खर्चिया गेंहू: पाली- मारवाड़ की खारी मिट्टी में उगने वाले लाल गेंहू

खर्चिया गेंहू: पाली- मारवाड़ की खारी मिट्टी में उगने वाले लाल गेंहू

खर्चिया, पाली जिले की खारी मिट्टी में उगने वाला लाल गेंहू जिसने राजस्थान के एक छोटे से गाँव “खारची” को पुरे विश्व में प्रसिद्धि दिलवाई।

राजस्थान के पाली जिले में किसानों के साथ काम करने के दौरान मैंने गेहूं की एक स्थानीय प्रजाति देखी, जिसे पूरे जिले में खर्चिया गेहूं के नाम से जाना जाता है। परन्तु यह जानना बेहद दिलचस्प है कि इस किस्म को यह नाम कैसे मिला। दरअसल इस गेहूं की उत्पत्ति खारची नामक गाँव से हुई है और यहाँ की मिट्टी और पानी में नमक की मात्रा अधिक होने के कारण इस गाँव का नाम खारची पड़ा है। स्थानीय भाषा में खार्च का मतलब नमक होता है। खर्चिया गेहूं को पुरे विश्व में अत्यधिक नमक की मात्रा में उगने वाले गेहूं जीनोटाइप के रूप में जाना जाता है। मिट्टी में नमक की ज्यादा मात्रा के कारण फसलों में रस प्रक्रिया (metabolism) और खनिज का अपवाह (uptake of mineral) प्रभावित होता है। परन्तु, खर्चिया गेंहू की ऐसी किस्म है जो नमक के प्रभावों का अधिक कुशलता से सामना करती है । इसी कारण से ये स्थानीय गेंहू प्रजाति को व्यापक रूप से उच्च उपज वाली नमक प्रतिरोधी किस्म खर्चिया 65, KRL 1-4, KRL 39 और KRL 19 के उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता है। भविष्य के फसल सुधार कार्यक्रम के लिए इसके महत्त्व को ध्यान में रखते हुए, इसे गेहूं अनुसंधान निदेशालय, करनाल के पंजीकरण संख्या INGR 99020 द्वारा NBPGR, नई दिल्ली में पंजीकृत किया गया है। खर्चिया गेहूं को पीढ़ियों से खारची गाँव में उगाया जा रहा है। गेहूँ की अन्य हाइब्रिड किस्मों की तुलना में खर्चिया गेहूँ के लिए बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है और ऐसी जगहों पर जहाँ पानी उपलब्ध नहीं होता है, यह बारिश के मौसम में उगाया जाता है। इस किस्म की एक अन्य विशेषता यह है कि पौधे की लम्बाई भी अधिक होती है जिससे किसानो को अनाज के साथ-साथ पशुओं को खिलाने के लिए चारा भी मिल जाता है। जानवरो को भी अन्य गेहूं के भूसे की तुलना में खर्चिया गेहूँ का चारा अधिक पसंद आता हैं।

इस स्थानीय प्रजाति के महत्त्व को समझते हुए, हमने पीपीवी और एफआर प्राधिकरण, नई दिल्ली द्वारा दिए जाने वाले Plant Genome Saviour Community (PGSC) अवार्ड के लिए खार्ची गांव समुदाय के लिए आवेदन किया। प्रत्येक वर्ष यह पुरस्कार किसानो, विशेषरूप से आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के लोगो को कृषि जैव विविधता के संरक्षण व् सुधार के लिए प्रदान किया जाता है। पीपीवी और एफआर प्राधिकरण दवारा सभी प्रकार की जांच करने के बाद खारची गाँव के किसानो को यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला, जिसमे एक प्रशस्ति पत्र, एक स्मृति चिन्ह और दस लाख रुपयों की राशि थी तथा यह पुरस्कार माननीय कृषि मंत्री द्वारा NASC कॉम्प्लेक्स, नई दिल्ली में आयोजित एक विशेष समारोह में दिया जाता है।

खर्चिया गेहूं से तैयार किये गए कुछ व्यंजनों के साथ एक किसान दम्पति

खारची गाँव का विवरण:

खारची गाँव, जिला मुख्यालय पाली से पूर्व की ओर 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह एक ग्राम पंचायत है, जिसका खर्चिया गेहूं की खेती में बड़ा योगदान है। जोग माया मंदिर के समय से खारची गाँव की अपनी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। उस समय, खारची गाँव आसपास के तीन गाँवों और पंचायत समिति मारवाड़ जंक्शन का मुख्य व्यवसाय केंद्र और बिक्री स्थल हुआ करता था। यह गाँव और इसके आस-पास की भूमि नमक से इतनी अधिक प्रभावित है कि ऐसा लगता है मानो किसी ने मिट्टी पर नमक की परत चढ़ा दी हो। नमक के जमने के कारण भूमि ऊपर से सफेद हो जाती है जिसे स्थानीय रूप से खारच कहा जाता है और इसलिए इस गांव को खारची नाम मिला। इस पंचायत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल लगभग 12,224 वर्ग किमी है। जिसमें से 85 प्रतिशत भूमि क्षेत्र का उपयोग कृषि के लिए किया जाता है और केवल चार प्रतिशत ही सिंचित क्षेत्र है। गाँव के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है क्लस्टर बीन, मूंग, तिल खरीफ में उगाए जाते हैं और रबी में मिर्ची, चीकू, जीरा और जौ प्रमुख कृषि फसलें हैं। बेर, आमला और लहसोरा मुख्य बागवानी फ़सलें हैं। इस जिले में कृषि आधारित औद्योगिक क्षेत्रों में मुख्य रूप से मेंहदी उद्योग, दाल उद्योग और दूध प्रसंस्करण संयंत्र शामिल हैं। कृषि के साथ पशुधन भी आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण भाग है।  गाँव में डेयरी क्षेत्र भी तेजी से बढ़ रहा है और वर्तमान में प्रतिदिन लगभग 2500 लीटर दूध का उत्पादन है तथा पशु, भैंस, भेड़ और बकरी यहाँ मुख्य पशु हैं।

जलवायु की स्थितिशुष्क से अर्ध-शुष्क, 20-25˚C  
मृदा प्रकारदोमट से रेतीले दोमट, नमक की मात्रा अधिक है।
खरचिया गेहूं की बीज दर100-120 Kg/Ha (मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करता है)।  
बुवाई की विधि:  संरक्षित नमी की स्थिति में तथा सिंचित अवस्था में: 4-5 सिंचाई
उपज16-32 qt / Ha (न्यूनतम और उच्चतम उपज मिट्टी में नमक की मात्रा और पानी की उपलब्धि पर निर्भर करती है)
प्रमुख कीटदीमक
रोगYellow rust, Black smut

QUALITY PARAMETERS OF KHARCHIA WHEAT:

S. No.CharacteristicsKharchia wheatNormal Wheat
1.                   Grain colourRedGenerally amber
2.                   Grain TextureSemi-hardSemi-hard to Hard
3.                   ChapatiSoft (soft for eating and can be used for two days)Soft-semi-soft (can be used up to 4-5 hours on the same day only)
  Chapati prepared in morning is used with butter milk in the after noon gives more taste. Normal taste
4.                   DaliaAbsorbs plenty of water for cooking and gives more quantity after cookingAbsorbs less water
  Gives more taste due to absorption of more waterLess tasty as compared to kharchia wheat
5.                   Bran More branLess bran
6.                   Khichdi (Dalia+dal +ghee)Given to the pregnant ladies,  being light, there is less pressure on other body parts. It is light for stomach, increases blood and gives energy.Normal
7.                   Salt affected waterHigh productionLow production 
 Yield16-32 qt/ha10-15 q/ha
8.                   Straw yieldMore due to  tallnessLess due to short height
9.                   Marketing approach·    Used by local peopleWell established market channels.
  ·    Migrants from this region prefer to purchase bulk stock for the entire year from villagers/growers directly. 
पुरस्कार प्राप्त करते हुए खारची गाँव के किसान

चूंकि, गाँव की भूमि ज्यादातर खारी है, इसलिए, राजस्थान के पाली जिले के खारची और आस-पास के क्षेत्र में खर्चिया गेंहू की खेती की जाती है। खारची गांव में 1200 बीघा में खर्चिया गेहूं उगाया जाता है। खर्चिया गेहूं की औसत उपज लगभग 16-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। लवणीय मिट्टी में खेती करने पर उपज की क्षमता कम होती है और यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो और भूमि सामान्य हो तो उपज बढ़ जाती है। किसान खेतों में केवल फार्म यार्ड खाद (FYM) का उपयोग करते हैं। परन्तु खर्चिया गेहूं की खेती प्रायः नमी और रासायनिक उर्वरकों के बिना की जाती है। चेन्नई, पुणे, बैंगलोर, हैदराबाद जैसे अन्य स्थानों के किसानों द्वारा भी खारची गाँव का दौरा किया जाता है जो इस गेंहू की गुणवत्ता के बारे में अच्छी तरह से जानते है और बुवाई के उद्देश्य से खारचिया गेहूँ खरीदने के लिए आते हैं। गाँव की महिलाओ से बातचीत के दौरान, यह पता लगा गया कि खर्चिया गेहूँ बहुत ही पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होता है इसके आटे से लड्डू और बर्फी बनायीं जाती है। इन लड्डूओं को एक सप्ताह या दस दिनों के प्रसव के बाद शिशु की माँ को एक पौष्टिक व्यंजन के रूप में दिया जाता है। इस से बने दलिया और लापसी का उपयोग आमतौर पर नाश्ते में किया जाता है। महिलाओं द्वारा यह भी बताया गया कि इस गेहूं का आटा गूंधने में अधिक मात्रा में पानी सोखता है और इसकी रोटी का स्वाद मीठा होता है तथा 24 घंटे तक  ताजा रहती है और कभी भी अन्य गेहूं की किस्मों की तरह सूखती नहीं है। भंडारण में किसी प्रकार के कीट-पतंगे अनाज पर आकर्षित नहीं होते हैं, इसलिए इसे लंबे समय तक भंडारघर में रखा जा सकता है।

राजस्थान की मुख्य दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां

राजस्थान की मुख्य दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां

दुर्लभ वृक्ष का अर्थ है वह वृक्ष प्रजाति जिसके सदस्यों की संख्या काफी कम हो एवं पर्याप्त समय तक छान-बीन करने पर भी वे बहुत कम दिखाई पड़ते हों उन्हें दुर्लभ वृक्ष की श्रेणी में रखा जा सकता है। किसी प्रजाति का दुर्लभ के रूप में मानना व जानना एक कठिन कार्य है।यह तभी संभव है जब हमें उस प्रजाति के सदस्यों की सही सही संख्या का ज्ञान हो। वैसे शाब्दिक अर्थ में कोई प्रजाति एक जिले या राज्य या देश में दुर्लभ हो सकती है लेकिन दूसरे जिले या राज्य या देश में हो सकता है उसकी अच्छी संख्या हो एवं वह दुर्लभ नहीं हो।किसी क्षेत्र में किसी प्रजाति के दुर्लभ होने के निम्न कारण हो सकते हैं:

1.प्रजाति संख्या में काफी कम हो एवं वितरण क्षेत्र काफी छोटा हो,
2.प्रजाति एंडेमिक हो,
3.प्रजाति अतिउपयोगी हो एवं निरंतर व अधिक दोहन से उसकी संख्या में तेज गिरावट आ गई हो,
4.प्रजाति की अंतिम वितरण सीमा उस जिले या राज्य या देश से गुजर रही हो,
5.प्रजाति का उद्भव काफी नया हो एवं उसे फैलने हेतु पर्याप्त समय नहीं मिला हो,
6.प्रजाति के बारे में पर्याप्त सूचनाएं उपलब्ध नहीं हो आदि-आदि।

इस लेख में राजस्थान राज्य के दुर्लभ वृक्षों में भी जो दुर्लभतम हैं तथा जिनकी संख्या राज्य में काफी कम है, उनकी जानकारी प्रस्तुत की गयी है।इन दुर्लभ वृक्ष प्रजातियों की संख्या का भी अनुमान प्रस्तुत किया गया है जो वर्ष 1980 से 2019 तक के प्रत्यक्ष वन भ्रमण,प्रेक्षण,उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य अवलोकन एवं वृक्ष अवलोककों(Tree Spotters), की सूचनाओं पर आधारित हैं।

Antidesma ghaesembilla

अब तक उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर राजस्थान की अति दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां निम्न हैं:

क्र. सं.नाम प्रजातिप्रकृतिकुलफ्लोरा ऑफ राजस्थान (भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण अनुसार स्टेटस)राज्य में संख्या अनुमान*मुख्य वितरण क्षेत्रवि. वि.
1.Borassus flabellifer, Asian Palmyra palm,ताड़ वृक्षArecaceaeदर्ज नहींAबांसी (चित्तौड़गढ़), सलूम्बर, ऋषभदेववन्य एवं रोपित अवस्था में विद्यमान
2.Commiphora agallocha, (बड़ी गूगल)छोटा वृक्षBurseraceaeदर्ज नहींBभींडर (उदयपुर), कुंडाखोह (बारां), विजयपुर (चित्तौड़गढ़)वन्य अवस्था में विद्यमान
3.Washingtonia robusta, Mexican Fan Palm वृक्ष Arecaceaeदर्ज नहींAनागफणी (डूंगरपुर) वन भवन एवं गुलाबबाग,(उदयपुर)वन्य एवं रोपित अवस्था में विद्यमान
4.Protium serratumमध्यम आकार का वृक्षBurseraceaeदर्ज नहींAकमलनाथ नाला (कमलनाथ वन खंड,उदयपुर) गौमुख के रास्ते पर(मा.आबू) वन्य अवस्था में विद्यमान
5.Butea monosperma leutea पीला पलाशमध्यम आकार का वृक्षFabaceaeदर्ज नहींBमुख्यतः दक्षिणी राजस्थान, बाघ परियोजना सरिस्कावन्य अवस्था में विद्यमान
6.Celtis tetrandraमध्यम आकार का वृक्षUlmaceaeदुर्लभ के रूप में दर्जAमाउन्ट आबू (सिरोही), जरगा पर्वत (उदयपुर)वन्य अवस्था में विद्यमान
7.Cochlospermum religisoum गिरनार, धोबी का कबाड़ाछोटा वृक्षLochlospermaceae‘अतिदुर्लभ’ के रूप में दर्जBसीतामाता अभ्यारण्य, शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)वन्य अवस्था में विद्यमान
8.Cordia crenata ,(एक प्रकार का गैंदा)छोटा वृक्षBoraginaceae‘अतिदुर्लभ’ के रूप में दर्जपुख़्ता जानकारी उपलब्ध नहींमेरवाड़ा के पुराने जंगल, फुलवारी की नाल अभ्यारण्यवन्य अवस्था में विद्यमान
9.Ehretia serrata सीला, छल्लामध्यम आकार का वृक्षEhretiaceaeदुर्लभ के रूप में दर्जAमाउन्ट आबू (सिरोही), कुम्भलगढ़ अभयारण्य,जरगा पर्वत,गोगुन्दा, झाड़ोल,कोटड़ा तहसीलों के वन एवं कृषि
क्षेत्र
वन्य एवं रोपित अवस्था में विद्यमान
10.Semecarpus anacardium, भिलावाबड़ा वृक्षAnacardiaceaeफ्लोरा में शामिल लेकिन स्टेटस की पुख़्ता जानकारी नहींहाल के वर्षों में उपस्थित होने की कोई सूचना नहीं हैमाउन्ट आबू (सिरोही)वन्य अवस्था में ज्ञात था
11.Spondias pinnata, काटूक,आमण्डाबड़ा वृक्षAnacardiaceaeदर्ज नहींसंख्या संबधी पुख़्ता जानकारी नहींसिरोही जिले का गुजरात के
बड़ा अम्बाजी क्षेत्र से सटा
राजस्थान का वनक्षेत्र, शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)
वन्य अवस्था में विद्यमान
12.Antidesma ghaesembillaमध्यम आकार का वृक्षPhyllanthaceaeदर्ज नहींAरणथम्भौर बाघ परियोजना (सवाई माधोपुर)वन्य अवस्था में विद्यमान
13.Erythrinasuberosasublobataछोटा वृक्षFabaceaeदर्ज नहींAशाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)वन्य अवस्था में विद्यमान
14.Litsea glutinosaमैदा लकड़ीLauraceaeदर्ज नहींAरणथम्भौर बाघ परियोजना (सवाई माधोपुर)वन्य अवस्था में विद्यमान

(*गिनती पूर्ण विकसित वृक्षों पर आधारित है A=50 से कम,B=50 से 100)

उपरोक्त सारणी में दर्ज सभी वृक्ष प्रजातियां राज्य के भौगोलिक क्षेत्र में अति दुर्लभ तो हैं ही,बहुत कम जानी पहचानी भी हैं।यदि इनके बारे में और विश्वसनीय जानकारियां मिलें तो इनके स्टेटस का और भी सटीक मूल्यांकन किया जा सकता है।चूंकि इन प्रजातियों की संख्या काफी कम है अतः ये स्थानीय रूप से विलुप्त भी हो सकती हैं। वन विभाग को अपनी पौधशाला में इनके पौधे तैयार कर इनको इनके प्राकृतिक वितरण क्षेत्र में ही रोपण करना चाहिए ताकि इनका संरक्षण हो सके।

राजस्थान की एंडेमिक वनस्पति प्रजातियां

राजस्थान की एंडेमिक वनस्पति प्रजातियां

राजस्थान वनस्पतिक विविधता से समृद्ध राज्य है। जहाँ रेगिस्तान,आर्द्रभूमि,घास के मैदान, कृषि क्षेत्र, पहाड़, नमक फ्लैट जैसे कई प्रकार के प्राकृतिक आवास विद्यमान हैं। जिनमे विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों की प्रजातियां भी पायी जाती हैं। यहाँ मुख्य रूप से तीन प्रकार के वन पाए जाते हैं जो उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन उष्ण कटिबंधीय कांटेदार वन एवं उपोष्ण कटिबंधीय चौड़ी पत्ती वाले पर्वतीय प्रकार के वन हैं । राज्य के अधिकतर जंगल पहले दो वन प्रकार के ही हैं और उपोष्ण कटिबंधीय चौड़ी पत्ती वाले पर्वतीय वन सबसे कम जो केवल सिरोही जिले के माउंट आबू के ऊपरी इलाकों तक ही सीमित हैं। इन सभी वनों में कई प्रकार की स्थानिक (endemic) वनस्पतिक प्रजातियां पायी जाती हैं ।

स्थानिक वनस्पतियों के विभिन्न पहलुओं की अच्छी जानकारी अवस्थी (1995), भंडारी (1978), शेट्टी और सिंह (1987,1991और1993) एवं शर्मा (2014, 2015) के कार्य द्वारा भी हुई है।

कई वनस्पतिक प्रजातियाँ राजस्थान के थार रेगिस्तान गुजरात और पाकिस्तान  के लिए स्थानिक हैं तो वहीं कई प्रजातियां राजस्थान के अन्य हिस्सों और आसपास के राज्यों के कुछ हिस्सों के लिए स्थानिक हैं। जो प्रजातियां उप-प्रजातियां एवं किस्में मुख्य रूप से राजस्थान राज्य की भौगोलिक सीमाओं के लिए विशेष रूप से स्थानिक हैं उनकी जानकारी नीचे सारणी में प्रस्तुत है:

S.No.SpeciesMain Taxa
1.Rivularia globiceps abuensisAlga
2.Gloeotrichia raciborskii kaylanaensisAlga
3.Physica abuensisLichen
4.Serratia sambharianaBacterium
5.Riccia abuensisBryophyte
6.R. jodhpurensisBryophyte
7.R. reticulatulaBryophyte
8.Asplenium pumilum hymenophylloidesFern
9.Seleginella rajasthanensisFern
10.Isoetus tuburculataFern
11.I reticulataFern
12.I rajasthanensisFern
13.Marselia condensataFern
14.M. rajasthanensisFern
15.M. rajasthensis ballardiiFern
16.M. minuta indicaFern
17.Cheilanthes aravallensisFern
18.Farsetia macranthaDicot plant
19.Cleome gynandra nanaDicot plant
20.Abutilon fruticosum chrisocarpaDicot plant
21.A . bidentatus majorDicot plant
22.Pavonia arabica glatinosaDicot plant
23.P. arabica massuriensisDicot plant
24.Melhania magnifloliaDicot plant
25.Ziziphus truncataDicot plant
26.Alysicarpus monilifer venosaDicot plant
27.Ipomoea cairica semine-glabraDicot plant
28.Anogeissus seriea nummulariaDicot plant
29.Pulicaria rajputanaeDicot plant
30.Convolvulus auricomus ferrugenosusDicot plant
31.C. blatteriDicot plant
32.Merremia rajasthanensisDicot plant
33.Barleria prionitis subsp. prionitis var. dicanthaDicot plant
34.Cordia crenataDicot plant
35.Dicliptera abuensisDicot plant
36.Strobilanthes helbergiiDicot plant
37.Euphorbia jodhpurensisDicot plant
38.Phyllanthus ajmerianusDicot plant
39.Anticharis glandulosa caeruleaDicot plant
40.Lindernia bracteoidesDicot plant
41.L. micranthaDicot plant
42.Oldenlandia clausaDicot plant
43.Veronica anagallis – aquatica bracteosaDicot plant
44.Veronica beccabunga attenuataDicot plant
45.Apluda blatteriMonocot plant (grass)
46Aristida royleana Monocot plant (grass)
47Cenchrus prieuri scabraMonocot plant (grass)
48C. rajasthanensisMonocot plant (grass)
49Digitaria pennata settyanaMonocot plant (grass)
50Ischaernum kingiiMonocot plant (grass)

विभिन्न स्थानिक वर्गों का विश्लेषण

S.No.Taxa/GroupNumber of Species,sub-species and verities
1.Algae2
2.Lichen1
3.Bacteriya1
4.Bryophyta3
5.Petridothyta (fern)10
6.Dicot plants27
7.Monocot plants6
Total50

कई लेखक कॉर्डिया क्रेनाटा को राजस्थान की एक स्थानिक प्रजाति के रूप में मानते हैं लेकिन भारत के बाहर यह मिस्र में खेतों में भी उगाया जाता है। हालाँकि राजस्थान में अरावली एवं थार रेगिस्तानी जैसी प्राकृतिक संरचनाएं विद्यमान हैं लेकिन वे प्रभावी अवरोध नहीं बना पाते हैं। इसलिए राज्य में अधिक स्थानिकवाद विकसित नहीं हुआ है। कोई भी वनस्पति वंश यहाँ स्थानिक नहीं पाया गया है। कभी-कभी कुछ प्रजातियों एवं उप प्रजातियों की स्थिति को स्थानिक नहीं माना जाता है क्योंकि उनकी उपस्थिति अन्य भारतीय राज्यों और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में समान प्रकार के निवास स्थानों की निरंतरता के कारण संभव है। हमें राज्य की स्थानिक प्रजातियों की  स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए अधिक सटीक सर्वेक्षण और शोध की आवश्यकता है।

References

  1. Awasthi, A. (1995): Plant geography and flora of Rajasthan.
  2. Bhandari, M.M. (1978): Flora of the Indian desert.
  3. Sharma, S.K. (2014): Faunal and Floral endemism in Rajasthan.
  4. Sharma, S.K. (2015): Faunal and floral in Rajasthan. Souvenir, 18th Birding fair, 30-31 January 2015, Man Sagar, Jaipur
  5. Shetty, B.V. & V. Singh (1987, 1991, 1993): Flora of Rajasthan. Vol. I, II, III

आबू पर्वत के गुलाबों का इतिहास

आबू पर्वत के गुलाबों का इतिहास

गुलाब रोजेसी कुल के रोज़ा वंश (Rosa Genus) की एक जानी पहचानी झाडी है। यूँ तो सार्वजनिक उद्यानों से लेकर लोगों  के घरों तक में तरह – तरह के गुलाब लगे मिल जायेंगे लेकिन राज्य में केवल माउन्ट आबू में ही जंगली गुलाब उगे मिलते हैं। जंगली अवस्था में ये गुलाब आबू पर्वत के उपरी ठंडे व अधिक नमी वाले भागो मे वन क्षेत्र, खेतों/उद्यानों  एवं प्लान्टेशनों की जैविक बाड़ में ’’हैज फ्लोरा’’ के रूप में उगते हैं। कुल मिलाकर यहाँ मुख्य रूप से गुलाब की तीन प्रजातियाँ उगती हैं। जिनकों रोजा ब्रुनोई (रोजा मस्काटा), रोजा मल्टीफ्लोरा तथा रोजा इन्वोल्यूक्रेटा (रोजा ल्येलाई, रोजा नोफिल्ला) नाम से जाना जाता है।

वैसे तो हर प्रजाति अपने में विशिष्ट है लेकिन जंगली गुलाब की रोजा इन्वोल्यूक्रेटा कुछ खास है क्योंकि राजस्थान की यह प्रजाति ’’रैड डेटा बुक’’ में दर्ज प्रजाति है। माउन्ट आबू क्षेत्र मे इसे कूजा गुलाब के नाम से जाना जाता है। इस प्रजाति को माउन्ट आबू क्षेत्र में ऊँचाई पर बहुत सी जगह देखा जा सकता है।

रोजा इन्वोल्यूक्रेटा की पहचान

यह एक झाडी स्वभाव का सीधा बढने वाला या दूसरी वनस्पतियों का सहारा लेकर खडा रहने वाला पौधा है। इसके काँटे सीधे होते हैं। इस गुलाब की पत्तीयाँ अन्य गुलाबों की तरह पिच्छकीय रूप से संयुक्त प्रकार की होती हैं तथा 3-4 जोडे पत्रकों सहित कुल 7-9 पत्रक एक पत्ती में पाये जाते हैं। पत्रकों के किनारे सूक्ष्म दांतेदार होते हैं। शाखाओं के शीर्ष पर अकेला एक फूल या कुछ ही संख्या में फूलों का गुच्छा पैदा होता है। फूलों का रंग सफेद या गुलाबी होता है। तीनों प्रजातियों को निम्न गुणों से पहचाना जा सकता है:

क्र.सं.विभेदक गुणरोजा ब्रुनोई रोजा मल्टीफ्लोरा रोजा इन्वोल्यूक्रेटा
1.पत्रकों की संख्या5-95-97-9
2.काँटों के गुणहुक की तरह घुमावदारसीधे या लगभग सीधेसीधे
3.फूलों का रंग सफेदसफेद या गुलाबीसफेद या गुलाबी
4.फूल लगने ढंगशाखाओं के शीर्ष पर बडे गुच्छों मेंशाखाओं के शीर्ष पर बडे गुच्छों में पिरामिडाकार रूप मेंशाखाओं के शीर्ष पर एक फूल या गिनी चुनी संख्या में छोटे गुच्छों में
5.फूलों की गंधभीनी-भीनीभीनी-भीनीभीनी-भीनी
6.पुष्पकालसर्दीसर्दीकमोबेश पूरे साल
7.आवास वन्यउद्यान व घर के अहातेवन्य

माउन्ट आबू पर उद्यानों व घरों मे रोजा इन्डिका नामक गुलाब भी सुन्दर फूलों हेतु उगाया जाता हैै लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोजा इन्वोल्यूक्रेटा प्रजाति है। यह गुलाब बंगाल व नेपाल का मूल निवासी है जो हिमालय की तलहटी से लेकर उत्तरप्रदेश, बंगाल, कर्नाटक, गुजरात से लेकर म्यांमार तक फैला हुआ है। आजादी से पूर्व अंग्रेजों द्वारा आबू पर्वत में 1909 मे इस प्रजाति को उद्यानिकी पौधे के रूप में उगाना प्रारम्भ किया गया था। उद्यानों में कटाई – छंटाई कर फैंकी टहनियों एवं संभवतः बीजों द्वारा भी यह जंगल में जा पहुँचा एवं स्थापित होकर समय के साथ अपना प्राकृतिकरण कर लिया। आवास बर्बादी एवं आवास बदलाव के कारण यह प्रजाति संकट में घिर गई एवं आई. यू. सी. एन. द्वारा इसे रेड डेटा प्रजाति घोषित करना पड़ा।

इस प्रजाति को बचाने के लिये राजस्थान वन विभाग के वन वर्धन कार्यालय वन अनुसंधान केन्द्र बाँकी, सिसारमा, जिला उदयपुर में कटिंग रोपण से इसकी संख्या बढाने हेतु प्रयास किये गए। यह खुशी की बात है कि कटिंग रोपण द्वारा रोजा इन्वोल्यूक्रेटा की संख्या बढाने का प्रयोग सफल रहा। उदयपुर, गोगुन्दा, जरगा, कुम्भलगढ, गढबोर (चारभुजा) आदि उदयपुर एवं राजसमंद जिलों में ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ रोजा इनवोल्यूक्रेटा को पौधशालाओं में पनपाया जा सकता है तथा रोपण कर इस प्रजाति का जीनपूल भी बचाया जा सकता है। लेकिन सबसे अच्छा प्रयास यह रहेगा की वन्य अवस्था में उगने वाली गुलाबों को माउन्ट आबू क्षेत्र में ही बचाये रखने के प्रयास किये जायें क्योंकि यहाँ की जलवायु इनके लिये सर्वाधिक उपयुक्त है एवं वर्षों से ये यहाँ के पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा बन चुकी हैं।

माउन्ट आबू क्षेत्र मे विदेशी झाडी लेन्टाना का प्रसार, प्राकृतिक आवासों का विघटन तथा आग की घटनायें जंगली गुलाबों के बडे दुश्मन हैं। इन दोनों कारकोें को उचित प्रबन्धन द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। इसमे न केवल जंगली गुलाब बल्कि अनेक दूसरी प्रजातियों को भी संरक्षित करने में मदद मिलेगी।

गुलाब की कुछ किसमें राजस्थान में कृषि क्षेत्र में भी उगाई जाती हैं। जयपुर जिले के जमवारामगढ क्षेत्र में गंगानगरी गुलाब उगाया जाता है जिसके फूल जयपुर मंडी में बिकने आते हैं। उदयपुर जिले मे हल्दीघाटी क्षेत्र के आस-पास ’’चैतीया गुलाब’’ की खेती की जाती है। चैत्र माह में जब यहाँ खेेतों में गुलाब फूलता है तो नजारा ही कुछ और होता है। चैतीया गुलाब की पंखुडियों से गुलकंद बनाया जाता है जिससे किसानों को अच्छी आय मिलती है। लेकिन सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था न होने से हल्दीघाटी में गुलाब फूल उत्पादन घटता जा रहा है।

झीलों की नगरी उदयपुर शहर का ’’गुलाब बाग’’ या सज्जन निवास उद्यान भी अपने गुलाबों के कारण विख्यात है। यहाँ अनेक किस्मों के गुलाब रोपित किये गये हैं। इनके नाना रंगो  के फूलों को देखना हर किसी को आनंदित करता है।

क्या राजस्थान में भी ऑर्किड होते हैं?

क्या राजस्थान में भी ऑर्किड होते हैं?

ऑर्किड़ वानस्पतिक कुल ऑर्किडेसी के सदस्य होते हैं। वानस्पतिक जगत में कैक्टस एवं ऑर्किड अपने खूबसूरत फूलों के लिये जाने व पसंद किये जाते हैं। कैक्टस जहाँ सूखी व गर्म जलवायु पसंद करते हैं वहीं आर्किड नम एवं ठंडी जलवायु चाहते हैं। राजस्थान के बारे में सामान्य जानकारी रखने वाला सुदूर रहने वाला गैर-राजस्थानी प्रायः यही धारणा रखता है कि राजस्थान एक सूखा, रेगिस्तानी, तपता हुआ राज्य होगा। लेकिन यह सत्य नहीं है। जैसे ही ऐसी धारणा वाले लोगों को पता चलता है कि राजस्थान में खूबसूरत फूल देने वाले ऑर्किड भी अच्छी खासी संख्या में उगते हैं तो उनका चौंकना लाजिमी है। आइये आपको मिलाते है राजस्थान के सुन्दर ऑर्किडों से जो जगह-जगह जंगलों को आबाद किये हुऐ हैं।

राजस्थान में 10 वंश के 19 प्रजातियों के आर्किड अभी तक ज्ञात हो चुके हैं। इनमे थलीय आर्किडों की 13 तथा उपरिरोही आर्किडों की 6 प्रजातियाँ ज्ञात हैं। हैबेनेरिया वंश के ऑर्किड राजस्थान में सर्वाधिक ज्ञात हैं। इस वंश की 5 प्रजातियों को अभी तक राजस्थान  से ढूँढा जा चुका है।

नीचे प्रस्तुत सारणी मे राजस्थान के ऑर्किडों की एक झलक मिलती है:

क्र.सं.  आवास प्रजातियाँ  मिलने के कुछ ज्ञात स्थान
1.उपरिरोहीएकैम्पे प्रेमोर्सा (Acampe praemorsa) सीतामाता अभ्यारण्य, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, फलासिया क्षेत्र अन्तर्गत नला गाँव के वन क्षैत्र आदि
2.उपरिरोहीएरीडीज क्रिस्पम (Aerides crispum) बाँसवाडा वन क्षेत्र, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य, उदयपुर जिले के वन क्षेत्र, माउन्ट आबू, डुँगरपुर वन क्षेत्र, सीतामाता अभ्यारण्यआदि
3.उपरिरोहीएरीडीज मैक्यूलोसम
(Aerides maculosum)
सिरोही, फुलवारी की नाल, नला गाँव के क्षेत्र (फलासिया रेंज) आदि
4.उपरिरोहीएरीडीज मल्टीफ्लोरम (Aerides multiflorum) माउन्ट आबू
5.उपरिरोहीवैन्डा टैसीलाटा(Vanda tessellata) सांगबारी भूतखोरा, पीपल खूँट, पूना पठार (सभी बाँसवाडा जिले के वन क्षेत्र), फुलवारी की नाल, सीतामाता माउन्ट आबू, शेरगढ अभ्यारण्य बाँरा जिला में सीताबाडी, मुँडियार नाका के जंगल, कुण्डाखोहय  प्रतापगढ वन मंडल के वन क्षेत्र आदि
6.उपरिरोहीवैन्डा टैस्टेशिया(Vanda testacea)   माउन्ट आबू
7.थलीय ऑर्किडएपीपैक्टिस (Epipactis veratrifolia) मेनाल क्षेत्र
8.थलीय ऑर्किडनर्वीलिया  ऑरैगुआना(Nervilia aragoana)सीतामाता अभयारण्य, फुलवारी की नाल अभयारण्य, नला गाँव के आस पास के वन क्षेत्र (रेंज फलासिया एवं उदयपुर) आदि
9.थलीय ऑर्किडजुक्जाइन स्ट्रेटूमैटिका (Zeuxine strateumatica) मांगरोल, अटरू (बाँरा), कुम्भलगढ अभयारण्य, निवाई, दुर्गापुरा (जयपुर), मेजा बाँध (भीजवाडा), झोला (बाँसवाडा), दौसा, टॉडगढ (अजमेर), खाजूवाला (बीकानेर), 34 जी.बी. (श्रीगंगानगर) आदि
10.थलीय ऑर्किडयूलोफिया ऑक्रीएटा (Eulophia ochreataघाटोल रेंज के वनक्षेत्र, माउन्ट आबू, सीतामाता अभयारण्यय पट्टामाता (तोरणा प्), तोरणा प्प् (रेंज ओगणा, उदयपुर), फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य, गौरमघाट (टॉडगढ-रावली अभयारण्य) आदि
11.थलीय ऑर्किडयूलोफिया हर्बेशिया(Eulophia herbacea)  गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल (फुलवारी अभयारण्य)
12.थलीय ऑर्किडहैबेनेरिया डिजिटाटा(Habenaria digitata)   सीतामाता अभयारण्य, शाहबाद रेंज वन क्षैत्र, माउन्ट आबू आदि
13.थलीय ऑर्किडहै. मार्जिनाटा(H. marginata) माउन्ट आबू अभयारण्य
14.थलीय ऑर्किडहै.फर्सीफेरा(H. furcifera) फुलवारी की नाल अभयारण्य, कुम्भलगढ अभयारण्य,  गोगुन्दा तहसील के वन क्षेत्र एवं घास के बीडे, सीतामाता अभयारण्य आदि
15.थलीय ऑर्किडहै.प्लैन्टीजीनिया(H. plantaginea) उभेश्वर वन क्षेत्र (उदयपुर)
16.थलीय ऑर्किडहै.लॉन्गीकार्नीकुलेटा(H. longicorniculata)माउन्ट आबू अभयारण्य, गोगुन्दा व झाडोल रेंज के वन क्षेत्र (उदयपुर), कुम्भलगढ अभयारण्य
17.थलीय ऑर्किडपैटीस्टालिस स्टोक्सी ( Peristylus stocksy)माउन्ट आबू
18.थलीय ऑर्किडपैरीस्टाइलिस कॉन्सट्रिक्ट्स (Peristylus constrictus)सीतामाता एवं फुलवारी की नाल अभयारण्य
19.थलीय ऑर्किडजीयोडोरम रीकर्वम(Geodorum recurvum)  सीतामाता अभयारण्य

ऑर्किडों की दृष्टी से राजस्थान में माउन्ट आबू, फुलवारी की नाल (फुलवाडी की नाल) एवं सीतामाता अभयारण्य सबसे समृद्ध हैं। इन तीनों अभ्यारण्यों में जलीय एवं उपरिरोही दोनों स्वभावों वाले ऑर्किड पाये जाते हैं। शेरगढ अभयारण्य मे भी दोनों स्वभावो वाले ऑर्किड पाये जाते हैं। कुम्भलगढ एवं टॉडगढ रावली अभ्यारण्यों में केवल थलीय आर्किडों की उपस्थिती दर्ज है। इस तरह अभी तक राजस्थान के निम्न तरह कुल 6 अभयारण्यों में आर्किडों की निश्चायत्मक उपस्थिती दर्ज हुई है:

क्रमांक संरक्षित क्षेत्र का नाम ऑर्किडों का प्रकार
1.          माउन्ट आबू अभयारण्यवृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
2.      फुलवारी की नाल अभयारण्य वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
3.       सीतामाता अभयारण्य  वृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
4. शेरगढ अभयारण्यवृक्षिय (उपरिरोही) एवं थलीय
5.        कुम्भलगढ अभयारण्य  थलीय
6.        टॉडगढ रॉवलीअभयारण्य थलीय

राजस्थान में ऑर्किडों का सबसे सघन जमावडा गुजरात सीमा पर स्थित उदयपुर जिले की कोटडा एवं झाडोल तहसीलों में फैली फुलवारी की नाल अभयारण्य में पाया जाता है। यहाँ कटावली जेर नामक स्थान मे अम्बावी से लेकर डैया व कवेल तक महुआ कुंजों मे उपरिरोही ऑर्किडों की विद्यमानता से बना प्राकृतिक ’’ ऑर्किडेरियम’’ देखने लायक है। मध्य जून से मध्य अगस्त तक यहाँ ऑर्किडों के फुलों को देखने का आनन्द लिया जा सकता है। मानसून के जल्दी या विलम्ब से आने एवं हवा की नमी की स्थानीय अवस्थायें पुष्पन को थोडा आगे-पीछे कर देती हैं। इसी अभयारण्य में अम्बावी से अम्बासा तक की यात्रा में भी उपरिरोही  ऑर्किडों को पुष्पन काल में देखने का आनन्द लिया जा सकता है। फुलवारी की नाल में गामडी की नाल एवं खाँचन की नाल में जगह – जगह स्थलीय ऑर्किडों को जून से सितम्बर तक देखा जा सकता है।

सीतामाता एवं माउन्ट आबू अभयारण्य भी अपने आर्किडों हेतु जाने जाते हैं। सीतामाता अभयारण्य में आम, चिरौंजी एवं महुओं पर उपरिरोही ऑर्किडों की अच्छी उपस्थिती दर्ज है। वाल्मिक आश्रम से सीतामाता मंदिर के रास्ते के दोनों तरफ, आरामपुरा एवं जाखम डैम रोड के आस- पास के क्षेत्र उपरिरोही ऑर्किडों के सुन्दर आश्रय स्थल हैं। वाल्मिकी आश्रम के आसपास का क्षेत्र थलीय ऑर्किडों को देखने का अद्भुत स्थान है। यहाँ वर्षा ऋतु में थलीय ऑर्किडों की मनोहारी झाँकी अद्भुत होती है। खास कर नर्वीलिया ऑरैगुआना का जून माह में पुष्पन तथा वर्षा का दौर प्रारंभ होते ही पत्तियों की फुटान का दृश्य अतुलनीय नजारा पेश करते हैं।

माउन्ट आबू में उपरीरोही ऑर्किड खजूरों, एरीथ्रीना, आम, जामुन आदि पर मिलने हैं। यहाँ ऑर्किडों के पनपने की सबसे अनुकूल प्राकृतिक दशायें विद्यमान हैं। विभिन्न ट्रेलों पर भ्रमण के दौरान लैन्टाना की झाड़ियों मेें छुपे एवं घासों में स्थित थलिय ऑर्किड वर्षाकालीन भ्रमण का आनंद बढा देते हैं।

शेरगढ अभयारण्य में महुओं पर उपरिरोही ऑर्किड जगह – जगह मिलते हैं। बाराँ जिले की शाहबाद तहसील में जायें तो वैन्डा, टैसीलाटा ऑर्किड महुओं व चिरौंजी के बडे आकार व पुराने वृक्षों पर आसानी से देखे जा सकते हैं।

वन विभाग, राजस्थान ने अपनी आर्किड संपदा को परिस्थितिकी पर्यटन से जोडने का गंभीर प्रयास किया है। वन मण्डल उदयपुर (वन्यजीव) अन्तर्गत फुलवारी की नाल अभयारण्य में पानरवा रेंज अन्तर्गत वन विश्राम गृह के पास एक छोटा ऑर्किडेरियम (आर्किड उद्यान) स्थापित किया है जहाँ राजस्थान के ऑर्किडों का संग्रह किया गया है। इस उद्यान का उद्घाटन तत्कालीन वन मंत्री श्री गजेन्द्र सिंह खींवसर ने 18 अगस्त, 2017 को किया था। इस उद्यान को जून से सितम्बर तक देखना आनन्ददायक होता है क्योंकि उस समय यहाँ आर्किडों में सुन्दर रंग – बिरंगे फूल आ जाते हैं।

ऑर्किडों के प्रति जन – जागृति लाने एवं राजस्थान के ऑर्किडों की जानकारी जन सामान्य को देने हेतु 27 से 29 जुलाई, 2018 के उदयपुर में सज्जनगढ अभयारण्य के मुख्य द्वार के सामने ’’आर्किड प्रदर्शनी’’ भी वन विभाग द्वारा लगाई गई जिसमें राजस्थान के ऑर्किडों का आम जनों को दिग्दर्शन कराया गया।

सार  रूप में हम कह सकते हैं राजस्थान की जलवायु भले ही सूखी और गर्म हो लेकिन यहाँ 19 प्रजातियों के ऑर्किड पाये जाते हैं जिनका सार निम्न हैः

क्र.सं.आवास वंशजातियाँ
1.उपरिरोहीअकम्पे मोरसा1
2.उपरिरोहीएरीडीज3
3.उपरिरोहीवैन्डा 2
4.थलीयऐपीपैक्टिस 1
5.थलीयनर्वीलिया1
6.थलीयजुक्जाइन1
7.थलीययूलोफिया2
8.थलीयहैबेनेरिया  5
9.थलीयपैरीस्टाइलिस2
10.थलीयजीयोडोरम  1

राजस्थान के वनों में और ऑर्किड प्रजातियाँ मिलने की प्रबल संभावना है। फुलवारी, सीतामाता, कुम्भलगढ, माउन्ट आबू एवं शेरगढ अभयारण्यों एवं उनके आस- पास (खास कर झाडोल, कोटडा, गोगुन्दा एवं शाहबाद तहसीलो के वन क्षेत्र) के वनों में गहन अध्ययन एवं सर्वेक्षण की जरूरत है क्योंकि यहाँ की सूक्ष्म जलवायु जगह-जगह आर्किडों हेतु बहुत उपयुक्त है। आशा है आने वाले वर्षों में हमें राजस्थान मे नए आर्किडों का और पता चल सकेगा।

संदर्भ: इस लेख की अधिकांश सूचनाऐ लेखक की प्रकाशित निम्न पुस्तक पर आधारित हैं:

Sharma, S.K. (2011): Orchids of Desert and Semi – arid Biogeographic Zones of India

राजस्थान में फैलने वाली नयी विदेशी वनस्पतियां

राजस्थान में फैलने वाली नयी विदेशी वनस्पतियां

वैसे तो खरपतवार की परिभाषा कोई आसान नहीं है परन्तु फिर भी खरपतवार वे अवांछित पौधे होते हैं जो किसी स्थान पर बिना बोए उगते हैं। ये खरपतवार मुख्यरूप से विदेशी मूल की वनस्पत्तियाँ होती है तथा इसीलिए पारिस्थितिक तंत्र में इनके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे व् जानवर नहीं होते हैं। ये पौधे स्थानीय मनुष्य समुदाय के कोई खास उपयोग में नहीं आते, तथा मनुष्यों, खेती, वनों व पयार्वरण पर बुरा प्रभाव डालते है। खरपतवार मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं – एक वे जो स्थानीय पौधों के प्रति आक्रामक रूख अपनाते हैं जैसे ममरी (जंगली तुलसी), लैन्टाना कमारा (बेशर्म), प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (विलायती बबूल) आदि। दूसरी श्रेणी के खरपतवार वे हैं जो स्थानीय पौधों के साथ प्रतियोगिता कर उनके विकास को रोकते है लेकिन आक्रामक रूख प्रदर्शित नहीं करते हैं।  

आज राजस्थान में कई विदेशी वनस्पतियां फैल रहीं हैं जिनके बारे में अभी शोध किया जाना बाकी है जैसे जंगली तुलसी (Hyptis suaveolens) और छोटी फली का पुँवाड (Cassia absus/Senna uniflora)।

जंगली तुलसी (Hyptis suaveolens) वत Mesosphaerum suaveolens

जंगली तुलसी (ममरी), तुलसी यानी लेमियेशी (Lamiaceae) कुल की वनस्पति है तथा इसका वैज्ञानिक नाम हिप्टिस सुवियोलेन्स (Hyptis suaveolens) हैं। यह अमेरिका के गर्म प्रदेशों की वनस्पति है परन्तु आज यह तेजी से हमारे देश के वनों, खेतों, शहरों, गाँवों, सडक व रेल मार्गों के किनारे तथा पडत भूमि में फैलता जा रहा है। इसे राजस्थान सहित कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात आदि राज्यों में दूर-दूर तक फैले हुए देखा जा सकता है। भारतीय पारिस्थितिक तंत्र में यह तेजी से प्राकृतिक (Naturalized) होती जा रही है। घने जंगलों से होकर जैसे ही नई सडकें बनाई जाती है तब वृक्ष छत्रों के हटने से प्रकाश भूमि तक पहुँचता है और यदि ऐसे में कहीं से भी इसके बीज प्रकीर्णन कर वहां पहुँच जायें तो यह तेजी से सडक के दोनों तरफ उग जाती है। यह सुंगधित, वार्षिक तथा शाकीय वनस्पति है जो 2 मीटर तक ऊँची होती है एवं पास-पास उग कर सघन झाड-झंखाड (Thickets) का रूप ले लेती है। इसका तना चौकोर, दृढ एवं रोमों से ढका हुआ होता है। इसके फूल 2 से 5 के गुच्छों में शाखाओं पर लगते हैं तथा यह सालभर फूल व फल देता है लेकिन विशेष रूप वर्षा ऋतु से लेकर गर्मी आने तक हरा भरा रहता है। इसके बीज पानी में डालने पर सफेदी लेते हुये फूल जाते हैं।

जंगली तुलसी “Hyptis suaveolens” (फोटो: प्रवीण कुमार)

चराई रोधक प्रजाति

तीव्र गंध के कारण पालतू या वन्य पशु इसे नहीं खाते अतः जहाँ भी यह वनस्पति भी उगी होती है चराई से सुरक्षित रहती है।

वानिकी गुण

यह अधिक प्रकाश में उगने वाली, चराई प्रतिरोधी वनस्पति है जो अपेक्षाकृत अधिक नमी वाले स्थानों पर उगती है। इस वनस्पति का प्रत्येक पौधा बडी संख्या में फूल, फल व बीज पैदा करता है। एक हैक्टयर में उगे पौधे लाखों बीज पैदा करने की क्षमता रखते हैं। चराई से बचे रहने के कारण इस प्रजाति का हर पौधा बीज पैदा करता है। इस तरह प्रतिवर्ष इस प्रजाति के पौधों की संख्या व विस्तार क्षेत्र बढता ही जाता है।

हानिकारक प्रभाव

जंगली तुलसी के पौधे पास-पास उगने एवं 2.0 मी तक लम्बे होने के कारण, घास व अन्य कम ऊँचाई के स्थानीय पौधों तक प्रकाश नहीं पहुँचने देते है। पानी एवं स्थान की प्रतियोगिता कर यह स्थानीय प्रजातियों के विकास को रोकते है फलतः घास एवं स्थानीय पौधे सामाप्त होने लगते हैं। जिसके कारण चारे की कमी होने लगती है एवं आवास बर्बाद हो जाता है। इन सबसे न केवल पालतु बल्कि वन्यजीवों पर भी बुरा प्रभाव पडता है। इस प्रजाति की वजह से जैव विविधता घटने लगती है। यह वन्यजीवों के आवासों व चारागाहों को भी बर्बाद कर देता है।

छोटी फली का पुँवाड (Senna uniflora/Cassia absus)

राजस्थान में फैलने वाली यह सबसे नयी खरपतवार है जो दक्षिणी एवं मध्य भारत में दूर-दूर तक फैल गयी है। संभवतः मध्यप्रदेश एवं गुजरात के क्षेत्रों से चरकर आने वाली भेडों द्वारा यह खरपतवार राजस्थान में आयी है। अभी तक यह हाडोती क्षेत्र में फैलती हुई मेवाड एवं वागड क्षेत्र (डूंगरपुर एवं बांसवाडा) में दस्तक दे चुकी है। उदयपुर जिले में वर्ष 2019 तक यह मंगलवाड से डबोक के बीच राष्ट्रीय उच्च मार्ग के दोनों तरफ जगह-जगह नजर आने लगी है। संभवतः राष्ट्रीय उच्च मार्ग के निर्माण कार्य हेतु कई जगहों से लाई गई मिट्टी व भारी उपकरणों के साथ इसके बीज उदयपुर जिले में प्रवेश कर गए हैं। इसके फैलाव को देखते हुए यह प्रतीत होता है की अगले कुछ ही वर्षाे में यह खरपतवार उदयपुर शहर तक पहुँच जाएगी। यह वनस्पति भी आसपास के क्षेत्र में स्थानीय घासों एवं छोटे कद के शाकीय पौधों को नहीं पनपने देती है।

छोटी फली का पुँवाड “Senna uniflora” (फोटो: प्रवीण कुमार)

नियन्त्रण:

  • वर्षा ऋतु में जब पौधों में फूल आने लगे तब ही (बीज बनने से पहले) उखाड कर ढेर में संग्रह किये जाने चाहियें। छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने की बजाय खेतों, वनों, आबादियों से पूरे परिदृश्य में नियन्त्रण प्रांरभ करना चाहिये।
  • इनको काट कर ढालू क्षेत्रों में ऊपर की तरफ नहीं बल्कि सबसे निचले क्षेत्रों में पटकना चाहिये ताकी बीजों का पानी से प्रकीर्णन न हो। इनका उन्मूलन पहाडी क्षेत्रों में ऊपर से नीचे की तरफ तथा समतल क्षेत्रों में केन्द्र से परिधि की तरफ बढना चाहिये। नदियों के किनारे जल ग्रहण के ऊपरी क्षेत्रों से नीचे की तरफ उन्मूलन संपादित करना चाहिये।
  • इनको काट कर या जलाकर नहीं बल्कि जड सहित उखाड कर नष्ट किया जाना चाहिये।
  • वनों की निरन्तरता में जहाँ खेत हैं वहाँ वन व खेत की सीमा मिलन स्थल पर गहरी खाई बना देनी चाहिये ताकि वन क्षेत्र के पानी के साथ बह कर आये बीज खेत में नही बल्कि खाई में गिर जावें एवं खेत में प्रसार न करें।
  • एक बार हटाने के बाद हर साल वर्षा में अनुसरण करें तथा नये उगने वाले पौधों को उसी साल उखाड कर नष्ट कर दें। यह सब फूल व बीज बनने से पूर्व किया जावे।

 

यूँ तो विदेशी पौधों की लंबी सूची है लेकिन राजस्थान में पाए जाने वाली कुछ दुर्दान्त विदेशी मूल के खरपतवार निम्न हैं

क्र.सं

आवास

नाम 

फैलाव के मुख्य क्षेत्र

1

थलीय

विलायती बबूल (Prosopis juliflora)

लगभग संपूर्ण राजस्थान

2

थलीय

गाजर घास (Parthenium hysterophorus)

अतिशुष्क क्षेत्रों को छोडकर लगभग संपूर्ण राजस्थान

3

थलीय

बेशर्म (Lantana camara

नमी युक्त वन क्षेत्र, घाटियाँ, पहाडियों के निचले ढाल, नदी-नालों के नमी युक्त तट, जलाशयों के आसपास एवं आबादी क्षेत्र

4

थलीय  

सफेद बेशर्म (Lantana wightiana

अरावली पर्वतमाला के ढाल व तलहटी क्षेत्रों में

5

थलीय 

पुँवाड (Cassia tora)

अति शुष्क क्षेत्रों को छोडकर लगभग संपूर्ण राजस्थान

6

थलीय

जंगली तुलसी,ममरी (Hyptis suaveolens)

हाड़ौती क्षेत्र, बांसवाडा, डूंगरपुर, प्रतापगढ, भीलवाडा, चित्तौडगढ एवं राजसमन्द जिलों के क्षेत्र

7

थलीय

छोटी फली का पुँवाड (Cassia uniflora)

हाड़ौती क्षेत्र, बांसवाडा, डूंगरपुर, प्रतापगढ, भीलवाडा, उदयपुर, चित्तौडगढ

8

जलीय

जल कुंभी (Eichhornia crassipes )

हाड़ौती के जलाशय, उदयपुर के जलाशय, सिलीसेढ (अलवर), भरतपुर के जलाशय