आजकल यह विषय चर्चा में रहता है कि, मानव और वन्यजीवन के मध्य संघर्ष तेजी से बढ़ रहा है। आये दिन मीडिया में बाघ बघेरे के हमलो के हैरान करने वाले वीडियो और तस्वीरें देखने को मिलती हैं। सभी इस बात पर हामी भरते हैं, कि मानव और वन्य जीवन के मध्य संघर्ष तेजी से बढ़ते ही चले जा रहे है। परन्तु कभी कोई यह प्रश्न नहीं पूछता की जब बाघ और बघेरो की संख्या लाखो हजारों से घट कर अब मात्र 5 -10 % रह गयी ही तो फिर संघर्ष कम क्यों नहीं हो रहा है? कुछ इसका जवाब भी दे देते हैं कि, मानव संख्या भी कई गुना बढ़ गयी और शायद बाघ बघेरो का आहार भी कई गुना घट गया अतः वे सब अब इंसानो पर अधिक हमले करते हैं।
रुडयार्ड किपलिंग, जॉन कोलियर द्वारा, सीए.1891। बदलते समय और दृष्टिकोण के बावजूद, द जंगल बुक पुस्तक की लोकप्रियता के परिणामस्वरूप किपलिंग नाम अभी भी भारतीय जंगल का पर्यायवाची है।
पढ़िए रिकॉर्ड क्या कहते हैं।
मानव और वन्यजीव के संघर्ष का सबसे अनोखा रिकॉर्ड बूंदी शहर से मिला और जिसे महान लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने अपने मजाकिया अंदाज में बखूबी अपनी एक पुस्तक में लिखा है। रुडयार्ड किपलिंग कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे, वह एक ब्रिटिश भारतीय थे जो भारत में ही जन्मे थे। उन्हें 41 वर्ष की उम्र में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार भी मिला था। आज भी उन्हें सबसे छोटी उम्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाला माना जाता है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “जंगल बुक” से हम सब भली भांति वाकिफ है। इस पुस्तक में एक मोगली नामक किरदार है और उसके साथी विभिन्न वन्यजीव है जो कई प्रकार की कहानियों के माध्यम से पाठकों का मनोरंजन करते हैं।
वर्तमान में बूंदी शहर (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
रुडयार्ड किपलिंग ने लिखा है कि, वह 1887 -1889 के वर्षों में भारत के कई हिस्सों में घूमने निकले थे, तभी उन्हें राजस्थान की एक लम्बी यात्रा का मौका भी मिला। एक दोपहर जब वह बूंदी के आम रास्ते पर टहल रहे थे, तो अकस्मात पीछे से किसी ने आवाज दी “Come and see my discrepancy “। यह उनके लिए चौकानेवाला बुलावा था कि, कोई उन्हें अंग्रेजी में बुला रहा है, जबकि पूरी बूंदी में उस ज़माने में दो लोग ही अंग्रेजी बोलते थे एक वहां की स्कूल के प्रमुख अध्यापक और दूसरे थे एक अंग्रेजी के अध्यापक। तीसरे व्यक्ति किपलिंग को यही मिले जो लाहौर मेडिकल कॉलेज से 20 वर्ष पूर्व पढ़ कर आये थे और अब एक चिकित्शालय के प्रमुख्झ थे। यदपि इनको भी अंग्रेजी के कुछ यहाँ वहां के शब्द ही आते थे। उन्होंने चर्चा के दौरान बताया की किस प्रकार के रोगी उनके पास आते है और किस तरह उनका 16 बिस्तर का अस्पताल कार्य करता है। उस समय वहां कोई 25 -30 लोगों की भीड़ रही होगी और उन्हें यह एक अच्छी भली डिस्पेंसरी लग रही थी। रिकॉर्ड को भी अंग्रेजी में दर्ज किया गया था, जिसमें एक भी स्पेलिंग सही नहीं थी। खैर उसमें एक आंकड़ा दर्ज था लोइन-बाईट (loin-bite)। जब उनसे पूछा गया की इसका क्या मतलब तो उन्होंने बताया की “शेर से मारा” हुआ। किपलिंग लिखते हैं कि, loin नहीं lion से मतलब था प्राणी शास्त्र के अनुसार सही भाषा टाइगर लिखना सही होगा। खैर वह टाइगर एवं पैंथर दोनों हो सकते है लायन की सम्भावना तो क्षीण ही है। इस दर्ज आंकड़े के अनुसार लगभग 3 -4 लोग हर सप्ताह इस चिकित्शालय में बाघ बघेरो के घायल वहां आते थे। आज यह आंकड़ा पुरे राज्य के लिए भी बहुत ज्यादा है, जो कभी मात्र एक छोटी बूंदी शहर के आस पास के क्षेत्र का था।
शायद मानव और वन्यजीव के मध्य सघर्ष सदैव ही रहा है परन्तु आजकल लोगों के पास कैमरे की आसानी से उपलब्धता के कारण मीडिया में वन्य जीव और मानव के मध्य होने वाले संघर्ष के वीडियो और फोटोग्राफ्स की संख्या अत्यंत बढ़ती जा रही है। जहाँ वन्य जीव और इंसान रहेंगे तो वहां इनके मध्य संघर्ष भी रहेगा ही, जरुरत है इसके साथ जीने की कला सिखने की, भारतीयों को तुलनात्मक रूप से यह कला भली भांति जानता भी कौन है। तभी तो हमारे देश में इतने संघर्ष के बाद वन्य जीव मिलते है एशिया के और कई देशों में तो अच्छे भले वन खाली पड़े है।
आज बूंदी के जंगल बाघ विहीन हो गये है परन्तु सरकार अब इसे पुनः विकसित करने की तरफ ध्यान देने लगी है। रणथम्भोर की अभूतपूर्व पर्यटन सफलता को देख बूंदी के लोग भी अब जागरूक हुए है और बाघों के स्वागत के लिए तत्पर है।
सन्दर्भ:
Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
Cover photo caption & credit:मानव-वन्यजीव संघर्ष उतना ही पुराना है जितनी स्वयं मानव जाति तथा इसका प्रमाण देती हुई बूंदी से एक गुफा चित्र। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
In nature, it is very rare to see the hunter become the hunted. However, there is just such a tale from Jaipur, Rajasthan. A falconer once came to meet the police chief of Rajasthan, the late Mr. Shantunu Kumar (DGP – Rajasthan). The said falconer is a resident of Jaipur, and was permitted to keep birds of prey even after the introduction of the Wildlife Protection Act of 1972. This is because he had no suitable course of action for his captive birds following the act, and was therefore permitted by the Forest Department to keep his birds of prey.
Peregrine falcon (Falco peregrinus) (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
A bevy of grey francolins (Ortygornis pondicerianus) (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
For many years he used to fly his birds to give them the exercise they needed, and they all came back to their master in the end. When the falconer went to meet Shantanu ji, he informed him that he had his peregrine falcon with him that day. Shantanu ji expressed a desire to see the bird, the falconer took out the peregrine falcon and promised to show him just how spectacular it was in full flight. Bear in mind, this is perhaps the only example of permission being granted to keep a live bird of prey in post 1972 India.
A cockfighting display. Grey francolins (Ortygornis pondicerianus) were also used in this blood sport.
The late Sh. Shantanu Kumar (right), with Sh. Fateh Singh Rathore (left), former Field Director of Ranthambhore, and founder of Tiger Watch. (Photo: Hemant Singh)
Shantanu ji used to live on the outskirts of Jaipur, where many birds etc. also lived on his agricultural farm, including a bevy of grey francolin (formerly called grey partridge) who knew no fear of humans, and thus roamed wherever they pleased. After taking off, the peregrine falcon showed it’s true predatory nature, and immediately dove straight at a francolin! This happened within the flash of an eye, and everyone watched with their mouths agape.
A cockfighter’s blade attached to the spurs of fighting birds. The blade is meant to enhance the devastating impact of the spur.
A pair of river lapwing: check small spurs (spines like structures) on its shoulders.
But there was a completely unexpected outcome, the francolin’s spur (sharp growths on the hind feet) had sunk deep into the peregrine’s heart before it could make its claim! The francolin quickly extracted itself from the peregrine’s talons and ran off, while the raptor lay dead. Spurs are seen in many birds, including chickens. Often cockfighters also tie a small knife-like blade to the spurs of roosters, and sometimes the cockfighters themselves become victims of these enhancements. Once upon a time, cockfighting was a very common and popular sport in rural India, and grey francolins were also used in this blood sport.
In the end, Shantanu ji had a good laugh at the falconer’s expense, and commented that even a ‘police officer’s partridge’ overwhelms a falcon (police waalon ka teetar bhi baaz pe bhaaree padta hai).
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
यह बहुत दुर्लभ है कि, प्रकर्ति में शिकारी खुद शिकार बन जाता है। एक बार राजस्थान के पुलिस प्रमुख श्री शांतुनु कुमार (DGP – Rajasthan) से मिलने एक बाजदार आया। शांतनु जी वन्यजीवों में अत्यधिक रूचि रखते थे और गहरी समझ भी। यह बाजदार जयपुर के रहने वाले है और इन्हें वन्यजीव अधिनियम आने के बाद भी बाज रखने की इजाजत थी। क्योंकि इनके पालतू बाज यह कहाँ छोड़ते अतः उन्हें बाज आदि शिकारी पक्षियों के रखने की वन विभाग से अनुमति मिल गई। शायद यह भारत का एक मात्र उदाहारण है जब जिन्दा बाज पलने की इजाजत मिली थी।
पेरेग्रीन फाल्कन (Falco peregrinus) (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
ग्रे फ्रैंकोलिन का समूह (Ortygornis pondicerianus) (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
कई वर्षो तक वह उन बाजों को हवा में उड़ाता और उनकी थोड़ी बहुत शारीरिक श्रम कराता ताकि वह स्वस्थ रहे। इन उड़ानों के बाद वह प्रशिक्षित बाज अंत में पुनः उस बाजदार के पास आ जाते थे। जब वह बाजदार शांतनु कुमार से मिलने गए तो उन्होंने बताया की आज उसके साथ उसका बाज भी है। शान्तनुजी ने उसे देखने की इच्छा जाहिर करने पर बाजदार अपना एक बाज लेकर आया और कहाँ की में आपको इसकी शानदार उड़ान दिखता हूँ। शांतनु जी जयपुर के बाहरी क्षेत्र में रहते थे जहाँ अनेक पक्षी आदि भी रहते उनके कृषि फार्म में एक तीतर का झुण्ड भी रहता था जो इंसानो से भय नहीं होने के कारण निडर होकर घुमा करते थे।
एक मुर्गा लड़ाई प्रदर्शन। इस खुनी खेल में ग्रे फ़्रैंकोलिन्स (Ortygornis pondicerianus) का भी उपयोग किया जाता था।
स्वर्गीय श्री शांतनु कुमार (दाएं) और साथ में श्री फतेह सिंह राठौर (बाएं), रणथंभौर के पूर्व फील्ड निदेशक और टाइगर वॉच के संस्थापक। (फोटो: श्री हेमंत सिंह)
बाज ने उड़ान भरने के बाद अपनी असली फितरत दिखायो और सीधा एक तीतर पर झपटा मारा। यह इतना तेजी से हुआ की सब देखते रह गये। परन्तु माजरा और भी चौकाने वाला था, बाज अपना दाव लगाता इस से पहले तीतर का स्पर या पांव का कांटा उसके दिल में धंस चूका था। तीतर तेजी से पंजो से छूट कर भाग गया परन्तु बाज अपनी जान गवा चूका था। यह स्पर कई पक्षियों में होते है जिसमें मुर्गे भी शामिल है। स्पर (spur) कुछ पक्षियों के पांव में एक बढ़ी हुई हड्डी होती है जो एक केरीटिन से ढका हुआ होता है। कुछ पक्षियों में यह स्पर उनके पांव के पीछे होने की बजाय पंख के कार्पल पर स्थित होते है एवं आपस और दुसरो के साथ संघर्ष में उपयोगी होते है।
लड़ने वाले पक्षियों के स्पर्स से जोड़े जाने वाला ब्लेड और यह ब्लेड स्पर के विनाशकारी प्रभाव को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
रिवर लैपविंग की एक जोड़ी: इसके कंधों पर छोटे स्पर्स (रीढ़ जैसी संरचना) मौजूद होते हैं। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
मुर्गो के पांव में भी स्पर होते है परन्तु अक्सर मुर्गे लड़ने वाले उन पर एक छोटी छुरी जैसा दिखने वाला चाकू भी बांध देते है और कई बार मुर्गे लड़नेवाले भी खुद इस छुरी के शिकार होजाते है। मुर्गा लड़ाना एक ज़माने में ग्रामीण भारत का एक बहुत प्रसिद्ध खेल था।
खैर शान्तनुजी हँसते हुए बोले पुलिस वालो का तीतर भी बाज पर भारी पड़ता है।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
During the British Raj, many a Briton regularly visited Mount Abu in Rajasthan, and several took an active scientific interest in the local fauna and flora. This also included the local avifauna, and two such visitors discovered two different bird subspecies, and gave them the name abuensis i.e. after Mt. Abu where they were found. Do you know which birds these are, and who discovered them?
Whenever a scientist discovers a new animal or plant, the scientist gives it binomial nomenclature. A scientific or binomial name is constituted by two names – the name of the genus, and the name of the species. Sometimes minute differences are observed in the species, which occur due to geographical conditions, and scientists give them the status of subspecies, and the subspecies name is then appended as a third name.
Harington’s description of the tawny-bellied babbler (Dumetia albigularis abuensis).
Whistler’s description of the red-whiskered bulbul (Pycnonotus jocosus abuensis)
The following two bird subspecies were named after Mt. Abu –
The Tawny-bellied Babbler has a brownish tinge on the top of the head and a white throat, which makes it appear as if it is wearing a hat. Whereas all their other subspecies only have the brownish tinge on the front of the head. Their behavior can be well understood from a vernacular name used in India, in Telugu pandijitta, which means ‘boar- bird’. This is because, much like a wild boar, this bird picks up leaves and straw on the ground with its beak, and carries on searching for insects etc. under them.
Hugh Whistler (28 September 1889 – 7 July 1943), was an English police officer and ornithologist who worked in India. He described Abu’s red-whiskered bulbul (Pycnonotus jocosus abuensis) from Mount Abu in 1931
This bird was discovered by a British Army officer named Herbert Hastings Harington in Mt. Abu. Harington was born in Lucknow, and at the age of 48 in was killed by a militia in Mesopotamia i.e. Iraq, during the first world war (1916), nevertheless the details of the discovery were published earlier in the Journal of the Bombay Natural History Society (JBNHS) in 1914.
The red-whiskered bulbul is a beautiful bird that has a very pleasant sounding call. It is said in it’s call sounds like the phrase, “pleased to meet you” , please listen for yourself- https:// www.youtube.com/watch?v=5BFPU1hah-M. Perhaps that is why the species was given the Latin name jocodsus by the taxonomist Carl Linnaeus, which means ‘playful’. The sub-species abuensis was introduced to the world by the celebrated ornithologist Hugh Whistler in the year 1931. Interestingly, Whistler was also a police officer in addition to being an ornithologist. He collected 17-18 thousand bird specimens during the course of his life, all of which are housed in the Natural History Museum in London. In fact, the first specimen of this bulbul subspecies was collected on 29 April 1868 and deposited in the Natural History Museum. Whistler wrote that it is “extremely pale coloration, both above and below”, in comparison to other subspecies. He also added that, ” the pectoral gorget [is] narrow, pale in colour, and broken in the centre”.
Herbert Hastings Harington (16 January 1868 – 8 March 1916) was a British Indian Army officer and ornithologist who worked in Burma, and wrote on the birds of the region. He described Abu’s Tawny-bellied babbler (Dumetia albigularis abuensis) from Mount Abu in 1914-15.
Although these two subspecies are considered by some local people to be subspecies endemic to the Mount Abu area, both of them have also been seen in the states of Gujarat and Madhya Pradesh. Nevertheless, since both subspecies were discovered in Mount Abu, they were named after it.
References:
Harington, H.H. (1914). “Notes on the Indian Timeliides and their allies (laughing thrushes, babblers, &c.) Part III. Family — Timeliidae”. Journal of the Bombay Natural History Society. 23: 417–453.
Whistler, H. (1931). “Description of new subspecies of the red-whiskered bulbuls from India”. Bulletin of the British Ornithologists’ Club. 52: 40–41.
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
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राजस्थान के माउंट आबू में अंग्रेजो का आना जाना लगा ही रहता था और उनमें से अनेक लोग प्राणी अथवा पेड़ पौधों के बारे में जानने के अत्यंत उत्सुक हुआ करते थे। ऐसे ही यहाँ आये दो अंग्रेजो ने दो पक्षियों की सब-स्पीशीज को खोजा और उन्हें माउंट आबू के नाम पर आबूएन्सिस रखा। जानते हैं कि, वे कौन से पक्षी थे और उनकी खोज कब और किसने की?
जब भी कोई वैज्ञानिक किसी प्राणी या पौधे को पहली बार खोजते हैं तो उन्हें वैज्ञानिक एक नाम देते हैं। यह वैज्ञानिक नाम दो शब्दो से बनता है – जीनस और स्पीशीज। कई बार स्पीशीज में छोटे अंतर देखने को मिलते हैं जो अक्सर भौगोलिक परिस्थिति के कारण आये थोड़े बदल जाते है और वैज्ञानिक उन्हें सब-स्पीशीज का दर्जा देते हैं।
निम्न दोनों पक्षियों की सब स्पीशीज का नाम आबू पर रखा गया है-
Abu’s Tawny-bellied Babbler के सिर के ऊपर का रंग कथई एवं गला सफ़ेद रंग का होता है जिस से यह एक टोपी पहने हुए लगती है। जबकि इनकी अन्य सब स्पीशीज के सिर का अग्र भाग ही मात्र कथई रंग का होता है। इनके व्यवहार को भारत में इस्तेमाल किये जाने वाले एक स्थानीय नाम से बखूबी समझा जा सकता है, तेलगु में इन्हे पंडीजित्ता कहा गया है जिसका मतलब होता है सूअर चिड़िया। क्योंकि यह पक्षी सूअर की भांति अपने चोंच से जमीन पर पत्ते एवं तिनके उठा कर उनके निचे कीड़े आदि खोजती रहती है।
हर्बर्ट हास्टिंग्स हैरिंगटोन द्वारा दिया गया टैनी-बेलिड बैब्लर का विवरण
हुग व्हिस्टलर द्वारा दिया गया रेड व्हिस्करड बुलबुल का विवरण
माउंट आबू से यह पक्षी हर्बर्ट हास्टिंग्स हैरिंगटोन (Herbert Hastings Harington) नामक एक ब्रिटिश आर्मी अफसर ने खोजी। यह लखनऊ में पैदा हुए थे एवं 48 वर्ष की आयु में मेसोपोटामिया यानि इराक में, वहां की एक मिलिशिया द्वारा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एक हमले में वर्ष 1916 में मारे गए इस पक्षी की खोज का विवरण वर्ष 1914 -15 में JBNHS में प्रकाशित हुआ था।
रेड व्हिस्करड बुलबुल
हुग व्हिस्टलर (28 सितंबर 1889 – 7 जुलाई 1943), एक अंग्रेजी पुलिस अधिकारी और पक्षी विज्ञानी थे। उन्होंने भारत में काम किया 1931 में माउंट आबू से अबू के रेड व्हिस्करड बुलबुल का वर्णन किया।
Abu’s Red-whiskered bulbul पक्षी जगत की मधुर आवाज में बोलने वाली एक सूंदर बुलबुल है कहते है इसकी आवाज में लगता है मानो यह बोल रही हो ”प्लीज टू मीट यू (please to meet you) ” आप खुद सुने https://www.youtube.com/watch?v=5BFPU1hah-M । शायद इसीलिए करोलस लिंनियस द्वारा इसकी प्रजाति को लैटिन नाम जोकोसस (jocodsus) दिया गया जिसका मतलब होता है “चंचल”। इसी बुलबुल की आबूएन्सिस सब-स्पीशीज को हुग व्हिस्टलर द्वारा वर्ष 1931 में दुनिया के सामने लाया गया था। हुग व्हिस्टलर एक अंग्रेज पुलिस ऑफिस थे और साथ ही वह एक उम्दा पक्षीविद भी थे। भारत में उन्होंने पंजाब में पुलिस के रूप में कार्य किया था। उन्होंने अपने जीवन में १७-१८ हजार पक्षियों का संग्रह किया जो ब्रिटिश नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में रखे गए है। असल में इस बुलबुल का पहला नमूना 29 अप्रैल 1868 में एकत्रित कर ब्रिटिश म्यूजियम में जमा करवा दिया गया था। उन्होंने लिखा था कि, इस सब- स्पीशीज का ऊपरी और पृष्ठ भाग अन्य सब स्पीशीज की तुलना में अत्यंत हलके रंग का होता है। इसके सामने गले के नीचे बने हुए हार नुमा निशान में रंग हल्के होते हैं, यह संकरा होता है एवं मध्य से टुटा हुआ भी होता है।
टैनी-बेलिड बैब्लर
हर्बर्ट हास्टिंग्स हैरिंगटोन (16 जनवरी 1868 – 8 मार्च 1916) एक ब्रिटिश भारतीय सेना अधिकारी और पक्षी विज्ञानी थे, जिन्होंने बर्मा में काम किया, और इस क्षेत्र के पक्षियों पर लिखा। उन्होंने 1914-15 में माउंट आबू से अबू के टैनी-बेलिड बैब्लर का वर्णन किया।
यदपि इन दोनों सब स्पीशीज को कुछ स्थानीय लोग माउंट आबू की स्थानिक (एंडेमिक) सब स्पीशीज की तरह देखते हैं परन्तु यह दोनों ही गुजरात एवं मध्य प्रदेश में भी देखी गयी हैं। यदपि यह सर्व प्रथम खोजी माउंट आबू से गयी थी एवं इसीलिए इनके साथ नाम भी तो माउंट आबू से जुड़ा है।
सन्दर्भ:
Harington, H.H. (1914). “Notes on the Indian Timeliides and their allies (laughing thrushes, babblers, &c.) Part III. Family — Timeliidae”. Journal of the Bombay Natural History Society. 23: 417–453.
Whistler, H. (1931). “Description of new subspecies of the red-whiskered bulbuls from India”. Bulletin of the British Ornithologists’ Club. 52: 40–41.
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
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Just how ruthless British sporthunters could be in their relentless pursuit of India’s wildlife during the Raj can be discerned from the writings of Sir William Rice. William Rice was a lieutenant in the 25th Bombay Regiment, and described in his hunting memoirs, his role in 156 grand hunts over a span of 5 years, during which he killed 68 tigers and injured 30, thus hunted a total of 98 tigers, killed only 4 leopards and injured 3, therefore hunted a total of 7 leopards, and killed 25 bears and injured 26, and thus hunted a total of 51 bears.
Rice felt that readers might suspect exaggeration on his part, and duly named 7 officers as eyewitnesses to his bloody handiwork. Most of the aforementioned animals were hunted in the areas of Gandhi Sagar, Jawahar Sagar, Rana Pratap Sagar, Bijoliyan, Mandalgarh, Bhainsrorgarh in Rajasthan. If you are a wildlife lover, you are unlikely to not want to curse Rice after reading every page of his memoirs. However, if we read history whilst flowing in a river of emotion, then we are liable to miss out on the real picture of that era, and the anecdotes penned by William Rice are very relevant to tiger conservation today.
‘Jaat panther charging’ from Tiger Shooting in India : Being an account of Hunting Experiences on Foot in Rajpootana, During the Hot seasons from 1850 to 1854 by Sir William Rice. By panther, Rice means leopard
Rice once wrote that he was puzzled that he did not find a large animal to hunt in the forest of the village of Ambha, located on the other side of the Chambal river in front of Bhainsrorgarh after spending five days there. He was then informed that some pastoralists had recently poisoned 2-3 tigers with arsenic. It seems that back then, between the years 1850-1854, to poison a tiger for lifting cattle was a very common practice.
‘Order of procession following up a wounded tiger’ from Tiger Shooting in India : Being an account of Hunting Experiences on Foot in Rajpootana, During the Hot seasons from 1850 to 1854 by Sir William Rice.
At present, it is not easy to guess just how common retaliatory killings of tigers by poisoning are. In the last decade, at least 5 tigers have been poisoned to death in Ranthambhore Tiger Reserve. These 5 tigers were confirmed cases of poisoning by government laboratories. We don’t know how many such cases have not come to the fore. According to these data reports by Tiger Watch – https://tigerwatch.net/status-of-tigers-in-ranthambhore-tiger-reserve/, it is known from studying the disappearance data of Ranthambhore tigers during the last 10 -11 years, on average at least 3 tigers go missing every year. However, in the last year 2020-21, this number has alarmingly climbed to 12- https://tigerwatch.net/the-missing-tigers-of-ranthambhore-2020-2021/. It is unclear just how many of these missing tigers are the result of negative human intervention.
‘Panic at Deypoora’ from Tiger Shooting in India : Being an account of Hunting Experiences on Foot in Rajpootana, During the Hot seasons from 1850 to 1854 by Sir William Rice.
William Rice described that when the tiger hunted the cow, the pastoralists swore revenge, and when the tiger was away from the kill, they made some long vertical incisions in the dead cow’s back and filled them with arsenic. Along with this, Rice also wrote that the powder of a red coloured berry also used to serve as poison in the same vein.The ‘ berries’ were in all likelihood, of the tree Strychnos Nux-vomica, locally known as Kuchla, a common, and much-favoured poison in those days. Neither poison has a distinct smell, so tigers would ingest it while eating large chunks of meat, only to die soon after. Nowadays, irate livestock owners poison cattle kills by injecting them with insecticides.
Even Ramsingh Mogiya, a member of the Mogiya traditional hunting tribe, and resident of Laxmipura (outside Ranthambhore Tiger Reserve), lamented that this was the method being used to destroy animals these days, and that it is unfortunately on the rise. It seems that some hunters, whether it was William Rice or members of the Mogiya tribe, are saddened when confronted with wildlife being destroyed in this way.
References:
Rice, W. (1857).Tiger-shooting in India: Being an account of hunting experiences on foot in Rajpootana, during the hot seasons from 1850 to 1854. Smith, Elder and Co., London, 219pp.
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.