मजबूत इरादों के धनी, प्रकृति प्रेमी, दूरदर्शी सोच रखने वाले इस इंसान ने रणथम्भौर के लिए हर चुनौती का सामना किया और अपने नाम के अनुसार उसमें फतेह हासिल की थी।

फतेह सिंह राठौड़ एक राजपूत परिवार से थे। उनका परिवार जोधपुर के पास स्थित चोरडियां नामक गाँव से निकला हुआ है। कई अन्य कामों में असफल होने के बाद उनका वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में आना महज एक संयोग था। उनके एक रिश्तेदार के कहने पर उनको सरिस्का में वन विभाग में रेंजर के रूप में नौकरी मिल गई। धीरे धीरे उन्हें इस काम में मजा आने लगा। यह वह समय था जब फतेह जंगल की बारीकियों को सीख रहे थे। थ्योरी से ज्यादा उनका मन ज़मीनी काम करने में लगता था। जंगल में उनके बढ़ते प्रभाव के कारण उनके कई विरोधी भी बन गए थे। उनका मानना था की जमीनी स्तर पर काम करके ही ज्यादा अनुभव हो सकते हैं जो डिग्रियों एवं थ्योरी से नहीं मिलते।

बीसवीं सदी में बाघों की संख्या 40000 थी जो सत्तर के दशक तक आते-आते मात्र 1800  रह गई थी। इसके चलते 1970 में इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनने पर वन्यजीवों के शिकार को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत 1973 में हुई जिसमें रणथम्भौर के साथ आठ अन्य अभ्यारण्य भी शामिल थे। अलग अलग तरह के विभिन्न पर्यावासों में बाघ संरक्षण को प्रोत्साहित करना इस परियोजना का लक्ष्य था। रणथम्भौर एक उष्ण पर्णपाती वन है। फतेह को इस नए पार्क का विकास करने की जिमेदारी सौंपी गई थी। उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपने के पीछे एस. आर. चौधरी एवं प्रोजेक्ट टाइगर के पहले निदेशक कैलाश सांखला का बहुत योगदान था। एस. आर. चौधरी ने फतेह को देहरादून के भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) में पढ़ाया था।

कुल मिलाकर इन दोनों ने फतेह की काबिलियत को समझा और भविष्य में फतेह भी उनकी उम्मीदों पर खरे उतरे। फतेह ने पार्क में ऐसी रोड बनाने का काम किया जो सीधी न होकर घुमावदार हों एवं  पानी के स्त्रोत तक पहुंचती हों। जब फतेह ने काम संभाला तब पार्क की हालत बहुत खराब थी। पार्क से लगते हुए 16  गांवो के लोग मवेशियों को पार्क में चराने ले आया करते थे। जलाने के लिए पुराने पेड़ काटे जा रहे थे। मवेशियों की बेरोकटोक आवाजाही ने पार्क की बड़ी घास एवं पेड़ पौधों को खत्म कर दिया था। वन्यजीवों के नाम पर कभी कभार बाघ के पगमार्क दिखाई दे जाया करते थे।

फतेह जानते थे की अगर पार्क को जिन्दा रखना है तो ग्रामीणों को पार्क से बाहर विस्थापित करना बहुत जरूरी है। इस काम को फतेह ने बड़ी सूझबूझ के साथ किया, विस्थापित ग्रामीणों को इसके लिए समझाया और उचित मुआवजा दिलवाने का प्रबंध करवाया। मुआवजे में 18 वर्ष से ऊपर के सभी ग्रामीणों को पैसों के अलावा पांच बीघा अतिरिक्त जमीन भी दी गई। इसके साथ ही घर बनवाने के लिए, कुए खोदने के लिए आर्थिक मदद की गई साथ ही ग्रामीणों के लिए स्कूल और स्वास्थ्य सेवाओं की भी उचित व्यवस्था की गई। कैलाश सांखला के सम्मान में नए गांव का नाम कैलाशपुरी रखा गया। विस्थापन के साथ ही धीरे-धीरे पार्क वापस हरा-भरा होने लगा।

1976  में पहली बार फतेह ने पार्क में एक बाघिन को देखा जिसका नाम उन्होंने अपनी बड़ी बेटी के ऊपर रखा; पद्मिनी। फतेह ने इस बाघिन एवं उसके चार शावकों ( पांचवा शावक जल्द ही मर गया था ) की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू की । फतेह के जमीनी स्तर पर किये गए प्रयासों से यह पार्क बाघ देखने के दुनिया में सबसे उपयुक्त पार्कों में से एक माना जाने लगा।

उन दिनों रणथम्भौर जयपुर महाराज के शिकारगाहों में शामिल था। जनवरी 1961 में रणथम्भौर राष्ट्रीय पार्क के बनने से पहले उन्हें इस पार्क में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ II के लिए शिकार आयोजन की व्यवस्था करना था। उन दिनों वन्यजीव पर्यटन का मतलब ही शिकार करना होता था और कई महाराजा विदेशी सैलानियों से आय के लिए शिकार का आयोजन करते थे।

बाघों के साथ  छोटे-छोटे अनुभवों को उनके एवं वाल्मीकि थापर (वाल्मीकि भारत में बाघों के प्रसिद्ध विशेषज्ञ हैं) द्वारा कई किताबों में लिखा गया है। उनके द्वारा खींचे गए एक फोटो में एक नर बाघ, शावकों के साथ खेल रहा था। अभी तक माना जाता रहा था की केवल मादा बाघ ही शावकों का पालन करती है। इसके विपरीत उनके द्वारा खींचे गए फोटो में एक नर बाघ, एक मादा बाघ एवं दो शावक पानी में अठखेलियां कर रहे थे। यहाँ तक की एक बार नर बाघ शावकों के साथ शिकार भी साझा कर रहा था। 1980 के आस-पास एक बाघ जिसका नाम चंगेज था, एक नए तरीके से शिकार करता था। जब भी कोई सांभर पानी में जाता तो वह उसका शिकार किया करता था। बाघ पर कई भाषाओं में बनी फिल्मों में फतेह के बारे में बताया गया है। कई देशी विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखा गया।

फतेह को उनके कामों के लिए कई अंतराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया । फतेह बहुत ही उदार दिल के इंसान थे जो हर किसी को अपना दोस्त बना लिया करते थे। वन्यजीवों को नुकसान पहुँचाने वालों के प्रति उनका व्यवहार बहुत सख्त हुआ करता था। यही कारण था की वह वन्यजीवों एवं पर्यावरण  को नुकसान पहुँचाने वालों के दुश्मन के रूप में जाने जाते थे। उनका केवल एक ही उद्देश्य हुआ करता था बाघों को बचाना और अगर उन्हें लगता की इस काम में कुछ गलत हो रहा है  तो वह उसके खिलाफ आवाज उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। जब भी वे पार्क से किसी बाघ के गायब होने का मुद्दा उठाते तो वन विभाग इसके विपरीत उनकी बात को गलत साबित करने का प्रयास करते जिसके लिए वन विभाग द्वारा उन्हें कई बार प्रताड़ित भी किया गया। हालाँकि बाद में फतेह का दावा ही सही निकलता था।

फतेह अपने दृढ निश्चय एवं ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। यही  कारण था की उनके विरोधियों ने उन्हें कई प्रकार के झूठे आरोपों में फसाने की कई बार कोशिश की जिन्हें बाद में सभी आरोपों को कोर्ट ने भी झूठा ही माना। फतेह को खुद के द्वारा विकसित किये पार्क में प्रवेश से प्रतिबंधित  किया जाना उनके जीवन का सबसे कठिन दौर था। उन्हें अपने पसंदीदा जंगल से दूर जयपुर में तकनीकी सलाहकार के तौर पर पदस्थापित किया जाना और लगातार उनकी सलाहों को वरिष्ठ अधिकारीयों द्वारा नजरअंदाज करना भी उनके लिए बहुत दुखद था।

फतेह सिंह राठौड़
रणथम्भौर के आस पास रहने वाले लोग फतेह से अपना दुःख दर्द साझा किया करते थे

1983 में मेरे द्वारा सवाई माधोपुर की यात्रा के बाद आज यह शहर बहुत बदल गया है। पार्क के द्वारा रोजगार के कई अवसर पैदा हुए हैं जिसने इस शहर की अर्थव्यवस्था में बड़ा सुधार किया है। आज रणथम्भौर बाघ देखने के लिए दुनिया की बेहतरीन जगहों में से एक है।  बाघों को देखना पर्यटकों के लिए एक शानदार अनुभव होता है। दुनिया में देखी जाने वाली बाघों की अधिकतर तस्वीरें रणथम्भौर में ली गयीं हैं। हालाँकि इस प्रसिद्धि की पार्क को कीमत भी चुकानी पड़ी है। समय-समय पर शिकारी यहाँ अपनी गतिविधियों को अंजाम देते रहते हैं। शिकारियों द्वारा बाघों की खाल एवं शरीर की चीन में तस्करी की जाती है।

शिकारियों के लिए फतेह का नजरिया बिलकुल अलग था। उनका मानना था की बाघ का शिकार करने वाले इसका फायदा नहीं उठाते हैं। अधिकतर मोग्या जाती के लोग घुमन्तु और शिकार करने में माहिर होते हैं। ये लोग जेल में सजा काटने के बाद फिर शिकार शुरू कर देते थे इसलिए फतेह मोग्याओं के पुनर्वास एवं रोजगार, शिक्षा दिलाने पर जोर दिया करते थे। उन्होनें टाइगर वॉच के माध्यम से मोग्या बच्चों के लिए एक छात्रावास स्थापित किया जिसमें उनके रहने, भोजन एवं पढ़ने का प्रबंध किया गया । बच्चों के जीवन स्तर को सुधारना एवं उन्हें रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना भी उनका मकसद था। कई छात्रों को रोजगारपरक शिक्षा दी जाने लगी। महिलाओं को विभिन्न हस्तकलाओं के बारे में जानकारी दी जाने लगी। सबके पीछे यही उद्देश्य था की ये लोग शिकार छोड़कर समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके और आने वाली पीढ़ियों को समर्थ बना सकें।

फतेह एक जिंदादिल इंसान थे जो अपनी बुलंद आवाज और बात करने के तरीके से सबका दिल जीत लेते थे। फतेह अपने दोस्तों के साथ मस्ती करने का मौका कभी नहीं छोड़ते थे और रात को आग के चारों और बैठकर  पार्क के किस्से सुनाना, गाने गाना बहुत पसंद था। लोगों से मिलना और उन्हें पार्क घुमाना फतेह को बहुत पसंद था। यह उन्हीं के प्रयासों का नतीजा था की कई लोग बाघ बचाने की मुहीम में जुड़ते गये। फतेह एक सच्चे इंसान होने के साथ-साथ दोस्ती निभाने में बहुत आगे थे। उनके पुत्र श्री गोवर्धन सिंह राठौड़ ने रणथम्भौर में फतेह पब्लिक स्कूल प्राम्भ किया था जिसमें गरीब बच्चों को कम फीस पर एडमिशन दिया जाता था, । इस विद्यालय के बच्चों की ओर फतेह का हमेशा विशेष जुड़ाव रहता था, उनका मानना था कि बच्चे किताबी ज्ञान के आलावा भी पर्यावरण के प्रति जागरूक रहें।

कई बातों में फतेह बच्चों जैसे थे। एक तरफ उन्हें गजल सुनना पसंद था तो दूसरी और वो ज़ेज भी सुना करते थे। एक बार मैं उन्हें काला घोड़ा के पास स्थित एक म्यूज़िक स्टोर में ले गयी जहाँ उन्होंने कई सीडी खरीदीं। लेकिन सबसे ज्यादा उन्हें जंगल में जानवरों के बीच रहना, उन्हें देखना पसंद था। उन्हें बाघ की साइटिंग की जगह के बारे में हमेशा पता रहता था और इसका अनुभव उन्हें बाघ के व्यवहार पर लम्बे समय तक नजर रखने से हुआ। रणथम्भौर के बाघों के साथ तालमेल को देखते हुए फतेह के दोस्त कभी-कभी उन्हें ह्यूमन टाइगर कह दिया करते थे। उनकी दमदार शख़्सियत एवं सफेद घुमावदार मूछों के कारण वह सच में वैसे ही लगते थे।

फतेह के  साथ जंगल में घुमावदार रास्तों पर घूमना अलग ही अनुभव हुआ करता था। पेड़ पर बैठे कौवों और गिद्धों को देखकर फतेह गाड़ी को उसी दिशा में घुमा देते और वहीं बाघ शिकार के साथ दिख जाया करता था। बाघ को देखकर फतेह झूम उठते थे। अपने जंगल के तकरीबन हर पक्षी, पशु, पौधों को वो जानते थे और ये सब देखकर बहुत खुश होते थे।

अंतिम समय में फतेह को देखना बहुत कठिन समय था। उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था। उन दिनों उन्हें बोलने में भी परेशानी रहने लगी थी। जरा सा भी पानी लेने पर बहुत दर्द होता था। फिर भी फतेह अपने परिवार जनों एवं दोस्तों के साथ उसी जिंदादिली से रहते थे। एक मार्च की सुबह उन्हें इस पीड़ा से मुक्ति मिली, फतेह अब नहीं थे।अंतिम संस्कार अगले दिन हुआ, पहले उनकी पार्थिव देह रणथम्भौर में पहाड़ियों के किनारे बने उनके घर में रखा गया जहाँ कई गणमान्य हस्तियों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी उसी दिन लगभग चार बजे उनके निवास से महज 50  मीटर की दूरी पर एक बाघ तीन बार दहाड़ा साथ ही दुसरे पशु पक्षियों की कॉल  सुनाई दी। ऐसा लग रहा था मानों ये सब अपने पिता यानि फतेह को श्रद्धांजलि देने आये थे!