स्परफाउल, वे जंगली मुर्गियां जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार होते हैं राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित हैं तथा इनका व्यवहार और भी ज्यादा दिलचस्प होता है…

पक्षी जगत की मुर्ग जाति में कुछ सदस्य ऐसे पाए जाते हैं जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं और इसी लक्षण की कारण इन्हे स्परफाउल (Spurfowl) कहा जाता है। स्परफाउल कहलाये जाने वाले ये पक्षी आकार में कुछ हद्द तक तीतर जैसे होते हैं परन्तु इनकी पूँछ थोड़ी लम्बी होती है। स्परफाउल को गैलोपेरडिक्स (Galloperdix) वंश में रखा गया है। इस जीनस में कुल तीन प्रजातियां हैं; रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea), पेंटेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata) और श्रीलंका स्परफाउल (Galloperdix bicalcarata)। इन तीन प्रजातियों में से दो रैड स्परफाउल और पेंटेड स्परफाउल राजस्थान में पायी जाती हैं। आइये इनके बारे में विस्तार से जानें।

“झापटा” यानी रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea):

यह एक छोटे आकार की मुर्ग प्रजाति है जो मूल रूप से भारत की ही स्थानिक (Endemic) है। यह एक एकांतप्रिय व् जंगलों में रहने वाला पक्षी है, और इसीलिए इसको सहजता से खुले में देख पाना काफी मुश्किल भी होता है। इसकी पूँछ तीतर (जो स्वयं फ़िज़ेन्ट कुल का पक्षी है) की तुलना में लंबी होती है और जब यह ज़मीन पर बैठा होता है, तो इसकी पूँछ साफ़ दिखाई देती है। हालांकि इसका पालतू मुर्गी से कोई निकट सम्बन्ध नहीं है, लेकिन भारत में इसे जंगली मुर्गा ही माना जाता है। यह लाल रंग का होता है और लम्बी पूँछ वाले तीतर की तरह लगता है। इसकी आंख के चारों ओर की त्वचा पर कोई पंख नहीं होने के कारण आँखों के आसपास नंगी त्वचा का लाल रंग दिखाई देता है। नर और मादा दोनों के पैरों में एक या दो नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं, जिनकी वजह से इनको अंग्रेज़ी नाम Spurfowl मिला है। इसके पृष्ठ भाग गहरे भूरे रंग के और अधर भाग गेरू रंग पर गहरे भूरे रंग चिह्नों से भरा होता है। नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं।

रैड स्परफाउल में नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

रेड स्परफाउल, वंश Galloperdix की टाइप प्रजाति (type species) है। इस प्रजाति को 18 वीं शताब्दी के अंत में भारत से मेडागास्कर ले जाया गया था, और फिर मेडागास्कर से ही इस पर पहली बार एक फ्रांसीसी यात्री पीर्रे सोनेरेट  (Pierre Sonnerat) द्वारा व्याख्यान दिया गया था। वर्ष 1789 में जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) ने द्वीपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए इसे “Tetrao spadiceus” नाम दिया था। गमेलिन, एक जर्मन प्रकृतिवादी, वनस्पति विज्ञानी, किट वैज्ञानिक (Entomologist), सरीसृप वैज्ञानिक (Herpatologist) थे। इन्होंने विभिन्न पुस्तकें लिखी तथा 1788 से 1789 के दौरान कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) कृत Systema Naturae का 13वां संस्करण भी प्रकाशित किया। परन्तु वर्ष 1844 में एक अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ Edward Blyth ने इसे “Galloperdix” वंश में रख दिया।

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित रैड स्परफाउल का चित्र

यह स्परफाउल मुख्यरूप से दक्षिणी राजस्थान में दक्षिण अरावली से लेकर मध्य अरावली पर्वतमाला के वन क्षेत्रों में पाया जाता है। लेखक (II) के अनुसार रैड स्परफाउल राजस्थान के लगभग 9 जिलों; उदयपुर, राजसमन्द, पाली, अजमेर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौडगढ़, सिरोही और जालौर में निश्चयात्मक रूप से उपस्थित है। इस मुर्गे की एक उप-प्रजाति जिसे अरावली रैड स्परफाउल (Aravalli Red Spurfoul Galloperdix spadicea caurina) नाम से जाना जाता है, आबू पर्वत, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, कुम्भलगढ वन्यजीव अभयारण्य एवं टॉडगढ-रावली अभयारण्यों में अच्छी संख्या में पाई जाती है। यह प्रजाति आबू पर्वत के दक्षिण में स्थित गुजरात राज्य के वन क्षेत्रो में भी कुछ दूर तक देखी जा सकती है। यह प्रजाति पहाड़ी, शुष्क और नम-पर्णपाती जंगलों में पाई जाती है। झापटा आमतौर पर तीन से पांच के छोटे समूहों में अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। जब चारों ओर घूमते हैं, तो अपनी पूंछ को कभी-कभी घरेलु मुर्गे की तरह सीधे ऊपर उठा कर रखते हैं। दिन में यह काफी चुप रहते हैं लेकिन सुबह और शाम के समय आवाज करते हैं। विभिन्न अनाजों के बीज, छोटे फल व् कीड़े इनका मुख्य भोजन हैं तथा पाचन को सही करने के लिए कभी-कभी ये छोटे कंकड़ भी खा लेते हैं। यह भोजन के लिए खुले में आना पसन्द नहीं करता है और छोटी घनी झाड़ियों में ही अपना भोजन ढूंढता है।

रैड स्परफाउलआमतौर पर अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

इनका प्रजनन काल जनवरी से जून, मुख्य रूप से बारिश से पहले होता है। यह ज़मीन पर घोंसला बना कर एक बार में 3-5 अंडे देते हैं। नर अपना जीवन एक ही मादा के साथ बिताता है जिसकी वजह से चूजों की देखरेख में उसकी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है तथा नर अन्य शिकारियों को दूर भगाता व् चूजों की रक्षा करता है। ऐसी ही एक जानकारी रज़ा एच. तहसीन (Raza H. Tehsin) ने अपने आलेख में सूचीबद्ध की थी। रज़ा एच. तहसीन, एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने उदयपुर में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया तथा उन्हें उदयपुर के “वास्को-डि-गामा” के नाम से भी जाना जाता है। रज़ा एच. तहसीन अपने आलेख में बताते हैं की “29 मई, 1982 को मैंने स्पर फॉल के दिलचस्प व्यवहार को देखा। उदयपुर के पश्चिम में एक पहाड़ी इलाके भोमट में, जो शुष्क पर्णपाती मिश्रित वन से आच्छादित है। वहां मैं बोल्डर्स और स्क्रब जंगल में ग्रे जंगल फाउल (गैलस सोनरटैटी) की तलाश कर रहा था और तभी एक मोड़ पर मुझे रेड-स्परफॉल का एक परिवार दिखा। मुझे देख नर ने अपने पंखों का शानदार प्रदर्शन करते हुए, एक बड़े बोल्डर के चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाना शुरू कर दिया। और इसी दौरान मादा चूजों को लेकर वहाँ से जाने लगी। जैसे ही मादा बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंच गयी, नर ने एक छोटी उड़ान भरी और मेरी आँखों के सामने से गायब हो गया। मैं समझ गया था की अपने चूजों को बचाने के लिए नर ने घुसपैठिये (मेरा) का ध्यान हटाने के लिए गोल चक्कर लगाने शुरू किये थे।”

पेन्टेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata):

चित्तीदार जंगली मुर्गी यानी पेन्टेड स्परफाउल अपने अंग्रेज़ी नाम के अनुसार काफ़ी रंग-बिरंगा एक छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। यह अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में छोटी झाड़ियों में देखे जाते हैं। खतरा महसूस होने के समय यह पंखों का इस्तेमाल करने के बजाये तेजी से भागना पसंद करते हैं। यह आकार में मुर्गी और तीतर के बीच होता है। नर बड़े ही चटकीले रंग के होते हैं जिनके पृष्ठ भाग गहरे और अधर भाग गेरू रंग के होते हैं तथा पूँछ काली होती है। ऊपरी भागों के पंखों पर बहुत सी छोटी-छोटी सफ़ेद बिंदियां होती हैं जिनके सिरे काले होते हैं। नर का सिर और गर्दन एक हरे रंग की चमक के साथ काले होते हैं और सफेद रंग की छोटी बिंदियो से भरे होते हैं। मादा गहरे भूरे रंग की होती है तथा इसके शरीर पर किसी भी तरह के सफेद धब्बे नहीं होते हैं। नर में टार्सस (tarsus) के पास दो से चार कांटे (spur) तथा मादा में एक या दो कांटे होते हैं।

पेन्टेड स्परफाउल एक रंग-बिरंगा छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित पेंटेड स्परफाउल का चित्रI

लेखक (II) के अनुसार यह प्रजाति दक्षिणी – पूर्वी राजस्थान की विंद्याचल पर्वतमाला की खोहों की कराईयों से लेकर पूर्वी राजस्थान में सरिस्का तक सभी वन क्षेत्रो में जगह-जगह विद्यमान है। विंद्याचल पर्वतमाला की कराईयों में पाए जाने वाले कई मंदिर परिसर जहाँ नियमित चुग्गा डालने की प्रथा है, वहाँ कई अन्य पक्षी प्रजातियों के साथ पेन्टेड स्परफाउल को भी दाने चुगते हुए देखा जा सकता है। कोटा जिले का गरडिया महादेव एक ऐसा ही जाना पहचाना स्थल हैं। सवाई माधोपुर में रणथम्भौर बाघ परियोजना क्षेत्र में मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढने पर मुख्य मार्ग के दोनों तरफ की पहाडी चट्टानों एवं पथरीले नालों में सुबह- शाम यह मुर्ग प्रजाति आसानी से देखी जा सकती है। यह बेर व् लैंटाना के रसीले फलों के साथ-साथ छोटे छोटे कीटों को खाते हैं। अक्सर जनवरी से जून तक इनका प्रजनन काल होता है परन्तु राजस्थान के कुछ हिस्सों में बारिश के बाद अगस्त में चूजों को देखा गया है। इनका घोंसला जमीन पर पत्तियों व् छोटे कंकड़ों से घिरा हुआ एक कम गहरा सा गड्डा होता है। मादा अण्डों को सेती है परन्तु दोनों, माता-पिता चूजों की देखभाल करते हैं।

उपरोक्त व्याख्या से सपष्ट है कि राजस्थान में रैड स्परफाउल और पेन्टेड स्परफउल कई जिलों में उपस्थित हैं। मुर्ग प्रजातियाँ दीमक व कीट नियत्रंण कर कृषि फसलों, चारागाहों एवं वनों की सुरक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं अतः हमें उनका संरक्षण करना चाहियें।

सन्दर्भ:
  • Anonymous (2010): Assessment of biodiversity in Sitamata Wildlife Sanctuary: An conservation perspective. Foundation for Ecological Security study report.
  • Blanford WT (1898). The Fauna of British India, Including Ceylon and Burma. Birds. Volume 4. Taylor and Francis, London. pp. 106–108.
  • Ojha, G.H. (1998): Banswara Rajya ka Itihas. (First published in 1936).
  • Ranjit Singh, M.K. (1999) : The Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Ranthambhore National Park, Rajasthan. JBNHS 96 (2): 314.
  • Reddy, G.V. (1994): Painted spurfowl in Sariska. NBWI 43 (2): 38.
  • Shankar, K. (1993) Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. JBNHS 90 (2): 289.
  • Shankar, K., Mohan , D. & Pandey, S. (1993): Birds of Sariska Tiger Reserve, Rajasthan, India. Forktail 8: 133-141.
  • Tehsin, Raza H (1986). “Red Spurfowl (Galloperdix spadicea caurina)”. J. Bombay Nat. Hist. Soc. 83 (3): 663.
  • Vyas, R (2000): Distribution of Painted spurfowl Galloperdix lunulata in Rajasthan. Mor, February 2000, 2:2.

 

लेखक:

Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.

Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.

 

Ms.Meenu Dhakad has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master's degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.