बाघों में जलश्रोतों के लिए लड़ाई

बाघों में जलश्रोतों के लिए लड़ाई

रणथम्भौर दुनिया का सबसे सूखा और गर्म जंगल है ऐसे में गर्मियों के मौसम में यहाँ के कुछ स्थायी जलश्रोतों के अलावा अधिकाँश जलश्रोत सूख जाते हैं। सरल भाषा में कहा जाए तो, पानी यहाँ पर एक Limiting Factor है। Limiting Factor, एक ऐसा कारक होता है जो किसी भी क्षेत्र में आबादी को निर्धारित करता है एवं उसके विकास को धीमा या रोकता है। खाना, पानी और आवास जंगल के कुछ Limiting Factor हैं जो वन्यजीवों की आबादी को निर्धारित करते हैं।

ऐसे में बाघ को हमेशा ऐसा इलाका चाहिए होता है जिसमें भरपूर मात्रा में शिकार और पानी हो तथा कई बार बाघों में जलश्रोत वाले इलाकों के लिए संघर्ष भी देखा जाता है। इस कथा चित्र में ऐसे ही एक संघर्ष को दर्शाया गया है।

रणथम्भौर में दो बाघिनों (घोस्ट (T60) और नूर) के क्षेत्र की सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी और उस क्षेत्र के किनारे पर ही कुछ जलश्रोत थे जिन्हें वो आपस में बांटा करती थी। दोनों बाघिन तीन-तीन शावकों की माँ थी और पानी की आवश्यकता के चलते वो आपस में सामंजस्य बनाये रखती थी। लेकिन जैसे ही गर्मिया तेज होने लगी नूर के इलाके में पानी सूखने लगा जबकि घोस्ट के हिस्से में बहुत पानी था।

गर्मियों की एक दोपहर, जब नूर अपने शावकों के साथ क्षेत्र की सीमा पर आराम कर रही थी, उसने घोस्ट को आते देखा और तुरंत उसे लड़ाई की चुनौती दी। दोनों बाघिन एक-दूसरे की ओर बढ़ी और तेज़ धार वाले पंजों और बहुत तेज आक्रामक आवाज़ के साथ लड़ाई शुरू हो गई।

दोनों बाघिन पूरी ताकत से लड़ रही थी और नूर लड़ाई जीत रही थी परन्तु फिर अचानक वह चट्टान पर गिर गयी।

नूर के गिरते ही घोस्ट ने तुरंत पीछे हटने का मौका देखा और वहां से जाने लगी।

जैसे ही नूर उठी, उसने घोस्ट का पीछा किया लेकिन वो लड़ाई को समाप्त कर नूर को विजयी छोड़ते हुए वहां चली गयी और नूर ने गर्व से तेज़ आवाज में दहाड़ कर अपनी जीत प्रसारित की।
इस घटना के बाद नूर उस क्षेत्र के सभी जलकुंडों की नयी मालिक बन गई और घोस्ट वापस नहीं आयी।

रणथम्भौर में अनाथ बाघ शावकों का संरक्षण

रणथम्भौर में अनाथ बाघ शावकों का संरक्षण

बाघिन के  मर जाने पर उसके बच्चों को पिता के रहते हुए भी अनाथ मान लिया जाता था और उनके बचने की सम्भावना को बहुत ही निम्न माना जाता था। ऐसे में रणथम्भौर के वन प्रबंधकों ने कठिन और चुनौतियों से भरी परिस्थितियों का सामना करते हुए उन शावकों का संरक्षण किया…

9 फरवरी 2011 की उस सुबह, सूरज पहली किरण के साथ ही, कचीदा चौकी के वन रक्षको की एक टीम कचीदा घाटी के लिए निकल पड़ी, क्योंकि रात भर से घाटी की निवासी बाघिन (T5) की दर्द से करहाने आवाज़े आ रही थी। घबराते और डरते हुए वन रक्षक एक बांध की ओर बढे और देखा कि, बाघिन चट्टान पर मरी पड़ी हुई थी। पीछे 3 महीने के दो शावकों को छोड़कर बाघिन T5 की बिमारी के कारण मौत हो गई थी। बाघ के शावक बेहद संवेदनशील होते हैं और इसीलिए बाघिनें अपने बच्चों के लिए बहुत समर्पित और गंभीर होती हैं। वो अपने शावकों की सुरक्षा और पालन-पोषण के लिए पूरे दो साल समर्पित करती हैं; इस बीच वो कई बार अपने क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अन्य बाघों से लड़ाई भी कर लेती है तो कई बार गभीर रूप से घायल भी हो जाती है। साथ ही बाघ के शावक शिकार करने की कला जैसे की अपने शिकार का पीछा करना, चकमा देना, पकड़ बनाना और संभावित खतरों से बचना लगभग हर ज्ञान के लिए पूरी तरह से अपनी माँ पर निर्भर रहते हैं।

रणथम्भौर में पिछले सात सालों में ये चौथी दफा था जब किसी बाघिन की मौत हो गई और वह पीछे अपने शावकों को छोड़ गई थी। आमतौर पर, ऐसे मामलों में पहला विचार मन में यही आता है कि, शावकों को बचाने और जीवित रखने के लिए उन्हें पकड़ कर किसी सुरक्षित स्थान जैसे एक बाड़े (enclosure) में स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन शावकों को इंसानों के इतने करीब रख के पालने से उनका जंगली स्वभाव बिलकुल खत्म हो जाता है।

हालांकि, रणथम्भौर में अनाथ शावकों के चार मामलों में, वन प्रबंधकों ने एक सहज तरीका अपनाया। यह प्रक्रिया बेहद कठिन और चुनौतियों से भरी थी, लेकिन इससे बाघों के व्यवहार पर कुछ अनोखे और आश्चर्यजनक अवलोकन मिले और इन सभी मामलों में रणथंभौर वन विभाग के कर्मचारियों का प्रयास निश्चित रूप से काबिल-ए-तारीफ है।

बाघिन T5 के तीन महीने के दो अनाथ शावक (फोटो: देश बंधु वैद्य)

बाघिनों का गर्भकाल केवल 90 से 110 दिनों का ही होता है और गर्भ का उभार अंतिम दिनों में ही दिखाई देता है ताकि बाघिन गर्भावस्था के दौरान भी ‘शिकार करने योग्य’ बनी रहे और न ही उस पर अतिरिक्त वजन का बोझ हो। लेकिन इस छोटे गर्भकाल का अर्थ यह भी है कि, शावकों का जन्म पूर्ण विकसित रूप में नहीं होता है, और उनमें कुछ विकास उनका जन्म के बाद होता हैं। वहीं शाकाहारी जीवों जैसे कि, हिरणों में, गर्भकाल की अवधि लंबी होती है तथा गर्भावस्था का एक स्पष्ट उभार उनकी जीवन शैली में कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन एक बार जब वे जन्म देते हैं, तो उनके बच्चे (fawn) पल भर में चलने लगते हैं। इसके विपरीत, बाघ के शावक बिलकुल असहाय, बहरे (उनके कान बंद होते हैं) और अंधे (पलकें कसकर बंद) पैदा होते हैं। इसीलिए, वे बहुत कमजोर और हर चीज के लिए पूरी तरह से अपनी मां पर निर्भर होते हैं। शुरूआती महीनों में बाघिन अपना अधिकतर समय शावकों की देख भाल में लगाती है और जैसे-जैसे शावक बड़े होते है यह समय कम होने लगता है।

अब कल्पना कीजिए क्या होगा जब, ऐसे ध्यान रखने वाली माँ की मृत्यु हो जाए और असहाय शावक पीछे अकेले छूट जाए।

परन्तु यह पहली बार नहीं था, रणथम्भौर में पहले भी अनाथ शावकों को जंगल में ही देखरेख कर उन्हें बड़ा किया जा चुका था। वर्ष 2002 में, एक बाघिन की अचानक मौत ने दो शावकों को अनाथ कर दिया था। ऐसे में रणथंभौर के प्रबंधकों ने उन्हें चिड़ियाघर भेजने के बजाय जंगल में ही उनकी देखभाल करने का फैसला किया। लेकिन उस समय कैमरा ट्रैप उपलब्ध नहीं होने के कारण वन विभाग अपनी सफलता को साबित नहीं कर सका। खैर जो भी हो, यह वन्यजीव प्रबंधन में एक नए अध्याय की शुरुआत थी।

अब, आधुनिक निगरानी तकनीकों और उपकरणों की उपलब्धता के साथ, अनाथ शावकों की इन-सीटू (in-situ) देखभाल के लिए किए गए प्रयासों को सही ढंग से दर्ज किया गया था। निम्नलिखित चार मामले रणथंभौर के अनूठे प्रयोग में आने वाली चुनौतियों और उससे मिलने वाली सफलताओं एवं व्यवहार संबंधी नई जानकारी को उजागर करते हैं। आइये जानते हैं इनके बारे में।

क्वालजी क्षेत्र के नर मादा शावक

1 सितंबर 2008 को, बाघिन T15 मृत पाई गई थी; और शरीर पूरी तरह से सड़ जाने के कारण मौत का कारण पता लगाना पाना बहुत मुश्किल था। वह अपने पीछे 7 महीने के दो शावकों, एक नर (T36) और एक मादा (T37) को छोड़ गई थी। इस घटना के बाद शावक गायब हो गए और वन रक्षकों द्वारा गहन खोज और प्रयासों के बावजूद भी कोई सफलता नहीं मिली। एक हफ्ता बीतते ही दौलत सिंह (एसीएफ) को पता चला कि, बाघिन कभी-कभी अपने शावकों के साथ इंडाला पठार पर भी जाती थी। टीम ने तुरंत इंडाला क्षेत्र में खोज करी और कुछ घंटों में ही, कई पगमार्क पाए गए। तुरंत एक भैंस के बछड़े के शव की व्यवस्था की गई क्योंकि शावक किसी जानवर को मारने के लिए बहुत छोटे थे और कैमरा ट्रैप तस्वीरों से पता चला कि, दोनों शावक रात में शव को खाने आए थे। इंडाला में कुछ दिन बिताने के बाद, शावक अपनी माँ के पसंदीदा क्षेत्र में लौट आए और वे वन विभाग द्वारा दिए गए भोजन पर ही जीवित रह रहे थे।
फिर लगभग 2 महीने बाद, शावक फिर से गायब हो गए, लेकिन इस बार एक उप-व्यस्क बाघिन, T18 की वजह से, जो खाली क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए वहां आ गई थी।

विभाग ने खोज कर पता लगाया कि, नर शावक लकारदा क्षेत्र (रणथम्भौर का मध्य भाग) में मौजूद है। कुछ दिनों के बाद वह और आगे उत्तर में अनंतपुरा क्षेत्र में चला गया और अब तक वह पार्क के पूर्वी भाग से उत्तरी भाग में पहुंच चुका था। एक माँ की सुरक्षा न होने के कारण, उसे एक बार फिर से पार्क की पश्चिमी सीमा की ओर धकेल दिया गया।

दूसरी ओर, मादा शावक दक्षिण की तरफ चली गई। वह पार्क के दक्षिणी छोर पर चंबल के बीहड़ों की ओर पहुंच गई थी, लेकिन वापस लौटकर सवाई मानसिंह अभयारण्य में जोजेश्वर क्षेत्र में बस गई।

नर शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने की तलाश में घूम ही रहा था कि, 21 मार्च 2009 को, वह एक खेत में घुस गया और स्थानीय लोगों ने उसे घेर लिया। दौलत सिंह और उनकी टीम ने उसको बचाया और रेडियो कॉलर लगाकर सवाई मानसिंह अभयारण्य के आंतरी क्षेत्र में उसे छोड़ दिया, क्योंकि वहां से एक मादा बाघ के पगमार्क की सूचना मिली थी। बाद में वह आंतरी से जुड़े हुए क्वालजी नामक क्षेत्र में चला गया।

बाघ T36 का रेस्क्यू ऑपरेशन (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

जून में, वह उस क्षेत्र की बाघिन के आमने-सामने आया, जो उसकी बहन T37 निकली! और फिर भाई-बहन की वह जोड़ी सवाई मानसिंह अभयारण्य के निवासी बन गए। हालांकि ऐसा अनुमान था कि, उप-वयस्क बाघ मानसून के दौरान वहां से चले जाएंगे, परन्तु वे रुके रहे और T36 ने क्वालजी को अपने क्षेत्र के रूप में कब्जे में ले लिया।

वर्ष 2010 में, एक अन्य नर बाघ, T42 क्वालजी पहुंचा और दुर्भाग्य से, एक लड़ाई में 20 अक्टूबर 2010 को, उप-वयस्क बाघ T36 ने दो साल और नौ महीने की उम्र में ही अपनी जान गंवा दी। उसकी मृत्यु के बाद, T42 T37 के साथ क्वालजी क्षेत्र में बस गया। समय के साथ यह जोड़ी पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय भी हुई।

18 मार्च 2013 को बाघिन T37 के बीमार होने की सूचना मिली और शाम तक वह मृत पायी गई। जांच (Autopsy) से पता चला कि, उसके शरीर में बहुत अधिक चर्बी जमा थी और दिल के दौरे से उसकी मृत्यु हो गई।
हालांकि दोनों शावकों की दुखद मृत्यु हो गई, परन्तु वे वयस्कता तक पहुंच गए थे, जो कि, यह साबित करता है कि उचित देखभाल की जाए तो अनाथ शावक भी जीवित रह सकते हैं।

बेरदा वन क्षेत्र के शावक

4 अप्रैल 2009 को, 17-18 महीने की उम्र के दो उप-वयस्क शावकों को छोड़कर बाघिन T4 की मृत्यु हो गई। शावकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण उम्र होती है, क्योंकि इस उम्र में ही उन्हें अपनी माँ से अधिकांश कलाएँ सीखनी होती है। इस बार भी इन दो शावकों में से एक नर (T40) और एक मादा (T41) थी। T15 के शावकों से लिए गए अनुभव से वन विभाग को भरोसा था कि, वे इन्हें भी पाल लेंगे। बेरदा क्षेत्र में पर्याप्त पानी और प्रचुर मात्रा में शिकार दो शावकों के लिए वरदान साबित हुआ। कुछ साल बाद वर्ष 2013 में T41 ने एक मादा शावक को जन्म दिया और रिकॉर्ड के अनुसार, वह पहली अनाथ बाघिन थी जिसने प्रजनन किया था। वहीं नर T40 पार्क से बाहर चला गया और जून 2010 के बाद से उसकी कोई खबर नहीं।

कचीदा क्षेत्र के शावक और उनका पिता

अब वापस कहानी पर आते हैं जहां बाघिन T5 की मौत तीन महीने के दो शावकों (B1 और B2) को छोड़कर हुई थी। विभाग का विचार था कि, शावक बहुत छोटे हैं और ऐसे में उन्हें सरिस्का भेज देना ही उचित होगा, जहां उन्हें एक बाड़े में पाला जाएगा। हालांकि, कुछ समय तक शावकों का कोई पता नहीं चला। लेकिन अंत में, एक वीडियो कैमरा ट्रैप से शावकों के उस स्थान पर आने की फुटेज प्राप्त की, जहां विभाग द्वारा उनके लिए भोजन और पानी रखा गया था। उन्होंने खाया, पिया और फिर गायब हो गए।

पार्क प्रबंधकों ने शावकों को पालने का फैसला किया परन्तु इस परिस्थिति में शावकों के लिए भोजन, पानी और सुरक्षा महत्वपूर्ण पहलु थे। भोजन और पानी का प्रबंध तो किया जा सकता था, लेकिन रणथभौर के घने जंगल में जहाँ कई अन्य जंगली जानवर भी मौजूद हैं सुरक्षा का वादा और पुष्टि नहीं दी जा सकती थी।
फिर एक दिन कचीदा रोड पर एक साथ दोनों शावकों और एक नर बाघ के पगमार्क मिले। और कैमरा ट्रैप की तस्वीरों ने पूरी कहानी का खुलासा किया जिसने बाघों के व्यवहार अध्ययन में एक नया अध्याय जोड़ दिया। तस्वीरों में एक शावक नर बाघ T25 के सामने चलते हुए देखा गया, जिसके बाद दूसरा शावक चल रहा था। यह एक असाधारण खोज थी कि, नर बाघ, जिसके क्षेत्र में शावक रह रहे थे, उनकी रक्षा कर रहा था। जहां अब तक यह माना जाता था कि, शावकों के पालन-पोषण में नर की कोई भूमिका नहीं होती है T25 के इस व्यवहार ने नर बाघों की अपनी संतानों की सुरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया। इन शावकों के पालन के दौरान किए गए प्रेक्षणों से पता चला कि, बाघों के व्यवहार को समझ पाना इतना आसान नहीं है और संतान के अस्तित्व में पिता की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।

इन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लगातार प्रयाप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध कराये जाना बहुत जरुरी था और वो भी ऐसे कि, किसी दूसरे शिकारियों का ध्यान आकर्षित न हो। इसीलिए भोजन की मात्रा और देने की विधि समय-समय पर बदली जाती थी। विभाग द्वारा वैकल्पिक भोजन प्रदान कर, शावकों को शिकार करने के कौशल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। जिसमें शुरुआत में, वो बहुत अनाड़ी और बड़ी मुश्किल से अजीब तरीके से शिकार को मारते थे और उस समय तो बकरी भी शावकों पर हमला करने का साहस करती थी। हालांकि, शावकों ने तेजी से सीखा और जल्द ही वन्यजीवों को मारने में माहिर हो गए। इन शावकों के पालन-पोषण के दौरान, यह भी देखा गया कि, उनका पिता T25 उन्हें अपने द्वारा किए गए शिकारों को खाने के लिए ले जाता था।

चूंकि अब इस क्षेत्र पर किसी भी बाघिन का कब्जा नहीं था, T17 झीलों के आसपास रहने वाली बाघिन ने अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया, और खतरनाक रूप से उस क्षेत्र के करीब आ गई जहां अनाथ शावक रह रहे थे। ऐसे में एक वीडियो फुटेज सामने आया जिसमें बाघ T25, बाघिन T17 को डरा रहा था, क्योंकि वह शावकों का पीछा कर रही थी, और T25 स्पष्ट रूप से उसे शावकों से दूर रहने की चेतावनी दे रहा था। B1 और B2 वास्तव में भाग्यशाली थे कि, उन्हें अन्य बाघों से बचाने के लिए T25 जैसा पिता मिला।

नर बाघ T25 (मध्य में) अपने शावकों को बाघिन T17 से बचाते हुए | (फोटो: देश बंधु वैद्य)

अचानक से दस दिनों के लिए शावक गायब हो गए। विभाग ने तुरंत उनकों खोजना शुरू किया और हर उस इलाके को खोजै गया जहाँ उन्हें ः२५ के साथ देखा गया था परन्तु कोई निशान नहीं मिला।

फिर एक दिन, एक गार्ड ने अधिकारियों को सूचित किया कि, उसने एक पहाड़ी पर कुछ हिलते हुए देखा है। जब खोज दल लगभग आधा ऊपर चढ़ गया, तो उन्हें एक ऐसी जगह पता चली जो दो चट्टानों के बीच एक गहरी दरार थी और एक गुफा बनाती थी और वह इतनी संकरी थी कि उसमें केवल शावक ही घुस सकते थे। दरार के निचले हिस्से में एक अर्ध-गोलाकार चबूतरा सा था। शावक इसी दरार में रह रहे थे, बाहर आकर चबूतरे पर एक-दूसरे का पीछा करते और खेलते। दरार के पास, ऊपर की ओर लटकी हुई चट्टान थी, जिससे एक जल धारा बहती थी और तेज गर्मियों के दौरान भी वहां पानी का एक छोटा सा भरा रहता। उन छोटे शावकों ने इस शानदार घर की खोज कैसे की यह बात अपने आप में ही एक रहस्य है।

जैसे-जैसे शावक बड़े हुए, उन्हें धीरे-धीरे और बहुत सावधानी से विभाग द्वारा दिए जाने वाले शिकार की आदत छुड़वाई। धीरे-धीरे, उन्होंने अपने आप वन्यजीवों का शिकार करना शुरू कर दिया। हालांकि, बाघिन T17 का लगातार दबाव बना हुआ था, और वह इन शावकों के प्रति असहिष्णु हो रही थी। जिसके चलते, दोनों शावकों ने पार्क की बाहरी सीमा में अपना क्षेत्र बना लिया। उन्होंने क्षेत्र को दो इलाकों में बाँट लिया, और एक ऐसा क्षेत्र के बीच में रखा जहां वे अक्सर मिलते और साथ समय बिताते थे। परन्तु वे पार्क की सीमा के पास रहने वाले स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष में आ सकते थे, इसलिए अधिकारियों द्वारा उन्हें सरिस्का भेजने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2013 की सर्दियों में उन्हें सरिस्का भेज दिया गया था और उनमें से एक ने शावकों को भी जन्म दिया, जो इस कहानी की सफलता में और सकारात्मकता भर देती है।

सरिस्का में शावक B2। सरिस्का में स्थानांतरित होने के बाद शावकों को जन्म देने के बाद यह तस्वीर क्लिक की गई थी। फोटो: भुवनेश सुथार

झीलों की रानी और उसके तीन शावक

बाघिन T17 उर्फ़ लेडी ऑफ़ थे लेक्स (Lady of the Lakes) ने राजबाग झील के पास तीन शावकों को जन्म दिया था। जब बारिश का मौसम शुरू हुआ तो उसे अपने शावकों को उस जगह से ले जाना पड़ा, और वह झील के किनारे के इलाके को छोड़ कर काचिदा से आगे भदलाव नामक स्थान पर चली गई। वर्ष 2013 की सर्दियों में वह किसी अन्य बाघ के साथ लड़ाई में बुरी तरह घायल पाई गई थी। यह देख विभाग कर्मियों द्वारा उसका इलाज किया गया; उसके घाव गहरे थे जिनमें कीड़े पड़े हुए थे। उसे शिकार भी दिया गया ताकि वो खुद से शिकार करने की कोशिश में अपने घावों को और न बढ़ा ले। चोट लगे होने के बावजूद, अगले ही दिन वह नर बाघ T25 से लड़ती हुई पाई गई। और शायद तीन बढ़ते शावकों की जरूरतों को पूरा करने का दबाव पहली बार मां बनने वाली बाघिन के लिए मुश्किल साबित हो रहा था। फिर अप्रैल 2013 में, भदलाव इलाके में 10 महीने के तीन शावकों (2 नर और एक मादा) को छोड़कर, वह लापता हो गई। संयोग से ये शावक भी उसी क्षेत्र में थे जहां T5 के शावक थे। कई लोगों को उम्मीद थी कि, उनकी देखरेख भी T25 कर लेगा। भले ही वे उसके साथ B1 और B2 की तरह देखे नहीं गए थे, लेकिन यह स्पष्ट था कि, T25 ने इन अनाथ शावकों को सुरक्षा प्रदान की थी।

एक जंगल में अनाथ शावकों का भविष्य बड़ा ही अनिश्चित सा होता है। मां के बिना, कमजोर और असहाय शावकों के लिए जंगल एक क्रूर स्थान होता है जहाँ अन्य सभी जानवर व बाघ उनके दुश्मन होते हैं। लेकिन इस निराशाजनक स्थिति में भी वन प्रबंधकों के प्रयास और नियति रणथंभौर के इन अनाथ बच्चों के पक्ष में ही रही है।

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)

Cover photo credit: Dr. Dharmendra Khandal

अंग्रेजी आलेख “Foster Cubs” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम दिसंबर 2018 में Saevus magazine में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://www.saevus.in/foster-cubs/

सरिस्का: आखिर क्या है टाइगर रिजर्व में बाघों की क्षेत्र सीमाओं का प्रारूप ?

सरिस्का: आखिर क्या है टाइगर रिजर्व में बाघों की क्षेत्र सीमाओं का प्रारूप ?

वैज्ञानिकों और बाघ प्रेमियों में हमेशा से यह एक चर्चा का विषय रहा है कि, आखिर बाघ का इलाका औसतन कितना बड़ा होता है? इस विषय पर प्रकाश डालते हुए राजस्थान के वन अधिकारियों द्वारा सरिस्का के सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं का एक अध्यन्न कर कई महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है आइये जानते हैं

हाल ही में राजस्थान के कुछ वन अधिकारीयों द्वारा बाघों पर एक अध्ययन किया गया है जिसमें अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” के बाघ मूवमेंट क्षेत्र (Territory) को मानचित्र पर दर्शाकर तुलना करने का प्रयास किया गया। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य बाघों की गतिविधियों और वितरण सीमा को प्रभावित करने वाले संभावित कारणों को समझना था ताकि बाघों की बढ़ती आबादी के फैलाव और उसके साथ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाओं को कम करने के लिए बेहतर योजनाए भी बनाई जा सके (Bhardwaj et al 2021)।

दअरसल सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है। निगरानी के सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके। नियमित रूप से निगरानी और वैज्ञानिक तरीकों से एकत्रित आंकड़ों की मदद से यहाँ बाघों के स्वभाव एवं पारिस्थितिकी को समझने के लिए विभिन्न प्रकार के शोध भी किये जाते हैं।

सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

मुख्यत: राजस्थान के अर्ध-शुष्क एवं अरावली पर्वत श्रृंखला का भाग सरिस्का बाघ परियोजना जो कि अलवर जिले में स्थित हैं इसका कुल क्षेत्रफल 1213.31 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ मुख्यरूप से उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन हैं, जिसमें धोक (Anogeissus pendula) सबसे ज्यादा पायी जाने वाली वृक्ष प्रजाति है। इसके अलावा सालार (Boswellia serrata), Lannea coromandelica , कत्था (Acacia catechu), बेर (Zizyphus mauritiana), ढाक (Butea monosperma) और केर (Capparis separia) आदि पाई जाने वाली अन्य प्रजातियां हैं। वन्यजीवों में बाघ यहाँ का प्रमुख जीव है इसके अलावा यहाँ तेंदुआ, जरख, भालू, सियार, चीतल, सांबर, लोमड़ी आदि भी पाए जाते हैं।

सरिस्का में स्थित सूरज कुंड बाउरी (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

वर्ष 1978 में सरिस्का को बाघों की आबादी के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान समझते हुए “बाघ परियोजना (Project Tiger) का हिस्सा बनाया गया था। परन्तु वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा।

सरिस्का में दुबारा बाघों को लाने के लिए, सरिस्का से 240 किलोमीटर दूर राजस्थान के एक और सबसे प्रसिद्ध बाघ अभयारण्य “रणथम्भौर” का चयन किया गया तथा 28 जून 2008 को भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर विमल राज (wing commander Vimal Raj) द्वारा रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में पहली बाघ (ST-1) विस्थापन की प्रक्रिया को Mi-17 हेलीकॉप्टर की मदद से सफल बनाया गया।

उस समय अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।

बाघिन ST9 (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दंश भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और इसके आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय व्यवहार के दबाव में है।

पिछले कुछ वर्षों में यह भी देखा गया है कि, बाघों की बढ़ती आबादी के कारण कुछ शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने हेतु अभयारण्य की सीमा को पार कर गाँवों के आसपास चले गए थे ऐसे में बाघों के मानव बस्तियों के आसपास जाने के कारण बाघ-मानवीय संघर्ष की घटनाएं भी हो उतपन्न हो जाती हैं

बाघों की  बढ़ती आबादी व इनकी गतिविधियों को देखते हुए, विभाग द्वारा सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं को समझने की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके की वन क्षेत्र बिना किसी संघर्ष घटनाओं के सफलतापूर्वक कितने बाघों को रख सकता है तथा बढ़ती आबादी के अनुसार उचित उपाय ढूंढे जा सके।

जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

बाघ, पुरे विश्व में बिल्ली परिवार का सबसे बड़ा सदस्य है जो विभिन्न प्रकार के पर्यावासों में रहने के लिए अनुकूल है। इन आवासों में पर्यावरणीय विविधताओं के कारण शिकार की बहुतायत में भी अंतर देखे जाते हैं और इसी कारण बाघों की वितरण सीमा में भी भिन्नता देखी गई है। बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ का अपना एक निर्धारित क्षेत्र (इलाका/Territory) होता है।

वहीँ दूसरी ओर जब हम प्रकाशित सन्दर्भों को देखते हैं तो विभिन्न तरह की बाते सामने आती हैं जैसे कि, जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं।

सरिस्का के बाघों की वंशावली:
क्र स  बाघ  ID लिंग माँ का नाम  जन्म स्थान  वर्तमान स्थिति  इलाके का क्षेत्रफल (वर्ग किमी )
1 ST1 नर रणथम्भौर मृत
2 ST2 मादा रणथम्भौर जीवित 19.34
3 ST3 मादा रणथम्भौर जीवित 172.75
4 ST4 नर रणथम्भौर मृत 85.4
5 ST5 मादा रणथम्भौर मृत 51.91
6 ST6 नर रणथम्भौर जीवित 79.94
7 ST7 मादा ST2 सरिस्का जीवित 16.59
8 ST8 मादा ST2 सरिस्का जीवित 43.04
9 ST9 मादा रणथम्भौर जीवित 85.24
10 ST10 मादा रणथम्भौर जीवित 80.1
11 ST11 नर ST10 सरिस्का मृत 57.63
12 ST12 मादा ST10 सरिस्का जीवित 50.87
13 ST13 नर ST2 सरिस्का जीवित 61.39
14 ST14 मादा ST2 सरिस्का जीवित 36.58
15 ST15 नर ST9 सरिस्का जीवित 47.67
16 ST16 नर रणथम्भौर जीवित

 

कई विशेषज्ञों के शोध यह भी बताते हैं कि, नर बाघ का इलाका उसकी ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने से भी काफी ज्यादा बड़ा होता है और ये इसीलिए हैं ताकि बाघ अपने प्रजनन के अवसरों को अधिकतम कर सके। इसी प्रकार के कई तर्क एवं तथ्य संदर्भो में देखने को मिलते हैं।

मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे एक वर्ष (2017 -2018) तक सभी बाघों (उस समय मौजूद कुल 16 बाघों) की गतिविधियों (Movement Pattern) का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों के आधार पर की गई। इसके अलावा सभी बाघों को उनकी उम्र के आधार पर तीन भागों में बांटा गया; शावक (<1.5 वर्ष), उप-वयस्क (1.53 वर्ष) और वयस्क (> 3 वर्ष)। इसके पश्चात सभी बाघों के मूवमेंट क्षेत्रो को मानचित्र पर दर्शाने के साथ तुलना भी की गई।

रेडियो-टेलीमेट्री के महत्त्व को देखते हुए सरिस्का में अब तक नौ बाघ रेडियो कॉलर किये गए हैं जिनमे सात बाघ वे हैं जो रणथम्भोर से लाये गए थे और दो नर बाघ (ST11 और ST13) जो सरिस्का में ही पैदा हुए थे।

ST11 और ST13 के अलावा आज तक सरिस्का में पैदा होने वाले किसी भी बाघ को रेडियो-कॉलर नहीं लगाया गया है क्योंकि ये दोनों बाघ अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान काफी बड़े इलाके और अभयारण्य की सीमा के बाहरी छोर पर घूम रहे थे। ऐसे में इनकी सुरक्षा को देखते हुए इनको रेडियो कॉलर लगाया गया।

इन नौ बाघों के अलावा बाकी सभी बाघों की पगचिन्हों और कैमरा ट्रैप के आधार पर ही निगरानी की जाती है।

अध्ययन द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों की जांच से पता चलता है कि, सरिस्का में बाघिनों की क्षेत्र सीमा न्यूनतम 16.59 किमी² से अधिकतम 172.75 किमी² तक हैं, जिसमें से सबसे छोटा क्षेत्र बाघिन ST7 (16.59 किमी²) का तथा सबसे बड़ा क्षेत्र ST3 (172.75 किमी²) का देखा गया है। अन्य बाघिनों जैसे ST9 का क्षेत्र 85.24 किमी², ST10 (80.10 किमी²), ST5 (51.91 किमी²), ST12 (50.87 किमी²), ST8 (43.04 किमी²),  ST14 (36.58 किमी²) और ST2 (19.34 किमी²) तक पाए गए।

पिछले वर्षों में सरिस्का के अलावा अन्य अभयारण्यों में हुए कुछ अध्ययनों की समीक्षा से ज्ञात होता है कि, अमूर बाघों के क्षेत्र अपर्याप्त शिकार और आवास की गुणवत्ता की कमी के कारण बड़े होते हैं वहीँ दूसरी ओर भारतीय उपमहाद्वीप में वयस्क मादाओं के क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध होने के कारण छोटे होते हैं। इस अध्ययन में भी कुछ ऐसा ही देखा गया है जहाँ बाघिन ST7, ST2, ST14, और ST8 के क्षेत्र, शिकार की बहुतायत होने के कारण छोटे (50 किमी² से छोटे) हैं।

परन्तु सरिस्का के बाघों की वंशावली को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो बाघिन ST2 इन सभी बाघिनों (ST7, ST14 और ST8) की माँ है तथा इनके ये क्षेत्र “female philopatry” का परिणाम है जिसमें, ST2 के क्षेत्र में उसकी बेटियों को जगह मिल गई है तथा ST2 का क्षेत्र 181.4 किमी² से कम होकर 19.34 किमी² रह गया है। इस तरह की female philopatry को कई मांसाहारी प्रजातियों में भी देखी गई है, जिसमें उप-वयस्क मादाओं को अक्सर अपनी माँ के क्षेत्र में ही छोटा हिस्सा प्राप्त हो जाता है और नर शावकों को लम्बी दुरी तय कर अन्य स्थान पर जाकर अपना क्षेत्र स्थापित करना पड़ता है।

कई अध्ययन इस व्यवहार के लिए एक ही कारण बताते हैं और वो है बेटियों की प्रजनन सफलता बढ़ाना। हालाँकि ST2 की केवल एक ही बेटी (ST14) ने सफलतापूर्वक दो मादा शावकों जन्म दिया व पाला है।

वहीँ दूसरी ओर अन्य बाघिनों जैसे ST3 (172.75 km²), ST9 (85.25 km²) और ST10 (80.10 km²) के क्षेत्र काफी बड़े थे क्योंकि इनके इलाके सरिस्का में ऐसे स्थान पर हैं जहाँ मानवजनित दबाव अधिक होने के कारण शिकार की मात्रा कम है तथा इसके पीछे एक और कारण प्रतीत होता है कि, अलग वंशावली के होने के कारण, इन बाघिनों को अन्य बाघिनों द्वारा कम शिकार और अपेक्षाकृत अशांत क्षेत्रों में बसने के लिए मजबूर किया गया है।

यदि नर बाघों की क्षेत्र सीमाओं की तुलना की जाए तो, बड़ी उम्र और पहले स्थान घेरने के कारण पहले सरिस्का भेजे गए नर बाघों के इलाके नए पैदा हुए नरों से बड़े हैं। सबसे बड़ा क्षेत्र ST11 (646.04 km²) का देखा गया है। परन्तु यदि वर्ष के सभी महीनों की औसत निकाली जाए तो सबसे बड़ा क्षेत्र ST4 (85.40 km²) का और सबसे छोटा क्षेत्र ST15 (47.67 km²) का दर्ज किया गया है। इसके अलावा अन्य बाघों के इलाके ST6 (79.94 km²), ST13 (61.39 km²) और ST11 (57.63 km²) तक पाए गए।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि, वर्ष 2017 में, बाघिन माँ ST9 से अलग होने के शुरुआती महीनों के दौरान ST15 का क्षेत्र अधिकतम (189.5 किमी²) हो गया था, लेकिन सरिस्का के दक्षिणी भाग में बस जाने के बाद इसका क्षेत्र धीरे-धीरे कम हो गया था। इसी प्रकार शुरुआत में ST13 (687.58 वर्ग किमी) का क्षेत्र भी काफी बड़ा था जो की बाद में कम हो गया था।

मार्च 2018 में, नर बाघ ST11 की किसी कारण वश मृत्यु हो गई और शोधकर्ताओं का यह अनुमान था कि, इसके बाद अन्य नरों के क्षेत्रों में वृद्धि होगी परन्तु यह अनुमान गलत साबित हुआ और बाघों की क्षेत्र सीमाओं में गिरावट देखी गई।

बाघों के इलाके पूर्ण रूप से अलग-अलग होते हैं या कहीं-कहीं एक दूसरे में मिलते भी हैं इस प्रश्न को हल करने के लिए सभी बाघों के प्रत्येक माह और पुरे वर्ष के इलाकों को मानचित्र पर दर्शाया गया। जब सभी नर बाघों की प्रत्येक माह की क्षेत्र सीमाओं को देखा गया तो वे पूर्णरूप से अलग-अलग थी। परन्तु, पुरे वर्ष की क्षेत्र सीमाएं कुछ जगहों पर एक-दूसरे से मिल रही थी, जिसमें सबसे अधिक ओवरलैप ST4 व ST11 और  ST4 व ST13 के बीच में देखा गया।

ऐसा इसलिए था क्योंकि नर बाघ ST11 और ST13 युवा हैं और उस समय वे अपना क्षेत्र स्थापित करने के लिए अभयारण्य में अधिक से अधिक क्षेत्र में घूम रहे थे। परन्तु ST11 की मृत्यु के बाद यह ओवरलैप कम हो गया।

कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि, नर बाघ की मृत्यु के बाद अन्य बाघ उस क्षेत्र को कब्ज़ा कर अपने क्षेत्र को बड़ा कर लेते हैं परन्तु इस अध्ययन में किसी भी बाघ की सीमाओं में बदलाव नहीं देखे गए तथा यह पहले से बसे नर बाघों के गैर-खोजपूर्ण व्यवहार के बारे में संकेत देता है।

रेडियो-टेलीमेट्री एक महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

अध्ययन में यह भी पाया गया कि, नर बाघों का क्षेत्र कुछ मादाओं के साथ लगभग पूरी तरह से ओवरलैप करता है और कुछ मादाओं के साथ बिलकुल कम। युवा बाघ ST15 के अलावा बाकि सभी नरों के क्षेत्र मादाओं के साथ ओवरलैप करते हैं। अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान ST11 का संपर्क सभी मादाओं के क्षेत्रों के साथ रहा है। इसके अलावा वर्ष के अलग-अलग महीनों में लगभग सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं में थोड़ी बहुत कमी, विस्तार और विस्थापन भी देखा गया है जिसमें सबसे अधिक मासिक विस्थापन युवा बाघ ST15 के क्षेत्र में (4.23 किमी) देखा गया और एक स्थान पर बस जाने के बाद यह कम हो गया। इसके बाद ST4 (2.04 किमी), ST13 (1.88 किमी), ST6 (1.69 किमी), और न्यूनतम विस्थापन ST11 (1.51 किमी) के क्षेत्र में दर्ज किया गया। परन्तु सभी बाघों की सीमाओं में ये बदलाव सरिस्का जैसे मानव-बहुल पर्यावास में एक ज़ाहिर सी बात है।

इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि, सभी बाघों की क्षेत्र सीमायें (Territories) अलग-अलग तो होती हैं लेकिन विभिन्न कारणों की वजह से यह वर्ष के किसी भी समय में बदल सकती हैं तथा पूर्णरूप से निर्धारित कुछ भी नहीं है। सरिस्का जैसे अभयारण्य में जहाँ मानवजनित दबाव बहुत है बाघों की बढ़ती आबादी के साथ-साथ मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बढ़ सकते हैं और ऐसे में रेडियो-टेलीमेट्री (radio-telemetry) एक बहुत ही महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस तरह की तकनीक का इस्तेमाल कर भविष्य में होने वाले मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम किया जा सकता है तथा बहार निकले वाले बाघों को वापिस से संरक्षित क्षेत्र के अंदर स्थानान्तरण किया जा सकता है।

सन्दर्भ:

Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A., Gupta, R. & Reddy, G.V. (2021). The spacing pattern of reintroduced tigers in human-dominated Sariska Tiger Reserve, 5(1), 1-14

लेखक:

Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.

Dr. Gobind Sagar Bhardwaj (R), IFS is APCCF and Nodal officer (FCA) in Rajasthan. He has done his doctorate on birds of Sitamata WLS. He served in the different ecosystems of the state like Desert, tiger reserves like Ranthambhore and Sariska, and protected areas of south Rajasthan and as a professor in WII India. He is also a commission member of the IUCN SSC Bustard Specialist Group.

 

 

Hamir – The Fallen Prince of Ranthambhore

Hamir – The Fallen Prince of Ranthambhore

यह पुस्तक श्री अर्जुन आनंद द्वारा लिखित एक कॉफी टेबल फोटोग्राफी पुस्तक है जो विश्व प्रसिद्ध रणथंभौर नेशनल पार्क के लोकप्रिय बाघों की तस्वीरों व् उनके जीवन को साझा करती है तथा इस पुस्तक में स्थानीय लोगों के बीच “हमीर (T104)” नाम से प्रसिद्ध बाघ पर विशेष ध्यान दिया गया है। हमीर एक शानदार जंगली बाघ है, जो रणथम्भौर उद्यान में पैदा हुआ है, लेकिन तीन मनुष्यों को जान से मार देने के कारण एक मानव-भक्षक घोषित किया गया तथा आजीवन कारावास में बंद कर दिया गया। इस पुस्तक में 160 से अधिक तस्वीरें हैं। हालांकि, विशेषरूप से इस पुस्तक का केंद्र बाघ हमीर और रणथम्भौर के अन्य बाघ हैं परन्तु यह उद्यान की व्यापक झलक भी प्रदान करती है। यह रणथम्भौर के वन्य जीवन के बारे में जानने व रुचि रखने वालों के लिए एक अच्छा दस्तावेज रहेगा।

बाघ हमीर (T104) (फोटो: श्री अर्जुन आनंद)

 

रणथम्भौर का प्रसिद्ध बाघ हमीर (T104) (फोटो: श्री अर्जुन आनंद)

अर्जुन आनंद, एक भारतीय फ़ोटोग्राफ़र हैं। वह दुनिया के विभिन्न देशों में यात्रा करते हैं और लोगों व् प्राकृतिक परिदृश्यों की तस्वीरें खींचते हैं, लेकिन वन्यजीवों के प्रति यह सबसे अधिक भावुक हैं। इन्हें वन्यजीवों के साथ हमेशा से ही लगाव रहा है। इसकी शुरुआत 1980 के दशक में बांधवगढ़ नेशनल पार्क की यात्राओं से हुई जब वे अपने परिवार के साथ वहां घूमने जाते थे।

हमीर पुस्तक के लेखक “श्री अर्जुन आनंद”

अर्जुन अपने काम के साथ लगातार नए प्रयोग करते रहते हैं, जिसमें से कुछ वबी-सबी जापानी सिद्धांत, मिनिमैलिस्म के सिद्धांत (Principles of minimalism) है। ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें इनकी प्रथम पसंद हैं क्यूंकि इस प्रकार की तस्वीरों में रंगों की बाधा नहीं होती तथा दर्शक विषय के साथ बेहतर जुड़ने में सक्षम होते हैं। यहां तक ​​कि प्रकृति से घिरे जंगल में भी, अर्जुन दर्शकों के लिए एक भावनात्मक अनुभव बनाने के लिए जीवन की स्थिरता और शांति को फोटोग्राफ करते हैं।