वायरस), मांसाहारी (कैनाइनडिस्टेंपर वायरस), मवेशी (रिन्डरपेस्ट वायरस) डॉल्फ़िन और अन्य लुप्तप्राय वन्यजीव प्रजातियों को संक्रमित करने के कारण जाना जाता है। कुत्तों में इसके संक्रमण से गंभीर, बहु-तंत्रीय रोग हो सकते है जो मुख्य रूप से गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, श्वसन और न्यूरोलॉजिकलसिस्टम को प्रभावित करते हैं। (Appel M. J.1987)
कुत्ते वन्यजीवों के शिकार का उपभोग करते हुए उसे CDV से संक्रमित कर देते हैं और जब वन्यजीव अपने शिकार को खत्म करने के लिये वापस लौटता तो इस घातक बीमारी की चपेट में आ जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
अपने नाम के बावजूद, कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस को ऑर्डर कार्निवोरा में विभिन्न प्रकार की प्रजातियों को संक्रमित करने के लिए जाना जाता है। यहां तक कि वर्ष 2013 में गैर-मानवीय प्राइमेट भी सीडीवी से संक्रमित हो गए हैं, जिससे संभावित मानव संक्रमण कि भी संभावनाएँ बढ़ गई है। फेलिड्स को सीडीवी के लिए ज्यादातर प्रतिरोधी माना जाता था लेकिन अमेरिकी जूलॉजिकल पार्कों में रहने वाले बंदी बाघों, शेरों, तेंदुओं और जगुआर में घातक संक्रमणों की एक श्रृंखलाने इस धारणा को गलत साबित किया। फिर, 1994 में, तंजानिया के सेरेनगेटी नेशनल पार्क में कुल शेरों की आबादी के लगभग एक तिहाई शेरों का संक्रमण से मौत होना साबित करता था कि बड़ी बिल्लियाँ इससे बची ना थी। उनकी मौतों के साथ ही सेरेनगेटी इकोसिस्टम के भीतर विभिन्न प्रकार के मांसाहारियों में होने वाली मौतों के लिए सीडीवी को जिम्मेदार ठहराया गया था। उसके बाद फिर ऐसे कई मामले सामने आए जिनमे अन्य फेलिड्स की आबादीजैसे कि बॉबकैट, कनाडा लिनक्स, यूरेशियन लिनक्स, गंभीर रूप से लुप्तप्राय इबेरियन लिनक्स, और अमूर बाघ भी शामिल थे। (Terio, KA. 2013)
इसके अलावा भारत में देखें तो, थ्रेटेड टैक्स (Threatened Taxa) में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि राजस्थान के रणथंभौर नेशनल उद्यान (Ranthambhore National Park) के समीप 86% कुत्तों का परीक्षण किये जाने के बाद इनके रक्तप्रवाह में CDV एंटीबॉडीज़ के होने की पुष्टि की गई है। इसका अर्थ है कि ये कुत्ते या तो वर्तमान में CDV से संक्रमित हैं या अपने जीवन में कभी-न-कभी संक्रमित हुए हैं और उन्होंने इस बीमारी पर काबू पा लिया है। इस अध्ययन में यह इंगित किया गया है कि उद्यान में रहने वाले बाघों और तेंदुओं में कुत्तों से इस बीमारी के हस्तांतरण का खतरा बढ़ रहा है। अक्सर ऐसा होता है कि शेर/ बाघ एक बार में पूरे शिकार को नहीं खाते हैं। कुत्ते उस शिकार का उपभोग करते हुए उसे CDV से संक्रमित कर देते हैं। शेर/बाघ अपने शिकार को खत्म करने के लिये वापस लौटता है और इस घातक बीमारी की चपेट में आ जाता है।(Sidhu et al, 2019)
वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसाइटी, कॉर्नेल और ग्लासगो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक वायरस के लिए नियंत्रण उपायों (जैसे कि एक टीका देना, आदि जो इन जानवरों के लिए सुरक्षित हो) को विकसित करके इसके संकट को दूर करने के लिए तेजी से कार्रवाई करने का आग्रह कर रहे हैं। उन्होंने कैनाइन डिस्टेंपर वायरस का नाम बदलकर कार्निवॉर डिस्टेम्पर वायरस रखने का भी सुझाव दिया है ताकि जानवरों की विस्तृत श्रृंखला को दिखाया जा सके जो वायरस का संचरण करते हैं और बीमारी से पीड़ित हो सकते हैं।
कैनाइन डिस्टेंपर कैसे फैलता है?
कुत्ते में सीडीवी के संक्रमण के तीन मुख्य तरीके हैं – एक संक्रमित जानवर या वस्तु के साथ सीधे संपर्क के माध्यम से, एयरबोर्न एक्सपोज़र के माध्यम से, और प्लसेन्टा के माध्यम से। कैनाइन डिस्टेंपर वायरस शरीर कि लगभग सभी प्रणालियों को प्रभावित करता है। 3-6 महीने की उम्र के पिल्ले विशेष रूप से अतिसंवेदनशील होते हैं। सीडीवी एरोसोल की बूंदों के माध्यम से और संक्रमित शारीरिक तरल पदार्थों के संपर्क के 6 से 22 दिन बाद से फैलता है, जिसमें नाक और नेत्र संबंधी स्राव, मल और मूत्र शामिल हैं। यह इन तरल पदार्थों से दूषित भोजन और पानी से भी फैल सकता है। जब संक्रमित कुत्ते या जंगली जानवर खाँसते, छींकते या भौंकते हैं, तो एयरोसोल की बूंदों को पर्यावरण में छोड़ते हैं जो कि आस-पास के जानवरों और सतहों को संक्रमित करते है। संक्रमण और बीमारी के बीच का समय 14 से 18 दिनों का होता है, हालाँकि संक्रमण के 3 से 6 दिन बाद बुखार आ सकता है।डिस्टेम्पर वायरस पर्यावरण में लंबे समय तक नहीं रहता है और अधिकांश कीटाणुनाशकों द्वारा नष्ट किया जा सकता है। जबकि डिस्टेम्पर-संक्रमित कुत्ते कई महीनों तक वायरस का प्रवाह कर सकते हैं और अपने आसपास के कुत्तों को जोखिम में डालते हैं।
कैनाइन डिस्टेम्पर वाइरस संरचना (Source – veteriankey.com)
सीडीवी संक्रमण द्वारा प्रभावित एनाटॉमिक साइट्स (Source – veteriankey.com)
कैनाइन डिस्टेम्पर के लक्षण:
कैनाइन डिस्टेम्पर के प्रारम्भिक लक्षणों के दौरान आँखों से पानी के साथ मवाद जैसा पदार्थ निकलता है। इसके बाद बुखार, भूख ना लगना, और नाक बहने जैसे लक्षण देखे जा सकते हैं। अन्य लक्षणों में उलटी, दस्त, अत्यधिक लार, खांसी, और सांस लेने में तकलीफ शामिल है। यदि तंत्रिका संबंधी लक्षण विकसित होते हैं, तो असंयम हो सकता है। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के संकेतों में मांसपेशियों या मांसपेशियों के समूहों की एक स्थानीय अनैच्छिक ट्विचिंग शामिल है। जबड़ों में ऐंठन, जिसे आमतौर पर “च्यूइंग-गम फिट”, या अधिक उपयुक्त रूप से “डिस्टेंपर मायोक्लोनस” के रूप में वर्णित किया जाता है, भी लक्षण में शामिल है। जैसे-जैसे संक्रमण बढ़ता है जानवर प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता, असंयम, चक्कर, दर्द या स्पर्श के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि, और मोटर क्षमताओं के बिगड़ने के लक्षण दिखा सकता है। कुछ मामलों में संक्रमण अंधापन और पक्षाघात का कारण बन सकते हैं।
कैनाइन डिस्टेम्पर के प्रारम्भिक लक्षणों के दौरान आँखों से पानी के साथ मवाद जैसा पदार्थ निकलता है। इसके बाद बुखार, भूख ना लगना, और नाक बहने जैसे लक्षण देखे जा सकते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
कैनाइन डिस्टेम्पर का निवारण:
दुर्भाग्य से इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है, लेकिन उपचार के तौर पर लक्षणों को नियंत्रित करना शामिल है। हालांकि कैनाइन डिस्टेंपर का इलाज इस बात पर भी निर्भर है कि जानवर की प्रतिरक्षा प्रणाली कितनी मजबूत है और वायरस का असर कितना है। इसके अलावा यदि इस बीमारी का निदान व इलाज शुरुआती चरणों में शुरू कर दिया जाए तो इसे आसाानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
कुत्तों के लिए कैनाइन डिस्टेंपर के खिलाफ कई टीके मौजूद हैं। कीटाणुनाशक, डिटर्जेंट के साथ नियमित सफाई से वातावरण से डिस्टेम्पर वायरस नष्ट हो जाता है। यह कमरे के तापमान (20-25 डिग्री सेल्सियस) पर कुछ घंटों से अधिक समय तक पर्यावरण में नहीं रहता है, लेकिन ठंड से थोड़े ऊपर तापमान पर छायादार वातावरण में कुछ हफ्तों तक जीवित रह सकता है। यह अन्य लेबिल वायरस के साथ, सीरम और ऊतक के मलबे में भी लंबे समय तक बना रह सकता है। कई क्षेत्रों में व्यापक टीकाकरण के बावजूद, यह कुत्तों की एक बड़ी बीमारी है।
आरक्षित वनों से डिस्टेम्पर के रोकथाम के लिए सर्वप्रथम राष्ट्रीय उद्यानों के आसपास के क्षेत्र में मुक्त घुमने वाले और घरेलू कुत्तों का टीकाकरण किया जाना चाहिये। इस बीमारी को पहचानने तथा इसके संबंध में आवश्यक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है। जहाँ कहीं भी मांसाहारी वन्यजीवों में CDV के लक्षणों का पता चलता है वहाँ संबंधित जानकारियों का एक आधारभूत डेटा तैयार किया जाना चाहिये ताकि भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर इसका इस्तेमाल किया जा सकें। नियंत्रण उपायों पर विचार करने के क्रम में स्थानीय CDV अभयारण्यों में घरेलू पशुओं की भूमिका को विशेष महत्तव दिया जाना चाहिये तथा इस संबंध में उपयोगी अध्ययन किये जाने चाहिये।
इस समस्या का सबसे आसान तरीका है- इस रोग की रोकथाम। वन्यजीवों की आबादी में किसी भी बीमारी का प्रबंधन करना बेहद मुश्किल होता है। सरकार को देश में वन्यजीव अभयारण्यों के समीप कुत्तों के टीकाकरण के लिये पहल शुरू करनी चाहिये।
सन्दर्भ :
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