राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भैंसरोडगढ़ को “राजस्थान के स्वर्ग” की संज्ञा दी और कहा की “अगर मुझे राजस्थान में कोई जागीर दी जाये और उसे चुनने का विकल्प दिया जाये तो वह जगह भैंसरोड़गढ़ होगी”, तो क्या है ऐसा भैंसरोडगढ़ में?
राजस्थान के चित्तौडग़ढ़ जिले में चम्बल किनारे एक अभयारण्य है, जिसे भैंसरोड़गढ़ के नाम से जाना जाता है, 193 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ यह एक अत्यंत खूबसूरत अभयारण्य है जिसे राजस्थान सरकार ने 5 फरवरी 1983 को वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया किंतु आज भी बहुत कम लोग ही इसके बारे में जानते है Iरावतभाटा के पास स्थित विशाल भैंसरोड़गढ़ दुर्ग महान महाराणा प्रताप के अनुज शक्ति सिंह की सैन्य चौकी हुआ करता था। ब्राह्मिनी एवं चम्बल नदियों के संगम पर भैंसरोड़गढ़ के किले का निर्माण 1741 में रावत लाल सिंह द्वारा किया गया था जो कि एक जल दुर्ग है । यह दुर्ग चारों ओर पानी से घिरा हुआ है जिससे इस तक पहुंचना मुश्किल था । आज भी इस दुर्ग के परकोटे में भैंसरोडगढ़ गाँव बसा हुआ है जिसकी आबादी लगभग 5000 है ।
भैंसरोडगढ़ बंजारों द्वारा बसाया गया एक गाँव था जो कि “चर्मण्यवती नगरी” के नाम से प्रसिद्ध था जिसके अवशेष आज भी खुदाई में प्राप्त होते रहते है। चर्मण्यवती नगरी का नाम भैंसा और रोड़ा नामक दो भाइयों के नाम पर भैंसरोडगढ़ पड़ा । भैंसा और रोड़ा गाँव में मुसीबत के समय मसीहा माने जाते थे । एक किंवदंती के अनुसार एक बार गाँव में तेल की कमी हो गई तब ये दोनों भाई उदयपुर गए । वहाँ इन्होंने अपनी मूंछ का एक बाल एक लाख रुपये में गिरवी रखकर गाँव के लिए तेल कि व्यवस्था की । बाद में गाँव लौटकर उन्होंने एक व्यक्ति को एक लाख रुपये देकर अपनी मूंछ का बाल वापस मँगवाया । इसीलिए यहाँ के लोग मूंछ को आन-बान का प्रतीक मानते है ।
अभयारण्य के वन
यहाँ के बुजुर्गों का कहना है कि एक ज़माने में भैंसरोडगढ़ के जंगल इतने सघन थे की सूरज की रोशनी ज़मीन तक भी नहीं पहुँच पाती थी। दक्षिण एवं पूर्व दिशा में राणाप्रताप सागर बांध, उत्तर दिशा में ब्राह्मिनी नदी एवं पश्चिमी दिशा में हाड़ौती का पठार इस अभयारण्य की सीमा निर्धारित करते हैं। उष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले इस अभयारण्य में चम्बल के गहरे घुमाव और प्रपात हैं जिनमें मगर एवं अन्य जलीय जीव पाए जाते हैं और इसी कारण से इसे घाटियों एवं प्रपातों का अभयारण्य भी कहा जाता है।धोक यहाँ मिलने वाला मुख्य वृक्ष है साथ ही यहाँ सालार, कदम्ब, गुर्जन, पलाश, तेन्दु, सिरस, आमला, खैर, बेर सेमल आदि के वृक्ष मिलते हैं। नम स्थानों पर अमलतास, इमली, आम, जामुन, चुरेल, अर्जुन, बहेड़ा, कलम और बरगद प्रजाति के पेड़ मिलते हैं।
अभयारण्य के वन्यजीव
अन्य बड़ी बिल्लियों की अनुपस्थिति में तेंदुए खाद्य शृंखला में शीर्ष पर हैं। मांसाहारियों में धारीदार हायना,सियार,कबर बिज्जू,जंगलीबिल्ली, सिवेट, और लोमड़ियाँ मिलती हैं। शाकाहारियों में चीतल, सांभर, नीलगाय, चिंकारा, लंगूर, खरगोश, जंगली सूअर देखे जा सकते हैं। यह क्षेत्र स्लोथ बियर के रहने के लिए भी अनुकूल है।अभयारण्य में सरीसृपों की भी अच्छी आबादी है जिनमें मगरमच्छ, कछुआ, कोबरा, करैत, रैट स्नेक,इंडियन रॉक पाइथन,और मॉनिटर लिजार्ड शामिल हैं। अभयारण्य के चम्बल नदी क्षेत्र में मछलियों की भी कई प्रजातियां पायीं जाती हैं ।मछलियों की एक विदेशी प्रजाति तिलापिया भैंसरोड़गढ़ के आस पास के गॉंवों में पालने के उद्देश्य से लायी गई थी जो संयोगवश स्थानीय नदी तंत्र में शामिल हो गयीं । जहाँ एक ओर तिलापिया के कारण मछलियों की स्थानीय प्रजातियां संकट में है वही दूसरी ओर यह अभयारण्य में मिलने वाले ऊदबिलाव का प्रमुख आहार हैं
संकटापन्न पक्षियों का आशियाना
अभयारण्य में लगभग 250 तरह के स्थानीय एवं प्रवासी पक्षियों की प्रजातियां पायी जाती है; जिनमें क्रैन, स्टोर्क, स्नाइप, वैगटेल, रूडी शेलडक और गीज़ प्रमुख हैं। यहाँ स्थित सेडल डैम और ब्रिजसाइड क्षेत्र में यूकेलिप्टस के पेड़ों पर अलेक्जेंड्राइन पैराकीट(Psittacula eupatria) के घोंसले अच्छी संख्या में देखे जा सकते हैं।अभयारण्य का एक अन्य आकर्षण,काला खेत प्लांटेशन-2 में अर्जुन के पेड़ों पर रहने वाले संकटग्रस्त व्हाइट रम्प्ड वल्चर (Gyps bengalensis) की कॉलोनियां हैं । चम्बल नदी के किनारे स्थित अर्जुन के पेड़ों पर लगभग तीस की संख्या में ये वल्चर मौजूद हैं। संभवतः हाड़ौती में व्हाइट रम्प्ड वल्चर (Gyps bengalensis) की यह एक मात्र कॉलोनी है।
पुनर्वास केंद्र(RC) – अभयारण्य का सूक्ष्म स्वरूप
नदी किनारे धूप सेकते हुए मगर एवं नदी में अठखेलियां करते हुए ऊदबिलाव अभयारण्य की शान माने जाते हैं । यहाँ स्थित पुनर्वास केंद्र (रिलोकेशन सेंटर) के क्रॉकोडिल पॉइंट में दुर्घटनावश मानव बस्तियों में पहुंचने वाले मगर को सुरक्षित निकालकर लाया जाता है एवं नदी में छोड़ा जाता है। यहाँ कई घंटों तक मगर को बिना हिले डुले घूप सेकते हुए, पानी में तैरते हुए देखना और मछली पर झपटना बहुत ही रोमांचक लगता है। 300 हेक्टेयर में बना पुनर्वास केंद्र देखने लायक है जो की सम्पूर्ण अभयारण्य का एक सूक्ष्म स्वरूप माना जा सकता है। यहाँ स्टील से बने इंदिरा गाँधी वाच टावर से पूरे अभयारण्य के विहंगम दृश्य को देखा जा सकता है।
ऊदबिलाव एवं उनकी कलाबाजियां
ब्रिज साइड एवं इसके आसपास के क्षेत्र में चिकने फर वाले उदबिलावों को देखा जा सकता है। ये सुबह से शाम के समय बहुत सक्रिय रहते हैं। इनके झुण्ड को जिसे रोम्प (romp) कहा जाता है नदी में बार बार कूदते हुए देखना रोचक लगता है। ये कूदते समय शरीर को इस तरह से घुमाते हैं मानो डॉल्फिन नदी में कूद रही हो। कुछ समय बाद वापस ये नदी में से मछली मुंह में पकड़ कर निकल कर आते हैं ।मछली को ये बिलकुल उसी तरह से खाते हैं जैसे छोटा बच्चा बिस्किट खाता है। बहुत ही हिल मिलकर रहने वाला यह जीव एक आवाज निकाल कर एक दूसरे से संवाद करता है । जब ये किसी मानव को देख लेते हैं तो इनकी आवाज लम्बी होने लगती है। नदी की किनारे रेत पर या चट्टान पर इन्हें अपने परिवार के साथ मस्ती करता हुआ देखा जा सकता है, इनका पानी में जाना, वापस आना, एक दूसरे पर चढ़ना, रेत पर फिसलते हुए देखना बहुत ही अलग अनुभव होता है ।
खोह और जल प्रपातों का अभयारण्य
वैसे तो अभयारण्य की प्राकृतिक छटा स्वयं में अद्वितीय है, लेकिन विशेष रूप से यहाँ की रेवाझर खोह,सांकल खोह, रीछा खोह किसी को भी दक्षिणी भारत जैसा अनुभव कराती है ! यहाँ के अन्य आकर्षण राणाप्रताप सागर बांध, सेडल डेम, पाड़ाझर महादेव, चूलिया जल प्रपात, मंडेसरा जल प्रपात ओर कलसिया महादेव हैं।ब्राह्मिनी एवं चम्बल के किनारे लगभग 150 फुट की ऊंचाई पर भैंसरोड़गढ़ का दुर्ग बहुत ही भव्य दिखाई देता है। भैंसरोड़गढ़ की अद्भुत वास्तुकारी एवं भव्यता देखकर राजस्थान का इतिहास लिखने वाले ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा था की अगर उन्हें राजस्थान में कोई जागीर दी जाये और उसे चुनने का विकल्प दिया जाये तो वह जगह भैंसरोड़गढ़ होगी ।दक्षिण राजस्थान का सबसे ऊँचाई से गिरने वाला चूलिया प्रपात कई चूड़ी के आकार की घुमावदार घाटियों से बहने वाली जलधाराओं से बना है इस कारण पहले इसका नाम चूड़ियाँ पड़ा ओर बाद में धीरे-धीरे अपभ्रंश होता हुआ चूलिया के नाम से जाना जाने लगा। इस प्रपात के निचले हिस्से में कई मगर देखे जा सकते हैं।
पाड़ाझर महादेव में देखने लायक तीन मुख्य जगह हैं, महादेव मंदिर, गुफाएं,एवं प्रपात। लगभग 100 मीटर लम्बी प्राकृतिक गुफा के अंतिम बिंदु पर शिवलिंग स्थित है। इस गुफा में सैकड़ों चमगादडो की विशाल कॉलोनी भी हैं।
रेवाझर, भैंसरोड़गढ़ पठार के निचले हिस्से में है जहाँ दुर्लभ वनस्पतियां विद्यमान हैं। यह घाटी संकटग्रस्त लम्बी चोंच वाले गिद्धों (Gyps indicus)की प्रजनन स्थली है। हालाँकि इनकी संख्या काफी कम है लेकिन फिर भी इन्हें सुबह व शाम के समय आसमान में उड़ान भरते हुए देखा जा सकता है। प्रपात की पूर्वी दिशा में स्थित सीधी चोटी पर इनके घोंसले हैं।इन जंगलों में धारीदार लकड़बग्घा, सियार, लोमड़ी, जंगली बिल्लियां भी हैं लेकिन मवेशियों एवं मानवीय गतिविधियों के कारण इनकी संख्या कम है। भैंसरोड़गढ़ में सड़क के किनारे एवं वनस्पतियों से समृद्ध रीछा खोह प्रमुख चार घाटियों में से एक है। यहाँ किसी ज़माने में रीछ हुआ करते थे ।
सांकल घाटी/प्रपात भी भैंसरोड़गढ़ की चार घाटियों में से एक है जो रेवाझर के ही जैसी है। कलसिया महादेव सड़क के किनारे भैंसरोड़गढ़ पठार की अंतिम घाटी है।महादेव की गुफा यहाँ से बहुत ही सुन्दर दिखाई देती है।
ऊदबिलाव एवं व्हाइट रम्प्ड वल्चर की कॉलोनी मिलने के कारण भैंसरोडगढ़ अभयारण्य को संकटापन्न प्रजातियों की शरणस्थली कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी I
मार्च महीने की एक सुबह थार के मरुस्थल में मैंने एक शानदार मरुस्थलीय पक्षी ग्रेटर हूपु लार्क (Alaemon alaudipes) देखा जो कभी शिकार की तलाश में ‘मगरे’ पर इधर उधर उड़ रहा था, तो कभी अपनी लम्बी टांगो से दौड़ रहा था ।चारों ओर से रेत के टीलों से घिरे,कंक्रीट की कठोर सतह वाले स्थान को स्थानीय भाषा में ‘मगरा’ कहा जाता है।
काफी कोशिश करने के बाद लार्क को एक मकड़ीनुमा शिकार मिला जिसे उसने अपनी लम्बी चोंच में पकड़ रखा था । मैंने उस समय इस पक्षी के व्यवहार के कुछ फोटो लिए, जिनमें शिकार की मात्र टांगे ही दिखाई दे रही थी, उसके शरीर का कुछ हिस्सा पक्षी के मुंह में था। मुझे लगा शायद यह एक बड़ी मकड़ी है या फिर केमल स्पाइडर (solifuge) है, परन्तु ये दोनों अक्सर रात को ही सक्रीय होते हैं।
अगली सुबह उसी ‘मगरे’ पर मुझे कुछ फिसलता हुआ दिखाई दिया, लगा मानो कोई कंकर का टुकड़ा हो। उस समय बहुत तेज हवा चल रही थी। पत्थर की तरह दिखने वाला यह जीव हवा के विपरीत दिशा में तेजी से चल रहा था। मैंने उसे नजदीक जाकर देखा देखा तो प्रकृति का एक अद्भुत छलावरण (camouflage) नजर आया। यह था एक मरुस्थल में मिलने वाला प्रेइंग मैंटिस (Praying mantis), जो पत्थर या कंकर के सामान लगता है। मुझे नजदीक पाकर वह बचाव की मुद्रा में आ गया। इसी मुद्रा में यह मैंटिस परिवार का सदस्य लगता है, जिसमें वह अपने आगे की दोनों टांगे हाथ जोड़ने की मुद्रा में ले आता है।
यह वही जीव था जिसे ग्रेटर हूपु लार्क ने पिछले दिन पकड़ रखा था। यह थार डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis) था। यह मेंटिस छलावरण (कैमोफ्लाज) में इतना माहिर होता है की इसको आंखों के सामने आने पर भी पहचानना लगभग असंभव होता है।
इसका शरीर त्रिभुजाकार, आगे के पैर अच्छी पकड़ वाले, एवं पेट के पास का हिस्सा रंगीन होता है । यह एक आक्रामक शिकारी मेंटिस है। अन्य अधिकांश मेन्टिसों के विपरीत डेजर्ट मेंटिस उड़ नहीं सकते हैं क्योंकि इनके उड़ने वाले पंख अवशेषी रह गए हैं । जब ये मेंटिस आगे के पैरों को बंद करके बैठते हैं तो लगता है जैसे पूजा में हाथ जोड़कर बैठे हुए हों। यह देखना बहुत ही रोचक लगता है।
डेजर्ट मेंटिड इरेमियाफिला (Eremiaphila) जीनस का सदस्य है जिसकी पूरी दुनिया में 68 प्रजातियां हैं एवं उनमें से केवल एक ही यह प्रजाति थार डेजर्ट मेंटिस (Eremiaphila rotundipennis) भारत में पायी जाती है।
डेजर्ट मेंटिस मरुस्थलीय पर्यावरण के प्रति पूरी तरह से अनुकूलित होते हैं। ये जमीन पर रहते हैं जहाँ इनके लम्बे पैरों के कारण आसानी से तेजी से चल सकते हैं। ये कीड़ों एवं मकड़ियों को खाकर जीवित रहते हैं । रेगिस्तान में भीषण गर्मी,पानी की कमी,धूल भरी आंधियां सामान्य हैं जिसमे जीवों एवं पेड़ों को प्रतिकूल जलवायु का सामना करना पड़ता है।डेजर्ट मेंटिस इन सब परिस्थितियों को सहन करता है यही कारण है की उड़ने वाला यह जीव जमीन पर पाया जाता है। मुझे लगता है की थार मरुस्थल में डेजर्ट मेंटिस एवं ग्रेटर हूपु लार्क का कोई गहरा सम्बन्ध है, तो जब भी आपको रेगिस्तान के मगरे में यह पक्षी दिखाई दे तो आप डेजर्ट मेंटिस को भी तलाशने की कोशिश करें।
श्री विवेक शर्मा एक सर्प विशेषज्ञ हैं जिन्होंने कई प्रकार के सर्पों एवं उनसे जुड़े विषयों पर विस्तृत शोध किया है, प्रस्तुत लेख में श्री शर्मा ने सॉ-स्केल्ड वाइपर सांप के एकिस वर्ग की उप प्रजाति सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर के बारे में बताया है।
विश्व में पाए जाने वाले सभी सॉ-स्केल्ड वाइपर सांप एकिस वर्ग (genus Echis) के अंतर्गत आते हैं जो की सबसे व्यापक रूप से वितरित विषैले सांपो के वर्ग में से एक हैं तथा ये भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर अफ्रीकी महाद्वीप में भूमध्य रेखा के उत्तर तक पाये जाते हैं। इसकी अधिकांश प्रजातियाँ मध्य-पूर्व एशिया और अफ्रीका में पाई जाती हैं, जबकि भारत में केवल एक प्रजाति एकिस कैरिनेटस (श्नाइडर, 1801) की 2 उप-प्रजातियाँ ही हैं।
राजस्थान में भी सॉ-स्केल्ड वाइपर (एकिस कैरिनेटस) की दो उप-प्रजातियाँ पायी जाती है। उप-प्रजाति एकिस कैरिनेटस कैरिनेटस भारतीय प्रायद्वीपीय इलाके अरनी (आरनी) से खोजा और प्रदर्शित किया गया था जो की महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में स्थित है।यह भारत में व्यापक रूप से फैली हुई है और दक्षिण भारत से उत्तर भारत तथा पूर्व में यह पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले तक पायी जाती है जो इस सम्पूर्ण जीनस की सबसे पूर्वी सीमा भी है। दूसरी उप-प्रजाति सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर (एकिस केरिनैटस सॉशुरेकी स्टेमर, 1969) को पाकिस्तान के बलूचिस्तान के पिशिन के पास स्थित बान कुशदिल खान नामक जगह से अलग उप-प्रजाति के रूप में मान्यता दी गई थी। यह अपने बड़े आकार, स्केल्स की गिनती में अंतर और मध्य-पूर्व के अधिक सूखे भागों में अलग से वितरण के कारण अलग श्रेणी में रखा गया है। यह राजस्थान से संयुक्त अरब अमीरात और ईराक तक पाया जाता है। उप-प्रजाति सॉशुरेकी का नाम ऑस्ट्रेलियाई पशु चिकित्सक एरिक सॉशुरेक के नाम पर रखा गया था। यह उप-प्रजाति थार रेगिस्तान और इसके किनारों में बहुत आम उपस्थिति के कारण राजस्थान में बहुत ख़ास है। इस तरह का पर्यावास दक्षिणी और पूर्वी राजस्थान को छोड़कर अधिकांश राज्य में फैला हुआ है। रात में जब इनकी गतिविधि का मुख्य समय होता है तब यह बड़ी संख्या में खाने की तलाश में निकलते है और इन्हे देखना बहुत ही आकर्षक और रोमांचक क्षण होता है।
सॉशुरेक सॉ-स्केल्ड वाइपर की अपने प्रायद्वीपीय भारतीय करीबी की तुलना से बड़ी आबादी है। यह 80 से.मी. तक लम्बा होता है लेकिन 60 से.मी. से ऊपर लम्बाई मिलना दूर्लभ है। यह छोटा और मोटा सांप होता है जिसका सिर बड़ा और पूँछ छोटी होती है। सॉ-स्केल्ड वाइपर की सभी प्रजातियों में से, यह उप-प्रजाति रंग और स्वरुप, और वैज्ञानिक वर्गीकरण में भिन्नताओं के लिए जानी जाती हैं। कुल मिलाकर यह सूखी सतह जैसा दिखता है जिसके कारण यह सूखे मैदान (रेत, चट्टानों, पत्ती कूड़े आदि) में किसी को आसानी से दिखाई नहीं देता है। इसका सिर त्रिकोणीय आकार का होता है जो गर्दन से स्पष्ट अलग दिखाई देता है। यह छोटे सूखे दिखने वाले कील स्केल्स (जिन स्केल में बीच में एक लंबाई के साथ एक सीधा उभार होता है जिसे छूने से भी अलग अहसास होता है) से ढका होता है। इसके सिर के शीर्ष पर एक लम्बी “प्लस या धन या त्रिशूल” आकार के निशान होते हैं जो इस सांप को पहचानने में मदद करने वाली विशेषता है। इसका ऊपरी शरीर (डॉरसल बॉडी) मूल रूप से मटमैले-भूरे रंग का होता है जिस पर रीढ़ के साथ-साथ 31-41 हल्के रंग के धब्बे होते हैं। इन धब्बों की दोनों तरफ लहराती हुई रेखाएं होती है जो स्पष्ट रूप से एक दूसरे को छूती नहीं है। इस सांप के सभी रूपों में इन धब्बों के बीच की जगह का रंग बाकी शरीर से ज्यादा गहरा होता है तथा शरीर की निचली सतह (उदर सतह/वेंट्रल बॉडी) पर छोटे गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे हो भी सकते हैं और नहीं भी।
वैज्ञानिक वर्गीकरण से इस उप-प्रजाति में कुछ उल्लेखनीय चरित्र हैं जो वैज्ञानिक स्तर पर पहचान में मदद करते हैं, जैसे की 154-181 वेंट्रल, 27-34 सब-काडल, मध्य शरीर में 28-32 डॉरसल स्केल्स, 3-7 क्रमिक रूप से दांतेदार स्केल, सुस्पष्ट सुपरा-ऑक्युलर स्केल्स और आँखों व् सुपरा-लेबिअल के बीच 2 स्केल्स होते हैं। कैरिनैटस में उदर (वेंट्रल) स्केल्स सॉशुरेकी से कम होते हैं और आमतौर पर आँखों व् सुपरा-लेबिअल के बीच केवल एक ही स्केल होता है। सॉशुरेकी में दो धब्बो के बीच की खाली जगह गहरे रंग की होती है तो वहीं कैरिनैटस में ऐसा कुछ नहीं होता है। इसके अलावा कैरिनटस में 40 से.मी. से ऊपर लंबाई मिलना आम नहीं है, लेकिन सॉशुरेकी में यह आकार सामान्य रूप से पाया जाता है। अध्ययनों के अनुसार, सॉशुरेकी पश्चिमी भारत और पाकिस्तान व ईरान के पश्चिमवर्ती अधिक सूखे इलाकों के लिए अनुकूलित है, जबकि कैरीनेटस विभिन्न प्रकार के निवास स्थानों जैसे खुले जंगलों, झाड़ियों, शुष्क पर्णपाती जंगलों, प्रायद्वीपीय भारत के चट्टानी मैदानों में रहता है।
सॉ-स्केल्ड वाइपर में दिलचस्प पारिस्थितिकी देखने को मिलती है जो कि अन्य वाइपर प्रजातियों में से अलग है। सबसे पहले तो यह की यह सांप अन्य वाईपर की तुलना में छोटा होता है। इनके पास रेगिस्तान और अन्य शुष्क क्षेत्रों की कठिन मौसम में भी जीवित रहने की क्षमता होती है। हमने सॉशुरेकी को गुजरात के समुद्री तटों में भी देखा है जहाँ ताजा पानी उपलब्ध नहीं होता है। ये ज्यादातर स्थलीय हैं, लेकिन कांटेदार झाड़ियों में चढ़ने और यदि तापमान सही रहे तो कई दिनों तक वहां रहने की क्षमता रखते हैं। मैंने खुद व्यक्तिगत रूप से सॉशुरेकी के एक सांप को देखा है जिसने तटीय गुजरात में धातु की बाड़ पर 10 फीट ऊंचाई पर 25 दिन और रात से अधिक समय बिताया था। अन्य वाइपर (और पिट-वाइपर) के विपरीत, यह कई प्रकार के जानवरो को खाते हैं जैसे की चूहे, छिपकली, अपनी प्रजाति व अन्य प्रजाति के सांप और कीड़े आदि। बल्कि ये दोनों उप-प्रजातियाँ अकशेरुकीय और छिपकलियों पर सबसे अधिक निर्भर हैं। भोजन में विविधता होने के कारण यह उन क्षेत्रों में भी जीवित रह सकते हैं जहां खाद्य श्रृंखला में अच्छी संख्या में पौष्टिक शिकार नहीं हैं।
सभी एकिस(Echis) प्रजातियों की तरह, सॉशुरेकी में भी खतरे की परिस्थिति में एक विशिष्ट प्रकार का प्रदर्शन होता है जो इसे दुश्मन के सामने शक्तिशाली, सतर्क और चुस्त दिखाता है। यह अंग्रेजी के सी (C) के आकार की कुंडली बना लेता है तथा अपने स्केल्स को आपस में रगड़ कर एक ख़ास प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करता है। यह ध्वनि 4-5 पंक्तियों में डॉरसल स्केल्स की अनूठी व्यवस्था द्वारा निर्मित होती है जहाँ ये लंबवत नहीं बल्कि 45 डिग्री के कोण पर जमे होते हैं।इसके अलावा, उनके तिरछे व्यवस्थित स्केल्स में लकीरें होती हैं (उन्हें तकनीकी रूप से कील्ड स्केल्स कहा जाता है) जो आरी की तरह दाँतदार होते हैं। बगल वाले डॉरसल स्केल्स में इस प्रकार के परिवर्तन से उन्हें कम ऊर्जा खर्च कर ध्वनि उत्पन्न करने में मदद मिलती है। यह संभवत: इन सांपों को उनके दुश्मन को बिना मुंह से हिस्स या फुंफकार की ध्वनि निकाले चेतावनी देने में मदद करता है जिसके लिए शरीर में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। यह विशिष्ट रूप से चेतावनी-आक्रमण के प्रदर्शन के समय अपने सिर को स्थिर रखते हैं और बाकि शरीर को हिला कर ये ध्वनि उत्पन्न करते हैं। स्थिर सिर दुश्मन को काटने की स्थिति में सटीकता रखने में मदद करता है। इस सांप और अन्य सभी एकिस (Echis) प्रजातियों की हमला करने की गति बाकी सभी सांपो से तेज होती है। यह तेज गति चूहों और बिच्छू जैसे तेज व सतर्क शिकार को सफलतापूर्वक काटने और घातक जहर छोड़ने के लिए आवश्यक होती है। रेगिस्तानों में जहां छिपने के स्थान सीमित होते हैं और बहुत गहरे नहीं होते हैं, सॉशुरेकी को कांटेदार रेगिस्तानी वनस्पतियों की जड़ें और कृंतक टीले आश्रय के रूप में मिलते हैं। सॉशुरेकी का प्रजनन जीवंत है और यह सीधे जून से सितंबर के दौरान 3 से 23 संतानों को जन्म देता है। संभोग पुरुष युद्ध के बाद शुरू होता है, जहां ज्यादातर वाइपर की तरह दो वर्चस्व में दिलचस्पी लेने वाले और प्रजनन के लिए सक्षम नर अपने एक तिहाई अग्रभाग को उठाते हैं और पारस्परिक रूप से एक-दूसरे के सिर के ऊपर से एक-दूसरे को वश में करने की कोशिश करते हैं। सर्दियों के दौरान सॉशुरेकी गहरे टीले में छिपने लगते हैं।
सॉ-स्केल्ड वाइपर (उसकी दोनों उप-प्रजातियां) कुख्यात बिग-फोर के सदस्य हैं जो चार चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण विषैले सांप स्पेक्टाकल्ड स्पेक्टेकल्ड कोबरा (नाजा नाजा), रसल्स वाइपर (दबोइया रसेली), कॉमन क्रेट (बंगारस सिरुलियस) और सॉ-स्केल्ड वाइपर (एचिस कैरीनेटस) के सदस्य हैं। ये सभी भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक रूप से फैले हैं। सांप के काटने से होने वाली मौतों और सर्पदंश संबंधी विकलांगता के लिए ये सांप ही जिम्मेदार हैं। हालाँकि, हाल के अध्ययनों में यह पाया गया है कि एचिस कैरीनेटस से काटने की घटनाएं इसके आवास वाले क्षेत्रों में इतनी आम नहीं हैं। लेकिन सॉशुरेकी की सीमा में, अन्य विषैले सांप आमतौर पर नहीं पाए जाते हैं और यह सॉशुरेकी को सबसे प्रमुख चिकित्सकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण साँप बनाता है। मानसून और गर्मियों के महीनों के दौरान काटने की घटनाएं बढ़ जाती हैं जब साँप भोजन और प्रजनन के लिए सबसे अधिक सक्रिय होता है। ज्यादातर दंश तब होता है जब पीड़ित इनके क्षेत्र में नंगे पांव चलते हैं और अनजाने में सांप पर कदम रखते हैं। कुछ मामलों में, जमीन पर सोने वाले लोगों को भी सर्पदंश हुआ है। आक्रामक और संभावित घातक साँप होने के बावजूद कभी-कभी कम विष की मात्रा के कारण इसके दंश घातक नहीं होते हैं और पीड़ित अपनी प्रतिरक्षा के बूते ठीक हो जाता है। इस कारण से सर्पदंश ठीक करने के वैज्ञानिक रूप से अप्रभावी या अष्पष्ट तौर तरीकों को खुद को सही साबित करने का मौका मिल जाता है क्योंकि पीड़ित तो खुद के मजबूत प्रतिरक्षा या विष की कम मात्रा से खुद ही ठीक हो जाते हैं।
दुर्भाग्य से इस तरह के प्रतिरोध आधारित शरीर के ठीक होने के प्रयासों से पीड़ित व्यक्ति के गुर्दे की प्रणाली को नुकसान पहुंच सकता है क्योंकि वाइपर के काटने से रक्त और ऊतकों को गंभीर रूप से नकारात्मक प्रभाव जाता है, और गुर्दे की विफलता / क्षति इन मामलों में एक सामान्य परिदृश्य है, जो कि जल्दी नजर में नहीं आते हैं।
सामान्यतया शुष्क माना जाने वाला राज्य राजस्थान विविध वन्यजीवों एवं वनस्पतियों से सम्पन्न है। इस लेख में राजस्थान के दक्षिणी हिस्सों में पायी जाने वाली उड़न गिलहरी के बारे में बताया गया है। वैसे तो उड़न गिलहरी भारत केबड़े पर्णपाती एवं विशाल वृक्षों वाले जंगलोंमेंपायी जातीहै लेकिन इन राज्यों की भौगोलिक सीमाओं से दूरइसका राजस्थान में मिलना उल्लेखनीय है। प्रस्तुत लेख में डॉ. विजय कुमार कोली ने राजस्थान में उड़न गिलहरी की वर्तमान स्थिति, पर्यावास एवं व्यवहार के बारे में विस्तार से बताया है। डॉ. विजय कुमार कोली ने अपनी डॉक्टरेट की उपाधि के लिए शोधकार्य (Ph.D.) उड़न गिलहरी पर ही किया है।
भारत में तीन प्रकार की गिलहरी पायीं जाती हैं जिनमे पांच धारीवाली छोटी गिलहरी (Five-striped Palm Squirrel), तीन धारीवाली गिलहरी (Three-striped Palm Squirrel) एवं उड़न गिलहरी (Indian Giant Flying Squirrel) शामिल हैं। उड़न गिलहरी एक रात्रिचर स्तनधारी है जो पेड़ों पर रहती है। भूरे रंग की यह गिलहरी पेड़ों की शाखों पर ग्लाइड करने में माहिर होती है। इसे दक्षिणी राजस्थान के जंगलों में देखा जा सकता है। शाम होने पर यह अपने आवास से बाहर निकलती है और सुबह होने तक पेड़ों पर सक्रीय रहती है। भारत में पायी जाने वाली 15 प्रकार की उड़न गिलहरियों में से केवल यह राजस्थान में पायी जाती है। इसकी लम्बाई1मीटर से भी अधिक ( लगभग104.0 सेंटीमीटर ) होती है जिसमें से पूँछ की लम्बाई 50.0 सेंटीमीटर से भी ज्यादा होती है जबकि इसका वजन 1Kg से 2.5Kg तक हो सकता है। वयस्क गिलहरी में ऊपर का हिस्सा कहीं कहीं से हल्की सफेदी लिए ग्रिजल्ड ब्राउन या क्लैरट ब्राउन होता है। इसके पैराशूट एवं आगे की भुजाएं भूरी होती हैं। नीचे का हिस्सा हल्की सफेदी लिए होता है। चेहरा भूरा और कालापन लिए होता है इसकी घनी पूँछ आखिरी छोर पर कालापन लिए हुए शरीर से भी लम्बी होती है। पैरों का रंग काला होता है इसके रंग में उम्र के साथ हल्के बदलाव होते रहते हैं।
इस गिलहरी की आबादी छितरायी हुई राजस्थान के दक्षिणी चार जिलों प्रतापगढ़,उदयपुर,डूंगरपुर,एवं बांसवाड़ा में देखने को मिलती है। प्रतापगढ़ के सीतामाता एवं उदयपुर के फुलवारी की नाल वन्यजीव अभ्यारण्य के संरक्षित क्षेत्रों में यह अच्छी खासी संख्या में विद्यमान है। यह उप सदाबहारीय एवं घने जंगलों में अधिकतर महुआ के पेड़ों पर रहना पसंद करती है।महुआ के तने इसके आवास के लिए उपयुक्त होते हैं। महुआ समेत बरगद एवं कदम्ब जैसे पेड़ों की ऊँची टहनियों से यह आराम से ग्लाइड कर लेती हैं। प्रजनन काल के दौरान नर व मादा दोनों इस तने पर बने आवास में रहते हैं लेकिन जन्म देने के बाद नर गिलहरी इसे छोड़ देती है और इसमें केवल मादा अपने बच्चे के साथ रहती है। कुछ महीनों के बाद मादा भी इस कोटर को छोड़ देती है और पास ही किसी अन्य पेड़ पर बने कोटर में रहने लगती है। यह पेड़ो के ऊपरी स्थानों से नीचे की जगहों पर ग्लाइड करती है ।
इस प्रजाति में एक विशेष झिल्ली की तरह की संरचना पेटेजियम होती है जो की हाथों से पैरों की और फैली हुई होती है। यह शरीर का बहुत लचीला हिस्सा होता है। ग्लाइड करने के कारण यह आने जाने में व्यय होने वाली अपनी बहुत सी ऊर्जा को बचा लेती है साथ ही शिकारियों के हमले से भी बच जाती है और भोजन की नयीं संभावनाएं बिना थके तलाश लेती है।पीछे की और धक्का देकर यह अपनी ग्लाइड की दूरी को आगे बढाती है। जब यह हवा में गोते लगाती है तो इसके पैरों व हाथों से लगी झिल्लीनुमा पैराशूट खुल जाता है जो इसे दिशा देने में सहायता देता है।उतरने के दौरान पहले यह पेड़ के मुख्य तने को अगले हाथों से पकड़ती हैं और फिर पिछले हाथों की मदद लेती हैं।नीचे उतरने चढ़ने में और पकड़ बनाने में इसके तीखे नुकीले पंजे बहुत मदद करते हैं।सामान्यतया यह एक निश्चित मार्ग पर ही आवाजाही करती है। यह अधिकतम 90 मीटर तक ग्लाइड कर सकती है लेकिन सामान्यतया यह 10 से 20 मीटर ही ग्लाइड करती है।बारिश में यह विचरण नहीं करती है।
यह बदलते हुए मौसम में खुद को ढाल लेती है और मौसम के अनुसार ही भोजन चुनती है। तना,टहनियां, पत्तियां, कलियाँ, फूल, फल, बीज इसके भोजन हैं। पिथ इसके भोजन का मुख्य भाग होता है। महुआ, बहेड़ा (Terminalia bellirica), (Terminalia tomentosa) एवं टिमरू (Diospyros melanoxylon) के पेड़ इसके भोजन एवं आवास के लिए सबसे उपयुक्त होते हैं।
यह एक निशाचर जीव है जो कोटर से शाम 7 बजे के बाद निकलती है एवं सुबह 6 बजने तक वापस कोटर में चली जाती है। सर्दियों के समय में इसे दिन के समय अपने कोटर केआसपास धूप सेकते हुए देखा जा सकता है।इसकी गतिविधियां सबसे ज्यादा रात के 6 से 11बजे एवं 2 से 6 बजे के बीच देखीं जा सकतीं हैं। रोशनी पड़ने पर यह बिना हिले डुले एक जगह बैठ जाती है। रात को यह आवाज के माध्यम से दूसरी गिलहरियों के बीच संवाद स्थापित करती है औरआवाज से ही प्रजनन काल में ये जोड़े बनाती हैं। इनकी आवाज मध्यरात्रि को या अल सुबह कोटर में जाने से पहले सबसे ज्यादा सुनी जा सकती है। शिकारियों से बचने के लिए यह घने पेड़ों में बैठकर आवाज निकालती है। सुबह के समय इनकी आवाज आसानी से सुनी जा सकती है।
इस क्षेत्र में गर्मियों से पहले का समय इनका प्रजनन काल होता है। नए बच्चे का जन्म और देखभाल इन्हीं कोटरों में होता है। हालाँकि IUCN की रेड डाटा बुक के अनुसार यह प्रजाति संकटमुक्त की श्रेणी में रखी गयी है लेकिन राजस्थान के पश्चिमी हिस्से में इसकी संख्या धीरे धीरे कम होती जा रही है।आदिवासियों द्वारा इनका शिकार, बढ़ता शहरीकरण, उद्योगों के लिए वनों का कटाव इस प्रजाति के भविष्य के लिये चुनौतियाँ हैं।भील एवं गरासिया जनजातियां भोजन,रीति रिवाजों एवं अन्धविश्वास के नाम पर इनका शिकार कर रहे हैं। ये लोग इन मृत गिलहरियों के कंकाल,हड्डियां एवं बालों को अपनी झोपड़ियों में रखते हैं। कमजोर बच्चों का वजन बढ़ाने में इनकी हड्डियों के टुकड़े करके गले में बंधा जाता है।जंगलों से होकर निकलने वाले राजमार्गों से भी गिलहरी की यह प्रजाति नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई है।राजस्थान में पायी जाने वाली इस उड़न गिलहरी के संरक्षण एवं विकास के लिए महुआ,बहेड़ा एवं कदम्ब के पेड़ों की कटाई रोकने के प्रयास किये जाने चाहिए। साथ ही उड़न गिलहरी मिलने वाले जिलों में आदिवासियों के साथ जागरूकता कार्यक्रम चलाये जायें जिससे इनके शिकार पर अंकुश लग सके।
For further study:
Koli VK, Bhatnagar C, Sharma SK (2013). Food habits of Indian Giant Flying Squirrel (Petaurista philippensis Elliot) in tropical deciduous forests, Rajasthan, India. Mammal Study 38(4): 251-259.
Koli VK, Bhatnagar C (2014). Calling activity of Indian Giant Flying Squirrel (Petaurista philippensis Elliot, 1839) in the Tropical deciduous forests, India. Wildlife Biology in Practice, 10(2): 69-77.
Koli VK, Bhatnagar C (2016). Seasonal variation in the activity budget of Indian giant flying squirrel (Petaurista philippensis) in tropical deciduous forest, Rajasthan, India. Folia Zoologica 65(1): 38-45.
Koli VK (2016) Biology and Conservation status of flying squirrels (Pteromyini, Sciuridae, Rodentia) in India: an update and review. Proceedings of the Zoological Society, 69(1): 9-21.
Koli VK, Bhatnagar C, Sharma SK (2013). Distribution and status of Indian Giant Flying Squirrel (Petaurista philippensis Elliot) in Rajasthan, India. National Academy Science Letter 36(1): 27-33.
Koli VK, Bhatnagar C, Mali D (2011). Gliding behaviour of Indian Giant Flying Squirrel Petaurista philippensis Elliot. Current Science, 100(10): 1563 – 1568