Mr. Valmik Thapar has published a very unique book documenting tiger behaviour. The book features both photographs and refreshingly new writing on tiger behaviour such as tiger conflict, hunting, raising of cubs, breeding, other kinds of interaction observed within the species, as well as interspecies interaction involving leopards, sloth bears, striped hyenas etc.
After getting a hold of this book, it is near impossible to put down without poring over all 336 pages in one go. I too have contributed to it’s making, and therefore have been mentioned on the cover, so seeing this book for the first time has been both a proud and happy moment for me. The book is largely based on photographs taken during two very long visits to Ranthambhore National Park by Mr. Thapar, but also features very insightful commentary on various kinds of behaviour displayed by many tigers in Ranthambhore. I also had the opportunity to accompany Mr. Thapar to the National Park on most occasions during this period .
The exploits of a tiger originally named Charger (T-120) have been documented in minute detail and have been thoroughly analysed by Mr. Thapar drawing on his decades of experience. Mr. Thapar’s wife Ms. Sanjana Kapoor also took many photographs during these visits. Her inputs have been invaluable in covering any gaps in material. In fact, all the people around Mr Thapar for those 40 -50 days began working as a team. Mr. Salim Ali’s years of experience in conducting excursions in Ranthambhore as a naturalist-guide and his understanding of tiger behaviour made him a central part of this endeavour. Shyam Ji, the veteran driver with SUJAN Sherbagh was flawless at the wheel, and kept us very comfortable during the scorching heat .
The book also features contributions by other celebrated wildlife photographers in India, all of whom happily presented their photographs to Mr. Thapar for this project. Namely – Mr. Aditya Singh, Mr. Kairav Engineer, Mr. Chandrabhal Singh, Mr. Jayant Sharma, Mr. Harsha Narasimhamurthy, Mr. Arijit Banerjee, Mr. Udayveer Singh, Mr. Abhinav Dhar, Mr. Abhishek Chaudhary etc. All have been visiting Ranthambhore National Park for decades now.
According to Mr. Thapar, this book has been published for friends and family, which probably means it will not be available in bookstores nor online platforms like Amazon and Flipkart. This is because Mr. Thapar believes that marketing and promoting a book is rather cumbersome . Mr. Thapar has appropriately titled this book Tiger Gold, i.e the book in which the tigers of Ranthambhore have made the ultimate display of their behaviour and Mr. Thapar has done a stellar job in compiling all the material. His passion and enthusiasm during his 70th birth year is exemplary and an inspiration. You are cordially invited to see this book in my personal collection.
श्री वाल्मीक थॉपर ने दुर्लभ बाघ व्यवहार दर्शाने वाले छाया चित्रों के संग्रह के साथ अनोखी पुस्तक का प्रकाशन किया है. इस पुस्तक में बाघों के आपसी टकराव, शिकार, बच्चों के लालन पालन, प्रणय, बघेरे, भालू, लकड़बग्घा आदि के साथ बाघ के आपसी व्यवहार, आदि सभी विषयों पर अद्भुत छायांकन और लेखन से जानकारी साझा की है.
इस पुस्तक को हाथ में लेने के बाद इसके 336 पृष्ठों को एक बार में देखे बिना छोड़ पाना लगभग नामुमकिन है. मैंने भी इसके बनने में सहयोग दिया हैं अतः मुझे भी पुस्तक के मुख पृष्ठ पर स्थान मिला है, अतः इस पुस्तक को पहली बार देखना मेरे लिए एक गर्व और सुखद अहसास का क्षण रहा है . यह पुस्तक मुख्यतया श्री थॉपर के रणथम्भौर में दो लम्बे प्रवासों के दौरान प्राप्त हुए छाया चित्रों एवं अनेक बाघों के द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार की जानकारी पर आधारित है . इस दौरान मुझे भी अधिकांश बार उनके साथ पार्क में जाने का मौका मिला था .
पुस्तक में मूलतः चार्जर (T120) नामक बाघ द्वारा प्रदर्शित किये गए व्यवहार को अत्यंत सूक्ष्मता से छायांकन किया गया एवं उतनी ही गहराई से श्री थॉपर द्वारा अपने दीर्घ अनुभव के माध्यम से उनका गहन विश्लेषण किया है. श्री थॉपर की पत्नी श्रीमती संजना कपूर ने भी इस दौरान लिए अनेकों छायाचित्र लिए जिनसे रिक्त स्थानों को सम्पूर्णता मिली है . असल में इन दो प्रवासों के 40 -50 दिनों तक उनके साथ रहने वाले सभी लोग एक टीम के रूप में कार्य करने लगे. जैसे अनोखे सामर्थ्य के धनी श्री सलीम अली के वन भ्रमण के लम्बे अनुभव और बाघों के व्यवहार को समझने वाले गाइड के तौर पर कुशल संयोजन किया है . शेरबाग होटल के दीर्घ अनुभवी ड्राइवर श्री श्याम ने अपनी मक्खन ड्राइविंग से उन दिनों की तप्ती धुप को भी सहज बनाये रखा .
इस पुस्तक में भारत के जाने माने अन्य वन्यजीव छायाकारो ने भी अपने छाया चित्र इस पुस्तक के लिए श्री थापर को सहर्ष भेंट किये है . जिनमे है – श्री आदित्य सिंह , श्री कैरव इंजीनियर, श्री चन्द्रभाल सिंह, श्री जयंत शर्मा, श्री हर्षा नरसिम्हामूर्ति, श्री अरिजीत बनर्जी, श्री उदयवीर सिंह, श्री अभिनव धर,श्री अभिषेक चौधरी आदि हैं. यह सभी पार्क में जाने का लम्बा अनुभव रखते हैं .
श्री थॉपर के अनुसार यह पुस्तक अपने इष्ट मित्रों और परिजनों के लिए ही प्रकाशित की गयी है शायद इसका मतलब है यह बाजार, अमेज़ॉन और फ्लिपकार्ट पर यह उपलब्ध नहीं होगी. क्योंकि अभी तक श्री थापर का मानना है की मार्केटिंग आदि अत्यंत कष्ट पूर्ण कार्य है .
श्री थॉपर ने इस पुस्तक का नाम दिया है टाइगर गोल्ड यानी वह पुस्तक जिसमें बाघों ने अपने व्यवहार का सर्वोच्च
प्रदर्शन किया है और श्री थॉपर ने भी अपनी अर्धशती के लम्बे अनुभव के साथ इसका बखूबी संकलन किया है . अपने 70 वें जन्म वर्ष में उनका यह उत्साह अनुकरणीय है . आप यह पुस्तक मेरे व्यक्तिगत संग्रह में देखने के लिए सादर आमंत्रित हैं .
भीं भीं भीं ””””’ की निरंतर आवाज करते हुए यह भारी भरकम बीटल निर्भीक तौर पर दिन में उड़ते हुए दिख जाते हैं।स्टेरनोसरा क्रिसिस (Sternocera chrysis) को राजस्थान में भींग कहा जाता हैं। इनका ऊपरी खोल या एलेंट्रा भूरे रंग का होता हैं परन्तु प्रोनोटुं एक हरे चमकीले रंग का होता हैं, यह एक ज्वेल बीटल हैं जो अद्भुत चमकीले रंग के लिए जाने जाते हैं। यह रंग इन्हें अपने शत्रुओं के लिए अदृश्य बनाने में मददगार होते हैं। रंग हालाँकि आकर्षण के लिए होता हैं परन्तु इनकी अनोखी चमक जीवों को चौंधिया देती हैं और यह अपने शत्रुओं से अपना बचाव कर पाते हैं।
बीटल एक प्रकार के कीट हैं, जिनके कठोर पंखों के जोड़े को विंग-केस या एलीट्रा कहा जाता है, जो इन्हें अन्य कीड़ों से अलग करता है। यह उड़ने की बजाय अंदर के मुलायम पंख अथवा शरीर की रक्षा में काम आते हैं। बीटल की लगभग 400,000 वर्णित प्रजातियों हैं यह सम्पूर्ण ज्ञात कीटों का लगभग 40% और सभी ज्ञात प्राणियों का 25% हैं।
पुराने ज़माने में राजस्थान में छोटी लड़कियां इनके चमकीले खोल का इस्तेमाल अपनी गुड़ियों को सजाने में करती थी, यह खोल अक्सर इनके मरने के बाद इधर – उधर गिरे हुए मिल जाते थे।
बारिश के समाप्त होने के दिनों में जब सूरज सर पर हो तब यह उड़ते हुए जमीं पर उतरते हैं और जमीन में अंडे देते हैं, यह उस पेड़ के नजदीक अंडे डालते हैं जो इनके लार्वों को भोजन प्रदान कर सके। कैसिया फिस्टुला या अमलताश के पेड़ इनके होस्ट प्लांट माने जाते हैं। अमलताश के पेड़ों के नीचे यह अपने पीछे के भाग से कई बार अंडे देता हैं एवं इन के लार्वों की वजह से यह पेड़ मारे भी जाते हैं, अथवा कमजोर हो जाते हैं। क्योंकि यह पेड़ो की मुख्य जड़ो को खोखला कर उसको नुकसान पहुंचाते हैं।
यदपि भींग को प्रकृति में हानिकारक कीट के रूप में देखने की आवश्यकता नहीं हैं, इसकी अपनी एक भूमिका हैं जो यह निभाते हैं, और वह हैं पेड़ों के संख्या को नियंत्रित करना।
राजस्थान के सुनहरे रेतीले धोरों पर मिलने वाला एक सुनहरा बिच्छू जो मात्र यहीं पाया जाता हैं …………………………………..
राजस्थान के रेगिस्तान में ऐसे तो कई तरह के भू-भाग है, परन्तु सबसे प्रमुख तौर पर जो जेहन में आता है वह है सुनहरे रेत के टीले या धोरे। इन धोरो पर एक खास तरह का बिच्छू रहता है- जिसका नाम है- बूथाकस अग्रवाली (Buthacus agarwali)। मेरे लिए यह इस लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मेरे एक साथी श्री अमोद जामब्रे ने 2010 में इसकी खोज की थी। यहाँ खोज से मतलब है, पहली बार जंतु जगत के सामने इस प्रजाति के अस्तित्व के बारे में जानकारी रखी थी। उन्हें यह बिच्छू उनके मित्र श्री ईशान अग्रवाल ने ही संगृहीत करके दिया था जो राजस्सथान के जैसलमेर जिले के सगरो गांव से मिला था।श्री अमोद ने इसे अपने इसी मित्र के उपनाम से नाम भी दिया – अग्रवाली।
राजस्थान के कठोर वातावरण को दर्शाते हुए एक सटीक कविता है |
लू री लपटा लावा लेवे |
धोरा में तू किकर जीवै ?
कियाँ रेत में तू खावै पीवै ?
(एक अज्ञात राजस्थानी कवि की रचना)
खोज कर्ता :- श्री अमोद जामब्रे
यह बिच्छू आपको राजस्थान के मुलायम रेत वाले धोरों पर ही मिलेगा, इन धोरों पर लगभग उसी रंग के यह मध्यम आकार के बिच्छू शाम को सूरज ढलते ही सक्रिय हो जाते है और अपने लिए भोजन तलाशते है। पूरे दिन यहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता हैं अतः इन्हें छुप कर रहना पड़ता हैं। इनकी एक विशेषता यह है की यह धोरों के सबसे मुलायम रेत वाले हिस्से पर रहता है।त्वरित रूप से अपने आगे के तीनो पांवों की जोड़ियों से रेत निकालते हुए अपने चतुर्थ पांव की जोड़ी से मिट्टी को तेजी से बाहर निकालता है (जैसे अक्सर कोई ततैया करता है) और एक छोटा सा कोटर बना कर छुप कर बैठ जाता है। और तब तक इंतज़ार करता है, जब तक कोई शिकार नहीं आ जाये जिसे वह अपना भोजन बना सके । यदि यह अधिक धोरों पर अधिक विचरण कर अपना शिकार खोजेगा तो खुद का भी इसे किसी शिकारी द्वारा पकड़े जाने का खतरा रहेगा। दिन उगते ही यह एक कोटर को और गहरा करके रेत में समा जाता हैं।
अमोद अपने आलेख में लिखते हैं की यह जीनस बूथाकस अफ्रीका में मिलता हैं परन्तु इस खोज के साथ यह जीनस भारत में पहली बार पाया गया हैं। साथ ही यह प्रजाति राजस्थान की एक एंडेमिक या स्थानिक प्रजाति हैं जो मात्र राजस्थान में ही मिलती हैं।
Citation:
Amod Zambre and R Lourenço (Feb 2011), A NEW SPECIES OF BUTHACUS BIRULA, 1908 (SCORPIONES, BUTHIDAE) FROM INDIA, 115 Boletín de la Sociedad Entomológica Aragonesa, nº 46 (2010) : 115 -119.
सवाई माधोपुर – करौली ज़िलों के आस पास के लोग एक रहस्यमय सांप के बारे में अक्सर चर्चा करते है, जिसे वे ककरगड़ा के नाम से जानते है। उनके अनुसार यह सांप अपने बिलों के आस पास कंकर इकट्ठे करता है।
इन पत्थर के छोटे छोटे टुकड़ों को वह करीने से अपने बिल के मुहाने के आगे सहेज कर रखता हैं। स्थानीय लोग इसे अत्यंत ज़हरीला सांप मानते है, और साथ ही कहते हैं की यह मात्र रात्रि में निकलता है। निरंतर ककरगड़ा की चर्चा होने के कारण, यह सब के लिए एक पहेली बनता जा रहा था। कभी कभी लगाता था, जैसे वह करैत की बात कर रहे है, क्योंकि उनके अनुसार ककरगड़ा मात्र रात्रि में ही सक्रिय होता है। इन सब बातो से इस सांप का रहस्य और भी गहराता जा रहा था।
राजस्थान में सांपों के बारे में अनेक किंवदन्तियाँ और अंधविश्वास से जुड़ी कई कहानियां आम हैं, परन्तु उनकी बातों से ककरगड़ा का वर्णन पूरी तरह गलत नहीं लग रहा था। गांव के बुजुर्ग और जवान सभी इस प्रकार के सांप देखने की चर्चा करते रहे है।गांव के लोगों के अनुसार इस सांप के बिल अक्सर ही मिल जाते हैं।
Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल (फोटो : श्री धर्म सिंह गुर्जर)
वर्ष 2007, में पाली- चम्बल गांव से फ़ोन आया की उनके घर के पास ककरगड़ा ने एक बिल बना रखा हैं, यह हमारे लिए एक अवसर था। टाइगर वॉच संस्था ने एक इंटर्न श्री प्रीतेश पानके को यह जिम्मा दिया की वह इस रहस्य से पर्दा हटाने में मदद करें। श्री पानके को पूरी रात्रि जाग कर गहन नजर रखते हुए उस बिल के पास बैठना था। श्री पानके वर्तमान में भारतीय वायु सेना में कार्यरत है। पूर्ण सजग श्री पानके पूरी तैयारी कर के उस बिल से थोड़ी दूर अपना कैमरा लेकर बैठ गए की अब इस रहस्य से पर्दा हटाना ही है।
श्री पानके के अनुसार पहली रात्रि में उन्होंने कोई भी गतिविधि नहीं देखी, लगने लगा मानो यह एक व्यर्थ प्रयास होने जा रहा हैं। दूसरी रात्रि भी लगभग ख़तम होने को आयी, अब उन्हें नींद भी आ रही थी, परन्तु अभी उनकी जिज्ञासा ख़तम नहीं हुई थी, साथ ही यह भय भी था कहीं करैत जैसा सांप नींद में काट नहीं ले, बार बार में वे कुर्सी से नीचे लटकते अपने पांव ऊपर करते रहे। सुबह के पांच बज चुके थे, अचानक बिल के पास एक हलचल हुई और एक छोटा चूहा तेजी से बिल से निकल कर बाहर की और भागा। खोदा पहाड़ निकला चूहा की कहावत को चरितार्थ करता हुआ यह प्राणी कई रहस्यों से पर्दा हटाते हुए, उसी कुछ समय में कई बार अंदर बाहर आया गया, उसकी तेज गति के कारण श्री पानके मात्र एक छाया चित्र ही ले पाए।खैर श्री पानके के प्रयास से यह तय हो गया की ककरगड़ा कोई सांप नहीं बल्कि एक चूहा है।
भारतीय प्राणी सर्वेक्षण विभाग के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक ने इसे प्राथमिक तौर पर Little Indian field mouse (Mus booduga) के नाम से पहचाना हैं। यद्यपि उनके अनुसार flat-haired mouse (Mus platythrix) भी हो सकता है एवं इसको प्रमाणिक तौर पर पहचनाने के लिए चूहे को पकड़ कर उसका परिक्षण करना पड़ेगा। एक अन्य शोध पत्र के अनुसार यह पाया गया हैं की Little Indian field mouse (Mus booduga) अपने बिल के मुंह पर मिटटी के ढेले लगा कर रखता हैं। यह ढेले बिल में बच्चे मौजूद रहने पर संख्या में अधिक वह आकर में बड़े हो सकते हैं। इसलिए यह माना गया है की उनका सम्बन्ध सुरक्षा से हैं। यद्यपि इस मामले में मिट्टी के ढेलो की बजाय पत्थर के कंकर थे। शायद सरीसृप इस तरह के बिल के पास जब रेंगते हुए चलते हैं तो पत्थर सरक कर उनके मुँह को ही बंद कर देते हैं अथवा बिल के अंदर जाने का छोटा रास्ता कंकरो के ढेर में ही खो जाता हैं।
Little Indian field mouse (Mus booduga) का छायाचित्र (फोटो : श्री प्रितेश पानके)
Little Indian field mouse (Mus booduga) चूहे मात्र एक छोटे मुँह वाले बिल बनाते हैं जिस कारण इनको हाइपोक्सिक और ह्यपरकपनीक (hypoxic and hypercapnic) स्थितियों में रह सकते हैं। इसका मतलब हैं कम ऑक्सीजन एवं रक्त में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की स्थिति में भी रह पाना।
खैर, इस तरह श्री पानके ने दो रात की मेहनत कर एक सांप के मिथक से पर्दा हटा दिया। परन्तु यह सम्भव है की कोई भी सांप इन चूहों के बिल को इस्तेमाल कर सकता हैं, क्योंकि सांप अपने लिए बिल बनाते नहीं हैं, वे दूसरों के बनाये हुए बिलों को ही इस्तेमाल करते हैं। इस तरह यह कहना गलत नहीं है कि ककरगड़ा के बिल में सांप नहीं होते, परन्तु ऐसे बिल बनाने वाला एक चूहा है।
कवर: Little Indian field mouse (Mus booduga) द्वारा बनाया गया बिल : फोटो : श्री प्रितेश पानके
पिछले लगभग 150 वर्षों से राजस्थान राज्य में चमगादड़ की तीन प्रजातियां को देखा नहीं जा सका हैं। अनेकों सर्वे, खोज यात्रा, अध्ययन के बाद भी आज तक इन तीनो प्रजातियों का कोई अता पता नहीं लगा है। राजस्थान की जैव-विविधता पर कार्य करने वाले शोधकर्ता इनके विलोपन पर अत्यंत चिंता जाहिर कर चुके है। यह तीनों है – लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) Tomes, 1857, लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) Hodgson, in Horsfield, 1855 और सेरोटिन बैट (Eptesicus serotinus pachyomus) Tomes, 1857.
आप को जान कर आश्चर्य होगा की ऐसा माना जाता है की इन चमगादड़ प्रजातियां में से दो तो मात्र राजस्थान से ही खोजी गयी थी, – लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) और सेरोटिन बैट (Eptesicus serotinus pachyomus) दोनों को पहली स्वतंत्रता की लड़ाई वाले वर्ष यानी 1857 में पहली बार वर्णित किया गया था।
इतने लंबे समय तक इनका कोई सबूत क्यों नहीं मिला? यह ठीक से जानने के लिए प्रत्येक प्रजाति को पृथक रूप से अध्ययन करते है।
1. लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) Tomes, 1857
चमगादड़ की इस प्रजाति का विवरण इंग्लैंड में रहने वाले किसान रॉबर्ट फिशर टॉम्स, सन 1857 में किया था, जिनकी प्राणी विज्ञानी में गहरी रुचि थी। उनका यह विवरण ब्रिटिश संग्रहालय में संरक्षित एक नमूने पर आधारित था और उन्होंने स्वयं ने इस चमगादड़ का नमूना एकत्र नहीं किया था। उन्होंने तब इसे नाम दिया था – Vespertilio blythii. टोम्स (1857) ने अपने वर्णन में लिखा था कि ब्रिटिश संग्रहालय में इस नमूने पर एक लेबल लगा था जिस पर लिखा था- भारत के नसीनाबाद नामक जगह से, मिस्टर वारविक, 1848 । आगे टॉमस ने लिखा कि , “मेरा मानना है कि यह कैप्टन बॉयज़ द्वारा एकत्रित किया गया हैं”।
तो नमूने पर लिखे नाम मिस्टर वारविक को टॉम्स ने संग्रहकर्ता क्यों नहीं माना?
मिस्टर वारविक की पृष्ठभूमि खोजने पर इसका जवाब मिलता हैं- “मिस्टर वारविक” उस समय लंदन के एक जूलॉजिकल गार्डन के लिए प्राणी संग्रहकर्ता थे। वारविक उस समय विभिन्न जानवरों को मंगवाया करते थे। जैसे कि 1836 में मिस्र से जिराफ, पांच शुतुरमुर्ग, अठारह न्यूमिडियन क्रेन, एक ऊंट और पांच जेरोबा लाए गए थे। वारविक विभिन्न संग्रहालयों को प्राणियों के नमूने भी बेचा करते थे, जैसे कि क्यूबा नाइट जार को 1849 में डर्बी संग्रहालय को उन्होंने बेचा था। अतः प्रतीत होता हैं की वह इस चमगादड़ के मूल संग्रहकर्ता नहीं थे, इसी कारण ने टॉम्स (1857) को यह अनुमान लगाने के लिए प्रेरित किया कि शायद किसी अन्य संग्रहकर्ता ने इसे एकत्रित किया है।
पर अब एक और प्रश्न उठता है की टॉम्स ने यह अनुमान क्यों लगाया कि मूल संग्रहकर्ता कैप्टन बॉयज़ हो सकते हैं।
इसका सीधा जवाब है की टोम्स ने उस समय के मशहूर संग्रहकर्ता कैप्टन बॉयज़ जो विभिन्न नमूनों को संग्रह करते थे “नसीराबाद” इलाके से जोड़ा, और यह मान लिया कि नमूना लेबल पर “नसीनाबाद” का मतलब नसीराबाद हैं, जो राजस्थान का एक कस्बा हैं। यह संभव है कि उन्होंने माना की “नसीनाबाद” एक टाइपोलॉजिकल त्रुटि थी।
अब हम देखते हैं की कैप्टन बॉयज की पृष्ठभूमि क्या रही थी ? कैप्टन बॉयज़, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज में एक अधिकारी थे और साथ ही नमूनों का एक जाना माना संग्रहकर्ता। राजस्थान में अजमेर जिले के नसीराबाद एक प्रमुख सैन्य शहर रहा है। शायद वे नसीराबाद में रहे हो।
नसीराबाद, राजस्थान के साथ कैप्टन बॉयज़ के जुड़ाव ने इस प्रजाति के इलाके के बारे में एक धारणा को कायम रखा, भले ही टोम्स (1857) ने स्पष्ट रूप से कभी भी ऐसा कोई दावा नहीं किया की यह प्रजाति राजस्थान (तब का राजपुताना) से सम्बन्ध रखती हैं। उन्होंने भी संग्रहकर्ता के लिए शायद शब्द का इस्तेमाल किया था।
असल में जेर्डन (1867) ने सबसे पहले इसका उल्लेख किया था कि, नमूना नसीराबाद, राजपुताना से कैप्टन बॉयज़ द्वारा खोजा गया था। जेर्डन (1867) ने टॉम्स की अटकलों को तथ्य के रूप में बताया।
हालाँकि, ब्रिटिश भारत में “नसीराबाद” नाम के कई शहर थे। नसीराबाद राजस्थान के अलावा पाकिस्तान, भारत के अन्य राज्य जैसे उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी हैं और कैप्टन बॉयज राजस्थान से अधिक तो हिमालयन क्षेत्र में अधिक सक्रिय रहे थे। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि टॉम्स (1857) द्वारा इस चमगादड़ का विवरण लिखने से तीन साल पहले ही कैप्टेन बॉयज की मृत्यु हो गई थी और टॉम्स के विवरण की पुष्टि या खंडन करने के कोई नहीं था।
जेर्डन के मोहर लगाने के पश्चात अधिकांश चमगादड़ विशेषज्ञ यही मानते रहे की लेसर माउस-ईयर बैट (Myotis blythii) राजस्थान में मिली थी।
सेरोटिन बैट (Eptesicus serotinus pachyomus), Tomes, 1857टॉम्स (1857) ने उसी शोधपत्र में, एक और चमगादड़ की प्रजाति (तब Scotophilus pachyomus) के लिए विवरण दिया था, वह भी ब्रिटिश संग्रहालय में संरक्षित एक नमूने पर आधारित था। टोम्स (1857) के अनुसार, उसका संग्रहकर्ता “कैप्टन बॉयज” और संग्रह का स्थान भारत था। इसमें कहीं भी राजपूताना का उल्लेख नहीं था।
कथित तौर पर राजपूताना या राजस्थान से इस प्रजाति को सबसे पहले जोड़ा Wroughton (1918) ने। उन्होंने बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के भारतीय स्तनपायी सर्वेक्षण रिपोर्ट में लिखा की इस चमगादड़ की “टाइप लोकैलिटी: राजपुताना: बॉयज़” हैं। संभवत उन्होंने कैप्टन बॉयज़ के नसीराबाद से सम्बन्ध के कारण इस नमूने को भी राजपुताना का ही मान लिया गया था।
इसके बाद सभी ने मान लिया की सेरोटिन बैट (Eptesicus serotinus pachyomus) की यह राजस्थान में मिलने वाली एक प्रजाति हैं जैसे की एलरमैन और मॉरिसन-स्कॉट (1951), सिन्हा (1980), श्रीनिवासुलु और श्रीनिवासुलु (2012), श्रीनिवासुलु एट अल। (2013) ।
हालाँकि, यह कहना पड़ेगा की बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने राजस्थान को इस प्रजाति के वितरण क्षेत्र में शामिल किया था, लेकिन साथ ही यह चेतावनी भी दी थी की, “राजस्थान: कोई निश्चित इलाका नहीं। बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने इस चमगादड़ के वितरण मानचित्र पर राजस्थान में किसी भी इलाके को चिह्नित नहीं किया।
लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) Hodgson, in Horsfield, 1855राजस्थान में लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) नामक चमगादड़ की प्रजाति का प्रथम उल्लेख Wroughton (1918), द्वारा प्रदान किया गया है। Wroughton (1918) ने ब्रिटिश संग्रहालय में जमा एक नमूने के कारण इस प्रजाति के वितरण में “राजपुताना” को शामिल किया था, लेकिन इस नमूने के लिए संग्रहकर्ता ने राजपूताना का उल्लेख ही नहीं किया था । फिर क्या वजह थी की Wroughton ने राजपूताना नाम का उल्लेख किया ?
डॉब्सन (1878) द्वारा ब्रिटिश संग्रहालय के नमूनों पर एक कैटलॉग प्रकाशित किया गया उसके से पता चलता है कि ब्रिटिश संग्रहालय में एक साथ Barbastella darjelingensis के दो नमूने रखे हुए थे। एक वह नमूना जिसके आधार पर B.H. Hodgson ने लार्ज बारबास्टेल (Barbastella darjelingensis) की खोज की थी एवं दूसरा नमूना जो कैप्टेन बॉयज ने जमा कराया था। कैप्टेन बॉयज ने कभी नहीं कहा की यह नसीराबाद (राजपूताना) से प्राप्त किया गया था। डोबसन (1878) ने भी इस प्रजाति के वितरण में राजपूताना का उल्लेख नहीं किया, बल्कि माना की “भारत में (दार्जिलिंग, खासी पहाड़ियाँ, सिख, मसूरी, शिमला);यारकंद” आदि में इसका वितरण हैं ।
Wroughton (1918) ने कैप्टन बॉयज और नसीराबाद या राजपुताना (राजस्थान) के बीच कथित जुड़ाव को मानते हुए इसे भी राजपूताना में शामिल कर लिया, जैसा कि टोम्स (1857) द्वारा वर्णित दो प्रजातियों के साथ हुआ था।
इसके बाद एलरमैन एंड मॉरिसन-स्कॉट (1951), सिन्हा (1980), श्रीनिवासुलु एट अल (2013) आदि सभी ने इसे राजस्थान की प्रजाति माना।
हालांकि, सिन्हा (1980) को संदेह था अतः उन्होंने ने ब्रिटिश संग्रहालय के जे.ई. हिल से परामर्श किया और लिखा की: जे.ई. हिल (बी.एम.) द्वारा सूचित किया गया है, ब्रिटिश संग्रहालय का नमूना संभवतः नसीराबाद का है, लेकिन “भारत” के रूप में लेबल किया गया है।
बेट्स एंड हैरिसन (1997) ने अपने पाठ में इस प्रजाति के वितरण क्षेत्र में राजस्थान का उल्लेख नहीं किया, न ही उन्होंने इस प्रजाति के लिए अपने वितरण मानचित्र पर राजस्थान में किसी भी इलाके को चिह्नित किया।
सूक्ष्मता से देखने पर पता लगता है सभी वैज्ञानिकों ने कैप्टन बॉयज़ को नसीराबाद, राजपुताना से जोड़ कर देखा या नसीराबाद को कैप्टन बॉयज से।
परन्तु कैप्टन बॉयज़ के जीवन से स्पष्ट है कि वह राजपूताना के अलावा उत्तर भारत में भी सक्रिय रहे थे। 1843 में, उन्होंने कुमाऊं (उत्तराखंड) के आयुक्त के सहायक के रूप में कार्य किया और दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध में भी शामिल रहे थे। अंततः 21 मार्च 1854 को अल्मोड़ा (उत्तराखंड) में बॉयज़ की मृत्यु हो गई थी।
प्राणी नमूने एकत्र करने में कैप्टन बॉयज़ का अत्यंत कुशल थे इसी वजह से उन्हें सर्वसम्मति से 1842 में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी का सदस्य भी चुना गया था। बॉयज़ ने आगरा से एक घोंघा (उत्तर प्रदेश), अल्मोड़ा (उत्तराखंड) से एक ततैया, सिंध (अब पाकिस्तान) और फिरोजपुर (भारतीय पंजाब) के बीच एक स्थान से एक पक्षी, राजस्थान के जयपुर से एक कैरकल आदि भी एकत्रित किये थे।
जार्डिन (1852) ने लंदन में कैप्टेन बॉयज के पक्षी संग्रह की नीलामी के बारे में लिखा हैं की, “पक्षियों के 500 – 600 प्रजातियां के नमूने उनके भारत के ऊपरी गंगा प्रांतों में उनके कई वर्षों के निवास का परिणाम हैं। उनमें से कुछ बहुत दुर्लभ हैं। एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल ने उन्हें “तिब्बत दर्रे” (भारत-तिब्बत सीमा क्षेत्रों) में भूवैज्ञानिक अभियानों के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान की थी।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कैप्टेन बॉयज के प्रयास केवल राजपुताना तक ही सीमित नहीं थे और उन्होंने हिमालय में काफी समय बिताया। संयोग से, हिमालय वह जगह है जहाँ यह तीनों चमगादड़ मिलती हैं।
इस प्रकार कह सकते हैं की राजस्थान में इन तीनों प्रजातियों के होने का कोई ठोस सबूत नहीं है, तो उन्हें राजस्थान सूची से हटा दिया जाना चाहिए।
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Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.