ग्रेटर हूपु लार्क, रेगिस्तान में मिलने वाली एक बड़े आकार की लार्क, जो उड़ते समय बांसुरी सी मधुर आवाज व् खूबसूरत काले-सफ़ेद पंखों के पैटर्न, भोजन खोजते समय प्लोवर जैसी दौड़ और खतरा महसूस होने पर घायल होने के नाटक का प्रदर्शन करती है। इस के व्यवहार को देखने पर लगेगा जैसे आप कोई शानदार नाटक देख रहे हो।
ग्रेटर हूपु लार्क, एक छोटा पेसेराइन पक्षी जिसे राजस्थान की तेज गर्मी में झुलसते रेगिस्तान में रहना पसंद आता है तथा वर्षा ऋतू के आगमन के साथ ही इसका प्रजनन काल शुरू हो जाता है, जिसमें नरों द्वारा एक ख़ास प्रकार की उड़ान का प्रदर्शन किया जाता है नर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करते हुए धीमी गति में उड़ते हैं और इसी आवाज के कारण इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है। इस पक्षी को “लार्ज डेजर्ट लार्क” के नाम से भी जाना जाता है, परन्तु यह एक बेहद चतुर पक्षी होता है जो शिकारी को देखते ही उसे भर्मित करने के लिए घायल होने का नाटक कर ज़मीन पर गिर जाता है। रेगिस्तानी पर्यावास में जब यह ज़मीन पर होता है तो इसे देख पाना मुश्किल है क्योंकि इसके शरीर का रेतीला-भूरा रंग इसे परिवेश में छलावरण करने में मदद करता है, परन्तु जब यह उड़ान भरता है तो इसके पंखों के काले-सफ़ेद रंग के पैटर्न से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसके पंखो का यह पैटर्न किसी भी अन्य लार्क प्रजाति से अद्वितीय है। अपनी लम्बी टांगों से तेजी से एक प्लोवर की तरह भागते हुए अपनी छोटी, पतली व् तीखी चोंच से यह मिटटी को खोद कर तो कभी खुरच कर छोटे कीटों को ढूंढ अपना शिकार बनाते हैं।
निरूपण (Description):
ग्रेटर हूपु लार्क, “Alaudidae” परिवार का सदस्य है, इसका वैज्ञानिक नाम Alaemon alaudipes है जो एक ग्रीक भाषा के शब्द alēmōn से लिया गया है तथा इसका अर्थ “घुमक्कड़” होता है। पहले इसे Upupa और Certhilauda जीनस में रखा गया था परन्तु वर्ष 1840 में बाल्टिक जर्मन भूवैज्ञानिक व् जीवाश्म वैज्ञानिक “Alexander Keyserling” और जर्मन जीव वैज्ञानिक “Johann Heinrich Blasius” द्वारा Alaemon जीनस बनाया गया तथा इसे इसमें रखा गया।
ग्रेटर हूपु लार्क का चित्र (Nicolas, H. 1838)
ग्रेटर हूपु लार्क को शुष्क व् अर्ध-शुष्क मरुस्थलीय परिवेश में रहना पसंद होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
यह लार्क आकार में बाकि लार्क प्रजातियों से अपेक्षाकृत बड़ी होती है। शरीर का ऊपरी भाग रेतीला-भूरा और अंदरूनी भाग सफ़ेद-क्रीम होता है। इसके पैर लम्बे व् इसकी चोंच पतली-लम्बी और हल्की सी नीचे की ओर घुमावदार होती है। इसके चेहरे पर चोंच के आधार से होते हुए आँखों के पास से एक काली रेखा निकलती है तथा आँखों पर सफ़ेद भौंहें होती है। छाती के पास कुछ काले धब्बे होते हैं। उड़ते समय इसके सफ़ेद किनारों वाले काले पंखों का पैटर्न और बाहरी काले पंख वाली सफ़ेद पूँछ स्पष्ट दिखाई देता है। नर व् मादा दोनों दिखने में लगभग समान होते हैं, हालांकि मादा, नर की तुलना में छोटी होती हैं और छाती पर काले धब्बे कम होते हैं।
उड़ते समय इसके पंखो पर काले-सफ़ेद रंग का पैटर्न स्पष्ट दिखाई देते है जिसके कारण इसको तुरंत पहचाना जा सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वितरण व आवास (Distribution & Habitat):
बहुत ही व्यापक वितरण होने के कारण इसकी कई आबादी पायी जाती हैं जिन्हें चार उप-प्रजाति के रूप में नामित किया गया है, तथा भारत में Eastern greater hoopoe-lark (A. a. doriae) उप-प्रजाति पायी जाती है जो राजस्थान व् गुजरात में ही पायी जाती है। राजस्थान में यह थार रेगिस्तान के रेट के टीलों, शुष्क व् अर्ध-शुष्क छोटी झाड़ियों वाले खुले इलाकों में पायी जाती है। ग्रेटर हूपु लार्क रेगिस्तानी, अत्यंत गर्म व् शुष्क वातावरण में पाया जाता है, और यह 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में जीवित रहने में सक्षम है। क्योंकि प्रकृति ने इसे इस वातावरण में रहने के लिए अनुकूलन प्रदान किया है। इसकी लम्बी टाँगे इसके शरीर को गर्म ज़मीन से ऊपर रखती हैं और अधर भाग का सफ़ेद रंग जमीन की गर्मी को वापस प्रतिबिंबित करता है। चीते की तरह इसकी आँखों के पास लम्बी काली रेखा होती है। गर्मियों में कभी-कभी जब सतह का तापमान असहनीय हो जाता है, तो ऐसे में ग्रेटर हूपु लार्क खुद को पानी की कमी होने से बचाने के लिए सांडा छिपकली के बिल में छुप जाती है। छिपकली शाकाहारी होती है इसलिए इसे किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता है।
व्यवहार एवं पारिस्थितिकी (Behaviour and ecology):
राजस्थान के थार रेगिस्तान में ग्रेटर हूपु लार्क को अकेले या जोडों में भोजन की तलाश करते हुए देखा जा सकता है, जहाँ ये टहलते, दौड़ते व् उछलते-कूदते हुए जमीन को अपनी छोटी चोंच से खोदते हुए विचरण करते हैं। यह छोटे कीटों, छिपकलियों और विभिन्न प्रकार के बीजों को खाते हैं तथा इन्हें कवक (Fungi) को खाते हुए देखा गया है। घोंघों का खोल तोड़ने के लिए, कई बार इसे घोंघों को ऊपर से किसी सख्त सतह पर गिराते या फिर उन्हें लगातार किसी पत्थर पर पीटते हुए भी देखा गया है। जीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल ने अपने एक आलेख में इसके द्वारा “डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis)” के शिकार किये जाने के एक की घटना की व्याख्या की है।
यह जमीन को खोद कर छोटे कीटों को अपना शिकार बनाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)
इनका प्रजनन काल मुख्यरूप से पहली बारिश के बाद लगभग मार्च से जुलाई माह तक रहता हैं। कई बार देर से बारिश आने पर अगस्त में भी इनका प्रजनन देखा गया है। प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं, जिसमें वह धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। नर लगभग 15 – 20 फीट तक ऊपर जाते हैं, और फिर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज की एक श्रृंखला के साथ धीरे-धीरे नीचे की ओर आते हैं तथा एक छोटी झाडी पर बैठ जाता है। धीमी गति में उड़ते समय जो बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करने के कारण ही इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है।
प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
इस ख़ास उड़ान में नर धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
छोटी टहनियों से बना हुआ इसका घोंसला एक कप के आकार का होता है जो छोटी झाड़ी के नीचे व् कभी-कभी ज़मीन पर ही रखा होता है। इसके चूज़े बहुत ही तेजी से बड़े होते हैं तथा उड़ना सीखने से पहले ही इनको इधर-उधर भागते हुए देखा जा सकता है। ज़मीन पर घोंसला व् चूज़ों का चंचल स्वभाव होने के कारण इनको कई प्रकार के शिकारी जीवों जैसे की छिपकली, गीदड़, लोमड़ी, चूहे और सांप का सामना करना पड़ता है। जब भी हूपु लार्क किसी प्रकार के शिकारी को अपने घोंसले की ओर बढ़ते देखती है, तो वह शिकारी को विचलित करने के लिए घायल या चोट का नाटक करती है। घोंसले से थोड़ी दूर पर ये ऐसे फड़फड़ाती है जैसे वह उड़ नहीं सकती, इस परिस्थिति में शिकारी को यह एक आसान शिकार महसूस होती है और शिकारी घोसले को छोड़ इसकी और बढ़ता है। शिकारी को पास आता देख यह कुछ दूर उड़ कर फिर से नीचे गिर जाती है और शिकारी इसको पकड़ पाने के विश्वास में उसकी और बढ़ता रहता है। ऐसा कई बार होता है और जब लार्क शिकारी को घोसले से दूर ले जानें सफल हो जाती है तो तुरंत उड़ कर वापिस घोंसले के पास आ जाती है।
ग्रेटर हूपु लार्क में नर व् मादा दोनों ही चूजों की देख-रेख में बराबर भूमिका निभाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)
संरक्षण स्थिति (Conservation status):
ग्रेटर हूपु लार्क की वैश्विक आबादी निर्धारित नहीं की गई है परन्तु इसकी आबादी का चलन कम होता दिखाई दे रहा है क्योंकि इसकी पूरी वितरण सीमा में इसके सामान्य से असामान्य होने की सूचनाएं मिली हैं। इसका विस्तार बहुत ही व्यापक है तथा अन्य मापदंडों के अनुसार अभी यह संकटग्रस्त होने की सीमा रेखा से कोसों दूर है। इसीलिए इसे IUCN द्वारा Least Concern श्रेणी में रखा गया है।
तो इस बार वर्षा ऋतू में राजस्थान आइये और इसकी मधुर आवाज व् उड़ान की खूबसूरती को देख पाने की कोशिश कीजिये।
सन्दर्भ:
Nicolas, H. 1838. Nouveau recueil de planches coloriées d’oiseaux. Vol III
Oates, EW (1890). Fauna of British India. Birds. Volume 2. Taylor and Francis, London. pp. 316–318.
स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते । परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है I
भारत का अधिकांश भू-भाग शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, मरुस्थल, बीहड़, व पर्णपाती वनों से आच्छांदित है। इन सभी आवासों की एक खास बात यह है की ये कभी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते है । इन आवासों में हरियाली व सघन वनस्पति का विस्तार मॉनसून की अवधि व मात्रा पर निर्भर करता है तथा ऋतुओं के साथ बदलता रहता है। इसी कारण देश के भौगोलिक हिस्से का बहुत बड़ा भाग वर्ष भर हरियाली से ढका नहीं रहता है । ऋतुओं के साथ वनस्पतिक समुदाय में आने वाले यह बदलाव प्राकृतिक चक्र का हिस्सा है तथा उपरोक्त भौगोलिक क्षेत्रों के निवासियों एवं जीवों के जीवनयापन के लिये जरूरी है।
शुष्क व अर्ध शुष्क आवासों के इसी चक्रिय बदलाव को समझने में असफल रहे औपनिवेशिक पर्यावरण वैज्ञानिकों ने इन आवासों को बंजर भूमि के तौर पर चिह्नित किया तथा बड़े स्तर पर वृक्षारोपण कर इन्हें जंगलों में बदलने को प्रेरित किया गया। यह शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान वास्तव में बंजर भूमि नहीं परंतु उपयोगी एवं महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। उपजाऊ घास के मैदानों एवं मरुस्थल को बंजर भूमि समझना वास्तव में औपनिवेशिक विचारधारा व उनकी वानिकी केन्द्रित पद्धत्तियों से ही प्रभावित रहा है। इसका मुख्य कारण औपनिवेशिक ताकतों का शीतोष्ण पर्यावरण से संबंध रखना भी है, जहाँ घास के मैदान व घने जंगल वर्ष भर हरे बने रहते है जबकि भारत मुख्यतः उष्णकटिबंधीय जलवायु क्षेत्र में आता है।
प्राकृतिक रूप से खुले पाये जाने वाले शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदानों को अनियंत्रित वृक्षारोपण द्वारा घने जंगलों में बदलने के प्रयास कालान्तर में यहाँ के जन-जीवन व वन्यजीवों के लिए निश्चित ही प्रतिकूल परिणाम सामने लाये है। इन प्रतिकूल परिणामों का सबसे बड़ा उदाहरण विलायती बबूल के रूप में देखने को मिलता है। विलायती बबूल को राजस्थान की स्थानीय भाषाओं में बावलियाँ, कीकर, कीकरियों, या दाखड़ी बबूल के नाम से भी जाना जाता हैं जो की मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका का एक स्थानीय पेड़ है।
औपनिवेशिक भारत में इसे सबसे पहले वर्ष 1876 में आंध्र प्रदेश के कडप्पा क्षेत्र में लाया गया था। थार मरुस्थल में इसका सबसे पहले आगमन वर्ष 1877 में सिंध प्रदेश से ज्ञात होता है। वर्ष 1913 में जोधपुर रियासत के तत्कालीन महाराज ने विलायती बबूल को अपने शाही बाग में लगाया था। कम पानी में भी तेजी से वृद्धि करने व वर्ष भर हरा -भरा रहने के लक्षण से प्रभावित होकर रियासत के महाराज ने इसे साल 1940 में शाही-वृक्ष भी घोषित किया एवं जनता से इसकी रक्षा करने का आह्वान किया गया।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा शुष्क परिस्थितियों में तेज़ी से वृद्धि करता है, तथा अन्य प्रजातियों को बढ़ने नहीं देता है। (फोटो: नीरव मेहता)
स्वतंत्र भारत में विलायती बबूल का व्यापक रूप से वृक्षारोपण स्थानीय समुदायों को आजीविका प्रदान करने, ईंधन की लकड़ी मुहैया करवाने, मरुस्थलीकरण (Desertification) को रोकने, और मिट्टी की बढ़ती लवणता से लड़ने के लिए 1960-1961 के दौरान शुष्क परिदृश्य के कई हिस्सों में किया गया। हालाँकि तात्कालिक वानिकी शोधकर्ताओं की बिरादरी में विलायती बबूल अपनी सूखे आवास में तेज वृद्धि की खूबियों के कारण उपरोक्त उद्देश्य के लिए सबसे पसंदीदा विकल्प था परन्तु स्थानीय लोगों में इसके दूरगामी प्रभाव को लेकर काफी चिंता भी ज्ञात होती है। स्थानीय लोगों का मानना था की ये प्रजाति भविष्य में अनियंत्रित खरपतवार बन कृषि भूमि एवं उत्पादन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। इस प्रकार की काँटेदार झाड़ी का बड़े स्तर पर फैलना पालतू मवेशियों के साथ-साथ वन्य जीवों के लिए भी नुकसानदायक सिद्ध होगा। उस समय स्थानीय लोगों द्वारा जाहीर की गयी चिंता आज के वैज्ञानिक आंकड़ो से काफी मेल खाती हैं। पिछले कुछ दशकों में विलायती बबूल ने संरक्षित व असंरक्षित प्राकृतिक आवासों के एक बड़े हिस्सों पर अतिक्रमण कर लिया है। धीरे-धीरे यह प्रजाति हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु सहित देश के कई हिस्सों में फैल चुकी है।
विलयाती बबूल की घनी झाड़ियों में फसा प्रवासी short eared owl . घायल उल्लू को बाद में रेस्क्यू किया गया। ( फोटो: श्री चेतन मिश्र)
विलायती बबूल का वैज्ञानिक नाम प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा (Prosopis juliflora) है जो वनस्पति जगत के कुल फैबेसी (Fabaceae) से संबंध रखता है। फैबेसी परिवार में मुख्यतः फलीदार पेड़-पौधे आते है, जो की अपनी जड़ो में नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक राइजोबियम जीवाणुओ की उपस्थिती के कारण जाने जाते है। हालाँकि विलायती बबूल का सबसे करीबी स्थानीय रिश्तेदार हमारा राज्य वृक्ष खेजड़ी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) है, परंतु इन दोनों की आकारिकी एवं शारीरीकी में असमानता के कारण इनका स्थानीय वनस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव एक दूसरे से बिल्कुल अलग है।
दोनों प्रजातियों के तुलनात्मक शोध से ज्ञात होता है की विलायती बबूल की जड़ों से निकलने वाले रासायनिक तत्वों की संरचना व मात्रा खेजड़ी से निकलने वाले रासायनिक तत्वों से काफी अलग होती है। परिणामस्वरूप दोनों का स्थानीय वानस्पतिक समुदाय एवं मिट्टी पर प्रभाव भी अलग होता है। विलायती बबूल की जड़ो द्वारा अत्यधिक मात्रा में फोस्फोरस, घुलनशील लवण, एवं फीनोलिक रसायन का स्रावण होता है जो की आस-पास उगने वाले अन्य पौधों को नष्ट कर देता है। पौधों के इस प्रभाव को विज्ञान की भाषा में एलीलोपैथी प्रभाव कहते है, जिसके अंतर्गत किसी भी पौधे द्वारा स्रावित रासायनिक पदार्थ उसके समीप उगने वाले अन्य पौधों की वृद्धि को संदमित कर उन्हें नष्ट कर देते हैं। विलायती बबूल का यह प्रभाव स्थानीय फसलों जैसे ज्वार व सरसों पर भी देखा गया है जो की खेजड़ी से बिलकुल विपरीत है। खेजड़ी का वृक्ष नाइट्रोजन स्थिरीकरण कर अपने नीचे लगने वाली फसलों की वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसका ज्ञान स्थानीय किसानों को सदियों से विरासत में मिला है। विलायती बबूल की जड़ो से स्रावित रसायन के साथ-साथ इसके झड़ते पत्तों के ढेर भी मिट्टी की रासायनिक संरचना में परिवर्तन करते हैं, जो की स्थानीय वनस्पति प्रजातियों को नष्ट कर अन्य खरपतवार पौधों की संख्या में बढ़ोतरी में सहायक है। विलायती बबूल की जड़े अत्यधिक गहरी होती है जो अकसर भू-जल तक पहुँच जाती है। घनी संख्या में लगे विलायती बबूल अपनी तेज वाष्पोत्सर्जन दर जो की स्थानीय प्रजातियों से कई अधिक होती है के कारण भू-जल स्तर बढ़ाते है परिणामस्वरूप एक गहराई के बाद मिट्टी की लवणता में वृद्धि होती है।
प्रोसोपिस जुलिफ्लोरा की मीठी फलियों को शाकाहारी वन्यजीव और मवेशी खाते हैं तथा इनके गोबर के साथ इसके बीज सभी तरफ फ़ैल जाते हैंI (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)
विलायती बबूल का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है। विलायती बबूल का खुले घास के मैदानों में अतिक्रमण इन आवासों को घनी झाड़ियो युक्त आवास में बदल देता है जो की घास के मैदानों के लिए अनुकूलित किन्तु संकटग्रस्त वन्यजीवों जैसे की गोडावन, कृष्ण मृग, मरू-लोमड़ी, खड़-मौर, इत्यादि के लिए अनुपयुक्त होता है। उपयुक्त आवास में कमी का सीधा परिणाम इन संकटग्रस्त प्रजातियों की घटती संख्या के रूप में देखा जा सकता है। विलायती बबूल का चरागाहों पर बढ़ता अतिक्रमण घास की उत्पादकता में भी कमी लाता है जिसका प्रभाव मवेशियों के साथ-साथ जंगली शाकाहारी जीवों जैसे चिंकारा, कृष्ण मृग इत्यादि पर भी पड़ता है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं।
प्रकृति में उंगुलेट्स, जूलीफ्लोरा के बीज प्रकीर्णन में एक मुख्य कारक की भूमिका निभाते हैं। (फोटो: श्रीमती दिव्या खांडल)
हालांकि विलायती बबूल का प्रकोप राजस्थान के सभी जिलों में कमोबेश देखने को मिलता है परंतु पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, एवं बाड़मेर क्षेत्र के घास के मैदानों में इनका व्यापक वितरण एक बहुत बड़ी समस्या है । अजमेर जिले के सोंखलिया घास के मैदान खड़-मौर (लेसर फ्लोरिकन) के कुछ अंतिम बचे मुख्य आवासों में से एक है । खड़-मौर एक दुर्लभ घास के मैदानों को पसंद करने वाला पक्षी है जो की अपने आवास में विलायती बबूल के बड़ते अतिक्रमण के कारण खतरे का सामना कर रहा है । प्रवासी पक्षियों की विविधता के लिए विश्व प्रसिद्ध भरतपुर का कैलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण इसी विलायती बबूल के अतिक्रमण कारण कई शिकारी पक्षियों की घटती संख्या का सामना कर रहा है। अभ्यारण में पक्षियों की घटती आबादी को रोकने के लिए विलायती बबूल का कठोर निस्तारण बहुत ही जरूरी बताया गया है।
विलायती बबूल स्थानीय वृक्ष जैसे की देसी बबूल, रोहिडा, व खेजड़ी को पनपने से रोकता है जो की अनेक स्थानीय पक्षी प्रजातियों को घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित सतह मुहैया करवाते है। विलायती बबूल व देसी बबूल पर बने कुल पक्षियों के घोंसलो के एक तुलनात्मक अध्ययन में देखा गया की विलायती बबूल से गिरकर नष्ट होने वाले अंडे व चूज़ो की संख्या देसी बबूल की तुलना में दो गुना से भी अधिक है। इसका मुख्य कारण विलायती बबूल की कमजोर शाखाओं द्वारा घोंसले के लिए मजबूत आधार प्रदान नहीं कर पाना है जो की पक्षियों की आबादी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। गुजरात के कच्छ जिले में स्थित बन्नी घास के मैदान जो कभी एशिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय घास के मैदानों में से एक हुआ करता था, विलायती बबूल के बढ़ते अतिक्रमण ने 70 फीसदी से भी अधिक घांस के मैदानों को अपनी जद में ले लिया है, जिसका प्रभाव वह के वन्यजीवों के साथ-साथ चरवाहों की आजीविका पर भी पड़ा है।
सियार प्रोसोपिस से आच्छांदित क्षेत्र में रहने के लिए पूर्णरूप से ढले हुए हैं (फोटो: श्री चेतन मिश्र)
स्थानीय वनस्पतिक समुदाय में सीमित प्रजातियों की संख्या के कारण शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क प्रदेश किसी भी बाह्य आक्रामक प्रजाति को पारिस्थितिक रूप से संसाधनों के लिए मजबूत प्रतिस्पर्धा नहीं दे पाते। परिणामस्वरूप ये आवास किसी भी बाह्य प्रजाति के अतिक्रमण के लिए वर्षा वनों की तुलना में अधिक असुरक्षित होते है। इसी कारण विलायती बबूल विश्व भर के शुष्क व अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में एक मुख्य आक्रामक प्रजाति है जिनमें अफ्रीकी महाद्वीप, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया, सयुंक्त अरब अमीरात, ईरान, इराक, इस्राइल, जॉर्डन, ओमान, ताइवान, चीन, स्पेन जैसे देश शामिल है।
बदलते जलवायु के समय में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए विलायती बबूल जैसी आक्रामक प्रजातियों से निजात पाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। इसी के साथ भविष्य में इस तरह की नयी प्रजातियों से सामना न हो ये सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम घास के मैदानों से बंजर भूमि का पहचान हटाकर उन्हें वर्षा वनों के समान ही एक उपयोगी एवं आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में पहचान दिलाकर बढ़ाया जा सकता है। यह घास के मैदानों के साथ-साथ यहाँ पाये जाने वाले दुर्लभ जीवों के संरक्षण को मजबूती देगा। वन्यजीव संरक्षण प्राथमिकता वाले क्षेत्रों से विलायती बबूल का सम्पूर्ण उन्मूलन ही एक मात्र उपाय है।
स्परफाउल, वे जंगली मुर्गियां जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार होते हैं राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित हैं तथा इनका व्यवहार और भी ज्यादा दिलचस्प होता है…
पक्षी जगत की मुर्ग जाति में कुछ सदस्य ऐसे पाए जाते हैं जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं और इसी लक्षण की कारण इन्हे स्परफाउल (Spurfowl) कहा जाता है। स्परफाउल कहलाये जाने वाले ये पक्षी आकार में कुछ हद्द तक तीतर जैसे होते हैं परन्तु इनकी पूँछ थोड़ी लम्बी होती है। स्परफाउल को गैलोपेरडिक्स (Galloperdix) वंश में रखा गया है। इस जीनस में कुल तीन प्रजातियां हैं; रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea), पेंटेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata) और श्रीलंका स्परफाउल (Galloperdix bicalcarata)। इन तीन प्रजातियों में से दो रैड स्परफाउल और पेंटेड स्परफाउल राजस्थान में पायी जाती हैं। आइये इनके बारे में विस्तार से जानें।
“झापटा” यानी रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea):
यह एक छोटे आकार की मुर्ग प्रजाति है जो मूल रूप से भारत की ही स्थानिक (Endemic) है। यह एक एकांतप्रिय व् जंगलों में रहने वाला पक्षी है, और इसीलिए इसको सहजता से खुले में देख पाना काफी मुश्किल भी होता है। इसकी पूँछ तीतर (जो स्वयं फ़िज़ेन्ट कुल का पक्षी है) की तुलना में लंबी होती है और जब यह ज़मीन पर बैठा होता है, तो इसकी पूँछ साफ़ दिखाई देती है। हालांकि इसका पालतू मुर्गी से कोई निकट सम्बन्ध नहीं है, लेकिन भारत में इसे जंगली मुर्गा ही माना जाता है। यह लाल रंग का होता है और लम्बी पूँछ वाले तीतर की तरह लगता है। इसकी आंख के चारों ओर की त्वचा पर कोई पंख नहीं होने के कारण आँखों के आसपास नंगी त्वचा का लाल रंग दिखाई देता है। नर और मादा दोनों के पैरों में एक या दो नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं, जिनकी वजह से इनको अंग्रेज़ी नाम Spurfowl मिला है। इसके पृष्ठ भाग गहरे भूरे रंग के और अधर भाग गेरू रंग पर गहरे भूरे रंग चिह्नों से भरा होता है। नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं।
रैड स्परफाउल में नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)
रेड स्परफाउल, वंश Galloperdix की टाइप प्रजाति (type species) है। इस प्रजाति को 18 वीं शताब्दी के अंत में भारत से मेडागास्कर ले जाया गया था, और फिर मेडागास्कर से ही इस पर पहली बार एक फ्रांसीसी यात्री पीर्रे सोनेरेट (Pierre Sonnerat) द्वारा व्याख्यान दिया गया था। वर्ष 1789 में जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) ने द्वीपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए इसे “Tetrao spadiceus” नाम दिया था। गमेलिन, एक जर्मन प्रकृतिवादी, वनस्पति विज्ञानी, किट वैज्ञानिक (Entomologist), सरीसृप वैज्ञानिक (Herpatologist) थे। इन्होंने विभिन्न पुस्तकें लिखी तथा 1788 से 1789 के दौरान कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) कृत Systema Naturae का 13वां संस्करण भी प्रकाशित किया। परन्तु वर्ष 1844 में एक अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ Edward Blyth ने इसे “Galloperdix” वंश में रख दिया।
ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित रैड स्परफाउल का चित्र
यह स्परफाउल मुख्यरूप से दक्षिणी राजस्थान में दक्षिण अरावली से लेकर मध्य अरावली पर्वतमाला के वन क्षेत्रों में पाया जाता है। लेखक (II) के अनुसार रैड स्परफाउल राजस्थान के लगभग 9 जिलों; उदयपुर, राजसमन्द, पाली, अजमेर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौडगढ़, सिरोही और जालौर में निश्चयात्मक रूप से उपस्थित है। इस मुर्गे की एक उप-प्रजाति जिसे अरावली रैड स्परफाउल (Aravalli Red Spurfoul Galloperdix spadicea caurina) नाम से जाना जाता है, आबू पर्वत, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, कुम्भलगढ वन्यजीव अभयारण्य एवं टॉडगढ-रावली अभयारण्यों में अच्छी संख्या में पाई जाती है। यह प्रजाति आबू पर्वत के दक्षिण में स्थित गुजरात राज्य के वन क्षेत्रो में भी कुछ दूर तक देखी जा सकती है। यह प्रजाति पहाड़ी, शुष्क और नम-पर्णपाती जंगलों में पाई जाती है। झापटा आमतौर पर तीन से पांच के छोटे समूहों में अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। जब चारों ओर घूमते हैं, तो अपनी पूंछ को कभी-कभी घरेलु मुर्गे की तरह सीधे ऊपर उठा कर रखते हैं। दिन में यह काफी चुप रहते हैं लेकिन सुबह और शाम के समय आवाज करते हैं। विभिन्न अनाजों के बीज, छोटे फल व् कीड़े इनका मुख्य भोजन हैं तथा पाचन को सही करने के लिए कभी-कभी ये छोटे कंकड़ भी खा लेते हैं। यह भोजन के लिए खुले में आना पसन्द नहीं करता है और छोटी घनी झाड़ियों में ही अपना भोजन ढूंढता है।
रैड स्परफाउलआमतौर पर अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)
इनका प्रजनन काल जनवरी से जून, मुख्य रूप से बारिश से पहले होता है। यह ज़मीन पर घोंसला बना कर एक बार में 3-5 अंडे देते हैं। नर अपना जीवन एक ही मादा के साथ बिताता है जिसकी वजह से चूजों की देखरेख में उसकी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है तथा नर अन्य शिकारियों को दूर भगाता व् चूजों की रक्षा करता है। ऐसी ही एक जानकारी रज़ा एच. तहसीन (Raza H. Tehsin) ने अपने आलेख में सूचीबद्ध की थी। रज़ा एच. तहसीन, एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने उदयपुर में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया तथा उन्हें उदयपुर के “वास्को-डि-गामा” के नाम से भी जाना जाता है। रज़ा एच. तहसीन अपने आलेख में बताते हैं की “29 मई, 1982 को मैंने स्पर फॉल के दिलचस्प व्यवहार को देखा। उदयपुर के पश्चिम में एक पहाड़ी इलाके भोमट में, जो शुष्क पर्णपाती मिश्रित वन से आच्छादित है। वहां मैं बोल्डर्स और स्क्रब जंगल में ग्रे जंगल फाउल (गैलस सोनरटैटी) की तलाश कर रहा था और तभी एक मोड़ पर मुझे रेड-स्परफॉल का एक परिवार दिखा। मुझे देख नर ने अपने पंखों का शानदार प्रदर्शन करते हुए, एक बड़े बोल्डर के चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाना शुरू कर दिया। और इसी दौरान मादा चूजों को लेकर वहाँ से जाने लगी। जैसे ही मादा बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंच गयी, नर ने एक छोटी उड़ान भरी और मेरी आँखों के सामने से गायब हो गया। मैं समझ गया था की अपने चूजों को बचाने के लिए नर ने घुसपैठिये (मेरा) का ध्यान हटाने के लिए गोल चक्कर लगाने शुरू किये थे।”
पेन्टेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata):
चित्तीदार जंगली मुर्गी यानी पेन्टेड स्परफाउल अपने अंग्रेज़ी नाम के अनुसार काफ़ी रंग-बिरंगा एक छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। यह अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में छोटी झाड़ियों में देखे जाते हैं। खतरा महसूस होने के समय यह पंखों का इस्तेमाल करने के बजाये तेजी से भागना पसंद करते हैं। यह आकार में मुर्गी और तीतर के बीच होता है। नर बड़े ही चटकीले रंग के होते हैं जिनके पृष्ठ भाग गहरे और अधर भाग गेरू रंग के होते हैं तथा पूँछ काली होती है। ऊपरी भागों के पंखों पर बहुत सी छोटी-छोटी सफ़ेद बिंदियां होती हैं जिनके सिरे काले होते हैं। नर का सिर और गर्दन एक हरे रंग की चमक के साथ काले होते हैं और सफेद रंग की छोटी बिंदियो से भरे होते हैं। मादा गहरे भूरे रंग की होती है तथा इसके शरीर पर किसी भी तरह के सफेद धब्बे नहीं होते हैं। नर में टार्सस (tarsus) के पास दो से चार कांटे (spur) तथा मादा में एक या दो कांटे होते हैं।
पेन्टेड स्परफाउल एक रंग-बिरंगा छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित पेंटेड स्परफाउल का चित्रI
लेखक (II) के अनुसार यह प्रजाति दक्षिणी – पूर्वी राजस्थान की विंद्याचल पर्वतमाला की खोहों की कराईयों से लेकर पूर्वी राजस्थान में सरिस्का तक सभी वन क्षेत्रो में जगह-जगह विद्यमान है। विंद्याचल पर्वतमाला की कराईयों में पाए जाने वाले कई मंदिर परिसर जहाँ नियमित चुग्गा डालने की प्रथा है, वहाँ कई अन्य पक्षी प्रजातियों के साथ पेन्टेड स्परफाउल को भी दाने चुगते हुए देखा जा सकता है। कोटा जिले का गरडिया महादेव एक ऐसा ही जाना पहचाना स्थल हैं। सवाई माधोपुर में रणथम्भौर बाघ परियोजना क्षेत्र में मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढने पर मुख्य मार्ग के दोनों तरफ की पहाडी चट्टानों एवं पथरीले नालों में सुबह- शाम यह मुर्ग प्रजाति आसानी से देखी जा सकती है। यह बेर व् लैंटाना के रसीले फलों के साथ-साथ छोटे छोटे कीटों को खाते हैं। अक्सर जनवरी से जून तक इनका प्रजनन काल होता है परन्तु राजस्थान के कुछ हिस्सों में बारिश के बाद अगस्त में चूजों को देखा गया है। इनका घोंसला जमीन पर पत्तियों व् छोटे कंकड़ों से घिरा हुआ एक कम गहरा सा गड्डा होता है। मादा अण्डों को सेती है परन्तु दोनों, माता-पिता चूजों की देखभाल करते हैं।
उपरोक्त व्याख्या से सपष्ट है कि राजस्थान में रैड स्परफाउल और पेन्टेड स्परफउल कई जिलों में उपस्थित हैं। मुर्ग प्रजातियाँ दीमक व कीट नियत्रंण कर कृषि फसलों, चारागाहों एवं वनों की सुरक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं अतः हमें उनका संरक्षण करना चाहियें।
सन्दर्भ:
Anonymous (2010): Assessment of biodiversity in Sitamata Wildlife Sanctuary: An conservation perspective. Foundation for Ecological Security study report.
Blanford WT (1898). The Fauna of British India, Including Ceylon and Burma. Birds. Volume 4. Taylor and Francis, London. pp. 106–108.
Ojha, G.H. (1998): Banswara Rajya ka Itihas. (First published in 1936).
Ranjit Singh, M.K. (1999) : The Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Ranthambhore National Park, Rajasthan. JBNHS 96 (2): 314.
Shankar, K. (1993) Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. JBNHS 90 (2): 289.
Shankar, K., Mohan , D. & Pandey, S. (1993): Birds of Sariska Tiger Reserve, Rajasthan, India. Forktail 8: 133-141.
Tehsin, Raza H (1986). “Red Spurfowl (Galloperdix spadicea caurina)”. J. Bombay Nat. Hist. Soc. 83 (3): 663.
Vyas, R (2000): Distribution of Painted spurfowl Galloperdix lunulata in Rajasthan. Mor, February 2000, 2:2.
लेखक:
Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.
Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.
राजस्थान के शुष्क वातावरण में पाए जाने वाला वृक्ष “इंद्रधौक” जो राज्य के बहुत ही सिमित वन क्षेत्रों में पाया जाता है, जंगली सिल्क के कीट के जीवन चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है…
राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के वनस्पतिक संसार में वंश एनोगिसस (Genus Anogeissus) का एक बहुत बड़ा महत्व है, क्योंकि इसकी सभी प्रजातियां शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में मजबूत लकड़ी, ईंधन, पशुओं के लिए चारा तथा विभिन्न प्रकार के औषधीय पदार्थ उपलब्ध करवाती हैं। जीनस एनोगिसस, वनस्पतिक जगत के कॉम्ब्रीटेसी कुल (Family Combretaceae) का सदस्य है, तथा भारत में यह मुख्य रूप से समूह 5- उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन का एक घटक है। यह वंश पांच महत्वपूर्ण बहुउद्देशीय प्रजातियों का एक समूह है, जिनके नाम हैं Anogeissus acuminata, Anogeissus pendula, Anogeissus latifolia, Anogeissus sericea var. sericea and Anogeissus sericea var. nummularia। दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर शहर राज्य का एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ सभी पाँच प्रजातियों व् उप प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है। सज्जनगढ़ अभयारण्य राज्य का एकमात्र अभयारण्य है जहाँ Anogeissus sericea var. nummularia को छोड़कर शेष चार प्रजातियों व् उप-प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है।
Anogeissus sericea var. sericea, इस जीनस की एक महत्वपूर्ण प्रजाति है जिसे सामान्य भाषा में “इंद्रधौक” भी कहा जाता है। इसे Anogeissus rotundifolia के नाम से अलग स्पीशीज का दर्जा भी दिया गया है, यदपि सभी वनस्पति विशेषज्ञ अभी तक पूर्णतया सहमत नहीं है। इस प्रजाति के वृक्ष 15 मीटर से अधिक लम्बे होने के कारण यह राज्य में पायी जाने वाली धौक की सभी प्रजातियों से लम्बी बढ़ने वाली प्रजाति है। यह एक सदाबहार प्रजाति है जिसके कारण यह उच्च वर्षमान व् मिट्टी की मोटी सतह वाले क्षेत्रों में ही पायी जाती है। परन्तु राज्य में इसका बहुत ही सिमित वितरण है तथा सर्वश्रेष्ठ नमूने फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य और उसके आसपास देखे जा सकते हैं। राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के लिए यह बहुत ही विशेष वृक्ष है। गर्मियों के मौसम में मवेशियों में लिए चारे की कमी होने के कारण लोग इसकी टहनियों को काट कर चारा प्राप्त करते हैं, तथा इसकी पत्तियां मवेशियों के लिए एक बहुत ही पोषक चारा होती हैं। काटे जाने के बाद इसकी टहनियाँ और अच्छे से फूट कर पहले से भी घनी हो जाती हैं तथा पूरा वृक्ष बहुत ही घाना हो जाता है। इसकी पत्तियों पर छोटे-छोटे रोए होते है जो पानी की कमी के मौसम में पानी के खर्च को बचाते हैं।
Anogeissus sericea var. sericea (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
वर्षा ऋतू में कभी-कभी इसकी पत्तियाँ आधी खायी हुयी सी दिखती हैं क्योंकि जंगली सिल्क का कीट इसपर अपने अंडे देते हैं तथा उसके कैटेरपिल्लर इसकी पत्तियों को खाते हैं। जीवन चक्र के अगले चरण में अक्टूबर माह तक वाइल्ड सिल्क के ककून बनने लगते हैं तो आसानी से 1.5 इंच लम्बे व् 1 इंच चौड़े ककूनों को वृक्ष पर लटके हुए देखा जा सकता है तथा कभी-कभी ये ककून फल जैसे भी प्रतीत होते है। यह ककून पूरी सर्दियों में ज्यो-के-त्यों लटके रहते हैं तथा अगली गर्मी के बाद जब फिर से वर्षा होगी तब व्यस्क शलम (moth) बन कर बाहर निकल जाते हैं। ककून बन कर लटके रहना इस शलम का जीवित रहने का तरीका है जिसमे इंद्रधोक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही इस प्रजाति के वृक्ष गोंद बनाते है जिनका विभिन्न प्रकार की दवाइयां बनाने में इस्तेमाल होता है। इसकी लकड़ी बहुत ही मजबूत होने के कारण खेती-बाड़ी के उपकरण बनाने के लिए उपयोग में ली जाती है।
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण बहुत ही सिमित है तथा ज्ञात स्थानों को नीचे सूची में दिया गया है:
क्रमांक
जिला
स्थान
संदर्भ
1
उदयपुर
सज्जनगढ़ वन्यजीव अभयारण्य, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य
ऊपर दी गयी तालिका से यह स्पष्ट है कि Anogeissus sericea var. sericea अब तक केवल राजस्थान के सात जिलों में ही पायी गयी है। इसकी अधिकतम सघनता माउंट आबू और उदयपुर जिले की चार तहसीलों गोगुन्दा, कोटरा, झाड़ोल एवं गिर्वा तक सीमित है। चूंकि यह प्रजाति बहुत ही प्रतिबंधित क्षेत्र में मौजूद है और वृक्षों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है इसलिए इस प्रजाति को संरक्षित किया जाना चाहिए। वन विभाग को इस प्रजाति के पौधे पौधशालाओं में उगाने चाहिए और उन्हें वन क्षेत्रों में लगाया जाना चाहिए। ताकि राजस्थान में इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सके।
संदर्भ:
Cover photo credit : Dr. Dharmendra Khandal
Aftab, G., F. Banu and S.K. Sharma (2016): Status and distribution of various species of Genus Anogeissus in protected areas of southern Rajasthan, India. International Journal of Current Research, 8 (3): 27228-27230.
Sharma, S.K. (2007): Study of Biodiversity and ethnobiology of Phulwari Wildlife Sanctuary, Udaipur (Rajasthan). Ph. D. Thesis, MLSU, Udaipur
Shetty, B.V. & V. Singh (1987): Flora of Rajasthan, vol. I, BSI.
जानिये राजस्थान के दुर्लभ नारंगी रंग के चमगादड़ों के बारे में जिन्हे चिड़िया के घोंसलों में रहना पसंद है…
राजस्थान चमगादडों की विविधता से एक धनी राज्य है। यहाँ थार रेगिस्तान से लेकर अरावली पर्वतमाला क्षेत्र एवं पूर्व दिशा में स्थित विन्ध्याचल पर्वत एवं उपजाऊ मैदान में चमगादडों की अच्छी विविधता पायी जाती है। यों तो हर चमगादड अपने में सुन्दर भी है, उपयोगी भी और विशेष भी; लेकिन पेन्टेड चमगादड़ (Painted Bat) का रंग देखने लायक होता है। ये चमगादड़ कैरीवोला वंश का होता हैं । सर्वप्रथम इस वंश की खोज वर्ष 1842 में हुई थी। भारत में इस वंश की तीन प्रजातियाँ ज्ञात हैं- Kerivoula hardwickii,Kerivoula papillosa तथा Painted Bat or Painted woody Bat, “Kerivoula picta“। इन तीनों में से अंतिम प्रजाति केरीवोला पिक्टा (Kerivoula picta) राजस्थान में पाई जाती है जिसकी खूबसूरती वाकई लाजवाब है। मानों काले व नारंगी – लाल रंग से किसी ने बहुत ही सुन्दर पेन्टिंग बना दी हो। यह सुन्दरता डैनों पर तो देखने लायक ही होती है।
Schreber द्वारा वर्ष 1774 में बनाया गया पेंटेड चमगादड़ “Kerivoula picta” का चित्रण (Source : Die Säugthiere in Abbildungen nach der Natur, mit Beschreibungen)
राजस्थान में इस चमगादड को पहली बार जुलाई 15, 1984 को अलवर जिले की मुण्डावर तहसील में अलवर बहरोड रोड के समीप स्थित किशोरपुरा गाँव में वन विभाग के एक वृक्षारोपण क्षेत्र में देखा गया था। राजस्थान में यह इस चमगादड़ का गत 36 वर्ष में एकमात्र उपस्थिति रिकार्ड दर्ज है। किशोरपुरा में यह चमगादड़ बया पक्षी के लटकते अधूरे घोंसलों में लटकती हुई लेखक द्वारा दर्ज की गई थी। इसकी उपस्थति का यह रिकोर्ड बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल के वर्ष 1987 के अंक में दर्ज है। तत्कालीन सर्वे में इसे किशोरपुरा में तीन बार देखा गया जिसका विवरण निम्न हैः
क्र. सं.
दिनांक
बया के घौंसले की अवस्था
घोंसले किस प्रजाति के वृक्ष पर था
घोंसले में कुल किनते चमगादड पाये गये
1
5-7-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
1
2
1-8-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
4
3
4-8-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
1
पेन्टेड चमगादड प्राणी कुल वैस्परटिलिनोइडीज (Vespertilionidae) की सदस्य है। इसके शरीर की लम्बाई 3.1 से 5.7 सेमी., पूँछ की लम्बाई 3.2 से 5.5 सेमी., फैले हुये पंखों की चौडाई 18-30 सेमी., अगली भुजा की लम्बाई 2.7 से 4.5 सेमी. तथा वजन 5.0 ग्राम होता है। इसके मुँह में विभिन्न तरह के 38 दांत होते हैं। जाँघों व पूँछ को जोडती हुई पतली चमडी की बनी जिल्ली होती है जो एक टोकरीनुमा जाल सा बनाती है जिसकी मदद से यह चमगादड कीटों को पकडने का कार्य करती है। इस चमगादड के शरीर पर लम्बे, नर्म, सघन व घुँघराले बालों की उपस्थिति होती है। इसकी थूथन के आस- पास के बाल अपेक्षाकृत अधिक लम्बे होते हैं। इसके कान कीपाकार व बाल रहित होते हैं। कानों में उपस्थित विशेष रचना ’’ट्रगस (Tragus)” लम्बा, होता है। मादा एक बार में एक शिशु को जन्म देती है। इस चमगादड के रंग बेहद भड़कीले होते हैं। पंखों, पूँछ, पेट, पिछली व अगली भुजाओं, सिर तथा अंगुलियों के सहारे – सहारे गहरा नारंगी या लाल रंग विद्यमान होता है तथा अंगुलियों की हड्डियों पर बनी नारंगी-लाल पट्टी से हट कर तीसरी व चौथी, चौथी व पाँचवी अंगुली व भुजा के बीच गहरे काले रंग के बडे- बडे तिकौनाकार से धब्बे विद्यमान होते हैं। इस तरह एक पंख पर तीन बडे धब्बे बने होते हैं। कई बार कुछ अतिरिक्त छोटे धब्बे भी मिल सकते हैं। नारंगी – लाल व काले रंग का यह संयोजन लेकर जब यह चमगादड सूखे पत्तों में छुपकर, दिन में उल्टी लटक कर विश्राम करती व सोती है तो यह अदृश्य सी स्थिति में बनी रहती है तथा यह पहचाने जाने से भी बची रहती है। इस तरह इस “कैमोफ्लेज” रंग के विन्यास से यह छोटा स्तनधारी प्राणी सुरक्षा प्राप्त करता है। अधिक आयु के नरों में रंग अधिक प्रखर होते हैं।
बया पक्षी के आधे बने हुए घोंसलों की कालोनी जिन्हे अक्सर पेन्टेड चमगादड द्वारा इस्तेमाल किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)
नारंगी चमगादड़ एक रात्रिचर प्राणी है जो उडते कीटों को पकड कर उनका सफाया करता है। अन्य कीटाहारी चमगादडों की तरह रात्रि में यह अपने “जैविक राडार तन्त्र” का उपयोग कर उडते कीटों की दिशा व दूरी का पता लगा कर अन्धेरे में ही उन्हें पकड लेती है। रात्रि में यह कुछ विलम्ब से शिकार पर निकलने वाला जीव है। यह चमगादड भूमि के अधिक पास रहते हुये गोल- गोल उडान भरते हुये अपना शिकार पकडती है। यह प्रायः 1-2 घन्टे ही शिकार अभियान पर रहती है फिर विश्राम स्थल (Roost) पर लौट आती है तथा शेष रात्रि व अगला पूरा दिन वहीं रहती है।
दो आधा निर्मित घोंसलों (हेलमेट चरण) का क्लोजअप। हेलमेट की छत का निचली सतह (ceiling) का उपयोग चमगादड़ द्वारा लटकने के लिए किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)
दिन में यह चमगादड बया पक्षी (Baya Weaver bird) व शक्कर खोरा (Sunbird) जैसे पक्षियों के लटकते घौंसलों में छुपी सोयी रहती है। केले के सूखे पत्तों, वृक्षों के खोखलों व छतों की दरारों व छेदों में भी ये दिन मे विश्राम कर लेती है। यह चमगादड़ दिन के विश्राम स्थल में अकेले या परिवार (नर, मादा व बच्चे) के साथ छुप कर सोती रहती है। इनके छुपाव स्थल पर छेडने पर भी ये सुस्ती दिखाते हुये प्रायः वहीं बने रहते हैं। हाँ, कई दिन एक जगह नहीं रहते। थोडे- थोडे दिनों के अन्तराल पर ये अपनी सोने की जगह में परिवर्तन करते रहते हैं।
आई. यू. सी. एन. द्वारा इसे कम खतरे की श्रेणी (LC) में शामिल किया गया है। यह एक अपेक्षाकृत कम मिलने वाली चमगादड है जो दक्षिण- पूर्व एशिया में वितरित है। यह चमगादड भारत, चीन, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, सुमात्रा, जावा, बाली, मौलूक्का द्वीप, ब्रुनेई, कंबोडिया, मलेशिया, नेपाल, श्रीलंका, थाइलैण्ड एक वियतनाम में वितरित है। भारत में यह राजस्थान, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोवा, बंगाल, सिक्किम, असम व उडिसा से ज्ञात है।
सन्दर्भः
Cover Image: Prater, S.H. 1971. The Book of Indian Animals. BNHS.
Menon, V. (2014): Indian mammals – A field guide.
Prater, S.H. (1980): The Book of Indian Animals. Bombay Natural History Society.
Sharma, S.K. (1987): Painted bats and nests of Baya Weaver Bird. JBNHS 83:196.
Sharma, S.K. (1991): Plant life and weaver birds. Ph.D. Thesis. University of Rajasthan Jaipur
Sharma, S.K. (1995): Ornithobotany of Indian weaver birds. Himanshu Publications, Udaipur and Delhi.
यदि तेंदुए और बाघ शावक अपनी छोटी उम्र में कमजोर अथवा दिव्यांग हो तो माँ उनको बेहाल ही छोड देती है, जिसके बाद ऐसे शावकों की मौत हो जाती है अथवा कभी कभी तो माँ खुद उनको मार के खा जाती है। अधिकतर वन्यजीव विशेषज्ञ एक वाक्य ‘‘सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट‘‘ में सारी कहानी को ख़तम कर देते है।
यह वाक्य एक बघेरे के शावक का है जिसने सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट वाली अवधारणा को गलत साबित कर दिया साथ ही एक मां को प्रकृति के तय नियमों से लडते देखा।
आप बखूबी वाकिफ होंगे राजस्थान में स्थित जवाई लेपर्ड कन्जर्वेशन रिजर्व के बारे में, वहां एक लोकप्रिय मादा तेन्दुआ ‘‘नीलम‘‘ रहती है। वर्ष 2019 में नीलम ने तीन शावकों को जन्म दिया था। जिसमें से एक की मौत हो गई थी और अब अपने दो बचे हुए शावकों की परवरिश में नीलम जुट गई। पहली बार इस परिवार को तब देखा गया जब शावकों की उम्र करीब 2 माह थी। जिनमें से एक नर व एक मादा शावक थे। मादा शावक के अगले पंजे में कुछ कमजोरी रहने से वह सही ढंग से न तो चल पाती थी और न ही दौड पाती थी।
2 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
5 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
झाड़ियों के बीच छुप कर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
इस दिव्यांग शावक को देखते ही कईं सवाल उमडने लगते थे । नर शावक अक्सर उछलकूद करता और खेलता हुआ दिखता रहता था लेकिन लंगडी नर शावक की तरह न तो ज्यादा उछल कूद करती थी और न ही उसकी तरह दौडती थी। उसके आगे वाले एक पैर की दुर्बलता उसे चाहकर भी ऐसा कर पाने की हिम्मत नहीं देती थी। इस कमजोर मादा शावक ने अपनी जिजीविषा को बलवती रखा और अपनी बहादुर मां की परवरिश में धीरे धीरे अपनी युवावस्था की ओर बढने लगी ।
उसने समय के साथ छद्मावरण की कला में महारत हासिल कर ली और घात लगाकर शिकार करने की खूबी में पारंगत हो गई। एक वर्ष और कुछ महिनों की उम्र की होने तक इस दिव्यांग शावक को लगातार देखा गया। जिस छोटी उम्र में अपनी मां के शिकार पर निर्भर थी आज वही एक युवा तेंदुआ बन गई थी। अब वह अपनी मां नीलम से जुदा हो चुकी थी और एक नया इलाका हासिल कर लिया था। काफी खूबसूरत आंखों वाली इस मादा ने अपनी कमजोरी पर मनो विजय हासिल काली हो और प्रकृति के तमाम नियमों को चुनौती दे दी थी। अंतिम बार वह फरवरी 2020 में देखी गयी थी, और अब वह पहले से ज्यादा मजबूत दिख रही थी और आत्मविश्वास के साथ चट्टान पर लंगडाते हुए चलकर अपने वर्चस्व को स्थापित कर रही थी ।
माँ से अलग होने के पश्चात अकेले रहने का अभ्यास करती दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
अपनी पूर्ण युवावस्था में गुफा के बाहर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
पूर्ण व्यस्क अवस्था में दूर पहाड़ की चोटी पर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)