फूलों से लदे पलाश के पेड़, यह आभास देते हैं मानो वन में अग्नि दहक रही है I इनके लाल केसरी रंगों के फूलों से हम सब वाकिफ हैं, परन्तु क्या आप जानते है पीले फूलों वाले पलाश के बारे में ?
पलाश (Butea monosperma) राजस्थान की बहुत महत्वपूर्ण प्रजातियों में से एक है जो मुख्यतः दक्षिणी अरावली एवं दक्षिणी-पूर्वी अरावली के आसपास दिखाई देती है। यह प्रजाति 5 उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वनों का महत्वपूर्ण अंश है तथा भारत में E5 – पलाश वन बनाती है। E5 – पलाश वन मुख्यरूप से चित्तौड़गढ़, अजमेर, पाली, जालोर, टोंक, भीलवाड़ा, बूंदी, झालावाड़, धौलपुर, जयपुर, उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, अलवर और राजसमंद जिलों तक सीमित है।
पीले पलाश (Butea monosperma var. lutea) का वृक्ष (फोटो: डॉ. सतीश शर्मा)
राजस्थान में पलाश की तीन प्रजातियां पायी जाती हैं तथा उनकी विविधताएँ नीचे दी गई तालिका में प्रस्तुत की गई हैं:
क्र. सं.
वैज्ञानिक नाम
प्रकृति
स्थानीय नाम
मुख्य वितरण क्षेत्र
फूलों का रंग
1
Butea monosperma
मध्यम आकार का वृक्ष
पलाश, छीला, छोला, खांखरा, ढाक
मुख्य रूप से अरावली और अरावली के पूर्व में
लाल
2
Butea monosperma var. lutea
मध्यम आकार का वृक्ष
पीला खांखरा, ढोल खाखरा
विवरण इस लेख में दिया गया है
पीला
3
Butea superba
काष्ठबेल
पलाश बेल, छोला की बेल
केवल अजमेर से दर्ज (संभवतः वर्तमान में राज्य के किसी भी हिस्से में मौजूद नहीं)
लाल
लाल पलाश (Butea monosperma) का वृक्ष (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
लाल पलाश के पुष्प (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
Butea monosperma var. lutea राजस्थान में पलाश की दुर्लभ किस्म है जो केवल गिनती योग्य संख्या में मौजूद है। राज्य में इस किस्म के कुछ ज्ञात रिकॉर्ड निम्न हैं:
क्र. सं.
तहसील/जिला
स्थान
वृक्षोंकीसंख्या
भूमिकीस्थिति
1
गिरवा (उदयपुर)
पाई गाँव झाड़ोल रोड
1
राजस्व भूमि
2
गिरवा (उदयपुर)
पीपलवास गाँव के पास, (सड़क के पूर्व के फसल क्षेत्र में)
2
राजस्व भूमि
3
झाड़ोल (उदयपुर)
पारगीया गाँव के पास (पलियाखेड़ा-मादरी रोड पर)
1
राजस्व भूमि
4
झाड़ोल (उदयपुर)
मोहम्मद फलासिया गाँव
2
राजस्व भूमि
5
कोटड़ा (उदयपुर)
फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के पथरापडी नाका के पास
1
राजस्व भूमि
6
कोटड़ा (उदयपुर)
बोरडी गांव के पास फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के वन ब्लॉक में
4
आरक्षित वन
7
कोटड़ा (उदयपुर)
पथरापडी नाका के पूर्व की ओर से आधा किलोमीटर दूर सड़क के पास एक नाले में श्री ननिया के खेत में (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य का बाहरी इलाका)
2
राजस्व भूमि
8
झाड़ोल (उदयपुर)
डोलीगढ़ फला, सेलाना
1
राजस्व भूमि
9
झाड़ोल (उदयपुर)
गोत्रिया फला, सेलाना
1
राजस्व भूमि
10
झाड़ोल (उदयपुर)
चामुंडा माता मंदिर के पास, सेलाना
1
राजस्व भूमि
11
झाड़ोल (उदयपुर)
खोड़ा दर्रा, पलियाखेड़ा
1
आरक्षित वन
12
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
जोलर
2
झार वन ब्लॉक
13
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
धरनी
2
वन ब्लॉक
14
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
चिरवा
2
वन ब्लॉक
15
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
ग्यासपुर
1
मल्हाड वन खंड
16
आबू रोड
गुजरात-राजस्थान की सीमा, आबू रोड के पास
1
वन भूमि
17
कोटड़ा (उदयपुर)
चक कड़ुवा महुड़ा (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य)
1
देवली वन ब्लॉक
18
कोटड़ा (उदयपुर)
बदली (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य)
1
उमरिया वन ब्लॉक
19
कोटड़ा (उदयपुर)
सामोली (समोली नाका के उत्तर में)
1
राजस्व भूमि
20
बांसवाड़ा जिला
खांडू
1
राजस्व भूमि
21
डूंगरपुर जिला
रेलड़ा
1
राजस्व भूमि
22
डूंगरपुर जिला
महुडी
1
राजस्व भूमि
23
डूंगरपुर जिला
पुरवाड़ा
1
राजस्व भूमि
24
डूंगरपुर जिला
आंतरी रोड सरकन खोपसा गांव, शंकर घाटी
1
सड़क किनारे
25
कोटड़ा (उदयपुर)
अर्जुनपुरा (श्री हुरता का कृषि क्षेत्र)
2
राजस्व भूमि
26
गिरवा (उदयपुर)
गहलोत-का-वास (उबेश्वर रोड)
6
राजस्व भूमि
27
उदयपुर जिला
टीडी -नैनबरा के बीच
1
राजस्व भूमि
28
अलवर जिला
सरिस्का टाइगर रिजर्व
1
वन भूमि
चूंकि पीला पलाश राज्य में दुर्लभ है, इसलिए इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। राज्य के कई इलाकों में स्थानीय लोगों द्वारा इसकी छाल पूजा और पारंपरिक चिकित्सा के लिए प्रयोग ली जाती है जो पेड़ों के लिए हानिकारक है। वन विभाग को इसकी रोपाई कर वन क्षेत्रों में इसका रोपण तथा स्थानीय लोगों के बीच इनका वितरण करना चाहिए।
खर्चिया, पाली जिले की खारी मिट्टी में उगने वाला लाल गेंहू जिसने राजस्थान के एक छोटे से गाँव “खारची” को पुरे विश्व में प्रसिद्धि दिलवाई।
राजस्थान के पाली जिले में किसानों के साथ काम करने के दौरान मैंने गेहूं की एक स्थानीय प्रजाति देखी, जिसे पूरे जिले में खर्चिया गेहूं के नाम से जाना जाता है। परन्तु यह जानना बेहद दिलचस्प है कि इस किस्म को यह नाम कैसे मिला। दरअसल इस गेहूं की उत्पत्ति खारची नामक गाँव से हुई है और यहाँ की मिट्टी और पानी में नमक की मात्रा अधिक होने के कारण इस गाँव का नाम खारची पड़ा है। स्थानीय भाषा में खार्च का मतलब नमक होता है। खर्चिया गेहूं को पुरे विश्व में अत्यधिक नमक की मात्रा में उगने वाले गेहूं जीनोटाइप के रूप में जाना जाता है। मिट्टी में नमक की ज्यादा मात्रा के कारण फसलों में रस प्रक्रिया (metabolism) और खनिज का अपवाह (uptake of mineral) प्रभावित होता है। परन्तु, खर्चिया गेंहू की ऐसी किस्म है जो नमक के प्रभावों का अधिक कुशलता से सामना करती है । इसी कारण से ये स्थानीय गेंहू प्रजाति को व्यापक रूप से उच्च उपज वाली नमक प्रतिरोधी किस्म खर्चिया 65, KRL 1-4, KRL 39 और KRL 19 के उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता है। भविष्य के फसल सुधार कार्यक्रम के लिए इसके महत्त्व को ध्यान में रखते हुए, इसे गेहूं अनुसंधान निदेशालय, करनाल के पंजीकरण संख्या INGR 99020 द्वारा NBPGR, नई दिल्ली में पंजीकृत किया गया है। खर्चिया गेहूं को पीढ़ियों से खारची गाँव में उगाया जा रहा है। गेहूँ की अन्य हाइब्रिड किस्मों की तुलना में खर्चिया गेहूँ के लिए बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है और ऐसी जगहों पर जहाँ पानी उपलब्ध नहीं होता है, यह बारिश के मौसम में उगाया जाता है। इस किस्म की एक अन्य विशेषता यह है कि पौधे की लम्बाई भी अधिक होती है जिससे किसानो को अनाज के साथ-साथ पशुओं को खिलाने के लिए चारा भी मिल जाता है। जानवरो को भी अन्य गेहूं के भूसे की तुलना में खर्चिया गेहूँ का चारा अधिक पसंद आता हैं।
इस स्थानीय प्रजाति के महत्त्व को समझते हुए, हमने पीपीवी और एफआर प्राधिकरण, नई दिल्ली द्वारा दिए जाने वाले Plant Genome Saviour Community (PGSC) अवार्ड के लिए खार्ची गांव समुदाय के लिए आवेदन किया। प्रत्येक वर्ष यह पुरस्कार किसानो, विशेषरूप से आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के लोगो को कृषि जैव विविधता के संरक्षण व् सुधार के लिए प्रदान किया जाता है। पीपीवी और एफआर प्राधिकरण दवारा सभी प्रकार की जांच करने के बाद खारची गाँव के किसानो को यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला, जिसमे एक प्रशस्ति पत्र, एक स्मृति चिन्ह और दस लाख रुपयों की राशि थी तथा यह पुरस्कार माननीय कृषि मंत्री द्वारा NASC कॉम्प्लेक्स, नई दिल्ली में आयोजित एक विशेष समारोह में दिया जाता है।
खर्चिया गेहूं से तैयार किये गए कुछ व्यंजनों के साथ एक किसान दम्पति
खारची गाँव का विवरण:
खारची गाँव, जिला मुख्यालय पाली से पूर्व की ओर 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह एक ग्राम पंचायत है, जिसका खर्चिया गेहूं की खेती में बड़ा योगदान है। जोग माया मंदिर के समय से खारची गाँव की अपनी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। उस समय, खारची गाँव आसपास के तीन गाँवों और पंचायत समिति मारवाड़ जंक्शन का मुख्य व्यवसाय केंद्र और बिक्री स्थल हुआ करता था। यह गाँव और इसके आस-पास की भूमि नमक से इतनी अधिक प्रभावित है कि ऐसा लगता है मानो किसी ने मिट्टी पर नमक की परत चढ़ा दी हो। नमक के जमने के कारण भूमि ऊपर से सफेद हो जाती है जिसे स्थानीय रूप से खारच कहा जाता है और इसलिए इस गांव को खारची नाम मिला। इस पंचायत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल लगभग 12,224 वर्ग किमी है। जिसमें से 85 प्रतिशत भूमि क्षेत्र का उपयोग कृषि के लिए किया जाता है और केवल चार प्रतिशत ही सिंचित क्षेत्र है। गाँव के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है क्लस्टर बीन, मूंग, तिल खरीफ में उगाए जाते हैं और रबी में मिर्ची, चीकू, जीरा और जौ प्रमुख कृषि फसलें हैं। बेर, आमला और लहसोरा मुख्य बागवानी फ़सलें हैं। इस जिले में कृषि आधारित औद्योगिक क्षेत्रों में मुख्य रूप से मेंहदी उद्योग, दाल उद्योग और दूध प्रसंस्करण संयंत्र शामिल हैं। कृषि के साथ पशुधन भी आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण भाग है। गाँव में डेयरी क्षेत्र भी तेजी से बढ़ रहा है और वर्तमान में प्रतिदिन लगभग 2500 लीटर दूध का उत्पादन है तथा पशु, भैंस, भेड़ और बकरी यहाँ मुख्य पशु हैं।
जलवायु की स्थिति
शुष्क से अर्ध-शुष्क, 20-25˚C
मृदा प्रकार
दोमट से रेतीले दोमट, नमक की मात्रा अधिक है।
खरचिया गेहूं की बीज दर
100-120 Kg/Ha (मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करता है)।
बुवाई की विधि:
संरक्षित नमी की स्थिति में तथा सिंचित अवस्था में: 4-5 सिंचाई
उपज
16-32 qt / Ha (न्यूनतम और उच्चतम उपज मिट्टी में नमक की मात्रा और पानी की उपलब्धि पर निर्भर करती है)
प्रमुख कीट
दीमक
रोग
Yellow rust, Black smut
QUALITY PARAMETERS OF KHARCHIA WHEAT:
S. No.
Characteristics
Kharchia wheat
Normal Wheat
1.
Grain colour
Red
Generally amber
2.
Grain Texture
Semi-hard
Semi-hard to Hard
3.
Chapati
Soft (soft for eating and can be used for two days)
Soft-semi-soft (can be used up to 4-5 hours on the same day only)
Chapati prepared in morning is used with butter milk in the after noon gives more taste.
Normal taste
4.
Dalia
Absorbs plenty of water for cooking and gives more quantity after cooking
Absorbs less water
Gives more taste due to absorption of more water
Less tasty as compared to kharchia wheat
5.
Bran
More bran
Less bran
6.
Khichdi (Dalia+dal +ghee)
Given to the pregnant ladies, being light, there is less pressure on other body parts. It is light for stomach, increases blood and gives energy.
Normal
7.
Salt affected water
High production
Low production
Yield
16-32 qt/ha
10-15 q/ha
8.
Straw yield
More due to tallness
Less due to short height
9.
Marketing approach
· Used by local people
Well established market channels.
· Migrants from this region prefer to purchase bulk stock for the entire year from villagers/growers directly.
पुरस्कार प्राप्त करते हुए खारची गाँव के किसान
चूंकि, गाँव की भूमि ज्यादातर खारी है, इसलिए, राजस्थान के पाली जिले के खारची और आस-पास के क्षेत्र में खर्चिया गेंहू की खेती की जाती है। खारची गांव में 1200 बीघा में खर्चिया गेहूं उगाया जाता है। खर्चिया गेहूं की औसत उपज लगभग 16-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। लवणीय मिट्टी में खेती करने पर उपज की क्षमता कम होती है और यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो और भूमि सामान्य हो तो उपज बढ़ जाती है। किसान खेतों में केवल फार्म यार्ड खाद (FYM) का उपयोग करते हैं। परन्तु खर्चिया गेहूं की खेती प्रायः नमी और रासायनिक उर्वरकों के बिना की जाती है। चेन्नई, पुणे, बैंगलोर, हैदराबाद जैसे अन्य स्थानों के किसानों द्वारा भी खारची गाँव का दौरा किया जाता है जो इस गेंहू की गुणवत्ता के बारे में अच्छी तरह से जानते है और बुवाई के उद्देश्य से खारचिया गेहूँ खरीदने के लिए आते हैं। गाँव की महिलाओ से बातचीत के दौरान, यह पता लगा गया कि खर्चिया गेहूँ बहुत ही पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होता है इसके आटे से लड्डू और बर्फी बनायीं जाती है। इन लड्डूओं को एक सप्ताह या दस दिनों के प्रसव के बाद शिशु की माँ को एक पौष्टिक व्यंजन के रूप में दिया जाता है। इस से बने दलिया और लापसी का उपयोग आमतौर पर नाश्ते में किया जाता है। महिलाओं द्वारा यह भी बताया गया कि इस गेहूं का आटा गूंधने में अधिक मात्रा में पानी सोखता है और इसकी रोटी का स्वाद मीठा होता है तथा 24 घंटे तक ताजा रहती है और कभी भी अन्य गेहूं की किस्मों की तरह सूखती नहीं है। भंडारण में किसी प्रकार के कीट-पतंगे अनाज पर आकर्षित नहीं होते हैं, इसलिए इसे लंबे समय तक भंडारघर में रखा जा सकता है।
दुर्लभ वृक्ष का अर्थ है वह वृक्ष प्रजाति जिसके सदस्यों की संख्या काफी कम हो एवं पर्याप्त समय तक छान-बीन करने पर भी वे बहुत कम दिखाई पड़ते हों उन्हें दुर्लभ वृक्ष की श्रेणी में रखा जा सकता है। किसी प्रजाति का दुर्लभ के रूप में मानना व जानना एक कठिन कार्य है।यह तभी संभव है जब हमें उस प्रजाति के सदस्यों की सही सही संख्या का ज्ञान हो। वैसे शाब्दिक अर्थ में कोई प्रजाति एक जिले या राज्य या देश में दुर्लभ हो सकती है लेकिन दूसरे जिले या राज्य या देश में हो सकता है उसकी अच्छी संख्या हो एवं वह दुर्लभ नहीं हो।किसी क्षेत्र में किसी प्रजाति के दुर्लभ होने के निम्न कारण हो सकते हैं:
1.प्रजाति संख्या में काफी कम हो एवं वितरण क्षेत्र काफी छोटा हो, 2.प्रजाति एंडेमिक हो, 3.प्रजाति अतिउपयोगी हो एवं निरंतर व अधिक दोहन से उसकी संख्या में तेज गिरावट आ गई हो, 4.प्रजाति की अंतिम वितरण सीमा उस जिले या राज्य या देश से गुजर रही हो, 5.प्रजाति का उद्भव काफी नया हो एवं उसे फैलने हेतु पर्याप्त समय नहीं मिला हो, 6.प्रजाति के बारे में पर्याप्त सूचनाएं उपलब्ध नहीं हो आदि-आदि।
इस लेख में राजस्थान राज्य के दुर्लभ वृक्षों में भी जो दुर्लभतम हैं तथा जिनकी संख्या राज्य में काफी कम है, उनकी जानकारी प्रस्तुत की गयी है।इन दुर्लभ वृक्ष प्रजातियों की संख्या का भी अनुमान प्रस्तुत किया गया है जो वर्ष 1980 से 2019 तक के प्रत्यक्ष वन भ्रमण,प्रेक्षण,उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य अवलोकन एवं वृक्ष अवलोककों(Tree Spotters), की सूचनाओं पर आधारित हैं।
Antidesma ghaesembilla
अब तक उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर राजस्थान की अति दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां निम्न हैं:
क्र. सं.
नाम प्रजाति
प्रकृति
कुल
फ्लोरा ऑफ राजस्थान (भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण अनुसार स्टेटस)
कमलनाथ नाला (कमलनाथ वन खंड,उदयपुर) गौमुख के रास्ते पर(मा.आबू)
वन्य अवस्था में विद्यमान
5.
Butea monosperma leutea पीला पलाश
मध्यम आकार का वृक्ष
Fabaceae
दर्ज नहीं
B
मुख्यतः दक्षिणी राजस्थान, बाघ परियोजना सरिस्का
वन्य अवस्था में विद्यमान
6.
Celtis tetrandra
मध्यम आकार का वृक्ष
Ulmaceae
दुर्लभ के रूप में दर्ज
A
माउन्ट आबू (सिरोही), जरगा पर्वत (उदयपुर)
वन्य अवस्था में विद्यमान
7.
Cochlospermum religisoumगिरनार, धोबी का कबाड़ा
छोटा वृक्ष
Lochlospermaceae
‘अतिदुर्लभ’ के रूप में दर्ज
B
सीतामाता अभ्यारण्य, शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)
वन्य अवस्था में विद्यमान
8.
Cordia crenata ,(एक प्रकार का गैंदा)
छोटा वृक्ष
Boraginaceae
‘अतिदुर्लभ’ के रूप में दर्ज
पुख़्ता जानकारी उपलब्ध नहीं
मेरवाड़ा के पुराने जंगल, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य
वन्य अवस्था में विद्यमान
9.
Ehretia serrata सीला, छल्ला
मध्यम आकार का वृक्ष
Ehretiaceae
दुर्लभ के रूप में दर्ज
A
माउन्ट आबू (सिरोही), कुम्भलगढ़ अभयारण्य,जरगा पर्वत,गोगुन्दा, झाड़ोल,कोटड़ा तहसीलों के वन एवं कृषि क्षेत्र
वन्य एवं रोपित अवस्था में विद्यमान
10.
Semecarpus anacardium, भिलावा
बड़ा वृक्ष
Anacardiaceae
फ्लोरा में शामिल लेकिन स्टेटस की पुख़्ता जानकारी नहीं
हाल के वर्षों में उपस्थित होने की कोई सूचना नहीं है
माउन्ट आबू (सिरोही)
वन्य अवस्था में ज्ञात था
11.
Spondias pinnata, काटूक,आमण्डा
बड़ा वृक्ष
Anacardiaceae
दर्ज नहीं
संख्या संबधी पुख़्ता जानकारी नहीं
सिरोही जिले का गुजरात के बड़ा अम्बाजी क्षेत्र से सटा राजस्थान का वनक्षेत्र, शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)
वन्य अवस्था में विद्यमान
12.
Antidesma ghaesembilla
मध्यम आकार का वृक्ष
Phyllanthaceae
दर्ज नहीं
A
रणथम्भौर बाघ परियोजना (सवाई माधोपुर)
वन्य अवस्था में विद्यमान
13.
Erythrinasuberosasublobata
छोटा वृक्ष
Fabaceae
दर्ज नहीं
A
शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)
वन्य अवस्था में विद्यमान
14.
Litsea glutinosa
मैदा लकड़ी
Lauraceae
दर्ज नहीं
A
रणथम्भौर बाघ परियोजना (सवाई माधोपुर)
वन्य अवस्था में विद्यमान
(*गिनती पूर्ण विकसित वृक्षों पर आधारित है A=50 से कम,B=50 से 100)
उपरोक्त सारणी में दर्ज सभी वृक्ष प्रजातियां राज्य के भौगोलिक क्षेत्र में अति दुर्लभ तो हैं ही,बहुत कम जानी पहचानी भी हैं।यदि इनके बारे में और विश्वसनीय जानकारियां मिलें तो इनके स्टेटस का और भी सटीक मूल्यांकन किया जा सकता है।चूंकि इन प्रजातियों की संख्या काफी कम है अतः ये स्थानीय रूप से विलुप्त भी हो सकती हैं। वन विभाग को अपनी पौधशाला में इनके पौधे तैयार कर इनको इनके प्राकृतिक वितरण क्षेत्र में ही रोपण करना चाहिए ताकि इनका संरक्षण हो सके।
राजस्थान वनस्पतिक विविधता से समृद्ध राज्य है। जहाँ रेगिस्तान,आर्द्रभूमि,घास के मैदान, कृषि क्षेत्र, पहाड़, नमक फ्लैट जैसे कई प्रकार के प्राकृतिक आवास विद्यमान हैं। जिनमे विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों की प्रजातियां भी पायी जाती हैं। यहाँ मुख्य रूप से तीन प्रकार के वन पाए जाते हैं जो उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन उष्ण कटिबंधीय कांटेदार वन एवं उपोष्ण कटिबंधीय चौड़ी पत्ती वाले पर्वतीय प्रकार के वन हैं । राज्य के अधिकतर जंगल पहले दो वन प्रकार के ही हैं और उपोष्ण कटिबंधीय चौड़ी पत्ती वाले पर्वतीय वन सबसे कम जो केवल सिरोही जिले के माउंट आबू के ऊपरी इलाकों तक ही सीमित हैं। इन सभी वनों में कई प्रकार की स्थानिक (endemic) वनस्पतिक प्रजातियां पायी जाती हैं ।
स्थानिक वनस्पतियों के विभिन्न पहलुओं की अच्छी जानकारी अवस्थी (1995), भंडारी (1978), शेट्टी और सिंह (1987,1991और1993) एवं शर्मा (2014, 2015) के कार्य द्वारा भी हुई है।
कई वनस्पतिक प्रजातियाँ राजस्थान के थार रेगिस्तान गुजरात और पाकिस्तान के लिए स्थानिक हैं तो वहीं कई प्रजातियां राजस्थान के अन्य हिस्सों और आसपास के राज्यों के कुछ हिस्सों के लिए स्थानिक हैं। जो प्रजातियां उप-प्रजातियां एवं किस्में मुख्य रूप से राजस्थान राज्य की भौगोलिक सीमाओं के लिए विशेष रूप से स्थानिक हैं उनकी जानकारी नीचे सारणी में प्रस्तुत है:
S.No.
Species
Main Taxa
1.
Rivularia globiceps abuensis
Alga
2.
Gloeotrichia raciborskii kaylanaensis
Alga
3.
Physica abuensis
Lichen
4.
Serratia sambhariana
Bacterium
5.
Riccia abuensis
Bryophyte
6.
R. jodhpurensis
Bryophyte
7.
R. reticulatula
Bryophyte
8.
Asplenium pumilum hymenophylloides
Fern
9.
Seleginella rajasthanensis
Fern
10.
Isoetus tuburculata
Fern
11.
I reticulata
Fern
12.
I rajasthanensis
Fern
13.
Marselia condensata
Fern
14.
M. rajasthanensis
Fern
15.
M. rajasthensis ballardii
Fern
16.
M. minuta indica
Fern
17.
Cheilanthes aravallensis
Fern
18.
Farsetia macrantha
Dicot plant
19.
Cleome gynandra nana
Dicot plant
20.
Abutilon fruticosum chrisocarpa
Dicot plant
21.
A . bidentatus major
Dicot plant
22.
Pavonia arabica glatinosa
Dicot plant
23.
P. arabica massuriensis
Dicot plant
24.
Melhania magniflolia
Dicot plant
25.
Ziziphus truncata
Dicot plant
26.
Alysicarpus monilifer venosa
Dicot plant
27.
Ipomoea cairica semine-glabra
Dicot plant
28.
Anogeissus seriea nummularia
Dicot plant
29.
Pulicaria rajputanae
Dicot plant
30.
Convolvulus auricomus ferrugenosus
Dicot plant
31.
C. blatteri
Dicot plant
32.
Merremia rajasthanensis
Dicot plant
33.
Barleria prionitis subsp. prionitis var. dicantha
Dicot plant
34.
Cordia crenata
Dicot plant
35.
Dicliptera abuensis
Dicot plant
36.
Strobilanthes helbergii
Dicot plant
37.
Euphorbia jodhpurensis
Dicot plant
38.
Phyllanthus ajmerianus
Dicot plant
39.
Anticharis glandulosa caerulea
Dicot plant
40.
Lindernia bracteoides
Dicot plant
41.
L. micrantha
Dicot plant
42.
Oldenlandia clausa
Dicot plant
43.
Veronica anagallis – aquatica bracteosa
Dicot plant
44.
Veronica beccabunga attenuata
Dicot plant
45.
Apluda blatteri
Monocot plant (grass)
46
Aristida royleana
Monocot plant (grass)
47
Cenchrus prieuri scabra
Monocot plant (grass)
48
C. rajasthanensis
Monocot plant (grass)
49
Digitaria pennata settyana
Monocot plant (grass)
50
Ischaernum kingii
Monocot plant (grass)
विभिन्न स्थानिक वर्गों का विश्लेषण
S.No.
Taxa/Group
Number of Species,sub-species and verities
1.
Algae
2
2.
Lichen
1
3.
Bacteriya
1
4.
Bryophyta
3
5.
Petridothyta (fern)
10
6.
Dicot plants
27
7.
Monocot plants
6
Total
50
कई लेखक कॉर्डिया क्रेनाटा को राजस्थान की एक स्थानिक प्रजाति के रूप में मानते हैं लेकिन भारत के बाहर यह मिस्र में खेतों में भी उगाया जाता है। हालाँकि राजस्थान में अरावली एवं थार रेगिस्तानी जैसी प्राकृतिक संरचनाएं विद्यमान हैं लेकिन वे प्रभावी अवरोध नहीं बना पाते हैं। इसलिए राज्य में अधिक स्थानिकवाद विकसित नहीं हुआ है। कोई भी वनस्पति वंश यहाँ स्थानिक नहीं पाया गया है। कभी-कभी कुछ प्रजातियों एवं उप प्रजातियों की स्थिति को स्थानिक नहीं माना जाता है क्योंकि उनकी उपस्थिति अन्य भारतीय राज्यों और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में समान प्रकार के निवास स्थानों की निरंतरता के कारण संभव है। हमें राज्य की स्थानिक प्रजातियों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए अधिक सटीक सर्वेक्षण और शोध की आवश्यकता है।
References
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Bhandari, M.M. (1978): Flora of the Indian desert.
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Sharma, S.K. (2015): Faunal and floral in Rajasthan. Souvenir, 18th
Birding fair, 30-31 January 2015, Man Sagar, Jaipur
Shetty, B.V. & V. Singh (1987, 1991, 1993): Flora of Rajasthan.
Vol. I, II, III
गुलाब रोजेसी कुल के रोज़ा वंश (Rosa Genus) की एक जानी पहचानी झाडी है। यूँ तो सार्वजनिक उद्यानों से लेकर लोगों के घरों तक में तरह – तरह के गुलाब लगे मिल जायेंगे लेकिन राज्य में केवल माउन्ट आबू में ही जंगली गुलाब उगे मिलते हैं। जंगली अवस्था में ये गुलाब आबू पर्वत के उपरी ठंडे व अधिक नमी वाले भागो मे वन क्षेत्र, खेतों/उद्यानों एवं प्लान्टेशनों की जैविक बाड़ में ’’हैज फ्लोरा’’ के रूप में उगते हैं। कुल मिलाकर यहाँ मुख्य रूप से गुलाब की तीन प्रजातियाँ उगती हैं। जिनकों रोजा ब्रुनोई (रोजा मस्काटा), रोजा मल्टीफ्लोरा तथा रोजा इन्वोल्यूक्रेटा (रोजा ल्येलाई, रोजा नोफिल्ला) नाम से जाना जाता है।
वैसे तो हर प्रजाति अपने में विशिष्ट है लेकिन जंगली गुलाब की रोजा इन्वोल्यूक्रेटा कुछ खास है क्योंकि राजस्थान की यह प्रजाति ’’रैड डेटा बुक’’ में दर्ज प्रजाति है। माउन्ट आबू क्षेत्र मे इसे कूजा गुलाब के नाम से जाना जाता है। इस प्रजाति को माउन्ट आबू क्षेत्र में ऊँचाई पर बहुत सी जगह देखा जा सकता है।
रोजा इन्वोल्यूक्रेटा की पहचान
यह एक झाडी स्वभाव का सीधा बढने वाला या दूसरी वनस्पतियों का सहारा लेकर खडा रहने वाला पौधा है। इसके काँटे सीधे होते हैं। इस गुलाब की पत्तीयाँ अन्य गुलाबों की तरह पिच्छकीय रूप से संयुक्त प्रकार की होती हैं तथा 3-4 जोडे पत्रकों सहित कुल 7-9 पत्रक एक पत्ती में पाये जाते हैं। पत्रकों के किनारे सूक्ष्म दांतेदार होते हैं। शाखाओं के शीर्ष पर अकेला एक फूल या कुछ ही संख्या में फूलों का गुच्छा पैदा होता है। फूलों का रंग सफेद या गुलाबी होता है। तीनों प्रजातियों को निम्न गुणों से पहचाना जा सकता है:
क्र.सं.
विभेदक गुण
रोजा ब्रुनोई
रोजा मल्टीफ्लोरा
रोजा इन्वोल्यूक्रेटा
1.
पत्रकों की संख्या
5-9
5-9
7-9
2.
काँटों के गुण
हुक की तरह घुमावदार
सीधे या लगभग सीधे
सीधे
3.
फूलों का रंग
सफेद
सफेद या गुलाबी
सफेद या गुलाबी
4.
फूल लगने ढंग
शाखाओं के शीर्ष पर बडे गुच्छों में
शाखाओं के शीर्ष पर बडे गुच्छों में पिरामिडाकार रूप में
शाखाओं के शीर्ष पर एक फूल या गिनी चुनी संख्या में छोटे गुच्छों में
5.
फूलों की गंध
भीनी-भीनी
भीनी-भीनी
भीनी-भीनी
6.
पुष्पकाल
सर्दी
सर्दी
कमोबेश पूरे साल
7.
आवास
वन्य
उद्यान व घर के अहाते
वन्य
माउन्ट आबू पर उद्यानों व घरों मे रोजा इन्डिका नामक गुलाब भी सुन्दर फूलों हेतु उगाया जाता हैै लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोजा इन्वोल्यूक्रेटा प्रजाति है। यह गुलाब बंगाल व नेपाल का मूल निवासी है जो हिमालय की तलहटी से लेकर उत्तरप्रदेश, बंगाल, कर्नाटक, गुजरात से लेकर म्यांमार तक फैला हुआ है। आजादी से पूर्व अंग्रेजों द्वारा आबू पर्वत में 1909 मे इस प्रजाति को उद्यानिकी पौधे के रूप में उगाना प्रारम्भ किया गया था। उद्यानों में कटाई – छंटाई कर फैंकी टहनियों एवं संभवतः बीजों द्वारा भी यह जंगल में जा पहुँचा एवं स्थापित होकर समय के साथ अपना प्राकृतिकरण कर लिया। आवास बर्बादी एवं आवास बदलाव के कारण यह प्रजाति संकट में घिर गई एवं आई. यू. सी. एन. द्वारा इसे रेड डेटा प्रजाति घोषित करना पड़ा।
इस प्रजाति को बचाने के लिये राजस्थान वन विभाग के वन वर्धन कार्यालय वन अनुसंधान केन्द्र बाँकी, सिसारमा, जिला उदयपुर में कटिंग रोपण से इसकी संख्या बढाने हेतु प्रयास किये गए। यह खुशी की बात है कि कटिंग रोपण द्वारा रोजा इन्वोल्यूक्रेटा की संख्या बढाने का प्रयोग सफल रहा। उदयपुर, गोगुन्दा, जरगा, कुम्भलगढ, गढबोर (चारभुजा) आदि उदयपुर एवं राजसमंद जिलों में ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ रोजा इनवोल्यूक्रेटा को पौधशालाओं में पनपाया जा सकता है तथा रोपण कर इस प्रजाति का जीनपूल भी बचाया जा सकता है। लेकिन सबसे अच्छा प्रयास यह रहेगा की वन्य अवस्था में उगने वाली गुलाबों को माउन्ट आबू क्षेत्र में ही बचाये रखने के प्रयास किये जायें क्योंकि यहाँ की जलवायु इनके लिये सर्वाधिक उपयुक्त है एवं वर्षों से ये यहाँ के पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा बन चुकी हैं।
माउन्ट आबू क्षेत्र मे विदेशी झाडी लेन्टाना का प्रसार, प्राकृतिक आवासों का विघटन तथा आग की घटनायें जंगली गुलाबों के बडे दुश्मन हैं। इन दोनों कारकोें को उचित प्रबन्धन द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। इसमे न केवल जंगली गुलाब बल्कि अनेक दूसरी प्रजातियों को भी संरक्षित करने में मदद मिलेगी।
गुलाब की कुछ किसमें राजस्थान में कृषि क्षेत्र में भी उगाई जाती हैं। जयपुर जिले के जमवारामगढ क्षेत्र में गंगानगरी गुलाब उगाया जाता है जिसके फूल जयपुर मंडी में बिकने आते हैं। उदयपुर जिले मे हल्दीघाटी क्षेत्र के आस-पास ’’चैतीया गुलाब’’ की खेती की जाती है। चैत्र माह में जब यहाँ खेेतों में गुलाब फूलता है तो नजारा ही कुछ और होता है। चैतीया गुलाब की पंखुडियों से गुलकंद बनाया जाता है जिससे किसानों को अच्छी आय मिलती है। लेकिन सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था न होने से हल्दीघाटी में गुलाब फूल उत्पादन घटता जा रहा है।
झीलों की नगरी उदयपुर शहर का ’’गुलाब बाग’’ या सज्जन निवास उद्यान भी अपने गुलाबों के कारण विख्यात है। यहाँ अनेक किस्मों के गुलाब रोपित किये गये हैं। इनके नाना रंगो के फूलों को देखना हर किसी को आनंदित करता है।
ऑर्किड़ वानस्पतिक कुल ऑर्किडेसी के सदस्य होते हैं। वानस्पतिक जगत में कैक्टस एवं ऑर्किड अपने खूबसूरत फूलों के लिये जाने व पसंद किये जाते हैं। कैक्टस जहाँ सूखी व गर्म जलवायु पसंद करते हैं वहीं आर्किड नम एवं ठंडी जलवायु चाहते हैं। राजस्थान के बारे में सामान्य जानकारी रखने वाला सुदूर रहने वाला गैर-राजस्थानी प्रायः यही धारणा रखता है कि राजस्थान एक सूखा, रेगिस्तानी, तपता हुआ राज्य होगा। लेकिन यह सत्य नहीं है। जैसे ही ऐसी धारणा वाले लोगों को पता चलता है कि राजस्थान में खूबसूरत फूल देने वाले ऑर्किड भी अच्छी खासी संख्या में उगते हैं तो उनका चौंकना लाजिमी है। आइये आपको मिलाते है राजस्थान के सुन्दर ऑर्किडों से जो जगह-जगह जंगलों को आबाद किये हुऐ हैं।
राजस्थान में 10 वंश के 19 प्रजातियों के आर्किड अभी तक ज्ञात हो चुके हैं। इनमे थलीय आर्किडों की 13 तथा उपरिरोही आर्किडों की 6 प्रजातियाँ ज्ञात हैं। हैबेनेरिया वंश के ऑर्किड राजस्थान में सर्वाधिक ज्ञात हैं। इस वंश की 5 प्रजातियों को अभी तक राजस्थान से ढूँढा जा चुका है।
नीचे प्रस्तुत सारणी मे राजस्थान के ऑर्किडों की एक झलक मिलती है:
क्र.सं.
आवास
प्रजातियाँ
मिलने के कुछ ज्ञात स्थान
1.
उपरिरोही
एकैम्पे प्रेमोर्सा (Acampe praemorsa)
सीतामाता अभ्यारण्य, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, फलासिया क्षेत्र अन्तर्गत नला गाँव के वन क्षैत्र आदि
2.
उपरिरोही
एरीडीज क्रिस्पम (Aerides crispum)
बाँसवाडा वन क्षेत्र, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, उदयपुर जिले के वन क्षेत्र, माउन्ट आबू, डुँगरपुर वन क्षेत्र, सीतामाता अभ्यारण्यआदि
3.
उपरिरोही
एरीडीज मैक्यूलोसम (Aerides maculosum)
सिरोही, फुलवारी की नाल, नला गाँव के क्षेत्र (फलासिया रेंज) आदि
4.
उपरिरोही
एरीडीज मल्टीफ्लोरम (Aerides multiflorum)
माउन्ट आबू
5.
उपरिरोही
वैन्डा टैसीलाटा(Vanda tessellata)
सांगबारी भूतखोरा, पीपल खूँट, पूना पठार (सभी बाँसवाडा जिले के वन क्षेत्र), फुलवारी की नाल, सीतामाता माउन्ट आबू, शेरगढ अभ्यारण्य बाँरा जिला में सीताबाडी, मुँडियार नाका के जंगल, कुण्डाखोहय प्रतापगढ वन मंडल के वन क्षेत्र आदि
6.
उपरिरोही
वैन्डा टैस्टेशिया(Vanda testacea)
माउन्ट आबू
7.
थलीय ऑर्किड
एपीपैक्टिस (Epipactis veratrifolia)
मेनाल क्षेत्र
8.
थलीय ऑर्किड
नर्वीलिया ऑरैगुआना(Nervilia aragoana)
सीतामाता अभयारण्य, फुलवारी की नाल अभयारण्य, नला गाँव के आस पास के वन क्षेत्र (रेंज फलासिया एवं उदयपुर) आदि
ऑर्किडों की दृष्टी से राजस्थान में माउन्ट आबू, फुलवारी की नाल (फुलवाडी की नाल) एवं सीतामाता अभयारण्य सबसे समृद्ध हैं। इन तीनों अभ्यारण्यों में जलीय एवं उपरिरोही दोनों स्वभावों वाले ऑर्किड पाये जाते हैं। शेरगढ अभयारण्य मे भी दोनों स्वभावो वाले ऑर्किड पाये जाते हैं। कुम्भलगढ एवं टॉडगढ रावली अभ्यारण्यों में केवल थलीय आर्किडों की उपस्थिती दर्ज है। इस तरह अभी तक राजस्थान के निम्न तरह कुल 6 अभयारण्यों में आर्किडों की निश्चायत्मक उपस्थिती दर्ज हुई है:
क्रमांक
संरक्षित क्षेत्र का नाम
ऑर्किडों का प्रकार
1.
माउन्ट आबू अभयारण्य
वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
2.
फुलवारी की नाल अभयारण्य
वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
3.
सीतामाता अभयारण्य
वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
4.
शेरगढ अभयारण्य
वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
5.
कुम्भलगढ अभयारण्य
थलीय
6.
टॉडगढ रॉवली
अभयारण्य थलीय
राजस्थान में ऑर्किडों का सबसे सघन जमावडा गुजरात सीमा पर स्थित उदयपुर जिले की कोटडा एवं झाडोल तहसीलों में फैली फुलवारी की नाल अभयारण्य में पाया जाता है। यहाँ कटावली जेर नामक स्थान मे अम्बावी से लेकर डैया व कवेल तक महुआ कुंजों मे उपरिरोही ऑर्किडों की विद्यमानता से बना प्राकृतिक ’’ ऑर्किडेरियम’’ देखने लायक है। मध्य जून से मध्य अगस्त तक यहाँ ऑर्किडों के फुलों को देखने का आनन्द लिया जा सकता है। मानसून के जल्दी या विलम्ब से आने एवं हवा की नमी की स्थानीय अवस्थायें पुष्पन को थोडा आगे-पीछे कर देती हैं। इसी अभयारण्य में अम्बावी से अम्बासा तक की यात्रा में भी उपरिरोही ऑर्किडों को पुष्पन काल में देखने का आनन्द लिया जा सकता है। फुलवारी की नाल में गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल में जगह – जगह स्थलीय ऑर्किडों को जून से सितम्बर तक देखा जा सकता है।
सीतामाता एवं माउन्ट आबू अभयारण्य भी अपने आर्किडों हेतु जाने जाते हैं। सीतामाता अभयारण्य में आम, चिरौंजी एवं महुओं पर उपरिरोही ऑर्किडों की अच्छी उपस्थिती दर्ज है। वाल्मिक आश्रम से सीतामाता मंदिर के रास्ते के दोनों तरफ, आरामपुरा एवं जाखम डैम रोड के आस- पास के क्षेत्र उपरिरोही ऑर्किडों के सुन्दर आश्रय स्थल हैं। वाल्मिकी आश्रम के आसपास का क्षेत्र थलीय ऑर्किडों को देखने का अद्भुत स्थान है। यहाँ वर्षा ऋतु में थलीय ऑर्किडों की मनोहारी झाँकी अद्भुत होती है। खास कर नर्वीलिया ऑरैगुआना का जून माह में पुष्पन तथा वर्षा का दौर प्रारंभ होते ही पत्तियों की फुटान का दृश्य अतुलनीय नजारा पेश करते हैं।
माउन्ट आबू में उपरीरोही ऑर्किड खजूरों, एरीथ्रीना, आम, जामुन आदि पर मिलने हैं। यहाँ ऑर्किडों के पनपने की सबसे अनुकूल प्राकृतिक दशायें विद्यमान हैं। विभिन्न ट्रेलों पर भ्रमण के दौरान लैन्टाना की झाड़ियों मेें छुपे एवं घासों में स्थित थलिय ऑर्किड वर्षाकालीन भ्रमण का आनंद बढा देते हैं।
शेरगढ अभयारण्य में महुओं पर उपरिरोही ऑर्किड जगह – जगह मिलते हैं। बाराँ जिले की शाहबाद तहसील में जायें तो वैन्डा, टैसीलाटा ऑर्किड महुओं व चिरौंजी के बडे आकार व पुराने वृक्षों पर आसानी से देखे जा सकते हैं।
वन विभाग, राजस्थान ने अपनी आर्किड संपदा को परिस्थितिकी पर्यटन से जोडने का गंभीर प्रयास किया है। वन मण्डल उदयपुर (वन्यजीव) अन्तर्गत फुलवारी की नाल अभयारण्य में पानरवा रेंज अन्तर्गत वन विश्राम गृह के पास एक छोटा ऑर्किडेरियम (आर्किड उद्यान) स्थापित किया है जहाँ राजस्थान के ऑर्किडों का संग्रह किया गया है। इस उद्यान का उद्घाटन तत्कालीन वन मंत्री श्री गजेन्द्र सिंह खींवसर ने 18 अगस्त, 2017 को किया था। इस उद्यान को जून से सितम्बर तक देखना आनन्ददायक होता है क्योंकि उस समय यहाँ आर्किडों में सुन्दर रंग – बिरंगे फूल आ जाते हैं।
ऑर्किडों के प्रति जन – जागृति लाने एवं राजस्थान के ऑर्किडों की जानकारी जन सामान्य को देने हेतु 27 से 29 जुलाई, 2018 के उदयपुर में सज्जनगढ अभयारण्य के मुख्य द्वार के सामने ’’आर्किड प्रदर्शनी’’ भी वन विभाग द्वारा लगाई गई जिसमें राजस्थान के ऑर्किडों का आम जनों को दिग्दर्शन कराया गया।
सार रूप में हम कह सकते हैं राजस्थान की जलवायु भले ही सूखी और गर्म हो लेकिन यहाँ 19 प्रजातियों के ऑर्किड पाये जाते हैं जिनका सार निम्न हैः
क्र.सं.
आवास
वंश
जातियाँ
1.
उपरिरोही
अकम्पे मोरसा
1
2.
उपरिरोही
एरीडीज
3
3.
उपरिरोही
वैन्डा
2
4.
थलीय
ऐपीपैक्टिस
1
5.
थलीय
नर्वीलिया
1
6.
थलीय
जुक्जाइन
1
7.
थलीय
यूलोफिया
2
8.
थलीय
हैबेनेरिया
5
9.
थलीय
पैरीस्टाइलिस
2
10.
थलीय
जीयोडोरम
1
राजस्थान के वनों में और ऑर्किड प्रजातियाँ मिलने की प्रबल संभावना है। फुलवारी, सीतामाता, कुम्भलगढ, माउन्ट आबू एवं शेरगढ अभयारण्यों एवं उनके आस- पास (खास कर झाडोल, कोटडा, गोगुन्दा एवं शाहबाद तहसीलो के वन क्षेत्र) के वनों में गहन अध्ययन एवं सर्वेक्षण की जरूरत है क्योंकि यहाँ की सूक्ष्म जलवायु जगह-जगह आर्किडों हेतु बहुत उपयुक्त है। आशा है आने वाले वर्षों में हमें राजस्थान मे नए आर्किडों का और पता चल सकेगा।
संदर्भ: इस लेख की अधिकांश सूचनाऐ लेखक की प्रकाशित निम्न पुस्तक पर आधारित हैं:
Sharma, S.K. (2011): Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic Zones of India