“सांभर झील की पारिस्थितिकी पर अवैध नमक व्यापार का खतरा”

“सांभर झील की पारिस्थितिकी पर अवैध नमक व्यापार का खतरा”

भारत के हर एक हिस्से से अंग्रेज अपना लाभ उठा रहे थे, कहीं से कॉफी, कहीं से चाय और कहीं से मसाले, राजस्थान से उन्हें आज्ञाकारी सैनिक और बुद्धिमान व्यापारी तो मिले ही साथ ही उन्हें मिला सांभर झील का नमक। नमक की एक चुटकी हम सब के लिए किसी जादू से कम नहीं है, खाने में इसके इधर उधर होने पर बेहतरीन से बेहतरीन ख़ानसामा की इज्जत दाव पर लग जाती है। परन्तु नमक मात्र स्वाद का मसला नहीं है, बल्कि नमक हमारे शरीर की एक महत्ती जरूरत है, शायद इसी कारण यह हमारे भोजन का एक अहम् हिस्सा भी बन गया है। नमक मानव शरीर की तंत्रिका आवेगों को संचालित करने, मांसपेशियों को अनुबंधित करने और शरीर में पानी एवं खनिजों के उचित संतुलन को बनाए रखने के लिए एक अत्यंत आवश्यक अवयव है।

सांभर झील का एक दृश्य

सांभर झील का एक दृश्य (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

नमक को शुरुआती खाद्य प्रसंस्करण के लिए भी इस्तेमाल किया जाता था। यदि मछली को नमकीन बनाने की कला न होती, तो यूरोपीय लोगों ने अपनी मछली पकड़ने को यूरोप के तटों तक ही सीमित कर दिया होता और नई दुनिया की खोज में देरी की होती।

आज भी नमक का इतिहास हमारे दैनिक जीवन को छूता है। महीने के अंत में मिलने वाली सैलरी (वेतन) शब्द की उत्पत्ति साल्ट (नमक) शब्द से ही हुई है। प्रारंभिक रोमन सैनिकों को दिए जाने वाले विशेष नमक राशन को सलारियम अर्जेंटम के नाम से जाना जाता था, जो अंग्रेजी शब्द सैलरी का जनक है। इसी जरूरत को ध्यान में रख इस के उत्पादन स्थलों पर शासकों ने अधिकार बनाये रखा और लोगों की ज़िन्दगी को अपनी मुट्ठी में बंद रखा। जरुरत के हिसाब से उनके हलक से टैक्स निकालते रहे।

वर्तमान समय में भारत में तीन मुख्य नमक उत्पादक राज्य है – गुजरात, तमिलनाडु और राजस्थान। यह देश के उत्पादन का लगभग 96 प्रतिशत हिस्सा उत्पादित करते हैं। कुल उत्पादन में गुजरात का योगदान 76.7 प्रतिशत है, इसके बाद तमिलनाडु (11.16%) और राजस्थान (9.86%) का स्थान है। शेष 2.28% उत्पादन आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गोवा, हिमाचल प्रदेश, दीव और दमन से आता है।

राजस्थान के थार रेगिस्तान में कई नमक की झीलें हैं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं – सांभर, कुचामन, डीडवाना आदि। सांभर झील असल में एक प्रसिद्ध वेटलैंड है जहाँ कई प्रकार के प्रवासी पक्षी आते है, यह झील किसी भी प्रकृतिवादी के लिए स्वर्ग के समान है। चारों ओर से अरावली से घिरी यह झील राजस्थान के नागौर, अजमेर और जयपुर जिलों में फैली हुई है। इसे मेंधा, रूपनगढ़, खंडेल और करियन नदियों से पानी मिलता है। झील की गहराई गर्मियों के दौरान 60 सेमी से लेकर मानसून के दौरान लगभग 3 मीटर तक होती है। जैसे शिकारी पक्षी पेरीग्रीन और लग्गर फाल्कन तो अक्सर यहाँ मिल ही जाते है, परन्तु कम नजर आने वाले शिकारी पक्षी जैसे मर्लिन और साकेर फाल्कन आदि भी सांभर झील में गाहे बगाहे नजर आ जाते है। यह अद्भुत लैंडस्केप पक्षी दर्शन के अलावा आजकल प्री-वेडिंग शूट का प्रमुख स्थल बन गया है। यहाँ हुए दो विवाह भी अत्यंत प्रचलित रहे है। महाभारत में सांभर झील का उल्लेख राक्षस राजा वृषपर्वा के राज्य के एक हिस्से के रूप में किया गया है। सांभर में उनके पुजारी शुक्राचार्य रहा करते थे, उनकी बेटी देवयानी और राजा ययाति के मध्य यहाँ विवाह हुआ था। आज भी झील के पास देवयानी का मंदिर है। हालांकि कालान्तर में भी सांभर झील मुगल बादशाह अकबर का जोधपुर की राजकुमारी जोधाबाई के विवाह के लिए विख्यात हुआ था।

पेरग्रीन फाल्कन यहाँ आसानी से मिलने वाले शिकारी पक्षी है

पेरग्रीन फाल्कन यहाँ आसानी से मिलने वाले शिकारी पक्षी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

1884 में, सांभर झील में उत्खनन कार्य किया गया और उस खुदाई के दौरान मिट्टी के स्तूप के साथ कुछ टेराकोटा संरचनाएं, सिक्के और मुहरें मिलीं। सांभर मूर्तिकला कला बौद्ध धर्म से प्रभावित प्रतीत होती है। बाद में, 1934 के आसपास, एक बड़े पैमाने पर व्यवस्थित और वैज्ञानिक उत्खनन किया गया, जिसमें बड़ी संख्या में टेराकोटा मूर्तियां, पत्थर के बर्तन और सजाए गए डिस्क पाए गए। सांभर से प्राप्त कई मूर्तियां अल्बर्ट हॉल संग्रहालय में मौजूद हैं।

कैसे बनी सांभर झील और कैसे बनता है नमक ? :

मिथकों के अनुसार जब एक राक्षस दुर्गामासुर ने धरती पर सूखा और अकाल फैला दिया, तो पृथ्वी पर रहने वालों को सो वर्षों तक इसकी पीड़ा सहनी पड़ी। तब ऋषियों ने देवी लक्ष्मी को याद किया, वह प्रसन्न होकर दुनिया में नीले रंग का रूप लिए अवतरित हुई। देवी ने भी धरती पर दुःख देख उन्होंने अपनी आंखों से लगातार आंसू बहाए और लोगों को पुनः जीवन योग्य सुविधा प्रदान की। परन्तु उसके आँखों के आंसुओं से बहने वाली धाराओं ने एक लवणीय झील का निर्माण किया।

नमक के ढेर और क्यारियां

नमक के ढेर और क्यारियां (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

इस देवी का नाम शाकम्भरी था जो शाक-सब्जी की देवी है। इस देवी का एक मंदिर सांभर झील में एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है। जो एक महान राजा पृथ्वीराज चौहान के समय बनाया गया था। एक अन्य दंतकथा के अनुसार मां शाकंभरी की कृपा से यहां चांदी की भूमि उत्पन्न हुई। चांदी को लेकर लोगों में झगड़े शुरू हो गए। इस समस्या को नियंत्रित करने के लिए मां ने चांदी को नमक में बदल दिया। इस तरह से सांभर झील की उत्पत्ति हुई।

परन्तु अब तक की वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार इस झील की उत्पत्ति के संबंध में कई परिकल्पना हैं। उनमें से एक यह है कि ये झीलें टेथिस सागर के अवशेष के रूप में विद्यमान हैं, जो लगभग 70 mya वर्ष पहले भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराने से पहले इस क्षेत्र में मौजूद था। हालांकि हाल ही में हुए कई अध्ययनों के अनुसार इस झील की समुद्री द्वारा उत्पत्ति की उपरोक्त परिकल्पना के लिए कोई सबूत नहीं मिले हैं।

इसके विपरीत नए अध्ययन की परिकल्पना के अनुसार इस झील का पानी उल्कापिंड मूल का है और नमक स्थानीय रूप से इस क्षेत्र में चट्टानों के अपक्षय से प्राप्त होता है। ये झील टर्मिनल झील के रूप में व्यवहार करती हैं; यह मानसून के मौसम (जून-सितंबर) के दौरान पानी प्राप्त करते हैं और शेष वर्ष के दौरान वाष्पित हो जाते हैं (कोई बहिर्प्रवाह नहीं होता है और वाष्पीकरण प्रवाह के बराबर होता है)। यानी यह झील स्थानीय वर्षा द्वारा पोषित संचय और वाष्पीकरण चक्रों द्वारा बनाई गई हैं।यानी इसमें आने वाले नदी नाले यहीं पर समाप्त हो जाते है और आगे नहीं बहते है। वैसे राजस्थान में मुझे एक भी प्राकृतिक रूप से बनी मीठे पानी की झील नहीं मिली जितनी भी प्राकृतिक झीलें है वह खारे पानी की ही है।

सांभर झील में उत्पादित नमक को धोने के लिए एक रेल कनेक्टिविटी भी है।

सांभर झील में उत्पादित नमक को धोने के लिए एक रेल कनेक्टिविटी भी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

नमक निर्माण और इस पर लगने वाले टैक्स का इतिहास :

नमक उत्पादन का सर्वप्रथम प्रमाण लगभग 6,000 ईसा पूर्व का है जो रोमानिया के पोयाना स्लैटिनी-लुनका में एक उत्खनन में मिला है। भारतीय उपमहाद्वीप में, नमक उत्पादन का प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व विकसित हुई थी। गुजरात में लोथल जैसे स्थलों की खुदाई में नमक के बर्तनों और नमक निकालने के लिए उपयोग किए जाने वाले उपकरणों की मौजूदगी का पता चला है, जो प्राचीन काल में भी नमक के महत्व को दर्शाता है। साथ ही भारत में नमक पर कराधान भी प्राचीन काल से होता आया है। सभी कालों में यह राजस्व एकत्रित करने का सबसे अधिक लोकप्रिय माध्यम रहा है।

कहते है एक समय नमक टैक्स चीन के राजस्व के आधे से अधिक था और इसी धन से चीन की महान दीवार के निर्माण में योगदान दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भी नमक पर कर प्रचलित रहा है। अर्थशास्त्र, जो लोगों के विभिन्न कर्तव्यों का वर्णन करता है, कहता है कि नमक कर इकट्ठा करने के लिए लवणनाध्यक्ष नामक एक विशेष अधिकारी को नियुक्त किया गया था।बंगाल में, मुग़ल साम्राज्य के काल में नमक कर लागू था, जो हिंदुओं के लिए 5% और मुसलमानों के लिए 2.5% था।

हालाँकि, मुगल सम्राट अकबर (1542-16051) के शासनकाल तक झील के संचालन की एक व्यवस्थित प्रणाली शुरू नहीं की गई थी। उनके समय में झील से लगभग 250,000 रुपये प्रति वर्ष की आय होती थी। जब औरंगजेब गद्दी पर बैठा (16582) तो आय धीरे-धीरे बढ़कर 15 लाख रुपये हो गई।, मुगलों के पतन के साथ राजस्व में गिरावट आई और लगभग 1770 में, जयपुर और जोधपुर के लोगों ने बिना किसी संघर्ष के झील पर कब्ज़ा कर लिया। अगले युग के दौरान झील का प्रबंधन राजपूतों और मराठों के बीच आगे और पीछे चला गया। इतिहास इस बारे में मौन है कि उन दिनों (1770-1834) जब तक 1835 में अंग्रेजों ने झील पर कब्ज़ा नहीं कर लिया, तब तक कितना राजस्व प्राप्त हुआ था। जयपुर और जोधपुर की संयुक्त सरकार, शामलात ने 1844 से झील पर काम किया (गोपाल और शर्मा 1994)।

उस समय नावा और गुढ़ा नगण्य बस्तियाँ थीं, लेकिन धीरे-धीरे नमक बाजार के रूप में विकसित हो गईं। जब जोधपुर ने नावा और गुढ़ा में नमक का काम विकसित करना शुरू किया, तो जयपुर को ईर्ष्या होने लगी। इससे दोनों राज्यों के बीच निरंतर कलह बनी रही।

यह तब तक चलता रहा जब तक कि 1870 में नावा और गुढ़ा सहित झीलों पर अंग्रेजों ने कब्जा नहीं कर लिया – परन्तु अंग्रेजों ने इसे नमक उत्पादन के मुख्य केंद्र के रूप में विकसित किया। वर्ष 1870 से 1873 के मध्य सांभर झील के नमक उत्पादन के प्रबंधक रहे सहायक साल्ट कमिश्नर आर एम एडम लिखते है की ” सांभर और नावा गुढ़ा झील से नमक का औसत उत्पादन लगभग 1,400,000 मन या 51,429 टन है। अकेले सांभर में पिछले 17 वर्षों का औसत उत्पादन 690,000 मन था। उपरोक्त अवधि के दौरान सबसे बड़ा उत्पादन, यानी 1,360,000 मन, 1869 में हुआ था, और 1868 की अल्प वर्षा और अकाल के कारण श्रमिकों की प्रचुर आपूर्ति के कारण यह हो पाया ; जबकि 1863 में सबसे कम उत्पादन, यानी 1,504 मन, पिछले वर्ष की अत्यधिक वर्षा के कारण हुआ था, जिसने झील को इतना ऊंचा उठा दिया था कि शहर के कुछ निचले हिस्सों में भी बाढ़ आ गई थी” परन्तु सबसे अधिक चौंकाने वाले आंकड़े नमक ढुलाई को लेकर थे की – 150 वर्ष पूर्व नमक निर्यात के लिए आवश्यक गाड़ी में 300,000 बैल, 66,000 ऊंट, 18,000 गाड़ियां और 5,000 गधे थे। यदि आप उस दृश्य को एक बार अपने मन में जिवंत कर देखे तो विचार करे की सांभर का क्या माहौल रहा होगा, शायद कोई अंतहीन मेले जैसा माहौल होगा।

एडम द्वारा बनाया गया सांभर झील का नक्शा

एडम द्वारा बनाया गया सांभर झील का नक्शा (नक्शा सार्वजनिक डोमेन से)

Sambhar Map

सांभर झील के आस पास के क्षेत्र की वर्तमान स्तिथि (बिंग सॅटॅलाइट व्यू)

आधुनिक समय में, महात्मा गांधी ने भारत में स्वशासन के लिए लोकप्रिय समर्थन जुटाने के साधन के रूप में ब्रिटिश नमक कानूनों की अवहेलना की। हालांकि, नमक कर लागू रहा और इसे तभी निरस्त किया गया जब जवाहरलाल नेहरू 1946 में अंतरिम सरकार के प्रधान मंत्री बने। स्वतंत्रता के बाद भारतीय राज्यों के एकीकरण पर 1950 में झील का स्वामित्व राजस्थान राज्य सरकार को दे दिया गया। आज इसकी भूमि का पट्टा राजस्थान सरकार के साथ हिंदुस्तान साल्ट्स के संयुक्त उद्यम सांभर साल्ट्स को दे दिया गया है।
स्वतंत्रता के बाद, नमक कर को बाद में नमक उपकर अधिनियम, 1953 के माध्यम से भारत में फिर से लागू किया गया। 2017 में वस्तु एवं सेवा कर को खत्म कर दिया गया और सफल बनाया गया, जिसमें नमक पर कर नहीं लगता है।

भारत में अंग्रेजों द्वारा बनाई गई ग्रेट साल्ट हेज : 

भारत के नमक निर्माण करने वाले हिस्से को एक लम्बी बाड़ द्वारा अलग किया गया और नमक के व्यापार पर नियंत्रण किया गया। क्या कभी आपने सोचा है यह बाड़ से क्या मतलब है ? ग्रेट इंडियन सॉल्ट हेज असल में कांटो की एक घनी बाड़ थी जिसने भारत को दो भागो में बाँट दिया था i वैसे ही जैसे आप अपने खेत को दो भागों में विभाजित करते हो। इसमें मुख्य रूप से कांटेदार पेड़ों और झाड़ियों की एक विशाल क़तार थी, जो पत्थर की दीवार और खाइयों से पूरक थी, जिसके पार कोई भी इंसान या बोझ वाला जानवर या वाहन बिना गुजर नहीं सकता था, इसकी लम्बाई 3700 किलोमीटर थी। यानी यह एक तरह की इनलैंड कस्टम लाइन थी, जो भारत के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा तटीय क्षेत्रों से नमक की तस्करी को रोकने के लिए बनायी गयी थी। यह ऐ ओ ह्यूम 1870 ने बनायीं थी। उन्होंने यह नमक की आवाजाही को नियंत्रित करने वाले सीमा शुल्क विभाग के खर्च को कम करने के लिए किया था। इसे ग्रेट हेज के नाम से जाना जाता है। इसके माध्यम से देश वासी लगभग दो महीने की आय के बराबर नमक कर देने के लिए मजबूर होते थे। इस बाड़ की सुरक्षा लगभग 12,000 पुरुषों और छोटे अधिकारियों द्वारा की जाती थी। इसी तरह पूरे इतिहास में, नमक सरकारी एकाधिकार और विशेष करों के अधीन रहा है।

1870 के दशक की अंतर्देशीय सीमा शुल्क रेखा (लाल) और ग्रेट हेज (हरा) का मार्ग

1870 के दशक की अंतर्देशीय सीमा शुल्क रेखा (लाल) और ग्रेट हेज (हरा) का मार्ग (सौ: विकिपिडिया)

नमक व्यापार की वर्तमान स्थिति और सांभर के बिगड़ते हालात:

कहते है सांभर के पानी में सोडियम क्लोराइड की उच्च मौजूदगी के कारण यहां के नमक की बहुत अधिक मांग है। झील के नमक उत्पादन का प्रबंधन सांभर साल्ट्स लिमिटेड (एसएसएल) द्वारा किया जाता है, जो हिंदुस्तान साल्ट्स लिमिटेड और राजस्थान सरकार का संयुक्त उद्यम है। परन्तु एक अनुमान के अनुसार सांभर झील से हर साल 32 लाख टन स्वच्छ नमक का उत्पादन होता है, जिसमें से 30 लाख टन का उत्पादन अवैध रूप से होता है।

सांभर झील के उत्तरी और पश्चिमी तट विशेष रूप से अवैध नमक उत्पादन के लिए कुख्यात हैं। इस गतिविधि से क्षेत्र की पारिस्थितिकी बुरी तरह प्रभावित हुई है और पिछले कुछ वर्षों में झील में सर्दियों में रहने वाले फ्लेमिंगो की संख्या में भारी गिरावट आई है। नावा में, निजी नमक उत्पादकों द्वारा बोरवेल खोदने, अवैध पंप द्वारा पानी निकालने और बिजली के केबल बिछाने के लिए कई अर्थमूविंग मशीनें, हेवी ड्यूटी कंप्रेसर और ड्रिल मशीनें देखी जा सकती हैं।

बोरवेल और उन तक पहुंचते बिजली के तार

बोरवेल और उन तक पहुंचते बिजली के तार (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

अवैध भूजल निकासी के लिए बिजली चोरी से निपटने के लिए, सांभर साल्ट्स लिमिटेड द्वारा राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष राजस्थान राज्य बिजली वितरण कंपनी (डिस्कॉम) के खिलाफ एक रिट याचिका दायर की गई थी। जनता के दबाव में राज्य सरकार को विनोद कपूर समिति का गठन करना पड़ा। अपनी 2010 की रिपोर्ट में, समिति ने “झील में नमकीन पानी निकालने के अवैध कारोबार” पर प्रकाश डाला। रिपोर्ट में कहा गया है कि वेटलैंड क्षेत्र में 13,000 से अधिक अवैध ट्यूबवेल हैं। अब हालात और भी बदतर हुए है। यह हजारों करोड़ रुपये का अवैध कारोबार है। इस रिपोर्ट में इसे रोकने के लिए कई प्रकार के सुझाव दिए गए परन्तु क्षेत्र में व्यापार और राजनीतिक हितों के बीच सांठगांठ इतनी अधिक है कि क्षेत्र की पारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान को रोक पाना असंभव लगता है।

सांभर झील की इकोलॉजी :

भारत के थार रेगिस्तान में सबसे बड़ी अंतर्देशीय खारी झीलों में से एक है, इसके जैविक महत्व के कारण 1990 में इसे रामसर साइट घोषित किया गया था। यह जयपुर, राजस्थान के पश्चिम में स्थित है। यह नमक की झील एक विशाल खारे आर्द्रभूमि का निर्माण करती है, जो कच्छ के रण के बाहर राजहंस (flamingo) के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सांभर साल्ट झील एक शीतोष्ण अति लवणीय पारिस्थितिकी तंत्र है।

फ्लेमिंगो के बिना सांभर अधूरा है।

फ्लेमिंगो के बिना सांभर अधूरा है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

झील की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी है। वर्ष को अलग-अलग गर्मी, बारिश और सर्दी के मौसम के साथ चिह्नित किया जाता है। गर्मियों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस (113 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुँच जाता है और सर्दियों में 5 डिग्री सेल्सियस (41 डिग्री फारेनहाइट) तक नीचे चला जाता है।

झील के आसपास 38 गांव हैं जिस कारण इस पर अत्यंत मानवीय दबाव है – प्रमुख बस्तियों में सांभर, गुढ़ा, जब्दीनगर, नवा, झाक, कोर्सिना, झापोक, कांसेडा, कुनी, त्योड़ा, गोविंदी, नंधा, सिनोदिया, अरविक की ढाणी, खानदजा, खाखड़की, केरवा की ढाणी, राजास, जालवाली की ढाणी आदि शामिल हैं।

यहाँ आर्द्रभूमि उत्तरी एशिया से प्रवास करने वाले हजारों पक्षियों के लिए एक प्रमुख शीतकालीन क्षेत्र है। झील में उगने वाले विशेष शैवाल और बैक्टीरिया आकर्षक जल रंग प्रदान करते हैं और यह झील की पारिस्थितिकी के मुख्य घटक है। इस झील के पानी में नमक (NaCl) की सांद्रता हर मौसम में अलग-अलग होती है। पैन (क्यार) में नमक की मात्रा अलग-अलग होती है और तदनुसार, haloalkaliphilic सूक्ष्मजीवों के कारण नमकीन पानी का रंग हरा, नारंगी, गुलाबी, बैंगनी, गुलाबी और लाल होता है। जो प्रवासी पक्षियों को भोजन देते है। आसपास के जंगलों में अन्य जंगली सूअर, नीलगाय और लोमड़ियों स्वतंत्र रूप से विचरण करती हैं।

ब्लैक स्टोर्क का एक समूह सांभर झील के किनारे पर

ब्लैक स्टोर्क का एक समूह सांभर झील के किनारे पर (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

सांभर लेक में मछलीया नहीं मिलती परन्तु कई प्रकार के क्रस्टेसियन यहाँ मिलते है- यानी झींगा और क्रिल्ल समूह से सम्बन्ध रखने वाले जीव, जो कई प्राणियों का भोजन है। पक्षी विज्ञानी आर. एम. एडम, जो सांभर में सहायक आयुक्त थे, कुचामन और नवा सहित झील और इसके आसपास के क्षेत्रों के पक्षीविज्ञान संबंधी रिकॉर्ड प्रकाशित करने वाले पहले व्यक्ति थे (एडम 1873, 1874 ए-बी)। झील के पक्षी जीवन पर उनके विस्तृत नोट्स अभी भी जानकारी का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत बने हुए हैं और इसे एक बेंचमार्क अध्ययन माना जाता है। एडम ने 244 पक्षी प्रजातियां दर्ज की थी। एडम के पेपर को वर्तमान संदर्भ में एक पक्षिविद श्री हरकीरत सांघा ने विश्लेषण किया है। सांघा के फ्लेमिंगो की दोनों प्रजातियों पर लिखे नोट्स का ज्यों का त्यों उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ – “ग्रेटर फ्लेमिंगो नियमित और आम शीतकालीन आगंतुक। वे आम तौर पर अगस्त के दूसरे सप्ताह तक पहुंचते हैं और झील पर उनका रहना काफी हद तक पानी की उपलब्धता पर निर्भर करता है। सामान्य वर्षा वाले वर्षों में वे फरवरी तक झील छोड़ देते हैं, जब उच्च स्तर के वाष्पीकरण और नमक उत्पादन के लिए पानी के उपयोग के कारण झील सूखने लगती है। हालाँकि, ‘बाढ़’ के वर्षों के दौरान (उदाहरण के लिए, जुलाई 1977-जून 1978), जब झील गर्मियों में भी गीली रहती है, ग्रेटर और लेसर फ्लेमिंगो दोनों को पूरे वर्ष में दर्ज किया गया था (सांघा 1998)। आगमन और प्रस्थान की अंतिम तिथियां क्रमशः 10 अगस्त 1996 और 6 अप्रैल 1996 हैं। 1991 और 2009 के बीच आर्द्रभूमि की कई यात्राओं के दौरान राजहंस की पूरी गणना की गई और दो प्रजातियों के वितरण की योजना बनाई गई। हाल ही में प्रकाशित साहित्य (गोपाल और शर्मा 1994) के विपरीत, ग्रेटर फ्लेमिंगो हमेशा लेसर फ्लेमिंगो की तुलना में कम संख्या में थे। 25 जनवरी 1998 को 10,000 से अधिक की गिनती की गई। हालांकि 2 नवंबर 2001 को झील के किनारे तटबंध के पास एक अंडा पाया गया था, लेकिन इस प्रजाति ने सांभर में कभी भी सफलतापूर्वक प्रजनन नहीं किया, क्योंकि आदर्श जल परिस्थितियाँ उनके लिए उपलब्ध नहीं हैं।

सांभर झील में एक घोडा मकोड़ा (लार्ज अंट) तेजी से इधर उधर गतिमान रहते है।

सांभर झील में एक घोडा मकोड़ा (लार्ज अंट) तेजी से इधर उधर गतिमान रहते है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

सांघा लिखते है की लेसर फ्लेमिंगो बहुत आम है और झील पर सबसे प्रचुर प्रजाति है। परन्तु वे आगे लिखते है की अजीब बात है, एडम ने सांभर में अपने निवास के “पहले दो वर्षों के दौरान” इसका अवलोकन नहीं किया। वह कहते हैं कि “एक स्थानीय निवासी ने उन्हें बताया कि उन्होंने कमोबेश छोटे राजहंस देखे हैं, जिनके बारे में उनका कहना है कि वे छह या सात साल बाद झील पर आते हैं।” सांघा लिखते है की 1990 से मैं नियमित रूप से लेसर फ्लेमिंगो को देखता रहा हूं। झुंड बारिश की पहली भारी बारिश के बाद दिखाई देते हैं और उनके रहने की अवधि झील में पानी की मात्रा पर निर्भर करती है। सबसे प्रारंभिक आगमन तिथि 7 अगस्त 1998 दर्ज की गई थी जब 7,000 से अधिक देखे गए थे। वे आमतौर पर मार्च के अंत तक चले जाते हैं, लेकिन अंतिम तिथि 6 अप्रैल 1996 दर्ज की गई है। रिकॉर्ड संख्या 23 सितंबर 1995 को देखी गई थी जब 20,000 से अधिक का अनुमान लगाया गया था। जनवरी की शुरुआत से मार्च 1996 के अंत तक लगभग 18,000 फ्लेमिंगो देखे गए। 4 जनवरी 2009 को सी. 15,000 थे।

इस तरह यह लवणीय झील कई प्रकार के जीवों का अनोखा पर्यावास है।

सांभर झील की इकोलॉजी में बदलाव :

अब फिजा बदल रही है ।इस झील के बारे में एडम ने कभी लिखा था की – “बारिश में अत्यंत वीरान झील एक अत्यंत सुंदर दृश्य में बदल जाता है। साफ वातावरण जगमगा उठता है और दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों की निचली श्रृंखला बैंगनी रंग में रंग जाती है, रेतीले टीले हरे रंग से ढक जाते हैं, और झील का तल 20 मील लंबाई और लगभग 5 इंच चौड़ाई में पानी के विस्तृत विस्तार में परिवर्तित हो जाता है। इस सब को बढ़ाने के लिए, छोटी-छोटी कलगीदार लहरें लहरा रही हैं, और पूरी सतह पक्षी-जीवन से भरी हुई है। राजहंसों के घने समूह को हर जगह तैरते या झील के तल में बहते, ऊपर की ओर उड़ते हुए, “सभी शानदार चीजों की समृद्ध छटा” के साथ, या भोजन की तलाश में किनारे पर चुपचाप घूमते हुए देखा जा सकता है। बड़े और छोटे पक्षियों की लंबी कतारें, सभी प्रकार के पंखों के, भव्य गुलाबी रंग के वयस्क फ्लेमिंगो से लेकर मटमैले भूरे और सफेद युवा फ्लेमिंगो तक, पश्चिम से पूर्व तक यहां मार्च करते हैं, और सभी अपने सिर नीचे झुकाते खाना खोजते हुए”

साकेर एक अत्यंत दुर्लभ शिकारी पक्षी है।

साकेर एक अत्यंत दुर्लभ शिकारी पक्षी है (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

वे आगे लिखते है की सिंचाई के लिए सांभर के आसपास उपयोग में आने वाले खुले कुएं लगभग 30 या 40 फीट व्यास और 20 फीट गहरे खेतों में खोदे गए हैं। इनके किनारे विलो, बाघ और सरपत घास (प्रजातियों का वर्णन स्पष्ट नहीं है ) आदि की प्रजातियों से घने रूप से ढके हुए हैं, और कई पक्षियों का पसंदीदा निवास स्थान हैं। वर्तमान में पानी का लेवल लगभग 100 फ़ीट से भी गहरा चला गया है।

वर्तमान में यहाँ वर्षा के आंकड़े पैटर्न में किसी बड़े बदलाव का संकेत नहीं देते हैं, लेकिन झील में जल की आवक में भारी कमी आई है दूसरी और शैवाल में उल्लेखनीय वृद्धि झील के अस्तित्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यह आसपास की मानवजनित गतिविधियों और झील के जलग्रहण क्षेत्र में चेक बांधों और एनीकटों के निर्माण के कारण हो सकता है जो झील में अपवाह को रोकते हैं और शैवाल की अनुकूल वृद्धि प्रदान करते हैं। सांभर झील को पानी लाने वाली अधिकांश नदियाँ रेत से भर गई हैं। जिस कारण ताजे पानी का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। दूसरी और आस पास अनियमित वर्षा और अत्यधिक दोहन के कारण सरकार ने खेती को बचाने के लिए इधर उधर चेक्ड बाँध एवं एनीकट बनाकर जल प्रवाह को रोकने अथवा जल संचय हेतु जल स्तर में सुधार करने की नीति बनाई। इसके कारण स्थिति और भी विकट हो गयी है, जलग्रहण क्षेत्र से झील में पानी का प्रवाह बंद होता जा रहा है।

कम ताज़ा पानी के कारण उपमृदा पानी और अधिक लवणीय हो गया है और एक अध्ययन के अनुसार इसकी सांद्रता 18 to 24°Be तक पहुंच गई है। वर्तमान स्थिति को पुनर्जीवित करने के लिए, वर्षा जल जलग्रहण क्षेत्र से झील तक पहुंचना चाहिए।नहीं तो बढ़ते सूखे दिनों के कारण हवा -आँधी और तूफ़ान के माध्यम से नमक पास के क्षेत्र में ले जाएँगी और वह क्षेत्र भी खारा होता जाएगा।

एक अध्ययन के अनुसार सांभर झील की फाइटोप्लांकटन प्रजातियों की संरचना पहले बताई गई 20 जेनेरा से घटकर केवल 11 (नोस्टॉक, माइक्रोसिस्टिस, स्पिरुलिना, अपानोकैप्सा, ऑसिलेटोरिया, मेरिस्मोपेडिया, नित्ज़स्चिया, नेविकुला, सिनेड्रा, कोस्मेरियम और क्लॉस्टेरियम) रह गई है। (Jakher, Bhargava & Sinha,1990)

नवंबर 2019 में, झील क्षेत्र में लगभग 20,000 प्रवासी पक्षी रहस्यमय तरीके से मृत पाए गए थे। बोटुलिस्म को इसका कारण माना गया और अनेक लोग इस से सहमत नहीं लगते है। परन्तु अभी तक बोटुलिस्म ही प्रामाणिक कारण माना जाता है। झील के उत्तरी किनारे बिजली की तारों से पटा हुआ है। लोगों ने झील के पेट में हजारों की संख्या में बोरवेल खुदा दिए है ताकि १-२-३ किलोमीटर दूर तक अपने खेत में खारा पानी लेजा कर नमक बनाया जा सके। तीन और के किनारे नमक की क्यारियों से अटे पड़े है, झील के माता मंदिर वाले किनारे में भी मानवीय गतिविधियां जोरो पर है।

2019 में सांभर में हुई हजारों पक्षियों की मौत को सबसे पहले उजागर करने वाले पक्षी विशेषज्ञ श्री किशन मीणा और एक सरकारी कर्मचारी मृत पक्षी दिखता हुआ

2019 में सांभर में हुई हजारों पक्षियों की मौत को सबसे पहले उजागर करने वाले पक्षी विशेषज्ञ श्री किशन मीणा और एक सरकारी कर्मचारी मृत पक्षी दिखता हुआ (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

2019 में हुई घटना के दौरान इस प्रकार मृत पक्षियों का ढेर एकत्रित किया जा रहा था।

2019 में हुई घटना के दौरान इस प्रकार मृत पक्षियों का ढेर एकत्रित किया जा रहा था (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)

सांभर झील संरक्षण के प्रयास :

अनेक लोग आज कल झील की चिंता करने लगे है। परन्तु PIL और मुखर मीडिया रिपोर्ट्स के बाद भी नतीजा सिफर रहा है। मात्र वर्ष 2014 में, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड और पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड सहित छह सार्वजनिक उपक्रमों ने कंपनी के तहत भूमि पर दुनिया की सबसे बड़ी 4,000 मेगावाट की अल्ट्रा-मेगा सौर ऊर्जा परियोजना स्थापित करने की योजना बनाई थी। लेकिन राज्य में एक अत्यंत बुद्धिमान वन अधिकारी की चौकस निगाहों के कारण इस परियोजना को रोक दिया गया और गुजरात में स्थानांतरित कर दिया गया, नहीं तो यह झील पूरी तरह बरबाद हो जाती। इस अधिकारी का नाम उजागर करना ठीक नहीं है। वरना इसके पैरोकार कम और गाली देने वाले ज्यादा लोग मिल जायेंगे।

यह झील धीरे धीरे अपने गुणों के कारण मारी जा रही है। इसे बचाना अब असंभव लगता है।

 

References

  1. Adam, R. M. 1873. Notes on the birds of Sambhur Lake and its vicinity. Stray Feathers 1 (5): 361–404.
  2. Adam, R. M. 1874a. Additional notes on the birds of Sambhur Lake and its vicinity. Stray Feathers 2 (4&5): 337–341.
  3. Adam, R. M. 1874b. Letters to the Editor. [“Since writing my additional note I find that the under mentioned bird has been shot at Sambhar:- …”]. Stray Feathers 2 (4&5): 465–466.
  4. Jakher G. R., S. C. Bhargava & R. K. Sinha, (1990), Comparative limnology of Sambhar and Didwana lakes (Rajasthan, NW India) Hydrobiologia
‘’प्रकृति  की पुकार” पुस्तक

‘’प्रकृति  की पुकार” पुस्तक

‘’प्रकृति  की पुकार” पुस्तक एक अनुठी कृति है जो राजस्थान प्रशासनिक सेवा से जुड़े डॉ. सूरज सिंह नेगी एवम उनकी पत्नी वनस्थली विधापीठ  में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मीना सिरोला द्वारा सम्पादित की गयी है यह पुस्तक एक अनुठी मुहीम से सृजित हुआ प्रतीफल है  जैसा कि नाम से विदित है कि प्रकृति अपने कष्टो से आहत होकर जो की अपने पुत्र मानव को सहयता के लिए पुकार रही है |

इस पुस्तक में 118 पत्रों को प्रकाशित किया गया है | जिन्हें लेखन से जोड़े विभिन्न लोगो ने “पाती अपनो को मुहीम” के तहत संकलित किया गया है | “पाती अपनो को मुहीम” एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमे पत्र / पाती लेखन के विलुप्त होती परम्परा को जीवित रखने का प्रयास किया जा रहा है | आधुनिक दौर में जब लोग व्हाट्सएप, ईमेल, मैसेंजर आदि माध्यमो से सुचना प्रेषित  करते है  जिनमे भावनाओ से दूर मात्र सन्देश प्रेषित करना रह गया है |  यह मुहीम  डॉ. सूरज सिंह नेगी एवम उनकी पत्नी डॉ. मीना सिरोला द्वारा ही शुरू की गयी है |

प्रकृति की पुकार 336 पेज की पुस्तक है जिसमे मुख्यत: राजस्थान के लोगो ने प्रकृति बनकर मानव के लिए पत्र लिखे है परन्तु साथ ही मध्य प्रदेश , दिल्ली , उतराखंड , हरियाणा आदि से आये पत्रों को सम्मिलित किया गया है इन पत्रों में वनों के कटान , नदियों के प्रदुषण , हवा में घुलते धुएं के जहर ,विलुप्त होते प्राणियों,कंक्रीट के जंगल, शहरो एवं कस्बो के नजदीक खड़े हो रहे है प्लास्टिक व कचरे के ढेर पर जहां चिंता जाहिर की गयी है  वही इनसे पैदा हुए मानव जीवन पर खतरे को उल्लेखित किया गया है  यह पुस्तक पर्यावरण जागरूकता का एक बहुत बड़ा माध्यम बन सकती है इस पुस्तक से लोगो में जहां पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की जा सकती है वही लोगो को पर्यावरण संरक्षण में शामिल किया जा सकता है | इस पुस्तक में लोगो के पत्रों में  प्रकृति संरक्षण के उपायों पर चर्चा कम हुई है |

आशा है प्रक्रति संरक्षण के उपायों पर  और अधिक सार्थक लेखन संभव हो सके | यह पुस्तक साहित्यागार जयपुर  के द्वारा प्रकाशित की गई है जिसकी कीमत 500 रूपये है | आशा है कि आप सभी इस पुस्तक को पढने का प्रयास करेंगे |

Dr Suraj Singh Negi

 

गोडावण संरक्षण के संदर्भ में तीन संरक्षणवादियों के विचार  

गोडावण संरक्षण के संदर्भ में तीन संरक्षणवादियों के विचार  

 

गोडावण कन्जर्वेशन में जब कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम शुरू हुआ तो लगने लगा गोडावण के संरक्षण में अब गति आएगी,  परन्तु यह काम यही तक सिमित रह गया और पिछले दिनों हुई ब्रीडिंग सेंटर पर हुई गोडावण के बच्चों  की मौत ने चिंता और भी बढ़ा दी है । पोकरण में जिस अंदाज से परमाणु परीक्षण चुपचाप किया गया लगभग उसी अंदाज में सरकार ने पोकरण के पास ही इस गोडावण कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम को चलाया, किसी से कोई चर्चा नहीं और किसी को उसकी प्रोग्रेस से अवगत भी नहीं किया गया। इसके बावजूद टाइम्स ऑफ़ इंडिया के तेज तर्रार पत्रकार श्री अजय उग्रा ने एक स्थानीय गोडावण प्रेमी के माध्यम से एक तथ्य पूर्ण चौंकाने वाली खबर प्रकाशित कि जिसके अनुसार ६-७ गोडावण के बच्चे काफी बड़ी उम्र पाकर मारे गए और अभी तक कोई उसके उचित कारण जान नहीं पाया है।   तो लगने लगा सब कुछ ठीक नहीं है।  गोडावण की वर्तमान हालत पर चर्चा करने के लिए तीन महानुभावों से वार्ता करते है ताकि हम गोडावण संरक्षण की दशा और दिशा पर जानकारी प्राप्त कर सके। पहले उनका परिचय

श्री माल सिंह जामडा : आप जैसलमेर के मूल निवासी है और सेना में सेवा देने के पश्चात आर्गेनिक कृषि कार्य में संलग्न है।  स्थानीय सामाजिक मुद्दों और गोडावण के मसलो पर गहरी समझ रखते है।  राष्ट्रीय स्तर पर गोडावण संरक्षण के लिए सम्मानित किया जा चुका है एवं विभिन्न स्तरों पर गोडावण संरक्षण की मुहिम को आगे बढ़ा रहे है।

डॉ सुमित डूकिया- राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र में जन्मे है वर्तमान में दिल्ली में उच्च शिक्षा से जुड़े है एवं गोडावण संरक्षण के लिए कई प्रकार के कार्यक्रमों का संचालन कर चुके है। शिक्षक होने के नाते कन्जर्वेशन के विज्ञान और लोगों तक बात पहुँचाने में महारत रखते है। आपने उनके युवा लोगों को मरुस्थल के संरक्षण की मुहिम से जोड़ा है।

डॉ दाऊ लाल बोहरा – मरुस्थल निवासी है, आप लम्बे समय से गिद्ध संरक्षण से जुड़े है, एवं उच्च शिक्षा से जुड़ाव ने आप को विषय से निरंतर जोड़े रखा है। आप गोडावण संरक्षण पर कार्य करने वाले लोगों से निरंतर जुड़े है और उनकी कार्य प्रणाली को निरंतर देख रहे है।

प्रत्येक से धर्मेंद्र खांडल ने परिचर्चा की

  1. श्री माल सिंह जामडा

१ सरकार ने गोडावण ब्रीडिंग सेंटर शुरू किया।  वन विभाग के अधिकारियों एवं वन्यजीव संस्थान (WII) के वैज्ञानिकों के मध्य क्या कोई तालमेल में कमी नजर आती है ?

उत्तर : हाँ ऐसा लगता है।  शुरुआती दौर की तुलना में भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक आजकल यहाँ कम आते है एवं वन अधिकारियों से किसी सहज सवाल का जवाब उनके द्वारा अक्सर यही कह कर दिया जाता है की यह जानकारी हमें नहीं है WII के लोग ही जाने।  वन रक्षक भी अक्सर इनके द्वारा अंडे आदि उठाने पर पूरी जानकारी नहीं देने की बाते करते है। WII के वरिष्ठ लोगों को यहाँ और अधिक समय देना चाहिए। वन विभाग के लोग भी यह स्वीकारते है की की अब तक मरे हुए गोडावण के बच्चों की मौत का मुख्य कारण का पता करना अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा यह सिलसिला चलते ही रहेगा।

२ क्या इस कार्यक्रम में धनाभाव कोई कारण है ?

उत्तर : धनाभाव कारण नहीं लगता है, यद्यपि एक वरिष्ठ संरक्षणकर्ता जो WII के वैज्ञानिकों के नजदीक है, उनके अनुसार सरकार ने बड़े बाड़े बनाने के लिए अभी तक पैसे नहीं दिए है। परन्तु दैनंदिन के लिए खर्च एवं सैलरी आदि के किसी प्रकार से अभाव नहीं है। शायद बड़े बाड़े में बढ़ते बच्चों को रखना उचित होगा।

३ अब तक लग रहा था सब ठीक है अचानक से 6-7 बच्चों के मारे जाने की खबर कितनी चिंता की बात है ? अथवा यह कार्यक्रम शुरुआती दौर में है और यह प्रक्रिया का सामान्य हिस्सा है।

उत्तर : हाँ यह चिंता की बात है।  आप इन्हे बच्चे नहीं समझे यह लगभग वयस्क या अल्पवयस्क अवस्था के पक्षी थे। कुछ नर तो गूलर पाउच भी निकालने लगे थे जो प्रदर्शित करता है की वह कोई चिक अवस्था नहीं थी।

4  वन विभाग अक्सर बाहरी सहयोग नहीं लेती है, परंतु विभाग के सबसे अधिक वैज्ञानिक सोच रखने वाले मरुस्थल विशेषज्ञ डॉ गोबिंद सागर भारद्वाज जैसे लोगों को भी इस कार्यक्रम से दूर रखा गया क्या कारण है ?

उत्तर : शायद कोई ऐसा व्यक्ति विभाग में वर्चस्व रखता जो स्वयं सत्ता के नजदीक है परन्तु विषय से दूर है।  ऐसे व्यक्ति सरकार द्वारा गलत फैसले लेने के कारक  बनते है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारद्वाज जी को इस से दूर रखा गया एवं उनको राज्य से बाहर सेवा देनी  पड़ रही है।

5 आपने गोडावण के बच्चों के मरने का यह मुद्दा उठाया, शायद कई लोग नाराज होंगे, आप उन्हें किस प्रकार का सन्देश देना चाहेंगे ?

उत्तर : उनकी नाराज होने की वजह जायज नहीं है मैंने गोडावण संरक्षण को हरदम सहयोग देने का प्रयास किया है।  मेरा व्यक्तिगत किसी से कोई द्वेष नहीं है।  हमारे सभी कर्मचारी एवं वन अधिकारी कड़ी मेहनत कर रहे है। उन्हें गोडावण पर ध्यान देने की ज़रूरत है एवं खुल कर समस्याओं पर चर्चा कर उचित हल ढूंढने के आवश्यक है।

6 गोडावण संरक्षण के सम्बन्ध में आप का कोई सुझाव ?

हमारा मरु प्रदेश थार मरुस्थल का एक भाग है इसमें थार डेजर्ट की बहुतायत में वन्यजीवो की प्रजातियां एवं वनस्पति विद्यमान है तत्कालीन सरकार द्वारा इस डेजर्ट की वनस्पति एवं वन्य जीवों के संरक्षण संवर्धन के लिए थ 4 अगस्त 1980 को डेजर्ट नेशनल पार्क का प्रथम नोटिफिकेशन 3162 वर्ग किलोमीटर का जारी हुआ लेकिन फाइनल नोटिफिकेशन इस अभ्यारण का आज दिनांक तक जारी नहीं हो रखा है गोडावण डेजर्ट में पक्षी जगत की सबसे महत्वपूर्ण प्रजाति है जो धीरे धीरे विलुप्त की कगार की ओर जा रही हैं गोडावण सक्षण के लिए सरकार लगातार प्रयास कर रही है बहुत सारे समाज सेवी संस्थाएं एव वन्यजीव में सरक्षण को समझ रखने वाले लोग लगातार कार्य कर रहे हैं अपने  सुझावों के माध्यम से इस कार्य को प्रगति दे रहे हैं मेरा एक सुझाव था गोडावण प्रजनन क्रेन्द्र से तीसरी जनरेशन तैयार होगी और उसको हम कहां पर छोड़ेंगे उसके लिए हमें चिंता करने की जरूरत है उसके लिए सबसे उपयुक्त अगर कोई जगह है तो वह डेजर्ट नेशनल पार्क का सुदासरी क्षेत्र है पिछले दस वर्षो से लगातार अतिक्रमण की भेंट चढ़ता जा रहा है इसको रोकने के लिए विभाग द्वारा क्लोजर बनाए गए लेकिन यह कार्य कुछ समय के लिए बिमार व्यक्ति को ऑक्सीजन देने बराबर है इसके लिए जरूरी है  200-300 वर्ग किलोमीटर का कोर एरिया बना करके गोडावण को हम स्वच्छंद विचरण करने के लिए जगह दे दे यह कार्य अति आवश्यक है

 

श्री सुमित डूकिया

१ गोडावण विलुप्ति के कगार पर है, इसका मुख्य कारण क्या है ? क्या सोलर और पवन ऊर्जा के तारों का जाल ही इसकी विलुप्ति की और जाने का  का मुख्य कारण है ?  क्या हम 5 कारणों को उनकी प्रभाव के क्रम में रख सकते है,  मुख्य कारण पहले और दूसरे कारण बाद में ?

उत्तर : इस प्रश्न का मैं आपको विस्तृत उत्तर देना चाहता हूँ – कालांतर में गोडावण भारत के ११ राज्यों में मिलता था जो आज मात्र ५ में ही बचा रह गया है। ऐसा माना जाता है कि 5 में से 4 राज्यों में तो मात्र 10 के आस पास ही गोडावण होंगे और राजस्थान में इनकी अनुमानित संख्या लगभग 100 से भी कम होंगी। शायद कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र के पक्षी एक ही समूह से सम्बन्ध रखते हो और उनमें 1-2 अल्पवयस्क है और 2-3 प्रौढ़ पक्षी है। गुजरात में माना जाता है सिर्फ 4 मादा गोडावण पक्षी बचे है जो बिना नर की उपस्थिति के धीरे धीरे विलुप्ति की और बढ़ रहे है। गोडावण का विस्तार पूर्व में 11 राज्यों में माना जाता था परन्तु अब इसके अतिरिक्त मान ने लगे है की ओडिशा भी एक राज्य था जहां यह पक्षी मिलता था। खैर इतिहास होते जा रहे इस पक्षी के लिए राजस्थान ही एकमात्र आशा का केंद्र है, क्योंकि यहाँ आज भी ये प्रजनन करता हैं।

राजस्थान में इसके दो समूह है एक जैसलमेर के पश्चिम में सम-सुदासरी है और दूसरा समूह पूर्व में पोकरण-रामदेवरा के पास मिलता है। रामदेवरा के पास मिलने वाला समूह सेना के युद्धाभ्यास किये जाने वाले क्षेत्र में भी मिलता है।

अब में अपने मूल प्रश्न पर आता हूँ – राजस्थान के संदर्भ में इनकी विलुप्ति के अथवा संख्या में गिरावट को यदि देखे तो यह कहना सही होगा की गोडावण के लिए अक्षय ऊर्जा के लिए लगाए गए बिजली के तार एक जाल के रूप में कार्य कर रहे है एवं पक्षी निरंतर मारे जा रहे है। और सरकार इनको कम करने की बजाय और अधिक बढ़ावा ही दे रही है।  जिस ऊंचाई पर पक्षी उड़ान भरता है अक्सर तार भी उसी ऊंचाई पर लगायी जाती है।  आज के सन्दर्भ में यही कारण इनकी संख्या में गिरावट के लिए मुख्य तौर पर उभरा है।

अब में आपको ४ अन्य कारण भी विस्तार से बताता हूँ-

दूसरा सबसे बड़ा कारण: जो मुझे लगता है वह है कृषि में आये बदलाव, देखिये पारम्परिक कृषि किसी भी तौर पर हानिकारक नहीं थी बल्कि लाभकारी थी- क्योंकि गोडावण को कई प्रकार के भोजन उसमें मिलते थे, परन्तु नए तौर तरीकों ने सब उलट कर रख दिया है। जैसे ट्रैक्टर के कारण कृषि आसान हो गयी है जिसके के कारण कृषि क्षेत्र बढ़ गया है।  प्राकृतिक आवास घटा है। ज़माने पहले खेत मालिक अपने खेत का कुछ क्षेत्र बिना उपयोग के भी रखता था, आप जानते हो शेखावाटी में उसे अडावा कहते है, आज यह परंपरा ख़त्म  हो गयी है और अब खेत के हर कोने में बुआई होती है। अडावा किसान स्वयं के पशुओं के लिए चरागाह स्थल के रूप में काम लेता था। गत दशकों में किसानो ने कीटनाशक का उपयोग बढ़ा दिया है। किसान फसल की सुरक्षा के लिए खेतों में अधिक समय देने लगा है जिस से कृषि क्षेत्र में इंसानी उपस्थिति बढ़ गई है।

तीसरा बड़ा कारण  : पर्यावास का प्रबंधन, सरकार ने जिसे डेजर्ट नेशनल पार्क माना है उसकी अधिकांश भूमि 4 दशक बाद भी राजस्व विभाग और व्यक्तिगत लोगों के पास है अथवा कु-प्रबंधन की शिकार है। आज भी वास्तविक  सीमाज्ञान के अभाव में उपयोगी भूमि को संरक्षित नहीं किया जा रहा है।जहाँ गोडावण मिलता है और जहाँ डेजर्ट नेशनल पार्क के सुरक्षित बाड़े (Enclosure) है उनमें बहुत फर्क है। गोडावण के दो समूह रामदेवरा और सुदासरी के मध्य तारों का गहन जाल बन गया है एवं अब यह समूह मिल नहीं पाते है।  इनके दोनों स्थलो के मध्य की अधिकतर जमीन की मालिक सरकार है परन्तु शायद वह इन्हे गोडावण के लिए सुरक्षित करना नहीं चाहते है।

चौथा बड़ा कारण : कचरे आदि के कुप्रबंधन के कारण कुत्तों एवं कौओं की संख्या में बढ़ोतरी भी एक मुख्य वजह है।  देखिये कौओं की और प्रजाति है रैवेन जो पहले माइग्रेट कर यहाँ से चला जाता था परन्तु आज कल यह बारह महीने यह यहीं पर रहने लगे है।  यह अत्यंत घातक है। सुदासरी के आस पास चारो और अनेक होटल आदि है जिनमें मानव गतिविधि बढ़ने से इस तरह के प्राणियों का अनुपात भी बढ़ा है एवं उनके समूह में भी विस्तार हुआ है।रैवेन गोडावण के अण्डों को नुक्सान पहुंचाते हैं।

पांचवा बड़ा कारण : देखिये अधिकांश गोडावण लोगों की जमीन पर है और यही वह अधिकांश समय व्यतीत करते है।  प्रबंधक लगभग संवाद हीनता का माहौल रखते है और बगैर लोगों से संवाद करे हम इनके संरक्षण का कार्य राष्ट्रीय मरू उद्यान के बाहर नहीं कर पाएंगे।

२ गोडावण संरक्षण के लिए कोई ५ कदम जिन पर सरकार को तुरंत कार्य करने की आवश्यकता है।

उत्तर : देखिये मेरे पहले सवाल के उत्तर में इनके उपाय और कदम भी छुपे थे परन्तु हम पुनः चर्चा करते है –

पहला कदम : पक्षी के हिसाब से जमीन का प्रबंधन।  आज हमारे डेजर्ट नेशनल पार्क का बहुत कम हिस्सा गोडावण वास्तविक रूप से इस्तेमाल करता है परन्तु जो इलाका ये अति संकटग्रस्त  पक्षी उपयोग कर रहा है उसके लिए हम चिंतित नहीं है।  वन विभाग डेजर्ट नेशनल पार्क में ही अपनी संपूर्ण ऊर्जा और संसाधन लगा देता है और गोडावण किसी और जमीन को इस्तेमाल करता है। जैसे आज कल हर वर्ष भूटेवाला से  3-4 पक्षी की सूचना आती है परन्तु आज भी उस तरफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।

दूसरा कदम : अक्षय ऊर्जा के लिए स्थानों को निर्धारित करना चाहिए एवं पक्षी के क्षेत्रों से उन्हें निकालने की सख्त आवश्यकता है। यह शायद आज के दौर में सबसे महत्वपूर्ण कदम अथवा उपाय होगा।

तीसरा कदम : विभाग स्वयं के तीन DFOs – सोशल फॉरेस्ट्री , डेजर्ट नेशनल पार्क और IGNP में सामंजस्य पैदा करे।  ताकि वह एक मिशन पर काम कर सके।  डेजर्ट नेशनल पार्क से अधिक गोडावण अन्य दो DFO के क्षेत्र में रहते है, जबकि उनके ऑब्जेक्टिव में गोडावण संरक्षण प्राथमिकता में नहीं है।

चौथा कदम : चूँकि अनेक सामाजिक संगठन और संरक्षणवादी इस पक्षी को बचाना चाहते है परन्तु वन विभाग उनके साथ तिरस्कार भाव रखता है और यह बदलाव मात्र एक व्यक्ति ला पाया वे थे डॉ गोबिंद सागर भरद्वाज।  आज आवश्यकता है उस तरह से सबके साथ सामंजस्य बैठा कर कार्य करने की।

पांचवा कदम : आस पास के लोगों को वन से जुड़े सस्टेनेबल रोजगार से जोड़ना और उनको इस पक्षी और मरुस्थल बचने के लिए प्रेरित करना।

 

३ क्या पूर्व संरक्षणकर्ता सही रास्ते पर चले और उनके काम से किसी प्रकार का सकारात्मक प्रभाव इन पक्षियों के संरक्षण पर पड़ा ?

उत्तर : अच्छा सवाल हैं, आज हमारे पास गोडावण से सम्बंधित लगभग सभी वैज्ञानिक आंकड़े मौजूद हैं। इनको जुटाने में सभी पूर्व संरक्षणकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं और वो वैज्ञानिक जानकारी आज हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं। अब परिस्थितियाँ और वस्तुस्तिथि बदल चुकी हैं। आज गोडावण साल के अधिकांश समय स्थानीय समाज की व्यक्तिगत या राजस्व भूभाग में विचरण करता हुआ देखा जा रहा हैं। इस स्थिति में हमें अब समाज के साथ ही संरक्षण का काम करना होगा और उनको इस महत्वपूर्ण संरक्षण के कार्य में बराबर का भागीदार बना कर साथ लाना होगा।

4. सुमित जी आप इतना अनुभव रखते है परन्तु फिर भी वन विभाग की गोडावण संरक्षण के नीति निर्धारण से दूर रखा जाता है, आप उन कुछ लोगों के नाम बताएं जिन्होंने इस पक्षी के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई अथवा आज भी उनकी सलाह हमें सही दिशा दिखाने में सक्षम है ?

उत्तर : आप सही कह रहे है, सरकार हर प्रश्न कर्ता को दूर रखती है। सरकार अपनी असक्षमता और काम करने के तरीके पर प्रश्न करने वाले से बात करना पसंद नहीं करती है। खुद विभाग ने श्री गोबिंद सागर भारद्वाज को दरकिनार कर के रखा है और आज वो चंडीगढ़ में सेवा दे रहे है। अन्य IFS श्री अनूप के. आर. आज राज्य से दूर कार्य कर रहे है। जबकि आज भी इन दोनों अफसरों को स्थानीय जनता एवं कर्मचारी उनके कार्यकाल में किये गये काम और काम करने के तरीके की वजह से दिल से चाहते है। स्थानीय निवासी माल सिंह जी जामडा एक और नाम है जो सुदासरी और उसके आस पास के इलाके में गोडावण संरक्षण के लिए अति महत्वपूर्ण है। उनकी पहुँच समाज के हर तबके में है और सरकार के उच्च स्तर तक जा कर गोडावण  की बात रखने का दम रखते है। इन्हीं नामों में श्री विक्रम सिंह जी नाचना का नाम रखना चाहूँगा जिन्हे इस पक्षी की चिंता है। यदि नव जवान लोगों में देखा जाये तो जैसलमेर निवासी श्री पार्थ जगाणी और धोलिया निवासी श्री राधेश्याम बिश्नोई भी कम नहीं है आने वाला समय इन्हे और अधिक परिमार्जित कर निखारेगा और इसका गोडावण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। यदि महारावल साहब चैतन्य राज जी जैसलमेर से बात की जाए तो उनका प्रभाव आम जनता पर आज भी बहुत है और उन्हें इस पक्षी के संरक्षण की अत्यंत चिंता भी है, उनसे मेरी और पार्थ जगाणी जी की इस विषय पर चर्चा हुई है।

परन्तु यदि आपने मुझे और अधिक स्वतंत्रता दी होती तो और अधिक नाम भी जोड़े जा सकते है। परन्तु इन सबमें अगर आप मुझे एक व्यक्ति चुनने का कहते तो मैं निसंदेह श्री गोबिंद सागर भरद्वाज का नाम लेता उन्होंने सभी समाज वर्ग के साथ और संरक्षण विज्ञान को आधार मानते हुए समसामयिक परिस्थितियों के हिसाब से रास्ते बनाए थे। आज उनकी अनुपस्थिति यहाँ बेहद खलती है।

5 आप जैसे लोगों को संरक्षण की मुहिम में शामिल किया जाता है ?

उत्तर : मैं स्वयं मरुस्थल में जन्मा और पला बढ़ा हूँ और गोडावण के भूभाग से पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से विभिन्न प्रकार के शोध कार्यों में अनवरत लगा हुआ हूँ और मैंने अपने स्थानीय नागरिक होने और स्थानीय समाज में अच्छे से काम करने के अनुभव के कारण खुद को गोडावण संरक्षण के कार्य में उतारा हैं। प्रशासन अपने ढंग से काम करता है और मैं स्थानीय समाज के समन्वय और सामंजस्य के साथ काम कर रहा हूँ। जब भी हमें प्रशासन से सहयोग के लिए कहा जाता है, मैं खुद जाता हूँ या मेरी बात उन तक पहुँचता हूँ। मुझे किसी के निमंत्रण का इंतज़ार नहीं है परन्तु सरकार यदि हमें किसी योग्य पाती है और उन्हें आवश्यकता लगती है तो उनकी संरक्षण की मुहिम में हम भी अवश्य शामिल होंगे।

 

श्री दाऊ लाल बोहरा

१ क्या गोडावण ब्रीडिंग प्रोग्राम के बारे में पर सरकार शिथिल हो गयी है ?

उत्तर : नहीं बिलकुल ऐसा नहीं लगता है, ब्रीडिंग प्रोग्राम को एक अत्यंत संवेदनशील वेटरनरी डॉक्टर श्रवण सिंह राठौड़ ठीक से संचालित कर रहे है।  उनका पूर्ण समर्पण के साथ 24×7 घंटे यही कार्यक्रम रहता है।  और हाँ उन्हें यदि आप मुझे 100 नंबर में से मार्क्स देने को बोलते तो में उनका एक भी नंबर नहीं काटता।

२ क्या सक्षम लोग इसका नेतृत्व कर रहे है और अपना पर्याप्त समय दे रहे है ?

उत्तर: जी आज इस देश के सबसे महान जीव वैज्ञानिक डॉ झाला और डॉ दत्ता इसको देख रहे है, और उनकी क्षमता पर बिरला ही सवाल उठाएगा। कितना समय वह दे पा रहे है यह मुझे नहीं पता परन्तु उतर चढाव सभी के जीवन का हिस्सा है।  इनको मैंने महान इसी लिए बताया है की यह अपने सभी कामों को पूर्ण समर्पण से करते है। मुझे पूर्ण विश्वास है वह इसे भी पर्याप्त समय दे रहे होंगे।

३ अभी हुई गोडावण के बच्चों की मृत्यु चिंताजनक है या यह एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है ? कोई बड़ी चूक आप देख पा रहे है ? क्या कारण रहे होंगे ?

उत्तर : यह बेहद चिंताजनक है।  यह कतई सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। दो वर्ष तक के पले पलाये गोडावण का मरना बेहद दुखद है। देखिये इसका पता लगाना अत्यंत जरुरी है की उनके मरने के क्या कारण रहे है। यह जानकारी निकालना इस देश में संभव नहीं है। यह घटना सांभर झील में मरे पक्षियों के अनुरूप होगी, जिनका सटीक पता आज भी नहीं लगा है।  सटीक जानकारी अत्यंत आवश्यक है। कयास लगाने से काम नहीं होगा।  यदि आज देखा जाए तो समस्या इनके खाने से संबंधित लगती है। परन्तु बिना कारण जाने हम आगे नहीं बढ़ पाएंगे।  इनके नमूने IVRI की बजाय विदेशी प्रयोगशाला भेजने चाहिए।  यहाँ WII और वन विभाग अक्सर दोनों पूरी तरह विफल होंगे और देखना सटीक जवाब कभी नहीं मिलेगा।

४ किस प्रकार के संरक्षण के उपाय सरकार / स्वयं सेवी संस्था / व्यक्ति/ समाज ने किये है ?

उत्तर :कैप्टिव ब्रीडिंग किसी भी तरह से अकेला उपाय नहीं है इसके विफल होने की पूरी सम्भावना है।  असल उपाय गोडावण के पर्यावास क्षेत्रों में करना होगा।

BNHS को सरकार ने पर्यावास के संरक्षण के लिए कार्य करने के लिए कहा था परंतु यह मात्र प्रतीकात्मक रूप से कार्य कर पा रहे है। अभी तक  असल उपाय नहीं दे पाये शायद आगे अपने काम को बढ़ा सके। उनके नए डायरेक्टर से बड़ी आशा है जबसे उन्होंने चम्बल के पानी पर बोले की किस प्रकार स्किमर के अंडे डूब रहे है। यहाँ सकारात्मक बदलाव के संकेत है।  वर्ना आप जानते हो यह पुराना  जहाज कितना मुश्किल से चलता है।

इसी तरह WCS को स्थानीय समुदायों के लिए कार्य करना था परन्तु वह एक दिशाहीन रूप से आगे बढ़े और अपनी टीम के प्रबंधन में ही विफल होते नजर आते रहे है। उनकी अधिक बाते नहीं करे तो ठीक है क्योंकि वह तो असल में इस ग्रह के लोग भी नहीं लगते है।

सरकार के कैप्टिव ब्रीडिंग प्रोग्राम ने उनके पूरे ध्यान को उसी और केंद्रित कर लिया है एवं अन्य हैबिटैट डेवलपमेंट आदि के कार्य से पिछड़ते जा रहे है। असल रस्ते सरकार को संवाद के माध्यम से निकालने होंगे। डॉ भरद्वाज जैसे लोगों को कमान देनी होगी एवं वर्तमान DFO अत्यंत उत्साही एवं काबिल इंसान है उन्हें और अनुभवी बना कर अच्छा काम लिया जा सकता है। पानी बिजली जैसे समस्या का निपटारा एक कुशल रेंजर मिनटों में कर सकता है अथवा माल सिंह जी जैसे लोगों को साथ लेकर किया जा सकता है।  यह सब वन विभाग के अलग थलग रहने का ठोस उदाहरण है।

५ कोई आशा है की इस स्थिति में गोडावण का संरक्षण किया जा सकता है ? 

उत्तर:  समय बताएगा, वन विभाग को अपने स्तर पर कई नीति बदलनी होगी, लोगों को शामिल करना होगा पहले खुद के घर से फिर बाहर से।

लम्पी गायों के लिए एक अत्यंत घातक रोग : क्या करे? कैसे बचाये अपने पशु धन को ?  

लम्पी गायों के लिए एक अत्यंत घातक रोग : क्या करे? कैसे बचाये अपने पशु धन को ?  

लम्पी स्किन डिजीज यानि गुमड़दार त्वचा रोग जो मवेशियों का एक संक्रामक वायरल रोग है, जो अक्सर एपिज़ूटिक रूप में होता है। एपिज़ूटिक यानि किसी पशु प्रजाति में  व्यापक रूप से कोई बीमारी का प्रसार।
आज कल राजस्थान में इसका अनियंत्रित फैलाव हो रहा हैं . इस रोग में त्वचा पर गांठे बनती है, जो जानवर के पूरे शरीर को ढक लेती है।

इसके प्रमुख प्रभावों में पाइरेक्सिया (तेज बुखार), एनोरेक्सिया (कमजोरी एवं वजन काम होना), डिस्गैलेक्टिया (दुग्ध उत्पादन में कमी वह अनिमितता) और निमोनिया (फेफड़ो में संक्रमण) शामिल हैं; कभी कभी घाव मुंह और ऊपरी श्वसन नली में भी पाए जाते हैं।

रोग की गंभीरता मवेशियों की नस्लों पर भिन्न तरह से असर दिखती है। इस रोग से ग्रस्त मवेशी कई महीनों तक गंभीर दुर्बलता का सामना करते हैं। इस से होने वाले घाव त्वचा को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचाते हैं।

अब तक इस रोग के फैलने का तरीका स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। माना जाता हैं की कीट इसके फैलने के मुख्य वजह हैं।

यह रोग उप-सहारा अफ्रीका तक ही सीमित रहा है, परन्तु हाल ही में मिस्र और इज़राइल में एपिज़ूटिक रूप से प्रकट हुआ था। रेगिस्तान से लेकर सम शीतोष्ण घास के मैदानों और सिंचित भूमि तक  के जीवों में संचरण पाया गया है।
राजस्थान में वन्य जीवन में भी इसका प्रसार देखा गया है -जिनमें एक चिंकारा एंटीलोप है जो राजस्थान के मरुस्थली भाग में प्रभावित हुआ है, परन्तु बाघ एवं अन्य मांसाहारी प्राणियों में अभी तक किसी प्रकार का कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ है I
विभिन्न एंटीलोप एवं डियर प्रजाति के प्राणियों पर नजर रखना आवश्यक होगा I

बचाव ही उपचार है 


* ज्यादातर देसी गौवंश को प्रभावित कर रही हैं
*जब मक्खी या मच्छर संक्रमित पशु को काट कर स्वस्थ पशु को काटती हैं तो संक्रमण फैलता है या फिर
स्वस्थ पशु के  बीमार पशु के संपर्क में आने से भी ये रोग फेल सकता है ( कोरोना की तरह वायरस जनित रोग है)
* इनक्यूबेशन(संक्रमण लगने के बाद बीमारी के लक्षण दिखाई देने तक का समय) पीरियड 4से14 दिन तक का हो सकता हैं

बीमारी के मुख्य लक्षण:-
– शुरुवाती दिनों में तेज बुखार रहता है।
कुछ पशुओं में फेफडो पर असर भी हो सकता है,जिससे स्वास लेने में कठिनाई होती है ।
-शरीर पर बादाम / नीम की गुटली के आकार की कठोर गांठे निकल आती हैं।
-इन गांठों के फूटने पर घाव पड़ जाते हैं
– कुछ पशु लंगड़ा कर चलते है एवम  पैरो में सूजन भी हो सकती  हैं
-मुंह से लार व नाक से पानी भी गिर सकता हैं
-पशु को भूख कम लगती हैं
उत्पादन कम हो जाता हैं
-मादा पशुओं में गर्भपात भी हो सकता हैं

 

बीमारी के लक्षण दिखते ही अपने बीमार पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर तुरंत नजदीक के पशु चिकित्सा केंद्र से संपर्क कर उचित इलाज करावे ।
* यदि नजदीक कोई पशु चिकित्सा कर्मी नही हो तो बुखार उतारने की मेलोनेक्स प्लस गोली दो दो  गोलीबड़े गौवंश के लिए आधी आधी गोली छोटो बछड़ों के लिए रोटी के साथ  दिन में दो बार पांच दिन तक ।
–  शरीर  में आगे संक्रमण रोकने के लिए सुल्फाडिमिडिन + ट्राई मेथोप्रिम की दो दो गोली बड़े पशु को व आधी आधी छोटे पशु को सावधानी से दिन में दो बार पांच दिन तक देवें।
यदि पशु दो दिन तक चारा पानी नहीं करें तो तुरंत पशु चिकित्सक /चिकित्सा कर्मी से संपर्क कर उचित इलाज करावे,जिसमे कि वो लोग  एंटीबायोटिक,एंटी पायरेटिक, मल्टीविटामिन आदि इंजेक्शन लगा कर बीमारी को बिगड़ने से रोकने की कोशिश करते हैं इनमे मुख्य  ये दवाइयां भी दी जा सकती हैं:-

 Inj.Beekom L 10ml im
For three days
Tab.Melonex plus 1 twice daily for 3days
Inj.Fortivir 30ml im (if needed)

यदि घाव हो तो घाव को लाल दवा के  घोल से धोकर  टॉपीक्योर स्प्रे या अन्य उपलब्ध रोगाणु नाशक दवा  सुबह शाम लगना चाहिए।
आटे पानी का घोल बनाकर जबरदस्ती नाल नही देवे,कई बार नाल का पानी स्वास नली में जाकर दूसरी जानलेवा समस्या पैदा कर सकता है।
बीमार पशु को बाहर ज्यादा दूर नहीं जाने दे,,दिन में चार पांच बार बाजरे की रोटी,,आंवला,हल्दी तेल का लड्डू बना कर दिया जा सकता है,,

* यदि आस पास लंपी बीमारी नहीं देखी गई हो तो स्वस्थ गौवंश के  बचाव हेतु उपलब्ध लंपी वैक्सीन वैक्सीन जरूर करावे,,बीमारी के लक्षण आने का इंतजार नही करें।
साथ ही यदि लंपी का टीका आपके क्षेत्र में उपलब्ध नहीं हो पाया हो तो बकरी प्रजाति के माता रोग से बचाव का टीका (गोट पॉक्स) की वैक्सीन 3से5 एमएल (सब/ कट) पशु चिकित्सा कर्मी से मंगवाकर लगवाए ताकि कुछ हद तक बीमारी के प्रकोप को कम किया जा सकेगा ।
ये भी ध्यान रहे कि टीका लगाने के बाद भी इम्यूनिटी (बीमारी से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता) बनाने में 15से 25 दिन लग सकते हैं,इसलिए सभी सावधानियां निरंतर जारी रखें।

बीमारी ग्रस्त  पशुओ की अच्छी देख रेख की जाय तो बिना इलाज भी ज्यादातर पशु ठीक हो सकते हैं
लंपी स्किन डिजीज में मृत्यु दर केवल  05% से 10%ही है  परंतु क्षेत्र में संक्रमण होने की स्तिथि में बचाव के उपाय नही करने पर संक्रमित होने की दर 80% होती हैं

**पशु पालकों से अपील :- अपने स्वस्थ पशुओं का वर्षा ऋतु में होने वाले अन्य जानलेवा बीमारियां जैसे इफेमेरल फेवर (3डे शिकनेस), गल घोंटू(HS),लंगड़ा बुखार(BQ) आदि से बचाए ।
HS एवम BQ रोग का टीका पशु पालन विभाग के केंद्रों में उपलब्ध हैं, अपने पशु को  नजदीक के पशु चिकित्सा केंद्र ले जाकर टीकाकरण अवस्य करवाए।
– अपने पशु बाड़ो को साफ सुधरा रखे,,जिससे कि मक्खी मच्छर आकर्षित नहीं होंगे.
– गौवंश को  नीम के पत्तो व फेटकरी के 1%घोल के पानी को उबाल कर वापस ठंडा कर  स्वस्थ पशु को सुबह नहलाये शाम को नही ।
– फिनाईल का 5% घोल बनाकर पशु के ऊपर पोछा फेरे ताकि मक्खी मच्छर दूर रहेंगे।
**लंपी बीमारी से ग्रस्त गौवंश का दूध गर्म करके काम में ले सकते हैं,,ये बीमारी इंशानो में कभी नही फैलती।

** अधिक जानकारी के लिए नजदीक के पशु चिकित्सा केंद्र/ पशु पालन विभाग के कंट्रोल रूम से या मेरे से ( डॉ.श्रवणसिंह राठौड़ 9829116064)भी संपर्क किया जा सकता है

Snakebite: Challenges in Rajasthan

Snakebite: Challenges in Rajasthan

Rajasthan is the largest state in India, where every year, thousands of people are killed by snakebite. An added complication is that there is a lot of ignorance about snakes, and much misinformation spread by dubious individuals with vested interests in the fear of innocent people.
One day I received a call from a knowledgeable villager from a nearby village, who informed me of a snake biting a person in the hand. I concluded that the victim must be a woman, for women do most of the work with their hands in these areas. Had the victim been bitten in the leg, then the probability of the victim being a man is much higher, for they are far more likely to be roaming from one location to another. The man confirmed that the victim was indeed a woman, and that they had brought her to the shrine of a local deity, but that she was still in distress, and that I should do something to help. I responded that she should be taken to a doctor. He then lamented that it would be difficult, as the community would not agree. The local custom is that the people bring snakebite victims to shrines of various deities in the hope of being cured. This is unfortunately a common practice prevalent in all districts of Rajasthan. A few days later, the woman passed away, leaving behind an infant child who was yet to be weaned off her breast milk.

Saw-scaled viper (Echis carinatus): It is locally known as Fursa, Fopsia, or Bandi. Releases toxins that affect the circulatory system. It produces sound by rubbing the scales on the body. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

There are scores of folk deities associated with the cure of venomous snakebites in Rajasthan such as Gogaji, Delwarji, Harbuji, Ramdevji, Tejaji and Karishdevji etc. and local people have unwavering faith in these deities. Faith in these deities, also gives people the necessary mental fortitude in the event of a snakebite. If we pause to take a look at the history of these deities, many were warriors, who attained martyrdom fighting wars of ‘local’ relevance. Even the music played at their shrines, along with its instrumentation, is reminiscent of military processions and war songs. When snakebite victims find themselves in such a stimulating environment, they find relief to some extent as a result of a placebo effect. Here, the placebo effect means to have the mental fortitude to withstand pain without any medication and treatment, or to simply be able to ignore it. The unique atmosphere of a shrine where several people simultaneously act in solidarity with the victim’s suffering, all the while singing and dancing to emotionally stirring music enables such a placebo effect. The victim thus tragically gets false hope of survival by being taken to such places. However, let there be no mistake, snakebite victims simply must get proper treatment.

Indian cobra (Naja naja): This snake is portrayed as the most venomous creature of Indian myths, which has been given the exalted status of adorning the neck of the gods. This highly venomous but equally shy reptile often tries to keep its enemy away by spreading the skin around its head into a hood and hissing. Its venom has both hemo and neurotoxic properties.(Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

In fact, medical treatment for snakebites began only half a century ago. The creation and use of antivenom does not have a very long history, which is why traditional remedies are still the norm rather than the exception in India’s rural and illiterate populations. For thousands of years, victims of snake bites have been taken to the shrines of local deities where all they have gotten is mental fortitude.

Russell’s viper (Daboia russelii): A very beautiful yet extremely aggressive snake, known as Chitti, is the cause of the highest number of deaths in India. Its venomous fangs are very long and strong, which release venom to a great depth and the amount is also high due to the large size of it’s head. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

There are many reasons for snakebite victims often surviving at the shrines of local deities, none of which have to do with the shrine itself- sometimes a venomous snake releases a small amount of venom, sometimes a venomous snake does not release venom at all and such an event is called a ‘dry bite’, sometimes the victim has not been bitten at all, but went into a panic after the snake hissed, sometimes the victims have actually been bitten by non-venomous snakes, after all, 35 out of the 40 snake species found in Rajasthan are non-venomous. Thus, in such cases where the victim does fortunately survive, it further perpetuates the belief that shrines to local deities are the solution to snakebites. The result is that people remain engaged in practices that do not save the hapless snakebite victim, and the caretakers of local shrines continue to mislead people, all the while ensuring that the victims do not receive the treatment they need.
Let us assume that if a venomous snake has bitten someone, there is no other cure besides antivenom. You will find many examples where a snakebite victim has been taken to a local shrine, only to die there soon after, and then have the presiding priest blame the victims and their families for ‘carelessness’,all the while taking absolutely no responsibility for this folly.

Common krait (Bungarus caeruleus) : A completely nocturnal snake, but is extremely venomous. Its bite does not cause pain on account of its small fangs, but that only adds to the danger for its neurotoxic venom commonly becomes the cause of death of a sleeping person. Another snake of a species similar to this snake is found in the desert areas of Rajasthan, which is also known as Pivana. Due to the effect on the nervous system, the venom of this snake plunges a sleeping victim into a deeper state of unconsciousness. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

Interestingly, the idea behind the ‘correct’ treatment of snakebites took birth in the Indian subcontinent. In the year 1870, Surgeon-Major Edward Nicholson published an article in the Madras Medical Journal where he wrote about how a Burmese snake catcher protected himself from future snakebites by having his snake bite him momentarily, thus inoculating himself. Similar stories are also to be found in India. These early observations formed the basis of research that led to the creation of the first antivenom for monocled cobra bites by the French scientist Albert Camette. He created this antivenom after many people trapped in the flood-prone areas of Vietnam were killed by a snakebite.
This treatment, which was developed over a century ago, did not initially receive much attention until 1950, when it was generally accepted, and its availability has increased in the last few decades. However, there is still an acute shortage of antivenom in the country.

In many snake fairs held in the country, snakes are displayed illegally and instead of promoting scientific thinking towards snakes, superstition is perpetuated.(Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

How many people are affected by snakebites in Rajasthan?
According to the World Health Organization (W.H.O), 81,000-130,000 people die from snakebites worldwide every year and three times as many people become permanently disabled in the limbs.
The Million Death Study (MDS) was a study conducted by the Government of India, in which data was collected regarding causes of death at a young age. This unique study was conducted between the years 1998-2014. According to the same study, in the 14 years between 2001 and 2014, approximately 808,000 people died of snakebite in India. That is 58000 people a year. Of which 94% were in rural areas and 77% of them never made it to a hospital.
Going by the number of snakebite fatalities, Rajasthan ranks fifth from the top as compared to other states of India, which is a matter of grave concern. According to this study, 52,100 people died in Rajasthan in 14 years, with an average of 3722 deaths per year.

Snakes are harassed in various ways in these fairs, and some dubious people misrepresent their snake-catching skills as a form of divine power.(Photo: Dharmendra Khandal)

According to an article published by Surawera et al. (2020) titled  ”Trends in snakebite deaths in India from 2000 to 2019 in a nationally representative mortality study ” – (https://elifesciences.org/articles/54076), 43% of snakebites were caused by Russell’s viper (Daboia russelii), 18% were caused by krait (Bungarus species), 12% were caused by cobra (Naja species) and 21% by other snakes, multiple species caused the death of 6% of the population.

Chiranji Lal’s son remembers his dead father while holding up a portrait of him and reveals how his father was killed by snakebite, while he also used to treat snakebites.It is a strange twist of fate that the one who used to cure snakebite, lost his life to a snake bite. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

Rescue & First Aid:
There is much confusion regarding first aid that must be administered in the event of a snakebite. You might remember people casually proposing measures such as making X-shaped incisions on the site followed by blood-letting. You might even find such measures proposed in first aid booklets. However, such actions can be fatal, for the victim can lose their life due to excessive blood loss. In many Bollywood films, you might have watched the protagonist save a snakebite victim’s life by making an incision on the bite with a knife and personally sucking the venom out by the mouth! This too is an incorrect method.

Bitten by Russell’s viper, the family took him to the shrine of a deity, but after the first shrine refused, they took him to a second shrine, and wasted valuable time. Due to the delay made by them, it took a few months for his wounds to heal.(Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

Firstly, no incisions are ever to be made on the bite site- there are two types of snake venom, neurotoxic and hemotoxic. Both viper species have hemotoxic venom and when bitten, the victim’s circulatory system or vasculature is badly affected and as a result there is bleeding in the nose, mouth, urethra and the bite site itself. In the event of a viper bite, any kind of incision or attempt to drain blood will only exaggerate blood loss, and will be near impossible to stop without a medical intervention. To put it bluntly, the victim will die of excessive blood loss even before the venom does it’s work. So remember once again, never make an incision.

Local people getting a woman suffering from snakebite to run at a high speed around the place of deity, it increases the blood pressure, which is harmful. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

People keep shouting, sometimes thumping and shaking to wake the victim woman from unconsciousness. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

Another popular first aid method is to tie a tourniquet above the bite site. This too may be found in old first aid manuals and booklets, but can prove fatal to the victim. Because the venom accumulates in only one part of the body, and it can be very dangerous for that specific part. Complete cessation of blood flow can damage that part of the body anyway.

After a saw-scaled viper bit the child while he was sleeping, he was taken to the shrine of a deity. After being in tremendous pain for several days, although the child gradually got better, no one knows which parts of his body will suffer the long-term effects of the venom.(Phot: Dr. Dharmendra Khandal)

According to current data, both of these popular first aid methods are extremely counterproductive and harmful. So what should be done instead?
Experts recommend two strategies–prevention and proper treatment.
Prevention-
  1. The most important step is to be able to avoid snakebites entirely. Maintaining hygiene in and around your home will minimize snakes frequenting it. Snakes are often attracted to human dwellings by prey animals like rats. Keeping your home and its immediate environs clean, and tidy will go a long way in prevention.
  2. If planning to move about at night, make provisions to ensure you have a source of light. Owning a good flashlight is a solution here.
  3.  Learn to recognize snake species so that you can understand their behavior.
  4. Always maintain a safe distance from snakes and take precautions, many times due to negligence, even trained snake catchers become victims of snakebite.
First Aid & Treatment:
  1.  As stated earlier, do not make any incisions, nor tie any tourniquets above the bite. Wrap a clean cloth around the bite site. This is to be bound with very little pressure and never with force.
  2.  Keep the victim calm, and maintain constant encouragement through the first aid and treatment process.
  3. Use a vehicle to transport the victim to a hospital, they should not be made to run. If a vehicle is not available, use a scooter or motorcycle, and make the victim sit between two people.
  4. If you know anyone working at the hospital, inform them before your arrival so that they can arrange life-saving resources without wasting any time.
  5. People living in areas abundant with snakes should familiarize themselves with the closest hospitals.
  6. An antivenom can only be administered by a trained doctor, so do not store it unnecessarily and never administer it yourself.
  7. The antivenom used for snakebites in India is polyvalent, which is effective against the venom of the 4 major venomous snakes of India. Nevertheless, if the species can be identified, then treatment is far easier.
  8. Many times doctors also do not have the experience to treat a snakebite. By consulting a nearby snake expert, you can get access to an experienced doctor.
  9. While private hospitals do treat snakebites, treatment is completely free of charge in the main government hospital of a  district. Since antivenom is categorized as a life-saving drug, it is mandatory for the hospital to maintain a stock of it.

Priests and Managers collecting offerings to the snake god’s temple (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

Thus, in the vast tracts of Rajasthan, where most of the population lives in rural areas, the risk of snakebite is high. There is a need to avail of proper treatment in the event of a snakebite. However, snakes are also an important part of our ecosystem and it is necessary to conserve them. With just a little care,  you can avoid snakebites altogether. Remember, the snake is not your enemy, the rat is! Nevertheless, carelessness can be fatal. By steering clear of superstition, making decisions based on scientific information, you can save not only your life and the lives of your friends, but also save the lives of snakes.
राजस्थान में सर्पदंश से जुड़े मुद्दे और मुश्किलें

राजस्थान में सर्पदंश से जुड़े मुद्दे और मुश्किलें

राजस्थान देश का विशालतम राज्य है, जहाँ हर वर्ष हज़ारों लोग सर्प दंश से मारे जाते है। सांपो के बारे में कुछ लोग अज्ञानतावश और कई लोग अपने स्वार्थ के लिए भ्रामक जानकारियां फैला रहे हैं।

पास के एक गांव से मुझे किसी जानकार का फ़ोन आया कि, किसी को सांप ने हाथ में काटा है, मुझे लगा जरूर कोई महिला होगी, क्योंकि महिलाये ही हाथ से अधिकांश काम करती है, पांव में सांप काटता तो पुरुष होने की अधिक सम्भावना रहती है, जो इधर-उधर घूमते फिरते हैं। गांव वाला बोला हाँ महिला ही है और उसे एक देवता के लेकर आये हैं, परन्तु आराम नहीं आया, आप कुछ करो। मेरा सहज सुझाव था, आप डॉक्टर के लेकर जाओ। गांव वाला बोला, यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि लोग मानेगे नहीं। अक्सर विभिन्न देवताओं के स्थानों पर सांप काटे के इलाज के लिए सर्प दंश से पीड़ित लोगों को लेकर आते है। यह एक आम परिदृश्य है, जो राजस्थान के सभी जिलों में देखने को मिल जाता है। कुछ दिनों बाद महिला अपने दूध मुहे बालक को छोड़ कर परलोक सिधार गयी।

सॉ स्केल वाईपर Saw-scaled viper (Echis carinatus): इसे स्थानीय भाषा में फुरसा, फोपसिया, अथवा बांडी नाम से जाना जाता है। रक्तसंचार प्रणाली पर असर डालने वाला विष छोड़ते है। शरीर से शल्कों को रगड़ कर आवाज पैदा करता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

राजस्थान में सांपो के इलाज से जुड़े अनेक लोक देवता है जैसे – गोगाजी, देलवारजी, हरबूजी, रामदेवजी, तेजाजी, कारिशदेवजी आदि, इन देवताओं में स्थानीय लोगों की अटूट आस्था है। इन देवता में आस्था ने लोगों को सांप काटने के बाद मानसिक रूप से सबल भी किया है। इन देवताओं का यदि इतिहास देखे तो पता चलता है कि, यह योद्धा रहे हैं, जो स्थानीय युद्ध वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये थे। इनके स्थलों पर जिस प्रकार के वाद्य यंत्र आदि बजाये जाते हैं, वह किसी युद्ध के माहौल में बजाये जाने वाले ध्वनि यंत्रो की भांति होते है। सर्प दंश से पीड़ित को जब उत्सावर्धक माहौल मिलता है वह प्लेसिबो इफ़ेक्ट से अपने आप को कुछ हद तक समस्या से उबार लेता है। प्लेसिबो इफ़ेक्ट का मतलब है मानसिक रूप से अपने आप को मजबूत कर बिना दवा और इलाज के अपने कष्ट से लड़ना अथवा कष्ट को नगण्य मानना। इसके लिए इन देव स्थलों पर अनोखा माहौल होता है जहाँ अनेको लोग आप के कष्ट में शामिल होते हैं और उत्तेजक धुन पर लोग नाच गा रहे होते हैं। पीड़ित व्यक्ति को देवताओं के स्थलों पर जाने से जीवित रहने की आशा तो मिलती है, परन्तु यह पर्याप्त नहीं, उसे उचित इलाज मिलना आवश्यक है।

इंडियन कोबरा Indian cobra (Naja naja) : नाग भारतीय मिथको का सबसे अधिक विषमयकारी प्राणी जिसे देवताओं के गले की शोभा बढ़ाने का दर्जा दिया गया है। अत्यंत विषैला परन्तु उतना ही शर्मीला सरीसृप अक्सर अपने सिर के आस पास की त्वचा को फन के रूप में फैला कर और फुफकार कर अपने दुश्मन को दूर रखने की चेष्टा करता है। इस का विष हेमो और न्यूरो टॉक्सिक दोनों प्रकार के गुणों से युक्त होता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

असल में सांपो के काटने के बाद उसका सही इलाज होना ही कोई आधी सदी पूर्व से शुरू हुआ है। एन्टीवेनॉम का चलन और उसका निर्माण का इतिहास कोई अधिक लंबा नहीं है, इसी कारण भारत की विशाल अनपढ़ जनसंख्या अपने पारम्परिक तरीके से दूर नहीं हो पायी। हज़ारों वर्षो तक इन देवस्थलों पर पीड़ितों को मानसिक तोर पर सबल बनाकर सांप काटे का इलाज होता रहा है।

रसल्स वाईपर Russell’s viper (Daboia russelii) : चित्ती नाम से जाना जाने वाला बेहद खूबसूरत परन्तु अत्यंत गुसैल सांप, भारत में सबसे अधिक लोगो की मृत्यु का कारण बनता है। इसके विष दन्त बहुत अधिक लम्बे और मजबूत होते है, जो काफी गहराई तक विष छोड़ते है एवं इनके विष की मात्रा भी सिर के बड़े होने के कारण अधिक होती है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

इन स्थलों पर पीड़ित के बचने के कई कारण थे -कई बार सर्प दंश में विष की मात्रा थोड़ी छोड़ पाता है, कई बार तो सर्प काटने के बाद भी अपना विष छोड़ता नहीं जिसे ड्राई बाईट कहते है, कई बार केवल सांप की फुफकार आदि से व्यक्ति डर जाता है, अनेक बार विषहीन सर्प ही काट लेता है, राजस्थान में 40 सांपो की प्रजातियों में 35 तो विषहीन ही है। इस तरह के मामलो में जब व्यक्ति बच जाते है, तो आस्था के इन स्थलों में और अधिक विश्वास बढ़ता चला जाता है। इन सभी मसलों को गहराई से बिना समझे लोग झाड़ फूंक में लगे रहते हैं और इन देवताओं के स्थलों के संचालक, लोगों को भर्मित कर, अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं, और साथ ही ऐसे लोग सही इलाज से भी लोगो को दूर रखते हैं।
यह तय मान के चलिए की यदि किसी विषैले सांप ने काटा है तो एंटीवेनम के अलावा कोई इलाज नहीं है। आपको ऐसे कई उदहारण मिलेंगे जिसमें व्यक्ति देवता के स्थान पर पहुंचे है और मारे गए, उसके बाद देवता के पुजारी बिना जिम्मेदारी लिए पीड़ित और उसके परिवार को ही लापरवाह बता कर उसी की गलती सिद्ध कर देते हैं।

करैत common krait (Bungarus caeruleus) : पूरणतया रात्रिचर सांप अत्यंत विषैला होता है। इसके अत्यंत छोटे विषदंत लोगो को काटने पर दर्द नहीं होने देते एवं इसका न्यूरोटोएक्सिक विष निद्रा में सोते हुए व्यक्ति की मृत्यु का कारण बन जाता है। इसी सांप से मिलती जुलती प्रजाति का एक और सांप राजस्थान के मरुस्थली क्षेत्रो पाया जाता है जिसे पीवणा नाम से भी जाना जाता है। तंत्रिका तंत्र पर असर डालने के कारण इस सर्प का विष व्यक्ति को और गहरी नींद में ले जाता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

सांपो के सही इलाज का विचार भी भारतीय उपमहाद्वीप की ही देन है, वर्ष 1870, में सर्जन मेजर एडवर्ड निकोल्सोन ने मद्रास मेडिकल जर्नल में एक बर्मा देश के सपेरे के बारे में आलेख प्रकाशित किया की किस प्रकार वह अपने आपको सर्प दंश करवाकर भविस्य में होने वाले सांपो के दंशो से सुरक्षित रखता था। इस तरह के उल्लेख भारतीय मिथको में पढ़ने को भी मिलते रहे है। खैर इसी तरह के कई और शुरुआती पर्यवेक्षण आधार बने एक विशेष शोध के कारण 1896 में पहली बार एक फ्रेंच चिक्तिसक अल्बर्ट कालमेट्टे ने पहले मोनोक्लेड कोबरा सर्प दंश के टीके का निर्माण किया। इन्होने इस टीके का निर्माण वियतनाम में बाढ़ ग्रस्त इलाके में फसे अनेक लोगो के सर्प दंश से मारे जाने के बाद किया था।
100 वर्ष से अधिक पहले विकशित हुए इस इलाज को कई वर्षो तक कोई अधिक मान्यता नहीं मिली परन्तु 1950 के आस पास जाकर ही लोगो ने इसे स्वीकारा एवं पिछले कुछ दशकों से ही इसकी उपलब्धता बढ़ी है। यद्दपि आज भी देश में एंटीवेनम की कमी है।

देश में होने वाले कई सर्प मेला में अनेको सांपो को अवैध रूप से प्रदर्शित किया जाता है एवं सांपो के प्रति वैज्ञानिक सोच की बजाय अन्धविश्वास को जारी रखा जाता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

राजस्थान में कितने लोग सर्प दंश से प्रभावित होते है ?

विश्व स्वास्थ्य संघठन (World Health Organization -WHO ) के अनुसार विश्व में 81,000–138,000 लोग सर्प दंश से मारे जाते है और इनसे तीन गुणा लोग स्थायी तौर पर अपने अंगो से विकलांग हो जाते हैं।
मिलियन डेथ स्टडी (MDS) भारत सरकार के द्वारा किया गया ऐसा अध्ययन है, जिसमें अल्पायु में मृत्यु के कारणों पर आंकड़े संगृहीत किये गए थे। यह अनूठा अध्ययन वर्ष 1998-2014 के मध्य संपन्न किया गया। इसी अध्ययन के अनुसार वर्ष 2001 to 2014 के मध्य 14 वर्षो में भारत देश में लगभग 808,000 लोगो की जान सर्प दंश से गयी। यानी एक वर्ष में भारत में 58000 लोग सर्प दंश से मारे जाते है। जिनमें से 94% लोग ग्रामीण इलाको में और उनमेसे 77% अस्पताल नहीं पहुंचे थे।

सर्प दंश से मारे जाने वालों की संख्या के हिसाब से भारत के अन्य राज्यों की तुलना में राजस्थान का शीर्ष से पांचवा स्थान है जो कि, एक अत्यंत चिंता का विषय है। इस अध्ययन के अनुसार 14 वर्षो में राजस्थान में 52,100 लोगों की मृत्यु हुई जिसका प्रतिवर्ष हुई मृत्यु का औसत 3722 होता है।

सांपो को इन मेलो में अनेक प्रकार से सांपो परेशान किया जाता है, एवं कुछ व्यक्ति अपने सांप पकडने के कौशल को देवीय शक्ति के रूप में प्रदर्शित करते है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

सूरवीरा एवं साथियो 2020 द्वारा प्रकाशित आलेख ”Trends in snakebite deaths in India from 2000 to 2019 in a nationally representative mortality study ” – (https://elifesciences.org/articles/54076) के अनुसार भारत में होने वाले सर्प दंशो में रसल्लस वाईपर (Daboia russelii) द्वारा 43%, करैत द्वारा (Bungarus species) द्वारा 18%, कोबरा द्वारा (Naja species) 12% एवं सर्प प्रजाति की पहचान नहीं हो पायी 21%, अन्य सांप की प्रजातिया ने 6 % लोगो की मृत्यु के कारण बने। इन्होने प्रकाशित शोध एवं अन्य तथ्यों के आधार पर कई प्रकार के अन्य आंकड़े भी जुटाए और पाया की 59 % पुरुषो एवं 41 % महिलाओं की मृत्यु हुई। इनके अनुसार सबसे अधिक जून से सितम्बर के मध्य 48 % सर्पदंश से मारे गए जबकि जनवरी फरवरी में सबसे कम 9 % लोगो को ही सांपो ने द्वारा मारे गए।

चिरंजी लाल के पुत्र ने अपने मृत पिता का चित्र हाथ में लिए उन्हें याद करते है और बताते है की किस प्रकार उनके पिता सर्प दंश से मारे गए जबकि वह सांप के काटे का इलाज भी करते थे। यह अनोखी विडंबना है की जो सर्प दंश का इलाज करता था, उसे सांप की वजह से अपनी जान गवानी पड़ी। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

बचाव और प्राथमिक चिकित्सा आदि:

सर्प दंश से बचने के लिए प्रस्तावित प्राथमिक चिकित्सा के उपायों में अत्यंत भ्रम की स्थिति है, आपको भली प्रकार याद होगा की सर्प दंश के पश्च्यात अक्सर लोग कहते थे, उस स्थान पर “X” अथवा “+” के निशान के चीरे लगाए एवं रक्त के श्राव को होने दे। यह प्राथमिक चिकित्सा की पुस्तिकाओं में भी छपा हुआ मिल जाता है। परन्तु यह तरीका अत्यंत घातक होसकता है एवं पीड़ित अति रक्त स्त्राव से अपनी जान गवां सकता है। अनेक बॉलीवुड फिल्मो में आपने देखा होगा की एक हीरो चाकू से चीरा लगाकर मुँह से विष चूस कर हेरोइन की जान बचा लेता है। यह अत्यंत गलत उपाय है।

इनको रसल्स वाईपर ने काटा, तत्काल घर के लोग इन्हे देवता के यहाँ लेगये, परन्तु पहले मंदिर के मना करने के बाद दूसरे मंदिर में ले गये और बहुमूल्य समय को नष्ट करदिया। इनके द्वारा की गयी देरी के कारण इनके घाव ठीक होने में कुछ माह का टाइम लगा। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

हमें सर्प दंश वाले स्थान पर किसी भी प्रकार का चीरा नहीं लगाना चाहिए – सर्प के विष दो प्रकार के होते है – हेमोटोक्सिक एवं न्यूरोटॉक्सि। दोनों वाईपर प्रजाति के सर्पो में हेमोटोक्सिक विष विद्यमान है एवं यह जब काटते है तो परिसंचरण तंत्र या वाहिकातंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है और परिणाम स्वरुप नाक, मुँह, मूत्रमार्ग एवं सर्प द्वारा काटे जाने वाले स्थान पर रक्त का स्त्राव शुरू होजाता है। इस स्थिति में यदि किसी प्रकार का चीरा लगाकर और रक्त निकलने का प्रयास किया जाए तो बिना चिक्तिसक की मदद के रक्त प्रवाह रुकना बहुत दूभर कार्य होजाता है। इस तरह व्यक्ति की मृत्यु विष से पूर्व अति रक्तप्रवाह से ही हो जाती है। अतः याद रखे कभी चीरा नहीं लगाये।

सर्प दंश से पीड़ित महिला को देव स्थान की तेज गति से दौड़ते हुए परिक्रमा दिलवाते स्थानीय लोग, इस से रक्त चाप बढ़जाता है जो हानिकारक है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

पीड़ित महिला को बेहोशी से जगाने के लिए लोग नारे जयकारे लगते रहते है, कभी थपियाते और हिलाते रहते है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

दूसरा प्रचलित प्राथमिक चिकित्सा का तरीका है , सर्प के काटे स्थान से थोड़ा ऊपर ताकत के साथ एक रस्सी या कपडे का बंध बांधना। यह तरीका भी पुरानी प्राथमिक चिकित्सा की पुस्तकों में आम तोर पर पढ़ने को मिलता है परन्तु यह तरीका भी पीड़ित के लिए घातक होसकता है। क्योंकि शरीर के एक ही हिस्से में विष का संग्रहण होजाता है और यह उस अंग के लिए अत्यंत घातक होसकता है। रक्त प्रवाह के सम्पूर्ण रुकने से वैसे भी उस अंग को हानि पहुँच सकती है।

इस बालक को सोते हुए सॉ स्केल्ड वाईपर ने मुँह पर काटने के बाद इन्हे देवता के यहाँ लेजाया गया। कई दिन परेशान होने के बाद धीरे धीरे यद्पि बालक ठीक होगया, परन्तु उसके कोनसे शारीरिक अंगो पर विष का लम्बे समय तक प्रभाव रहेगा कोई नहीं जानता। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

वर्तमान ज्ञान के अनुसार यह अत्यंत प्रचलित प्राथमिक उपचार के दोनों तरीके ही पूर्णतया हानिकारक हो सकते है। तो फिर क्या किया जाए ?
विशेषज्ञ दो प्रकार की रणनीत से चलने की सलाह देते है —- बचाव और उचित इलाज।
बचाव –
  1. सबसे अधिक महत्वपूर्ण है सर्प दंश से बचना, सांप आपके घरो के आस पास अधिक नहीं पनपे इसकेलिए उनके साफ सफाई रखे, अक्सर चूहों आदि को खाने के लिए ही सांप आपके घर के नजदीक आते है। कबाड़ आदि रखे स्थानों को साफ सुथरा रखे।
  2. रात्रि में इधर उधर जानेके लिए प्रकाश की उचित व्यवस्ता रखे। रात्रि विचरण के लिए अच्छी टोर्च को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाये।
  3. सांपो की प्रजातियों को पहचानना सीखे ताकि आप उनके व्यव्हार को समझ सके।
  4. सांपो के साथ उचित दुरी बनाये एवं सावधानी बरते, अनेको बार लापरवाही के कारण सांप पकड़ने वाले प्रशिक्षित व्यक्ति भी सर्पदंश के शिकार बन जाते है।

प्राथमिक चिकित्सा एवं इलाज :

  1. बांधना एवं काटना नहीं करे , जिसका जिक्र हम शुरू में कर चुके है। परन्तु सांप के काटे हुए स्थान पर एक साफ कपडा लपेटे , जिसे आप हलके दबाव के साथ बंध सकते है, परन्तु तेज ताकत के साथ कदापि नहीं।
  2. पीड़ित व्यक्ति को शांत रखे एवं उसका होंसला बढ़ाते रहे।
  3. व्यक्ति को बिना दौड़ाये / भगाये चिकित्शालय तक पहुंचाए, इसके लिए वाहन का इस्तेमाल करे। यदि वाहन उप्लंध नहीं हो तो दुपहिया वाहन का इस्तेमाल करे एवं दो जनो के बीच में पीड़ित को बैठा कर अस्पताल लेकर जाना चाहिए ।
  4. अस्पताल में यदि किसी को जानते है तो उनको पीड़ित के पहुंचने से पहले सूचित कर दे, ताकि वह बिना समय गवाए पहले ही संशाधनो की व्यवस्था कर सके।
  5. अधिक सांप पाये जाने वाले क्षेत्र में रहने वाले लोग आस पास के अस्पताल के बारे में जानकारी रखे क्या वाहन एवं सर्प दंश से सम्बंधित इलाज उपलब्ध है।
  6. एंटीवेनम का इस्तेमाल मात्र प्रशिक्षित डॉक्टर ही कर सकता अतः अपने पास इनका अनावस्यक संग्रहण नहीं करे एवं स्वयं इसका इस्तेमाल तो कदापि नहीं करे।
  7. सर्प दंश में जिस एंटीवेनम- पॉलीवालेन्ट स्नेक एंटीवेनम का भारत में इस्तेमाल किया जाता है वह भारत के चार प्रमुख विषैले सांपो के विष के लिए प्रभावी है परन्तु फिर भी सांप की प्रजाति अगर पहचान सकते है तो इलाज आसान होता है। अतः उसे पहचान ने का प्रयास करे एवं डॉक्टर को ठीक से वर्णित करे।
  8. कई बार डॉक्टर को भी सांप के काटे के इलाज का अनुभव नहीं होता है, अतः आस पास के सर्प विशेषज्ञ से मदद लेकर उन्हें अनुभवी डॉक्टर से राय मशविरा करवाया जा सकता है।
  9. अक्सर निजी अस्पताल सांप के काटे का इलाज करते है परन्तु जिले के मुख्य सरकारी अस्पताल में यह पूर्णतया मुफ्त है, चूँकि एंटीवेनम की दवा को लाइफ सेविंग ड्रग की श्रेणी में रखा गया है, अतः वह इनका पर्याप्त स्टॉक भी रखना उनके लिए अनिवार्य है । एंटीवेनम की दवा महंगी होती है अतः आम जनता सरकार की योजना का लाभ भी इन्ही सरकारी अस्पतालों में ही उठा सकती है।

सांप के देवता के मंदिर में आये चढ़ावे आदि को समेटते प्रबंधक और पुजारी (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

इस प्रकार राजस्थान के विशाल भू भाग जहाँ अधिकांश जनता ग्रामीण इलाकों में रहती है, सर्प दंश से प्रभावित होसकती है। आवस्यकता है इसके बाद उचित इलाज लेने की। सांप हमारे पर्यवरण के महत्वपूर्ण घटक है इन्हे बचाना भी आवश्यक है। आप थोड़ी सावधानी से सर्प दंश से बच सकते है इनके शिकार आप नहीं आपका शत्रु चूहा है। असावधानी वश आपका इनसे प्रभावित होसकते है। अंधविश्वास से दूर रहे सही वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर निर्णय लेकर अपनी और अपने मित्रो की जान बचाये एवं सांप की भी जान बचाये।