क्यों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक बाघों के लिए घर बनाना चाहिए और उनमें ज़िम्मेदारी के साथ बाघों को स्थापित करना चाहिए?

क्यों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक बाघों के लिए घर बनाना चाहिए और उनमें ज़िम्मेदारी के साथ बाघों को स्थापित करना चाहिए?

वर्तमान में संरक्षित क्षेत्रों (अभयारण्य / राष्ट्रीय उद्यान) को बाघ अभ्यारण्य में परिवर्तित करने की लगातार मांग हो रही है। वह क्षेत्र भले ही बाघों के लिए उपयुक्त हो या नहीं , लेकिन गैर-सरकारी संगठन, स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता और राजनेता अपने आसपास के पार्क को टाइगर रिज़र्व घोषित करवाने को  एक बड़ी उपलब्धि के रूप में लेते हैं। परन्तु सिर्फ कागज़ों में संरक्षण के स्तर को बदलना आसान हैं, लेकिन इतना मात्र पर्याप्त नहीं है, बल्कि किसी भी क्षेत्र में बाघों को बनाए रखना, उनके लिए अनुकूल हैबिटैट बनाना, वह भी इस भीड़ भरे देश में एक बड़ी ज़िम्मेदारी है और यह आसान भी नहीं हैं।

वर्तमान में राजस्थान में रणथंभौर ही एक अकेला स्वस्थ बाघ रिज़र्व है जहाँ अच्छी मात्रा में बाघ रहते हैं। अक्सर राजस्थान के अन्य हिस्सों से  बाघों की मांग रणथंभौर से जुड़े लोगो को चिंतित कर देती हैं। रणथंभौर ‘समर्थकों’ के मध्य यह विचार बन रहा हैं की सरिस्का एवं मुकन्दरा  आदि जैसे अन्य संरक्षित क्षेत्र बाघों के लिए असुरक्षित हैं। यह लोग मानते हैं की रणथंभौर के अलावा, राज्य के अन्य सभी क्षेत्र बाघों के लिए नरक के सामान हैं।

दूसरी ओर, उन क्षेत्रों से जुड़े लोग मानते हैं कि रणथंभौर में पर्यटन लॉबीस्ट, बाघों को राज्य के अन्य क्षेत्रों में भेजने का विरोध करते हैं, ताकि बाघ पर्यटन पर अपना एकाधिकार बनाए रख सकें।

मुझे लगता है कि दोनों तरफ के लोग कहीं बाघ संरक्षण के मूल आधार से विचलित हो रहे हैं। मेरी राय में, हमें राजस्थान में बाघों के लिए हर संभव और अधिक से अधिक उपयुक्त क्षेत्र विकसित करने चाहिए। यह रणथंभौर के बाघों की दीर्घकालिक सुरक्षा के लिए आवश्यक है। इस महामारी के युग में यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है एक अकेली आबादी किसी भी अनजान बीमारी की चपेट में आ सकती है और कुछ ही दिनों में यह पूर्ण तय समाप्त भी हो सकती हैं। आजकल कई सारे बैंक खाते रखना, होने संभावित वाली लूट के खिलाफ एक सुरक्षित रणनीति है, एक कालातीत मुहावरा आपने अवश्य सुना होंगे की अपने सभी अंडे एक टोकरी में नहीं डालने चाहिए, इस संदर्भ में यह पूरी तरह से उपयुक्त है।

इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब किसी एक प्राणी की बड़ी आबादी मात्र कुछ ही हफ्तों में ही विलुप्त हो गयी। किसी ने बहुत ही सावधानीपूर्वक इस तरह के विलोपन की जानकारी एकत्रित की है, जिसे आप यहां देख सकते हैं-

यह पूरी तरह गलत नहीं हैं की MHTR – कोटा, सरिस्का, रामगढ़ विषधारी -बूँदी, कुंभलगढ़ आदि आज भी अत्यंत असुरक्षित स्थान हैं एवं बाघों के लिए अत्यंत जोखिम भरे हैं। फिर हम क्यों नहीं कोई सुरक्षित रणनीति बना पा रहे हैं, इसके दो मुख्य कारण हैं-

  1. एक स्थान से बाघ पकड़ कर नए स्थानों पर छोड़ना शायद सबसे आसान काम हैं परन्तु उन स्थानों को विकसित एवं सुरक्षित आवास में तब्दील करने में बहुत अधिक धन और निवेश की आवश्यकता होती है, और साथ ही हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, इसके बाद उस निवेश को पुनः कैसे प्राप्त किया जायेगा, इसीलिए अभी तक सरकारें बाघों के संरक्षण को एक बोझ की तरह समझती हैं।
  2. आमतौर पर बाघों का परिचय जल्दबाजी में लिए जाने वाले राजनीतिक फैसले होते हैं और जब सरकार बदलती है तो सब ठंडा हो जाता है।

हम सब जानते हैं की MHTR के मामले में, 4 बाघ छोड़े गये थे, लेकिन असल में मात्र  2 बाघों को ही स्थानांतरित किया गया था। दो बाघ अपने आप पहुंच गए। MT3 (T98) अपने आप उस सटीक जगह पर पहुंचा जहां वाल्मिक थापर और डॉ। जीवी रेड्डी की टीम ने MHTR में बाघों को लाने का फैसला किया था। उसे रणथम्भौर से वहाँ पहुँचने में मात्र एक महीना लगा। इसी तरह, MT1 (T91) ने  पहले ही रणथंभौर को छोड़ दिया और रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभ्यारण्य की ओर बढ़ गया था और यहां तक कि वह इसे भी पार कर भीलवाड़ा जिले में पहुंच गया था और एक बार तो उसने MHTR तक पहुंचने की कोशिश भी की थी, लेकिन रस्ते के अवरोध के कारण वह MHTR से कुछ ही किलोमीटर दूर रह गया था।

एक लम्बे समय तक T91 का रामगढ विषधारी में  रुके रहना शायद यह भ्रम देता हैं की यह एक सुरक्षित ठिकाना हैं, वास्तव में यह पूरी तरह सही नहीं हैं क्योंकि उसे रोके रखने के लिए कई तरह के प्रयास किये गये थे, जैसे उसे तय समय पर, तय स्थान पर खाना देना, यह असल में उसे पकड़ने की रणनीति का एक हिस्सा था। रामगढ़ विषधारी के समर्थक अक्सर यह कसक दिल में रखते हैं की बाघ को यहाँ से पकड़ कर कोटा क्यों छोड़ा गया? क्योंकि आज भी रामगढ़ विषधारी पूरी तरह सुरक्षित नहीं एवं इतिहास की घटनाओ ने भी सिद्ध किया हैं की सामाजिक स्टार पर बाघों के अनुकूल माहौल बनाना अभी बाकि हैं, मात्र एक दो वन्यप्रेमीयो के अखबारों के बयान रामगढ़ विषधारी को बाघों के लिए मुफीद नहीं बनाता।

रणथंभौर ने निश्चित रूप से T83 और T106 नमक दो मादा बाघों को स्थानांतरित किया था । लाइटनिंग अथवा T83 लगातार बाहर जा रही थी और शेरपुर / खव्वा गांव के निवासी के लिए कई तरह की समस्या पैदा कर रही थी, वे निरंतर यह मांग कर रहे थे, कि उसे एक सुरक्षित क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया जाए और इसी तरह T106 भी उसकी माँ और दो अन्य बहनों के बीच रणथम्भौर के एक कोने में अपर्याप्त स्थान में रह रही थी।  मैं यहां यह साबित करने की कोशिश कर रहा हूं, MHTR में बाघों को छोड़ना, आंशिक रूप से एक प्राकृतिक घटना थी और आंशिक रूप से रणथम्भौर के लिए एक तनाव मुक्त करने का जरिया भी।

MHTR में छोड़े गये बाघों का चयन तकनीकी रूप से बहुत सही था और यह किसी भी तरह से रणथम्भौर के लिए भार नहीं था, जैसे सरिस्का के समय  WII के जीवविज्ञानी और अधिक दबाव वाले वन अधिकारियों ने  गलत बाघों का चयन किया था – जिसमें कोई भाई-बहन था, कोई बाघ ऐसे थे जिन्होंने अपनी टेरिटरी स्थापित करली थी अथवा पर्यटन क्षेत्र को प्रभावित करने वाले बाघ।

सरिस्का के समय अत्यंत गलत बाघों का चयन किया गया, जिससे बाघो के परिवारों को भी नुकसान पहुंचा। T12 का चयन यह भलीभांति  साबित करता है। सरिस्का के लिए हर समय रणथम्भौर में आसानी से मिलने, दिखने वाले बाघों का चयन किया गया और इससे निश्चित रूप से रणथम्भौर में पर्यटन से जुड़े लोगों में आक्रोश भी रहा। यह प्रयास पुनः भी किया गया, जब T65  का चयन सरिस्का के लिए किया गया, जो T73  मादा के साथ उसके 4 शावको का पिता हैं। खैर इस बार श्री अयान साधु – WII के वैज्ञानिक ने इसे समर्थन नहीं किया वरना पूर्व फील्ड डायरेक्टर उसे सरिस्का भेजने पर तुले हुए थे।

राजनीतिक रूप से प्रेरित या तर्कहीन अवैज्ञानिक रूप से बाघों की अनुचित हैं। जैसे रामगढ़ विषधारी-बूँदी से पहले कुंभलगढ़ में बाघों को लाने का कोई औचित्य नहीं है।

बूँदी के जंगल रणथम्भौर की बाघों की एक बड़ी आबादी के करीब हैं और उनके बीच टुटा फूटा एक गलियारा भी मौजूद है। यदपि कुम्भलगढ़ भी एक अच्छा निवास स्थान है, लेकिन यह रणथम्भौर के बाघों की मुख्य आबादी से तुलनात्मक रूप से दूर है, लेकिन रामगढ़ और MHTR  के विकास को प्राथमिकता देने के बाद, कुंभलगढ़ को बाघों के लिए भी विकसित किया जाना चाहिए ।

अतः अन्य क्षेत्रों में बाघों को छोड़ा जाना अत्यंत आवश्यक है ताकि हम अपने बाघों को आजकल फैलने वाली महामारियों से बचा सके । दूसरा हम रणथम्भौर को बाघों की बढ़ती आबादी के दबाव से मुक्त रख सकें। परन्तु सही बाघ का चयन आवश्यक है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है  कि नये क्षेत्रों को सुरक्षित बनाना और उनके लिए एक दीर्घकालिक संरक्षण रणनीति बनाना हैं । अप्राकृतिक कारणों से बाघों को मरते देखना बहुत दर्दनाक होता है।

 

 

 

क्यों राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक बाघों के लिए घर बनाना चाहिए और उनमें ज़िम्मेदारी के साथ बाघों को स्थापित करना चाहिए?

Why more and more tigers should be introduced to different areas in Rajasthan

There is a persistent demand for converting Protected Areas (sanctuaries/ national park) into tiger reserves in India is a new trend. The area may not be suitable for tigers or habitat is degraded but NGOs, local environmental activists and politicians take the conversion issue as an achievement. Elevating conservation status just into papers is not enough but to sustain tiger’s in any areas, in this over crowded country is a big responsibility.

Rajasthan has a lone, but healthy tiger population in Ranthambhore. Each demand for tigers from other parts of Rajasthan raises eyebrows in Ranthambhore (including people who may not necessarily live in Ranthambhore, since some Ranthambhore tigers popular with tourists have fan followings across the globe). There is a common belief among the Ranthambhore ‘supporters’, that we should not give tigers to other protected areas like Sariska, MHTR etc. because they are not safe and therefore not good habitats for tigers. In their words, besides Ranthambhore, all other areas in the state are hell for tigers. On the other hand, there are also many people who believe that there are lobbyists in Ranthambhore resisting the introduction of tigers to other areas in the state, only so that they can maintain their monopoly on tiger tourism in Rajasthan. I think both beliefs are misinformed and wrong. In my opinion, we should develop all possible and suitable areas in Rajasthan for tigers. This is essential to the long-term safety of Ranthambhore tigers. It is not difficult to imagine, especially in the pandemic era, just how vulnerable a lone population is to disease and how it can be wiped out within a few days if things go wrong. Keeping multiple bank accounts is a safe strategy against loot and I think the timeless warning of ‘not putting all your eggs in one basket’ is perfectly apt in this context.

There are many historical examples of when even the large size of an animal population hasn’t prevented it from diminishing in a few weeks. Check here (http://end-times-prophecy.org/animal-deaths-birds-fish-end-times.html) someone has meticulously gathered lots of information. While most of us agree on this, we still harbour doubts that the areas are not safe homes for introduced tigers and that if we do take a risk to introduce tigers to MHTR, Sariska, RBS- Bundi, Kumbhalgarh etc. their chances of perishing increase manyfold.

This line of thought is not entirely unreasonable, because the authorities are not making a fool proof strategy for a couple of reasons- 1. All such programs need high fund investment, and we are not ready to accept that there should be a clear-cut money recovery plan, so that governments do not consider the introduction of tigers a burden on their funds. 2. Usually tiger introductions are hasty political decisions and when the government changes programs, all goes cold.

In the case of MHTR, 4 tigers have been introduced, but  only 2 tigers were actually relocated. Two tigers reached on their own. MT3 (T98) arrived on his own bang on the exact spot where Valmik Thapar and Dr. GV Reddy’s team decided to introduce tigers in MHTR. He took a month to reach there from Ranthambhore. Similarly, MT1 (T91) left Ranthambhore and moved towards the Ramgarh Bishdhari Wildlife Sanctuary and even crossed RBS and reached Bhilwara district and he was trying to reach MHTR, but remained only  a few kilometres away from the place. You may not be aware that he turned back because we were luring him to localize him in a particular spot in RBS, so he could be captured and introduced in MHTR. Ranthambhore definitely relocated T83 and T106.  T83 was continuously going out and causing problems for the Sherpur/ Khawa villagers, they were demanding that she should be shifted  to a safe area and similarly T106 was  also squeezed among her mother and two other sisters in Sultanpur. What I am trying to prove here is that this introduction was partly a natural phenomenon and partly a stress buster for Ranthambhore too.

The selection of these tigers was technically very correct and  was not at all like the haphazard  Sariska introduction, where a time crunched WII biologist  and over pressurized forest officials selected the wrong tigers for introduction-  such as siblings, resident tigers or tigers from the centre of the park. Erroneous tiger selection not only disrupted sightings etc in Ranthambhore, but also damaged tiger families. The  selection of T12 proves this. They always selected easily accessible tigers in Ranthambhore and this definitely scared those involved in tourism in Ranthambhore among  others.

Politically motivated or irrational demands for tigers  are also harmful. There is no point in introducing tigers to Kumbhalgarh before RBS- Bundi. The forests of Bundi  are not only suitable, but are also very close  to the bulk population of RTR and a more or less safe corridor also exists between them. Kumbhalgarh is good habitat,  but it is comparatively far from the source population in RTR,  but after prioritizing  the development of RBS & MHTR, Kumbhalgarh can also be developed for tigers.

So, introducing  tigers to other areas is necessary because it is always good to keep your eggs in many baskets. Second it is essential to introduce tigers to other areas so we can keep Ranthambhore pressure free. Selection of the right tiger is essential and the most important thing is to secure the areas of introduction and make a long term conservation strategy that is fool proof. It is always very painful to see tigers die due to unnatural reasons.

 

स्परफाउल: राजस्थान में मिलने वाली जंगली मुर्गियां

स्परफाउल: राजस्थान में मिलने वाली जंगली मुर्गियां

स्परफाउल, वे जंगली मुर्गियां जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार होते हैं राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित हैं तथा इनका व्यवहार और भी ज्यादा दिलचस्प होता है…

पक्षी जगत की मुर्ग जाति में कुछ सदस्य ऐसे पाए जाते हैं जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं और इसी लक्षण की कारण इन्हे स्परफाउल (Spurfowl) कहा जाता है। स्परफाउल कहलाये जाने वाले ये पक्षी आकार में कुछ हद्द तक तीतर जैसे होते हैं परन्तु इनकी पूँछ थोड़ी लम्बी होती है। स्परफाउल को गैलोपेरडिक्स (Galloperdix) वंश में रखा गया है। इस जीनस में कुल तीन प्रजातियां हैं; रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea), पेंटेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata) और श्रीलंका स्परफाउल (Galloperdix bicalcarata)। इन तीन प्रजातियों में से दो रैड स्परफाउल और पेंटेड स्परफाउल राजस्थान में पायी जाती हैं। आइये इनके बारे में विस्तार से जानें।

“झापटा” यानी रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea):

यह एक छोटे आकार की मुर्ग प्रजाति है जो मूल रूप से भारत की ही स्थानिक (Endemic) है। यह एक एकांतप्रिय व् जंगलों में रहने वाला पक्षी है, और इसीलिए इसको सहजता से खुले में देख पाना काफी मुश्किल भी होता है। इसकी पूँछ तीतर (जो स्वयं फ़िज़ेन्ट कुल का पक्षी है) की तुलना में लंबी होती है और जब यह ज़मीन पर बैठा होता है, तो इसकी पूँछ साफ़ दिखाई देती है। हालांकि इसका पालतू मुर्गी से कोई निकट सम्बन्ध नहीं है, लेकिन भारत में इसे जंगली मुर्गा ही माना जाता है। यह लाल रंग का होता है और लम्बी पूँछ वाले तीतर की तरह लगता है। इसकी आंख के चारों ओर की त्वचा पर कोई पंख नहीं होने के कारण आँखों के आसपास नंगी त्वचा का लाल रंग दिखाई देता है। नर और मादा दोनों के पैरों में एक या दो नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं, जिनकी वजह से इनको अंग्रेज़ी नाम Spurfowl मिला है। इसके पृष्ठ भाग गहरे भूरे रंग के और अधर भाग गेरू रंग पर गहरे भूरे रंग चिह्नों से भरा होता है। नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं।

रैड स्परफाउल में नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

रेड स्परफाउल, वंश Galloperdix की टाइप प्रजाति (type species) है। इस प्रजाति को 18 वीं शताब्दी के अंत में भारत से मेडागास्कर ले जाया गया था, और फिर मेडागास्कर से ही इस पर पहली बार एक फ्रांसीसी यात्री पीर्रे सोनेरेट  (Pierre Sonnerat) द्वारा व्याख्यान दिया गया था। वर्ष 1789 में जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) ने द्वीपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए इसे “Tetrao spadiceus” नाम दिया था। गमेलिन, एक जर्मन प्रकृतिवादी, वनस्पति विज्ञानी, किट वैज्ञानिक (Entomologist), सरीसृप वैज्ञानिक (Herpatologist) थे। इन्होंने विभिन्न पुस्तकें लिखी तथा 1788 से 1789 के दौरान कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) कृत Systema Naturae का 13वां संस्करण भी प्रकाशित किया। परन्तु वर्ष 1844 में एक अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ Edward Blyth ने इसे “Galloperdix” वंश में रख दिया।

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित रैड स्परफाउल का चित्र

यह स्परफाउल मुख्यरूप से दक्षिणी राजस्थान में दक्षिण अरावली से लेकर मध्य अरावली पर्वतमाला के वन क्षेत्रों में पाया जाता है। लेखक (II) के अनुसार रैड स्परफाउल राजस्थान के लगभग 9 जिलों; उदयपुर, राजसमन्द, पाली, अजमेर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौडगढ़, सिरोही और जालौर में निश्चयात्मक रूप से उपस्थित है। इस मुर्गे की एक उप-प्रजाति जिसे अरावली रैड स्परफाउल (Aravalli Red Spurfoul Galloperdix spadicea caurina) नाम से जाना जाता है, आबू पर्वत, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, कुम्भलगढ वन्यजीव अभयारण्य एवं टॉडगढ-रावली अभयारण्यों में अच्छी संख्या में पाई जाती है। यह प्रजाति आबू पर्वत के दक्षिण में स्थित गुजरात राज्य के वन क्षेत्रो में भी कुछ दूर तक देखी जा सकती है। यह प्रजाति पहाड़ी, शुष्क और नम-पर्णपाती जंगलों में पाई जाती है। झापटा आमतौर पर तीन से पांच के छोटे समूहों में अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। जब चारों ओर घूमते हैं, तो अपनी पूंछ को कभी-कभी घरेलु मुर्गे की तरह सीधे ऊपर उठा कर रखते हैं। दिन में यह काफी चुप रहते हैं लेकिन सुबह और शाम के समय आवाज करते हैं। विभिन्न अनाजों के बीज, छोटे फल व् कीड़े इनका मुख्य भोजन हैं तथा पाचन को सही करने के लिए कभी-कभी ये छोटे कंकड़ भी खा लेते हैं। यह भोजन के लिए खुले में आना पसन्द नहीं करता है और छोटी घनी झाड़ियों में ही अपना भोजन ढूंढता है।

रैड स्परफाउलआमतौर पर अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

इनका प्रजनन काल जनवरी से जून, मुख्य रूप से बारिश से पहले होता है। यह ज़मीन पर घोंसला बना कर एक बार में 3-5 अंडे देते हैं। नर अपना जीवन एक ही मादा के साथ बिताता है जिसकी वजह से चूजों की देखरेख में उसकी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है तथा नर अन्य शिकारियों को दूर भगाता व् चूजों की रक्षा करता है। ऐसी ही एक जानकारी रज़ा एच. तहसीन (Raza H. Tehsin) ने अपने आलेख में सूचीबद्ध की थी। रज़ा एच. तहसीन, एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने उदयपुर में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया तथा उन्हें उदयपुर के “वास्को-डि-गामा” के नाम से भी जाना जाता है। रज़ा एच. तहसीन अपने आलेख में बताते हैं की “29 मई, 1982 को मैंने स्पर फॉल के दिलचस्प व्यवहार को देखा। उदयपुर के पश्चिम में एक पहाड़ी इलाके भोमट में, जो शुष्क पर्णपाती मिश्रित वन से आच्छादित है। वहां मैं बोल्डर्स और स्क्रब जंगल में ग्रे जंगल फाउल (गैलस सोनरटैटी) की तलाश कर रहा था और तभी एक मोड़ पर मुझे रेड-स्परफॉल का एक परिवार दिखा। मुझे देख नर ने अपने पंखों का शानदार प्रदर्शन करते हुए, एक बड़े बोल्डर के चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाना शुरू कर दिया। और इसी दौरान मादा चूजों को लेकर वहाँ से जाने लगी। जैसे ही मादा बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंच गयी, नर ने एक छोटी उड़ान भरी और मेरी आँखों के सामने से गायब हो गया। मैं समझ गया था की अपने चूजों को बचाने के लिए नर ने घुसपैठिये (मेरा) का ध्यान हटाने के लिए गोल चक्कर लगाने शुरू किये थे।”

पेन्टेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata):

चित्तीदार जंगली मुर्गी यानी पेन्टेड स्परफाउल अपने अंग्रेज़ी नाम के अनुसार काफ़ी रंग-बिरंगा एक छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। यह अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में छोटी झाड़ियों में देखे जाते हैं। खतरा महसूस होने के समय यह पंखों का इस्तेमाल करने के बजाये तेजी से भागना पसंद करते हैं। यह आकार में मुर्गी और तीतर के बीच होता है। नर बड़े ही चटकीले रंग के होते हैं जिनके पृष्ठ भाग गहरे और अधर भाग गेरू रंग के होते हैं तथा पूँछ काली होती है। ऊपरी भागों के पंखों पर बहुत सी छोटी-छोटी सफ़ेद बिंदियां होती हैं जिनके सिरे काले होते हैं। नर का सिर और गर्दन एक हरे रंग की चमक के साथ काले होते हैं और सफेद रंग की छोटी बिंदियो से भरे होते हैं। मादा गहरे भूरे रंग की होती है तथा इसके शरीर पर किसी भी तरह के सफेद धब्बे नहीं होते हैं। नर में टार्सस (tarsus) के पास दो से चार कांटे (spur) तथा मादा में एक या दो कांटे होते हैं।

पेन्टेड स्परफाउल एक रंग-बिरंगा छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित पेंटेड स्परफाउल का चित्रI

लेखक (II) के अनुसार यह प्रजाति दक्षिणी – पूर्वी राजस्थान की विंद्याचल पर्वतमाला की खोहों की कराईयों से लेकर पूर्वी राजस्थान में सरिस्का तक सभी वन क्षेत्रो में जगह-जगह विद्यमान है। विंद्याचल पर्वतमाला की कराईयों में पाए जाने वाले कई मंदिर परिसर जहाँ नियमित चुग्गा डालने की प्रथा है, वहाँ कई अन्य पक्षी प्रजातियों के साथ पेन्टेड स्परफाउल को भी दाने चुगते हुए देखा जा सकता है। कोटा जिले का गरडिया महादेव एक ऐसा ही जाना पहचाना स्थल हैं। सवाई माधोपुर में रणथम्भौर बाघ परियोजना क्षेत्र में मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढने पर मुख्य मार्ग के दोनों तरफ की पहाडी चट्टानों एवं पथरीले नालों में सुबह- शाम यह मुर्ग प्रजाति आसानी से देखी जा सकती है। यह बेर व् लैंटाना के रसीले फलों के साथ-साथ छोटे छोटे कीटों को खाते हैं। अक्सर जनवरी से जून तक इनका प्रजनन काल होता है परन्तु राजस्थान के कुछ हिस्सों में बारिश के बाद अगस्त में चूजों को देखा गया है। इनका घोंसला जमीन पर पत्तियों व् छोटे कंकड़ों से घिरा हुआ एक कम गहरा सा गड्डा होता है। मादा अण्डों को सेती है परन्तु दोनों, माता-पिता चूजों की देखभाल करते हैं।

उपरोक्त व्याख्या से सपष्ट है कि राजस्थान में रैड स्परफाउल और पेन्टेड स्परफउल कई जिलों में उपस्थित हैं। मुर्ग प्रजातियाँ दीमक व कीट नियत्रंण कर कृषि फसलों, चारागाहों एवं वनों की सुरक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं अतः हमें उनका संरक्षण करना चाहियें।

सन्दर्भ:
  • Anonymous (2010): Assessment of biodiversity in Sitamata Wildlife Sanctuary: An conservation perspective. Foundation for Ecological Security study report.
  • Blanford WT (1898). The Fauna of British India, Including Ceylon and Burma. Birds. Volume 4. Taylor and Francis, London. pp. 106–108.
  • Ojha, G.H. (1998): Banswara Rajya ka Itihas. (First published in 1936).
  • Ranjit Singh, M.K. (1999) : The Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Ranthambhore National Park, Rajasthan. JBNHS 96 (2): 314.
  • Reddy, G.V. (1994): Painted spurfowl in Sariska. NBWI 43 (2): 38.
  • Shankar, K. (1993) Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. JBNHS 90 (2): 289.
  • Shankar, K., Mohan , D. & Pandey, S. (1993): Birds of Sariska Tiger Reserve, Rajasthan, India. Forktail 8: 133-141.
  • Tehsin, Raza H (1986). “Red Spurfowl (Galloperdix spadicea caurina)”. J. Bombay Nat. Hist. Soc. 83 (3): 663.
  • Vyas, R (2000): Distribution of Painted spurfowl Galloperdix lunulata in Rajasthan. Mor, February 2000, 2:2.

 

लेखक:

Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.

Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.

 

भालुओं द्वारा कचरे में भोजन की तलाश

भालुओं द्वारा कचरे में भोजन की तलाश

राजस्थान के हिल स्टेशन – माउंट आबू में भालू अक्सर कचरे के ढेरो के आसपास भोजन ढूंढते देखे जाते हैं परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में बदलाव आ रहा है।

कुछ दिनों पहले मैंने माउंट आबू में एक विचलित करने वाला दृश्य देखा, जिसमें चार भालू कचरे के ढेर में गाय एवं भैंस के साथ भोजन ढूंढ रहे थे। खैर अचानक से आई 2-3 पर्यटकों की गाड़ी से वो भाग गए परन्तु एक भालू निर्भय होकर अपना भोजन ढूंढ़ता ही रहा। यह दृश्य अब यहाँ एक साधारण बात हैं।

गाय भैंस के मध्य कचरे से खाना तलाशता एक भालूI (फोटो: श्री धीरज माली)

राजस्थान का हिल स्टेशन – माउंट आबू, भालूओं  के लिए एक अनुकूल पर्यावास हैं, लेकिन कई वर्षों से प्लास्टिक और गन्दगी के अम्बार से यहाँ की वादियों का मानो दम घुट रहा है। जगह-जगह बिखरा हुआ कचरा, यहाँ के वन्यजीवों और पक्षियों के व्यवहार को तेजी से बदल रहा हैं। कचरे के ढेरों में आसानी से मिलने वाला खाना खाने के लिए, यह मानव आबादी की ओर चले आते हैं एवं प्रतिकूल भोजन का सेवन करते हैं। कहते हैं, माउंट आबू में कचरा निस्तारण प्रणाली का कोई सार्थक प्रबंध इसलिए नहीं है, क्योंकि यहाँ के जनप्रतिनिधियों ने इसे विकसित ही नहीं होने दिया। क्योंकि कचरे से यहाँ के प्रभावशाली लोगों के व्यक्तिगत हित जुड़े हुए हैं। यहाँ कचरा निस्तारण के लिए इनके द्वारा एक बहुत बड़े समूह को रखा गया हैं, जो मात्र साबुत शराब की बोतले और रीसायकल होने योग्य प्लास्टिक ही इकठ्ठा कर रहे है। प्लास्टिक और शराब की साबुत बोतलों से हो रही मोटी कमाई के फेर में जिम्मेदार लोग मौन धारण करके बैठे है अथवा मात्र इतने ही शामिल हैं के अपना मतलब सिद्ध कर सके।  इसका खामियाजा माउंट आबू की प्रतिष्ठा एवं वन्यजीव भुगत रहे है। लम्बे समय से यह सिलसिला जारी है लेकिन अब तक कोई पुख्ता प्रबंधन नजर नहीं आ रहे हैं।

पर्यटकों द्वारा रात में भालुओं के करीब तक जाने व् उनको खाना डालने से उनके व्यवहार में बदलाव आना तय है (फोटो: डॉ. दिलीप अरोड़ा)

वन विभाग की माने तो माउंट आबू वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी में दो सौ से भी अधिक भालू मौजूद हैं। इसके अलावा तेंदुए, सांभर, हनी बेजर सहित कई सारे दुर्लभ वन्यजीव भी यहाँ पर है लेकिन बढ़ते मनुष्यों के हस्तक्षेप ने वन्यजीवों के लिए खतरा पैदा कर दिया है। यहाँ पर भालुओं के मनुष्यों पर हमले भी बढ़ रहे है। देखना हैं कब तक विभाग, सरकार और यहाँ के स्थानीय लोग इन मुद्दों से मुँह मोड़ के रहते हैं।

 

# Cover Image by Dr. Dilip Arora

 

कुछ परम्परागत प्रथाऐं एवं उनके हानिकारक प्रभाव

कुछ परम्परागत प्रथाऐं एवं उनके हानिकारक प्रभाव

विभिन्न वनस्पत्तियों के लिए स्थानीय समूदायों का पारम्परिक ज्ञान हमेशा से ही एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक विरासत है, परन्तु इन समुदायों की कई परम्परायें ऐसी भी हैं जो प्रकृति के संरक्षण की मुहिम की खिलाफत भी करती हैं।

स्थानीय समूदायों का पारम्परिक ज्ञान एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक विरासत है। यह ज्ञान समस्त स्थानीय समुदायों के स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, साँस्कृतिक, धार्मिक, व्यापारिक, भौतिक विकास एवं कृषि उत्पत्ति का माध्यम तो है साथ ही उनके स्थानीय पर्यावरण की सुरक्षा भी करता है तथा उनकी विशिष्ठ पहचान को भी बनाये रखने में मदद करता है।

परम्परागत चिकित्सकीय ज्ञान प्रथायें समाज के स्वास्थ्य देखभाल में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की आबादी का 80 प्रतिशत भाग परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों का लाभ लेता है तथा इस कार्य में हर्बल दवायें बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। रासायनिक क्रांति के बाद अनेक परम्परागत आदिम दवाओं के रासायनिक संघटन को समझने में मदद मिली एवं उन दवाओं की प्रभाविता को आधुनिक विज्ञान ने भी पहचान व मान्यता प्रदान की। निश्चय ही यह हमारे परम्परागत समुदायों के लिए गर्व का विषय है। प्राचीन समय से ही इफेड्रा का उपयोग दमा व कम रक्तचाप उपचार के साथ-साथ हृदय रोगों के निवारण में होता रहा है। सर्पगंधा (Rauwolfia serpentina) उच्च रक्तचाप को कम करने की अग्रणी दवा रही है; तो अफीम ने दर्द निवारक दवायें प्रदान की हैं। सदाबहार (Catharanthus roseus) ने रक्त केंसर के ईलाज का मार्ग खोला है तो मधुमेह से निजात पाने की दवायें भी दी हैं। सैलिक्स प्रजाति से “सालिकिन” मिला है जिसके संश्लेषित विकल्प एसिटाइल सेलिसाइलिक अम्ल (एस्प्रिन) ने गठिया से बचने का मार्ग प्रशस्त किया है। अनेक मनोरोगों के ईलाज हेतु धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजनों में अनेक पौधों के अर्क के उपयोग का विवरण आदिम जातियों के सन्दर्भ में कटेवा एवं जैन (2006) ने प्रस्तुत किया है। औषधियों से सम्बन्धित पौधें विरासत है जिस पर समय के साथ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की इमारत खड़ी हुई है। चिकित्सा का परम्परागत ज्ञान आदिवासियों द्वारा संजोई बड़ी विरासत है जिस पर समय के साथ चिकित्सा और वनस्पतियों का विविध तरह से उपयोग कुछ ऐसे ज्ञान क्षेत्र हैं जिसमें आदिवासी समुदायों के योगदान को मानवता भूल नहीं सकती (सुलीवस, 2016; यादव 2019; वेद एवं साथी, 2007; कटेवा एवं जैन 2006;  जोशी, 1975;  शर्मा एवं जैन, 2009)।

एक कटोरी हथियार का इस्तेमाल कर के लंगूरों को पकड़ा जाता है तथा उनके शरीर के विभिन्न अंगों को निकाल लिया जाता है।(डॉ. अनिता जैन)

राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है जो देश के उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। राज्य की कुल जनसंख्या में 13.47 प्रतिशत आदिवासी समुदायों का प्रतिनिधित्व हैं। यह प्रतिशत देश की औसत आदिवासी आबादी से लगभग दुगना है। राजस्थान में भील, मीणा, गरासिया, डामोर एवं सहरिया प्रमुख जनजातियाँ हैं। राजस्थान की जनजातियाँ अपने परम्परागत ज्ञान में बहुत घनी हैं। इन जातियों ने सदियों से जल, जंगल, पहाड़ों एवं प्राकृतिक स्त्रोतों का किफायती उपयोग के साथ-साथ उनकों संरक्षित भी किया है। वन सुरक्षा एवं संरक्षण का सिलसिला उनकी परम्पराओं, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों में ना-ना तरह से रचा-बसा आ रहा है। वे जंगल व पहाड़ को देवता का रूप मानते हैं। दक्षिण राजस्थान में आदिवासी जंगल एवं पहाड़ को बड़े आदर के साथ सदियों से “मगरा बावसी” यानी “पर्वत देव” मानते चले आ रहे हैं।

लेकिन एक दूसरा पहलू भी महत्त्वपूर्ण है। जनजातियों में अनेक परम्परायें ऐसी भी हैं जो प्रकृति के संरक्षण की मुहिम की खिलाफत भी करती हैं। इन परम्पराओं से जैविक विरासत/प्राकृतिक विरासत को नुकसान भी पहुँचता है। यहाँ ऐसी ही कुछ परम्पराओं की जानकारी दी जा रही है।

“मगरा स्नान” पर्वत देव यानी मगरा बावसी की एक विशेष पूजा की एक परम्परा है। जिसमे भील समुदाय के लोग अपने आराध्य देव मगरा बावसी से अपनी मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना करते हैं। जब उनका मनोरथ पूर्ण हो जाता है तो वे कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु पर्वत देव को “अग्नि स्नान” या “मगरी स्नान” कराते हैं। यह आयोजन गर्मी के मौसम में किया जाता है तथा पूजा के रूप में पहाड़ के जंगल में आग लगाई जाती है। जंगल की आग आगे और आगे फैलती जाती है तथा सूखी घास-पत्तों के साथ हरी-भरी वनस्पत्तियाँ, नये उगे नन्हें पौधे, कीट-पतंगे व धीरे चलने वाले जीव-जन्तु सभी मारे जाते हैं। भूमि की नमी को काफी नुकसान पहुँचता है तथा भूमि में रहने वाले उपयोगी जीवाणु व कनक भी मारे जाते हैं। कई बार आग इतनी विषम जगह पहुँच जाती है जहाँ न तो आग बुझाने के लिये वाहन से पानी पहुँचाया जा सकता है न ही सहजता से मनुष्य पहुँच पाता है। फलतः कई दिनों तक जंगल जलता रहता है। लकड़ी के रूप में जमा कार्बन इस समय वाजिक कार्बन डाई ऑक्साइड बनकर वातावरण में पहुँच जाता है। हवा में पहुँचा यह कार्बन जलवायु के परिवर्तन हेतु उत्तरदायी है। हम सहज ही अनुमान लगा सकते है गर्मी की अनियंत्रित विनाशकारी आग में कितनी जैव विविधता का नाश होता होगा (जोशी,1995)।

मगरा पूजा के दौरान पहाड़ के जंगल में लगाईं जाने वाली आग का भीष्म रूप। (डॉ. अनिता जैन)

मधुमक्खियों का शहद परम्परागत विधि से ही संग्रह करने की परिहारी है। जब शहद जोड़ना होता है, छत्ता तोड़ने में माहिर व्यक्ति, जिसे “मामा” कहा जाता है, अपने हाल में घास-फूस का एक बत्ता सा सुलगा कर मधुमक्खियों को धुँआ कर उड़ाता है। कई बार हवा के प्रावह से छत्ता जल उठता है तथा मधुमक्खियों के झिल्लीनुमा नाजुक पंख जल जाते हैं। अब उनके लिये उड़ना संभव नहीं हो पाता एवं वे असहाय छत्ते के नीचे गिर जाती है। कई बार रात्रि को ठंडा पानी छत्ते पर उड़ेल कर मधुमक्खियों को छत्ते से हटाया जाता है। दिनचारी मधुमक्खियाँ रात में उड़ नहीं पाती है, तथा इधर-उधर गिर जाती हैं। इन सभी तरीकों से कितनी बड़ी संख्या में मधुमक्खियाँ मारी जाती हैं, हम सहज अनुमान लगा सकते हैं। यह भी सर्व विदित है यह नुकसान मानवता के लिए बड़ा नुकसान है क्योंकि मधुमक्खियाँ परागण द्वारा फल, सब्जियाँ, बीज उत्पादन करती हैं। वनों में उनकी संख्या में गिरावट आने से प्राकृतिक रूप से बीज बनने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे वनों का प्राकृतिक पुनरूद्भाव भी बाधित होता है।

महुआ वृक्ष, आदिवासी समाज में एक सम्मानित वृक्ष हैं। गर्मी के मौसम में एक लघु वन उपज के रूप में महुआ-फूल संग्रह किया जाता हैं। जब महुआ वृक्ष फूलों से लड़ जाता है, तो फूलों को आसानी से इकठ्ठा करने हेतु, वृक्ष की छाँया में पड़ी सूखी पत्तियों में आग लगा दी जाती हैं। कई जगह महुआ वृक्ष बहुत पास-पास होते हैं तथा सूखी पत्तियों की निरन्तरता वन क्षेत्र तक रहती हैं। ऐसी स्थिति में आग बढ़ती हुई जंगल तक पहुँच जाती है। प्रायः देखा जाता है, लोग महुये की पत्तियों की आग को फैलाने से नहीं रोकते। किसी पगदंडी पर यदि कौंच की फली लटकी है तो वहाँ आग लगा कर फली के रौंये से झुलसाये जाते हैं ताकि मार्ग सुरक्षित हो जाये। इस कार्य से भी जंगल में जब-तब आग फैल जाती हैं।

जंगली पक्षियों को पकड़ने का उपकरण। (डॉ. अनिता जैन)

मकर संक्रान्ति पर आदिवासी समाज की लड़कियाँ सुबह विदारी कंद (Pueraria tuberosa) की तलाश में निकल जाती है। वनों से सामूहिक रूप से एक ही दिन में बड़ी संख्या में विदारी कंदों का दोहन हो जाता है। घर लाकर इसको खाने की प्रथा है। जून माह में किसान हल्दी, अदरक, सूरण, रतालू आदि कंदीय फसलों को खेत में उगाने का कार्य करते है। इन फसलों को बीज से नहीं, कन्दों से ही उगाया जाता है। खेत में कन्द मिट्ठी में दबा कर उन पर पलाश (Butea monosperma) की पत्तियाँ तोड़ कर ढकाई का कार्य किया जाता है। इस समय फूल एवं पातड़ी पैदा कर पलाश में आई सभी नई पत्तियाँ तोड़ कर खेत में कन्द रोपाई के काम में “पत्ति मल्य” (Leaf mulch) लगाने के काम में प्रयुक्त हो जाती हैं। पलाश वृक्षों को बड़ी मात्रा में अपने पत्तियाँ खोनी पड़ती हैं। दक्षिण राजस्थान में होली का “डाँडा” रोपने हेतु सेमल की लकड़ी काम में ली जाती हैं। होली पर्व पर जंगलों से बड़ी संख्या में हरे सेमल काट कर शहरों एवं कस्बों में पहुँचाये जाते हैं। इस तरह चयनात्मक कटाई (Selective Felling) से दक्षिणी राजस्थान में सेमल वृक्ष अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है (जैन, 2009)।

Eulophia ochreata के कंद का बाजार।(डॉ. अनिता जैन)

वनों में अतिक्रमण एक बड़ी समस्या है। यह धीमी प्रक्रिया से किया जाता हैं। पहले वृक्षों के आधार पर घेरे में छाल उतारी (Girdling) जाती हैं। जब ये सूख जाते हैं, इन्हें काट कर आग के हवाले कर दिया जाता है। नदियों के तट पर यह कार्य बढ़-चढ़ कर किया जाता है क्योंकि नदि के तट पर यदि खेत बनता है तो नदि का पानी सिंचाई में प्रयोग करने की सुविधा रहती हैं। इससे नदियों के तट के “राइपेरियन वन” बर्बाद हो जाते हैं तथा नम क्षेत्र की जैव विविधताएं नष्ट हो जाती है।

कई जगह खजूर का रस निकाला जाता हैं एवं उससे ताड़ी भी बनाई जाती है। बार-बार रस निकाले जाने से खजूर की सेहत काफी खराब हो जाती है। खजूर के संग्रहित रस को पानीे बड़ी संख्या में मधुमक्खियाँ आती हैं तथा रस के घड़ों में गिर कर मर जाती हैं। कई बार इन घड़ों का रस पीने एवं मधुमक्खियों को खाने भालू भी आने लगते हैं। इस तरह भालूओं के व्यवहार में परिवर्तन होने लागता है जिससे उनका मानव से संघर्ष बढ़ने लगता हैं।

केरिया, बहते पानी में आदिवासियों द्वारा मछली पकड़ने का उपकरण। (डॉ. अनिता जैन)

आदिवासी मछलियाँ पकड़ने हेतु कई मीन विषों का उपयोग करते हैं। ये मीन विष पेड़-पौधों से प्राप्त कर ठहरे पानी में फैंके जाते हैं जिससे मछलियाँ मर कर तैरने लगती हैं। कई बार आदिवासी पानी में विस्फोटक फैंक कर मछली मारते हैं। इस प्रयास में मेंठक, पानी के साँप, कछुये एवं कई बार मगर जैसे प्राणी भी मारे जाते हैं। इन सभी विधियों से न केवल बड़ी बल्कि नन्ही-नन्ही मछलियाँ भी मारी जाती हैं एवं आने वाले वर्षों में प्रजनन लायक मछलियाँ भी नहीं बचने से उनकी संख्या में भारी गिरावट आ जाती है। इससे जलीय पक्षियों एवं मछलियों पर निर्भर करने वाले दूसरे जीवों को भी भोजन संकट से जूझना पड़ता है।

हम यदि अपने आदिवासी समुदायों को जागरूक करें तो निसंदेह उसके सकारात्मक परिणाम आयेंगे इससे उनका सदियों से प्रकृति के साथ का रिशता अटूट रहेगा।

सन्दर्भ:
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  • Katewa, S.S. & A. Jain (2006). “Traditional folk Herbal Medicines” Apex Publishing House, Jaipur Rajasthan.
  • Joshi, P.  (1995). Ethnobotany of primitive tribes in Rajasthan. Printwell, Jaipur
  • Sharma, S. (2009). Study of Biodiversity and Ethnobiology of Phulwari wildlife Sanctuary Udaipur, (Rajasthan). Ph. D. thesis, Department of Botany, M.L.S.U, Udaipur.
  • Jain, V. (2009). Myths, traditions and fate of multipurpose Bombax ceiba L. – An appraisal. IJTK 8(4):638-44.
लेखक:

Dr. Anita Jain (L): Dr. Anita Jain, is currently FES Head, Department of Botany, Vidya Bhawan Rural Institute, Udaipur. She has published several research papers in National & international journals and authored reference books.

Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.