राजस्थान के मुख्य वन्यजीव संरक्षक ने रणथम्भौर से 25 बाघों के लापता होने की जांच के लिए एक जांच समिति का गठन किया है। प्रारंभिक निष्कर्षों के अनुसार, ये बाघ दो चरणों में गायब हुए: 2024 से पहले 11 बाघों का पता नहीं चला था, और पिछले 12 महीनों में 14 बाघ गायब हो गए। जांच शुरू होने के बाद, अधिकारियों ने रिपोर्ट किया कि इनमें से 10 बाघों को खोज लिया गया है जबकि 15 अभी भी लापता हैं।
तो, बाकी 15 बाघों का क्या हुआ?
टाइगर वॉच के विस्तृत डेटाबेस पर आधारित यह लेख इन लापता बाघों के प्रोफाइल और अंतिम ज्ञात रिकॉर्ड का विश्लेषण करता है, ताकि उनके गायब होने के संभावित कारणों को उजागर किया जा सके।
बाघों की जानकारी और गायब होने के संभावित कारण
बाघ ID
लिंग
अंतिम रिपोर्टेड
जन्म वर्ष
उम्र (गायब होने के समय)
गायब होने का संभावित कारण
T3
नर
03-08-2022
2004
18-19 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T13
मादा
17-05-2023
2005
19-20 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T38
नर
04-12-2022
2008
14-15 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T41
मादा
15-06-2024
2007
17-18 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T48
मादा
12-09-2022
2007
15-16 वर्ष
वृद्धावस्था के कारण मरा हो सकता है
T54
मादा
अक्टूबर-22
2011
13-14 वर्ष
उम्र के कारण प्रमुख बाघ द्वारा बाहर किया गया
T63
मादा
जुलाई-23
2011
13-14 वर्ष
उम्र और प्रतिस्पर्धा के कारण मरा हो सकता है
T74
नर
14-06-2023
2012
12-13 वर्ष
प्रमुख बाघ T121 और T112 द्वारा बाहर किया गया
T79
मादा
16-06-2023
2013
11-12 वर्ष
संदिग्ध मृत्यु; पार्क के बाहर रहती थी
T99
मादा
26-07-2024
2016
9 वर्ष
गर्भावस्था में जटिलताएं, फरवरी 2024 में गर्भपात
T128
नर
05-07-2023
2020
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T131
नर
30-11-2022
2019
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T138
मादा
20-06-2022
2020
3 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T139
नर
17-07-2024
2021
4 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
T2401
नर
04-05-2024
2022
3 वर्ष
क्षेत्रीय संघर्ष / मानव संघर्ष के कारण मरा हो सकता है
निरीक्षण और तार्किक अनुमान
यह 15 बाघ अब तक गायब हैं, और उनके गायब होने के संभावित कारण निम्नलिखित हो सकते हैं:
वृद्ध बाघ: इन बाघों में से पांच—T3, T13, T38, T41, और T48—15 साल से ऊपर के हैं, जिनकी उम्र 19-20 साल तक पहुंच चुकी है।
दूसरे दो, T54 और T63, 13-14 साल के हैं और संभवतः अपने प्राकृतिक रूप से जीवन के अंतिम दौर के करीब हैं।
मादा बाघ T99 को फरवरी 2024 में गर्भावस्था में जटिलताएं आई थीं, जिससे उनका गर्भपात हो गया था। उन्हें व्यापक चिकित्सा देखभाल दी गई थी और वे जीवित रही थीं। हाल ही में रिपोर्ट आई थी कि वे फिर से गर्भवती हो सकती हैं, हालांकि यह पुष्टि नहीं हो पाई है। संभव है कि इसी प्रकार की जटिलताएं फिर से उत्पन्न हुई हों, जिसके कारण उनका वर्तमान स्थिति समझी जा सकती है।
फोटो: बाघिन T99 के गर्भपात के दौरान लिया गया चित्र
बाघ T74, जो 12 साल से अधिक उम्र की है, को डोमिनेंट बाघ T121 और T112 द्वारा उनके क्षेत्र से बाहर किया जा सकता है।
बाघिन T79 अजीब परिस्थितियों में गायब हो गई, जिसके बाद वन विभाग ने उसकी खोज शुरू की और उसकी दो शावकों को पाया। वह रणथम्भौर के बाहर कंडुली नदी क्षेत्र में रहती थी, और ऐसी चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में उसका अब तक जीवित रहना आश्चर्यजनक था।
सबसे महत्वपूर्ण नुकसान पांच युवा नर बाघों का है, जो रणथम्भौर के प्रमुख बाघों के मध्य प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गए। वन्य जीवन में, नर बाघों को क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जो अक्सर घातक मुठभेड़ों की ओर ले जाता है, जिनमें केवल सबसे मजबूत जीवित रहते हैं। वन विभाग के विस्तृत विश्लेषण के अनुसार, युवा नर बाघों जैसे T128, T131, T139, और T2401 को अक्सर अप्रयुक्त क्षेत्रों की तलाश करते हुए देखा गया था।प्रमुख बाघों के साथ क्षेत्रीय संघर्ष उनकी गायब होने का एक संभावित कारण हो सकता है।
बाघिन (T138) का गायब होना चिंता का विषय है, तथा 15 लापता बाघों में से इस अल्प-वयस्क बाघिन की अनुपस्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है।
प्राकृतिक प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त, मानव से संबंधित संघर्ष को भी ध्यान में रखना चाहिए। ये युवा बाघ स्थानीय समुदायों के साथ संघर्षों का शिकार भी हो सकते हैं, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों का सामना करना। क्षेत्र में पहले के घटनाएं, जैसे कि T114 और उसकी शावक, और T57 की जहर से मौत, मानव-बाघ संघर्ष के जोखिम को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं।
सारांश
रणथम्भोर से बाघों के गायब होने के कारणों में बढ़ती आयु, स्वास्थ्य समस्याएं, क्षेत्रीय संघर्ष और अन्य मानवजनित कारण शामिल हो सकते हैं। उम्रदराज बाघ, जैसे T3, T13, T38, T41, और T48, अपनी उम्र के कारण स्वाभाविक रूप से मरे हो सकते हैं। बाघ सामान्यतः 15 साल तक जीवित रहते हैं, और उसके बाद उनका जीवित रहना मुश्किल हो जाता है। 15 साल की उम्र के बाद, उन्हें स्वास्थ्य और क्षेत्रीय संघर्षों का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके जीवित रहने की संभावना घट जाती है।
T54, T63, T74, और T79 जैसे बाघ, जो अपनी उम्र के कारण कमजोर हो चुके थे, शायद युवा और प्रमुख बाघों से अपने क्षेत्रों की रक्षा करने में असमर्थ भी। इस कारण उनके जीवन का संकट में पड़ना स्वाभाविक है, खासकर जब वे पार्क के बाहरी इलाकों में रह रहे होते हैं, जैसे कि T54 जो तालरा रेंज के बाहरी इलाके में रहता था।
जब परिपक्व बाघिन T63, जिसने पहले तीन बार शावकों को जन्म दिया था और खंडार घाटी में पार्क के केंद्र में रहती थी, को औदी खो क्षेत्र में वन अधिकारी द्वारा लगभग मृत घोषित कर दिया गया था, तो अधिकारियों ने उसे शिकार भी उपलब्ध कराया था, यहाँ तक कि एक समय कहा गया कि वह जीवित नहीं बचेगी। अउ समय यह बाघिन अत्यंत दुर्बल अवस्था में मिली थी।
सबसे महत्वपूर्ण नुकसान युवा चार नर एवं एक मादा बाघ (T128, T131, T139, T2401 और T138) का है, जिनका सामना डोमिनेंट बाघों से क्षेत्रीय संघर्षों में हुआ। ये युवा बाघ अक्सर नए क्षेत्रों की तलाश में रहते है, और ऐसे संघर्षों के कारण उनकी मौत हो सकती है।
हालांकि, मानव जनित कारणों पर भी विचार करना जरूरी है। इन युवा बाघों ने स्थानीय समुदायों से भी खतरों का सामना किया हो सकता है, जैसे कि जहर देना या अन्य मानव जनित खतरों से मुठभेड़।
अंततः, बाघिन T99, जो गर्भावस्था की जटिलताओं से जूझ रही थी, शायद इन समस्याओं के कारण गायब हो गईं।
यह समीक्षा यह रेखांकित करती है कि रणथम्भौर में बाघों की स्थिति को लेकर लगातार निगरानी और सक्रिय उपायों की आवश्यकता है, ताकि हम इन खतरों को समझ सकें और अधिक प्रभावी रणनीतियाँ तैयार कर सकें, जिससे इस सुंदर प्रजाति का दीर्घकालिक संरक्षण सुनिश्चित हो सके।
गिद्ध, हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के अभिन्न अंग हैं, जो सफाईकर्मी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि, बीते कुछ दशकों में गिद्धों की आबादी में खतरनाक गिरावट आई। गिद्धों के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाना उनके संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
गिद्ध, प्रकृति के सफाईकर्मी के रूप में जाने जाते हैं, ये मृत जानवरों को खाकर पर्यावरण को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, विश्वभर में गिद्धों की संख्या पिछले तीन दशकों में चिंताजनक रूप से कम हुई है और इस गिरावट से राजस्थान भी अछूता नहीं रहा। हालांकि हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत में गिद्धों की संख्या स्थिर हुई है, लेकिन बढ़ नहीं रही है।
भारतीय गिद्धों का एक समूह (फ़ोटो: बनवारी यदुवंशी)
भारत में कभी नौ गिद्धों की प्रजातियाँ पाई जाती थीं, जिनमें से तीन – वाईट-रम्प्ड गिद्ध (Gyps bengalensis), भारतीय गिद्ध (Gyps indicus) और स्लेंडर-बिल्ड गिद्ध (Gyps tenuirostris) – गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं।
राजस्थान, अपने शुष्क वनों और खुले मैदानों के कारण, गिद्धों के लिए महत्वपूर्ण आवास स्थल है। यहाँ बेयरडेड गिद्ध और स्लेंडर-बिल्ड गिद्ध को छोड़कर बाकी सातों प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से चार प्रजातियाँ निवासी हैं और यहीं प्रजनन करती हैं, जबकि तीन अन्य प्रजातियाँ प्रवासी पक्षी के रूप में ऑक्टोबर से मार्च के महीनों में यहाँ देखी जाती हैं, कभी-कभी अप्रैल के मध्य तक भी यहाँ देखी जा सकती हैं। राजस्थान में पाए जाने वाले प्रवासी गिद्धों की प्रजातियों में हिमालयन ग्रिफॉन, यूरेशियन ग्रिफॉन, और सिनेरियस गिद्ध शामिल है।
कोटा ज़िले में स्थितः भारतीय गिद्ध का ब्रीडिंग और नेस्टिंग साइट (फ़ोटो: बनवारी यदुवंशी)
यहाँ ध्यान दें कि गिद्धों की संख्या में तेजी से गिरावट आने का कारण मुख्य रूप से पशुओं में इस्तेमाल की जाने वाली स्टेरॉयडमुक्त प्रज्वलनरोधी (NSAIDS) दवाएँ थी। नसाइड्स दवाओं में भी डाईक्लोफेनाक का उपयोग गिद्धों के अस्तित्व के लिए घातक साबित हुआ। डाईक्लोफेनाक को पशुओं के लिए दर्द निवारक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, जो की मृत पशुओं के अवशेषों में रह जाता और जब गिद्ध इन मृत जानवरों को खाते तो डाईक्लोफेनाक उनके शरीर में प्रवेश कर उनके गुर्दे की कार्यक्षमता को नष्ट कर देता जिससे उनकी मृत्यु हो जाती थी।
डाईक्लोफेनाक के उपयोग से मुख्य रूप प्रभावित प्रजातियों में वाईट-रम्प्ड गिद्ध, भारतीय गिद्ध और स्लेंडर-बिल्ड गिद्ध शामिल थे। इन तीन प्रजातियों की आबादी में 95% से अधिक की गिरावट आई थी। अन्य प्रजातियाँ भी कम संख्या में पाई जाती हैं, जिससे गिद्धों के पारिस्थितिक कार्यों पर व्यापक प्रभाव पड़ा, और शहरों और गाँव में मृत जीवों के शव कई दिनों तक सड़ते हुए देखे जाने लगे।
डाईक्लोफेनाक को पशुओं के लिए दर्द निवारक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, जो की मृत पशुओं के अवशेषों में रह जाता और जब गिद्ध इन मृत जानवरों को खाते तो डाईक्लोफेनाक उनके शरीर में प्रवेश कर उनके गुर्दे की कार्यक्षमता को नष्ट कर देता जिससे उनकी मृत्यु हो जाती थी। (फ़ोटो: प्रवीण)
गिद्धों के लिए अन्य खतरों में शामिल है उनके आवास का नुकसान। पेड़ों को काटना और चट्टानों को तोड़ना गिद्धों के घोंसले बनाने के लिए उपयुक्त स्थानों को कम कर देता है। दूसरा कारण है विद्युत लाइन। गिद्ध बड़े पंखों वाले पक्षी होते हैं, और वे अक्सर विद्युत लाइनों से टकराकर मारे जाते हैं। इसके अलावा कुछ क्षेत्रों में, गिद्धों का उनके शरीर के अंगों के लिए अवैध रूप से शिकार किया जाता है, जिन्हें तांत्रिक क्रियाओं में इस्तेमाल करने की गलत धारणा है।
गिद्धों की इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए 2000 के दशक के मध्य में डाईक्लोफेनाक के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया और साथ ही पशु चिकित्सकों को गिद्धों के लिए सुरक्षित दवाओं के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया गया। पूरे भारत की तरह, राजस्थान में भी डाईक्लोफेनाक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने के बाद से गिद्धों की संख्या में मामूली सुधार तो हुआ है, लेकिन उनकी आबादी अभी भी अपने मूल स्तर से बहुत कम है।
गिद्धों के संरक्षण के लिए भारत सरकार और वन्यजीव संस्थाएं मिलकर कई प्रयास कर रही हैं जिनमें वल्चर सेफ ज़ोन (वल्चर सेफ़ ज़ोन), गिद्ध अभयारण्य, संरक्षण और प्रजनन केंद्र, और जागरूकता अभियान शामिल हैं।
गिद्ध अभयारण्य: “गिद्ध अभयारण्य” नामक विशेष क्षेत्रों की स्थापना की जा रही है। इन क्षेत्रों में पशुओं के मृत शरीरों को जहर रहित दवाओं से उपचारित किया जाता है ताकि गिद्धों के लिए सुरक्षित भोजन उपलब्ध हो सके। देश का एकमात्र गिद्ध अभयारण्य रामदेवरा बेट्टा हिल है, जो की कर्नाटक के रामानगर जिले में स्थित है।
संरक्षण और प्रजनन केंद्र: देश भर में कई गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केंद्र स्थापित किए गए हैं। इन केंद्रों में घायल गिद्धों का उपचार किया जाता है और स्वस्थ गिद्धों को प्रजनन के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इन केंद्रों से भविष्य में जंगल में गिद्धों को छोड़ा जा सकता है। भारत में नौ गिद्ध संरक्षण और प्रजनन केंद्र (वीसीबीसी) हैं, जिनमें तीन बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) और बाकी सेंट्रल जू अथॉरिटी द्वारा प्रशासित हैं:
पिंजौर, हरियाणा: 2001 में गिद्ध देखभाल केंद्र के रूप में स्थापित, यह 2004 में भारत का पहला वीसीबीसी था
राजभटखावा, पश्चिम बंगाल: 2005 में स्थापित
रानी, गुवाहाटी, असम: 2007 में स्थापित
केरवा, वन विहार राष्ट्रीय उद्यान, भोपाल, मध्य प्रदेश: 2011 में स्थापित
हैदराबाद के नेहरू प्राणी उद्यान में हैदराबाद गिद्ध प्रजनन केंद्र
जूनागढ़ गिद्ध प्रजनन केंद्र , सक्करबाग प्राणि उद्यान, जूनागढ़
भारत मे मौजूद गिद्ध प्रजनन केंद्र (वल्चर ब्रीडिंग सेंटर) (मैप: प्रवीण)
वल्चर सेफ ज़ोन (वीएसजेड): वल्चर सेफ़ ज़ोन न केवल गिद्धों को बचाने में महत्वपूर्ण हैं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भी लाभदायक हैं। प्रत्येक वीएसजेड, गंभीर रूप से लुप्तप्राय गिद्ध प्रजातियों में से कम से कम एक प्रजाति के जीवित कॉलोनी पर केंद्रित होती है। वीएसजेड को 100 किमी (30,000 किमी 2 से अधिक) के दायरे वाले क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया है, और यह क्षेत्र ओरिएंटल व्हाइट-बैकड गिद्धों (SAVE, 2014) के रेंज के आधार पर निर्धारित किया गया है।
SAVE के अनुसार वीएसजेड में:
पशु चिकित्सा उपयोग के लिए दुकानों पर डाइक्लोफेनाक उपलब्ध नहीं होना चाहिए,
कम से कम 800 मवेशियों के शव के जिगर के नमूनों में कोई डाइक्लोफेनाक नहीं पाया जाना चाहिए,
वीएसजेड क्षेत्र के भीतर मृत गिद्धों में कोई डाइक्लोफेनाक या आंत संबंधी गठिया नहीं पाया जाना चाहिए,
वीएसजेड में गिद्धों की आबादी में स्थिरता या वृद्धि होनी चाहिए।
गिद्धों के लिए सुरक्षित भोजन की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है। इसके लिए इन क्षेत्रों में मवेशी आश्रयों अथवा गौशालाओं के साथ मिलकर काम किया जाता है, जहाँ गिद्धों को खाने के लिए मृत गायों को उपलब्ध कराया जाता है।
कैलादेवी क्षेत्र में मौजूद गंभीर रूप से संकटग्रस्त भारतीय गिद्ध (फ़ोटो: प्रवीण)
अस्थायी गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र (पीवीएसजेड): जब उपरोक्त मानदंड पूरे होते हैं तभी वीएसजेड पूरी तरह से स्थापित होता है। जब तक यह स्थापित नहीं होता की उक्त मानदंड पूरे हो गए हैं तब तक इन क्षेत्रों को अस्थायी गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र (प्रविशनल वल्चर सेफ़ ज़ोन) माना जाता है।
वल्चर सेफ़ ज़ोन की शुरुआत: वर्ष 2011 में नेपाल ने स्थानीय समूहों और गैर सरकारी संगठनों का एक नेटवर्क विकसित करके वीएसजेड स्थापित करने का नेतृत्व किया, और डाईक्लोफेनाक के उपयोग में कमी और रोक सुनिश्चित करने के लिए गिद्धों के प्रजनन इलाकों के आसपास के क्षेत्रों में एक साथ काम किया।
नेपाल द्वारा वल्चर सेफ़ ज़ोन बनाने के लिए सबसे पहले गिद्धों के प्रजनन इलाकों के आसपास के क्षेत्रों से पशु चिकित्सा के लिए डाइक्लोफेनाक के सभी उपलब्ध स्टॉक को हटाया गया और इसकी जगह गिद्ध सुरक्षित दवा मेलॉक्सिकैम को स्थापित किया गया। यह बदलाव उन्होंने प्रजनन क्षेत्रों के 50 किमी की दूरी तक के दायरे में स्थापित किया।
डाइक्लोफेनाक को मेलोक्सिकैम से बदलने के बाद स्थानीय समुदाय के बीच एक व्यापक शिक्षा और जागरूकता कार्यक्रम चलाया। इस कार्यक्रम में गिद्धों के शवों को साफ करने की क्षमता के संबंध में जानकारी दी और यह भी बताया की किस प्रकार ये बीमारी के खतरों को कम करते हैं और कुत्तों की बढ़ती संख्या को भी नियंत्रित करने में मदद करते हैं। इसके अलावा किसानों, पशुचिकित्सकों और फार्मासिस्टों के साथ कार्यशालाएँ आयोजित की ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे डाइक्लोफेनाक के उपयोग से होने वाली समस्याओं के बारे में जानते हैं।
नेपाल के बाद भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ने भी वल्चर सेफ़ ज़ोन के माध्यम से गिद्धों के इन-सीटू संरक्षण पर जोर दिया।
कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य गिद्धों की एक छोटी आबादी को संरक्षित करता है, जो की एक संभावित वल्चर सेफ़ ज़ोन भी घोषित किया जा सकता है (फ़ोटो: प्रवीण)
राजस्थान के गिद्ध संरक्षण के प्रयास: गिद्धों की आबादी के हिसाब से देखा जाए तो राजस्थान एशिया के गिद्धों के लिए महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के साथ ही यहाँ 22 जिलों में गिद्धों का आश्रय पाया गया है, जिनमें निवासी और प्रवासी गिद्ध दोनों ही शामिल हैं। प्रवासी पक्षी (मुख्यतः ईगिप्शियन वल्चर) प्रजनन के लिए यहाँ घोंसलों का निर्माण कर प्रजनन करते हैं इसलिए यहाँ गिद्धों के संरक्षण के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाना आवश्यक है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए राजस्थान के संरक्षणवादी और गैर सरकारी संस्थाएँ काफी समय से राजस्थान में गिद्ध प्रजनन केंद्र की मांग कर रहे हैं।
गिद्ध संरक्षण के लिहाज से बीकानेर स्थित जोरबीड गिद्ध संरक्षण रिजर्व राजस्थान द्वारा किया गया एक सफल प्रयास है। हालांकि अभी तक इस क्षेत्र को वीएसजेड का दर्ज नहीं मिल पाया है।
गिद्ध संरक्षण के लिए काम कर रहे प्रोफेसर डॉ दाऊ लाल बोहरा ने जोरबीड को वीएसजेड घोषित करवाने हेतु यहाँ आ रहे मवेशियों के शवों जी जांच कारवाई और पाया की किसी भी शव के उपचार के लिए गिद्धों के लिए हानिकारक दवाओं का उपयोग नहीं किया गया बल्कि उनके लिए सुरक्षित दवाएँ ही उपयोग की गई हैं। इसके अलावा संदिग्ध जानवरों को कुत्तों के खाने के लिए रखा जाता है। साथ ही स्थानीय औषधि विक्रेताओं को जागरूक किया जा रहा है ताकि जल्द से जल्द इस क्षेत्र को वीएसजेड घोषित किया जा सके।
जोरबीड का गिद्धों के लिए महत्तव देखते हुए यहाँ आ रहे गिद्धों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिंगिंग और टैगिंग कार्यक्रम चलाया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीएमएस सीओपी में भी राजस्थान के महत्तव और यहाँ गिद्ध संरक्षण के प्रयासों को और मजबूत करने हेतु चिंता जताई जा चुकी है। सीएमएस सीओपी उन पार्टियों का सम्मेलन है, जो जंगली जानवरों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर प्राथमिक निर्णय लेने और उनकी पालना सुनिश्चित करने के लिया बनाया गया है।
भारत में वल्चर सेफ ज़ोन: वीएसजेड के मुख्य लक्ष्य सभी देशों में समान हैं, हालांकि मॉडल अलग-अलग देशों में और यहां तक कि एक देश के भीतर भी भिन्न देखने को मिल जाते हैं। नेपाल ने वीएसजेड पर वर्ष 2011 में काम शुरू किया, जिसके बाद भारत ने 2012 के शुरुआत में काम शुरू किया। बांग्लादेश देश ने 2014 में काम शुरू किया और वीएसजेड को गजेट अधिसूचना के माध्यम से कानूनी दर्जा देने वाला पहला देश बन गया। जबकि नेपाल और भारत में वीएसज़ेड को कोई कानूनी दर्जा नहीं प्राप्त है। भारत में 9 चयनित क्षेत्रों को गिद्धों के लिए संभावित गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र (वीएसजेड) के रूप में पहचाना गया है। ये सारे क्षेत्र गिद्ध प्रजनन केंद्रों को ध्यान में रखते हुए पहचाने गए हैं। हरियाणा में पिंजौर, पश्चिम बंगाल में राजाभटखावा, असम में माजुली द्वीप के आसपास, एमपी में बुक्सवाहा, यूपी में दुधवा राष्ट्रीय उद्यान और कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य, झारखंड में हज़ारीबाग़, और गुजरात में सौराष्ट्र।
संरक्षणवादी एवं गैर सरकारी संस्थाएँ मौजूदा गिद्ध सुरक्षित क्षेत्रों को स्थापित एवं मजबूत करने और नए क्षेत्र बनाने के लिए काम कर रहे हैं। उम्मीद है कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में इस पहल से गिद्धों के संरक्षण में सफलता मिलेगी।
(कवर फ़ोटो (बनवारी यदुवंशी): कोटा के गैपरनाथ क्षेत्र के पास भारतीय गिद्धों का एक समूह
A few years back Menar was not so known in the area as it is known today. Menar is a small village on the Udaipur – Chittorgarh National Highway (NH 76), 50km away from Udaipur City. It is a Menaria Brahmin-dominated village. This village is well known for its cultural legacy. Two beautiful water bodies are present in this village nearly 1 km apart from each other which have created a new history in recent years. The small-sized waterbody is present towards the northwest outskirts of the village, called Braham Talab. A giant Lord Shiva statue is present on the embankment of this pond in a sitting posture. Another big-sized pond called Dhand Talab is present towards the southern end of the village near Menar – Bhinder Road. Both the ponds have beautiful earthen embankments. Many old, aged mango trees (Mangifera indica) are present on each embankment. A big-sized colony of a Megabat species, the Indian Flying Fox (Pteropus giganteus) is present among the Mango trees of Braham Talab.
Menar is known to protect its wetlands and avifauna. Village people are very pro-nature. They have been conserving their wetlands and birds since ancient times. Forest Department, Rajasthan started celebrating the “Udaipur Bird Festival” in 2014. Every year the birders participating in the Udaipur Bird Festival, reach Menar wetlands for bird watching. Local media also played a vital role in highlighting the conservation ethos and practices of the local community to protect their wetlands and avifauna. In 2016, the Bombay Natural History Society and BirdLife International notified both ‘Menar Ponds’ as an Important Bird Area (IBA). Presently, Rajasthan has 31 Important Bird Areas and Menar is one of them. More than 100 species are known from Menar village ponds and surrounding habitats. Many Critically Endangered, Vulnerable and Near Threatened species are known from waterbodies and surrounding terrestrial habitats as shown below:
Category
Common English name of the bird
Latin name
Critical Endangered
White-rumped Vulture
Gyps bengalensis
Endangered
Egyptian Vulture
Neophron percnopterus
Vulnerable
Sarus Crane
Grus antigone
Indian Skimmer
Rhynchops albicollis
White-naped Tit
Parus nuchalis
Near Threatened
Oriental Darter
Anhinga melanogaster
Spot-billed Pelican
Pelecanus philippensis
Painted Stork
Mycteria leucocephala
Black-necked Stork
Ephippiorhynchus asiaticus
Lesser Flamingo
Phoeniconaiaf minor
Ferruginous Duck
Aythya nyroca
Black-tailed Godwit
Limosa limosa
Black-headed Ibis
Threskiornis melanocephala
Great Thick-knee
Esacus recurvirostris
River Tern
Sterna aurantia
European Roller
Coracias garrulus
Alexandrine Parakeet
Psittacula eupatria
A journey from an ordinary village pond to an important bird area:
During the last one-decade, Menar became an important birding destination not only in Rajasthan but in India as well. Gradually, this small village is also establishing its shining presence on the world birding map. So far, many honours and titles have been credited to the account of this bird village. A few of them are as follows:
S. no.
Year
Event
1.
2014
First Udaipur Bird Fair birders team reached for bird watching. From 2014 to 2023 birders participating in the Udaipur Bird Festival are regularly visiting the Menar Wetland complex.
2.
2016
Menar became an IBA site.
3.
2021
A bird fair was celebrated on December 14, 2021, by the Rajasthan Patrika at IBA Menar.
4.
2023
Menar Village was awarded the “Best Tourism Village 2023” in the silver category by the Ministry of Tourism, Government of India.
The audience award is given to the film “Wings of Hope: A Bustling Village and Their Bird Friends” by “The UN World Wildlife Day Film Showcase”. This film is related to the wetland and bird conservation legacy of Menar village.
Menar village wetlands were declared as a notified “wetland” by the Government of Rajasthan.
Beyond Important Bird Area:
Now Forest Department, Rajasthan is trying to make the Menar wetland complex a Ramsar Site. The required proposal has been prepared by the department. Hopefully, soon one more feather will be in the turban of Menar village.
Impact of Menar conservation legacy:
Menar has become a conservation model in Rajasthan. Many wetlands like Nagawali, Badwai, Kishan Kareri, Kheroda, Ramakheda, Puthiyan, Rundeda, Bhinder, Roma Talab (Mangalwad), Menpuria, Bhatewar, Bhupalsagar etc. which are present in the vicinity of Menar village are now on the way to become new “Menars” in southern Rajasthan. There is a competition in various villages to protect their wetlands like the people of Menar are doing. The conservation ethos of the people of Menar Village is now inspiring many villages of southern Rajasthan to protect and conserve their village wetlands and the aquatic fauna and flora present there.
Local youth earn their livelihood through birding (Photo: Umesh Menaria).
A stone at Bhupalsagar, dated back May 05, 1937, tells the story of wetland and bird conservation in the Mewar region (Photo: Author).
आजकल हर आदमी को जल्दी से जल्दी, सघन, सदाबहार व आकर्षक हरियाली चाहिए। आम आदमी से लेकर स्वंयसेवी संस्थाऐं, नगरपालिका, नगर परिषद्, वनविभाग व अन्य सभी विभागों की यही चाह है। यह चाह तब और प्रबल और आवश्यक हो जाती है जब सोशियल मीड़िया, प्रिन्ट मीड़िया, पर्यावरण प्रेमी व कई अन्य ऐजेन्सिया यह कहने लग जाती हैं कि धन बहुत खर्च हुआ है लेकिन हरियाली कहा है? एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं। अनावश्यक खर्च व बेईमानी करने के आरोप भी लगते हैं। सफाईया पेश होती हैं लेकिन शक बने रहते हैं। जांच के सिलसिले भी चलते हैं।
हाल यह है कि लोग रेगिस्तान, शहर, गाँव, पहाड़ आदि हर जगह को वैसा ही हरा-भरा देखना चाहते है जैसा केरल है! जैसा उत्तर-पूर्व भारत है!
क्या राजस्थान में ऐसा संभव है?
जहाँ वर्षा कम है, वर्षाकाल छोटा है, वर्षा के दिन कम है, पौधों का वृद्विकाल छोटा है, मौसम की बेरूखी को सहन करने हेतु वनस्पतियों में सुसुप्त अवस्था में जाने की अन्तर्निहीत अनुवांशिकी है, सर्दी तो सर्दी गर्मी की हवा भी जहा शुष्क हो, वास्पोत्सर्जन दर अधिक हो, जहाँ ट्यूबवेल सिंचित कृषि ने भूमि की ऊपरी पर्तो में नमी की उपलब्धता को घटाया हो, वहा क्या सदाबहार वनस्पतियों की हर जगह हरियाली संभव है?
हमारी चाह कुछ भी हो लेकिन प्रकृति हर जगह उस वनस्पति विविधता को ही रोपती है जो वहाँ जैसी मिट्टी, वर्षा, भूमि की नमी, ताप एवं अन्य परिस्थितियाँ हैं उनमें जीवित बच सके। चाहे वह फिर कांटेदार वनस्पति हो या पतझड़ी या सदाबहार। प्रकृति मनुष्य की चाह की बजाय स्थानीय जलवायु एवं वहाँ कि पारिस्थितिकी को घ्यान में रखकर ही घास व वन उगाती है। यही कारण है कि केरल के वन राजस्थान में नहीं उग सकते और राजस्थान के केरल में नहीं। यदि राजस्थान में केरल जैसी हरियाली की सोच में बाहर से लाकर विदेशी मूल की प्रजातियों को लगायेगें तो भले ही कुछ दिनों के लिये अच्छी हरियाली व सुन्दरता नजर आये लेकिन इन्हें इस स्थिति में रखने की लागत सिंचाई व दूसरे कार्यो के रूप में अधिक आयेगी। जिस दिन उनको सिंचाई व अन्य देखभाल से वंचित किया जायेगा, उनमें से अधिकांश प्रजातियाँ मरने लगेगी।
आज आकर्षक हरियाली लाने के दबाव के नीचे दबी शहरी व कस्बों की संस्थाऐं, उद्यानों, पार्को, रोड़ किनारे, डिवाइड़र, कार्यालयों आदि जगह विदेशी मूल की वनस्पतियों को बेहिचक लगाने लगी है। शहर स्थित जलाश्यों के किनारें एवं अन्दर स्थित टापूओं पर भी यही सिलसिला जारी है। लोग अपने आलीशान घरों व होटलों में भी विदेशी प्रजातियों को चाव से लगाते हैं। पिछले 20 साल में यह प्रवृति काफी बढ़ी है।
क्या ऐसा कर हम स्थानीय इकोलाॅजी से छेड़छाड़ करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं?
क्या कम लागत में स्थानीय जलवायु में पनपने वाली देशी प्रजातिया बेकार हैं?
विदेशी प्रजातियों पर घ्यान केन्द्रित होने से देशी प्रजातियों को बढ़ावा नहीं मिलेगा तो हमारी स्थानीय जैव विविधता क्या नहीं घटेगी?
स्मरण रहे, विदेशी प्रजातियों के मुकाबले देशज प्रजातिया कम देखभाल व कम खर्चे में ही पनप जाती हैं। विपरीत परिस्थितियों में उनके बचे रहने की प्रबल संभावना रहती है। उनसे स्थानीय इकोलाॅजी में कोई बदलाव की संभावना भी नहीं रहती है। खतरा यह भी है कि किसी विदेशी प्रजाति को यदि स्थानीय परिस्थितियां रास आ गई एवं दुर्धटनावश या असावधानी में प्राकृतिक वनों व दूसरें पारिस्थितिकी तंत्रों में वह पहुंच गई या जानबूझ कर पहुंचा दी गई एवं यदि वह आक्रमणकारी (invasive) सिद्व हो गई तो स्थानीय जैव विविधता, वन एवं चारागाहों को भारी नुकसान होगा।
हम लेन्टाना कमारा, प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, कोनोकारपस इरेक्टस, हिप्टिस सुवियोलेन्स, केशिया टोरा, केशिया यूनिफ्लोरा आदि से हो रहे नुकसान को सालों से देख रहे हैं। आज जिन विदेशी प्रजातियों को लापरवाही से लगाया जा रहा है, भविष्य में उनका व्यवहार देशज प्रजातियों के साथ क्या रहेगा कोई नहीं जानता।
हमारी स्थानीय परिस्थितयों में पनपने वाले नीम, बरगद, विषतेन्दु, तेन्दु, रायण, सहजना, सेमल, मोजाल, उम्बिया, खजूर, मोलश्री (बकूल), लिसोड़ा, गोंदी, मीठाजाल, खाराजाल, फराश, शहतूत, खेजड़ी, अरणी, लम्पाण, रोहण, जंगली करौंदा, जीवापूता, इमली, इन्द्रधौक, वाहीवरणा, महुआ, पाखड़, पिम्परी, जामुन, कठ जामुन, आल, लेण्ड़िया, रोहिड़ा, पलाश, पीला पलाश, देशी आम, दहमन, जमरासी, मावाबेर, फालसा, कचनार, जंगली गधा पलाश, कुसुम, कैथ, बिन्नास, कढीनीम, मीढ़ोल, तल्ला आदि ऐसी प्रजातियाँ है जिनमें अधिकांश शुष्क जलवायु में भी सदाबहार एवं अद्र्वसदाबहार बने रहने की प्रवृत्ति है। कुछ प्रजातियाँ बहुत सुन्दर फूल भी देती है। देशज होने के कारण वे पर्यावरण के लिये भी सुरक्षित है अतः दीर्धकालीन सोच को घ्यान में रखते हुए देशज प्रजातियों को लगाना, बचाना ज्यादा उचित होगा।
राजस्थान में ऊँटो की नस्ल में विविधता एवं उनकी संख्या
सन 1900 में, तंदुरुस्त ऊंटों पर बैठ के बीकानेर राज्य की एक सैन्य टुकड़ी, ब्रिटिश सेना की और से चीन में एक युद्ध में भाग लेने गयी थी। उनका सामना, वहां के उन लोगों से हुआ जो मार्शल आर्ट में निपुण थे। ब्रिटिश सरकार ने इन मार्शल योद्धाओं को बॉक्सर रिबेलियन का नाम दिया था। यह बड़ा विचित्र युद्ध हुआ होगा, जब एक ऊँट सवार टुकड़ी कुंग फु योद्धाओं का सामना कर रही थी। यह मार्शल लोग एक ऊँचा उछाल मार कर घुड़सवार को नीचे गिरा लेते थे, परन्तु जब उनके सामने ऊँचे ऊँट पर बैठा सवार आया तो वह हतप्रभ थे, की इनसे कैसे लड़े। इस युद्ध में विख्यात बीकानेर महाराज श्री गंगा सिंह जी ने स्वयं भाग लिया था। बीकानेर के ऊंटों को विश्व भर में युद्ध के लिए अत्यंत उपयोगी माना जाता है।
गंगा रिसाला का एक गर्वीला जवान (1908 Watercolour by Major Alfred Crowdy Lovett. National Army Museum, UK)
राजस्थान में मिलने वाली ऊंटों की अलग अलग नस्ल, उनके उपयोग के अनुसार विकशित की गयी होगी।
1. बीकानेरी : – यह बीकानेर , गंगानगर ,हनुमानगढ़ एवं चुरू में पाया जाता है |
2. जोधपुरी :- यह मुख्यत जोधपुर और नागपुर जिले में पाया जाता है |
3. नाचना :- यह तेज दौड़ने वाली नस्ल है, मूल रूप से यह जैसलमेर के नाचना गाँव में पाया जाता है |
4. जैसलमेरी :-यह नस्ल जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर में पाई जाती है |
5. कच्छी :- यह नस्ल मुख्यरूप से बाड़मेर और जलोर में पाई जाती है |
6. जालोरी :- यह नस्ल मुख्यरूप से जालोर और सिरोही में पाई जाती है |
7. मेवाड़ी :- इस नस्ल का बड़े पैमाने पर भार ढोने के लिए उपयोग किया जाता है | यह नस्ल मुख्यत उदयपुर , चित्तोरगढ़ , प्रतापगढ़ और अजमेर में पाई जाती है |
8. गोमत :- ऊँट की यह नस्ल अधिक दुरी के मालवाहन के लिए प्रसिद्ध है और यह तेज़ धावक भी है। नस्ल मुख्य रूप से जोधपुर और नागौर में पाई जाती है |
9. गुढ़ा :- यह नागौर और चुरू में पाया जाता है |
10.खेरुपल :- यह बीकानेर और चुरू में पाया जाता है |
11. अल्वारी :- यह नस्ल मुख्य रूप से पूर्वी राजस्थान में पाई जाती है |
भारत में आज इस प्राणी की संख्या में अत्यंत गिरावट आयी है जहाँ वर्ष 2012 में इनकी संख्या 4 लाख थी वहीं वर्ष 2019 में 2.5 लाख रह गयी है। राजस्थान में पिछले कुछ वर्षो में ऊंटों की संख्या में भरी गिरावट देखी गयी है। भारत की 80% से अधिक ऊंटों की संख्या राजस्थान में मिलती है एवं वर्ष 2012 में जहाँ 3.26 लाख थी वहीँ सन 2019 में यह घट कर 2.13 लाख रह गयी जो 35% गिरावट के रूप में दर्ज हुई। ऊँटो की सर्वाधिक संख्या राजस्थान में वर्ष 1983 में दर्ज की गयी थी जब यह
इस गिरावट का मूल कारण जहाँ यातायात एवं मालवाहक संसाधनों के विस्तार को माना गया वहीँ राज्य में लाये गए ”The Rajasthan Camel (Prohibition of Slaughter and Regulation of Temporary Migration or Export) Act, 2015 ” के द्वारा इसके व्यापार की स्वतंत्रता पर लगे नियंत्रण को भी इसका कारण माना गया है।
राजस्थान के गौरव शाली इतिहास, रंगबिरंगी संस्कृति, आर्थिक विकाश के आधार रहे इस प्राणी को शायद हम पूर्ववर्ती स्वरुप में नहीं देख पाएंगे, परन्तु आज भी इनसे जुड़े लोग ऊँटो के लिए वही समर्पण भाव से कार्य कर रहे है, उन सभी को हम सबल देंगे इसी आशा के साथ।
India is currently reassessing its tiger conservation campaign after five decades to evaluate the progress made thus far. Despite a significantly large human population in the country, we are delighted to have achieved the arguably remarkable feat of also having the highest tiger population in the world. As we contemplate our next steps as a nation, it is essential to chart a direction that determines that we progress in harmony with nature.
The fate of tigers and humans in this country is inextricably intertwined. By prioritizing tiger conservation, we not only safeguard these majestic creatures but also ensure the protection of our precious forests. Consequently, this commitment leads to significant advancements in our relationship with water and food resources, which are essential to our survival.
However, considering India’s human population has grown by more than 100 crore people since 1950, and we have recently surpassed China in this regard, how can we successfully balance development with wildlife conservation?
Confrontation (Image: Dharmendra Khandal)
As mentioned earlier India boasts the biggest share, approximately 70%, of the global tiger population. Nonetheless, the conflict between humans and tigers in certain regions of the country has sparked debates regarding what the size of an ideal tiger population should be.
Considering the impact of climate change, it has become apparent that we may have to accept a certain degree of conflict between humans and wildlife. To date, no definitive solution has emerged that can eliminate such conflict in its entirety. After acknowledging this ground reality, it becomes essential to work towards mitigating and managing human-wildlife conflict in a way that balances the needs of both humans and wildlife.
The 53 designated tiger reserves spanning an area of 75,796.83 square kilometres, safeguard one-third of India’s forest for the preservation of tigers. Notably, approximately 48% of these reserves have been established in the past 15 years, emphasizing an increasing focus on tiger conservation. These encouraging trends indicate that a significant portion of the remaining forests can still be conserved to provide sanctuary for tigers.
Take Rajasthan for example- The amount of tiger reserve area in the state was not large initially, but the state has recently demonstrated remarkable progress by more than doubling its tiger reserve area from 2292 sq km to 4886 sq km over the past decade, with plans to triple it in the near future. However, despite having ample opportunities, several states like Madhya Pradesh, Chhattisgarh, Odisha, Telangana, and Andhra Pradesh, are yet to undertake similar efforts in expanding their tiger reserves.
Out of a total of 53 tiger reserves in India, approximately 20 reserves cover one-third of the total tiger reserve area. Astonishingly, these reserves account for less than 100 tigers, representing a mere 3-4% of India’s tiger population. This alarming statistic highlights the urgent need for immediate action towards the conservation of these reserves.
According to the United Nations, India’s human population is projected to start declining as early as 2047, eventually reaching 1 billion by 2100. However, this century holds immense significance for our forest and wildlife conservation goals, which will serve as a testament in the future. Despite this potential, it is evident that our forest management practices require improvement. With proper management strategies in place, achieving a tiger population of over 10,000 is indeed attainable.
It is crucial to promote the development of additional tiger reserves in various states. It is counterproductive to discourage their establishment by imposing impractical rules and regulations. Often, it has been observed that the tiger habitats which are deemed suitable extend beyond predefined areas specified by regulations. This highlights the need to further understand and identify suitable habitats for tigers, indicating that our current knowledge might be limited in determining their ideal habitats. An encouraging example is the influx of numerous tigers into the Ratapani Wildlife Sanctuary, situated near Bhopal in Madhya Pradesh. Despite this positive development, the state government of Madhya Pradesh remains hesitant to designate it a tiger reserve.
Efforts should be intensified to expedite the voluntary relocation of villages within tiger reserves while ensuring adequate compensation and responsible care for the relocated communities. It is imperative to diligently coordinate a well-planned and strategic relocation process. For example, in Ranthambore, around 1500 families were relocated, but the relocation of 500 of those 1500 families proved beneficial for tigers, as they were situated in the most vital tiger habitat. Therefore, prioritizing relocation procedures that are both equitable and strategic, will ensure the long-term effectiveness and favorable results of such endeavors.
There is a pressing need to prioritize the development of corridors between states to facilitate the movement of wildlife. In addition, by facilitating the sharing of tigers between states, the issue of genetic depression can be effectively addressed, ensuring healthier and more robust tiger populations.
By embracing progressive and innovative approaches to tourism regulations and ensuring the broader distribution of benefits, wildlife conservation efforts can be significantly advanced. For instance, moving away from large-scale tourism establishments and promoting small-scale Homestays can generate employment opportunities for a greater number of people. This approach will foster stronger connections between the tiger and its conservation efforts.
To change people’s perspectives, it is crucial to emphasize the benefits derived from the tiger in terms of ecosystem services. For instance, in Ranthambhore, which is the world’s driest tiger habitat, the region provides enough water to irrigate 300 villages through the existence of 20 dams despite being an arid region. However, it is unfortunate that many local residents perceive Ranthambore solely as a forest developed for foreign tourism. Efforts should be directed towards educating communities about the positive impact of tigers and the conservation of wildlife, thus fostering a deeper appreciation for their ecological significance.
The assertion that tigers must be constrained once their population reaches 4000, implying potential human wildlife conflict problems, and the proposal of sterilization as a control method, demonstrate a limited perspective and a lack of innovative thinking.
Proposing the imposition of tiger population control measures based on a specific number sends a highly misleading message to the general public. It implies that tiger conservation is merely an experimental endeavour driven by the dogmatic rigidity of a particular class of people. Such statements can lead the public to unfairly blame the entire wildlife conservation effort for any minor difficulties that may arise in the future out of human wildlife conflict etc. If challenging times do occur, it is crucial to make appropriate decisions at that time, which will not require excessive planning in advance. There is no need to prematurely create an atmosphere of fear, as we can address it when it becomes necessary. Controlling tiger populations through sterilization or culling seems challenging, considering the level of precision that will be required in profiling all wild tigers. In other words, we can cross that bridge when we come to it, there is no need to raise patently unnecessary concerns at this stage. In our country, dogs are accountable for causing more than 4,000 human deaths annually, whereas encounters with tigers result in less than 2% of human fatalities. The ecological role of dogs remains unclear. It is important to highlight that snake bites claim the lives of 50,000 individuals, and we have yet to effectively tackle this issue. In light of these circumstances, it prompts us to question the true level of threat posed by tigers. Our society is far from flawless and perfect.So, why is there such an uproar over conflicts with tigers?
It is essential to transcend narrow perspectives and actively seek innovative strategies that ensure the long-lasting success and sustainability of our wildlife conservation efforts. While it is essential for the general public to understand this significance, policymakers in particular must strive to avoid devising plans without due consideration of perspectives that might be deemed ‘unorthodox’. Embracing a broader and more innovative outlook is crucial for safeguarding both the well-being of tigers and the basic needs of our human population.