जाने, कैसे गोडावण खुद को शिकारी पक्षियों से बचाता है?

जाने, कैसे गोडावण खुद को शिकारी पक्षियों से बचाता है?

राजस्थान के सूखे रेतीले इलाकों में पाए जाने वाला गोडावण पक्षी, दुनिया का सबसे बड़े आकार का पक्षी है जो कि लगभग एक मीटर तक ऊँचा व दिखने में शुतुरमुर्ग जैसा प्रतीत होता है। अपने भारी वजन के कारण यह लम्बी दुरी तक उड़ पाने में अशक्षम होता है परन्तु यह बहुत तेजी से दौड़ सकता है। यह राजस्थान का राज्य पक्षी है तथा जैसलमेर के मरू उद्यान में सेवन घास के मैदानों में पाया जाता है। एक समय था जब यह पक्षी बड़ी संख्या में पाया जाता था, परन्तु इसके घटते आवास व् अवैध शिकार के चलते आज यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजाति है।
परन्तु इस पक्षी के जीवन का संघर्ष केवल यही तक सिमित नहीं है बल्कि कई बार इसे खुद को शिकारी पक्षियों से भी बचाना पड़ता है…

जब भी कभी गोडावण किसी शिकारी पक्षी को अपनी ओर बढ़ते देखता है…

तो ऐसे में यह खुद को बचाने के लिए तुरंत नजदीकी किसी पेड़ या झाड़ के नीचे जाकर खुद को छुपा लेता है…

और तब तक छुपा रहता है जब तक शिकारी पक्षी वहां से चला नहीं जाता

अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए यह इस पक्षी की एक रणनीति होती है

  1. Cover picture credit Mr. Nirav Bhatt
  2. Other pictures credit Dr. Dharmendra Khandal

 

 

काँटेदार झाऊ-चूहा

काँटेदार झाऊ-चूहा

शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना उद्विकास की कहानी का एक बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है। हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते।

प्रकृति में उद्विकास की प्रक्रिया के दौरान अनेक जीवों ने बदलते पर्यावास में अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए विभिन्न सुरक्षा प्रणालियों को विकसित किया है। कुछ जीवों ने सुरक्षा के लिए झुंड में रहना सीखा, तो बिना हाथ-पैर भी सफल शिकार करने के लिए सांपो ने जहर व जकड़ने के लिए मजबूत मांसपेशियाँ विकसित की। वही कुछ जीवों ने छलावरण विकसित कर अपने आप को आस-पास के परिदृश्य में अदृश्य कर लिया। शरीर के बालों को सुरक्षा के लिए कांटों में विकसित कर लेना इस उद्विकास की कहानी का बहुत ही रुचिपूर्ण पहलू है।

हड्डियों के समान बाल अवशेषी रूप में अच्छे से संरक्षित नहीं हो पाते इसी कारण यह बताना मुश्किल है की धरती पर पहला काँटेदार त्वचा वाला जीव कब अस्तित्व में आया होगा। फिर भी उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों के अनुसार फोलिडोसीरूस (Pholidocerus) नामक एक स्तनधारी जीव आधुनिक झाऊ-चूहों व अन्य काँटेदार त्वचा वाले जीवों (एकिड्ना व प्रोकुपाइन (Porcupine) जिसे हिन्दी में सहेली भी कहते है) का वंशज माना जाता है, जिसका लगभग चार करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आना ज्ञात होता है। झाऊ-चूहे वास्तव में चूहे नहीं होते अपितु छोटे स्तनधारी जीवों के अलग समूह जिन्हे ‘Erinaceomorpha कहते है से संबंध रखते है। जबकि चूहे वर्ग Rodentia से संबंध रखते है जो अपने दो जोड़ी आजीवन बढ़ने वाले आगे के incisor दाँतो के लिए जाने जाते है ।

झाऊ-चूहों में त्वचा की मांसपेशियां स्तनधारी जीवों में सबसे अधिक विकसित व सक्रिय होती है जो की खतरा होने पर काँटेदार त्वचा को फैलाकर लगभग पूरे शरीर को कांटों से ढक देती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

झाऊ-चूहे के शरीर पर पाये जाने वाले कांटे वास्तव में किरेटिन नामक एक प्रोटीन से बने रूपांतरित बाल ही होते है। यह वही प्रोटीन है जिससे जीवों के शरीर में अन्य हिस्से जैसे बाल, नाखून, सींग व खुर बनते है। किसी भी परभक्षी खतरे की भनक लगते ही ये जीव अपने मुंह को पिछले पैरो में दबाकर शरीर को “गेंद जैसी संरचना” में ढाल लेते है। इनकी त्वचा की मांसपेशियों में कुछ अनेच्छिक पेशियों की उपस्थिति यह दर्शाती है की खतरे की भनक तक लगते ही तुरंत काँटेदार गेंद में ढल जाना कुछ हद तक झाऊ-चूहों की एक उद्विकासीय प्रवृति है। यह ठीक उसी तरह है जैसे काँटा चुभने पर हमारे द्वारा तुरंत हाथ छिटक लेना। सुरक्षा की इस स्थिति में झाऊ-चूहे कई बार परभक्षी को डराने हेतु त्वचा की इन्हीं मांसपेशियों को फुलाकर शरीर का आकार बढ़ा भी लेते है व नाक से तेजी से हवा छोड़ सांप की फुफकार जैसी आवाज निकालते है।

विश्व भर में झाऊ चूहों की कुल 17 प्रजातियाँ पायी जाती है जो की यूरोप, मध्य-पूर्व, अफ्रीका व मध्य एशिया के शीतोष्ण व उष्णकटिबंधीय घास के मैदान, काँटेदार झाड़ी युक्त, व पर्णपाती वनों में वितरित है। आवास के मुताबिक शीतोष्ण क्षेत्र की प्रजातियाँ केवल बसंत व गर्मी में ही सक्रिय रहती है एवं सर्दी के महीनों में शीत निंद्रा (Hibernation) में चली जाती है। भारत में भी झाऊ चूहों की तीन प्रजातियों का वितरण ज्ञात होता है जो की पश्चिम के सूखे इलाकों से दक्षिण में तमिलनाडु व केरल तक वितरित है ।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा (Indian long-eared Hedgehog) जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते है का वैज्ञानिक नाम Hemiechinus collaris है। यह प्रजाति सबसे पहले औपनिवेशिक भारत के ब्रिटिश जीव विज्ञानी थॉमस एडवर्ड ग्रे द्वारा 1830 में गंगा व यमुना नदी के बीच के क्षेत्र से पहचानी गयी थी। इसी क्षेत्र से इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ एकत्रित किया गया था जिसका चित्रण सर्वप्रथम ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी ने “इल्लुस्ट्रेसन ऑफ इंडियन ज़ूलोजी” में किया था।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहे का सबसे पहला चित्र ब्रिटिश मेजर जनरल थॉमस हार्डविकी द्वारा बनाया गया तथा वर्ष 1832 में उनकी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” में प्रकाशित किया था। जनरल थॉमस हार्डविक (1756- 3 Mar 1835) एक अंग्रेजी सैनिक और प्रकृतिवादी थे, जो 1777 से 1823 तक भारत में थे। भारत में अपने समय के दौरान, उन्होंने कई स्थानीय जीवों का सर्वेक्षण करने और नमूनों के विशाल संग्रह बनाया। वह एक प्रतिभाशाली कलाकार भी थे और उन्होंने भारतीय जीवों पर कई चित्रों को संकलित किया तथा इन चित्रों से कई नई प्रजातियों का वर्णन किया गया था। इन सभी चित्रों को जॉन एडवर्ड ग्रे ने अपनी पुस्तक “Illustrations of Indian Zoology” (1830-35) में प्रकाशित किया था। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

यह प्रजाति मुख्यतः राजस्थान व गुजरात के शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के साथ- साथ उत्तर में जम्मू , पूर्व में आगरा, पश्चिम में सिंधु नदी, व दक्षिण में पूणे तक पायी जाती है। गहरे भूरे व काले रंग के कांटों वाली यह प्रजाति अन्य दो प्रजातियों की तुलना में आकार में बड़ी होती है। इसके कानों का आकार पिछले पैरों के आकार के बराबर होता है जिस कारण इनके कान कांटों की लंबाई से भी ऊपर दिखाई पड़ते है। झाऊ-चूहे की ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चले जाती है। हालांकि इनका शीत निंद्रा में जाना इनके वितरण के स्थानों पर निर्भर होता है क्योंकि सर्दी का प्रभाव वितरण के सभी इलाकों पर समान नहीं होता है। मरुस्थलीय झाऊ-चूहे मुख्यतः सर्वाहारी होते है जो की कीड़ों, छिपकलियों, चूहों, पक्षियों व छोटे सांपो पर भोजन के लिए निर्भर होता है। ये पके हुए फल व सब्जियाँ बिलकुल पसंद नहीं करते है ।

भारतीय लंबे कानों वाला झाऊ चूहा जिसे मरुस्थलीय झाऊ चूहा भी कहते है तथा ये प्रजाति पूर्ण रूप से मरुस्थलीय जलवायु के अनुकूल है जो सर्दियों में अकसर शीत निंद्रा में चले जाती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

मरुस्थलीय झाऊ चूहे के विपरीत भारतीय पेल झाऊ-चूहा Paraechinus mircopus आकार में थोड़ा छोटा व पीले-भूरे कांटों वाला होता है। इसके सर व आंखो के ऊपर चमकदार सफ़ेद बालों की पट्टी गर्दन तक फैली होती है जो इसे मरुस्थलीय झाऊ-चूहे से अलग पहचान देती है। यह प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर अवस्था में चली जाती है। टोर्पोर अवस्था में कोई जीव संसाधनों के अभाव की परिस्थिति में जीवित रहने के लिए अल्पावधि निंद्रा में चले जाते है एवं संसाधनों की बाहुल्यता पर पुनः सक्रिय हो जाते है। अपरिचित पर्यावास में आने पर ये प्रजाति अपने शरीर व कांटो को अपनी लार से भर लेती है। ऐसा शायद अपने इलाके को गंध द्वारा चिह्नित करने या नर द्वारा किसी मादा को आकर्षित करने के लिया हो सकता है परंतु इस व्यवहार का सटीक कारण एक शोध का विषय है। भारतीय पेल झाऊ-चूहे, मरुस्थलीय झाऊ-चूहे की तुलना में बहुत दुर्लभ ही दिखाई देते है व इनका वितरण भी सीमित इलाकों तक ही है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहे का सबसे पहला विवरण ब्रिटिश जीव विज्ञानी एडवर्ड ब्लेथ ने 1846 में दिया जब उन्होने इसका ‘टाइप स्पेसिमेन’ वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के भावलपुर क्षेत्र से एकत्रित किया था। इस प्रजाति का भौगोलिक वितरण मरुस्थलीय झाऊ-चूहे के वितरण के अलावा थोड़ा ओर अधिक दक्षिण तक फैला हुआ है जहां यह तमिलनाडु व केरल में पाये जाने वाले मद्रासी झाऊ-चूहे या दक्षिण भारतीय झाऊ-चूहे Paraechinus nudiventris से मिलता है। मद्रासी झाऊ-चूहा भारत में झाऊ चूहे की सबसे नवीनतम पहचानी गयी प्रजाति है जो पहले भारतीय पेल झाऊ-चूहे की उप-प्रजाति के रूप में जानी जाती थी। इसका सबसे पहला ‘टाइप स्पेसिमेन’ जैसा की इसके नाम से ज्ञात होता है मद्रास से ही एक ब्रिटिश जीव विज्ञानी होर्सेफील्ड ने 1851 में किया था। हालांकि ये दोनों प्रजातियाँ दिखने में काफी समान होती है परंतु मद्रासी झाऊ-चूहा अपने अधिक छोटे कानों व हल्के भूरा रंग के कारण अलग पहचाना जा सकता है। मद्रासी झाऊ-चूहे का वितरण केवल तमिलनाडु व केरल के कुछ पृथक हिस्सों से ही ज्ञात है जिससे इसे यहाँ की स्थानिक प्रजाति का दर्जा प्राप्त है। ये दोनों प्रजातियाँ मुख्यतः सर्वाहारी होती है जो की अवसर मिलने पर कीड़ो व छोटे जीवों के साथ पके हुए फल व सब्जियाँ भी चाव से खाती है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहा (Indian pale Hedgehog), प्रजाति शीत निंद्रा में नहीं जाती परंतु भोजन व पानी की कमी होने पर अकसर टोर्पोर अवस्था में चली जाती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

झाऊ–चूहे की ये तीनों प्रजातियाँ मुख्य रूप से निशाचर होती है तथा दिन का समय अपनी संकरी माँद में आराम करते ही बिताती है। इनकी माँद एक सामान्य पतली व छोटी सुरंग के समान होती है जिसे एक चूहा दूसरों के साथ साझा नहीं करता। साल के अधिकांश समय अकेले रहने वाले ये जीव केवल प्रजनन काल में ही साथ आते है जिसमें एक नर एक से अधिक मादाओं के साथ मिलन का प्रयास करता है। नर बच्चों  के पालन-पोषण में कोई भागीदारी नहीं निभाते है। कुछ लेखों के अनुसार भारतीय पेल झाऊ-चूहो में स्वजाति-भक्षिता भी पायी जाती है, जिसमें नर व मादा दोनों ही भोजन की कमी में अपने ही बच्चों को खाते देखे गए है।

भारतीय पेल झाऊ-चूहा, व्यवहार की दृष्टि से ये प्रजाति अधिक स्थानों तक प्रवास नहीं करती एवं आवास सुरक्षित होने पर कई साल तक एक ही माँद का प्रयोग कर उसके आस-पास के इलाकों में ही विचरण करती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

हालाँकि इनकी काँटेदार ऊपरी त्वचा इन्हें अधिकांश परभक्षियों से बचा लेती है फिर भी परिवेश में लोमड़ी व नेवले जैसे कुछ चालक शिकारी इन्हें अपने भोजन का मुख्य हिस्सा बनाने से नहीं चूकते। सांपो के शिकार के लिए कुख्यात नेवले इन छोटे काँटेदार जीवों को भी आसानी से शिकार बना लेते है। फ़ौना ऑफ ब्रिटिश इंडिया के एक लेख में जीव विशेषज्ञ ई -ऑ ब्रायन अपने एक अवलोकन के बारे में बताते है जिसमें एक भारतीय नेवला गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट कर उसके बन्द मुंह के हिस्से पर तब तक वार करता है जब तक उसे शरीर का कोई हिस्सा पकड़ में नहीं आता। काफी लंबे चलते इस संघर्ष के अंत में उसे झाऊ चूहे का मुंह पकड़ में आ ही जाता है व उसे पास के झाड़ी में ले जाकर खाने लगता है।

मरुस्थलीय परिवेश में लोमड़ी द्वारा झाऊ-चूहे के शिकार की प्रक्रिया संबंधी एक किंवदंती बहुत प्रचलित है। इसके अनुसार चालक लोमड़ी गेंद बने झाऊ-चूहे को पलट उसके बन्द मुंह के हिस्से पर पेशाब कर देती है। मूत्र की गंदी महक से निजात पाने झाऊ-चूहा जैसे ही अपनी नाक को हल्का सा बाहर निकलता है, लोमड़ी झट से उसे पकड़ लेते है व खींच कर उसे काँटेदार चमड़ी से अलग कर देती है। हालांकि इस किंवदंती सटीकता पर चर्चा की जा सकती है लेकिन लोमड़ियों की मांदों के आस-पास अकसर दिखने वाले काँटेदार चमड़ी के ढेर सारे अवशेष लोमड़ी के भोजन में झाऊ चूहो की प्रचुरता को स्पष्ट जरूर करते है। झाऊ चूहो की इन भारतीय प्रजातियों की पारिस्थितिकी व व्यवहार संबंधित जानकारी बहुत ही सीमित है इसी कारण संरक्षण हेतु इनके वितरण व व्यवहार पर अधिक शोध की आवश्यकता है।

 

रसेल्स वाइपर में नर संग्राम

रसेल्स वाइपर में नर संग्राम

रसेल्स वाईपर, भारत के सबसे खतरनाक 4 साँपों में से एक। दो नर सांप संग्राम नृत्य का प्रदर्शन करते हैं जिसमें वह एक दूसरे के चारों ओर लिपटकर एक दूसरे को वश में करने के लिए अपने ऊपरी शरीर को उठाते हैं, जिसे देखकर यह प्रतीत होता है की वह ‘नृत्य’ कर रहे हैं।

दिनांक: 30. 10 .2020

समय: 4.13 बजे

तापमान: 29 से 30 डिग्री सें

स्थान: कुतलपुरा गाँव के पास, शेरबाग कैंप सवाई माधोपुर रणथंभौर बाघ रिजर्व के बाहर

निवास स्थान.. झाड़ियों के साथ घास का मैदान

सांप की लंबाई: न्यूनतम 4.5 से 5 फीट

शेरबाग कैंप के कुछ कर्मचारियों ने लम्बी घासों के बीच दो साँपों को एक-दूसरे से साथ लहराते हुए देखा, मानों जैसे वो आपस में लड़ रहे हो और उन्होंने तुरंत कैंप के प्रकृतिवादी को बुलाया। जैसा की सांप लम्बी-लम्बी घास के बीच में थे, प्रकृतिवादी उन्हें अजगर समझ कर उनकी ओर बढ़ा। रसेल्स वाइपर को आमतौर पर गलती से अजगर समझ लिया जाता है।

क्योंकि, संजना कपूर, हमीर थापर और प्रकृतिवादी पियूष चौहान भी साँपों को देख रहे थे, मैंने एक किनारे से देखा की … दोनों सांप धीरे-धीरे लहराते, नाचते हुए लगभग 5 फीट तक ऊपर उठ रहे थे परन्तु उनका निचला भाग मानों एकदूसरे के साथ बंधा हुआ हो। उनका शरीर या पूँछ आपस में उलझा या लिपटा हुआ नहीं था और जैसे शरीर का ऊपरी भाग लहराता निचला भाग बंधा सा रहता। दोनों सापों में किसी भी प्रकार की आक्रामकता और एक दूसरे के छूने से धक्का-मुक्की नहीं थी। मेरा मानना है की वह एक संभोग आलिंगन में लहरा रहे थे। शाम 4:44 बजे वे बंधी स्थिति में ही एक झाड़ी में गायब हो गए। एक सांप की पूंछ लगभग 4 इंच लंबी होती है तथा किसी भी स्तर पर दोनों सापों का निचला भाग और पूंछ अलग नहीं हुई।

मुझे उन पूंछों को देखकर आधे रास्ते में एहसास हुआ कि ये अजगर नहीं बल्कि घातक रसेल्स वाइपर थे। बाद में क्षेत्र के विशेषज्ञों के साथ चर्चा करने पर हमने महसूस किया कि यह दो नरों के बीच का मुकाबला था तथा मादा शायद कहीं पास से देख रही थी। परन्तु यह हमारे लिए बहुत ही उल्लेखनीय अवलोकन था।

रसेल्स वाईपर, भारत के सबसे खतरनाक 4 साँपों में से एक है तथा यह बहुत ही विषैला होता है और यह सीधे बच्चों को जन्म देता हैं।

 

लेखक: श्री वाल्मीक थापर

समीक्षक: श्री वाल्मीक थापर, श्री हमीर थापर, श्रीमती संजना कपूर, श्री पीयूष चौहान

फोटो: श्रीमती संजना कपूर

श्री हमीर थापर और श्री पीयूष चौहान द्वारा फिल्माया गया

 

रसेल्स वाइपर में नर संग्राम

Russell’s Viper Male Combat Dance

Russell’s viper, one among the four venomous snake species of India, shows a mesmerizing combat dance in two male snakes perform the ‘dance’ by wrapping around each other and raising their upper bodies in an attempt to subdue each other.

Date  30. 10 .2020

Time 4.13pm

Temperatures  29 to 30 degree c

Location..Near Kutalpura village,  Sherbagh camp  Sawai Madhopur  outside Ranthambhore tiger reserve

Habitat..thick grassland with bushes

Length of snakes…4.5 to 5ft minimum

Staff workers noticed two snakes swaying as if fighting and call the camp naturalist…As the snakes were in high grass he mistakes them for pythons and approaches snakes( Russell’s Vipers are commonly mistaken for Pythons)….I observe from the edge as Sanjna Kapoor, Hamir  Thapar and Piyush watch snakes that are gently swaying and dancing…they move 5ft on human approach but lower sections seem locked. Tails or bodies not entangled or coiled together and as upper section sways lower section remains locked..there is no aggression and no pushing of bodies to touch each other. I believe it is swaying in a mating embrace. At 4.44 pm they vanish into a bush in the locked position. One snake tail is 4 inches longer.

At no stage did the tails of the snake and lower section seperate.  I realised halfway through looking at the tails that these were deadly Russell’s Vipers and not pythons.

Later on discussions with experts in the field we realised that this was combat between two males..the female was probably nearby watching. A remarkable encounter.

 

Author: Mr. Valmik Thapar

Seen by:

Mr. Valmik Thapar, Mr. Hamir Thapar, Mrs. Sanjna Kapoor and Mr. Piyush Chauhan

Photographed By: Mrs. Sanjna Kapoor

Filmed By: Mr. Hamir Thapar and Mr. Piyush Chauhan