दोंगड़े के बाद उड़ान: रणथम्भौर में पायोनीर तितलियाँ

दोंगड़े के बाद उड़ान: रणथम्भौर में पायोनीर तितलियाँ

लेखक: प्रवीण सिंह, धर्म सिंह गुर्जर, एवं डॉ धर्मेंद्र खांडल 

‘दोंगड़े’ — राजस्थान में अप्रैल-मई की शुरुआत में अचानक और अल्पकालिक रूप से होने वाली यह वर्षा — स्थानीय पारिस्थितिकी के लिए एक महत्वपूर्ण संकेत होती है, जो कई जीवों के जीवनचक्र को सक्रिय कर देती है।

हमें अक्सर अपने बगीचे या घर के आसपास जब कोई रंग-बिरंगी तितली उड़ती दिखती है, तो मन अपने आप आनंदित हो उठता है। अब ज़रा कल्पना कीजिए — जब ऐसी ही एक प्रजाति की तितली सैकड़ों-हजारों की संख्या में, एक साथ दिखाई दे — तो वह दृश्य कैसा अद्भुत होगा!

कुछ ऐसा ही दृश्य हर साल रणथंभौर के सीमावर्ती क्षेत्रों के आस पास देखने को मिलता है। जिसे हमने शेरपुर और खिलचीपुर के गोचर भूमि में देखा। यहाँ खुली ज़मीन पर, कैर और हींश की झाड़ियों और ज़मीन पर उगे छोटे छोटे जंगली फूलों के बीच सफेद-पीली तितलियों की लहरें एकाएक दिखाई देने लगती हैं। इनके पंखों के सिरों पर काले धब्बे और काली धारियां साफ दिखाई देती हैं। नर तितलियाँ सामान्यतः फीकी रंगत वाली (हल्की पीली) और साफ-सुथरी धारियों वाली होती हैं। मादा तितलियों के अगले पंखों पर काले पैटर्न अधिक स्पष्ट होते हैं और वे आकार में थोड़ी बड़ी भी होती हैं। हाँ, मादा बड़ी होती है – क्योंकि उन्हें अपने पेट में अंडे जो पालने होते है। (Smetacek, 2012) यह नज़ारा यहाँ लगभग एक-डेढ़ महीने तक देखने को मिलता है।

pioneer, caper white, butterfly feeding nectar from Oligochaeta ramose

पायनियर तितली सबसे अधिक ब्रह्म डंडी (Oligochaeta ramose) के पुष्प पर गई (फ़ोटो: प्रवीण)

ये हैं पायनियर तितलियाँ (Belenois aurota), जिन्हें ‘कैपर व्हाइट’ भी कहा जाता है। एकाएक इनकी संख्या इतनी अधिक हो जाती है कि लगभग हर झाड़ी पर सिर्फ एक ही प्रजाति की तितलियाँ दिखाई देती है। हमारे द्वारा एक 10×10 वर्ग मीटर के क्षेत्र में की गई इनकी गिनती में हमें 500 से 1000 तितलियाँ मौजूद मिली थी। यह असाधारण दृश्य यहाँ हर साल देखने को मिलता है।

कहाँ से आती हैं ये तितलियाँ?

प्रश्न उठता है — ये तितलियाँ इतनी बड़ी संख्या में अचानक आती कहाँ से हैं? क्या ये दूरदराज़ से प्रवास करके आती हैं, जैसा कि ब्रिटिश काल के कीटविज्ञानी मूर (1890s) और बिंघम (1905) ने उल्लेख किया? या यह उनके जीवन चक्र की स्थानीय पुनरावृत्ति है?

हमारा मानना है की शायद ये तितलियाँ प्रवासी नहीं, बल्कि यहीं की निवासी हैं, जो अप्रैल  माह की पहली बारिश के साथ ही अपने छिपे हुए जीवन से बाहर आती हैं, और अचानक प्रकट हो जाती हैं। यानी इस समय अपने प्यूपा से बाहर निकल कर यह जीवन के एक नए रूप को धारण करती है। 

pioneer, caper white, butterfly feeding nectar from Convolvulus prostratus

एक नजर में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सफेद फूलों वाला संतरी (Convolvulus prostratus) इस क्षेत्र में सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध है। फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल 

इतिहास के पन्नों से

ब्रिटिश भारत में कार्यरत फ्रेडरिक मूर ने अपनी श्रृंखला “Lepidoptera Indica में पहली बार इस तितली का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने यह ध्यान दिया कि ये मानसून के बाद एकाएक प्रकट होती हैं और कैपेरिस के पौधों के पास मंडराती हैं। बाद में चार्ल्स बिंघम ने इनके विशाल झुंडों की दिशा — दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व — का वर्णन किया, जो की उनके अनुसार मानसून के समानांतर चलती प्रतीत होती थी।

जो हमने देखा

आजकल, मूर और बिंघम के वर्णन के विपरीत, हमने इन तितलियों को मानसून में नहीं देखकर इन्हें अप्रैल माह में होने वाली बारिश के बाद कैर और हींश की झाड़ियों और ज़मीन पर उगे छोटे छोटे फूलों के आस-पास बहुतायत में देखा है। हींश की झाड़ी पर तो 100-150 तितलियाँ दिखाई दे जाती है। अप्रैल- मई के समय होने वाली बारिश को स्थानीय भाषा में दोंगड़े कहा जाता है, हम सब जानते है की गर्मी के बाद में आने वाली बारिश को मानसून कहते है, वहीं ठंड में आने वाली बारिश को मावठ कहते है। दोंगड़े जो अचानक और अनिश्चित रूप से आ जाती है। यद्यपि इसका समय काल अत्यंत लघु होता है, एक या दो बारिश में यह सिमट जाता है। यह संक्षिप्त लेकिन गर्मी के मौसम में प्राणियों के लिए एक अचानक से भोजन की बहुतायत और सुखद मौसम लाने वाली जीवनदायी वर्षा अनेक प्राणियों के लिए यह वरदान और पायनियर तितली के जीवन की कुंजी है।

पायनियर तितलियों का जीवन चक्र खासतौर पर कैपरेसी कुल (Capparaceae) के पौधों से जुड़ा हुआ है। इनके मुख्य लारवल होस्ट प्लांट हींश (Capparis sepiaria) और कैर (Capparis decidua) हैं (Arora & Mondal, 1981) इस क्षेत्र में इनकी उपस्थिति विशेष रूप से इन दोनों झाड़ियों पर अधिकतम पाई गई और यही वे पौधे हैं जिन्हें ये तितलियाँ अंडे देने के लिए चुनती हैं।

पायनियर तितली शारीरिक रूप से नाजुक और गर्मी सहने में असक्षम होती है। दिन में प्रातः काल से सुबह लगभग 9 बजे तक ही यह सक्रिय रह पाती है इसके बाद होने वाली तेज धूप में यह झाड़ियों के नीचे छुप कर रहने लगती है। हालाँकि इनकी उड़ान तेज होती है परन्तु थोड़ी दूरी की होती है — साथ ही नीचे-नीचे, फुर्तीली लहरों में यह विचरण करती है। ये अधिकतर अपने होस्ट प्लांट या फूलों के इर्द-गिर्द मंडराती हैं, जिससे इनके लंबी दूरी की उड़ान की संभावना न के बराबर ही है। साथ ही रेगिस्तान में अप्रैल में स्थान विशेष पर होने वाले दोंगड़े वर्षा पूरे क्षेत्र को तितली के लिए अनुकूल नहीं बनाते है, ताकि यह प्रवर्जन के लिए दूर तक जा सके।

इन्ही बातों के आधार पर हमने यह अनुमान लगाया गया कि ये तितलियाँ यहाँ की स्थानीय हैं जो यहीं पैदा होती हैं और यहीं अपना जीवन चक्र पूर्ण करते हुए अगली पीढ़ी को जन्म देती हैं।

पायनियर तितली के जीवन चक्र के विभिन्न चरण (फ़ोटो: प्रवीण)

विस्तार में व्यवहार

वैज्ञानिकों का मानना है कि ये विशेष रूप से चौड़े और खुले आकार वाले फूलों से रस लेना पसंद करती है। सामान्यतः इसे त्रिडैक्स डेज़ी (Tridax procumbens), लैंटाना (Lantana camara), आक (Calotropis) और बेर (Ziziphus) के फूलों पर देखा गया है (Kunte, 2000; Kunte et al., 2021)

लेकिन रणथंभौर क्षेत्र में प्रातःकालीन समय के हमारे व्यवस्थित अध्ययन में यह तितली कुछ अन्य स्थानीय वनस्पतियों से रस लेती देखी गई – और वह भी सूरज की पहली किरणों के साथ!

एक नजर में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सफेद फूलों वाला संतरी (Convolvulus prostratus) इस क्षेत्र में सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध है — खुले मैदानों में बिखरा हुआ तथा  व्यापक रूप से फैला हुआ पुष्पों मानो इसका मुख्य नेक्टरिंग पौधा है। लेकिन जब हमने 10×10 वर्ग मीटर के प्लॉट में पुष्पों की संख्या गिनी, तो सबसे अधिक पुष्प ब्रह्म डंडी (Oligochaeta ramose) के पाए गए — लगभग 500 फूल, जो कि इस तितली की पहली पसंद साबित हुए। इसके बाद त्रिनाड़ी (Lepidagathis trinervis) के लगभग 300 पुष्प और संतरी के केवल 100 पुष्प दर्ज किए गए।

इन तीन प्रमुख पुष्पों के अतिरिक्त, पायनियर तितलियाँ कुछ और स्थानीय वनस्पतियों से भी रस लेती देखी गईं:

  • Echinops echinatus (गोल कांटेदार फूल)
  • Argemone mexicana (सत्यानाशी)
  • Evolvulus alsinoides (विष्णुकांत)
  • Solanum xanthocarpum (कांटे वाला बैंगन) और
  • Launaea procumbens (पाथरी)

पायोनीर तितली अलग-अलग फूलों से रसपान करते हुए (ब्रह्म डंडी, संतरी, खून-रोकनी, और ऊंट-कंटेली) (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल, प्रवीण)

ये तितलियाँ दिन की शुरुआत बहुत जल्दी कर देती हैं। भोर में लगभग 6:00 बजे से ही इनकी गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। शुरुआत में ये तितलियाँ ब्रह्म डंडी के फूलों पर जाती हैं, फिर 7:00 बजे के बाद संतरी के नए खिले फूलों पर जिनका रंग अभी भी थोड़ा बैंगनी था और पूर्ण सफेद नहीं हुआ था, और इसके बाद अन्य उपलब्ध पुष्पों की ओर आकर्षित होती हैं।

सुबह 8:30 से 9:30 के बीच, अधिकांश तितलियाँ कैर, हींस और बेर की झाड़ियों के पास खुले स्थानों में तथा संतरी के फूलों पर पंख फैलाकर धूप सेंकती देखी जाती हैं। यह धूप सेंकना तापमान संतुलन बनाए रखने के लिए एक सामान्य और महत्वपूर्ण व्यवहार है।

इनका प्रजनन व्यवहार भी सुबह के समय, कम तापमान के दौरान ही शुरू होता है, और सामान्यतः दो घंटे तक सक्रिय रहता है। यह अवधि प्रायः 6:00 से 8:00 बजे के बीच होती है। इसके बाद, लगभग 10:00 बजे तक इनकी गतिविधियाँ लगभग समाप्त हो जाती हैं।

दोपहर के समय, अधिकांश तितलियाँ कैर और बेर जैसी झाड़ियों की छाया में विश्राम करती हुई दिखाई देती हैं। हालांकि कुछ तितलियाँ दिनभर उड़ती भी रहती हैं, परंतु गतिविधि में स्पष्ट वृद्धि शाम 4:00 बजे के आसपास पुनः देखी जाती है। रात्रि में यह तितली झाड़ी के पूर्वी हिस्से में आराम करती है ताकि पश्चिम में छिपते सूरज की गर्मी इन्हें झेलनी नहीं पड़े और सुबह का उगता सूरज इन शीतरक्त कीटो को शीघ्र इतना गर्म करदे की यह सुबह सुबह अपना कार्य प्रारंभ कर सके।

शाम के समय ज्यादातर तितलियाँ प्रायः उड़ान में व्यस्त रहती हैं, जबकि कुछ मादाएँ होस्ट प्लांट पर स्थिर बैठी हुई, पंख फैलाकर नर के संपर्क का इंतजार करती देखी जाती हैं। इस दौरान, जब भी मादा अपने आसपास किसी अन्य तितली की हलचल महसूस करती है, तो वह अपना उदर (abdomen) ऊपर की ओर उठा लेती है—एक नजर में हमने इस व्यवहार को यौन संकेत या जोड़े के चयन से जुड़ा माना।

बाद में हमने पाया कि यह “उदर उठाने” का व्यवहार प्रजनन संकेत होता है। संभोग के बाद मादा तितली ऐसा करके यह संकेत देती है कि वह पुनः संकरण के लिए तैयार नहीं है, जिससे वह अनचाहे प्रयासों से बच पाती है।

belenois aurota abdomen lifting

संभोग के बाद मादा पायनियर तितली अपना उदर ऊपर उठा लेती है — यह एक स्पष्ट संकेत होता है कि वह अब दोबारा संकरण के लिए तैयार नहीं है। (फ़ोटो: प्रवीण)

वैज्ञानिकों का यह भी मानना है की मादा तितली अपने जीवन चक्र की अगली पीढ़ी को सुनिश्चित करने के लिए, होस्ट प्लांट की पत्तियों की निचली सतह पर एकल या छोटे समूहों में अंडे देती है। ये अंडे अंडाकार, सीध में खड़े, हल्के क्रीम या पीले रंग के होते हैं जिन पर महीन रेखाएँ या खांचे स्पष्ट दिखते हैं (Sharma & Khan, 2022) आमतौर पर ये अंडे एक ही पत्ती की छाया में दिए जाते हैं ताकि अधिकतम सुरक्षा मिल सके और आद्र्रता बनी रहे।

लेकिन हमने पाया की सभी अंडे पत्तों की ऊपरी सतह पर ही दिए गए हैं, यहाँ हमने यह भी पाया की ज्यादातर अंडे दोनों किनारो से हल्की सी घुमाव वाली पत्तियों पर ही दिए गए हैं।

इस प्रक्रिया के दौरान नर तितलियाँ ‘मेट गार्डिंग’ करते देखी गई हैं — यानी संभोग के बाद वे मादा के पास रहकर उसकी रक्षा करते हैं ताकि अन्य नर तितलियाँ दोबारा संकरण का प्रयास न कर सकें। अक्सर आने वाले नर तितली को दूर भागते रहते है।

पायनियर तितली पारिस्थितिक रूप से एक दोहरी भूमिका निभाती है — एक ओर यह मौसमी वनस्पतियों, केर और हींश की पत्तियों पर अंडे देकर अपने जीवन चक्र को पूरा करती है, तो दूसरी ओर इसकी बड़ी संख्या में उपस्थिति इन पौधों के लिए एक दबाव उत्पन्न करती है। यह कैपरेसी कुल की झाड़ियों की बड़ी मात्रा में पत्तियाँ खा जाती है।

belenois aurota eggs

पायनियर तितली सामान्यतः अंडे पत्तियों की ऊपरी सतह पर देती है, और विशेष रूप से ऐसी पत्तियाँ चुनती है जो दोनों किनारों से हल्के रूप से मुड़ी हुई होती हैं। (फ़ोटो: प्रवीण)

हालाँकि, इसी संदर्भ में यह तितली अन्य जीवों के लिए भी संसाधन बन जाती है। रणथम्भौर क्षेत्र में हमारे अवलोकनों में एक विशेष जैविक अंतर्क्रिया सामने आई — यहाँ की कुछ सामाजिक मकड़ियाँ (social spiders) विशेष रूप से पायनियर तितलियों को शिकार के रूप में चुनती हैं। ये मकड़ियाँ अपने जाले या घोंसले अक्सर केर या हींश की झाड़ियों के पास या ऊपर बनाती हैं — यह एक अत्यंत चतुर रणनीति प्रतीत होती है, क्योंकि ये झाड़ियाँ पायनियर तितलियों की प्रमुख होस्ट प्लांट हैं। इन जालों में हमने एक समय में दर्जनों से लेकर सैकड़ों तक पायनियर तितलियों को फंसा हुआ पाया — जो इस बात का प्रमाण है कि यह तितली न केवल परागण जैसी पारिस्थितिक सेवाओं में भागीदार है, बल्कि खाद्य शृंखला में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी भी है। यह अंतर्क्रिया जैव विविधता के स्तर पर शिकारी-शिकार संबंधों की जटिलता को दर्शाती है, और तितलियों की अत्यधिक उपस्थिति अन्य जीवों के जीवन चक्र को भी प्रभावित कर सकती है।

belenois aurota social spider interaction

हमने पाया की सोशल स्पाइडर यहाँ केर या हींश की झाड़ियों पर अपने जाले बनाती हैं — जहाँ वे एक ही जाल में सैकड़ों पायोनीर तितलियों को फंसा लेती हैं ।  (फ़ोटो: प्रवीण)

 हमारे अवलोकनों और इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी को देखते हुए, यह संभावना अधिक प्रबल प्रतीत होती है कि पायनियर तितली एक स्थानीय निवासी प्रजाति है, जो क्षेत्रीय जलवायु संकेतों के अनुसार प्रतिवर्ष पुनः प्रकट होती है — विशेष रूप से अप्रैल-मई की पहली वर्षा दोंगड़ेके बाद।

यह तितली न केवल हमारे मौसमीय चक्रों की संवेदनशील दूत है, बल्कि पारिस्थितिकी में विविध और कभी-कभी उलझी हुई भूमिकाओं में भी सक्रिय है — एक परागक, एक कीट, और कई शिकारी प्रजातियों के लिए पोषण का स्रोत। जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग के बदलते पैटर्न के संदर्भ में, पायनियर जैसी तितलियों का दस्तावेज़ीकरण, उनकी जनसंख्या गतिशीलता और अंतर्संबंधों को समझना आज पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है। शायद इसी में भविष्य की पारिस्थितिक स्थिरता की कुंजी छुपी हो।

Cover Image: Dr Dharmendra Khandal

काईरोप्टेरोफेजी: एक शिकारी और शिकार की कहानी

काईरोप्टेरोफेजी: एक शिकारी और शिकार की कहानी

 साँप और चमगादड़, प्रकृति के दो पहरेदार! दोनों ही विचित्र, दोनों ही रहस्यमय। सांप, रेंगने वाले रहस्य के प्रतीक, भूमि के अंधेरे कोनों में छिपे रहते हैं, अपने शिकार की प्रतीक्षा करते हैं। दूसरी ओर, चमगादड़, अंधेरे आकाश के स्वामी, चुपचाप अपने पंखों की सहायता से उड़कर शिकार की तलाश करने वाले एकमात्र स्तनधारी जीव हैं।

इन दोनों प्राणियों में एक अद्भुत समानता है – निशाचर जीवन। रात की खामोशी में ही इनकी दुनिया जीवंत होती है। लेकिन क्या आपने कभी कल्पना की है, क्या ये दोनों कभी एक दूसरे के जीवन का हिस्सा बन सकते हैं? क्या उनके रास्तों में कभी कोई दिलचस्प मोड़ आ सकता है? क्या ये दो अलग-अलग दुनिया एक दूसरे पर निर्भर हो सकती हैं?

यहाँ एक और दिलचस्प पहलू उभरता है: ‘काईरोप्टेरोफेजी’। यह शब्द, चमगादड़ों को खाने की क्रिया को दर्शाता है। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि कुछ साँप प्रजातियाँ, अवसर मिलने पर, चमगादड़ों का शिकार करती हैं। गुफाओं के अंधेरों में, जहाँ चमगादड़ आश्रय लेते हैं, वहाँ साँपों का छिपकर घात लगाना, प्रकृति के एक अनोखे दृश्य को उजागर करता है।

शाट्टी (Schatti, 1984) ने सर्वप्रथम इस जटिल शिकारी-शिकार संबंध पर प्रकाश डाला है। उन्होंने विशेष रूप से गुफाओं में रहने वाले साँपों की कुछ प्रजातियों को चमगादड़ों का शिकार करते हुए देखा और दर्ज किया। उनके शोध ने यह दर्शाया कि कुछ साँप, गुफा की दीवारों या छत से लटके हुए चमगादड़ों पर हमला करने के लिए अनुकूलित हो गए हैं, और उनकी विशेष शारीरिक संरचना और शिकार करने की तकनीकें उन्हें चमगादड़ों को पकड़ने में मदद करती हैं।

इसके बाद, विश्व स्तर पर हुए कई अध्ययनों से पता चलता है कि सांपों द्वारा चमगादड़ों का शिकार, कई साँप प्रजातियों में सामान्य है। ऐसे मामलों का वैज्ञानिकों द्वारा विश्लेषण करने पर 20 से अधिक सांप प्रजातियों को चमगादड़ों का शिकार करते हुए पाया गया। जिनमें मुख्यतः बोआ परिवार (बोइड्स) में यह अधिक देखा गया।

परन्तु, भारत में साँप-चमगादड़ अंतःक्रियाएँ अभी भी प्रकृति के अंधेरे कोनों में छिपी हैं। भारत में चमगादड़ों (127 प्रजातियाँ) और साँपों (लगभग 302 प्रजातियाँ) की एक समृद्ध विविधता है, लेकिन फिर भी इनकी पारिस्थितिक अंतःक्रियाओं के प्रकाशित विवरण किसी अनसुनी कहानी के बिखरे हुए पन्ने की तरह खोये हुए हैं।

हालाँकि, चमगादड़ों का शिकार करते हुए साँपों को देखना मुश्किल काम है, क्योंकि ऐसा बहुत कम होता है। और इसके लिए हमें ऐसी जगहों पर जाना पड़ता है जहाँ चमगादड़ रहते हैं, जो आमतौर पर दुर्गम या दूरदराज के क्षेत्रों में स्थित होते हैं, मानो प्रकृति इन रहस्यों को अपनी गहरी गुफाओं में छिपाकर रखना चाहती हो।

यहाँ हम आपसे राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों से दर्ज हुए ऐसे ही कुछ मामलों को साझा करने जा रहे हैं।

कोबरा द्वारा फलभक्षी चमगादड़ शिकार

अप्रैल 2018 में, राजस्थान के सवाई माधोपुर में रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के पास एक होटल के नजदीक, एक कोबरा (Naja naja) एक फलभक्षी  चमगादड़ (Cynopterus sphinx) को निगलता हुआ देखा गया। यह घटना एक खुले क्षेत्र में घटी, जिससे अनुमान लगाया गया कि चमगादड़ शायद चंपा के पेड़ (Plumeria rubra) पर आराम कर रहा था। कोबरा को, चमगादड़ को उसके मुंह की तरफ से निगलते हुए देखा गया, और तस्वीरें सुरक्षित दूरी से ली गईं, ताकि वह उसे उल्टी न कर दे। ऐसे दृश्य, अक्सर हमारी नज़रों से ओझल रहते हैं, और यह हमें याद दिलाते हैं कि प्रकृति का हर क्षण अपनी एक अलग कहानी कहता है।

    रैट स्नेक द्वारा शिकार के प्रयास

    सितंबर 2020 में, राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के मैनाल के पास, एक प्राचीन मंदिर कई प्रकार के चमगादड़ प्रजातियों का घर है, जिनमें ब्लैक बेयरडेड टॉमब बैट (Taphozous melanopogon), नैकड-रम्पड टॉमब बैट (Taphozous nudiventris) और लेसर माउस-टेलड़ बैट (Rhinopoma hardwickii) शामिल थे। मंदिर के एक कमरे में, एक भारतीय धामन साँप (Ptyas mucosa) दीवार के एक टूटे हुए हिस्से के पास मौजूद देखा गया। वह साँप, ज़मीन से लगभग 5 फीट ऊपर, और दीवार के खुले हिस्से से करीब डेढ़ फीट की दूरी पर लटके हुए एक चमगादड़ को पकड़ने का प्रयास कर रहा था। मानो, एक प्राचीन मंदिर की दीवारों के बीच, जीवन और मृत्यु का एक छोटा सा नाटक खेला जा रहा था। साँप अपनी पूरी कोशिश कर रहा था, पर अंत में, उसकी कोशिश नाकाम रही। हमारी उपस्थिति के कारण, उसे दीवार के अंदर वापस छिपना पड़ा।

    सारांश यह की प्राचीन संरचनाएँ न केवल इतिहास की कहानियाँ सुनाती हैं, बल्कि प्रकृति के अनगिनत रहस्यों को भी अपने भीतर समेटे हुए हैं।

      फ्रॉस्टेन कैट स्नेक की उपस्थिति

      मई 2023 में, भैंसरोड़गढ़ वन्यजीव अभयारण्य के पाडाझर झरने (चित्तौड़गढ़) में, एक चूना पत्थर की गुफा के भीतर लगभग 15 फीट ऊपर एक लटकी हुई चूना पत्थर की दीवार पर दो फ्रॉस्टेन कैट स्नेक (Boiga forsteni) आराम करते हुए देखे गए। उसी गुफा में दो प्रकार के चमगादड़ भी मौजूद थे: ब्लैक बेयरडेड टॉमब बैट (Taphozous melanopogon) और लेसर माउस-टेलड़ बैट (Rhinopoma hardwickii)। यहाँ एक दिलचस्प बात देखने को मिली – जिस दीवार पर साँप थे, वहाँ चमगादड़ नहीं थे, शायद तेज़ रोशनी या साँपों की उपस्थिति के कारण। साँपों की चालें बहुत ही धीमी और सतर्क थीं।

      वहीं पास में मौजूद एक और चूना पत्थर की गुफा थी जिसके अंदर शिव मंदिर बनाया गया था और पूजा-पाठ की दैनिक क्रिया के कारण गुफा की दीवारें काली पड़ गई थी। इस मंदिर में लेसर माउस-टेलड़ बैट की एक बड़ी आबादी थी, जहाँ अप्रैल 2018 में भी एक ऐसे ही साँप को देखा था, जो फ्रॉस्टेन कैट स्नेक जैसा लग रहा था, लेकिन उसकी पहचान पूरी तरह से नहीं हो पाई थी।

      चूना पत्थर की ऊबड़-खाबड़ दीवारें साँपों के शिकार के लिए कई दरारें प्रदान करती है, और ये दृश्य हमें बताते हैं कि कैसे गुफाएँ सिर्फ पत्थर नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के अनगिनत नाटकों का मंच हैं, जहाँ शिकारी और शिकार एक साथ रहते हैं।

        फ्रॉस्टेन कैट स्नेक द्वारा रणनीतिक स्थान का चुनाव

        अगस्त 2023 में, राजस्थान के बारां जिले में स्थित शाहबाद किले में भी एक फ्रॉस्टेन कैट स्नेक को किले के एक विशाल कक्ष के प्रवेश द्वार पर देखा। हैरानी की बात यह थी कि साँप ने अपनी रहने की जगह एक पुराने दरवाज़े के चौखट के ऊपर बनाई थी, जो अपने आस-पास के वातावरण से थोड़ी ही दूरी पर था। साँप के केंचुली की मौजूदगी से पता लग रहा था कि साँप इस स्थान पर नियमित रूप से आता है। यह स्थान उड़ते हुए चमगादड़ों को घात लगाकर पकड़ने के लिए एक रणनीतिक शिकारगाह की तरह प्रतीत हो रहा था।

        शाहबाद के किले में चमगादड़ के साथ मौजूद फ्रॉस्टेन कैट स्नेक (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

        राजस्थान के इन दृश्यों से साँप और चमगादड़ों के बीच एक छिपा संबंध दिखाई देता है। ये हमें बताते हैं कि प्रकृति में अभी भी बहुत कुछ जानना बाकी है। हर जीव ज़रूरी है, और संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है। इस रिश्ते को और समझने के लिए और शोध की ज़रूरत है, और हमें इन जीवों के घरों की सुरक्षा करनी चाहिए। प्रकृति में हर जीव का सम्मान करना ज़रूरी है।

        Fading sound of the sparrow

        Fading sound of the sparrow

        For a child one of the first things that catch his attention is the flying and fluttering of birds and most often it is the house sparrow, it will encounter which will be a part of its childhood amusement. May be it is not today’s reality but it was true until recent past.

        May be we are not as adaptive today that we can accommodate the chirpy little birds which at times brings in some dry grass or foliage to build its nest inside our houses, but for their safety concerns like fan and appliance running in our houses, we may also restrict their movement in our houses.

        The house sparrow is a native to most of Europe, Mediterranean region and entire Asia. House sparrow is classified into 12 different subspecies depending upon the evolution. These are among the first animals to be getting a scientific name in the modern system of biological classification mainly because it was the common species found around man. Its scientific name is Passer domesticus. The Passer genus has 25 different species and domesticus is one of the 25 species. In India, two subspecies of sparrows are found – one is parkini found only in Kashmir and indicus found throughout India.   

        The house sparrow is a very social bird, it does a lot of activates socially such as dust and water bathing, social singing, foraging etc. they are monogamous birds and their mate is the same throughout life, although they stay as a pair yet the male copulates with other female sparrows from time to time. The female lays a clutch of 4-5 eggs at one time and the eggs get hatched in 14-15 days, the young sparrow stays in the nest for 11-23 days and in this time both the parents feed the young ones.

        But the little bird has many predators such as the cat, sparrow hawks but its only in the past few years that a drastic decline has been seen in the sparrow population. Some people attribute it to the electromagnetic pollution emitted through modern day appliances such as mobile phones. Some do not blame this as the prime reason but the use of pesticide for crops which has upset the insect population which are needed as food base for the chicks and the pesticide induced crops are a cause of secondary poisoning in the bird population.

        Now that the food is filled with toxins and there is no safe nesting space for the little bird so what is its future? In India, there is an interesting initiative by Maharashtra based Nature forever society where they started an amazing campaign for the neglected common species where 20th march is celebrated as World Sparrow Day to raise awareness among common man. Bird feeders and nest boxes are developed after research, now we may have to work a bit for these creatures by keeping these bird feeders, having nest boxes for them. Allotting spaces by keeping nest boxes in an area, that is beyond reach of the house cat and other predators and has offerings of millet, wheat and water around its nesting site. The opening of the nest box should not be too wide so that no predators can enter inside it.

        If you remember the good old days of watching Doordarshan where the song played ‘ek chidiya…anek chidiya’ may be those days will come back soon if you do these small efforts those days might come back. Let’s work on so that this fading chirping of the gullible sparrow is saved from getting lost due to our carelessness. 

        A Living Filter: The Role of Freshwater Sponges in Aquatic Ecosystems

        A Living Filter: The Role of Freshwater Sponges in Aquatic Ecosystems

        The image shown here is of an animal, not a plant. This fascinating creature is a freshwater sponge, photographed in Dholpur Lake. While 98% of sponges are marine animals, this particular species thrives in freshwater environments.

        The greenish coloration visible in the sponge is due to its association with green algae, which live symbiotically within the sponge. Sponges are primitive life forms, consisting of a coalition of cells that do not form true tissues or organs. Despite their simplicity, they are highly adapted to their environment.

        Freshwater sponges are typically found attached to rocky surfaces along the banks of lakes or in slow-flowing streams. They filter water through a specialized system: water enters through tiny pores (ostia) and exits through larger openings (oscula). During this filtration process, they extract and consume organic matter suspended in the water, which serves as their food source.

        Although they may appear plant-like, sponges are animals, making them a fascinating and unique example of primitive animal life.

        First Record of Tarantula Spider in Rajasthan: A Remarkable Discovery

        First Record of Tarantula Spider in Rajasthan: A Remarkable Discovery

        Tarantulas, belonging to the family Theraphosidae, are large, hairy spiders commonly found in warm regions worldwide, with several species also documented in India. For the first time in Rajasthan, a tarantula was recorded by Shri Batti Lal Meena, an experienced guide in Ranthambhore. He photographed the spider in 2018 near Singh Dwar, along the main road leading to the Ranthambhore Fort.

        Tarantulas are generally non-aggressive toward humans but carry mild venom, comparable to a bee or scorpion sting, which they use to immobilize prey such as insects, small reptiles, and amphibians. Nocturnal hunters, they rely on their sensitive hairs to detect vibrations in their surroundings.

        These spiders play a critical role in ecosystems as predators and prey, contributing significantly to biodiversity. Despite their intimidating appearance, tarantulas are fascinating creatures known for their unique behaviours. This discovery is not only a milestone for Rajasthan but also hints at the possibility of this being a new species, adding to the scientific understanding of arachnids.

        Mr. Batti Lal Meena, the naturalist who made the first recorded sighting of a tarantula spider in Rajasthan

        First Record of Tarantula Spider in Rajasthan: A Remarkable Discovery

        राजस्थान में पहली बार टारेंटुला मकड़ी का रिकॉर्ड: एक अद्भुत खोज

        टारेंटुला मकड़ियां थेराफोसिडे परिवार से संबंधित बड़े आकार की, घने बालों वाली मकड़ियां हैं। ये दुनिया भर के गर्म क्षेत्रों में पाई जाती हैं और भारत में भी इनकी कई प्रजातियां देखी जाती हैं। राजस्थान में पहली बार टारेंटुला को रणथंभौर के एक अनुभवी गाइड श्री बत्ती लाल मीणा ने रिकॉर्ड किया। उन्होंने इसे 2018 में सिंहद्वार के पास रणथम्भोर किले पर जाने वाली मुख्य सड़क पर फोटोग्राफ किया था। टारेंटुला आमतौर पर मनुष्यों के प्रति आक्रामक नहीं होते हैं, लेकिन इनमें हल्का ज़हर होता है, जो मधुमक्खी या बिच्छू के डंक के समान होता है। ये ज़हर कीड़ों, छोटे सरीसृपों और उभयचरों जैसे शिकार को वश में करने के लिए इस्तेमाल होता है। टारेंटुला रात में शिकार करते हैं और कंपन का पता लगाने के लिए अपने संवेदनशील बालों पर निर्भर रहते हैं। ये पारिस्थितिकी तंत्र में शिकारियों और शिकार दोनों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डरावनी छवि के बावजूद, टारेंटुला अपने अनोखे व्यवहार और जैव विविधता में योगदान के लिए जाने जाते हैं। यह खोज अपने आप में राजस्थान के लिए तो अनूठी है ही बल्कि मेरा मानना है की यह विज्ञान के लिए एक नयी मकड़ी की एक प्रजाति भी हो सकती है।

        राजस्थान में पहली बार टारेंटुला मकड़ी के खोजकर्ता श्री बत्ती लाल मीणा