पोर्टिया मकड़ियाँ एक छोटी जंपिंग स्पाइडर है। जो साल्टिसिडे परिवार से संबंधित हैं। ये मकड़ी सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में से एक हैं। क्योंकि पोर्टिया मकड़ियाँ शिकारी का शिकारी करती हैं। वह तभी संभव है जब आप जटिल शिकार रणनीतियों की योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने माहिर हो। कुछ मकड़ियां अपने रेशम का जाला बनाकर इंतज़ार करती है, परंतु यह पोर्टिया मकड़ियाँ सक्रिय शिकारी होती हैं जो अपने शिकार का पीछा करती हैं और उस पर झपट्टा मारती हैं। देखा गया है की जब इस मकड़ी को एक जाला बनाने वाली मकड़ी मारनी होती है, तो वह उसे झांसा देकर अपने पास बुलाती है। यह उसके जाले में अपनी पतली टांगों से एक कंपन पैदा करती है, यह जाले वाली मकड़ी को लगता है कोई कीट उसके जाले में फंसा है।जाले वाली मकड़ी छिपे स्थान से बाहर आती है और फिर यह उस पर हमला कर देती है। इसके अलावा पोर्टिया प्रजातियाँ सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करने के लिए जानी जाती हैं जो आमतौर पर इन साल्टिसिडे मकड़ियों में नहीं देखी जाती हैं। यह मकड़ी मुझे सवाई माधोपुर (राजस्थान) में देखने को मिली।
सबसे बुद्धिमान आर्थ्रोपॉड में से एक मकड़ी (फोटो: धर्मेन्द्र खांडल)
पोर्टिया मकड़ियाँ सक्रिय शिकारी होती हैं जो अपने शिकार का पीछा करती हैं और उस पर झपट्टा मारती हैं (फोटो: प्रवीण)
राजस्थान में पाए जाने वाले चमगादड़ों की विविधता को संकलित करता आलेख
चमगादड़ स्तनधारी प्राणियों का एक ऐसा समूह जिसे लोग सदैव हेय दृष्टि से ही देखते आये हैं। इन्होंने भी अपने आप को हमसे दूर रखने में कोई कमी नहीं रखी, एक तो उड़ने वाले प्राणी के रूप में विकसित हुए और दूसरे यह मात्र रात के समय सक्रिय रहते हैं। चमगादड़ एकांत प्रेमी होते हैं और अक्सर निर्जन स्थान पर रहते हैं। इन सभी वजहों के कारण हम इनके बारे में कम ही जानते हैं। वहीं इनके जीवन जीने की सैली भी थोड़ी विचित्र है, यह प्राणी अपना मूत्र और विष्ठा का उत्सर्जन वहीं करते है जहाँ यह रहते हैं, जिसकी गंध अक्सर अन्य प्राणी पसंद नहीं करते और इस तरह चमगादड़ अपने आप को अन्य प्राणियों से बचाते हैं और वहीं इंसान भी इन्हें दूर रखने का प्रयास करते हैं।
चमगादड़ को भोजन के आधार पर दो मुख्य भागों में बांटा जा सकता है – फल खाने वाले विशाल फल भक्षी मेगाबैट्स और दूसरे किट खाने वाले छोटे कीटभक्षी माइक्रो-बैट्स। राजस्थान में ३ चमगादड़ फ्रूट बैट प्रजाति की है और बाकि लगभग 18 कीटभक्षी प्रजाति की है। हालांकि कुछ और भी चमगादड़ प्रजातियां राजस्थान में हो सकती है और जंतु वैज्ञानिकों में कई प्रजातियों के राजस्थान में मिलने नहीं मिलने को लेकर कई तरह की बहस भी चल रही है।
राजस्थान में निम्न चमगादड़ प्रजातियां आसानी से मिल जाती है।
मेगाबैट्स:
यह बैट इकोलोकेशन का इस्तेमाल नहीं करते है और फलों को खाकर अपना पेट भरते है। तीन प्रजातियों की फ्रूट बैट हमारे यहाँ मिलती है।
1. इंडियन फ्लाइइंग फॉक्स (Pteropus medius)
अधिकांशतया बरगद के विशाल वृक्षों पर कॉलोनी बनाकर रहते है। यह एक विशाल चमगादड़ है जिनके हाथों के साथ पंखों का फैलाव 890mm तक हो सकता है। यह अक्सर विशाल बरगद के वृक्षों पर मिलते है। बरगद, गूलर आदि फलों को खाने वाले यह चमगादड़ अपनी विष्ठा से बीजों को फैलाने में एक महत्ती भूमिका निभाते हैं।
यह चमगादड़ इंडियन फ्लाइंग फॉक्स की तुलना में आधे आकार की फ्रूट बैट है। जिनके पंखों का फैलाव 480 mm तक होता है। दिन के समय यह केले, घने पत्ते वाले पेड़ों में छिप कर रहती है। राजस्थान में इसका प्रसार व्यापक है परन्तु राज्य में इसे 1980 में पहली बार देखा गया।
3. लेसचेनॉल्ट का रुसेट (Rousettus leschenaultii)
इस फ्रूट बैट का आकर 560 mm तक होता है। अक्सर यह चमगादड़ गुफाओं अथवा इमारतों में मिलती है। झालावाड़ के गागरोन के किले और जालोर के स्वर्णगिरि के किले पर इसके बड़े समूह देखे जा सकते है।
माइक्रोबैट्स:
राजस्थान में अनेक कीटभक्षी चमगादड़ मिलती है।
A. राइनोपोमा (माउस-टेल्ड बैट)
राजस्थान में अनेक स्थानों पर राइनोपोमा चमगादड़ मिल जाती है। यह एक चूहे के समान दिखने वाली चमगादड़ है जिसके एक लम्बी पूंछ होती है। राजस्थान में इनकी दो प्रजातियां पाई जाती है
4. लेसर माउस-टेल्ड बैट (Rhinopoma hardwickii)
5. ग्रेटर माउस-टेल्ड बैट (Rhinopoma microphyllum)
R. hardwikii की पूंछ इनके फोरआर्म से लम्बी होती है। इनके नाक के पास दोनों और फुले हुए नथुने होते है इन भिन्नताओं के अलावा इसमे और R. microphyllum में कोई अंतर नहीं है।
B. टैफोज़स (टॉम्ब बैट)
इस वंश की 4 प्रजातियां राजस्थान में मानी जाती है। इस जीनस की चमगादड़ को टॉम्ब बैट कहा जाता है, अक्सर पुरानी इमारतों में रहती है अथवा गुफाओं के खुले हिस्से को पसंद करती है। यानी अधिक गहरी और अधिक अँधेरी जगह में कम रहती है।
इन में से नुडीवेन्ट्रिस बैट के शरीर पर अत्यंत छोटे और पतले बाल होते है एवं इसके ऊपरी भाग पर एक तिहाई हिस्से पर बाल नहीं होते है यानि इसका रम्प वाला हिस्सा नग्न होता है। यह सूर्यास्त से आधे घंटे पहले सक्रिय हो जाती है, तेजी से उड़ती है और उड़ते हुए कीड़ों को शिकारी पक्षी की भांति पकड़ती है। वहीं लोन्गिमैनस की आगे की आर्म अधिक लम्बी होती है और मुँह के नीचे बाल रहित गले के पास एक अर्ध गोलाकार गूलर सैक होता है। मेलनोपोगों के नर में गले पर काली दाढ़ी होती है।
C. हिप्पोसिडरोस (राउन्डलीफ बैट)
10. फुलवस लीफ-नोज़ड़ बैट (Hipposideros fulvus)
11. इंडियन राउन्डलीफ बैट (Hipposideros lankadiva)
इनके नाक पर मिलने वाले विभिन्न आकारों के कारण इन्हे सामूहिक रूप से राउंड लीफ चमगादड़ कहा जाता है। इसमें अभी तक दो प्रजातियों के चमगादड़ राज्य में मिले हैं। फुलवस प्रजाति आकर में छोटी और लंकादिवा आकर में बड़ी होती है। लंकादिवा अक्सर नम क्षेत्र में मिलती है और राज्य में मात्र करौली जिले में ही देखी गयी है, जो इस आलेख के लेखक ने ही पहली बार रिकॉर्ड की है। फुलवस राज्य में जैसलमेर से लेकर धौलपुर तक सभी हिस्सों में मिल जाती है। यद्यपि यह भी कुछ नमी वाले स्थानों को पसंद करती है और राइनोपोमा चमगादड़ के साथ भी रह लेती है।
एक वेस्पर्टिलिओनिडे परिवार की बैट है, वेस्पर का अर्थ है ‘शाम’; उन्हें “शाम के चमगादड़” कहा जाता है। इसमें २ प्रजाति राजस्थान में मिलती है। हीथी सबसे अधिक मिलने वाली बैट है जो अकसर भवनों की सीधी दीवारों पर चिपकी रहती है। इन की मादा चमगादड़ में शुक्राणु संग्रहित करने की क्षमता होती है जो ओव्यूलेशन के समय इस्तेमाल होते है। कुहली आकर में छोटी होती है और ब्रीडिंग के समय इनके अंदरूनी हिस्से का रंग और अधिक पीला हो जाता है।
E. टैडारिडा (फ्री-टेल्ड बैट)
इस जीनस में मुक्त पूंछ वाले चमगादड़ों की 2 प्रजातियों राजस्थान में मिलती हैं।
यह सबसे तेजी से उड़ने वाले बैट है जो १५० कम प्रतिघंटा की स्पीड से उड़ सकती है। इसको तेजी से उडने में इसकी पूंछ और उस से लगी झिल्ली काम आती है। इनकी पूँछ आमतौर पर आराम करते समय ही दिखाई देती है। इनकी उपास्थि (cartilage) का एक विशेष छल्ला पूंछ कशेरुकाओं को ऊपर या नीचे स्लाइड करती है साथ ही पूंछ के पास की झिल्ली भी मांसपेशियों द्वारा आगे पीछे खींचने के काम आती है। aegyptiaca प्रजाति अधिकांश राजस्थान में सामान्य तौर पर मिल जाती है परन्तु plicata मात्र माउंट आबू से 1980 में श्री सिन्हा द्वारा रिपोर्टेड है। यह तेजी से आवाज करने में भी माहिर है।
F. राइनोलोफस (हॉर्सशू बैट)
16. ब्लीदस हॉर्सशू बैट (Rhinolophus lepidus)
राइनोलोफस जीनस में हॉर्सशू बैट की कई प्रजातियों आती है। असल में इन चमगादड़ों की नाक के चारों ओर त्वचा का एक गोलाकार आवरण होता है जो घोड़े की नाल की तरह होता है।अधिकांश कीटभक्षी चमगादड़ों की तरह, उनकी आंखें छोटी होती हैं और उनकी दृष्टि का क्षेत्र अक्सर उनकी नाक की पत्ती तक सीमित होता है। राजस्थान में एडवर्ड ब्लाइथ द्वारा खोजी गयी एक बैट मिलती है। यह नाम गुफा में मिलने वाली छोटी बैट है।
G. लयरोडेर्मा (फ़ाल्स वैम्पायर बैट)
17. ग्रेटर फ़ाल्स वैम्पायर बैट (Lyroderma lyra)
यह अपेक्षाकृत बड़े चमगादड़ हैं, जिनके बड़ी आंखें और बहुत बड़े कान और एक उभरी हुई नाक पर एक पत्ती समान संरचना होती है। उनके पिछले पैरों या यूरोपेटागियम के बीच एक चौड़ी झिल्ली होती है, लेकिन कोई पूंछ नहीं होती। इनका पुराना नाम मेगाडरमा था। इन्हें फाल्स वैम्पायर बैट कहते है। यह वैम्पायर जैसे लगते है परन्तु असल में यह अन्य प्राणियों का रक्त नहीं पीते है। राजस्थान में इसकी एक ही lyra नामक प्रजाति मिलती है।
H. पिपिस्टरेलस
18. केलार्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus ceylonicus)
19. लीस्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus tenuis)
जीनस का नाम इतालवी शब्द पिपिस्ट्रेलो से लिया गया है, जिसका अर्थ है “चमगादड़”। यह अत्यंत छोटे चमगादड़ है। जिनमें २ चमगादड़ राजस्थान से शामिल किये गए है। यह वजन में मात्र ३-८ ग्राम तक के है। इनकी पहचान बाह्य आकर से कम ही हो सकती है परंतु वैज्ञानिक इनकी आवाज , डीएनए, एवं स्कल की बनावट से इनका पता लग सकते है। केलार्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus ceylonicus) को अब तक मात्र माउंट आबू, सिरोही से रिकॉर्ड किया गया है। लीस्ट पिपिस्ट्रेल (Pipistrellus tenuis) को गुढ़ा, लिहोरा, नावा, नागौर, (बिस्वास और घोस 1968) जोधपुर, नागौर, जयपुर, टोंक, पाली, सिरोही (सिन्हा 1980) आदि से रिकॉर्ड किया है। यद्यपि यह राजस्थान में विस्तृत रूप से मिलती है।
I. स्कोटोजोस
20. डॉर्मर पिपिस्ट्रेल (Scotozous dormeri)
इस जीनस में मात्र एकमात्र प्रजाति है, यह है -डॉर्मर पिपिस्ट्रेल (स्कॉटोज़स डॉर्मरी) प्रजाति। वितरण: जोधपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, भरतपुर (सिन्हा, 1980)
J. असेलिआ
21. ट्राइडेंट लीफ़-नोज़्ड बैट (Asellia tridens)
यह चमगादड़ गर्म क्षेत्रों में मिलती है। इसकी महत्वपूर्ण खोज राजस्थान से मात्र १० वर्ष पूर्व में की गयी है और साथ में पहली बार यह चमगादड़ भारत की सूची में भी शामिल हुई है। राजस्थान के दो जंतु वैज्ञानिक डॉ के आर सेनेचा एवं डॉ सुमित डूकिया ने मिलकर इसकी खोज जैसलमेर से 2013 में की है। इस खोज के बाद शायद इसे पुनः कभी नहीं देखा गया है। इसके नाक की पत्ती नुमा संरचना त्रिशूल के आकर की होती है यानी इसके तीन भाग होते हैं; बाहरी दो हिस्से कुंद हैं, जबकि केंद्रीय हिस्सा नुकीला होता है।
संकलित चमगादड़ों की सूची के अलावा भी कई और चमगादड़ों का राजस्थान के वैज्ञानिक साहित्य में वर्णन है परन्तु उनके रिकॉर्ड त्रुटि पूर्ण लगते है। अतः इन २१ चमगादड़ों को ही राजस्थान का माना जाना चाहिए, यह मेरा मत है।
इंडियन रॉउंडलीफ बैट (हिप्पोसिडेरोस लंकादिवा) भारतीय उप-महाद्वीप में मिलने वाली एक बड़े आकार की एक कीटभक्षी चमगादड़ है, जो पहली बार राजस्थान में मिली है। यह राजस्थान के करौली जिले के कसेड नामक गुफा में देखी गयी है। यह चमगादड़ डॉ धर्मेंद्र खांडल, डॉ दाऊ लाल बोहरा एवं डॉ श्यामकांत तलमले द्वारा थ्रेटएन्ड टेक्सा नामक जर्नल के जनवरी 2023 अंक में दर्ज करवाई गयी है। इस की खोज के लिए टाइगर वाच संस्था ने कई प्रकार से सहयोग उपलब्ध करवाया है।
हालांकि त्रुटिवश, यह चमगादड़ 1997 में बैटस एंड हैरिसन द्वारा लिखी गयी “बैटस ऑफ़ द इंडियन सबकॉन्टिनेंट” नामक एक पुस्तक में राजस्थान राज्य में शामिल होना माना गया था। इस पुस्तक में वासन (1979) के एक शोधपत्र को गलत तरह से उद्धृत किया गया, और यह उल्लेख किया गया की यह चमगादड़ प्रजाति भीम भड़क, जोधपुर नामक स्थान पर मिलती है। हालाँकि वासन ने अपने शोध पत्र में किसी अन्य चमगादड़ प्रजाति का उल्लेख किया था, जो हिप्पोसिडेरोस जीनस से ही सम्बन्ध रखती है। यह त्रुटि लगभग 25 वर्ष पश्च्यात इस शोधपत्र के द्वारा सुधारी गयी है एवं साथ ही इस प्रजाति की चमगादड़ को राजस्थान में पहली बार देखा भी गया है। राजस्थान में पुराने किले, हवेलियों और प्राकर्तिक गुफाओं में अनेक प्रकार की कीटभक्षी चमगादड़ प्रजातियां मिलती है, जिन प्रजातियों की संख्या 25 से अधिक होगी। राजस्थान में अभी भी इस स्तनधारी समूह पर शोध कर नयी प्रजातियां खोजी जा सकती है। कीटभक्षी चमगादड़ हमारे पर्यावरण के अभिन्न अंग है, जो कीट पतंगों को प्राकर्तिक रूप से नियंत्रण करती है। चमगादड़ को बचाना हमारे कृषि तंत्र को पुख्ता करना भी है।
सर्वप्रथम इस चमगादड़ को श्री लंका में खोजा गया था और की खोज करने वाले वैज्ञानिक ने इसे – लंकादिवा नाम दिया था, जिसका अर्थ है श्री लंका की सुंदरी। यह चमगादड़ खास तरह के नमी वाले वातावरण में रहना पसंद करती है। कसेड गुफा, करौली एक 150 गहरी गुफा है जिसमें पानी भी उपलब्ध है। हालाँकि बाहरी हिस्सा छोड़ा है और एक मंदिर की तरह उपयोग लिया जाता है, हालाँकि इस चमगादड़ प्रजाति की संख्या में यहाँ भारी गिरावट दर्ज की गयी है परन्तु फिर भी यह एक सुरक्षित स्थान माना जासकता है। सरकार को कोशिश करनी चाहिए की यह स्थान अपना मूल स्वरुप नष्ट नहीं करें। यद्यपि यह गुफा किसी प्रतिबंधित क्षेत्र में नहीं आती है परन्तु राज्य का बायोडायवर्सिटी बोर्ड इस के संरक्षण के कार्य में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।
यदि राजस्थान में चमगादड़ के वितरण के स्वरुप को देखें तो मुख्य रूप से दो प्रमुख मार्ग से प्रवेश करती है। एक दक्षिण भारत से दूसरी ओर एक ईरान पाकिस्तान के रास्ते।
यह प्रजाति श्रीलंका से होती हुई मध्य भारत तक पहुंची। जहा विंध्याचल व अरावली के संगम व चंबल के तलहटी में इसकी उपस्थिति दर्ज की गई। अतिदुर्लभ प्रजाति का आवास खेतों में उपयोग हो रहें कीटनाशकों के कारण इनके प्रजनन को बाधित कर रहे हैं। साथ ही प्राकृतिक आवास भी समाप्त किए जा रहे है।
जटिल और सुंदर आवाज अथवा मुश्किल नृत्य के माध्यम से पक्षियों में अपने संगी को रिझाना एक अत्यंत सामान्य प्रक्रिया है। परन्तु क्या आप जानते है ‘प्रेम उपहार’ (नुपिटल गिफ्ट) भी एक तरीका है, जिसमें पक्षी अपने संगी को किसी भोजन का उपहार, उसके साथ परिवार बसाने के लिए देते है। अक्सर नर पक्षी मादा को उपहार में खाने के लिए कीड़े आदि उपहार में देते है इसे नुपिटल गिफ्ट (Nuptial gift) कहा जाता है।
इसी प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन वाइट बेलिड मिनिवेट (white-bellied minivet) नामक पक्षी अत्यंत शानदार एवं नाज़ुक तरीके से करता है। White-bellied Minivet (Pericrocotus erythropygius) भारत में मिलने वाला एक स्थानिक पक्षी है, जो शायद किसी अन्य देश में नहीं मिलता (कुछ लोग मानते है की यह नेपाल में भी मिलता है)। झाड़ीदार और सवाना वनों में रहने वाला यह एक सुंदर मिनीवेट है। जिसमें नर का ऊपरी शरीर, चेहरा और गर्दन का हिस्सा चमकदार काला होता है। छाती पर एक गोल नारंगी पैच होता है, बाकी के अंदरूनी हिस्से सफेद होते हैं। पूंछ काली है, जिसके ऊपर का हिस्सा नारंगी होता है और पंखों पर सफेद निशान हैं। परन्तु मादा इतनी प्रभावी नहीं दिखती है, उसके पीठ का ऊपरी भाग गहरे भूरे रंग का, हल्के काले पंख, एक काली पूंछ होती है। पंखों में नर के समान सफेद निशान होते हैं, और पूंछ का ऊपरी हिस्सा हल्का नारंगी होता है।
वर्षा ऋतु में अक्सर मादा उपहार ग्रहण करने के समय 3-5 फीट ऊंची झाड़ी के एक किनारे की शाखा पर बैठ कर नर को देखती है एवं नर इधर उधर घूम कर कीड़े ढूंढ कर मादा को उड़ते उड़ते उसकी चोंच में अपनी चोंच से एक कीड़ा (अक्सर एक कैटरपिलर) उसको उपहार में दे देता है। यह उपहार देने का एक अत्यंत अनोखा तरीका है। हालांकि नर, मादा की शाखा पर बैठ कर यह उपहार आसानी से दे सकता है परन्तु उड़ते उड़ते उपहार देने का दृश्य को अत्यंत रोचक बन जाता है। देखा गया है की यह 15 -20 मिनट में 5 -7 बार इस प्रक्रिया को दर्शाता है। यह आवृति और सततता नर के मादा के प्रति समर्पण के साथ उसकी योग्यता को दर्शाता है। इस दौरान कभी कभी मादा, नर के द्वारा कीड़े पकड़ लिए जाने पर उसके नज़दीक जाने का कष्ट करती है।
प्रकृति में विभिन्न जीवों का अद्भुत व्यवहार देखने लायक है बस उन्हें रुक कर समय देने की आवश्यकता है।
राजस्थान में एक विचित्र नाम का कीट हैं -हिचड़कावा, यह असल में एक विशाल झींगुर हैं, जो रेतीली सतह- धोरों, नदियों के किनारे आदि पर मिलता हैं। हिचाड़कावा क्या नाम हुआ ? असल में इस विचित्र दिखने वाले कीट के लिए शायद एक विचित्र नाम दे दिया गया हैं। इसका वैज्ञानिक नाम हैं – स्किज़ोडाक्टील्युस मोनस्ट्रोसुस (Schizodactylus monstrosus) हैं। यह उड़ नहीं पता हैं और मेंढक की भांति फुदक फुदक कर चलता हैं। भारत में कई स्थानों पर मिलता हैं – जिसमें नॉर्थ ईस्ट भी शामिल हैं। पूरी तरह रात्रिचर कीट के पंख पीछे से मुड़ कर उसके शरीर की रक्षा के काम आते हैं वहीँ इनके पांवो में विचित्र प्रकार की संरचना बनती हैं जो मिट्टी को खोदने और पीछे धकेलने के लिए उपयुक्त होती हैं। यह इतनी जल्दी जमीन खोदते हैं की देखते देखते जमीन में समा जाते हैं।
पिले रंग के इन झींगुरों पर कई प्रकार के काले धब्बे और निशान होते हैं, साथ ही इनके पांव में हलके हरे रंग की आभा होती हैं। इनके एंटेना की लम्बाई शरीर से लगभग ढाई-तीन गुना तक बड़ी होती हैं, जो कई प्रकार की सूचना एकत्रित करने में सक्षम होती हैं। इनके मुँह के लैब्रम का आकर बड़ा होता हैं जो मेंडिबल्स को ढक लेता हैं। जो टीलों की जमीन को खोदने के लिए उपयुक्त होते हैं।
यह एक मांसभक्षी कीट हैं जो बीटल, अन्य कीट एवं खुद की प्रजाति को भी खाते हैं। यह स्वयं मरू लोमड़ी, मरू बिल्ली आदि के लिए एक महत्वपूर्ण भोजन का स्रोत बनता हैं।
यह नौ इनस्टार के माध्यम से अपना जीवन पूर्ण करता हैं। इंस्टार आर्थ्रोपोड्स का एक विकासात्मक चरण है, जैसे कि कीटक वर्ग को यौन परिपक्वता तक पहुंचने तक कई रूप ग्रहण करने के लिए बाहरी खोल को (एक्सोस्केलेटन) छोड़ना होगा जिसे निर्मोचन (मोल्टिंग) कहते हैं ।
इंस्टार के बीच अक्सर शरीर के बदलते अनुपात, रंग, पैटर्न, शरीर के खंडों की संख्या में परिवर्तन या सिर की चौड़ाई में अंतर देखा जा सकता है। कुछ आर्थ्रोपोड यौन परिपक्वता के बाद भी निर्मोचन करना जारी रख सकते हैं, लेकिन इन बाद के मौल्टों के बीच के चरणों को आम तौर पर इंस्टार नहीं कहा जाता है।
अध्ययन में पाया गया हैं की यह आधा फुट नीचे खड़ा खोद कर यह अंडे डालते हैं जो 20-25 तक हो सकते हैं। कई देशो में लोग इन्हें पालते भी हैं जैसे हमारे देश में घरों में मछलियां पाली जाती हैं।
Mr. Valmik Thapar has published a very unique book documenting tiger behaviour. The book features both photographs and refreshingly new writing on tiger behaviour such as tiger conflict, hunting, raising of cubs, breeding, other kinds of interaction observed within the species, as well as interspecies interaction involving leopards, sloth bears, striped hyenas etc.
After getting a hold of this book, it is near impossible to put down without poring over all 336 pages in one go. I too have contributed to it’s making, and therefore have been mentioned on the cover, so seeing this book for the first time has been both a proud and happy moment for me. The book is largely based on photographs taken during two very long visits to Ranthambhore National Park by Mr. Thapar, but also features very insightful commentary on various kinds of behaviour displayed by many tigers in Ranthambhore. I also had the opportunity to accompany Mr. Thapar to the National Park on most occasions during this period .
The exploits of a tiger originally named Charger (T-120) have been documented in minute detail and have been thoroughly analysed by Mr. Thapar drawing on his decades of experience. Mr. Thapar’s wife Ms. Sanjana Kapoor also took many photographs during these visits. Her inputs have been invaluable in covering any gaps in material. In fact, all the people around Mr Thapar for those 40 -50 days began working as a team. Mr. Salim Ali’s years of experience in conducting excursions in Ranthambhore as a naturalist-guide and his understanding of tiger behaviour made him a central part of this endeavour. Shyam Ji, the veteran driver with SUJAN Sherbagh was flawless at the wheel, and kept us very comfortable during the scorching heat .
The book also features contributions by other celebrated wildlife photographers in India, all of whom happily presented their photographs to Mr. Thapar for this project. Namely – Mr. Aditya Singh, Mr. Kairav Engineer, Mr. Chandrabhal Singh, Mr. Jayant Sharma, Mr. Harsha Narasimhamurthy, Mr. Arijit Banerjee, Mr. Udayveer Singh, Mr. Abhinav Dhar, Mr. Abhishek Chaudhary etc. All have been visiting Ranthambhore National Park for decades now.
According to Mr. Thapar, this book has been published for friends and family, which probably means it will not be available in bookstores nor online platforms like Amazon and Flipkart. This is because Mr. Thapar believes that marketing and promoting a book is rather cumbersome . Mr. Thapar has appropriately titled this book Tiger Gold, i.e the book in which the tigers of Ranthambhore have made the ultimate display of their behaviour and Mr. Thapar has done a stellar job in compiling all the material. His passion and enthusiasm during his 70th birth year is exemplary and an inspiration. You are cordially invited to see this book in my personal collection.