जोड़बीड़: एक गिद्ध आवास

जोड़बीड़: एक गिद्ध आवास

जोड़बीड़, एशिया का सबसे बड़ा गिद्ध स्थल, जो राजस्थान में प्रवासी पक्षियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान भी है, गिद्धों की घटती आबादी के लिए प्राकृतिक आवास व भोजन व्यवस्था का श्रोत है…

जोड़बीड़ गिद्ध आवास को लेकर पुरे दक्षिणी एशिया में अपना एक अलग ही स्थान रखता है । 1990 के दशक मे जहाँ पूरी दुनिया से गिद्ध समाप्त हो रहे थे वहीँ दूसरी ओर राजस्थान वो प्रदेश था जिसने उनके प्राकृतिक आवास व भोजन व्यवस्था को बनाये रखा। वैज्ञानिक अनुसंधानों ने गिद्धों की गिरती हुई आबादी का प्रमुख कारण मवेशियों में उपयोग होने वाली दर्दनिवारक दवाई डिक्लोफेनाक (Diclofenac) को माना। एक तरफ गिद्धों की संख्या निरंतर गिरती गयी तो वहीँ जोड़बीड़ गिद्ध आवास बीकानेर में उनकी संख्या वर्ष 2006 के बाद निरंतर बढती गयी और इसका प्रमुख कारण था भोजन की प्रचुर मात्रा। जोड़बीड़ बीकानेर जिले में मृत मवेशियों और ऊंटों के शवो के लिए एक डंपिंग ग्राउंड है।

यह संरक्षण रिजर्व 56.26 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है और गिद्ध दृष्टि से एक महत्वपूर्ण स्थल है। घास और रेगिस्तानी पौधे यहाँ की मुख्य वनस्पति है जो यहाँ और वहाँ बहुत दुर्लभ पेड़ों से लाभान्वित है। जोड़बीड़ मृत पशु निस्तारण स्थल के एक तरफ ऊंट अनुसंधान केंद्र, अश्व अनुसंधान केंद्र और दूसरी तरफ बीकानेर शहर है।

जोड़बीड़ में एक साथ लगभग 5000 गिद्ध व शिकारी पक्षियों को देखा जा सकता है (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

बीकानेर का इतिहास 1486 ई. का है, जब जोधपुर के संस्थापक राव रावजी ने अपने पुत्र को अपना राज्य स्थापित करने की चुनौती दी। राजकुमार राव बीकाजी के लिए, राव जोधाजी के पांच बेटों में से एक पुत्र जंगलवासी जांगल, ध्यान बिंदु बन गया और उन्होंने इसे एक प्रभावशाली शहर में बदल दिया। उन्होंने 100 अश्वारोही घोड़ों और 500 सैनिकों के साथ अपना काम पूरा किया और शंखलास द्वारा छोड़े गए 84 गाँवों पर अपना राज्य स्थापित किया। अपनी प्रभावशाली सेना के लिए उंट, घोड़े व मवेशी रखने के लिए बीकानेर शहर के पास गाड़वाला के बीड (जोड़बीड़) में स्थान निर्धारित किया जिसे रसाला नाम से भी जाना गया।

आधुनिक बीकानेर के सबसे प्रतिष्ठित शासक, महाराजा गंगा सिंह (1887-1943) की दूरदर्शिता का परिणाम रहा की जोड़बीड़ में  भेड़ पालन का कार्य भेड़ अनुसंधान केंद्र, अविकानगर जयपुर की सहायता से शुरु हो पाया। जोड़बीड़ का एक बड़ा भाग ऊंढ़ व अश्व अनुसंधान के पास रहा जो बाद में वन अधिनियम बनने के बाद चारागाह भूमि (जो उंट के लिए होती थी) वन का भाग बन गयी। वर्तमान मे जोड़बीड़ गिद्ध स्थल पिछले 30 वर्षों में 6 बार विस्थापित हुआ परन्तु 2007 में स्थानीय कलेक्टर महोदय के द्वारा जोड़बीड़ संरक्षण स्थान बनने से पहले मृत पशुओं के लिए निर्धारित कर दिया गया। चूंकि जोड़बीड़ में मृत पशुओं के रूप में पर्याप्त भोजन है और जैसा कि यह स्थान गिद्धों के प्रवास मार्ग में स्थित है, यह उनके लिए स्वर्ग से कम नहीं है। बिल्डरों और ग्रामीणों द्वारा किसी भी अतिक्रमण को रोका जा सके इसको सुनिश्चित करने के लिए वन विभाग ने इस क्षेत्र को एक जोड़बीड़ अभयारण्य के रूप में घोषित कर दिया है। जिले के शहरी भाग, गंगाशहर, भीनाशहर, दूध डेरियों से मृत शव पार्क के पश्चिमी  भाग (बीकानेर पश्चिम रेल्वे स्टेशन) में डाले जाते हैं। आसपास के गाँवों व शहरों से गर्मियों में लगभग 100-120 शव व सर्दियों में 170-200 शव (छोटे व बड़े पशु ) निस्तारित किये जाते हैं।

जोड़बीड़ बीकानेर जिले में मृत मवेशियों और ऊंटों के शवो के लिए एक डंपिंग ग्राउंड है (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

शिकारी पक्षी अक्सर भोजन श्रृंखला के शीर्ष पर होते हैं तथा यह पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य के संकेतक होते है (फोटो: श्री नीरव भट्ट)

गिद्ध, जिनका उद्देश्य पर्यावरण से मृत शवों को साफ करना है, इस काम के लिए प्रकृति की सबसे अच्छी रचना हैं। यद्यपि ऐसे अन्य जानवर भी हैं जो समान कार्य करते हैं पर गिद्ध इसे अधिक कुशलता से करते हैं। भारत के विभिन्न हिस्सों में गिद्धों की नौ प्रजातियां पायी जाती हैं। ये प्रजातियां Long-billed Vulture, Egyptian Vulture, Bearded Vulture, White-rumped Vulture, Slender-billed Vulture, Himalayan griffon Vulture, Eurasian griffon Vulture, Cinereous Vulture, Red-headed Vulture हैं। डिक्लोफेनाक, जो मवेशियों में दर्द निवारक के रूप में प्रयोग की जाती है से मृत्यु के कारण इनकी आबादी में 90-99% की कमी देखी गई है। गिद्धों द्वारा खाए जाने पर, इन जानवरों का शव गुर्दे की विफलता के कारण उनकी मृत्यु का कारण बनता है। व्यापक शिक्षा और पशु चिकित्सा में डाइक्लोफेनाक के उपयोग पर प्रतिबंध के कारण, गिद्ध आबादी एक छोटे से विकास को देख रही है, लेकिन कुल मिलाकर स्थिति अभी भी लुप्तप्राय स्तर पर ही है।

Cinereous Vulture मध्य पूर्वी एशिया से प्रवास कर भारत में आते है (फोटो: श्री नीरव भट्ट)

जोड़बीड़ अभ्यारण्य Black kite, steppe eagle, Greater spotted eagle, Indian spotted eagle, Imperial eagle, White tailed eagle आदि जैसे विभिन्न प्रकार के रैप्टर्स (शिकारी पक्षियों) को भी आकर्षित करता है। लगभग 5000 गिद्ध व रेप्टर यहां पाए जा सकते हैं, प्रवासी प्रजातियां Eurasian griffon Vulture स्पेन और टर्की, Cinereous Vulture मध्य पूर्वी एशिया तथा Himalayan griffon Vulture तिब्बत और मंगोलिया से आते हैं।

Himalayan Griffon Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

Eurasian Griffon Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

शिकारी पक्षी अक्सर भोजन श्रृंखला के शीर्ष पर होते हैं तथा यह पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य के संकेतक होते है। अगर प्रकृति में ये पक्षी किसी भी प्रकार से प्रभावित होते हैं तो उसके परिणाम स्वरूप पारिस्थितिक तंत्र में अन्य जानवर भी खतरे में हो जाता हैं। जोड़बीड़ न केवल गिद्धों बल्कि अन्य शिकारी पक्षियों के लिए भी महत्वपूर्ण स्थान है। अभ्यारण्य के आसपास का क्षेत्र जो खेजरी और बेर के पेड़ों के साथ एक खुली भूमि है तथा यहाँ डेजर्ट जर्ड नामक छोटा कृंतक देखा जा सकता है जो बाज का भोजन है तथा बाज को इसका शिकार करते हुए देखा भी जा सकता है।

Egyptian Vulture (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

Long-legged buzzard (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

शिकारी पक्षियों के अलावा अभ्यारण्य में Ashy Prinia, Black winged Stilt, Citrine Wagtail, Common Pochard, Common Redshank, Eurasian Coot, European Starling, Ferruginous Pochard, Gadwall, Great Cormorant, Isabelline Shrike, Isabelline Wheatear, Kentish Plover, Little Grebe, Ruff, Shikra, Variable Wheatear आदि भी सर्दियों में आसानी से देखे जाते हैं। यहाँ Yellow eyed Pigeon (Columba eversmanni) कज़ाकिस्तान से अपने प्रवास के दौरान आते हैं तथा यहाँ मरू लोमड़िया, भेड़िया, जंगली बिल्ली, जंगली सूअर इत्यादी भी आसानी से देखे जा सकते है।

गिद्ध हमारे पारिस्थितिक तंत्र का अभिन्न अंग है ये मृत जीवों को खाकर पर्यावरण को साफ-सुथरा रखते हैं (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)

स्थानीय रूप से वन विभाग द्वारा आने वाले प्रवासी पक्षियों के लिए अनुकूल व्यवस्था की गयी है परन्तु जल स्त्रोत की कमी, मृत पशुओ के शरीर से निकलने वाली प्लास्टिक, शहरों से आने वाले आवारा पशु व कुत्ते व्यवस्था प्रबंधन मे बाधक सिद्ध हो रहे हैं। इनके अलावा मृत पशु निस्तारण स्थल के पास निकलने वाली रेल्वे लाइन व गावों मे जाने वाली बिजली के तार गिद्धों व शिकारी पक्षियों को मौत के घाट उतार रहे है। आवारा कुत्तों की उपस्थिति पक्षियों और पर्यटकों दोनों के लिए खतरा पैदा करती है। ये कुत्तों इतने क्रूर होते है की वे भोजन करते समय गिद्धों को परेशान करते हैं। इसके अलावा अभ्यारण्य में खेजड़ी, साल्वाडोरा, बेर, केर और नीम के वृक्षों का बहुत सीमित रोपण है।

Credits:

Cover Photo- Mr. Nirav Bhatt

 

 

 

 

 

 

Hamir – The Fallen Prince of Ranthambhore

Hamir – The Fallen Prince of Ranthambhore

यह पुस्तक श्री अर्जुन आनंद द्वारा लिखित एक कॉफी टेबल फोटोग्राफी पुस्तक है जो विश्व प्रसिद्ध रणथंभौर नेशनल पार्क के लोकप्रिय बाघों की तस्वीरों व् उनके जीवन को साझा करती है तथा इस पुस्तक में स्थानीय लोगों के बीच “हमीर (T104)” नाम से प्रसिद्ध बाघ पर विशेष ध्यान दिया गया है। हमीर एक शानदार जंगली बाघ है, जो रणथम्भौर उद्यान में पैदा हुआ है, लेकिन तीन मनुष्यों को जान से मार देने के कारण एक मानव-भक्षक घोषित किया गया तथा आजीवन कारावास में बंद कर दिया गया। इस पुस्तक में 160 से अधिक तस्वीरें हैं। हालांकि, विशेषरूप से इस पुस्तक का केंद्र बाघ हमीर और रणथम्भौर के अन्य बाघ हैं परन्तु यह उद्यान की व्यापक झलक भी प्रदान करती है। यह रणथम्भौर के वन्य जीवन के बारे में जानने व रुचि रखने वालों के लिए एक अच्छा दस्तावेज रहेगा।

बाघ हमीर (T104) (फोटो: श्री अर्जुन आनंद)

 

रणथम्भौर का प्रसिद्ध बाघ हमीर (T104) (फोटो: श्री अर्जुन आनंद)

अर्जुन आनंद, एक भारतीय फ़ोटोग्राफ़र हैं। वह दुनिया के विभिन्न देशों में यात्रा करते हैं और लोगों व् प्राकृतिक परिदृश्यों की तस्वीरें खींचते हैं, लेकिन वन्यजीवों के प्रति यह सबसे अधिक भावुक हैं। इन्हें वन्यजीवों के साथ हमेशा से ही लगाव रहा है। इसकी शुरुआत 1980 के दशक में बांधवगढ़ नेशनल पार्क की यात्राओं से हुई जब वे अपने परिवार के साथ वहां घूमने जाते थे।

हमीर पुस्तक के लेखक “श्री अर्जुन आनंद”

अर्जुन अपने काम के साथ लगातार नए प्रयोग करते रहते हैं, जिसमें से कुछ वबी-सबी जापानी सिद्धांत, मिनिमैलिस्म के सिद्धांत (Principles of minimalism) है। ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें इनकी प्रथम पसंद हैं क्यूंकि इस प्रकार की तस्वीरों में रंगों की बाधा नहीं होती तथा दर्शक विषय के साथ बेहतर जुड़ने में सक्षम होते हैं। यहां तक ​​कि प्रकृति से घिरे जंगल में भी, अर्जुन दर्शकों के लिए एक भावनात्मक अनुभव बनाने के लिए जीवन की स्थिरता और शांति को फोटोग्राफ करते हैं।

 

 

 

 

 

 

काँटेदार झाऊ-चूहा

काँटेदार झाऊ-चूहा

शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना उद्विकास की कहानी का एक बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है। हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते।

प्रकृति में उद्विकास की प्रक्रिया के दौरान अनेक जीवों ने बदलते पर्यावास में अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए विभिन्न सुरक्षा प्रणालियों को विकसित किया है। कुछ जीवों ने सुरक्षा के लिए झुंड में रहना सीखा, तो बिना हाथ-पैर भी सफल शिकार करने के लिए सांपो ने जहर व जकड़ने के लिए मजबूत मांसपेशियाँ विकसित की। वही कुछ जीवों ने छलावरण विकसित कर अपने आप को आस-पास के परिदृश्य में अदृश्य कर लिया। शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना इस उद्विकास की कहानी का बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है।

हड्डियों के समान बाल अवशेषी रूप में अच्छे से संरक्षित नहीं हो पाते इसी कारण यह बताना मुश्किल है की धरती पर पहला काँटेदार त्वचा वाला जीव कब अस्तित्व में आया होगा। फिर भी उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों के अनुसार फोलिडोसीरूस (Pholidocerus) नामक एक स्तनधारी जीव आधुनिक झाऊ-चूहों व अन्य काँटेदार त्वचा वाले जीवों (एकिड्ना व प्रोकुपाइन (Porcupine) जिसे हिन्दी में सहेली भी कहते है) का वंशज माना जाता है, जिसका लगभग चार करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आना ज्ञात होता है। झाऊ-चूहे वास्तव में चूहे नहीं होते अपितु छोटे स्तनधारी जीवों के अलग समूह जिन्हे ‘Erinaceomorpha कहते है से संबंध रखते है। जबकि चूहे वर्ग Rodentia से संबंध रखते है जो अपने दो जोड़ी आजीवन बढ़ने वाले आगे के incisor दाँतो के लिए जाने जाते है ।

झाऊ-चूहों में त्वचा की मांसपेशियां स्तनधारी जीवों में सबसे अधिक विकसित व सक्रिय होती है जो की खतरा होने पर काँटेदार त्वचा को फैलाकर लगभग पूरे शरीर को कांटों से ढक देती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

झाऊ-चूहे के शरीर पर पाये जाने वाले कांटे वास्तव में किरेटिन नामक एक प्रोटीन से बने रूपांतरित बाल ही होते है। यह वही प्रोटीन है जिससे जीवों के शरीर में अन्य हिस्से जैसे बाल, नाखून, सींग व खुर बनते है। किसी भी परभक्षी खतरे की भनक लगते ही ये जीव अपने मुंह को पिछले पैरो में दबाकर शरीर को “गेंद जैसी संरचना” में ढाल लेते है। इनकी त्वचा की मांसपेशियों में कुछ अनेच्छिक पेशियों की उपस्थिति यह दर्शाती है की खतरे की भनक तक लगते ही तुरंत काँटेदार गेंद में ढल जाना कुछ हद तक झाऊ-चूहों की एक उद्विकासीय प्रवृति है। यह ठीक उसी तरह है जैसे काँटा चुभने पर हमारे द्वारा तुरंत हाथ छिटक लेना। सुरक्षा की इस स्थिति में झाऊ-चूहे कई बार परभक्षी को डराने हेतु त्वचा की इन्हीं मांसपेशियों को फुलाकर शरीर का आकार बढ़ा भी लेते है व नाक से तेजी से हवा छोड़ सांप की फुफकार जैसी आवाज निकालते है।

विश्व भर में झाऊ चूहों की कुल 17 प्रजातियाँ पायी जाती है जो की यूरोप, मध्य-पूर्व, अफ्रीका व मध्य एशिया के शीतोष्ण व उष्णकटिबंधीय घास के मैदान, काँटेदार झाड़ी युक्त, व पर्णपाती वनों में वितरित है। आवास के मुताबिक शीतोष्ण क्षेत्र की प्रजातियाँ केवल बसंत व गर्मी में ही सक्रिय रहती है एवं सर्दी के महीनों में शीत निंद्रा (Hibernation) में चली जाती है। भारत में भी झाऊ चूहों की तीन प्रजातियों का वितरण ज्ञात होता है जो की पश्चिम के सूखे इलाकों से दक्षिण में तमिलनाडु व केरल तक वितरित है ।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा (Indian long-eared Hedgehog) जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते है का वैज्ञानिक नाम Hemiechinus collaris है। यह प्रजाति सबसे पहले औपनिवेशिक भारत के ब्रिटिश जीव विज्ञानी थॉमस एडवर्ड ग्रे द्वारा 1830 में गंगा व यमुना नदी के बीच के क्षेत्र से पहचानी गयी थी। इसी क्षेत्र से इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ एकत्रित किया गया था जिसका चित्रण सर्वप्रथम ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी ने “इल्लुस्ट्रेसन ऑफ इंडियन ज़ूलोजी” में किया था।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहे का सबसे पहला चित्र ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी द्वारा बनाया गया तथा वर्ष 1832 में उनकी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” में प्रकाशित किया था। जनरल थॉमस हार्डविक (1756- 3 Mar 1835) एक अंग्रेजी सैनिक और प्रकृतिवादी थे, जो 1777 से 1823 तक भारत में थे। भारत में अपने समय के दौरान, उन्होंने कई स्थानीय जीवों का सर्वेक्षण करने और नमूनों के विशाल संग्रह बनाया। वह एक प्रतिभाशाली कलाकार भी थे और उन्होंने भारतीय जीवों पर कई चित्रों को संकलित किया तथा इन चित्रों से कई नई प्रजातियों का वर्णन किया गया था। इन सभी चित्रों को जॉन एडवर्ड ग्रे ने अपनी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” (1830-35) में प्रकाशित किया था। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

यह प्रजाति मुख्यतः राजस्थान व गुजरात के शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के साथ- साथ उत्तर में जम्मू , पूर्व में आगरा, पश्चिम में सिंधु नदी, व दक्षिण में पूणे तक पायी जाती है। गहरे भूरे व काले रंग के कांटों वाली यह प्रजाति अन्य दो प्रजातियों की तुलना में आकार में बड़ी होती है। इसके कानों का आकार पिछले पैरों के आकार के बराबर होता है जिस कारण इनके कान कांटों की लंबाई से भी ऊपर दिखाई पड़ते है। झाऊ-चूहे की ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चले जाती है। हालांकि इनका शीत निंद्रा में जाना इनके वितरण के स्थानों पर निर्भर होता है क्योंकि सर्दी का प्रभाव वितरण के सभी इलाकों पर समान नहीं होता है। मरुस्थलीय झाऊ-चूहे मुख्यतः सर्वाहारी होते है जो की कीड़ों, छिपकलियों, चूहों, पक्षियों व छोटे सांपो पर भोजन के लिए निर्भर होता है। ये पके हुए फल व सब्जियाँ बिलकुल पसंद नहीं करते है ।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते है तथा ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चले जाती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

मरुस्थलीय झाऊ चूहे के विपरीत भारतीय पेल झाऊ-चूहा Paraechinus mircopus आकार में थोड़ा छोटा व पीले-भूरे कांटों वाला होता है। इसके सर व आंखो के ऊपर चमकदार सफ़ेद बालों की पट्टी गर्दन तक फैली होती है जो इसे मरुस्थलीय झाऊ-चूहे से अलग पहचान देती है। यह प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर अवस्था में चली जाती है। टोर्पोर अवस्था में कोई जीव संसाधनों के अभाव की परिस्थिति में जीवित रहने के लिए अल्पावधि निंद्रा में चले जाते है एवं संसाधनों की बाहुल्यता पर पुनः सक्रिय हो जाते है। अपरिचित पर्यावास में आने पर ये प्रजाति अपने शरीर व कांटो को अपनी लार से भर लेती है। ऐसा शायद अपने इलाके को गंध द्वारा चिह्नित करने या नर द्वारा किसी मादा को आकर्षित करने के लिया हो सकता है परंतु इस व्यवहार का सटीक कारण एक शोध का विषय है। भारतीय पेल झाऊ-चूहे, मरुस्थलीय झाऊ-चूहे की तुलना में बहुत दुर्लभ ही दिखाई देते है व इनका वितरण भी सीमित इलाकों तक ही है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहे का सबसे पहला विवरण ब्रिटिश जीव विज्ञानी एडवर्ड ब्लेथ ने 1846 में दिया जब उन्होने इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के भावलपुर क्षेत्र से एकत्रित किया था। इस प्रजाति का भौगोलिक वितरण मरुस्थलीय झाऊ-चूहे के वितरण के अलावा थोड़ा ओर अधिक दक्षिण तक फैला हुआ है जहां यह तमिलनाडु व केरल में पाये जाने वाले मद्रासी झाऊ-चूहे या दक्षिण भारतीय झाऊ-चूहे Paraechinus nudiventris से मिलता है। मद्रासी झाऊ-चूहा भारत में झाऊ चूहे की सबसे नवीनतम पहचानी गयी प्रजाति है जो पहले भारतीय पेल झाऊ-चूहे की उप-प्रजाति के रूप में जानी जाती थी। इसका सबसे पहला ‘टाइप स्पेसिमेन’ जैसा की इसके नाम से ज्ञात होता है मद्रास से ही एक ब्रिटिश जीव विज्ञानी होर्सेफील्ड ने 1851 में किया था। हालांकि ये दोनों प्रजातियाँ दिखने में काफी समान होती है परंतु मद्रासी झाऊ-चूहा अपने अधिक छोटे कानों व हल्के भूरा रंग के कारण अलग पहचाना जा सकता है। मद्रासी झाऊ-चूहे का वितरण केवल तमिलनाडु व केरल के कुछ पृथक हिस्सों से ही ज्ञात है जिससे इसे यहाँ की स्थानिक प्रजाति का दर्जा प्राप्त है। ये दोनों प्रजातियाँ मुख्यतः सर्वाहारी होती है जो की अवसर मिलने पर कीड़ो व छोटे जीवों के साथ पके हुए फल व सब्जियाँ भी चाव से खाती है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहा (Indian pale Hedgehog), प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर अवस्था में चली जाती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

झाऊ–चूहे की ये तीनों प्रजातियाँ मुख्य रूप से निशाचर होती है तथा दिन का समय अपनी संकरी माँद में आराम करते ही बिताती है। इनकी माँद एक सामान्य पतली व छोटी सुरंग के समान होती है जिसे एक चूहा दूसरों के साथ साझा नहीं करता। साल के अधिकांश समय अकेले रहने वाले ये जीव केवल प्रजनन काल में ही साथ आते है जिसमें एक नर एक से अधिक मादाओं के साथ मिलन का प्रयास करता है। नर बच्चों  के पालन-पोषण में कोई भागीदारी नहीं निभाते है। कुछ लेखों के अनुसार भारतीय पेल झाऊ-चूहो में स्वजाति-भक्षिता भी पायी जाती है, जिसमें नर व मादा दोनों ही भोजन की कमी में अपने ही बच्चों को खाते देखे गए है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहा, व्यवहार की दृष्टि से ये प्रजाति अधिक स्थानों तक प्रवास नहीं करती एवं आवास सुरक्षित होने पर कई साल तक एक ही माँद का प्रयोग कर उसके आस-पास के इलाकों में ही विचरण करती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते। सांपो के शिकार के लिए कुख्यात नेवले इन छोटे काँटेदार जीवों को भी आसानी से शिकार बना लेते है। फ़ौना ऑफ ब्रिटिश इंडिया के एक लेख में जीव विशेषज्ञ ई -ऑ ब्रायन अपने एक अवलोकन के बारे में बताते है जिसमें एक भारतीय नेवला गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट कर उसके बन्द मुंह के हिस्से पर तब तक वार करता है जब तक उसे शरीर का कोई हिस्सा पकड़ में नहीं आता। काफी लंबे चलते इस संघर्ष के अंत में उसे झाऊ चूहे का मुंह पकड़ में आ ही जाता है व उसे पास के झाड़ी में ले जाकर खाने लगता है।

मरुस्थलीय परिवेश में लोमड़ी द्वारा झाऊ-चूहे के शिकार की प्रक्रिया संबंधी एक किंवदंती बहुत प्रचलित है। इसके अनुसार चालक लोमड़ी गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट उसके बन्द मुंह के हिस्से पर पेशाब कर देती है। मूत्र की गंदी महक से निजात पाने झाऊ-चूहा जैसे ही अपनी नाक को हल्का सा बाहर निकलता है, लोमड़ी झट से उसे पकड़ लेते है व खींच कर उसे काँटेदार चमड़ी से अलग कर देती है। हालांकि इस किंवदंती सटीकता पर चर्चा की जा सकती है लेकिन लोमड़ियों की मांदों के आस-पास अकसर दिखने वाले काँटेदार चमड़ी के ढेर सारे अवशेष लोमड़ी के भोजन में झाऊ चूहो की प्रचुरता को स्पष्ट जरूर करते है। झाऊ चूहो की इन भारतीय प्रजातियों की पारिस्थितिकी व व्यवहार संबंधित जानकारी बहुत ही सीमित है इसी कारण संरक्षण हेतु इनके वितरण व व्यवहार पर अधिक शोध की आवश्यकता है।

 

रसेल्स वाइपर में नर संग्राम

रसेल्स वाइपर में नर संग्राम

रसेल्स वाईपर, भारत के सबसे खतरनाक 4 साँपों में से एक। दो नर सांप संग्राम नृत्य का प्रदर्शन करते हैं जिसमें वह एक दूसरे के चारों ओर लिपटकर एक दूसरे को वश में करने के लिए अपने ऊपरी शरीर को उठाते हैं, जिसे देखकर यह प्रतीत होता है की वह ‘नृत्य’ कर रहे हैं।

दिनांक: 30. 10 .2020

समय: 4.13 बजे

तापमान: 29 से 30 डिग्री सें

स्थान: कुतलपुरा गाँव के पास, शेरबाग कैंप सवाई माधोपुर रणथंभौर बाघ रिजर्व के बाहर

निवास स्थान.. झाड़ियों के साथ घास का मैदान

सांप की लंबाई: न्यूनतम 4.5 से 5 फीट

शेरबाग कैंप के कुछ कर्मचारियों ने लम्बी घासों के बीच दो साँपों को एक-दूसरे से साथ लहराते हुए देखा, मानों जैसे वो आपस में लड़ रहे हो और उन्होंने तुरंत कैंप के प्रकृतिवादी को बुलाया। जैसा की सांप लम्बी-लम्बी घास के बीच में थे, प्रकृतिवादी उन्हें अजगर समझ कर उनकी ओर बढ़ा। रसेल्स वाइपर को आमतौर पर गलती से अजगर समझ लिया जाता है।

क्योंकि, संजना कपूर, हमीर थापर और प्रकृतिवादी पियूष चौहान भी साँपों को देख रहे थे, मैंने एक किनारे से देखा की … दोनों सांप धीरे-धीरे लहराते, नाचते हुए लगभग 5 फीट तक ऊपर उठ रहे थे परन्तु उनका निचला भाग मानों एकदूसरे के साथ बंधा हुआ हो। उनका शरीर या पूँछ आपस में उलझा या लिपटा हुआ नहीं था और जैसे शरीर का ऊपरी भाग लहराता निचला भाग बंधा सा रहता। दोनों सापों में किसी भी प्रकार की आक्रामकता और एक दूसरे के छूने से धक्का-मुक्की नहीं थी। मेरा मानना है की वह एक संभोग आलिंगन में लहरा रहे थे। शाम 4:44 बजे वे बंधी स्थिति में ही एक झाड़ी में गायब हो गए। एक सांप की पूंछ लगभग 4 इंच लंबी होती है तथा किसी भी स्तर पर दोनों सापों का निचला भाग और पूंछ अलग नहीं हुई।

मुझे उन पूंछों को देखकर आधे रास्ते में एहसास हुआ कि ये अजगर नहीं बल्कि घातक रसेल्स वाइपर थे। बाद में क्षेत्र के विशेषज्ञों के साथ चर्चा करने पर हमने महसूस किया कि यह दो नरों के बीच का मुकाबला था तथा मादा शायद कहीं पास से देख रही थी। परन्तु यह हमारे लिए बहुत ही उल्लेखनीय अवलोकन था।

रसेल्स वाईपर, भारत के सबसे खतरनाक 4 साँपों में से एक है तथा यह बहुत ही विषैला होता है और यह सीधे बच्चों को जन्म देता हैं।

 

लेखक: श्री वाल्मीक थापर

समीक्षक: श्री वाल्मीक थापर, श्री हमीर थापर, श्रीमती संजना कपूर, श्री पीयूष चौहान

फोटो: श्रीमती संजना कपूर

श्री हमीर थापर और श्री पीयूष चौहान द्वारा फिल्माया गया

 

प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश: जीवनी परिचय

प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश: जीवनी परिचय

प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश थार रेगिस्तान के अत्यंत महत्वपूर्ण जीव वैज्ञानिक रहे है। इनके द्वारा किये गए अनुसन्धान ने रेगिस्तान के जीवों के अनछुए पहलुओं पर रोशनी डाली हैं। उनके जीवन पर डॉ प्रताप ने एक समग्र जानकारी एकत्रित की हैं

प्रारंभिक शिक्षा:

वैसे ईश्वर प्रकाश, जो अपने सहकर्मियों में आई पी (IP) के नाम से मशहूर थे, का जन्म 17 दिसंबर 1931 को मथुरा यू. पी. में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा माउंटआबू में हुई जहां इनका बचपन गुजरा, और शायद इसी लगाव के कारण उन्होंने अपने जीवन का अंतिम शोध प्रोजेक्ट माउंटआबू व अरावली की अन्य पर्वत श्रृंखलाओं पर पूर्ण किया। इस प्रोजेक्ट के अधिकतम भ्रमणों पर वह हमारे साथ चलते थे, व अपने बचपन के कई संस्मरण हम से सांझा करते थे। बचपन में इन्हे छोटे मोटे शिकार का भी शोख रहा था।  इनकी बचपन की इन्हीं वन्यजीव-अंतरक्रियाओं के कारण शायद उन्होंने प्राणीशास्त्र विषय चुना। इनकी बचपन की वन्यजीव संबंधी यादों में सियाह गोश का माउंटआबू में दिखना भी था। जिसे वह अपने हर माउंटआबू भ्रमण पर ढूंढते रहे। इनकी आगे की स्कूली शिक्षा पिलानी में हुई। जहां घर से स्कूल आते-जाते वह दिनभर रेगिस्तानी जरबिल, जोकि एक प्रकार का चूहा है, को घंटों देखते रहते थे व इनकी बाल मन में इनके प्रति आकर्षण विकसित हुआ। इसी जरबिल पर इन्होंने सर्वाधिक शोध कार्य किए व इस पर 100 से अधिक शोध-लेख प्रकाशित किए, जो इसकी वर्गिकी, कार्यिकी, चाराग्राह्यता, गंधग्रंथि से ले कर व्यवहारीकी के विभिन्न पहलुओं पर थे। इनके इन्हीं शोधकार्यों के कारण रेगिस्तानी जरबिल, मेरीओनिस हरीएनी, भारत की सर्वाधिक शोध की गई स्तनधारी प्रजाति है। स्कूली शिक्षा समाप्त होने के पश्चात उन्होंने जीवविज्ञान विषय में स्नातक व प्राणीशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्रियां राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से प्राप्त की। प्राणीशास्त्र में स्नातकोत्तर करने के पश्चात इन्होंने 1957 में इसी विश्वविद्यालय से विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) की डिग्री प्राप्त की। यह कार्य इन्होंने प्रोफेसर दयाशंकर के यूनेस्को प्रायोजित प्रोजेक्ट, रेगिस्तानी स्तनधारी की पारिस्थितिकी अध्ययन में रहते हुए किया। इसी परियोजना में रहते हुए इन्होंने स्तनधारी विशेषज्ञ, खासतौर पर कृंतक विशेषज्ञ, के रूप में खुद को स्थापित किया। 1983 में इनको रेगिस्तानी कृंतको की पारिस्थितिकी व प्रबंधन पर किए कार्यो के लिए डी.एससी. की उपाधि प्रदान की गई। डी.एससी. की उपाधि प्राप्त करने वाले वह राजस्थान के प्रथम शोधार्थी थे।

व्यवसायिक जीवनवृति (प्रोफेशनल करियर):

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि प्रोफेसर प्रकाश ने अपनी आजीविका की शुरुआत राजस्थान विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में की थी। यहां यह महाराजा कॉलेज में प्राणीशास्त्र विषय पढ़ाते थे। इस शिक्षण कार्य के दौरान यह काफी नवपरिवर्तनशील थे। विद्यार्थियों को स्टारफिश की मुख-अपमुखी अक्स को कक्षा में यथार्थ रूप से छाता लाकर रसमझाते थे। इनकी यह प्रयोगात्मक शिक्षणविधि विद्यार्थियों द्वारा काफी सराही जाती थी। वहीं उन के वरिष्ठ सहकर्मी भी इससे प्रभावित थे। जब इन्होंने 1961 में शिक्षणकार्य छोड़कर नवस्थापित केंद्रीय रुक्ष क्षेत्र अनुसंधान केंद्र (सी.ए.जेड.आर.आई.) में प्राणी पारिस्थितिकी विज्ञानशास्त्री के रूप में सेवा ग्रहण करने का निर्णय लिया तो इनके परिवार व सहकर्मियों ने इसका काफी विरोध किया। धुन के पक्के प्रोफेसर प्रकाश ने 31 दिसंबर 1991 तक आई.सी.ए.आर. के इस संस्थान को अपनी कर्म भूमि बना इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। 30 साल के लंबे शोधकार्यों के दौरान उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर की कृंतक अनुसंधान प्रयोगशाला को स्थापित किया। इन्हींके अथक प्रयासों से अखिल भारतीय समन्वय कृंतक शोध परियोजना (ए.आई.सी.आर.पी.) का विन्यास हुआ व वह इसके 1977 से 1982 तक प्रतिष्ठापक परियोजना समन्वयक रहे। इनके प्रतिभा-संपन्न शोधकार्यों को देखते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 1980 में इन्हें प्रोफेसर ऑफ एमिनेंस के पद नवाजा, जिसे इन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति वर्ष 1991 तक सुशोभित किया। सेवानिवृत्ति के पश्चात भी इन्होंने अपने शोधकार्य को अनवरत जारी रखा, जब भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान परिषद, नई दिल्ली ने इन्हें वरिष्ठ वैज्ञानिक का महत्वपूर्ण दर्जा दिया व विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने अरावली श्रृंखला के छोटे स्तनधारियों के अध्ययन हेतु दो शोध परियोजनाएं स्वीकृत की;  जिसे उन्होंने भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के मरू प्रादेशिक केंद्र, जोधपुर में रहते हुए संपन्न किया। यहां आते ही इन्होंने भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के इस केंद्र के सभी वैज्ञानिकों को सक्रिय कर दिया। व इसी का परिणाम भारतीय रेगिस्तान के प्राणीजात के सार-संग्रह के रूप में परिलक्षित हुआ। वह हमेशा वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करते थे व शायद यही कारण था रेगिस्तान में शोधरत पूरे भारत के वैज्ञानिक इनसे सलाह-मशवरा लेने अवश्य आते थे।

एक सरल व्यक्तित्व:

अपनी अद्भुत वैज्ञानिक प्रतिभा के साथ-साथ प्रोफेसर प्रकाश एक मृदुशील व समर्पित इंसान भी थे। इनके साथ की गई हर फील्ड भ्रमण में हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता था। प्राणीविज्ञान व्यवहारीकी के अतिरिक्त वे हमेशा जीवन जीने की कला के बारे में भी ज्ञान देते रहते थे। मानव क्यों प्राणीजगत में सर्वाधिक विकसित है तथा कृंतको की पारिस्थितिकी तंत्र में क्या भूमिका है, जैसे कई प्रश्न जो हमारे नवोदित शोधार्थी मस्तिष्क में आते थे,  वह बहुत सरल भाषा में समझा दिया करते थे। एक और बात जिसके लिए वह हमेशा हमें प्रेरित करते थे कि फील्ड में हर किस्म के प्राणी का अवलोकन करते रहो व अपनी डायरी में इसे रिकॉर्ड करते रहो। इन्हीं की इस प्रेरणा से पक्षियों में मेरा अत्यधिक रुझान उत्पन्न हुआ व इसे मैंने अपना शोधक्षेत्र बना लिया । बाड़मेर के एक भ्रमण के दौरान जब इन्हें एक नई छिपकली प्रजाति मिली तो वह इसे लेकर सी.ए.जेड.आर.आई. आ गए। सरीसृपविद डॉ. आर सी शर्मा को जब इस बात का पता चला तो वह इस बारे में चर्चा करने आए। बातों-बातों में जब इन्होंने हिंट दिया कि स्तनधारियों के भी आप विशेषज्ञ हैं और नया सरीसृप भी आप ही खोजेंगे, उनके इशारों को समझते हुए प्रोफेसर प्रकाश ने वह स्पेसिमेन उठाकर डॉ.शर्मा को दे दिया।

एक श्रेष्ठ शिक्षक, वैज्ञानिक मित्र:

प्रोफेसर प्रकाश एक महान वैज्ञानिक होने के साथ-साथ समर्पित शिक्षक व निष्ठावान मित्र भी थे। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा उनके द्वारा लिखे ढेरों शोधपत्रों, विनिबन्धों व पुस्तकों के रूप में आज भी रेगिस्तान पर शोध करने वालों का मार्गदर्शन करती है। उच्चकोटि का वैज्ञानिक होने के साथ-साथ वे एक प्रेरणादायक शिक्षक भी थे। हालांकि उन्होंने बहुत कम विद्यार्थियों को डॉक्टरेट की उपाधिके लिए मार्गदर्शन दिया परंतु वह अपने सहकर्मियों व वरिष्ठ वैज्ञानिकों के हमेशा रहनुमा रहे। तीन  दशकों से अधिक का उनका शोधकार्य स्तनधारियों के मुख्तलिफ आयाम जैसे वर्गीकरण (कृंतक पहचान की दृष्टि से सर्वाधिक मुश्किल समूह है), पारिस्थितिकी, जैविकी, व्यवहारीकी, कार्यिकी, व कृंतक नियंत्रण आदि पर केंद्रित रहा। प्रोफेसर प्रकाश गंध संप्रेषण संबंधी शोध करने वाले प्रथम भारतीय वैज्ञानिक थे। उन्होंने विभिन्न प्रजातियों में गंध-ग्रंथि की भूमिका पर भी काफी शोध किया। थार रेगिस्तान का प्रोफेसर प्रकाश के ह्रदय में विशेष स्थान था। भारतीय रेगिस्तान का कोई ही कोना होगा, चाहे वह कितना भी दुर्गम हो, जो उनके अन्वेषण से दूर रहा हो। रेगिस्तानी प्रजातियों के लिए वे हमेशा चिंतित रहते थे। वह अतिसंकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण के लिए सदैव तत्पर रहते थे। भारतीय रेगिस्तान से चीता और शेर की विलुप्ति का उन्हें हमेशा रंज रहा। डब्लू.डब्लू.एफ. के साथ मिलकर उन्हों ने चीता को भारत में दोबारा लाने के कई बार प्रयास किए जो फलीभूत नहीं हो सके। वह रेगिस्तान से विलुप्त होते गोडावण, तिल्लोड, बट्टा, काला हिरण, चिंकारा, रेगिस्तानी बिल्ली, रेगिस्तानी लोमड़ी के लिए सदैव संवेदनशील रहे। वह अनेक प्रमुख मंचों से इन्हें बचाने की पुरजोर आवाज उठाते रहे। उनका यह कहना था कि यदि हमें रेगिस्तानी जैवविविधता को बचाना है तो हमें इसके घास के मैदानों को संरक्षित करना होगा व विदेशआगत पौधों से इसे बचाना होगा। डॉ. प्रकाश सरल व्यक्तित्व के साथ-साथ एक सच्चे मित्र भी थे। चाहे वह डॉक्टर पूलक घोष हो, एन.एस. राठौड़ या क्यु. हुसैन बाकरी उनका मित्रवत व्यवहार हमेशा अपने कनिष्ठ व वरिष्ठ साथियों में उन्हें लोकप्रिय बनाए रखता था।

प्रोफेसर ईश्वर प्रकाश द्वारा लिखी गयी कुछ पुस्तकें

एक उर्वर लेखक:

लेखन में डॉक्टर प्रकाश का कोई सानी नहीं था। उन द्वारा लिखे 350 से अधिक शोधपत्र व 20 से अधिक पुस्तकें आज भी रेगिस्तानी पारिस्थितिकी अध्ययन में मील का पत्थर हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व साइंटिफिक पब्लिशर्स के अतिरिक्त उन्होंने कुछ बहुत प्रतिष्ठित प्रकाशको के साथ अपनी पुस्तकें प्रकाशित की। देहरादून की इंग्लिश बुक डिपो द्वारा प्रकाशित थार रेगिस्तान का पर्यावरणीय विश्लेषण व सी.आर.सी. प्रेस द्वारा प्रकाशित रोडेंट पेस्ट मैनेजमेंट पुस्तकें आज भी शोधार्थियों में विशिष्ट स्थान रखती हैं। भारतीय रुक्ष क्षेत्र शोध  संस्थान  (ए.जेड.आर.ए.आई.) के वह संस्थापक सदस्य थे। इस संस्था के वह लगभग दो दशकों तक सचिव रहे व इस संस्था द्वारा आयोजित संगोष्ठी रुक्ष क्षेत्र शोध व विकास में उनकी अतिमहत्वपूर्ण भूमिका रही। इस संस्था का एक और महत्वपूर्ण योगदान एनल्स ऑफ एरिड जोन नामक पत्रिका की शुरुआत करना था जिसका प्रकाशन आज तक अनवरत जारी है। “पब्लिश ओर पेरिश”  यह पंक्तियां वह हमेशा हमें व अपने सहकर्मियों को याद दिलाते रहते थे। एक सक्रिय सदस्य के रूप में वह कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समितियों में अपना योगदान देते रहे, जैसे कि यू.एन. की खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ऑ.), भारत सरकार की कृंतक नियंत्रण विशेषज्ञ समूह, आई.सी.ए.आर., आई.सी.एम.आर., डी.एस.टी., यू.जी.सी., योजना आयोग, भारतीय वन्यजीव शोध संस्थान व पर्यावरण मंत्रालय। एक विशेषज्ञ वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका, थाईलैंड, फिलीपींस, यू.के., फ्रांस, चाइना, कुवैत व इटली आदि देशों का भ्रमण किया। अपने महान वैज्ञानिक जीवन-वृति के दौरान उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया। आई.सी.ए.आर. का रफी अहमद किदवई सम्मान, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का हर स्वरूप मेमोरियल सम्मान इनमें सब से प्रमुख हैं। उन्हें भारतीय विज्ञान परिषद के अनुभागीय अध्यक्ष रहने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक निपुण वैज्ञानिक होने के साथ-साथ प्रोफेसर प्रकाश इमानदारी की मिसाल थे। कुशाग्र बुद्धि प्रशासक होने के बावजूद भी उन्होंने आई.सी.ए.आर.के कई संस्थानों के निदेशक व कई विश्वविद्यालयों में उपकुलसचिव के पद को ठुकरा दिया, क्योंकि विज्ञान और रेगिस्तान उनकी ह्रदय में समाए हुए थे। यह प्रसिद्ध वैज्ञानिक पृथ्वी पर अपनी सार्थक यात्रा पूरी करने के बाद 14 मई 2002 को अनंत काल के लिए रवाना हो गए, परंतु उनके लेख व अद्भुत प्रतिभा आज भी रेगिस्तान की फिजा में महक बिखेर रही हैं।

 

अरावली के सूंदर एवं महत्वपूर्ण वृक्ष

अरावली के सूंदर एवं महत्वपूर्ण वृक्ष

अरावली राजस्थान की मुख्य पर्वत शृंखला है जो छोटे और मध्य आकर के वृक्षों से आच्छादित है, इन वृक्षों में विविधता तो है परन्तु कुछ वृक्षों ने मानो पूरी अरावली में बहुतायत में मिलते है जिनमें सबसे महत्वपूर्ण वृक्षों का विवरण यहाँ दिया गया है।
  1. धोक (Anogeissus pendula) :- यदि रेगिस्तान में खेजड़ी हैं तो, अरावली के क्षेत्र में धोक सबसे अधि० 8क संख्या में मिलने वाला वृक्ष हैं। कहते हैं लगभग 80 प्रतिशत अरावली इन्ही वृक्षों से ढकी हैं।  अरावली का यह वृक्ष नहीं बल्कि उसके वस्त्र हैं जो समय के साथ उसका रंग बदलते रहते हैं।  सर्दियों में इनकी पत्तिया  ताम्बई लाल, गर्मियों में इनकी सुखी शाखाये धूसर और बारिश में पन्ने जैसे हरी दिखने लगती हैं।  अरावली के वन्य जीवो के लिए यदि सबसे अधिक पौष्टिक चारा कोई पेड़ देता हैं तो वह यह हैं। इनके उत्तम चारे की गुणवत्ता के कारण लोग अक्सर इन्हे नुकसान भी पहुंचाते रहते हैं।  इनकी कटाई होने के बाद इनका आकर एक बोन्साई के समान बन जाता हैं, एवं पुनः पेड़ बनना आसान नहीं होता क्योंकि अक्सर इन्हे बारम्बार कोई पालतू पशु चरते रहते हैं, और इनके बोन्साई आकार को बरकरार रखते हैं।  यदि खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष नहीं होता तो शायद धोक को यह दर्जा मिलता।

2. तेन्दु एवं विषतेन्दु (Diospyros Melanoxylon) and (Diospyros cordifolia) :- बीड़ी जलाईल ले … जिगर मा बड़ी आग है
बस हर साल इस जिगर की आग को बुझाने के लिए हम बीड़ी के रूप में 3 से 4 लाख टन तेंदू के पत्ते जला देते हैं। तेन्दु का उपयोग बीड़ी के उत्पादन के लिए किया जाता है। देश में इनका अत्यधिक उत्पादन होना , उम्दा स्वाद होना, पते का लचीलापन, काफी समय तक आसानी से नष्ट नहीं होना और आग को बनाए रखने की क्षमता के कारण तेन्दु की पतियों को बीड़ी बनाने के लिए काम लिया जाता है ।जाने कितने लोग बीड़ी बनाने और पते तोड़ने के व्यापर में शामिल है। स्थानीय समुदायों को यह जीवनयापन के लिए एक छोटी कमाई भी देता है। तेंदू चीकू (सपोटा) परिवार से संबंधित है और वे स्वाद में भी कमोबेश इसी तरह के होते है। तेन्दु या टिमरू के फल को खाने का सौभाग्य केवल भालु, स्थानीय समुदाय और वन रक्षको को ही मिलता है।तेंदू के पेड़ का एक और भाई है- जिसे विषतेन्दु (डायोस्पायरस कॉर्डिफोलिया) कहा जाता है, जिसके फल मनुष्यों के लिए खाने योग्य नहीं बल्कि बहुत ही कड़वे होते हैं, लेकिन कई जानवर जैसे कि सिवेट इन्हें नियमित रूप से खाते हैं।विष्तेन्दु वृक्ष एक छोटी हरी छतरी की तरह होता है और चूंकि यह पतझड़ी वन में एक सदाबहार पेड़ है, बाघों को इनके नीचे आराम करना बहुत पसंद है। आदित्य सिंह हमेशा कहते हैं कि अगर आप गर्मियों में बाघों को खोजना चाहते हैं तो विष्तेन्दु के पेड़ के निचे अवस्य खोज करें। मैंने बाघ के पर्यावास की एक तस्वीर साझा की और आपको आसानी से पता चल जाएगा कि बाघों के लिए सबसे अच्छा पेड़ कौन सा है और यह छोटा हरा छाता क्यों एक अच्छा बाघों का पसंदीदा स्थान होता है? आप तस्वीर में पेड़ अवस्य ढूंढे।

3. कडायाSterculia urens ):-इसे  स्थानीय रूप से कतीरा, कडाया (कतीरा या कडाया गोंद के लिए प्रसिद्ध) कहा जाता है, लेकिन सबसे लोकप्रिय नाम है ‘घोस्ट ट्री’ है क्योंकि जब वे अपने पत्तों को गिराते देते हैं तो इसके सफेद तने एक मानव आकृति का आभास देते हैं।मेरे वनस्पति विज्ञान के एक प्रोफेसर ने इसे एक प्रहरी वृक्ष के रूप में वर्णित किया है क्योंकि यह आमतौर पर पहाड़ो के किनारे उगने वाला यह पेड़, किलों की बाहरी दीवार पर खड़े प्रहरी (गार्ड) की तरह दिखता है।यह के पर्णपाती पेड़ है और सभी पर्णपाती पेड़ जल संसाधनों का उपयोग बहुत मितव्ययीता से करते है लेकिन इनके पत्तों का आकर विशाल होता है और उनके उत्पादन में कोई कमी नहीं होती। अरावली पहाड़ियों में कतीरा पेड़ के संभवतः सबसे बड़ा पत्ता होते है; उनकी पत्तियाँ बहुत नाज़ुक और पतली होती हैं और वे पूरे वर्ष के लिए कुछ महीनों में पर्याप्त भोजन बनाने में सक्षम भी होती हैं। यह पर्णपाती पेड़ों की एक रणनीति का हिस्सा है कि उनके पास हरे पेड़ों की तुलना में बड़े आकार के पत्ते हैं, जो यह सुनिश्चित करते है कि प्रकाश संश्लेषण की दर और प्रभावशीलता अपेक्षाकृत अधिक रहे ।कतीरा का विशिष्ट सफेद चमकता तना चिलचिलाती धूप को प्रतिबिंबित करदेता हैं और यह भी पानी के नुकसान को कम करने के लिए एक और अनुकूलन है। अधिकांश पर्णपाती पेड़ो पर फूलो की उत्पती उस समय होती है जब वे सरे पत्ते झाड़ा देते है, उस समय के दौरान परागण की संभावना बढ़ जाती है । घनी पत्तियां से होने वाली रुकावटों के कारण परागण में बाधा होती हैं I कुछ मकड़ियों ने पश्चिमी घाट में कीड़ों का शिकार करने के लिए अपने आप को इस पेड़ के साथ अनुकूलित किया है। कतीरा के पेड़ पर कुछ मकड़ियों को आसानी से देखा जा सकता है जैसे कि फूलों पर प्यूसेटिया विरिडान और उनकी तने पर पर हर्नेनिया मल्टीफंक्टा।मानव आवासों के नजदीक, हम तेजी से उन्हें विदेशी सदाबहार पेड़ पौधे लगा रहे है जो जैव विविधता के साथ जल संरक्षण के लिए भी हानिकारक है I

4. गुरजणLannea coromandelica ):-वृक्ष पक्षीयो के बड़े समूहों के लिए पसंदीदा बसेरा है, पत्तों से लदे वृक्ष के बजाय पक्षी इस पर्ण रहित पेड़ की शाखाओं पर बैठना अधिक पसंद करते हैं, जहां से वह अपने शिकारियों पर निगरानी रख सके उत्तर भारत के सूखे मौसम में गुरजण में वर्षा ऋतू के कुछ दिनों बाद ही पते झड़ने लगते हैI यह पुरे वर्ष में आठ माह बिना पत्तियों के गुजरता है। इसकी प्रजाति का नाम कोरोमंडलिका है जो कोरामंडल (चोला मंडल साम्राज्य) से आया हैI यह जंगलो में स्थित प्राचीन भवनो और इमारतों में उगना पसंद करते हैं I

5. कठफडी  ( Ficus mollis ):- एक सदाभारी पेड़ हैं, जो पत्थरो और खड़ी चट्टानों को पसंद करता हैं। इनकी लम्बी जड़े चट्टानों को जकड़े रखती हैंजो अरावली और विंध्य पहाड़ियों की सुंदरता को बढ़ाती हैं।  इसीलिए इस तरह के पेड़ो को लिथोफिटिक कहते हैं।  यह बाज और अन्य शिकारी पक्षियों को ऊंचाई पर घोसले बनाने लायक सुरक्षित स्थान प्रदान करता हैं।  स्थानीय लोग मानते हैं यदि इसके पत्ते भैंस को खिलाया जाये तो उसका दुग्ध उत्पादन बढ़ जाता हैं।

6. ढाक / छिला / पलाशButea monosperma ) :- दोपहर की राग भीम पलाशी हो या अंग्रेजो के साथ हुआ बंगाल का  प्रसिद्ध पलाशी का युद्ध इन सबका सीधा सम्बन्ध सीधा सम्बन्ध इस पेड़ से रहा हैं- जिसे स्थानीय भाषा में पलाश कहते हैं ।जब इनके पुष्प एक साथ इन पेड़ो पर आते हैं, तो लगता हैं मानो जंगल में आग लग गयी हो अतः इन्हे फ्लेम ऑफ़ थे फारेस्ट भी कहते हैं।  इनके चौड़े पत्ते थोड़े बहुत सागवान से मिलते हैं अतः ब्रिटिश ऑफिसर्स ने नाम दिया ‘बास्टर्ड टीक ‘ जो इस शानदार पेड़ के लिए एक बेहूदा नाम हैं।  वनो के नजदीक रहनेवाले लोग  अपने पशुओ के लिए इनसे अपने झोंपड़े भी बना लेते हैं।

7. झाड़ी ( Ziziphus nummularia ) :-सिक्को के समान गोल-गोल पत्ते होने के कारण झाड़ी को वैज्ञानिक नाम Ziziphus nummularia हैं। यद्पि यह राजस्थान में झड़ी नाम से ही प्रसिद्ध है।एक से दो मीटर ऊंचाई तक की यह कटीली झाडिया बकरी, भेड़ आदि के लिए उपयोगी चारा उपलब्ध कराता हैं।  लोग इनके ऊपरी भाग को काट लेते हैं एवं सूखने पर पत्तो को चारे के लिए अलग एवं कंटीली शाखाओ को अलग करके उन्हें बाड़ बनाने काम लिया जाता हैं।  झाड़ियों में लोमड़िया, सियार, भालू, पक्षी आदि के लिए स्वादिष्ट फल लगते हैं एवं इनकी गहरी जड़ो से स्थिर हुई मिटटी के निचे कई प्राणी अपनी मांद बनाके रहते हैं।  बच्चे भी इनके फल के लिए हमेशा लालायित रहते हैं।