हाल ही में एक अध्ययन से खुलासा, कि राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित है दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली …
दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली रस्टी-स्पोटेड कैट (Prionailurus rubiginosus), का वितरण क्षेत्र अन्य बिल्ली प्रजातियों की अपेक्षाकृत सीमित है। यह बिल्ली भारत, नेपाल एवं श्रीलंका में पायी जाती है। मनुष्यों की बढ़ती आबादी तथा जंगलों के विनाश व खंडन के कारण आज यह खतरे के निकट (Near Threatened) है। भारत में इसकी उपस्थिति राजस्थान के अलावा गुजरात, हरियाणा उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से दर्ज की गयी है। राजस्थान में इसकी वितरण सीमा को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में यह राज्य इसकी वितरण सीमा का पश्चिमी छोर है। वर्ष 2020 से पहले इसे राजस्थान के कुल 34 जिलों में से केवल पांच से दर्ज किया गया था। राजस्थान के दक्षिणी छोर पर स्थित उदयपुर जिले में 1994 में रस्टी-स्पॉटेड कैट की प्रथम उपस्थिति दर्ज की गयी थी। इसके बाद कुल 86,205 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले चार और जिलों; अलवर, सवाई माधोपुर, बूंदी और भरतपुर से इसे दर्ज किया गया है और शेष जिलों में इसकी उपस्थिति के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था।
वैज्ञानिकों और प्रकृतिवादियों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात यह है की हाल ही में रस्टी-स्पॉटेड कैट के वर्तमान वितरण क्षेत्र पर एक अध्ययन किया है, जो की “Journal of Threatened Taxa” में प्रकाशित हुआ है, इसमें यह देखा गया है, कि पिछले 20 वर्षों (2000 से 2020) में रस्टी-स्पॉटेड कैट की राजस्थान में उपस्थिति कहाँ-कहाँ रही है (Sharma and Dhakad 2020)?
रस्टी-स्पॉटेड कैट, आकार में बिल्ली कुल कि सबसे छोटी सदस्य है। इनके भूरे फर पर कत्थई-भूरे-लाल रंग के धब्बे और बादामी रंग की लकीरें होती है। इसकी आँखों के ऊपर चार काली रेखाएं होती हैं जिनमें से दो गर्दन के ऊपर तक फैली होती हैं। सिर के दोनों तरफ छः गहरे रंग कि धारियाँ होती हैं जो गालों और माथे तक फैली जाती हैं। इसकी ठुड्डी, गला, पैरों का अंदरूनी भाग और पेट मुख्यतः सफ़ेद होते हैं जिस पर छोटे भूरे धब्बे होते हैं। इसके पंजे और पूंछ एक समान लाल भूरे रंग के होते हैं। यह लगभग 35 से 48 सेंटीमीटर तक लम्बी होती है तथा इसका वज़न 1.5 किलो तक हो सकता है।
मनुष्यों की बढ़ती जनसंख्या और वनों के कटाव एवं विखंडन के कारण रस्टी-स्पॉटेड कैट की स्थिति प्रभावित हुई है। वर्ष 2016 में इसे IUCN की रेड लिस्ट में खतरे के निकट (Near Threatened) श्रेणी में रखा गया। इस बिल्ली प्रजाति के वितरण क्षेत्र व अन्य पहलुओं पर अध्ययन बहुत ही सीमित है। इसी प्रयास में, राजस्थान में इसकी उपस्थिति जानने हेतु इस अध्ययन के लेखकों ने राज्य से पिछले 20 वर्षों की सभी सूचनाएं; प्रत्यक्ष अवलोकन, सड़क दुर्घटना में मारे गए, विपदा में फंसे बचाये बिलौटे तथा कैमरा ट्रैप में दर्ज हुए प्राणियों के चित्र एकत्रित करने का प्रयास किया, तथा इन सभी सूचनाओं को नक़्शे पर दर्शाया और वितरण क्षेत्र एवं सीमा का मूल्यांकन भी किया।
अध्ययन के लेखकों ने वर्ष 2000 से शुरू होकर मार्च 2020 तक 30 अलग-अलग स्थानों से कुल 51 सूचनाएं एकत्रित की। अध्ययन द्वारा संगृहीत आंकड़ों के संकलन से पता चलता है कि रस्टी-स्पॉटेड कैट राजस्थान के दस और जिलों; अजमेर, सिरोही, कोटा, धौलपुर, करौली, चित्तौड़गढ़, जयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और पाली में भी उपस्थित है, तथा इसकी वितरण सीमा 71,586 वर्ग किमी क्षेत्र तक है जो मुख्यरूप से अरावली एवं विंध्यन पर्वतमाला तथा पूर्वी राजस्थान के अर्ध-शुष्क क्षेत्र हैं। इसे विभिन्न प्रकार के आवासों में देखा गया जैसे कि कांटेदार और शुष्क पर्णपाती वन, मानव बस्तियों के बाहरी इलाकों में, कंदरा क्षेत्र (ravines), बगीचे, वनों के निकट स्थित कृषि क्षेत्र एवं मानव आबादियों के पास स्थित वन कुंजों, सागवान वन और अर्ध-सदाबहार चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन क्षेत्र।
राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट का वितरण क्षेत्र
सभी सूचनाओं की समीक्षा करने पर यह ज्ञात होता है कि रस्टी स्पॉटेड कैट अरावली पर्वत श्रृंखला में व्यापक रूप से वितरित है। यदि हम ऊंचाई के दृष्टिकोण से बात करते हैं, तो इसे अरावली हिल्स के सबसे ऊंचे स्थान “माउंट आबू” तक वितरित है।
सभी सूचनाओं कि समीक्षा से यह भी पता चलता है कि यह बिल्ली पूर्णरूप से निशाचर है क्योंकि इसे मुख्यतः अँधेरे के समय देर शाम और शुरुआती सुबह में ही देखा गया है। वर्षा ऋतु में इसे कई बार वन क्षेत्रों कि दिवार एवं पैरापेट दीवार पर भी बैठा देखा गया है, जिसमें से एक बार तो इसे और तेंदुए को लगभग 50 मीटर कि दूरी पर एक साथ बैठे देखा गया है। एक अवसर पर, बिल्ली को रौंज (Acacia leucophloea) के वृक्ष पर देखा गया और पेड़ के कांटे होने के बावजूद भी बिल्ली को एक शाखा पर आराम से बैठे देखा गया था। इन अवलोकनों से बिल्ली के अर्ध-वृक्षीय स्वभाव के बारे में पता चलता है।
अध्ययन में अरावली पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से कोई भी रिकॉर्ड नहीं मिला जो कि राजस्थान का थार मरुस्थलीय भाग है। थार में बिल्ली की अनुपस्थिति के लिए उच्च तापमान और आवास प्रकार में अंतर को मुख्य कारण प्रतीत होते हैं। इसके अलावा अरावली के पूर्व में आने वाले कुछ जिलों जैसे कि दौसा, टोंक, राजसमंद, भीलवाड़ा, बारां और झालावाड़ में शुष्क पर्णपाती वन होते हुए भी कोई रिकॉर्ड नहीं मिला है। इन जिलों में उपयुक्त आवासों में कैमरा ट्रैप विधि को अपनाने की जरुरत है ताकि इस प्रजाति की उपस्थिति सम्बन्धी ठोस जानकारी मिल सके।
सड़क दुर्घटना में मारी गई रस्टी-स्पोटेड कैट की तस्वीर (फोटो: श्री नीरव भट्ट)
अध्यन्न के दौरान छह बार बिलौटे देखे गए। वयस्क बिल्लियां 45 बार दर्ज की गयी जिनमें 41 जीवित तथा चार सड़क दुर्घटना में मृत पायी गई। विशेष रूप से रात के समय, बिल्ली को सड़क के आसपास विचरण करते हुए देखा गया, सडकों पर विचरण करने से इस बिल्ली के वाहनों के चपेट में आने का खतरा बढ़ जाता है। रस्टी-स्पोटेड कैट को सड़क दुर्घटना में शिकार होने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण निवारक उपायों की आवश्यकता है। जैसे कि पैट्रोलिंग स्टाफ को सड़क पर मरे (Roadkill) एवं आसपास निस्तारित किए गए मवेशियों के शवों की जांच करने और जंगलों से गुजरने वाली सड़कों से उनको हटवाने का उचित प्रावधान किया जाना चाहिए। इस प्रजाति के संरक्षण हेतु सडकों के किनारे स्थित होटलों और रेस्तरां में उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली, सडकों पर उचित अंतराल पर अंडरपास की व्यवस्था, सड़कों से दूर पानी की सुविधा, और ड्राइवरों के लिए गति संकेतों, द्वारा न केवल रस्टी-स्पोटेड कैट को दुर्घटनाओं से बचा सकते हैं बल्कि सड़कों को पार करने वाली कई अन्य प्रजातियों को भी बचाया जा सकता है।
राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट अभी भी कम ज्ञात प्रजाति है। वन विभाग को इस बिल्ली की सही पहचान करने के लिए वन कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और गणना के आंकड़ों को शामिल करने की पहल करनी चाहिए। इस प्रजाति की स्थिति जानने के लिए राज्य के अन्य जिलों में गहन कैमरा ट्रैप अध्ययन की आवश्यकता है। रस्टी-स्पॉटेड कैट के दीर्घकालीन बचाव हेतु वन संरक्षण सबसे जरूरी है। राजस्थान में रस्टी-स्पॉटेड कैट की संख्या निर्धारण हेतु संरक्षित क्षेत्रों के बाहर इसके सर्वेक्षण की पुरजोर अनुशंषा करते हैं।
सन्दर्भ:
Cover photo credits: Dr. Dharmendra Khandal
Sharma, S.K. & M. Dhakad (2020). The Rusty-spotted Cat Prionailurus rubiginosus (I. Geoffroy Saint-Hillaire, 1831) (Mammalia: Carnivora: Felidae) in Rajasthan, India – a compilation of two decades. Journal of Threatened Taxa 12(16): 17213–17221. https://doi.org/10.11609/jott.6064.12.16.17213-17221
लेखक:
Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.
Dr. Satish Kumar Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.
कैरेकल यानि सियागोश, दुनिया में सबसे व्यापकरूप से पाई जाने वाली एक छोटे आकार की बिल्ली प्रजाति है। जो विश्व के 60 देशों में मिलती है। हालाँकि, एशियाई देशों में इसके संरक्षण की स्थिति और पारिस्थितिकी के बारी में जानकारी बहुत ही कम और पुरानी है। परन्तु फिर भी अगर देखा जाए तो भारत, इज़राइल और ईरान से लगातार इसकी उपस्थिति की सूचनाएं मिलती रहती हैं। भारत में तीन शताब्दियों से भी अधिक समय से कैरेकल को दुर्लभ माना जाता रहा है। वर्ष 1671 में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जेराल्ड औंगियर (Gerald Aungier), जो बॉम्बे के द्वितीय गवर्नर भी थे, को मुगल जनरल दलेर खान द्वारा शिकारी कुत्तों (English greyhounds) की एक जोड़ी के बदले में एक कैरेकल भेंट किया गया था। उस समय, भारत में कैरेकल की दुर्लभता के बारे में भी औंगियर को अवगत करवाया गया था। तब से लेकर आज तक प्रकृतिवादियों ने भारत में कैरेकल की दुर्लभता पर टिप्पणियां करना जारी रखा हुआ है, और कुछ ने तो यह भी कहा है कि यह विलुप्त होने के कगार पर है। जबकि, हम ध्यान से देखे तो आज तक भारत में कैरकल की स्थिति के बारे में बहुत कम जानकारी ही रही है।
रणथम्भौर स्थित वन्यजीव संरक्षण संस्था टाइगर वॉच के शोधार्थी डॉ धर्मेंद्र खांडल, श्री ईशान धर एवं हाल ही में सेवानिवृत्त हुए राजस्थान के हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज डॉ जी.वी. रेड्डी, ने भारत में कैरेकल की ऐतिहासिक और वर्तमान वितरण सीमा पर एक अध्ययन किया है, जो की “Journal of Threatened Taxa” में प्रकाशित हुआ है, इसमें यह देखा गया है, की भारत देश में कैरकल की क्या स्थिति है? यह दो साल के लंबे अध्ययन से लिखा गया शोध पत्र है, जिसमें कई पुस्तकों और जर्नल की समीक्षा के साथ-साथ विषय के विशेषज्ञ और विभिन्न लोगों के साथ वार्ता की गयी है, जो इस जीव की स्थिति पर प्रकाश डालती है।
“Journal of Threatened Taxa” के दिसम्बर माह संस्करण का कवर फोटो
कैरेकल के दुर्लभ होने के बावजूद, भारत में इसका मनुष्यों के साथ एक बहुत ही समृद्ध इतिहास रहा है। हमेशा से ही कैरेकल, कलाबाजी करते हुए उड़ते हुए पक्षियों का शिकार करने की अदभुत क्षमता के कारण जाना जाता रहा है। इसका “कैरेकल” नाम एक तुर्की भाषा के शब्द “कराकुलक” से निकला है, जिसका अर्थ, काले कान (Black ears) वाला प्राणी होता है, जो सीधे-सीधे इसके लंबे काले कानों के बारे में बताता है। भारत में, कैरेकल को इसके फ़ारसी भाषा के नाम “सियागोश” से जाना जाता है, और यह भी सीधे इसके लम्बे काले कानों की ओर इशारा करता है।
संस्कृत ग्रंथ “हितोपदेश” की एक कहानी, एक छोटी जंगली बिल्ली जिसका नाम “दीर्घ-करण या लम्बे कान वाली बिल्ली” की ओर ध्यान केंद्रित करती है तथा यह बिल्ली अक्सर पक्षियों का शिकार करती है, लगता है मानों यह कैरकल के लिए सबसे उपयुक्त नाम है। यद्धपि वर्ष 1953 में, जीवों के वैज्ञानिक नाम जो लिनियस (Linnaeus) की द्विपद नामकरण पद्धति पर आधारित है, उनको जब भारत में संस्कृत रूपांतरित किया गया तो कैरकल के लिए एक संस्कृत नाम “शश-कर्ण” या “खरगोश जैसे कान” प्रस्तावित किया गया था।
कैरेकल एक छोटी बिल्ली प्रजाति है जिसके काले लम्बे कान उसकी मुख्य पहचान है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
इतिहास पढ़ने पर पता लगता है की दिल्ली सल्तनतम काल के दौरान सियागोश को पहली बार भारत में एक शिकार में प्रयोग होने वाले प्राणी के रूप में इस्तेमाल किया गया था। सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के पास सियागोश का एक विशाल संग्रह था तथा 14 वीं शताब्दी में, सुल्तान ने संग्रह के रखरखाव के लिए एक “सियाह-गोशदार खाना” की स्थापना की। तीसरे मुगल बादशाह अकबर ने भी शिकार करने के लिए सियागोश का एक बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया करते थे तथा अकबर के शासनकाल के दौरान, सियागोश को संस्कृत, अरबी और तुर्क ग्रंथों के साहित्य जैसे कि अनवर-ए-सुहाइली, तूतिनामा, साथ ही फारसी क्लासिक्स जैसे खम्सा-ए-निज़ामी में चित्रित किया जाने लगा। ऐतिहासिक रूप से सियागोश का एक अच्छे शिकारी के रूप में व्यापक उपयोग और संस्कृत नाम की कमी के कारण कुछ प्रश्न सामने खड़े होते हैं की क्या यह प्रजाति भारत की स्वदेशी है भी? या नहीं? हालांकि, 1982 में, ZSI के एक वैज्ञानिक, मृण्मय घोष ने एक कपाल के हिस्से की जांच की, जो भारत में एक सियागोश का सबसे पुराना जीवाश्म था। यह टुकड़ा 1930 में हड़प्पा से एकत्रित किया गया था और गलती से घरेलू बिल्ली के रूप में पहचाना गया था। घोष ने खोपड़ी की अच्छी तरह समीक्षा की और पाया कि यह वास्तव में एक सीतेगोश का है। यह जीवाश्म भारत के सबसे पुराने सियागोश की खोज थी, जो 3000-2000 ईसा पूर्व की थी और यह जीवाश्म सिद्ध करता है की सियागोश सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद था।
भारत में बढ़ती जनसंख्या के कारण हुए लैंडस्केप में परिवर्तनों के कारण सियागोश की स्थिति शायद अत्यंत प्रभावित हुई है। इसी प्रयास में, इसअध्ययन के लेखकों ने इतिहास की शुरुआत से अप्रैल 2020 तक भारत में सियागोश की उपस्थिति की सभी सूचनाएं एकत्रित करने का प्रयास किया, तथा इन सभी सूचनाओं को नक़्शे पर दर्शाया और साथ ही ऐतिहासिक वितरण सीमा व् वर्तमान सीमा में बदलावों का मूल्यांकन भी किया गया। इस शोध को शिकार में प्रयोग होने वाले पालतू सियागोश और जंगली सियागोश ने अधिक चुनौतीपूर्ण बना दिया।
इस अध्ययन के लेखकों ने इतिहास की शुरुआत से लेकर 2020 के उपलब्ध साहित्य की व्यापक समीक्षा की। इसमें प्रकृतिवादियों, जीव विशेषज्ञों, प्राकृतिक इतिहासकारों, इतिहासकारों, वन अधिकारियों, राजपत्रकारों, तत्कालीन राजपरिवारो और सेना के अधिकारियों के लेखन शामिल थे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (BNHS), जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI), लंदन नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम, भारत में निजी ट्रॉफी संग्रह और अन्य संग्रहालयों में जमा किए गए सियागोश के नमूनों के रिकॉर्ड भी एकत्रित किये गए, साथ ही वन अधिकारी और जीव-वैज्ञानिक जिन्होंने साक्षात सियागोश का अवलोकन किया है और जिन लोगों ने तस्वीरें ली हैं सभी से वार्ता कर जानकारी हासिल की गयी। लेखकों ने अपनी विश्वसनीयता के अनुसार निम्नलिखित तरीकों से सूचनाओं को एकत्रित और वर्गीकृत किया: A) वर्तमान में उपलब्ध तस्वीरों, शरीर के अंगों सहित नमूनों के ठोस सबूतों के आधार पर पुष्टि की गई हैं; B) जीवित या मृत सियागोश के प्रत्यक्ष दर्शन पर आधारित स्पष्ट सूचनाएं, संग्रहालयों को प्रस्तुत किए गए नमूने परन्तु जो अब उपलब्ध नहीं या गायब हैं, फोटोग्राफिक रिपोर्ट जो अब उपलब्ध नहीं, नष्ट या गायब हैं; C) पक्की सूचनाएं जो सियागोश की विशिष्ट जानकारी के माध्यम से उपस्थिति की सुचना देती हैं, जिसमें इसका विवरण और अलग-अलग मौखिक नामों का प्रावधान भी शामिल है; D) बिना किसी विवरण, फोटो या गलत विवरण वाली अपुष्ट या संदिग्ध सूचनाएं।
इस अध्ययन के दौरान 33 रिपोर्टों को ‘अस्पष्ट’ माना गया क्योंकि वे संदिग्ध या गलत थीं। अक्सर लोग जंगल कैट (Jungle cat) को सियागोश समझ लेते हैं और यह हमेशा एक चुनौती रही है। इस प्रकार की गलत खबरें आज भी जारी हैं, और यह गलत सूचनाएं प्रकाशित भी होती रही है। इस अध्ययन के लेखकों ने सख्ती से पालतू सियागोश (coursing Caracals) की सुचना को अध्ययन में शामिल नहीं किया, जिनके मूल स्थान अज्ञात थे। इसके अलावा, 2015 के बाद से रणथंभौर टाइगर रिजर्व और उसके आसपास के क्षेत्र में टाइगर वॉच के Village Wildlife Volunteers द्वारा लगाए गए कैमरा ट्रैप की तस्वीरें भी शामिल की गयी। यह कैमरा ट्रैपिंग पूर्णरूप से प्रशिक्षित ग्रामीण चरवाहों द्वारा की जाती है जो टाइगर रिज़र्व से बाहर निकलने वाले बाघों की निगरानी करते हैं। तथा इस खोज से निकली सभी रिपोर्टे ऐतिहासिक और वर्तमान सीमा को निर्धारित करने के लिए नक्शे पर दर्शाई गई।
भारत में सियागोश कि केवल दो संभावित आबादियां हैं एक राजस्थान स्थित रणथंभौर टाइगर रिज़र्व में और दूसरी गुजरात के कच्छ जिले में। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
लेखकों ने वर्ष 1616 से शुरू होकर अप्रैल 2020 तक कुल 134 रिपोर्टों को एकत्रित किया। सियागोश ऐतिहासिक रूप से 13 भारतीय राज्यों में और 26 में से 9 बायोटिक प्रांतों में मौजूद पाया गया। वर्ष 2001 से, सियागोश की उपस्थिति केवल तीन राज्यों राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश तथा चार बायोटिक प्रांतों में बताई गई है, और उसमे भी केवल दो संभावित आबादियां हैं एक राजस्थान स्थित रणथंभौर टाइगर रिज़र्व में और दूसरी गुजरात के कच्छ जिले में। 1947 से पहले, सियागोश 793,927 वर्ग किमी के क्षेत्र से रिपोर्ट किया गया था। वर्ष 1948 से 2000 के बीच, सियागोश की भारत में उपस्थिति का विस्तार 47.99% घट गया। 2001 से 2020 तक, उपस्थिति का विस्तार 95.95% कम हो गया तथा वर्तमान में इसका विस्तार 16,709 वर्ग किमी तक सीमित है। 1948 से 2000 में सियागोश की सूचनाएं 5% से कम हो गयी तथा इनका विस्तार 1947 से पहले की अवधि का सिर्फ 2.17% ही रह गया था।
राजस्थान में वर्ष 2001 से अब तक सियागोश की कुल 24 सूचनाएं आ चुकी हैं। इनमें से 17 सूचनाओं की फोटोग्राफिक प्रमाण द्वारा पुष्टी हुई हैं। जिनमें से 15 रणथंभौर से हैं, 2004 में सरिस्का से ली गई एक तस्वीर और 2017 में भरतपुर में केवलादेव घाना राष्ट्रीय उद्यान से एक कैमरा ट्रैप तस्वीर शामिल है। हालांकि 2015 से अप्रैल 2020 तक, विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स ने सियागोश की 176 कैमरा ट्रैप तस्वीरें प्राप्त की। जो की रणथंभौर टाइगर रिजर्व में और उसके आसपास 6 स्थानों से थी। उनके कैमरा ट्रैपिंग प्रयासों ने राजस्थान के धौलपुर जिले में सियागोश की उपस्थिति को निर्णायक रूप से स्थापित व् प्रमाणित किया है। यह भारत में और संभवतः सियागोश की पूरी एशियाई सीमा में सियागोश की तस्वीरों का सबसे बड़ा संग्रह है। रणथम्भौर के, भारत में दो संभावित आबादी में से एक होने के साथ, विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स की टीम भारत में सियागोश के संबंध में किसी भी आगामी संरक्षण योजना के लिए अतिआवश्यक होंगे। 2001 के बाद से, कच्छ से केवल 9 फोटोग्राफिक रिकॉर्ड हैं और मध्य प्रदेश से कोई फोटोग्राफिक रिकॉर्ड नहीं है।
विलेज वाइल्ड वॉलंटियर्स द्वारा ली गयी सियागोश कि कैमरा ट्रैप फोटो (फोटो: टाइगर वॉच)
यह भी संभव है कि भारत के अन्य हिस्सों में सियागोश अभी भी मौजूद हो, एवं महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और भारत के पूर्वी राज्यों में इसे कम आंका गया हो और उचित रूप से अध्ययन नहीं किया गया हो। इस अध्ययन द्वारा स्थापित सीमा में कमी को और अधिक सत्यापित करने और और अधिक सर्वेक्षण की आवश्यकता होगी। आज 21 वीं सदी में, मुट्ठी भर अध्ययनों के अपवाद से भारत में सियागोश की पारिस्थितिकी के ज्ञान में लगभग कोई योगदान नहीं रहा है। सियागोश की संख्या, प्रजनन, मृत्यु दर, होम रेंज के आकार और शिकार की गतिशीलता के सर्वेक्षण समय की आवश्यकता है। हमे इस बारे में पढ़ने व् समझने की तत्काल आवश्यकता है की कैसे बंजर भूमि के रूप में भूमि का वर्गीकरण किया जाता है, तथा यह सियागोश को किस प्रकार से प्रभावित करता है क्योंकि यह छोटी झाड़ियों वाले खुले प्रदेशों में आवास करते हैं। वन्यजीव कॉरिडोर को निर्धारित करने और स्थापित करने के लिए सियागोश की गतिविधियों के स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करने वाले दीर्घकालिक अध्ययन भी समान रूप से आवश्यक हैं क्यूंकि ये कॉरिडोर खंडित आबादी इकाइयों को आपस में जोड़ने के लिए उपयुक्त रहेंगे। अध्ययन के लेखक यह आशा करते है की संरक्षणवादी भारत में सियागोश को विलुप्त होने से बचाने के लिए इस लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित होंगे।
लेखक:
Mr. Ishan Dhar (L) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Dr. Dharmendra Khandal (R) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.