Hamir – The Fallen Prince of Ranthambhore

Hamir – The Fallen Prince of Ranthambhore

यह पुस्तक श्री अर्जुन आनंद द्वारा लिखित एक कॉफी टेबल फोटोग्राफी पुस्तक है जो विश्व प्रसिद्ध रणथंभौर नेशनल पार्क के लोकप्रिय बाघों की तस्वीरों व् उनके जीवन को साझा करती है तथा इस पुस्तक में स्थानीय लोगों के बीच “हमीर (T104)” नाम से प्रसिद्ध बाघ पर विशेष ध्यान दिया गया है। हमीर एक शानदार जंगली बाघ है, जो रणथम्भौर उद्यान में पैदा हुआ है, लेकिन तीन मनुष्यों को जान से मार देने के कारण एक मानव-भक्षक घोषित किया गया तथा आजीवन कारावास में बंद कर दिया गया। इस पुस्तक में 160 से अधिक तस्वीरें हैं। हालांकि, विशेषरूप से इस पुस्तक का केंद्र बाघ हमीर और रणथम्भौर के अन्य बाघ हैं परन्तु यह उद्यान की व्यापक झलक भी प्रदान करती है। यह रणथम्भौर के वन्य जीवन के बारे में जानने व रुचि रखने वालों के लिए एक अच्छा दस्तावेज रहेगा।

बाघ हमीर (T104) (फोटो: श्री अर्जुन आनंद)

 

रणथम्भौर का प्रसिद्ध बाघ हमीर (T104) (फोटो: श्री अर्जुन आनंद)

अर्जुन आनंद, एक भारतीय फ़ोटोग्राफ़र हैं। वह दुनिया के विभिन्न देशों में यात्रा करते हैं और लोगों व् प्राकृतिक परिदृश्यों की तस्वीरें खींचते हैं, लेकिन वन्यजीवों के प्रति यह सबसे अधिक भावुक हैं। इन्हें वन्यजीवों के साथ हमेशा से ही लगाव रहा है। इसकी शुरुआत 1980 के दशक में बांधवगढ़ नेशनल पार्क की यात्राओं से हुई जब वे अपने परिवार के साथ वहां घूमने जाते थे।

हमीर पुस्तक के लेखक “श्री अर्जुन आनंद”

अर्जुन अपने काम के साथ लगातार नए प्रयोग करते रहते हैं, जिसमें से कुछ वबी-सबी जापानी सिद्धांत, मिनिमैलिस्म के सिद्धांत (Principles of minimalism) है। ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें इनकी प्रथम पसंद हैं क्यूंकि इस प्रकार की तस्वीरों में रंगों की बाधा नहीं होती तथा दर्शक विषय के साथ बेहतर जुड़ने में सक्षम होते हैं। यहां तक ​​कि प्रकृति से घिरे जंगल में भी, अर्जुन दर्शकों के लिए एक भावनात्मक अनुभव बनाने के लिए जीवन की स्थिरता और शांति को फोटोग्राफ करते हैं।

 

 

 

 

 

 

THE UNTAMED: RANTHAMBHORE | JHALANA

THE UNTAMED: RANTHAMBHORE | JHALANA

This book is majorly based on Abhikram’s photography expeditions to Ranthambhore Tiger Reserve and Jhalana Leopard Reserve, and the time that he spent with individual tigers and leopards. This book was written by Abhikram during the lockdown, and after 5 months of restless efforts, it is available in the market. This book aims to give detailed explanations of different flora and fauna of Ranthambhore and Jhalana through its exquisite pictures.

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

This book also includes details about the different behavioural aspects of tigers and leopards. This book will be an excellent document to have for all the wildlife enthusiasts, especially for the ones who want to know about Ranthambhore’s tigers and Jhalana’s urban leopards.

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

Abhikram Shekhawat is a 17-year-old wildlife photographer and a student studying in 12th grade in Jayshree Periwal International School. He has been fond of wildlife since the tender age of 4, and has been particularly enthusiastic about tigers of Ranthambhore. With time his passion for wildlife increased and he got involved in wildlife photography, and started taking part in various photo contests.

 Mr. Abhikram Shekhawat

He won ‘Junior Photographer of the Year’ at Nature’s Best Photography Asia 2020 and ‘Second Runner-up’ in Young Photographer category at Nature InFocus Photography competition. It all started when he was 3 years and went to Ranthambhore for the first time. It was a jaw dropping view for him when he had a close encounter with tiger for the first time. It was a tigress “machhli” from the woods of Ranthambhore national park that sparked his interest in wildlife.

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

The first safari in Jhalana was a gift to Abhikram from a closed one, when he was 13. Since then he started going there every year to quench his thirst for wildlife behaviour. He saw 4 leopards there and enjoyed wildlife photography and started collecting some good photographs for his wildlife photography exhibition.

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

Abhikram very well realised that his curiosity about wildlife is a never ending thirst. He started spending more time in Jhalana and Ranthambhore. Wildlife photography demand a lot of time and patience and sometimes he had to wait for hours just to take a single good shot. Abhikram also got to learn about the behaviour of tigers, leopards and other wild animals among which tigers of Ranthambhore excites him more. He finds himself lucky to have the opportunity to know about tigers, their family and their behaviour.

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

The Untamed book by Abhikram Shekhawat beautifully depicts the wildlife of Jhalana and Ranthambhore, especially the tigers and leopards and their behaviour.

 

 

 

THE UNTAMED: RANTHAMBHORE | JHALANA

THE UNTAMED: RANTHAMBHORE | JHALANA

यह पुस्तक अभिक्रम शेखावत के 4 सालों के रणथम्भौर नेशनल पार्क व झालाना लेपर्ड पार्क के वन्यजीव फोटोग्राफी के अनुभव को साझा करती है | यह किताब इनके द्वारा लॉकडाउन समय के दौरान लिखी गयी व् 5 माह के अथक प्रयास के बाद बाजार में उपलब्ध है| इस किताब में रणथम्भौर के सभी वन्यजीवों का विस्तृत विवरण फोटोग्राफी के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है व झालाना के सभी लेपर्ड का विस्तृत विवरण किया गया है |

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

इस पुस्तक में टाइगर व लेपर्ड के व्यवहार व प्रततरूप को भी समायोजित किया गया है यह किताब झालाना व रणथम्भौर के वन्य जीवन के बारे में जानने व रुचि रखने वालों के लिए एक अच्छा दस्तावेज रहेगा|

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

अभिक्रम शेखावत, 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र हैं जिनकी शिक्षा जेपीआईएस(जयश्री पेरीवाल इंटरनेशनल स्कूल) जयपुर, में पढ़ने वाले छात्र हैं व 17 वर्षीय वन्यजीव फोटोग्राफर भी है |
वह 4 वर्ष की उम्र से ही वन्यजीवों के लिए उत्साहहत रहे हैं उन्हें प्रकृतत से ववशेर्षत रणथम्भौर नेशनल पाकक के वन्यजीवों से बहुत लगाव हो गया | समय के साथ-साथ फोटोग्राफी के प्रति उनका जूनून व्प्र उत्सुकता बढ़ती गयी और उन्होंने फोटोग्राफी प्रतियोगिताओ में भाग लेना शुरू कर दियाI

Mr. Abhikram Shekhawat

उन्होंने “Junior Photographer of the year’ Nature’s Best Photography Asia 2020 से व Second Runner up Young Photographer श्रेणी में Nature In Focus Photography Awards 2020 से जीता है| इन्हें वन्य जीवों के साथ लगाव शुरू से ही रहा। इसकी शुरुआत रणथम्भौर की पहली यात्रा से हुई जब यह 3 वर्ष के थे| जब उन्होंने पहली बार एक टाइगर को बहुत ही कम दूरी से देखा तो यह नजारा देखकर आश्चर्यचकित रह गए| यह रणथम्भौर अभ्यारण्य की मछली (बाघिन) थी उस पल ने इन पर वन्यजीवों के प्रति उत्साह को और जागृत कर दिया| वह हर वर्ष वन्यजीवों व प्रकृति के प्रति अपनी जानने की जिज्ञासा को शांत करने के लिए झालाना व रणथम्भौर जाने लगे।

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

जब अभिक्रम 13 वर्ष के थे तो उनके रिश्तेदार ने उन्हें झालाना की सफारी करवाई। जो की इनके लिए एक उपहार थी। वहा पर इन्होंने चार लेपर्ड को देखा व वन्यजीव फोटोग्राफी का आनंद लिया वह कुछ चुनिंदा तस्वीरों को अपने फोटो संग्रहालय के लिए संगृहीत किया। अभिक्रम ने और अधिक समय रणथम्भौर व झालाना अभ्यारण्य में बिताना शुरू किया। वन्यजीवों की फोटोग्राफी करते समय कई बार कई जगहों पर बहुत ही धैर्य पूर्वक समय व्यतीत करना पड़ता था फोटोग्राफी के दौरान टाइगर्स व लेपर्ड्स की प्रजातियों का उनके व्यवहार के बारे में उन्होंने अध्ययन किया है रणथम्भौर के टाइगर्स ने इन्हें हमेशा रोमांचित किया। इन्हें टाइगर्स की पौराणणक वंशावली और उनके व्यवहार के तरीकों के बारे में नजदीक से देखने में अपने कैमरे में कैद करने का अविस्मरणीय मौका मिला। इन्होंने झालाना के लेपर्ड्स के बारे में भी विस्तृत अध्ययन किया।

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

“The Untamed” नामक बुक में इन्होंने वन्यजीवों विशेषकर टाइगर व लेपर्ड्स को फोटोग्राफी व लिखित वर्णन के माध्यम से उनके व्यवहार को दिखाने का प्रयास किया है।

 

 

ग्रेटर हूपु लार्क: तपते मरुस्थल का शोमैन

ग्रेटर हूपु लार्क: तपते मरुस्थल का शोमैन

ग्रेटर हूपु लार्क, रेगिस्तान में मिलने वाली एक बड़े आकार की लार्क, जो उड़ते समय बांसुरी सी मधुर आवाज व् खूबसूरत काले-सफ़ेद पंखों के पैटर्न, भोजन खोजते समय प्लोवर जैसी दौड़ और खतरा महसूस होने पर घायल होने के नाटक का प्रदर्शन करती है। इस के व्यवहार को देखने पर लगेगा जैसे आप कोई शानदार नाटक देख रहे हो।

ग्रेटर हूपु लार्क, एक छोटा पेसेराइन पक्षी जिसे राजस्थान की तेज गर्मी में झुलसते रेगिस्तान में रहना पसंद आता है तथा वर्षा ऋतू के आगमन के साथ ही इसका प्रजनन काल शुरू हो जाता है, जिसमें नरों द्वारा एक ख़ास प्रकार की उड़ान का प्रदर्शन किया जाता है नर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करते हुए धीमी गति में उड़ते हैं और इसी आवाज के कारण इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है। इस पक्षी को “लार्ज डेजर्ट लार्क” के नाम से भी जाना जाता है, परन्तु यह एक बेहद चतुर पक्षी होता है जो शिकारी को देखते ही उसे भर्मित करने के लिए घायल होने का नाटक कर ज़मीन पर गिर जाता है। रेगिस्तानी पर्यावास में जब यह ज़मीन पर होता है तो इसे देख पाना मुश्किल है क्योंकि इसके शरीर का रेतीला-भूरा रंग इसे परिवेश में छलावरण करने में मदद करता है, परन्तु जब यह उड़ान भरता है तो इसके पंखों के काले-सफ़ेद रंग के पैटर्न से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसके पंखो का यह पैटर्न किसी भी अन्य लार्क प्रजाति से अद्वितीय है। अपनी लम्बी टांगों से तेजी से एक प्लोवर की तरह भागते हुए अपनी छोटी, पतली व् तीखी चोंच से यह मिटटी को खोद कर तो कभी खुरच कर छोटे कीटों को ढूंढ अपना शिकार बनाते हैं।

निरूपण (Description):

ग्रेटर हूपु लार्क, “Alaudidae” परिवार का सदस्य है, इसका वैज्ञानिक नाम Alaemon alaudipes है जो एक ग्रीक भाषा के शब्द alēmōn से लिया गया है तथा इसका अर्थ “घुमक्कड़” होता है। पहले इसे Upupa और Certhilauda जीनस में रखा गया था परन्तु वर्ष 1840 में बाल्टिक जर्मन भूवैज्ञानिक व् जीवाश्म वैज्ञानिक “Alexander Keyserling” और जर्मन जीव वैज्ञानिक “Johann Heinrich Blasius” द्वारा Alaemon जीनस बनाया गया तथा इसे इसमें रखा गया।

ग्रेटर हूपु लार्क का चित्र (Nicolas, H. 1838)

ग्रेटर हूपु लार्क को शुष्क व् अर्ध-शुष्क मरुस्थलीय परिवेश में रहना पसंद होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

यह लार्क आकार में बाकि लार्क प्रजातियों से अपेक्षाकृत बड़ी होती है। शरीर का ऊपरी भाग रेतीला-भूरा और अंदरूनी भाग सफ़ेद-क्रीम होता है। इसके पैर लम्बे व् इसकी चोंच पतली-लम्बी और हल्की सी नीचे की ओर घुमावदार होती है। इसके चेहरे पर चोंच के आधार से होते हुए आँखों के पास से एक काली रेखा निकलती है तथा आँखों पर सफ़ेद भौंहें होती है। छाती के पास कुछ काले धब्बे होते हैं। उड़ते समय इसके सफ़ेद किनारों वाले काले पंखों का पैटर्न और बाहरी काले पंख वाली सफ़ेद पूँछ स्पष्ट दिखाई देता है। नर व् मादा दोनों दिखने में लगभग समान होते हैं, हालांकि मादा, नर की तुलना में छोटी होती हैं और छाती पर काले धब्बे कम होते हैं।

उड़ते समय इसके पंखो पर काले-सफ़ेद रंग का पैटर्न स्पष्ट दिखाई देते है जिसके कारण इसको तुरंत पहचाना जा सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

बहुत ही व्यापक वितरण होने के कारण इसकी कई आबादी पायी जाती हैं जिन्हें चार उप-प्रजाति के रूप में नामित किया गया है, तथा भारत में Eastern greater hoopoe-lark (A. a. doriae) उप-प्रजाति पायी जाती है जो राजस्थान व् गुजरात में ही पायी जाती है। राजस्थान में यह थार रेगिस्तान के रेट के टीलों, शुष्क व् अर्ध-शुष्क छोटी झाड़ियों वाले खुले इलाकों में पायी जाती है। ग्रेटर हूपु लार्क रेगिस्तानी, अत्यंत गर्म व् शुष्क वातावरण में पाया जाता है, और यह 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में जीवित रहने में सक्षम है। क्योंकि प्रकृति ने इसे इस वातावरण में रहने के लिए अनुकूलन प्रदान किया है। इसकी लम्बी टाँगे इसके शरीर को गर्म ज़मीन से ऊपर रखती हैं और अधर भाग का सफ़ेद रंग जमीन की गर्मी को वापस प्रतिबिंबित करता है। चीते की तरह इसकी आँखों के पास लम्बी काली रेखा होती है। गर्मियों में कभी-कभी जब सतह का तापमान असहनीय हो जाता है, तो ऐसे में ग्रेटर हूपु लार्क खुद को पानी की कमी होने से बचाने के लिए सांडा छिपकली के बिल में छुप जाती है। छिपकली शाकाहारी होती है इसलिए इसे किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता है।

व्यवहार एवं पारिस्थितिकी (Behaviour and ecology):

राजस्थान के थार रेगिस्तान में ग्रेटर हूपु लार्क को अकेले या जोडों में भोजन की तलाश करते हुए देखा जा सकता है, जहाँ ये टहलते, दौड़ते व् उछलते-कूदते हुए जमीन को अपनी छोटी चोंच से खोदते हुए विचरण करते हैं। यह छोटे कीटों, छिपकलियों और विभिन्न प्रकार के बीजों को खाते हैं तथा इन्हें कवक (Fungi) को खाते हुए देखा गया है। घोंघों का खोल तोड़ने के लिए, कई बार इसे घोंघों को ऊपर से किसी सख्त सतह पर गिराते या फिर उन्हें लगातार किसी पत्थर पर पीटते हुए भी देखा गया है। जीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल ने अपने एक आलेख में इसके द्वारा “डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis)” के शिकार किये जाने के एक की घटना की व्याख्या की है।

यह जमीन को खोद कर छोटे कीटों को अपना शिकार बनाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)

इनका प्रजनन काल मुख्यरूप से पहली बारिश के बाद लगभग मार्च से जुलाई माह तक रहता हैं। कई बार देर से बारिश आने पर अगस्त में भी इनका प्रजनन देखा गया है। प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं, जिसमें वह धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। नर लगभग 15 – 20 फीट तक ऊपर जाते हैं, और फिर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज की एक श्रृंखला के साथ धीरे-धीरे नीचे की ओर आते हैं तथा एक छोटी झाडी पर बैठ जाता है। धीमी गति में उड़ते समय जो बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करने के कारण ही इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है।

प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इस ख़ास उड़ान में नर धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

छोटी टहनियों से बना हुआ इसका घोंसला एक कप के आकार का होता है जो छोटी झाड़ी के नीचे व् कभी-कभी ज़मीन पर ही रखा होता है। इसके चूज़े बहुत ही तेजी से बड़े होते हैं तथा उड़ना सीखने से पहले ही इनको इधर-उधर भागते हुए देखा जा सकता है। ज़मीन पर घोंसला व् चूज़ों का चंचल स्वभाव होने के कारण इनको कई प्रकार के शिकारी जीवों जैसे की छिपकली, गीदड़, लोमड़ी, चूहे और सांप का सामना करना पड़ता है। जब भी हूपु लार्क किसी प्रकार के शिकारी को अपने घोंसले की ओर बढ़ते देखती है, तो वह शिकारी को विचलित करने के लिए घायल या चोट का नाटक करती है। घोंसले से थोड़ी दूर पर ये ऐसे फड़फड़ाती है जैसे वह उड़ नहीं सकती, इस परिस्थिति में शिकारी को यह एक आसान शिकार महसूस होती है और शिकारी घोसले को छोड़ इसकी और बढ़ता है। शिकारी को पास आता देख यह कुछ दूर उड़ कर फिर से नीचे गिर जाती है और शिकारी इसको पकड़ पाने के विश्वास में उसकी और बढ़ता रहता है। ऐसा कई बार होता है और जब लार्क शिकारी को घोसले से दूर ले जानें सफल हो जाती है तो तुरंत उड़ कर वापिस घोंसले के पास आ जाती है।

ग्रेटर हूपु लार्क में नर व् मादा दोनों ही चूजों की देख-रेख में बराबर भूमिका निभाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)

संरक्षण स्थिति (Conservation status):

ग्रेटर हूपु लार्क की वैश्विक आबादी निर्धारित नहीं की गई है परन्तु इसकी आबादी का चलन कम होता दिखाई दे रहा है क्योंकि इसकी पूरी वितरण सीमा में इसके सामान्य से असामान्य होने की सूचनाएं मिली हैं। इसका विस्तार बहुत ही व्यापक है तथा अन्य मापदंडों के अनुसार अभी यह संकटग्रस्त होने की सीमा रेखा से कोसों दूर है। इसीलिए इसे IUCN द्वारा Least Concern श्रेणी में रखा गया है।

तो इस बार वर्षा ऋतू में राजस्थान आइये और इसकी मधुर आवाज व् उड़ान की खूबसूरती को देख पाने की कोशिश कीजिये।

सन्दर्भ:
  • Nicolas, H. 1838. Nouveau recueil de planches coloriées d’oiseaux. Vol III
  • Oates, EW (1890). Fauna of British India. Birds. Volume 2. Taylor and Francis, London. pp. 316–318.

 

 

 

 

स्परफाउल: राजस्थान में मिलने वाली जंगली मुर्गियां

स्परफाउल: राजस्थान में मिलने वाली जंगली मुर्गियां

स्परफाउल, वे जंगली मुर्गियां जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार होते हैं राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित हैं तथा इनका व्यवहार और भी ज्यादा दिलचस्प होता है…

पक्षी जगत की मुर्ग जाति में कुछ सदस्य ऐसे पाए जाते हैं जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं और इसी लक्षण की कारण इन्हे स्परफाउल (Spurfowl) कहा जाता है। स्परफाउल कहलाये जाने वाले ये पक्षी आकार में कुछ हद्द तक तीतर जैसे होते हैं परन्तु इनकी पूँछ थोड़ी लम्बी होती है। स्परफाउल को गैलोपेरडिक्स (Galloperdix) वंश में रखा गया है। इस जीनस में कुल तीन प्रजातियां हैं; रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea), पेंटेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata) और श्रीलंका स्परफाउल (Galloperdix bicalcarata)। इन तीन प्रजातियों में से दो रैड स्परफाउल और पेंटेड स्परफाउल राजस्थान में पायी जाती हैं। आइये इनके बारे में विस्तार से जानें।

“झापटा” यानी रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea):

यह एक छोटे आकार की मुर्ग प्रजाति है जो मूल रूप से भारत की ही स्थानिक (Endemic) है। यह एक एकांतप्रिय व् जंगलों में रहने वाला पक्षी है, और इसीलिए इसको सहजता से खुले में देख पाना काफी मुश्किल भी होता है। इसकी पूँछ तीतर (जो स्वयं फ़िज़ेन्ट कुल का पक्षी है) की तुलना में लंबी होती है और जब यह ज़मीन पर बैठा होता है, तो इसकी पूँछ साफ़ दिखाई देती है। हालांकि इसका पालतू मुर्गी से कोई निकट सम्बन्ध नहीं है, लेकिन भारत में इसे जंगली मुर्गा ही माना जाता है। यह लाल रंग का होता है और लम्बी पूँछ वाले तीतर की तरह लगता है। इसकी आंख के चारों ओर की त्वचा पर कोई पंख नहीं होने के कारण आँखों के आसपास नंगी त्वचा का लाल रंग दिखाई देता है। नर और मादा दोनों के पैरों में एक या दो नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं, जिनकी वजह से इनको अंग्रेज़ी नाम Spurfowl मिला है। इसके पृष्ठ भाग गहरे भूरे रंग के और अधर भाग गेरू रंग पर गहरे भूरे रंग चिह्नों से भरा होता है। नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं।

रैड स्परफाउल में नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

रेड स्परफाउल, वंश Galloperdix की टाइप प्रजाति (type species) है। इस प्रजाति को 18 वीं शताब्दी के अंत में भारत से मेडागास्कर ले जाया गया था, और फिर मेडागास्कर से ही इस पर पहली बार एक फ्रांसीसी यात्री पीर्रे सोनेरेट  (Pierre Sonnerat) द्वारा व्याख्यान दिया गया था। वर्ष 1789 में जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) ने द्वीपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए इसे “Tetrao spadiceus” नाम दिया था। गमेलिन, एक जर्मन प्रकृतिवादी, वनस्पति विज्ञानी, किट वैज्ञानिक (Entomologist), सरीसृप वैज्ञानिक (Herpatologist) थे। इन्होंने विभिन्न पुस्तकें लिखी तथा 1788 से 1789 के दौरान कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) कृत Systema Naturae का 13वां संस्करण भी प्रकाशित किया। परन्तु वर्ष 1844 में एक अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ Edward Blyth ने इसे “Galloperdix” वंश में रख दिया।

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित रैड स्परफाउल का चित्र

यह स्परफाउल मुख्यरूप से दक्षिणी राजस्थान में दक्षिण अरावली से लेकर मध्य अरावली पर्वतमाला के वन क्षेत्रों में पाया जाता है। लेखक (II) के अनुसार रैड स्परफाउल राजस्थान के लगभग 9 जिलों; उदयपुर, राजसमन्द, पाली, अजमेर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौडगढ़, सिरोही और जालौर में निश्चयात्मक रूप से उपस्थित है। इस मुर्गे की एक उप-प्रजाति जिसे अरावली रैड स्परफाउल (Aravalli Red Spurfoul Galloperdix spadicea caurina) नाम से जाना जाता है, आबू पर्वत, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, कुम्भलगढ वन्यजीव अभयारण्य एवं टॉडगढ-रावली अभयारण्यों में अच्छी संख्या में पाई जाती है। यह प्रजाति आबू पर्वत के दक्षिण में स्थित गुजरात राज्य के वन क्षेत्रो में भी कुछ दूर तक देखी जा सकती है। यह प्रजाति पहाड़ी, शुष्क और नम-पर्णपाती जंगलों में पाई जाती है। झापटा आमतौर पर तीन से पांच के छोटे समूहों में अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। जब चारों ओर घूमते हैं, तो अपनी पूंछ को कभी-कभी घरेलु मुर्गे की तरह सीधे ऊपर उठा कर रखते हैं। दिन में यह काफी चुप रहते हैं लेकिन सुबह और शाम के समय आवाज करते हैं। विभिन्न अनाजों के बीज, छोटे फल व् कीड़े इनका मुख्य भोजन हैं तथा पाचन को सही करने के लिए कभी-कभी ये छोटे कंकड़ भी खा लेते हैं। यह भोजन के लिए खुले में आना पसन्द नहीं करता है और छोटी घनी झाड़ियों में ही अपना भोजन ढूंढता है।

रैड स्परफाउलआमतौर पर अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

इनका प्रजनन काल जनवरी से जून, मुख्य रूप से बारिश से पहले होता है। यह ज़मीन पर घोंसला बना कर एक बार में 3-5 अंडे देते हैं। नर अपना जीवन एक ही मादा के साथ बिताता है जिसकी वजह से चूजों की देखरेख में उसकी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है तथा नर अन्य शिकारियों को दूर भगाता व् चूजों की रक्षा करता है। ऐसी ही एक जानकारी रज़ा एच. तहसीन (Raza H. Tehsin) ने अपने आलेख में सूचीबद्ध की थी। रज़ा एच. तहसीन, एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने उदयपुर में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया तथा उन्हें उदयपुर के “वास्को-डि-गामा” के नाम से भी जाना जाता है। रज़ा एच. तहसीन अपने आलेख में बताते हैं की “29 मई, 1982 को मैंने स्पर फॉल के दिलचस्प व्यवहार को देखा। उदयपुर के पश्चिम में एक पहाड़ी इलाके भोमट में, जो शुष्क पर्णपाती मिश्रित वन से आच्छादित है। वहां मैं बोल्डर्स और स्क्रब जंगल में ग्रे जंगल फाउल (गैलस सोनरटैटी) की तलाश कर रहा था और तभी एक मोड़ पर मुझे रेड-स्परफॉल का एक परिवार दिखा। मुझे देख नर ने अपने पंखों का शानदार प्रदर्शन करते हुए, एक बड़े बोल्डर के चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाना शुरू कर दिया। और इसी दौरान मादा चूजों को लेकर वहाँ से जाने लगी। जैसे ही मादा बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंच गयी, नर ने एक छोटी उड़ान भरी और मेरी आँखों के सामने से गायब हो गया। मैं समझ गया था की अपने चूजों को बचाने के लिए नर ने घुसपैठिये (मेरा) का ध्यान हटाने के लिए गोल चक्कर लगाने शुरू किये थे।”

पेन्टेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata):

चित्तीदार जंगली मुर्गी यानी पेन्टेड स्परफाउल अपने अंग्रेज़ी नाम के अनुसार काफ़ी रंग-बिरंगा एक छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। यह अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में छोटी झाड़ियों में देखे जाते हैं। खतरा महसूस होने के समय यह पंखों का इस्तेमाल करने के बजाये तेजी से भागना पसंद करते हैं। यह आकार में मुर्गी और तीतर के बीच होता है। नर बड़े ही चटकीले रंग के होते हैं जिनके पृष्ठ भाग गहरे और अधर भाग गेरू रंग के होते हैं तथा पूँछ काली होती है। ऊपरी भागों के पंखों पर बहुत सी छोटी-छोटी सफ़ेद बिंदियां होती हैं जिनके सिरे काले होते हैं। नर का सिर और गर्दन एक हरे रंग की चमक के साथ काले होते हैं और सफेद रंग की छोटी बिंदियो से भरे होते हैं। मादा गहरे भूरे रंग की होती है तथा इसके शरीर पर किसी भी तरह के सफेद धब्बे नहीं होते हैं। नर में टार्सस (tarsus) के पास दो से चार कांटे (spur) तथा मादा में एक या दो कांटे होते हैं।

पेन्टेड स्परफाउल एक रंग-बिरंगा छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित पेंटेड स्परफाउल का चित्रI

लेखक (II) के अनुसार यह प्रजाति दक्षिणी – पूर्वी राजस्थान की विंद्याचल पर्वतमाला की खोहों की कराईयों से लेकर पूर्वी राजस्थान में सरिस्का तक सभी वन क्षेत्रो में जगह-जगह विद्यमान है। विंद्याचल पर्वतमाला की कराईयों में पाए जाने वाले कई मंदिर परिसर जहाँ नियमित चुग्गा डालने की प्रथा है, वहाँ कई अन्य पक्षी प्रजातियों के साथ पेन्टेड स्परफाउल को भी दाने चुगते हुए देखा जा सकता है। कोटा जिले का गरडिया महादेव एक ऐसा ही जाना पहचाना स्थल हैं। सवाई माधोपुर में रणथम्भौर बाघ परियोजना क्षेत्र में मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढने पर मुख्य मार्ग के दोनों तरफ की पहाडी चट्टानों एवं पथरीले नालों में सुबह- शाम यह मुर्ग प्रजाति आसानी से देखी जा सकती है। यह बेर व् लैंटाना के रसीले फलों के साथ-साथ छोटे छोटे कीटों को खाते हैं। अक्सर जनवरी से जून तक इनका प्रजनन काल होता है परन्तु राजस्थान के कुछ हिस्सों में बारिश के बाद अगस्त में चूजों को देखा गया है। इनका घोंसला जमीन पर पत्तियों व् छोटे कंकड़ों से घिरा हुआ एक कम गहरा सा गड्डा होता है। मादा अण्डों को सेती है परन्तु दोनों, माता-पिता चूजों की देखभाल करते हैं।

उपरोक्त व्याख्या से सपष्ट है कि राजस्थान में रैड स्परफाउल और पेन्टेड स्परफउल कई जिलों में उपस्थित हैं। मुर्ग प्रजातियाँ दीमक व कीट नियत्रंण कर कृषि फसलों, चारागाहों एवं वनों की सुरक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं अतः हमें उनका संरक्षण करना चाहियें।

सन्दर्भ:
  • Anonymous (2010): Assessment of biodiversity in Sitamata Wildlife Sanctuary: An conservation perspective. Foundation for Ecological Security study report.
  • Blanford WT (1898). The Fauna of British India, Including Ceylon and Burma. Birds. Volume 4. Taylor and Francis, London. pp. 106–108.
  • Ojha, G.H. (1998): Banswara Rajya ka Itihas. (First published in 1936).
  • Ranjit Singh, M.K. (1999) : The Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Ranthambhore National Park, Rajasthan. JBNHS 96 (2): 314.
  • Reddy, G.V. (1994): Painted spurfowl in Sariska. NBWI 43 (2): 38.
  • Shankar, K. (1993) Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. JBNHS 90 (2): 289.
  • Shankar, K., Mohan , D. & Pandey, S. (1993): Birds of Sariska Tiger Reserve, Rajasthan, India. Forktail 8: 133-141.
  • Tehsin, Raza H (1986). “Red Spurfowl (Galloperdix spadicea caurina)”. J. Bombay Nat. Hist. Soc. 83 (3): 663.
  • Vyas, R (2000): Distribution of Painted spurfowl Galloperdix lunulata in Rajasthan. Mor, February 2000, 2:2.

 

लेखक:

Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.

Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.