थार मरुस्थल का कंकरनुमा मेंटिस

थार मरुस्थल का कंकरनुमा मेंटिस

मार्च महीने की एक सुबह थार के मरुस्थल में मैंने एक शानदार मरुस्थलीय पक्षी ग्रेटर हूपु लार्क (Alaemon alaudipes) देखा जो कभी शिकार की तलाश में ‘मगरे’ पर इधर उधर उड़ रहा था, तो कभी अपनी लम्बी टांगो से दौड़ रहा था ।चारों ओर से रेत के टीलों से घिरे,कंक्रीट की कठोर सतह वाले स्थान को स्थानीय भाषा में ‘मगरा’ कहा जाता है।

काफी कोशिश करने के बाद लार्क को एक मकड़ीनुमा शिकार मिला जिसे उसने अपनी लम्बी चोंच में पकड़ रखा था । मैंने उस समय इस पक्षी के व्यवहार के कुछ फोटो लिए, जिनमें शिकार की मात्र टांगे ही दिखाई दे रही थी, उसके शरीर का कुछ हिस्सा पक्षी के मुंह में था। मुझे लगा शायद यह एक बड़ी मकड़ी है या फिर केमल स्पाइडर (solifuge) है, परन्तु ये दोनों अक्सर रात को ही  सक्रीय होते हैं।  

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ग्रेटर हूपु लार्क द्वारा पकड़ा गया डेजर्ट मेंटिस फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल

अगली सुबह उसी ‘मगरे’ पर मुझे कुछ फिसलता हुआ दिखाई दिया, लगा मानो कोई कंकर का टुकड़ा हो। उस समय बहुत तेज हवा चल रही थी। पत्थर की तरह दिखने वाला यह जीव हवा के विपरीत दिशा में तेजी से चल रहा था। मैंने उसे नजदीक जाकर देखा देखा तो प्रकृति का एक अद्भुत छलावरण (camouflage) नजर आया। यह था एक मरुस्थल में मिलने वाला प्रेइंग मैंटिस (Praying  mantis), जो पत्थर या कंकर के सामान लगता है। मुझे नजदीक पाकर वह बचाव की मुद्रा में आ गया।  इसी मुद्रा में यह मैंटिस परिवार का सदस्य लगता है, जिसमें वह अपने आगे की दोनों टांगे हाथ जोड़ने की मुद्रा में ले आता है।

यह वही जीव था जिसे ग्रेटर हूपु लार्क ने पिछले दिन पकड़ रखा था। यह थार डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis) था। यह मेंटिस छलावरण (कैमोफ्लाज) में इतना माहिर होता है की इसको आंखों के सामने आने पर भी पहचानना लगभग असंभव होता है।

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मानव जैसे दिखने वाले चहरे को ऊपर उठाते हुए डेजर्ट मेंटिस फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल

इसका शरीर त्रिभुजाकार, आगे के पैर अच्छी पकड़ वाले, एवं पेट के पास का हिस्सा रंगीन होता है । यह एक आक्रामक शिकारी मेंटिस है। अन्य अधिकांश मेन्टिसों के विपरीत डेजर्ट मेंटिस उड़ नहीं सकते हैं क्योंकि इनके उड़ने वाले पंख अवशेषी रह गए हैं । जब ये मेंटिस आगे के पैरों को बंद करके बैठते हैं तो लगता है जैसे पूजा में हाथ जोड़कर बैठे हुए हों। यह देखना बहुत ही रोचक लगता है।

डेजर्ट मेंटिड इरेमियाफिला (Eremiaphila) जीनस का सदस्य है जिसकी पूरी दुनिया में 68  प्रजातियां हैं एवं उनमें से केवल एक ही यह प्रजाति थार डेजर्ट मेंटिस (Eremiaphila rotundipennis) भारत में पायी जाती है।

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डेजर्ट मेंटिस के पेट के नीचे का हिस्सा रंगीन एवं पंख अवशेषी रह गए हैं फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल

डेजर्ट मेंटिस मरुस्थलीय पर्यावरण के प्रति पूरी तरह से अनुकूलित होते हैं। ये जमीन पर रहते हैं जहाँ इनके लम्बे पैरों के कारण आसानी से तेजी से चल सकते हैं। ये कीड़ों एवं मकड़ियों को खाकर जीवित रहते हैं । रेगिस्तान में भीषण गर्मी,पानी की कमी,धूल भरी आंधियां सामान्य हैं जिसमे जीवों एवं पेड़ों को प्रतिकूल जलवायु का सामना करना पड़ता है।डेजर्ट मेंटिस इन सब परिस्थितियों को सहन करता है यही कारण है की उड़ने वाला यह जीव जमीन पर पाया जाता है। मुझे लगता है की थार मरुस्थल में डेजर्ट मेंटिस एवं  ग्रेटर हूपु लार्क का कोई गहरा सम्बन्ध है, तो जब भी आपको रेगिस्तान के मगरे में यह पक्षी दिखाई दे तो आप डेजर्ट मेंटिस को भी तलाशने की कोशिश करें।

बांडी : राजस्थान में मिलने वाले सॉ-स्केल्ड वाइपर की एक भिन्न उपप्रजाति

बांडी : राजस्थान में मिलने वाले सॉ-स्केल्ड वाइपर की एक भिन्न उपप्रजाति

श्री विवेक शर्मा एक सर्प विशेषज्ञ हैं जिन्होंने कई प्रकार के सर्पों एवं उनसे जुड़े विषयों पर विस्तृत शोध किया है, प्रस्तुत लेख में श्री शर्मा ने सॉ-स्केल्ड वाइपर सांप के एकिस वर्ग की उप प्रजाति सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर के बारे में बताया है।

विश्व में पाए जाने वाले सभी सॉ-स्केल्ड वाइपर सांप एकिस वर्ग (genus Echis) के अंतर्गत आते हैं जो की सबसे व्यापक रूप से वितरित विषैले सांपो के वर्ग में से एक हैं तथा ये भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर अफ्रीकी महाद्वीप में भूमध्य रेखा के उत्तर तक पाये जाते हैं। इसकी  अधिकांश प्रजातियाँ मध्य-पूर्व एशिया और अफ्रीका में पाई जाती हैं, जबकि भारत में केवल एक प्रजाति एकिस कैरिनेटस (श्नाइडर, 1801) की 2 उप-प्रजातियाँ ही हैं।

राजस्थान में भी सॉ-स्केल्ड वाइपर (एकिस कैरिनेटस) की दो उप-प्रजातियाँ पायी जाती है। उप-प्रजाति एकिस कैरिनेटस कैरिनेटस भारतीय प्रायद्वीपीय इलाके अरनी (आरनी) से खोजा और प्रदर्शित किया गया था जो की महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में स्थित है।यह भारत में व्यापक रूप से फैली हुई है और दक्षिण भारत से उत्तर भारत तथा पूर्व में यह पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले तक पायी जाती है जो इस सम्पूर्ण जीनस की सबसे पूर्वी सीमा भी है। दूसरी उप-प्रजाति सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर (एकिस केरिनैटस सॉशुरेकी स्टेमर, 1969) को पाकिस्तान के बलूचिस्तान के पिशिन के पास स्थित बान कुशदिल खान नामक जगह से अलग उप-प्रजाति के रूप में मान्यता दी गई थी। यह अपने बड़े आकार, स्केल्स की गिनती में अंतर और मध्य-पूर्व के अधिक सूखे भागों में अलग से वितरण के कारण अलग श्रेणी में रखा गया है। यह राजस्थान से संयुक्त अरब अमीरात और ईराक तक पाया जाता है। उप-प्रजाति सॉशुरेकी का नाम ऑस्ट्रेलियाई पशु चिकित्सक एरिक सॉशुरेक के नाम पर रखा गया था। यह उप-प्रजाति थार रेगिस्तान और इसके किनारों में बहुत आम उपस्थिति के कारण राजस्थान में बहुत ख़ास है। इस तरह का पर्यावास दक्षिणी और पूर्वी राजस्थान को छोड़कर अधिकांश राज्य में फैला हुआ है। रात में जब इनकी गतिविधि का मुख्य समय होता है तब यह बड़ी संख्या में खाने की तलाश में निकलते है और इन्हे देखना बहुत ही आकर्षक और रोमांचक क्षण होता है।

राजस्थान में पायी जाने वाली प्रजाति एकिस केरिनैटस सॉशुरेकी (Echis carinatus sochureki) फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल

सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर की अपने प्रायद्वीपीय भारतीय करीबी की तुलना से बड़ी आबादी है। यह 80 से.मी. तक लम्बा होता है लेकिन 60 से.मी. से ऊपर लम्बाई मिलना दूर्लभ है। यह छोटा और मोटा सांप होता है जिसका सिर बड़ा और पूँछ छोटी होती है। सॉ-स्केल्ड वाइपर की सभी प्रजातियों में से, यह उप-प्रजाति रंग और स्वरुप, और वैज्ञानिक वर्गीकरण में भिन्नताओं के लिए जानी जाती हैं। कुल मिलाकर यह सूखी सतह जैसा दिखता है जिसके कारण यह सूखे मैदान (रेत, चट्टानों, पत्ती कूड़े आदि) में किसी को आसानी से दिखाई नहीं देता है। इसका सिर त्रिकोणीय आकार का होता है जो गर्दन से स्पष्ट अलग दिखाई देता है। यह छोटे सूखे दिखने वाले कील स्केल्स (जिन स्केल में बीच में एक लंबाई के साथ एक सीधा उभार होता है जिसे छूने से भी अलग अहसास होता है) से ढका होता है। इसके सिर के शीर्ष पर एक लम्बी “प्लस या धन या त्रिशूल” आकार के निशान होते हैं जो इस सांप को पहचानने में मदद करने वाली विशेषता है। इसका ऊपरी शरीर (डॉरसल बॉडी) मूल रूप से मटमैले-भूरे रंग का होता है जिस पर रीढ़ के साथ-साथ 31-41 हल्के रंग के धब्बे होते हैं। इन धब्बों की दोनों तरफ लहराती हुई रेखाएं होती है जो स्पष्ट रूप से एक दूसरे को छूती नहीं है। इस सांप के सभी रूपों में इन धब्बों के बीच की जगह का रंग बाकी शरीर से ज्यादा गहरा होता है तथा शरीर की निचली सतह (उदर सतह/वेंट्रल बॉडी) पर छोटे गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे हो भी सकते हैं और नहीं भी।

वैज्ञानिक वर्गीकरण से इस उप-प्रजाति में कुछ उल्लेखनीय चरित्र हैं जो वैज्ञानिक स्तर पर पहचान में मदद करते हैं, जैसे की 154-181 वेंट्रल, 27-34 सब-काडल, मध्य शरीर में 28-32 डॉरसल स्केल्स, 3-7 क्रमिक रूप से दांतेदार स्केल, सुस्पष्ट सुपरा-ऑक्युलर स्केल्स और आँखों व् सुपरा-लेबिअल के बीच 2 स्केल्स होते हैं। कैरिनैटस में उदर (वेंट्रल) स्केल्स सॉशुरेकी से कम होते हैं और आमतौर पर आँखों व् सुपरा-लेबिअल के बीच केवल एक ही स्केल होता है। सॉशुरेकी में दो धब्बो के बीच की खाली जगह गहरे रंग की होती है तो वहीं कैरिनैटस में ऐसा कुछ नहीं होता है। इसके अलावा कैरिनटस में 40 से.मी. से ऊपर लंबाई मिलना आम नहीं है, लेकिन सॉशुरेकी में यह आकार सामान्य रूप से पाया जाता है। अध्ययनों के अनुसार, सॉशुरेकी पश्चिमी भारत और पाकिस्तान व ईरान के पश्चिमवर्ती अधिक सूखे इलाकों के लिए अनुकूलित है, जबकि कैरीनेटस विभिन्न प्रकार के निवास स्थानों जैसे खुले जंगलों, झाड़ियों, शुष्क पर्णपाती जंगलों, प्रायद्वीपीय भारत के चट्टानी मैदानों में रहता है।

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एकिस केरिनैटस सॉशुरेकी (Echis carinatus sochureki) सॉ स्केल वाइपर की अन्य उपप्रजाति की तुलना में तुलना में काफी बड़ा सांप होता है फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल

सॉ-स्केल्ड वाइपर में दिलचस्प पारिस्थितिकी देखने को मिलती है जो कि अन्य वाइपर प्रजातियों में से अलग है। सबसे पहले तो यह की यह सांप अन्य वाईपर की तुलना में छोटा होता है। इनके पास रेगिस्तान और अन्य शुष्क क्षेत्रों की कठिन मौसम में भी जीवित रहने की क्षमता होती है। हमने सॉशुरेकी को गुजरात के समुद्री तटों में भी देखा है जहाँ ताजा पानी उपलब्ध नहीं होता है। ये ज्यादातर स्थलीय हैं, लेकिन कांटेदार झाड़ियों में चढ़ने और यदि तापमान सही रहे तो कई दिनों तक वहां रहने की क्षमता रखते हैं। मैंने खुद व्यक्तिगत रूप से सॉशुरेकी के एक सांप को देखा है जिसने तटीय गुजरात में धातु की बाड़ पर 10 फीट ऊंचाई पर 25 दिन और रात से अधिक समय बिताया था। अन्य वाइपर (और पिट-वाइपर) के विपरीत, यह कई प्रकार के जानवरो को खाते हैं जैसे की चूहे, छिपकली, अपनी प्रजाति व अन्य प्रजाति के सांप और कीड़े आदि। बल्कि ये दोनों उप-प्रजातियाँ अकशेरुकीय और छिपकलियों पर सबसे अधिक निर्भर हैं। भोजन में विविधता होने के कारण यह उन क्षेत्रों में भी जीवित रह सकते हैं जहां खाद्य श्रृंखला में अच्छी संख्या में पौष्टिक शिकार नहीं हैं।

सभी एकिस(Echis) प्रजातियों की तरह, सॉशुरेकी में भी खतरे की परिस्थिति में एक विशिष्ट प्रकार का प्रदर्शन होता है जो इसे दुश्मन के सामने शक्तिशाली, सतर्क और चुस्त दिखाता है। यह अंग्रेजी के सी (C) के आकार की कुंडली बना लेता है तथा अपने स्केल्स को आपस में रगड़ कर एक ख़ास प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करता है। यह ध्वनि 4-5 पंक्तियों में डॉरसल स्केल्स की अनूठी व्यवस्था द्वारा निर्मित होती है जहाँ ये लंबवत नहीं बल्कि 45 डिग्री के कोण पर जमे होते हैं।इसके अलावा, उनके तिरछे व्यवस्थित स्केल्स में लकीरें होती हैं (उन्हें तकनीकी रूप से कील्ड स्केल्स कहा जाता है) जो आरी की तरह दाँतदार होते हैं। बगल वाले डॉरसल स्केल्स में इस प्रकार के परिवर्तन से उन्हें कम ऊर्जा खर्च कर ध्वनि उत्पन्न करने में मदद मिलती है। यह संभवत: इन सांपों को उनके दुश्मन को बिना मुंह से हिस्स या फुंफकार की ध्वनि निकाले चेतावनी देने में मदद करता है जिसके लिए शरीर में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। यह विशिष्ट रूप से चेतावनी-आक्रमण के प्रदर्शन के समय अपने सिर को स्थिर रखते हैं और बाकि शरीर को हिला कर ये ध्वनि उत्पन्न करते हैं। स्थिर सिर दुश्मन को काटने की स्थिति में सटीकता रखने में मदद करता है। इस सांप और अन्य सभी एकिस (Echis) प्रजातियों की हमला करने की गति बाकी सभी सांपो से तेज होती है। यह तेज गति चूहों और बिच्छू जैसे तेज व सतर्क शिकार को सफलतापूर्वक काटने और घातक जहर छोड़ने के लिए आवश्यक होती है। रेगिस्तानों में जहां छिपने के स्थान सीमित होते हैं और बहुत गहरे नहीं होते हैं, सॉशुरेकी को कांटेदार रेगिस्तानी वनस्पतियों की जड़ें और कृंतक टीले आश्रय के रूप में मिलते हैं। सॉशुरेकी का प्रजनन जीवंत है और यह सीधे जून से सितंबर के दौरान 3 से 23 संतानों को जन्म देता है। संभोग पुरुष युद्ध के बाद शुरू होता है, जहां ज्यादातर वाइपर की तरह दो वर्चस्व में दिलचस्पी लेने वाले और प्रजनन के लिए सक्षम नर अपने एक तिहाई अग्रभाग को उठाते हैं और पारस्परिक रूप से एक-दूसरे के सिर के ऊपर से एक-दूसरे को वश में करने की कोशिश करते हैं। सर्दियों के दौरान सॉशुरेकी गहरे टीले में छिपने लगते हैं।

भारत में व्यापक रूप से फैली हुई उप-प्रजाति एकिस कैरिनेटस कैरिनेटस(Echis carinatus carinatus ) फोटो डॉ. धर्मेंद्र खांडल

सॉ-स्केल्ड वाइपर (उसकी दोनों उप-प्रजातियां) कुख्यात बिग-फोर के सदस्य हैं जो चार चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण विषैले सांप स्पेक्टाकल्ड स्पेक्टेकल्ड कोबरा (नाजा नाजा),  रसल्स वाइपर (दबोइया रसेली), कॉमन क्रेट (बंगारस सिरुलियस) और सॉ-स्केल्ड वाइपर (एचिस कैरीनेटस) के सदस्य हैं। ये सभी भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक रूप से फैले हैं। सांप के काटने से होने वाली मौतों और सर्पदंश संबंधी विकलांगता के लिए ये सांप ही जिम्मेदार हैं। हालाँकि, हाल के अध्ययनों में यह पाया गया है कि एचिस कैरीनेटस से काटने की घटनाएं इसके आवास वाले क्षेत्रों में इतनी आम नहीं हैं। लेकिन सॉशुरेकी की सीमा में, अन्य विषैले सांप आमतौर पर नहीं पाए जाते हैं और यह सॉशुरेकी को सबसे प्रमुख चिकित्सकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण साँप बनाता है। मानसून और गर्मियों के महीनों के दौरान काटने की घटनाएं बढ़ जाती हैं जब साँप भोजन और प्रजनन के लिए सबसे अधिक सक्रिय होता है। ज्यादातर दंश तब होता है जब पीड़ित इनके क्षेत्र में नंगे पांव चलते हैं और अनजाने में सांप पर कदम रखते हैं। कुछ मामलों में, जमीन पर सोने वाले लोगों को भी सर्पदंश हुआ है। आक्रामक और संभावित घातक साँप होने के बावजूद कभी-कभी कम विष की मात्रा के कारण इसके दंश घातक नहीं होते हैं और पीड़ित अपनी प्रतिरक्षा के बूते ठीक हो जाता है। इस कारण से सर्पदंश ठीक करने के वैज्ञानिक रूप से अप्रभावी या अष्पष्ट तौर तरीकों को खुद को सही साबित करने का मौका मिल जाता है क्योंकि पीड़ित तो खुद के मजबूत प्रतिरक्षा या विष की कम मात्रा से खुद ही ठीक हो जाते हैं। 

दुर्भाग्य से इस तरह के प्रतिरोध आधारित शरीर के ठीक होने के प्रयासों से पीड़ित व्यक्ति के गुर्दे की प्रणाली को नुकसान पहुंच सकता है क्योंकि वाइपर के काटने से रक्त और ऊतकों को गंभीर रूप से नकारात्मक प्रभाव जाता है, और गुर्दे की विफलता / क्षति इन मामलों में एक सामान्य परिदृश्य है, जो कि जल्दी नजर में नहीं आते हैं।

 

दक्षिणी राजस्थान में मिलने वाली उड़न गिलहरी

दक्षिणी राजस्थान में मिलने वाली उड़न गिलहरी

सामान्यतया शुष्क माना जाने वाला राज्य राजस्थान विविध वन्यजीवों एवं वनस्पतियों से सम्पन्न है। इस लेख में राजस्थान के दक्षिणी हिस्सों में पायी जाने वाली उड़न गिलहरी के बारे में बताया गया है। वैसे तो उड़न गिलहरी भारत के बड़े पर्णपाती एवं विशाल वृक्षों वाले जंगलों में पायी जाती है लेकिन इन राज्यों की भौगोलिक सीमाओं से दूर इसका राजस्थान में मिलना उल्लेखनीय है। प्रस्तुत लेख में डॉ. विजय कुमार कोली ने राजस्थान में उड़न गिलहरी की वर्तमान स्थिति, पर्यावास एवं व्यवहार के बारे में विस्तार से बताया है। डॉ. विजय कुमार कोली ने अपनी डॉक्टरेट की उपाधि के लिए शोधकार्य (Ph.D.) उड़न गिलहरी पर ही किया है।

भारत में तीन प्रकार की गिलहरी पायीं जाती हैं जिनमे पांच धारीवाली छोटी गिलहरी (Five-striped Palm Squirrel), तीन धारीवाली गिलहरी (Three-striped Palm Squirrel) एवं उड़न गिलहरी (Indian Giant Flying Squirrel) शामिल हैं। उड़न गिलहरी एक रात्रिचर स्तनधारी है जो पेड़ों पर रहती है। भूरे रंग की यह गिलहरी पेड़ों की शाखों पर ग्लाइड करने में माहिर होती है। इसे दक्षिणी राजस्थान के जंगलों में देखा जा सकता है। शाम होने पर यह अपने आवास से बाहर निकलती है और सुबह होने तक पेड़ों पर सक्रीय रहती है। भारत में पायी जाने वाली 15 प्रकार की उड़न  गिलहरियों में से केवल यह राजस्थान में पायी जाती है। इसकी लम्बाई1मीटर से भी अधिक ( लगभग104.0 सेंटीमीटर ) होती है जिसमें से पूँछ की लम्बाई 50.0 सेंटीमीटर से भी ज्यादा होती है जबकि इसका वजन 1Kg से 2.5Kg तक हो सकता है। वयस्क गिलहरी में ऊपर का हिस्सा कहीं कहीं से हल्की सफेदी लिए ग्रिजल्ड ब्राउन या क्लैरट ब्राउन होता है। इसके पैराशूट एवं आगे की भुजाएं भूरी होती हैं। नीचे का हिस्सा हल्की सफेदी लिए होता  है। चेहरा भूरा और कालापन लिए होता है इसकी घनी पूँछ आखिरी छोर पर कालापन लिए हुए शरीर से भी लम्बी होती है। पैरों का रंग काला होता है  इसके रंग में उम्र के साथ हल्के बदलाव होते रहते हैं। 

इस गिलहरी की आबादी छितरायी हुई राजस्थान के दक्षिणी चार जिलों प्रतापगढ़,उदयपुर,डूंगरपुर,एवं बांसवाड़ा में देखने को मिलती है। प्रतापगढ़ के  सीतामाता एवं उदयपुर के फुलवारी की नाल वन्यजीव अभ्यारण्य के संरक्षित क्षेत्रों में यह अच्छी खासी संख्या में विद्यमान है। यह उप सदाबहारीय  एवं  घने जंगलों में अधिकतर महुआ के पेड़ों पर रहना पसंद करती है।महुआ के तने इसके आवास के लिए उपयुक्त होते हैं। महुआ समेत बरगद एवं  कदम्ब जैसे पेड़ों की ऊँची टहनियों से यह आराम से ग्लाइड कर लेती हैं। प्रजनन काल के दौरान नर व मादा दोनों इस तने पर बने आवास में रहते हैं  लेकिन जन्म देने के बाद नर गिलहरी इसे छोड़ देती है और इसमें केवल मादा अपने बच्चे के साथ रहती है। कुछ महीनों के बाद मादा भी इस कोटर  को छोड़ देती है और पास ही किसी अन्य पेड़ पर बने कोटर में रहने लगती है। यह पेड़ो के ऊपरी स्थानों से नीचे की जगहों पर ग्लाइड करती है ।

map showing population of indian giant flying squirrel
दक्षिणी राजस्थान में उड़न गिलहरी का वितरण

इस प्रजाति में एक विशेष झिल्ली की तरह की संरचना पेटेजियम होती है जो की हाथों से पैरों की और फैली हुई होती है। यह शरीर का बहुत लचीला  हिस्सा होता है। ग्लाइड करने के कारण यह आने जाने में व्यय होने वाली अपनी बहुत सी ऊर्जा को बचा लेती है साथ ही शिकारियों के हमले से भी बच  जाती है और भोजन की नयीं संभावनाएं बिना थके तलाश लेती है।पीछे की और धक्का देकर यह अपनी ग्लाइड की दूरी को आगे बढाती है। जब यह  हवा में गोते लगाती है तो इसके पैरों व हाथों से लगी झिल्लीनुमा पैराशूट खुल जाता है जो इसे दिशा देने में सहायता देता है।उतरने के दौरान पहले यह पेड़ के मुख्य तने को अगले हाथों से पकड़ती हैं और फिर पिछले हाथों की मदद लेती हैं।नीचे उतरने चढ़ने में और पकड़ बनाने में इसके तीखे नुकीले पंजे बहुत मदद करते हैं।सामान्यतया यह एक निश्चित मार्ग पर ही आवाजाही करती है। यह अधिकतम 90 मीटर तक ग्लाइड कर सकती है लेकिन सामान्यतया यह 10 से 20 मीटर ही ग्लाइड करती है।बारिश में यह विचरण नहीं करती है।

यह बदलते हुए मौसम में खुद को ढाल लेती है और मौसम के अनुसार ही भोजन चुनती है। तना,टहनियां, पत्तियां, कलियाँ, फूल, फल, बीज इसके  भोजन हैं। पिथ इसके भोजन का मुख्य भाग होता है। महुआ, बहेड़ा (Terminalia  bellirica), (Terminalia  tomentosa)  एवं  टिमरू (Diospyros  melanoxylon)  के पेड़ इसके भोजन एवं आवास के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं। 

habitat of indian giant flying squirrel
सीतामाता अभ्यारण्य में उड़न गिलहरी के आवास चित्र :डॉ. विजय कुमार कोली
pith of tree eaten by indian giant flying squirrel
पीपल की टहनी का पिथ खाने के बाद छोड़ी गयीं पत्तियां चित्र : डॉ. विजय कुमार कोली

यह एक निशाचर जीव है जो कोटर से शाम 7 बजे के बाद निकलती है एवं सुबह 6 बजने तक वापस कोटर में चली जाती है। सर्दियों के समय में इसे  दिन के समय अपने कोटर केआसपास धूप सेकते हुए देखा जा सकता है।इसकी गतिविधियां सबसे ज्यादा रात के 6 से 11बजे एवं 2 से 6 बजे के बीच देखीं जा सकतीं हैं। रोशनी पड़ने पर यह बिना हिले डुले एक जगह बैठ जाती है। रात को यह आवाज के माध्यम से दूसरी गिलहरियों के बीच संवाद स्थापित करती है औरआवाज से ही प्रजनन काल में ये जोड़े बनाती हैं। इनकी आवाज मध्यरात्रि को या अल सुबह कोटर में जाने से पहले सबसे ज्यादा सुनी जा सकती है। शिकारियों से बचने के लिए यह घने पेड़ों में बैठकर आवाज निकालती है। सुबह के समय इनकी आवाज आसानी से सुनी जा सकती है। 

indian giant flying squirrel lying on a tree
रात के समय पेड़ के तने पर आराम करती हुई उड़न गिलहरी चित्र : डॉ. विजय कुमार कोली

इस क्षेत्र में गर्मियों से पहले का समय इनका प्रजनन काल होता है। नए बच्चे का जन्म और देखभाल इन्हीं कोटरों में होता है। हालाँकि IUCN की रेड  डाटा बुक के अनुसार यह प्रजाति संकटमुक्त की श्रेणी में रखी गयी है लेकिन राजस्थान के पश्चिमी हिस्से में इसकी संख्या धीरे धीरे कम होती जा रही  है।आदिवासियों द्वारा इनका शिकार, बढ़ता शहरीकरण, उद्योगों के लिए वनों का कटाव इस प्रजाति के भविष्य के लिये चुनौतियाँ हैं।भील एवं गरासिया जनजातियां भोजन,रीति रिवाजों एवं अन्धविश्वास के नाम पर इनका शिकार कर रहे हैं। ये लोग इन मृत गिलहरियों के कंकाल,हड्डियां एवं बालों को  अपनी झोपड़ियों में  रखते  हैं। कमजोर बच्चों का वजन बढ़ाने में इनकी हड्डियों के टुकड़े करके गले में बंधा जाता है।जंगलों से होकर निकलने वाले  राजमार्गों से भी गिलहरी की यह प्रजाति नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई है।राजस्थान में पायी जाने वाली इस उड़न गिलहरी के संरक्षण एवं विकास के लिए महुआ,बहेड़ा एवं कदम्ब के पेड़ों की कटाई रोकने के प्रयास किये जाने चाहिए। साथ ही उड़न गिलहरी मिलने वाले जिलों में आदिवासियों के साथ जागरूकता कार्यक्रम चलाये जायें जिससे इनके शिकार पर अंकुश लग सके।

For  further  study:

Koli  VK,  Bhatnagar  C,  Sharma  SK  (2013).  Food  habits  of  Indian  Giant  Flying  Squirrel  (Petaurista  philippensis  Elliot)  in  tropical  deciduous  forests,  Rajasthan,  India.  Mammal  Study  38(4):  251-259.

Koli  VK,  Bhatnagar  C  (2014).  Calling  activity  of  Indian  Giant  Flying  Squirrel  (Petaurista  philippensis  Elliot,  1839)  in  the  Tropical  deciduous  forests,  India.  Wildlife  Biology  in  Practice,  10(2):  69-77.

Koli  VK,  Bhatnagar  C  (2016).  Seasonal  variation  in  the  activity  budget  of  Indian  giant  flying  squirrel  (Petaurista  philippensis)  in  tropical  deciduous  forest,  Rajasthan,  India.  Folia  Zoologica  65(1):  38-45.

Koli  VK  (2016)  Biology  and  Conservation  status  of  flying  squirrels  (Pteromyini,  Sciuridae,  Rodentia)  in  India:  an  update  and  review.  Proceedings  of  the  Zoological  Society,  69(1):  9-21.

Koli  VK,  Bhatnagar  C,  Sharma  SK  (2013).  Distribution  and  status  of  Indian  Giant  Flying  Squirrel  (Petaurista  philippensis  Elliot)  in  Rajasthan,  India.  National  Academy  Science  Letter  36(1):  27-33.

Koli  VK,  Bhatnagar  C,  Mali  D  (2011).  Gliding  behaviour  of  Indian  Giant  Flying  Squirrel  Petaurista  philippensis  Elliot.  Current  Science,  100(10):  1563  –  1568

तूतिया-राजस्थान का एक अद्भुत स्थानिक सांप

तूतिया-राजस्थान का एक अद्भुत स्थानिक सांप

राजस्थान सरीसृपों के लिए स्वर्ग के सामान है। कई प्रकार के विषैले और अविषैले सांप यहाँ विचरण करते हैं। मेरे अनुसार लगभग 40 प्रकार की विभिन्न प्रजातियां अथवा उपप्रजातियाँ यहाँ पाई जाती हैं। इन सबमें तूतिया सांप Lytorhynchus paradoxus (GÜNTHER, 1875), इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राजस्थान के थार मरुस्थल की एक स्थानिक (Endemic) प्रजाति है, यानि यह थार के अलावा और कहीं नहीं मिलती है। जीनस Lytorhynchus में 6 प्रजातियों के सर्प मिलते हैं जिनमे भारत में केवल  Paradoxus ही मिला है।

अल्बर्ट कार्ल गुंथर नामक एक जर्मन ब्रिटिश सर्प वैज्ञानिक ने सर्वप्रथम 1875 में तूतिया सर्प की खोज सिंध क्षेत्र में की, जो वर्तमान में पाकिस्तान का हिस्सा है। गुंथर एक अत्यंत मेधावी सरीसृप वैज्ञानिक थे, जिन्होंने 340 सरीसृपों को नाम दिया एवं उनकी खोज की। उनसे अधिक सरीसृपों की खोज जॉर्ज अल्बर्ट बोलेन्गेर नामक वैज्ञानिक ने की है जिन्होंने 587 प्रजातियों का विश्लेषण किया एवं उन्हें नाम दिया था। खैर हम बात कर रहे हैं तूतिया सांप की जो थार मरुस्थल के रेतीले हिस्से में मिलते हैं।थार मरुस्थल में कई प्रकार के पर्यावास (habitat) मिलते हैं जैसे की  कठोर सतह वाला सपाट मैदान, बलुई टीले अथवा पथरीले ऊबड़खाबड़ स्थल I बलुई टीले भी दो प्रकार के होते है एक वह जो अपना स्थान तेज हवाओ और आँधियो में बदलते रहते है दूसरे वह जो एक जगह ठोस जमे रहते हैं I  तूतिया सांप,अधिकांशतया स्थान बदलने वाले मुलायम बालू वाले रेत के टीलों में विचरण करता है I रोचक बात यह है की यह सांप मिट्टी की सतह के  नीचे ऐसे चलता है मानो तैर रहा हो। पाकिस्तान के प्रसिद्ध सरीसृप वैज्ञानिक डॉ शर्मन मिंटो ने Lytorhynchus paradoxus के सन्दर्भ में लिखा की यह बलुई रेत केअस्थाई टीलों में जो की हवा से अपना स्थल बदलते रहते हैं, पाए जाते हैं, यह स्थान समुद्रतल से 500 मीटर की ऊंचाई तक हो सकते हैं।

खतरा महसूस होने पर यह सांप ‘8’ का आकर ले लेता है फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल

यह सांप अक्सर 8-14 इंच लम्बा एवं पतले मुंह एवं सिर वाला होता है। यह सर्प पूर्णतया रात्रिचर सर्प है। जब यह खतरा महसूस करता है तो कभी ‘8’ का कभी ‘S’ का आकार बनाकर तो कभी एक स्प्रिंग के सामान अपने शरीर को ऊपर उठाकर एक विशेष तरह का कम्पन्न पैदा करते हुए हल्की हिसिंग की ध्वनि पैदा करता है। इस दौरान यह अपना सिर अकसर नीचे रखते हुए छिपाता रहता है। यह इसके बचाव करने एवं आक्रामक दिखने की मुद्रा है। चूंकि यह अविषैला सर्प है,अतः इसे अपने बचाव के लिए कई प्रकार के अन्य तरीके निकालने पड़ते हैं।

आठ का आकार बनाये हुए तूतिया सांप फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल

राजस्थान में यह सर्प सर्वप्रथम अगस्त 2004 में मेरे द्वारा गोगा देव के मेले में चूरू जिले में देखा गया जो पास के ही एक गाँव गाजसर से लाया गया था।गोगा देव मेले में ग्रामीण कई प्रकार के सांपों को अपने गाँवों से चूरू शहर में लेकर आते हैं। तत्पश्चात उसी दिन मुझे यह सीकर जिले के रामगढ़ शेखावाटी कस्बे के पास धोरों में भी दिखा, यह क़स्बा मेरा पैतृक स्थान भी है तूतिया सर्प की खोज इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि इसके पूर्व में यह सर्प केवल मात्र पाकिस्तान से ही रिपोर्ट किया गया था । पाकिस्तान में यह जंगीपुर, जंगशाही,फतेहपुर,बारां,नाइ,जमराओ,बुर्रा,उमरकोट,थार एवं पारकर क्षेत्र से रिपोर्ट किया गया था। यह थार मरुस्थल के पश्चिमी छोर के हिस्से हैं,जो वर्तमान में पाकिस्तान के हिस्से हैं। मैंने इन्ही सांपों को राजगढ़-चूरू के राजमार्ग पर अधिक संख्या में उस दिन देखा जब अत्यधिक गर्मी वाले अप्रैल महीने में एक चक्रवाती वर्षा हुई।उस दिन रात्रिचर माने जाने वाले ये सांप शाम के 4 बजे उस राजमार्ग पर निकले और लगभग 8-9 की संख्या में वाहनों से कुचलने से मरे हुए मिले। यद्यपि कुछ वर्षों में यह सर्प राजस्थान के कुछ और इलाके जैसे जैसलमेर, बीकानेर एवं बाड़मेर जिलों में भी देखा गया है।यह सर्प टीलों पर रेंगने वाली छोटी छिपकली को अपना शिकार बनाता है। इस छिपकली का रंग रूप भी इस सर्प के समान दिखता है। इसका शिकार एवं खुद यह प्रजाति मुलायम सूखी बलुई रेत में ही रहने के लिए विकसित हुई है,यदि इस पर्यावास में निरंतर अधिक मात्रा में पानी से सिंचाई आदि की जाये तो, यह उस स्थान से विलुप्त हो जायेगा।

References

Bhide K, Captain A, Khandal D. 2004. “First record of Lytorhynchus paradoxus (Günther, 1875) from the Republic of India, with notes on its distribution”. Hamadryad 28 (1&2): 123-127.

Boulenger GA. 1890. The Fauna of British India, Including Ceylon and Burma. Reptilia and Batrachia. London: Secretary of State for India in Council. (Taylor and Francis, printers). xviii + 541 pp. (Lytorhynchus paradoxus, new combination, p. 323 + Figure 98 on p. 322).

Günther A. 1875. “Second Report on Collections of Indian Reptiles obtained by the British Museum”. Proc. Zool. Soc. London 1875: 224-234. (Acontiophis paradoxa, new species, pp. 232–233, Figure 5).

Ishan Agarwal1 and Achyuthan N. Srikantha 2011, FURTHER RECORDS OF THE SINDH AWL-HEADED SNAKE, Lytorhynchus paradoxus (GÜNTHER, 1875), FROM INDIA WITH NOTES ON ITS HABITAT AND NATURAL HISTORY, Russian Journal of Herpetology, Vol. 20, No. 3, 2013, pp. 165 – 170. 

Murray JA. 1884. “Additions to the Reptilian Fauna of Sind”. Ann. Mag. Nat. Hist., Fifth Series 14: 106-111.

फतेह सिंह राठौड़: टाइगरमैन

फतेह सिंह राठौड़: टाइगरमैन

मजबूत इरादों के धनी, प्रकृति प्रेमी, दूरदर्शी सोच रखने वाले इस इंसान ने रणथम्भौर के लिए हर चुनौती का सामना किया और अपने नाम के अनुसार उसमें फतेह हासिल की थी।

फतेह सिंह राठौड़ एक राजपूत परिवार से थे। उनका परिवार जोधपुर के पास स्थित चोरडियां नामक गाँव से निकला हुआ है। कई अन्य कामों में असफल होने के बाद उनका वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में आना महज एक संयोग था। उनके एक रिश्तेदार के कहने पर उनको सरिस्का में वन विभाग में रेंजर के रूप में नौकरी मिल गई। धीरे धीरे उन्हें इस काम में मजा आने लगा। यह वह समय था जब फतेह जंगल की बारीकियों को सीख रहे थे। थ्योरी से ज्यादा उनका मन ज़मीनी काम करने में लगता था। जंगल में उनके बढ़ते प्रभाव के कारण उनके कई विरोधी भी बन गए थे। उनका मानना था की जमीनी स्तर पर काम करके ही ज्यादा अनुभव हो सकते हैं जो डिग्रियों एवं थ्योरी से नहीं मिलते।

बीसवीं सदी में बाघों की संख्या 40000 थी जो सत्तर के दशक तक आते-आते मात्र 1800  रह गई थी। इसके चलते 1970 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर वन्यजीवों के शिकार को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत 1973 में हुई जिसमें रणथम्भौर के साथ आठ अन्य अभ्यारण्य भी शामिल थे। अलग अलग तरह के विभिन्न पर्यावासों में बाघ संरक्षण को प्रोत्साहित करना इस परियोजना का लक्ष्य था। रणथम्भौर एक उष्ण पर्णपाती वन है। फतेह को इस नए पार्क का विकास करने की जिमेदारी सौंपी गई थी। उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपने के पीछे एस. आर. चौधरी एवं प्रोजेक्ट टाइगर के पहले निदेशक कैलाश सांखला का बहुत योगदान था। एस. आर. चौधरी ने फतेह को देहरादून के भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) में पढ़ाया था।

कुल मिलाकर इन दोनों ने फतेह की काबिलियत को समझा और भविष्य में फतेह भी उनकी उम्मीदों पर खरे उतरे। फतेह ने पार्क में ऐसी रोड बनाने का काम किया जो सीधी न होकर घुमावदार हों एवं  पानी के स्त्रोत तक पहुंचती हों। जब फतेह ने काम संभाला तब पार्क की हालत बहुत खराब थी। पार्क से लगते हुए 16  गांवो के लोग मवेशियों को पार्क में चराने ले आया करते थे। जलाने के लिए पुराने पेड़ काटे जा रहे थे। मवेशियों की बेरोकटोक आवाजाही ने पार्क की बड़ी घास एवं पेड़ पौधों को खत्म कर दिया था। वन्यजीवों के नाम पर कभी कभार बाघ के पगमार्क दिखाई दे जाया करते थे।

फतेह जानते थे की अगर पार्क को जिन्दा रखना है तो ग्रामीणों को पार्क से बाहर विस्थापित करना बहुत जरूरी है। इस काम को फतेह ने बड़ी सूझबूझ के साथ किया, विस्थापित ग्रामीणों को इसके लिए समझाया और उचित मुआवजा दिलवाने का प्रबंध करवाया। मुआवजे में 18 वर्ष से ऊपर के सभी ग्रामीणों को पैसों के अलावा पांच बीघा अतिरिक्त जमीन भी दी गई। इसके साथ ही घर बनवाने के लिए, कुए खोदने के लिए आर्थिक मदद की गई साथ ही ग्रामीणों के लिए स्कूल और स्वास्थ्य सेवाओं की भी उचित व्यवस्था की गई। कैलाश सांखला के सम्मान में नए गांव का नाम कैलाशपुरी रखा गया। विस्थापन के साथ ही धीरे-धीरे पार्क वापस हरा-भरा होने लगा।

1976  में पहली बार फतेह ने पार्क में एक बाघिन को देखा जिसका नाम उन्होंने अपनी बड़ी बेटी के ऊपर रखा; पद्मिनी। फतेह ने इस बाघिन एवं उसके चार शावकों ( पांचवा शावक जल्द ही मर गया था ) की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू की । फतेह के जमीनी स्तर पर किये गए प्रयासों से यह पार्क बाघ देखने के दुनिया में सबसे उपयुक्त पार्कों में से एक माना जाने लगा।

उन दिनों रणथम्भौर जयपुर महाराज के शिकारगाहों में शामिल था। जनवरी 1961 में रणथम्भौर राष्ट्रीय पार्क के बनने से पहले उन्हें इस पार्क में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ II के लिए शिकार आयोजन की व्यवस्था करना था। उन दिनों वन्यजीव पर्यटन का मतलब ही शिकार करना होता था और कई महाराजा विदेशी सैलानियों से आय के लिए शिकार का आयोजन करते थे।

बाघों के साथ  छोटे-छोटे अनुभवों को उनके एवं वाल्मीकि थापर (वाल्मीकि भारत में बाघों के प्रसिद्ध विशेषज्ञ हैं) द्वारा कई किताबों में लिखा गया है। उनके द्वारा खींचे गए एक फोटो में एक नर बाघ, शावकों के साथ खेल रहा था। अभी तक माना जाता रहा था की केवल मादा बाघ ही शावकों का पालन करती है। इसके विपरीत उनके द्वारा खींचे गए फोटो में एक नर बाघ, एक मादा बाघ एवं दो शावक पानी में अठखेलियां कर रहे थे। यहाँ तक की एक बार नर बाघ शावकों के साथ शिकार भी साझा कर रहा था। 1980 के आस-पास एक बाघ जिसका नाम चंगेज था, एक नए तरीके से शिकार करता था। जब भी कोई सांभर पानी में जाता तो वह उसका शिकार किया करता था। बाघ पर कई भाषाओं में बनी फिल्मों में फतेह के बारे में बताया गया है। कई देशी विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखा गया।

फतेह को उनके कामों के लिए कई अंतराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया । फतेह बहुत ही उदार दिल के इंसान थे जो हर किसी को अपना दोस्त बना लिया करते थे। वन्यजीवों को नुकसान पहुँचाने वालों के प्रति उनका व्यवहार बहुत सख्त हुआ करता था। यही कारण था की वह वन्यजीवों एवं पर्यावरण  को नुकसान पहुँचाने वालों के दुश्मन के रूप में जाने जाते थे। उनका केवल एक ही उद्देश्य हुआ करता था बाघों को बचाना और अगर उन्हें लगता की इस काम में कुछ गलत हो रहा है  तो वह उसके खिलाफ आवाज उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। जब भी वे पार्क से किसी बाघ के गायब होने का मुद्दा उठाते तो वन विभाग इसके विपरीत उनकी बात को गलत साबित करने का प्रयास करते जिसके लिए वन विभाग द्वारा उन्हें कई बार प्रताड़ित भी किया गया। हालाँकि बाद में फतेह का दावा ही सही निकलता था।

फतेह अपने दृढ निश्चय एवं ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। यही  कारण था की उनके विरोधियों ने उन्हें कई प्रकार के झूठे आरोपों में फसाने की कई बार कोशिश की जिन्हें बाद में सभी आरोपों को कोर्ट ने भी झूठा ही माना। फतेह को खुद के द्वारा विकसित किये पार्क में प्रवेश से प्रतिबंधित  किया जाना उनके जीवन का सबसे कठिन दौर था। उन्हें अपने पसंदीदा जंगल से दूर जयपुर में तकनीकी सलाहकार के तौर पर पदस्थापित किया जाना और लगातार उनकी सलाहों को वरिष्ठ अधिकारीयों द्वारा नजरअंदाज करना भी उनके लिए बहुत दुखद था।

फतेह सिंह राठौड़
रणथम्भौर के आस पास रहने वाले लोग फतेह से अपना दुःख दर्द साझा किया करते थे

1983 में मेरे द्वारा सवाई माधोपुर की यात्रा के बाद आज यह शहर बहुत बदल गया है। पार्क के द्वारा रोजगार के कई अवसर पैदा हुए हैं जिसने इस शहर की अर्थव्यवस्था में बड़ा सुधार किया है। आज रणथम्भौर बाघ देखने के लिए दुनिया की बेहतरीन जगहों में से एक है।  बाघों को देखना पर्यटकों के लिए एक शानदार अनुभव होता है। दुनिया में देखी जाने वाली बाघों की अधिकतर तस्वीरें रणथम्भौर में ली गयीं हैं। हालाँकि इस प्रसिद्धि की पार्क को कीमत भी चुकानी पड़ी है। समय-समय पर शिकारी यहाँ अपनी गतिविधियों को अंजाम देते रहते हैं। शिकारियों द्वारा बाघों की खाल एवं शरीर की चीन में तस्करी की जाती है।

शिकारियों के लिए फतेह का नजरिया बिलकुल अलग था। उनका मानना था की बाघ का शिकार करने वाले इसका फायदा नहीं उठाते हैं। अधिकतर मोग्या जाती के लोग घुमन्तु और शिकार करने में माहिर होते हैं। ये लोग जेल में सजा काटने के बाद फिर शिकार शुरू कर देते थे इसलिए फतेह मोग्याओं के पुनर्वास एवं रोजगार, शिक्षा दिलाने पर जोर दिया करते थे। उन्होनें टाइगर वॉच के माध्यम से मोग्या बच्चों के लिए एक छात्रावास स्थापित किया जिसमें उनके रहने, भोजन एवं पढ़ने का प्रबंध किया गया । बच्चों के जीवन स्तर को सुधारना एवं उन्हें रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना भी उनका मकसद था। कई छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा दी जाने लगी। महिलाओं को विभिन्न हस्तकलाओं के बारे में जानकारी दी जाने लगी। सबके पीछे यही उद्देश्य था की ये लोग शिकार छोड़कर समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके और आने वाली पीढ़ियों को समर्थ बना सकें।

फतेह एक जिंदादिल इंसान थे जो अपनी बुलंद आवाज और बात करने के तरीके से सबका दिल जीत लेते थे। फतेह अपने दोस्तों के साथ मस्ती करने का मौका कभी नहीं छोड़ते थे और रात को आग के चारों और बैठकर  पार्क के किस्से सुनाना, गाने गाना बहुत पसंद था। लोगों से मिलना और उन्हें पार्क घुमाना फतेह को बहुत पसंद था। यह उन्हीं के प्रयासों का नतीजा था की कई लोग बाघ बचाने की मुहीम में जुड़ते गये। फतेह एक सच्चे इंसान होने के साथ-साथ दोस्ती निभाने में बहुत आगे थे। उनके पुत्र श्री गोवर्धन सिंह राठौड़ ने रणथम्भौर में फतेह पब्लिक स्कूल प्राम्भ किया था जिसमें गरीब बच्चों को कम फीस पर एडमिशन दिया जाता था, । इस विद्यालय के बच्चों की ओर फतेह का हमेशा विशेष जुड़ाव रहता था, उनका मानना था कि बच्चे किताबी ज्ञान के आलावा भी पर्यावरण के प्रति जागरूक रहें।

कई बातों में फतेह बच्चों जैसे थे। एक तरफ उन्हें गजल सुनना पसंद था तो दूसरी और वो ज़ेज भी सुना करते थे। एक बार मैं उन्हें काला घोड़ा के पास स्थित एक म्यूज़िक स्टोर में ले गयी जहाँ उन्होंने कई सीडी खरीदीं। लेकिन सबसे ज्यादा उन्हें जंगल में जानवरों के बीच रहना, उन्हें देखना पसंद था। उन्हें बाघ की साइटिंग की जगह के बारे में हमेशा पता रहता था और इसका अनुभव उन्हें बाघ के व्यवहार पर लम्बे समय तक नजर रखने से हुआ। रणथम्भौर के बाघों के साथ तालमेल को देखते हुए फतेह के दोस्त कभी-कभी उन्हें ह्यूमन टाइगर कह दिया करते थे। उनकी दमदार शख़्सियत एवं सफेद घुमावदार मूछों के कारण वह सच में वैसे ही लगते थे।

फतेह के  साथ जंगल में घुमावदार रास्तों पर घूमना अलग ही अनुभव हुआ करता था। पेड़ पर बैठे कौवों और गिद्धों को देखकर फतेह गाड़ी को उसी दिशा में घुमा देते और वहीं बाघ शिकार के साथ दिख जाया करता था। बाघ को देखकर फतेह झूम उठते थे। अपने जंगल के तकरीबन हर पक्षी, पशु, पौधों को वो जानते थे और ये सब देखकर बहुत खुश होते थे।

अंतिम समय में फतेह को देखना बहुत कठिन समय था। उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था। उन दिनों उन्हें बोलने में भी परेशानी रहने लगी थी। जरा सा भी पानी लेने पर बहुत दर्द होता था। फिर भी फतेह अपने परिवार जनों एवं दोस्तों के साथ उसी जिंदादिली से रहते थे। एक मार्च की सुबह उन्हें इस पीड़ा से मुक्ति मिली, फतेह अब नहीं थे।अंतिम संस्कार अगले दिन हुआ, पहले उनकी पार्थिव देह रणथम्भौर में पहाड़ियों के किनारे बने उनके घर में रखा गया जहाँ कई गणमान्य हस्तियों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी उसी दिन लगभग चार बजे उनके निवास से महज 50  मीटर की दूरी पर एक बाघ तीन बार दहाड़ा साथ ही दुसरे पशु पक्षियों की कॉल  सुनाई दी। ऐसा लग रहा था मानों ये सब अपने पिता यानि फतेह को श्रद्धांजलि देने आये थे!

 

ग्रीन मुनिया: भारत की संकटग्रस्त एवं स्थानिक पक्षी

ग्रीन मुनिया: भारत की संकटग्रस्त एवं स्थानिक पक्षी

ग्रीन मुनिया लाल चोंच वाली, पृष्ठ भाग पर हरे रंग की भिन्न-भिन्न आभा लिये, छोटे आकार की ‘‘फिंच‘‘ परिवार की अत्यंत आकर्षक पक्षी है जिसका अधर भाग पीले रंग की कांति के साथ, पार्श्व भाग श्वेत-श्याम धारियां युक्त होता है। इसकेअंग्रेजी नाम के उद्भव के पीछे एक रोचक बिन्दु है। यूरोपीय ने इन फिंच पक्षियों को अहमदाबाद (गुजरात) के निकट देखकर इन्हें ‘‘अहमदाबाद‘‘ पक्षी का नाम दिया जिसका समयोपरांत अपभ्रंश स्वरुप वर्तमान नाम ‘‘एवाडेवट‘‘ हो गया। पारम्परिक नाम ‘‘मुनिया‘‘ भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में बालिका को परिभाषित करता है।राज कपूर की फिल्म ‘‘तीसरी कसम‘‘ के पारम्परिक गीत आधारित गाने, ‘‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया…..‘‘ में इसकी सुन्दरता का विवरण प्रस्तुत किया गया है।

प्रथमतः सन 1790 में लेथम द्वारा इसे फ्रिन्जिला फोरमोसा के रूप में वर्णन किया गया। सन 1926 में बेकर(1926) ने पुनः इसे स्टिक्टोस्पिजा फोरमोसा तथा रिप्ले (1961) व अली-रिप्ले (1974) ने एस्ट्रिलडा फोरमोसा के रूप में वर्णित किया। तत्पश्चात पक्षीविदों (इंस्किप et al 1996, ग्रीमिट et al. 1999, काजरमिर्कजेक व वेन पर्लो 2000, रेसमुसन व एंडर्टन 2005) द्वारा इसे इसके वर्तमान वैज्ञानिक नाम अमंडावा फोरमोसा के रूप में ही उल्लेखित किया गया।

गोरैया के समतुल्य लगभग 10 से.मी. लम्बाई के पंछी जिसमें नर का रंग अधिक चमक लिए होता है। ग्रीन मुनिया सामान्यतः भिन्न-भिन्न संख्या के समूह में दिखाई देती हैं। अक्सर भोजन लेते समय बड़े समूह छोटे-छोटे समूहों में बिखर जाते हैं। मुनिया प्रजाति में प्राकृतिक खुले हुए व पुनःउत्पादित वृहद् स्तर की आवासीय परिस्थितियों के प्रति अनुकूलन की असीम क्षमता है। परन्तु पसंदीदा आवासीय संरचना में मुख्यतः लम्बी घास जैसे गन्ने, मूँज युक्त कृषि क्षेत्र व घनी झाड़ियों (जिसमें लेन्टाना भी सम्मिलित) वाले क्षेत्रआते हैं। ग्रीन मुनिया के भोजन में सामान्यतः छोटे कोमल शाक व बीज तथा पौधों के अन्य मुलायम भाग होते हैं। ग्रीन मुनिया का स्वर दुर्बल, उच्च-कोटि की चहचहाट होती है तथा उड़ान अथवा साथियों से दूर होने पर पायजेब की झंकार जैसी ‘‘स्वी, स्वी‘‘ एवं भोजन लेते समय ‘‘चर्र,चर्र‘‘ की ध्वनि सुनाई देती है। प्रजनन ग्रीष्म व शीत दोनों ऋतुओं में देखा गया है परन्तु प्रजनन काल व नीड़न काल के विस्तृत अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है। मुनिया के घोंसले प्याले समान लम्बी घास या गन्नों या घनी झाड़ियों के मध्य होते हैं। एक समय में यह 5-6 अंडे देती हैं। ग्रीन मुनिया में लम्बी दूरी का अथवा तुंगता प्रवसन नहीं होता है।शीतकाल में घनी झाड़ियों केआवास झाड़ियों के अधिक पसंद किया जाता है।

पेड़ों पर बैठी हुई ग्रीन मुनिया फोटो श्री सत्यप्रकाश एवं श्रीमती सरिता मेहरा

ग्रीन मुनिया विश्वस्तर पर संकटग्रस्त भारत की स्थानिक प्रजाति है। वर्तमान में अन्य राज्यों की अपेक्षा राजस्थान में इसकी स्थिति अच्छी है। इस प्रजाति के अस्तित्व पर संकट को भांपते हुए उन्नीस सौ अस्सी के दशक के अन्तिम वर्षों में इसे आई.यू.सी.एन.की लाल सूची में रखा गया एवं उन्नीस सौ नब्बे के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में इसे संकटापन्न (Vulnerable) स्तर में सम्मिलित किया। सुरक्षा हेतु इस प्रजाति को भारत के वन्यजीव(सुरक्षा) अधिनियम 1972 की अनुसूची IV तथा अन्तर्राष्ट्रीय संकटग्रस्त प्रजाति व्यापार समझौता (CITES) के परिशिष्ट II में रखा गया है। शोधकार्यों से यह विदित है कि भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी अनुमानित सँख्या 10,000 से भी कम है।

सन 2000 पूर्व अली व रिप्ले (1974) के अनुसार बीसवीं शताब्दी में हरी मुनिया का वितरण मध्य भारत में एक पट्टे के रूप में प्रदर्शित भूभाग में हुआ करता था जिसकी पश्चिमी सीमा राजस्थान के दक्षिणी अरावली, पूर्वी सीमा तटीय ओडिशा, उत्तरी सीमा दिल्ली व तराई (उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार) क्षेत्र तथा दक्षिणी सीमा उत्तरी महाराष्ट्र व उत्तरी आन्ध्र प्रदेश तक फैली हुई थी। जहाँ उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में ब्रिटिश प्रकृति खोजियों के अनुसार इस प्रजाति के वितरण उपरोक्त समूचे क्षेत्र में था वहीं दूसरी और बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में भारतीय पक्षिविदों द्वारा अनेक क्षेत्रों से इसके स्थानीय विलोपन का उल्लेख मिलता है।

अपने आवास में ग्रीन मुनिया फोटो श्री सत्यप्रकाश एवं श्रीमती सरिता मेहरा

सन 2000 पश्चातसन 2000 पश्चात वितरण क्षेत्र में अनेक ऋणात्मक परिवर्तन हुए।अनेेक पक्षीअवलोककों द्वारा उनके स्थानों से इस प्रजाति का स्थानीय विलोपन अथवा अपुष्ट उपस्थिति को उल्लेखित किया गया।लेखकों द्वारा आबू में लिए गए प्रेक्षणों में पाया गया है कि ग्रीन मुनिया ने प्राकृतिक आवासीय परिस्थितियों में बाहरी वनस्पति के आगमन एवं स्थापन से हुए परिवर्तन में भी अनुकूलन कर लिया है (विशेषकर लेन्टाना के सन्दर्भ में) ।अतःआवासीय परिस्थितियों में मानवीय हस्तक्षेप विशेषकर शहरी विस्तारण जो हरे क्षेत्रों को समाप्त कर रहा है अथवा मुनिया के आवासों का विखण्डन कर रहा है तथा पक्षी व्यापार मुख्य चिंतन के विषय हैं ।

वैश्विक स्तर के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की प्राप्ति हेतु ऐसे स्थानिक-विशेष संरक्षण कार्यक्रम तथा नीतियों का समावेश होना चाहिये जो आमजन को उनके पारम्परिक संरक्षण व्यवहार से जोड़ सके। भारतीय संस्कृति के ‘‘प्रकृति-पुरूष’’ के सिद्धान्त में निहित प्रकृति और मानव के सह-सम्बन्धों को परम्परागत रीति-रिवाजों में देखा जा सकता है। इसी सिद्धान्त को ध्यान में रखकर लेखकों द्वारा आबू की वादियों में जन-सहभागिता के माध्यम से ग्रीन मुनिया के संरक्षण कार्याें को सन 2004 में प्रारम्भ किया गया। इसके तहत उन स्थानीय युवाओं व शिकारियों को प्रकृति मार्गदर्शक कार्यक्रम से जोड़ा जो स्वयं की इच्छा से संरक्षण में भागीदार बनना चाहते थे। तत्पश्चात उनका पारम्पारिक ज्ञान व आधुनिक विज्ञान को जोड़कर उन्हें प्रशिक्षित किया गया। इनके माध्यम से आमजन जो शहरी क्षेत्र व मुनिया के आवासीय स्थानों के समीप निवास कर रहे हैं, उनको इस प्रजाति के महत्व एवं स्थिति के विषय में संवेदनशील किया गया। परिणामतः सन 2004 में जब यह कार्य आरम्भ किया तब आबू पर्वत के चिन्हित स्थलों पर ग्रीन मुनिया की सँख्या चार सौ से भी कम थी जो सन 2019 के अन्त में पाँच गुना अधिक हो चुकी है। इस प्रकार यह स्थानीय कार्य अन्तर्राष्ट्रीय सोच के साथ सतत विकास लक्ष्यों (SDGs 1,8,11व 13) को चरितार्थ करने में एक सूक्ष्म कदम है जिसके तहत मुनिया एवं उसकेआवासों की सुरक्षा व संरक्षण तथा स्थानीय युवाओं को प्रकृति अवलोकन के द्वारा जीविकोपार्जन उपलब्ध हो रहा है।

आभार

लेखक आभारी है आबू में ग्रीन मुनिया के आवासीय स्थानों के समीप निवास कर रहे सभी आमजन जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मुनिया एवं उसके आवासों की सुरक्षा व संरक्षण में भागीदार हैं। विशेष धन्यवाद के पात्र जो टीम के सदस्यों के रूप में अपनी भूमिका निभा रहे हैं – श्री अजय मेहता, श्री प्रदीप दवे, श्री सलिल कालमा, श्री सन्दीप, श्री प्रेमाराम, श्री राजु, श्री हेमन्त सिंह आदि।