कुत्तो का वायरस बाघों के लिए खतरा: कैनाइन मोर्बिली वायरस

कुत्तो का वायरस बाघों के लिए खतरा: कैनाइन मोर्बिली वायरस

कुत्तों से फैला कैनाइन मोर्बिली वायरस या कैनाइन डिस्टेंपर वायरस शेर और बाघ के लिए खतरा बना गया है। यह वायरस कभी भी उनपर कहर बरपा सकता है। अभी तक इसके संक्रमण से जूझ रहे शेर-बाघों को बचाने वाली कोई वैक्सीन तक नहीं है।

अखिल भारतीय बाघ सर्वेक्षण में उपयोग किए गए कैमरा-ट्रैप ने 17 बाघ अभयारण्यों में बाघों की तुलना से ज्यादा आवारा कुत्तों को कैप्चर किया। कुत्तों और पशुधन दोनों की उपस्थिति महत्वपूर्ण संख्या में कम से कम 30 टाइगर रिजर्व में दर्ज की गई थी। विशेषज्ञों का कहना है कि पहले से ही अवैध शिकार और पर्यावास कि कमी आदि चुनौतियों से जूझ रहे बाघ, शेर और अन्य जंगली मांसाहारी, इन जंगली और परित्यक्त कुत्तों और पशुओं (कैटल), के प्रसार से विभिन्न रोगों का संचरण और संक्रमण जल्द ही इनकी विलुप्त हो रही आबादी को लुप्तप्राय कर सकता है।(Jay Mazumdar, 2020)

यहाँ आप वन्यजीवों में खतरे के रूप में उभरे वायरस के बारे में पढ़ने जा रहे हैं। वर्ष 2018 में गुजरात के 23 शेरों कि मौत का कारण बना कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस (सीडीवी) एक संक्रामक वायरस है। मूलतः कुत्तों में फैलने वाले इस वायरस से ग्रसित जानवरों का बचना बेहद मुश्किल होता है। सीडीवी पॅरामीक्सोविरइडे (Paramyxoviridae) परिवार के मोर्बिली वायरस जीनस का सदस्य है। सीडीवी एक एनवेलप्ड़पले ओमॉरफीक आरएनए वायरस है, जिसका बाहरी एन्वेलपहेमगलुटिनीन और फ्यूज़न प्रोटीन का बना होता है। ये प्रोटीन, वायरस को नॉर्मल सेल से जुडने और अंदर प्रवेश कर संक्रमित करने में मदद करते हैं। मोर्बिलीवायरस, मध्यम-से-गंभीर श्वसन, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, इम्युनोसुप्रेशन और न्यूरोलॉजिकल रोगों को भिन्न प्रकार के जीवों जैसे की मनुष्य (खसरा वायरस), मांसाहारी (कैनाइनडिस्टेंपर वायरस), मवेशी (रिन्डरपेस्ट वायरस) डॉल्फ़िन और अन्य लुप्तप्राय वन्यजीव प्रजातियों को संक्रमित करने के कारण जाना जाता है। कुत्तों में इसके संक्रमण से गंभीर, बहु-तंत्रीय रोग हो सकते है जो मुख्य रूप से गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, श्वसन और न्यूरोलॉजिकलसिस्टम को प्रभावित करते हैं। (Appel M. J.1987)

कुत्ते वन्यजीवों के शिकार का उपभोग करते हुए उसे CDV से संक्रमित कर देते हैं और जब वन्यजीव अपने शिकार को खत्म करने के लिये वापस लौटता तो इस घातक बीमारी की चपेट में आ जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

अपने नाम के बावजूद, कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस को ऑर्डर कार्निवोरा में विभिन्न प्रकार की प्रजातियों को संक्रमित करने के लिए जाना जाता है। यहां तक कि वर्ष 2013 में गैर-मानवीय प्राइमेट भी सीडीवी से संक्रमित हो गए हैं, जिससे संभावित मानव संक्रमण कि भी संभावनाएँ बढ़ गई है। फेलिड्स को सीडीवी के लिए ज्यादातर प्रतिरोधी माना जाता था लेकिन अमेरिकी जूलॉजिकल पार्कों में रहने वाले बंदी बाघों, शेरों, तेंदुओं और जगुआर में घातक संक्रमणों की एक श्रृंखलाने इस धारणा को गलत साबित किया। फिर, 1994 में, तंजानिया के सेरेनगेटी नेशनल पार्क में कुल शेरों की आबादी के लगभग एक तिहाई शेरों का संक्रमण से मौत होना साबित करता था कि बड़ी बिल्लियाँ इससे बची ना थी। उनकी मौतों के साथ ही सेरेनगेटी इकोसिस्टम के भीतर विभिन्न प्रकार के मांसाहारियों में होने वाली मौतों के लिए सीडीवी को जिम्मेदार ठहराया गया था। उसके बाद फिर ऐसे कई मामले सामने आए जिनमे अन्य फेलिड्स की आबादीजैसे कि बॉबकैट, कनाडा लिनक्स, यूरेशियन लिनक्स, गंभीर रूप से लुप्तप्राय इबेरियन लिनक्स, और अमूर बाघ भी शामिल थे। (Terio, KA. 2013)

इसके अलावा भारत में देखें तो, थ्रेटेड टैक्स (Threatened Taxa) में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि राजस्थान के रणथंभौर नेशनल उद्यान (Ranthambhore National Park) के समीप 86% कुत्तों का परीक्षण किये जाने के बाद इनके रक्तप्रवाह में CDV एंटीबॉडीज़ के होने की पुष्टि की गई है। इसका अर्थ है कि ये कुत्ते या तो वर्तमान में CDV से संक्रमित हैं या अपने जीवन में कभी-न-कभी संक्रमित हुए हैं और उन्होंने इस बीमारी पर काबू पा लिया है। इस अध्ययन में यह इंगित किया गया है कि उद्यान में रहने वाले बाघों और तेंदुओं में कुत्तों से इस बीमारी के हस्तांतरण का खतरा बढ़ रहा है। अक्सर ऐसा होता है कि शेर/ बाघ एक बार में पूरे शिकार को नहीं खाते हैं। कुत्ते उस शिकार का उपभोग करते हुए उसे CDV से संक्रमित कर देते हैं। शेर/बाघ अपने शिकार को खत्म करने के लिये वापस लौटता है और इस घातक बीमारी की चपेट में आ जाता है।(Sidhu et al, 2019)
वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसाइटी, कॉर्नेल और ग्लासगो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक वायरस के लिए नियंत्रण उपायों (जैसे कि एक टीका देना, आदि जो इन जानवरों के लिए सुरक्षित हो) को विकसित करके इसके संकट को दूर करने के लिए तेजी से कार्रवाई करने का आग्रह कर रहे हैं। उन्होंने कैनाइन डिस्टेंपर वायरस का नाम बदलकर कार्निवॉर डिस्टेम्पर वायरस रखने का भी सुझाव दिया है ताकि जानवरों की विस्तृत श्रृंखला को दिखाया जा सके जो वायरस का संचरण करते हैं और बीमारी से पीड़ित हो सकते हैं।

कैनाइन डिस्टेंपर कैसे फैलता है?

कुत्ते में सीडीवी के संक्रमण के तीन मुख्य तरीके हैं – एक संक्रमित जानवर या वस्तु के साथ सीधे संपर्क के माध्यम से, एयरबोर्न एक्सपोज़र के माध्यम से, और प्लसेन्टा के माध्यम से। कैनाइन डिस्टेंपर वायरस शरीर कि लगभग सभी प्रणालियों को प्रभावित करता है। 3-6 महीने की उम्र के पिल्ले विशेष रूप से अतिसंवेदनशील होते हैं। सीडीवी एरोसोल की बूंदों के माध्यम से और संक्रमित शारीरिक तरल पदार्थों के संपर्क के 6 से 22 दिन बाद से फैलता है, जिसमें नाक और नेत्र संबंधी स्राव, मल और मूत्र शामिल हैं। यह इन तरल पदार्थों से दूषित भोजन और पानी से भी फैल सकता है। जब संक्रमित कुत्ते या जंगली जानवर खाँसते, छींकते या भौंकते हैं, तो एयरोसोल की बूंदों को पर्यावरण में छोड़ते हैं जो कि आस-पास के जानवरों और सतहों को संक्रमित करते है। संक्रमण और बीमारी के बीच का समय 14 से 18 दिनों का होता है, हालाँकि संक्रमण के 3 से 6 दिन बाद बुखार आ सकता है।डिस्टेम्पर वायरस पर्यावरण में लंबे समय तक नहीं रहता है और अधिकांश कीटाणुनाशकों द्वारा नष्ट किया जा सकता है। जबकि डिस्टेम्पर-संक्रमित कुत्ते कई महीनों तक वायरस का प्रवाह कर सकते हैं और अपने आसपास के कुत्तों को जोखिम में डालते हैं।

कैनाइन डिस्टेम्पर वाइरस संरचना (Source – veteriankey.com)

 

सीडीवी संक्रमण द्वारा प्रभावित एनाटॉमिक साइट्स (Source – veteriankey.com)

कैनाइन डिस्टेम्पर के लक्षण:

कैनाइन डिस्टेम्पर के प्रारम्भिक लक्षणों के दौरान आँखों से पानी के साथ मवाद जैसा पदार्थ निकलता है। इसके बाद बुखार, भूख ना लगना, और नाक बहने जैसे लक्षण देखे जा सकते हैं। अन्य लक्षणों में उलटी, दस्त, अत्यधिक लार, खांसी, और सांस लेने में तकलीफ शामिल है। यदि तंत्रिका संबंधी लक्षण विकसित होते हैं, तो असंयम हो सकता है। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के संकेतों में मांसपेशियों या मांसपेशियों के समूहों की एक स्थानीय अनैच्छिक ट्विचिंग शामिल है। जबड़ों में ऐंठन, जिसे आमतौर पर “च्यूइंग-गम फिट”, या अधिक उपयुक्त रूप से “डिस्टेंपर मायोक्लोनस” के रूप में वर्णित किया जाता है, भी लक्षण में शामिल है। जैसे-जैसे संक्रमण बढ़ता है जानवर प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता, असंयम, चक्कर, दर्द या स्पर्श के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि, और मोटर क्षमताओं के बिगड़ने के लक्षण दिखा सकता है। कुछ मामलों में संक्रमण अंधापन और पक्षाघात का कारण बन सकते हैं।

कैनाइन डिस्टेम्पर के प्रारम्भिक लक्षणों के दौरान आँखों से पानी के साथ मवाद जैसा पदार्थ निकलता है। इसके बाद बुखार, भूख ना लगना, और नाक बहने जैसे लक्षण देखे जा सकते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

कैनाइन डिस्टेम्पर का निवारण:

दुर्भाग्य से इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है, लेकिन उपचार के तौर पर लक्षणों को नियंत्रित करना शामिल है। हालांकि कैनाइन डिस्टेंपर का इलाज इस बात पर भी निर्भर है कि जानवर की प्रतिरक्षा प्रणाली कितनी मजबूत है और वायरस का असर कितना है। इसके अलावा यदि इस बीमारी का निदान व इलाज शुरुआती चरणों में शुरू कर दिया जाए तो इसे आसाानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
कुत्तों के लिए कैनाइन डिस्टेंपर के खिलाफ कई टीके मौजूद हैं। कीटाणुनाशक, डिटर्जेंट के साथ नियमित सफाई से वातावरण से डिस्टेम्पर वायरस नष्ट हो जाता है। यह कमरे के तापमान (20-25 डिग्री सेल्सियस) पर कुछ घंटों से अधिक समय तक पर्यावरण में नहीं रहता है, लेकिन ठंड से थोड़े ऊपर तापमान पर छायादार वातावरण में कुछ हफ्तों तक जीवित रह सकता है। यह अन्य लेबिल वायरस के साथ, सीरम और ऊतक के मलबे में भी लंबे समय तक बना रह सकता है। कई क्षेत्रों में व्यापक टीकाकरण के बावजूद, यह कुत्तों की एक बड़ी बीमारी है।
आरक्षित वनों से डिस्टेम्पर के रोकथाम के लिए सर्वप्रथम राष्ट्रीय उद्यानों के आसपास के क्षेत्र में मुक्त घुमने वाले और घरेलू कुत्तों का टीकाकरण किया जाना चाहिये। इस बीमारी को पहचानने तथा इसके संबंध में आवश्यक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है। जहाँ कहीं भी मांसाहारी वन्यजीवों में CDV के लक्षणों का पता चलता है वहाँ संबंधित जानकारियों का एक आधारभूत डेटा तैयार किया जाना चाहिये ताकि भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर इसका इस्तेमाल किया जा सकें। नियंत्रण उपायों पर विचार करने के क्रम में स्थानीय CDV अभयारण्यों में घरेलू पशुओं की भूमिका को विशेष महत्तव दिया जाना चाहिये तथा इस संबंध में उपयोगी अध्ययन किये जाने चाहिये।
इस समस्या का सबसे आसान तरीका है- इस रोग की रोकथाम। वन्यजीवों की आबादी में किसी भी बीमारी का प्रबंधन करना बेहद मुश्किल होता है। सरकार को देश में वन्यजीव अभयारण्यों के समीप कुत्तों के टीकाकरण के लिये पहल शुरू करनी चाहिये।

सन्दर्भ :

1. Appel M. J.Canine distemper virus Virus infections of carnivores. Appel M. J. 1987 133 159 Elsevier SciencePublishers B. V. Amsterdam, The Netherlands Google Scholar
2. Terio KA, Craft ME. Canine distemper virus (CDV) in another big cat: should CDV be renamed carnivore distemper virus?. mBio. 2013;4(5):e00702-e713. Published 2013 Sep 17. doi:10.1128/mBio.00702-13American Society for Microbiology
3. Mazumdar J. What camera traps saw during survey: More domestic dogs than tigers in major reserves. Indianexpress.com. Published 2020 Aug 3. https://indianexpress.com/article/cities/delhi/tiger-reserves-domestic-dogs-india-survey-6536467/
4. Sidhu, N., Borah, J., Shah, S., Rajput, N., & Jadav, K. K. (2019). Is canine distemper virus (CDV) a lurking threat to large carnivores? A case study from Ranthambhore landscape in Rajasthan, India. Journal of Threatened Taxa, 11(9), 14220-14223. https://doi.org/10.11609/jott.4569.11.9.14220-14223

 

 

कुत्तों की बढ़ती आबादी एवं वन्य-जीवों को खतरा

कुत्तों की बढ़ती आबादी एवं वन्य-जीवों को खतरा

“कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते  हैं , जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।”

प्रकृति में पाये जाने वाले अन्य सभी जीवों की तुलना में कुत्तों को इंसानों का सबसे भरोसेमंद साथी माना जाता है। कुत्तों की उत्पत्ति को मानव उद्विकास की कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रृंखला में एक प्रमुख कड़ी कहा जा सकता है। आनुवंशिक शोध के अनुसार कुत्तों की उत्पत्ति आज से लगभग 15000 से 40000 वर्ष पूर्व यूरोप, मध्य-पूर्व, व पूर्वी एशिया में भेड़ियों की एक से अधिक वंशावलियों से हुई मानी जाती हैं। कुत्ते एवं मानव के इस समानान्तर उद्विकास को सहजीविता का उत्तम उदाहरण कहा जा सकता है। आधुनिक मानव (Homo sapiens) ने अपनी शिकार एवं सुरक्षा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भेड़ियों को पालतू बनाया जिसके बदले भेड़ियों को भी सुरक्षा, आवास, एवं भोजन की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित हुई। तब से लेकर अब तक कुत्तों का इस्तेमाल व्यापक रूप से कई क्षेत्रों में होता आ रहा है , जैसे की शिकार में सहायता से लेकर पशु धन, सम्पदा, व खेतों की सुरक्षा, विस्फोटकों और रसायनों को सूंघने से लेकर बर्फीले स्थानों में परिवहन एवं सबसे महत्वपूर्ण, इंसान का सबसे वफादार दोस्त। कुत्तों व मानव के इस गहरे रिश्ते को अनको कहाँनियों, व फिल्मों के माध्यम से बड़े ही रोमांचित तरीके से दर्शाया गया है । इसी रोमांचित छवि से परे इसी रिश्ते का एक और महत्वपूर्ण पहलू भी है, जिसे सदैव नजरंदाज किया जाता है ।

कुत्तों की अनियंत्रित रूप से बढ़ती संख्या सम्पूर्ण विश्व में जन-स्वास्थ्य की दृष्टि के साथ-साथ वन्य जीवन के लिए भी एक बहुत बड़ा खतरा है । सिडनी विश्व विध्यालय के डॉ टिम एस. डोहरती के एक शोध के अनुसार दुनिया में अब तक कशेरुकी जीवों की 11 प्रजातियों जिसमें पंछी, स्तनधारी, व सरीसृप शामिल है के सम्पूर्ण विलुप्ति करण में कुत्तों का मुख्य योगदान रहा है। इसी के साथ 188 और संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए कुत्तों को सबसे बड़े संभावित खतरे के रूप में देखा जाता है। भारत में डॉ चंद्रिमा होम द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार कुल 80 वन्यजीवों की  प्रजातियाँ कुत्तों के हमलों से प्रभावित पायी गयी  जिनमें से 30 प्रजातियाँ IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में शामिल है। इसी शोध में कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर दर्ज कुल हमलों के 45% मामलों में पीड़ित प्राणी अंततः मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार राजस्थान में भी डॉ गोबिन्द सागर भारद्वाज व साथियों द्वारा Indian Forester में प्रकाशित एक अन्वेषण के अनुसार सन 2009 से 2016 के बीच थार रेगिस्तान में 3624 चिंकारा, 607 नील गाय, व 645 काले हिरण के विभिन्न कारणों से घायल होने के मामले दर्ज किए गए थे। इन कुल मामलों में 74.28% चिंकारा, 55.68% नील गाय, व 68.68% काले हिरण के घायल होने का कारण कुत्तों द्वारा हमला पाया गया था। दर्ज मामलों के आधार पर इन जीवों की मृत्यु दर बहुत ज्यादा 96.7% पायी गयी।

कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य की एक तस्वीर जिसमे आवारा कुत्तों और भेड़ियों के बीच भोजन को लेकर संघर्ष को देख सकते है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

बढ़ती आबादी के कारण:       

एक पारिस्थितिकी तंत्र में किसी भी जीवों की संख्या भोजन की उपलब्धता, परभक्षियों से खतरा, एवं संक्रामक रोगोंके प्रकोप पर निर्भर करती है। कुत्ते मुख्यतः सर्वाहारी होते हैं, एवं भोजन हेतु सीधे तौर पर इंसान द्वारा उपलब्ध खाने, कचरे के ढेर,और मृत जीवों पर आश्रित रहते हैं। इसी कारण कचरा एवं मृत जीवों के प्रबंधन व निस्तारण की कुशल प्रणालियों का अभाव कुत्तों के लिए लंबे समय तक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करता है, परिणामस्वरूप कुत्तों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है।

पिछले कुछ दशकों में कुत्तों की बढ़ती संख्या को एक खास पारिस्थितिकी बदलाव से भी जोड़ के देखा गया है। 1990 के दशक में सर्वप्रथम कैवलादेवी राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर में गिद्धों की आबादी में अचानक से गिरावट दर्ज की गयी थी। गिद्ध प्रकृति के सबसे महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य रूप से मुर्दा खोर (Obligatory scavenger) जीव हैं, जो पर्यावरण में मृत जीवों को खाकर उनके निष्कासन में अहम भूमिका निभाते है। भारत में गिद्धों की तीन मुख्य प्रजातियों (Gyps indicus, Gyps bengalensis, and Gyps tenuirostris) की संख्या में ये गिरावट 95% से भी अधिक देखी गयी थी, जो की सबसे बहुतायत में पाये जाने वाले गिद्ध थे। गिद्धों की संख्या में इतनी भारी गिरावट के कारण मृत जीवों के निष्कासन की दर धीमी हो गयी, परिणाम स्वरूप मृत जीवों की उपलब्धता में एकाएक वृद्धि पायी गयी।

वैकल्पिक मुर्दा खोर (Facultative scavenger) होने के कारण मृत जीवों की इस उपलब्धता का लाभ कुत्तों को हुआ एवं उनकी आबादी में जबरदस्त बढ़त देखी गई। वैकल्पिक मुर्दाखोर वह जीव होते हैं जो मुख्य रूप से भोजन के लिए अन्य चीजों पर निर्भर होते हैं परंतु अवसर मिलने पर मृत जीवों का भी प्रमुखता से सेवन करते हैं। कुत्तों की यही बढ़ती संख्या अब संकटग्रस्त गिद्धों के संरक्षणव आबादी के पुनःस्थापन में सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि कुत्ते अपने उग्र व्यवहार व अधिक संख्या में होने के कारण गिद्धों को मृत जीवों से दूर रखते हैं। दूसरी और भारत के शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों में बड़े शिकारी वन्य जीवों की अनुपस्थिति के कारण कुत्ते सर्वोच्च शिकारी बन चुके हैं जिस कारण इनसे किसी जीव द्वारा परभक्षण का खतरा नहीं है। । मनुष्य द्वारा प्रदत्त भोजन की उपलब्धता, बड़े शिकारी वन्य जीवों का अभाव, एवं प्रबंधन की खामियों के कारण कुत्तों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

वन्य-जीवन पर विपरीत प्रभाव:

कुत्ते दुनिया भर में सबसे व्यापक व बहुतायत में पाये जाने वाले carnivore हैं, जिनकी वैश्विक आबादी लगभग 1 अरब है। इस आबादी में भारत का हिस्सा लगभग 6 करोड़ का माना जाता है। कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर हो रहे हानिकारक प्रभाव को उनके घुमन्तू  व्यवहार एवं मानव पर उनकी निर्भरता के आधार पर समझा जा सकता है। इस आधार पर कुत्तों को निम्न भागों में बांटा गया है।

  1. पालतू कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मुख्यतः उनके मालिक द्वारा तय परिसीमन के अन्दर ही होती हैएवं ये भोजन व आवास के लिए पूर्णतः अपने मालिक पर ही निर्भर होते है। सीमित गतिविधियों के कारण ये कुत्ते वन्यजीवों के सबसे कम संपर्क में आते हैं।
  2. शहरी आवारा कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मोहल्लों एवं गलियों तक सीमित रहती है। ये कुत्ते वन्यजीवों के लिए मुख्य खतरा नहीं है परंतु जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से जीव-जनित बीमारियों का सबसे बड़ा स्रोत हैं।
  3. ग्रामीण आवारा कुत्तों,जो की गाँवों व उनके आस-पास के इलाकों में पाये जाते हैं। इसी श्रेणी के कुत्तों की एक बहुत बड़ी आबादी गाँवों व मानव बस्तियों से बहुत दूर तक स्वछंद विचरण करती है एवं वन्य जीवों को बहुत बड़े स्तर पर प्रभावित करती है। विश्व में पायी जाने वाली कुल कुत्तों की आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा इसी श्रेणी में आता है।

स्वछंद विचरण करने वाले कुत्तों की यही आबादी वन्यजीवों के सबसे अधिक संपर्क में आती है, परिणामस्वरूप  वन्यजीवों के लिए बहुत बड़ा खतरा प्रस्तुत करती है। अपने क्षेत्रीय व्यवहार से प्रेरित कुत्ते अकसर अपने इलाकों के विस्तारण हेतु इंसानी बस्तियों से दूर संरक्षित और असंरक्षित वन्यजीव क्षेत्रों में घूमते वन्य जीवों को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित करते हैं।

आवारा कुत्ते न सिर्फ वन्य-जीवों को सताते है बल्कि गुट में उनपर हमला कर घायल और कई बार जान से मार भी देते हैं (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

कुत्ते मुख्य परभक्षी:

कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। कुत्तों का ये हानिकारक प्रभाव लगभग सभी छोटी व बड़ी सिम्पेट्रिक प्रजातियों पर देखा जा सकता है। सिम्पेट्रिक प्रजातीयाँ वह प्रजातीयाँ होती हैं जो एक ही आवास में रहकर समान संसाधनों का समान रूप से प्रयोग करती है। उदाहरण के लिए भारतीय-लोमड़ी, मरु-लोमड़ी, सियार, एवं कुत्ते सिम्पेट्रिक प्रजाति है। उसी प्रकार बाघ एवं तेंदुआ भी सिम्पेट्रिक प्रजाति है। सिम्पेट्रिक प्रजातियों से इस संघर्ष का परिणाम अकसर वन्य जीवों की मृत्यु ही होता है। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र  में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।

कुत्ते वन्य जीवों का भोजन:

सामान्यतः परभक्षी की भूमिका निभाने वाले कुत्ते कई स्थानों पर बड़े परभक्षियों के भोजन का मुख्य हिस्सा भी हैं। देश के कई स्थानों में मानव बस्तियों के आस-पास पाये जाने वाले तेंदुओं को कुत्तों का बहुतायत में शिकार करते पाया गया हैं। कुत्तों का शिकार करते हुए तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी अक्सर मानव बस्तियों में घुस आते हैं जो की बढ़ते मानव-वन्यजीव  संघर्ष को जन्म देते हैं। इस संघर्ष का परिणाम मानव व वन्य जीवों दोनों के लिए हानिकारक होता हैं।

वन्य जीवों के व्यवहार में परिवर्तन एवं उसका प्रभाव:

कुत्तों न केवल प्रत्यक्ष रूप से शिकार कर वन्यजीवों की संख्या घटाते है परंतु परोक्ष रूप से उनके व्यवहार को भी बदलते है। संसाधन परिपूर्ण आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्या वन्य जीवों के संसाधन उपयोग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। पारिस्थितिकी तंत्र में संसाधनों से तात्पर्य भोजन, पानी, व आश्रय स्थल की उपलब्धता से होता है। ऐसे आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्यावन्य जीवों को निम्न गुणवत्ता वाले संसाधन क्षेत्रों में विचरण करने को मजबूर करती है। इसका परोक्ष रूप से प्रभाव उनके स्वास्थ्य व प्रजनन क्षमता पर पड़ता है जो की अंततः वन्य जीवों की घटती आबादी का कारण बनता है।

कुत्ते संक्रामक बीमारियों के वाहक:

वन्य जीवों व कुत्तों के बीच किसी भी प्रकार का संपर्क, चाहे वह शिकार के तौर पर हो या शिकारी के तौर पर, कुत्तों द्वारा फैलने वाली संक्रामक बीमारियों का खतरा वन्यजीवों के लिए बढ़ाता ही है। अधिकांश मामलों में बीमारियों का यह संक्रमण किसी भी वन्यजीव की सम्पूर्ण आबादी मिटाने के लिए पर्याप्त होता है। कुत्तों में 358 प्रकार के रोग-जनक बैक्टीरिया, कवक, एवं वायरस के रूप में पाये जाते हैं। इनमें से तीन मुख्य वायरस विश्व में कई स्थानोंपर वन्यजीवों की संख्या में गिरावट के उत्तरदायी पाये गए हैं। यह है, रेबीज़ वायरस (RABV), Canine distemper virus (CDV) एवं Canine parvo virus (CPV)। सन 1989 में अफ्रीका के सेरंगेटी के घास के मैदानों में पाये जाने वाले अत्यंत संकटग्रस्त जंगली कुत्तों की कई स्थानीय आबादियों की विलुप्ति का कारण RABV के संक्रमण को पाया गया है। कुछ इसी तरह का प्रभाव 1994 में ईथोपीयन भेड़ियों पर भी देखा गया था। इसी साल सेरंगेटी में ही CDV के प्रकोप से एक हजार से अधिक शेर मारे गए थे जो की वहाँ की कुल शेरों की आबादी का एक तिहाई हिस्सा था।

भारत में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों में बीमारियों के संक्रमण से संबन्धित शोध का अत्यधिक अभाव एवं कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़ों की कमी के कारण इन संक्रामक बीमारियों का वन्य जीवों पर प्रभाव कम ही ज्ञात है। डॉ वानक द्वारा महाराष्ट्र के नानज में किए गए एक शोध में टेस्ट किए गए  93.3% कुत्तों में CPV तथा 90.7% कुत्तों में CDV से संबंधित एंटिबोडीज़ पाये गए। नानज में पायी गई कुछ मृत भारतीय लोमड़ियों में भी CDV का संक्रमण पाया गया था। तत्पश्चात भारतीय लोमड़ी पर की गई  रेडियो टेलीमेट्री विधि से किए गए शोध में लोमड़ियों व कुत्तों में बढ़ते संपर्क के आधार पर लोमड़ियों की आबादी में बड़े स्तर पर CDV की संभावना व्यक्त की गई है।

Tiger Watch संस्था के वन्यजीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल की एक जांच के अनुसार रणथम्भोर राष्ट्रीय उध्यान की सीमा के नजदीक भारतीय लोमड़ी का एक परिवार जिसमें  नर व मादा के साथ उनके पाँच बच्चे थे की मृत्यु CDV के कारण पायी गयी। डॉ खांडल ने बताया की लोमड़ी के परिवार में मृत्यु से पहले CDV के लक्षण जैसे की आंखों में सूजन, तंत्रिका तंत्र  (Nervous system)के ठप्प पड़ जाने के कारण चाल डगमगाना व डर की अनुभूति नहीं होना देखे गए थे।

राजस्थान में कुत्तों का गंभीर प्रभाव:

राजस्थान के परिपेक्ष्य में कुत्तों की समस्या वन्यजीवों के संरक्षण के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसका प्रमुख कारण राज्य में वन्य जीव संरक्षण क्षेत्रों की कम संख्या एवं अधिकांश वन्य जीवों का इन संरक्षित क्षेत्रों से बाहर गौचर, ओरण एवं कृषि भूमि में पाया जाना हैं। डॉ भट्टाचार्जी के एक शोध के अनुसार पश्चिम राजस्थान के इन्हीं असंरक्षित क्षेत्रों में संकटग्रस्त जीव जैसे चिंकारा व काले हिरणों का जनसंख्या घनत्व भारत के कई बड़े-बड़े वन्यजीव संरक्षित क्षेत्रों के बराबर हैं। इन क्षेत्रों में प्रबल मानवीय गतिविधियों के कारण कुत्तों की संख्या बहुत अधिक है जो की इन संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए निरंतर बढ़ता खतरा है। राजस्थान के इन शुष्क क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले बड़े परभक्षी जीवों के अभाव में कुत्ते खाद्य श्रृंखला में सर्वोच्च परभक्षी की भूमिका निभाते हैं।

राज्य के कई कस्बों व शहरों के बाह्य क्षेत्रों में मृत मवेशियों को डालने वाले स्थल भी आवारा कुत्तों की बहुत बड़ी संख्या को भोजन उपलब्ध कराते हैं। ये स्थान वन्यजीव क्षेत्रों के आस-पास ही होते हैं जो की कई प्रवासी व स्थानीय गिद्धों की बड़ी संख्या का भी बसेरा है, परंतु कुत्तों की बढ़ती तादाद अक्सर इन गिद्धो को उपलब्ध भोजन से वंचित रखती हैं। कई किसान इन क्षेत्रों में अपने खेतों की सुरक्षा हेतु बाड़ बनाने में महीन जाली का उपयोग करते हैं जो की कई वन्यजीवों  के लिए लगभग अदृश्य होती है। परिणामस्वरूप चिंकारा एवं काले हिरण जैसे सींगो वाले जीव खेत पार करते समय इन जालियों में फंस आवारा कुत्तों का आसान शिकार बन जाते हैं। केवल स्थानीय स्तनधारी ही नहीं अपितु प्रति वर्ष हिमालय पार कर सर्दियों में आने वाली प्रवासी कुर जाएँ भी बड़ी संख्या में कुत्तों का शिकार बनी देखी जा सकती हैं । राजस्थान में कुत्तों का ये भयावह प्रकोप खरगोश जैसी छोटी प्रजाति से लेकर सियार व भेड़ियों जैसे मध्यम व बड़े आकार के शिकारियों पर भी बहुत प्रभावी रूप से देखा जा सकता हैं।

हालांकि तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी कुत्तों का भोजन के रूप में शिकार करते हैं परंतु इन बड़े परभक्षियों के शावक संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले कुत्तों से सुरक्षित नहीं होते तथा मारे जाते हैं।

वर्ष 2017 में कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य के पास कुत्तो के एक गुट ने लेपर्ड के दो छोटे शावकों को मौत के घाट उतार दिया था।(फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

आबादी नियंत्रण व प्रबंधन संबंधी नीतियाँ:

वास्तव में हमारे देश में कुत्तों के प्रबंधन संबंधी नीतियाँ उनकी संख्या कम करने के उद्देश्य से नहीं अपितु उनपर हो रही क्रूरता के निवारण तथा जीव अधिकारों की रक्षा को मद्दे नजर रखते हुए बनाई गयी है। पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अंतर्गत पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम 2001 का उल्लेख किया गया है। इस नियम के अंतर्गत कुत्तों की आबादी नियंत्रण के उपायों को चार चरणों में बताया गया है। ये चरण हैं,उन्हें पकड़ना, नसबंदी करना, टिकाकरण, एवं पुन: उसी आवास में छोड़ देना है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस नियम में कुत्तों को पुन: उसी आवास में छोड़ने की बात पर ज़ोर दिया गया है अर्थात यह नीति गली मोहल्लों से कुत्तों की आबादी हटाने के लिए नहीं परंतु वास्तव में ये आबादी बनाए रखने को प्रेरित करती है। उपरोक्त नियमों में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों पर पड़ रहे खतरनाक प्रभावों से निपटने के लिए किसी प्रकार के उपायों का ना तो उल्लेख है ना ही ये नियम इन प्रभावों को ध्यान में रखते हुए बनाये गये हैं।

कुत्तों की नसबंदी द्वारा जन्म दर नियंत्रण कर इनकी संख्या को कम करने का तरीका लंबे समय से अप्रभावी रहा है। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों की आबादी के प्रभावी नियंत्रण के लिए किसी भी स्थान में कुत्तों की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक निश्चित समय के अंदर (नए प्रजनन काल के शुरू होने से पहले ही) बंध्य करना आवश्यक है। ये तब ही संभव हो सकता हैं जब हमारे पास कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़े, उनके आवासों एवं आबादी को बढ़ाने वाले कारकों के संबंध में अधिक वैज्ञानिक शोध व जानकारी हो जिसका वास्तविकता में बहुत अभाव हैं। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों का प्रभावी नियंत्रण भारत जैसी बड़ी आबादी वाले एक विकासशील देश के लिए बहुत खर्चीला विकल्प है।

कुत्तों की संख्या के नियंत्रण में विफलता के लिए न केवल प्रभावी नीतियों का अभाव बल्कि लोगों का गैर-जिम्मेदाराना रवैया भी एक मुख्य कारण है। हमारा संविधानबेशक आमजन को जीव-मात्र के प्रति करुणा दिखनेव भोजन उपलब्ध करवाने के लिए प्रेरित करता है परंतु इसी के साथ उन्हें उन जानवरों की ज़िम्मेदारी के लिए प्रतिबद्ध भी किया गया है। लोग अकसर कुत्तों को गली मोहल्ले में खाना देते वक़्त भूल जाते है की उन कुत्तों की टिकाकरण व उनके उग्र व्यवहार के कारण हुई जन-हानि की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है।

कुत्तों द्वारा वन्य जीवों व जन-स्वास्थ्य के खतरों कम करने के लिए इनकी संख्या को नियंत्रण करना अति-आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम कचरे का प्रभावी निस्तारण प्रमुख है जिससे उनकी भोजन की उपलब्धता में कमी आएगी जिसका प्रभाव इनकी संख्या पर पड़ेगा। इसके साथ आम-जन  को गली मोहल्लों में कुत्तों को भोजन देना भी बंद करना होगा। आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के  लिए लोगों व पशु प्रेमियों द्वारा स्वस्थ कुत्तों को अपनाने के लिए जागरूक करना होगा। प्रबंधन की ऐसी नीतियाँ बनानी होगी जिसमें कुत्तों के जीवन स्तर के साथ-साथ उनके जन-स्वास्थ्य एवं वन्य-जीवन पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों के निवारण की समीक्षा भी हो।

सन्दर्भ:

Cover picture credit Mr. Chetan Misher

 

राजस्थान मे चमगादड़ विविधता व उनपर आये आधुनिक खतरे

राजस्थान मे चमगादड़ विविधता व उनपर आये आधुनिक खतरे

चमगादड़ द्वारा COVID-19 को फैलाने के डर से, राजस्थान के दो स्थानों पर अज्ञानता के कारण लोगों द्वारा भारतीय चमगादड़ों को मारते हुए देखा गया है। हाल ही में चूरू जिले के सादुलपुर में 45 चमगादड़ को इस वजह से मार दिया गया, झुंझुनू जिले के लोहरगर्ल क्षेत्र में 150 से अधिक चमगादड़ों को मारा गया।

रोजाना स्थानीय टीवी मे प्रसारित समाचारों के द्वारा चमगादड़ों को कोरोना का मुख्य कारण बताये जाने के कारण भारत में लोगो में यह अवधारणा बन रही है की यह एक अत्यंत घातक प्राणी है, और इसी के चलते  चमगादड़ो को अपने आसपास से समाप्त किया जा रहा है I यह पूर्णतया आधारहीन, गैर-वैज्ञानिक एवं भ्रामक है बल्कि यह हमारे पर्यावरण के लिए अत्यंत खतरनाक स्थिति है I

वर्तमान में चमगादड़ो का प्रजनन समय चल रहा है, मादा से प्रजनन के पश्चात नर समूह के रूप मे अलग हो जाते है जिससे चमगादड़ो का वितरण और अधिक दिखाई देने लगता है। यह विशाल समहू लोगो द्वारा COVID-19 के चमगादड़ से जुड़े समाचारो के मध्य भयावह स्थिति पैदा करते हैI इस समय कोरोना के डर से इन नर समूह से स्थानीय लोग डर गए, जिस से 45 नर चमगादड़ (Greater Mouse-tailed Bat) मारे गए। इसी के समान झुंझुनू जिले के लोहार्गल क्षेत्र में भी 150 से अधिक चमगादड़ों (Greater Mouse-tailed Bat) को मारा दिया गया।

अज्ञानता के कारण चमगादड़ों को मार दिया गया (फोटो: डॉ दाऊ लाल बोहरा)

भारत में पाए जाने वाले चमगादड़ फल और कीट खाने वाले हैं जो कृषि और पर्यावरण संतुलन के लिए अच्छे हैं। लोगों को अपने अंधविश्वास को छोड़ देना चाहिए और चमगादड़ को मारना बंद कर देना चाहिए क्योंकि वे भारत में मानव जाति के लिए SARS CoV-2 के वेक्टर नहीं हैं। यदि उनके चल रहे प्रजनन के मौसम में गड़बड़ी होती है, तो राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में फलों के चमगादड़ विलुप्त होने का सामना करेंगे, क्योंकि ज्यादातर नर चमगादड़ों को लोगों द्वारा कथित रूप से मारा गया है। चीन में SARS-CoV-2 को जोड़ते हुए राइनोफिडे परिवार के हॉर्सशू चमगादड़ द्वारा ले जाया गया था। यहां तक कि दक्षिण एशियाई चमगादड़ों की दो प्रजातियों में कोरोना वाइरस की खोज पर ICMR की हालिया रिपोर्ट में कोई ज्ञात स्वास्थ्य खतरा नहीं है। अध्ययन में पाए गए वायरस SARS-CoV-2 से अलग हैं और COVID-19 का कारण नहीं बन सकते हैं। लोगों ने चमगादड़ों पर ICMR की अन्य रिपोर्ट का गलत मतलब निकाला है।

रिवर्स ट्रांसमिशन: IUCN व BCI के अनुसार, संक्रमित मानव से घरेलू जानवरों और यहां तक कि चमगादड़ तक रिवर्स ट्रांसमिशन हो सकता है। महाराष्ट्र और गुजरात की तरह COVID-19 की गंभीर सामुदायिक प्रसार स्थितियों में, रिवर्स ट्रांसमिशन की संभावना हो सकती है अमरीका, नीदरलैंड और स्वीडन मे सीवेज जाँच मे कोरोना वायरस पाए गए है न्यूवेजीन, नीदरलैंड के KWR Research Institute के अनुसार सीवेज से संक्रमण फलने की मनुष्य मे कम है परन्तु मवेशियो व चमगादड़ों मे यह संक्रमित जा सकता है। यदि यह घातक वायरस सीवेज, तालाबों, जल निकाय और किसी अन्य अपशिष्ट पदार्थ में मिल जाता है। यह देश के हॉटस्पॉट शहरों में तालाबंदी के बाद ज्यादा विनाशकारी हो सकता है।

COVID-19 महामारी के दौरान चमगादड़ को बचाने के लिए, पहले कर्नाटक सरकार और अब राजस्थान सरकार के अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक एवं मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक अरिन्दम तोमर ने दिशा-निर्देश जारी किए हैं और चेतावनी दी है कि चमगादड़ किसी भी तरह से चोट या मारे नहीं जाने चाहिए क्योंकि चमगादड़ भारतीय वन्यजीव अधिनियम की अनुसूची-वी 1972के तहत आते हैं। आज तक, उन्हें मारने के लिए सजा का कोई प्रावधान नहीं था, लेकिन अब चमगादड़ नुकसान पहुंचाने वाले चमगादड़ राजस्थान में अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे।

दुनिया भर में चमगादड़ों की 1411 से अधिक प्रजातियां पारिस्थितिक भूमिका निभा रही हैं जो प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों और मानव अर्थव्यवस्थाओं के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। चमगादड़ हमारे मूल वन्यजीवों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो भारत में लगभग एक तिहाई स्तनपायी प्रजातियों को नियमित रखते हैं और इस तरह के वेटलैंड्स, वुडलैंड्स, साथ ही शहरी क्षेत्रों में निवास की एक विस्तृत श्रृंखला पर कब्जा करते हैं। वे हमें पर्यावरण की स्थिति के बारे में बहुत कुछ बता सकते हैं, क्योंकि वे सामान्य निशाचर कीटों के शीर्ष शिकारी हैं। चमगादड़ वास्तव में कीट नियंत्रक होते हैं जो हर रात हजारों कीड़े खाते हैं। भारत के चमगादड़ आपको नहीं काटेंगे या आपका खून नहीं चूसेंगे – लेकिन वे मच्छरों के खून को साफ़ करने में मदद करेंगे। चमगादड़ तिलचट्टे, मेढ़क, मक्खियों और मुख्य रूप से मच्छरों को खाते हैं. एक चमगादड़, एक घंटे में 1,200 से 1,400 मछरों को खाता है। इन मच्छरों की वजह से मलेरिया, टायफायड, डेंगू, चिकनगुनिया जैसी बीमारियां फैलती हैं। चमगादड परागण तथा छोटे कीट-पतंगों का शिकार करते हैं, जिन कीट-पतंगों की वजह से मनुष्य और फसलों को तरह-तरफ़ का रोग होता है। चमगादड उनको खाकर फसलों के लिए जैविक कीटनाशक का काम करते हैं। वर्तमान में कोरोना वायरस महामारी की वजह से चमगादड़ बताई जा रही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि यह वायरस चमगादड़ से ही मनुष्य के शरीर में आया है। जिससे चमगादड़ की एक नकारात्मक छवि बनी है। ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि इस महामारी के बाद की चमगादड़ को लेकर नकरात्मकता बढ़ सकती है, जिससे इस जीव के अस्तित्व पर ख़तरा भी उत्पन्न हो सकता है। पर वर्तमान वैज्ञानिक युग में यह सोचना जरूरी होगा जो मनुष्य के उदभव से मानव उपयोगी रहा हो वो केसे इस महामारी फेला सकता है। वैसे 60 प्रकार के वायरस चमगादड़ में पाए जाते हैं परन्तु ये किसी मनुष्य में नहीं फैलते। यदि वर्तमान में प्रकाशित कोरोना संबंधी अनुसंधान पत्रो को देखे तो  कहीं पर कोरोना के लिए चमगादड़ ज़िमेदार नहीं है। COVID-19 चमगादड़ से नहीं फैलता।

चमगादड़ों में पाए जाने वाले वायरस मनुष्यों में नहीं फैलते परन्तु आज इन्ही को सबसे बड़ा खतरा समझा जा रहा है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

भारत में वे चमगादड़ जो कीटभक्षी हैं – वे केवल कीड़े खाते हैं। कीड़े-मकोड़े खाने वाले चमगादड़ों को फसलों से दूर रखने के साथ-साथ चमगादड़ के काटने के स्थानों के लिए बहुत अच्छा है। कपास की खेती में मुक्त पूंछ वाले चमगादड़ को एक महत्वपूर्ण “कीट प्रबंधन सेवा” के रूप में मान्यता दी गई है। क्योंकि चमगादड़ कुछ क्षेत्रों में बहुत सारे कीड़े खाते हैं, वे कीटनाशक स्प्रे की आवश्यकता को भी कम कर सकते हैं। पक्षियों की तरह, कुछ चमगादड़ पेड़ों और अन्य पौधों के बीजों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ उष्णकटिबंधीय फल चमगादड़ अपने अंदर बीज ले जाते हैं क्योंकि वे फल को पचा लेते हैं, फिर मूल पेड़ से दूर बीज को निकालते हैं। ये बीज अपने स्वयं के तैयार उर्वरक में जमीन पर गिरते हैं, जो उन्हें अंकुरित होने और बढ़ने में मदद करते हैं। क्योंकि चमगादड़ परागण और बीज को फैलाने में मदद करते हैं, वे वन निकासी के बाद पुनर्वृष्टि में मदद करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। 1411 से अधिक चमगादड़ प्रजातियों में से कई कीटों की विशाल मात्रा का उपभोग करते हैं, जिनमें से कुछ सबसे हानिकारक कृषि कीट हैं। बैट ड्रॉपिंग (जिसे गानो कहा जाता है) एक समृद्ध प्राकृतिक उर्वरक के रूप में मूल्यवान हैं। गुआनो दुनिया भर में एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है, और, जब चमगादड़ को ध्यान में रखते हुए जिम्मेदारी से उपयोग किया जाता है, तो यह भूस्वामियों और स्थानीय समुदायों के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक लाभ प्रदान कर सकता है। चमगादड़ों को अक्सर “कीस्टोन प्रजाति” माना जाता है जो रेगिस्तानी पारिस्थितिक तंत्र के लिए आवश्यक हैं। चमगादड़ के परागण और बीज-प्रसार सेवाओं के बिना, स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र धीरे-धीरे ढह सकते हैं क्योंकि खाद्य श्रृंखला के आधार के पास पौधे वन्यजीव प्रजातियों के लिए भोजन और आवरण प्रदान करने में विफल होते हैं। चमगादड़ जंगल में बीजों को फैलाने में चमगादड़ इतने प्रभावी होते हैं कि उन्हें “उष्णकटिबंधीय के किसान” कहा जाता है। जंगलों को पुनर्जीवित करना एक जटिल प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें पक्षियों, प्राइमेट्स और अन्य जानवरों के साथ-साथ चमगादड़ों द्वारा बीज-प्रकीर्णन की आवश्यकता होती है। लेकिन पक्षी बड़े, खुले स्थानों को पार करने से सावधान रहते हैं, जहां उड़ने वाले शिकारी हमला कर सकते हैं, इसलिए वे आम तौर पर सीधे अपने पर्चों के नीचे बीज गिराते हैं। दूसरी ओर, रात-रात के खाने वाले फलों के चमगादड़, अक्सर हर रात बड़ी दूरी तय करते हैं, और वे काफी हद तक पार करने के लिए तैयार होते हैं और आमतौर पर उड़ान में शौच करते हैं, साफ किए गए क्षेत्रों में पक्षियों की तुलना में कहीं अधिक बीज बिखेरते हैं। रात्रिचर स्वभाव होने के कारण ये रात में फलने और फूलने वाले लगभग सवा पांच सौ प्रजातियों के पेड़ों के परागकण और बीज़ को अलग-अलग प्राकृतिक वास में फैलाते हैं, जिससे जंगल को प्राकृतिक रूप से स्थापित होने में मदद मिलती है। इसलिए इनको ‘प्राकृतिक जंगल को स्थापित’ करने वाले के साथ-साथ, ‘जंगल का रक्षक’ भी कहा जाता है। चमगादड परागण के साथ ही विभिन्न प्रकार के कीट-पतंगों का शिकार करते हैं, जिन कीट-पतंगों की वजह से मनुष्य और फसलों को तरह-तरफ़ का रोग होता है। चमगादड उनको खाकर फसलों के लिए जैविक कीटनाशक का काम करते हैं। एक अध्ययन से यह भी पता चला है कि एक मादा चमगादड़, गर्भावस्था के दौरान अपने शरीर के तीन गुना ज़्यादा वजन तक कीटों का भक्षण कर सकती है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक चमगादड़, अपने जीवन काल (लगभग 30 वर्ष) में कितने कीट खाता होगा? इन सबके अलावा चमगादड़ की सुनने की क्षमता बहुत ज़्यादा होती है, जिसकी वजह से ये प्राकृतिक आपदा जैसे तूफान, भूकंप आदि के आने पर अपने व्यवहार में परिवर्तन करते हैं, जिससे मनुष्य को भी इन ख़तरों की कई बार समय से पहले जानकारी हो जाती है।

Greater Mouse-tailed Bat (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

राजस्थान चमगादड़ की विविधता के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।राजस्थान का रेगिस्तानी क्षेत्र 1980 के दशक तक चमगादड़ों की दो प्रजातियों का घर था, और इंदिरा गांधी नहर के निर्माण के साथ, श्री गंगानगर, हनुमानगढ़, बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, चूरू और कुछ हिस्सों चमगादड़ों की प्रजाति तेजी फेलती गयी। राजस्थान में 25 प्रकार की प्रजातियां पाई जाती है। जिसमें 3 फल चमगादड़ व 22 कीट खाने वाली प्रजाति पाई जाती है। तीन प्रकार की फल चमगादड़, जिसमें टैरोपस ग्रागेटस, रुस्टस प्रजाति, सिनोपटेरस प्रजाति पाई जाती है। यह सामन्यत बड़े पेड़ो पर लटकी हुई अवस्था में पाई जाती है। यह प्रजाति पीपल बरगद पर लटकी हुई देखी जा सकती है। जो पानी के स्त्रोत के पास रहना पसंद करती है। पुरे राजस्थान मे Lesser Mouse-tailed Bat सर्वाधिक संख्या मे पाई जाती है जो समाज के साथ मनुष्यों के घरो मे, पुरानी हवलियो, मंदिरों मे रहना पसंद करती है।  रेगिस्तानी क्षेत्र से 15 प्रजातियों, गैर-रेगिस्तानी क्षेत्र से 17 प्रजातियों और अरावली पहाड़ियों से 16 प्रजातियों पाई जाती है। 7 प्रजातिया Indian Flying Fox, Naked-rumped Tomb Bat, Greater Mouse-tailed Bat, Greater False Vampire Bat, Egyptian Free-tailed bat, Greater Asiatic Yellow House Bat and Least Pipistrelle, राजस्थान के सभी भोगोलिक क्षेत्र मे पाई जाती है सात प्रजातिया Greater Short-nosed Fruit Bat, Egyptian Tomb Bat, Lesser Mouse-tailed Bat, Blyth’s Horseshoe Bat, Fulvous Leaf-nosed Bat, Lesser Asiatic Yellow House Bat and Dormer’s Pipistrelle राजस्थान के रेगिस्तानी व पर्वती दोनों क्षेत्र मे पाई जाती है दो प्रजातिया Leschenault’s Rousette व Long-winged Tomb Bat केवल असुष्क और अरावली पर्वत माला मे ही पाई जाती है I अतःआवश्यकता है इन्हे बचाने की न की इन्हे समाप्त करने की।

 

NATURE’S WARRIORS

NATURE’S WARRIORS

Novel Corona virus may not be so noble for us, but the way it has changed us is certainly noble. It has united humans by dividing them physically, never have we all freaked together, got anxious for our lives together, and felt together that we were wrong that this planet endured for ages.

Our world lies torn and shattered and all because of an invisible virus that probably was let loose by a horseshoe bat. In our understanding of the Corona virus one critical factor stands out. The destruction of wildlife and wildlife habitats led to its creation. It could be from Wuhan’s horrific wet wildlife markets or fiddling with bats in a Wuhan laboratory or just destroying bat habitats that led to a crisis where millions are infected and hundreds of thousands are dead. Intermediary species like the Pangolin might have helped in mutating this virus and over the last decade we humans have left no stone unturned to decimate pangolins and smuggle them live into wildlife markets. They could very easily have been the intermediary species. China is hugely responsible for the demand and needs to be shamed across the world. My finger is pointed at it. I watched closely its enormous role in the tiger crisis that enveloped India from the 1990’s for two decades. I have watched its increasing presence in Africa and the resultant decline in African wildlife. At so many international meetings for the last 30 years it was warned to end its illegal wildlife trafficking and markets. It never paid heed. Endless wildlife WARRIORS fought to prevent China from this highly destructive role. But China as a global economic power cared little and stomped on in its craze for wild animal parts and associated medicine. As far as I am concerned this virus is a result of this. This virus is also a result of all those political and business leaders who did not care. All those who scoffed and mocked at Nature’s Warriors, hurled abuse on those who served both wildlife and nature.

Wildlife trade and wet markets are viruses mixing bowls (PC: Dr. Dharmendra Khandal). 

Pangolin might have helped in mutating Corona virus and we humans have smuggle them live into wildlife markets (PC: Dr. Dharmendra Khandal).

The disrespect that so many who have suffered who served nature is shocking. Many of us are now angry and unforgiving. Our warnings for the last 50 years have come true. We have tirelessly strived to prioritized the protection of our natural world. Few who made policy or took decisions listened. Today they should be covered in guilt. Big business failed nature. Few provided grants to protect it. The leaders of business preferred to remain ignorant of nature’s ways. Now they have been hit where it hurts. Trillions of dollars lost and economies at a standstill. If we wake up from this nightmare will they learn? Will they shed their arrogance? The less said about our politicians and their bureaucrats the better. I remember how hard I tried to get Prime Minister Manmohan Singh to create a department of forests and wildlife (which did not exist in our Ministry of Environment and Forests) so that this essential sector was properly governed. The idea was to make a separate ministry over time and allow a Ministry of Environment and Climate Change to be independent of it. He agreed with my logic, (10 years ago) and instructed that it should be done. But a bunch of secretaries vetoed him. Prime Minister Narendra Modi has not held one meeting of the National Board of Wildlife in 7 years. Nobody cares. They still do not realize that the virus they deal with finds its origin in wildlife and gets released because of bad governance. They do not realize that our country is in dire straits, the economy a mess and life disrupted because of how we deal with the natural world and its myriad species. Prime Ministers, Ministers, political leaders, bureaucrats, business leaders, and society at large…. get educated fast as nature’s time bomb is ticking. This Corona virus is a warning. The next time Nature will let loose a virus that will be much worse.

This global pandemic could have come much earlier. It did not because of the tireless service of both Nature Warriors and Wildlife Warriors. These people come from all walks of life in village, town and city and spend their time passionately defending nature. Without them we would have no world to live in. They provide the most essential service to our nation but are least recognized or respected. More often than not they are relegated to oblivion. We need to remember all of them today and salute them. Who are these people? 150000 are forest officers and forest guards. Another 100000 are scientists, wildlife watchers, wildlife travel promoters, wildlife hotel creators, wildlife photographers, wildlife filmmakers, writers, conservationists, naturalists, village volunteers and NGO’S. We need to celebrate them and when we are out of this crisis the Prime Minister must do some brainstorming with them. You cannot run an economy without a healthy natural world. This virus reveals how easily economic collapse comes. Prime Ministers of the world will have to put forests, wildlife and the environment on the top of the agenda if you do not want to be plagued with more disease and death. Economic recoveries must be green in nature. No longer can we harm the natural wealth of our country or of any country. This virus has proven that a virus from Wuhan has swept the world. That is the interdependence of the world today. Heal nature must be our call sign. Our leadership across this planet must wake up to a new era where life, the economics of it, the design of it arenon-wasteful and non-exploitative, and led with a great respect for nature. To prevent global warming and climate change must be immediate priorities.  This virus has revealed how our planet is vulnerable and without healing nature we as a human race can die. Let’s learn our lessons and act hand in hand with the natural world. We need urgent global meetings of world leaders on forests and wildlife. We need global decisions to close wet markets and wildlife trade. We need to find noninvasive solutions to our future. Enough of diplomacy. It is time to call a spade a spade. Enough of G7 and G20 meets. They need to be re-strategized in the light of what has happened. Our mission today must be to create key strategies to protect natural eco -systems, our wilderness and all the life that abounds in it. If we do not achieve this mission, there is no hope of a future for our planet.

सांभरझील और उसके संरक्षण से जुड़े कुछ पहलु

सांभरझील और उसके संरक्षण से जुड़े कुछ पहलु

रेतीले धोरो, सुखी पहाड़ियों एवं कंटीली झाड़ियों से घिरी सांभर झील कई मौसमी नदियों और नालों से आये खारे जल से समृद्ध आर्द्र भूमि होने के साथ सर्दियों में विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षियों का आशियाना भी है, जो भारत का एक अनूठा पारिस्थितिक तंत्र है…

राजस्थान में स्थित सांभर झील भारत की सबसे बड़ी “लवण जल” अर्थात “खारेपानी” की झील है। इस का प्राचीन नाम, हर्ष शिलालेख 961 ई. में वर्णित, शंकरनक (शंकराणक) था। इसी नाम की देवी के बाद इस का प्राचीन नाम शाकंभरी (शाकंभरी) भी था। सांभर को साल्ट लेक, देवयानी और शाकंभरी मंदिर के तीर्थ के लिए भी जाना जाता है। प्रत्येक वर्ष उत्तरी एशिया एवं यूरोप से सर्दियों के दौरान हजारों की संख्या में विभिन्न प्रजातियों के प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं। इस झील के अंतरराष्ट्रीय महत्व को समझते हुए इसे वर्ष 1990 में एक रामसर स्थल के रूप में नामांकित किया गया। इस झील का किनारा अद्वितीय है i  क्योंकि इस में पोटेशियम की मात्रा कम व सोडियम की मात्रा अधिक है, जिसके चलते इस झील से एक बड़े पैमाने पर नमक का उत्पादन भी किया जाता है परन्तु धीरे-धीरे ये नमक उद्योग, झील तथा यहाँ आने वाले पक्षियों के लिए मुश्किलों का सबब बनता जा रहा है।

सांभर झील मुख्यरूप से नागौर और जयपुर जिले में स्थित है तथा इसकी सीमा का कुछ भाग अजमेर जिले को भी छूता है। यह एक अण्डाकार झील है जिसकी लंबाई 3.5 किमी तथा चौड़ाई 3 से11 किमी है। इसकी परिधि 96 किमी है जो चारों तरफ से अरावली पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस झील का कुल जल ग्रहण क्षेत्र 5700 वर्ग किमी का है। मानसून के बाद शुष्क मौसम के दौरान इस झील के पानी का स्तर 3 मीटर से घटकर 60 सेमी तक रह जाता है, वहीं दूसरी ओर इस जल क्षेत्र का क्षेत्रफल190 से 230 वर्ग किलोमीटर तक बदलता है। चार मुख्य नदियां (मेंढा, रूपनगढ़, खारी, खंडेला), कई नाले और सतह से अपवाहित जल इस झील के मुख्य जलस्रोत हैं।

सांभर झील कि जैव विविधता

इस आर्द्रभूमि का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्व है क्योंकि प्रत्येक वर्ष सर्दियों के दौरान हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी यहाँ आते हैं। सर्दियों में यह झील, कच्छ के रण के बाद फुलेरा और डीडवाना के साथ, भारत में फ्लेमिंगो (Phoenicopterus roseus & Phoniconaias minor) के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इस झील में पेलिकन, कॉमन शेल्डक, रेड शैंक, ब्लैक विंगड स्टिल्ट, केंटिश प्लोवर, रिंग्ड प्लोवर, रफ और रिवर लैपिंग भी पाए जाते हैं। शर्मा एवं चौमाल 2018, के अनुसार अब तक इस झील से एल्गी की 40 से अधिक प्रजातियां दर्ज की गयी हैं। झील में उगने वाले विशेष प्रकार के एल्गी एवं बैक्टीरिया इसके पारिस्थितिक तंत्र का आधार है, जो जल पक्षियों का भोजन बन उनका समर्थन करते है।

सांभर झील में विचरण करते फ्लेमिंगो (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

सांभर झील के पास Peregrine falcon (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

नमक उत्पादन – इतिहास कि नजर से

जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ सांभर झील पुरातत्व दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण एवं मुगलकालिक नमक उदपादक क्षेत्र भी है। जोधा बाई (जयपुर राज्य के भारमल की बेटी) या मरियम-उज़-ज़मानी की शादी अकबर से 20 जनवरी, 1562 को सांभर लेक टाउन में हुई थी। झील से नमक आपूर्ति मुगल वंश (1526-1857) द्वारा आरम्भ किया गया, जो बाद में जयपुर और जोधपुर रियासतों के संयुक्त रूप से स्वामित्व में था। 1884 में, सांभर झील में किए गए छोटे पैमाने पर उत्खनन कार्य के हिस्से के रूप में क्षेत्र में प्राचीन मूर्तिकला की खोज की गई थी। पुरातत्व विभाग ने नलसर नामक स्थान पर सांभर में खुदाई की थी जिसने इसकी प्राचीनता का संकेत दिया था। उस खुदाई के दौरान, मिट्टी के स्तूप के साथ कुछ टेराकोटा संरचनाएं, सिक्के और मुहरें मिलीं। सांभर मूर्तिकला बौद्ध धर्म से प्रभावित प्रतीत होती है। बाद में, 1934 के आसपास, एक बड़े पैमाने पर व्यवस्थित और वैज्ञानिक उत्खनन किया गया था जिस में बड़ी संख्या में टेराकोटा मूर्तियाँ, पत्थर के पात्र और सजे हुए डिस्क पाए गए थे। सांभर की कई मूर्तियां अल्बर्ट हॉल संग्रहालय में मौजूद हैं।

वर्तमान में नमक-वाष्पीकरण पैन और शोधन कार्य झील के पूर्वी किनारे पर स्थित हैं। सांभर झील के किनारे तीन गाँव बसे हुए हैं, पूर्वी तट पर सांभर, उत्तर-पश्चिमी तट पर नवा और इनके बीच में गुढ़ा। इन गाँवों के लोग नमक उद्योग पर निर्भर हैं। प्रतिवर्ष इस झील से लगभग 2,10,000 टन नमक का उत्पादन किया जाता है। परन्तु कुछ स्थानीय लोग बोरवेल द्वारा पानी की निकासी कर सालाना 15-20 लाख मैट्रिक टन से भी अधिक नमक का उत्पादन करते है जिसके फलस्वरूप आज राजस्थान भारत के शीर्ष तीन नमक उत्पादक राज्यों में से एक है। लगभग 30 -35 वर्ष पूर्व यहाँ मत्स्य व्यापार भी किया जाता था क्योंकि वर्ष 1985 में, सांभर में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई थी तथा यह स्थिति एक वर्ष तक बनी रहने के कारण यहाँ मत्स्य संसाधनों में वृद्धि कर व्यापार शुरू किया गया। वर्ष 1992 में, फिर से झील में भारी वर्षा के कारण मत्स्य संसाधनों में दुबारा वृद्धि हुई परन्तु पहले चरण में जीवित रहने के बाद जब पानी की लवणता 1से1.20 हो गई तो मत्स्य पालन के लिए खतरा पैदा हो गया, अंततः उनकी मृत्यु हो गई और इसका कोई व्यावसायिक मूल्य नहीं रहा।

सांभर झील के किनारों पर बने नमक वाष्पीकरण की इकाइयां दर्शाता मानचित्र

नमक उत्पादन–वर्तमान स्थिति

वर्तमान में सांभर झील पर 5.1 किमी लंबा बलुआ पत्थर का बांध भी बना हुआ है जो इस झील को दो भागों में विभाजित करता है। खारे पानी की सांद्रता एक निश्चित सीमा तक पहुंचने के बाद, बांध के फाटकों को खोल पानी को पश्चिम से पूर्व की ओर छोड़ दिया जाता हैं। इस बांध के पूर्व में ही नमक के वाष्पीकरण वाले तालाब हैं जहाँ पिछले हजार से भी अधिक सालों से नमक की खेती की जाती है। नमक उत्पादन का नियंत्रण स्थानीय समुदायों से राजपूतों, मुगलों, अंग्रेजों और अंत में आज यह सांभर साल्ट्स लिमिटेड, जो हिंदुस्तान साल्ट्स लिमिटेड (भारत सरकार) जयपुर विभाग और अजमेर व् नागौर  खनन विभाग (राजस्थान सरकार) के बीच एक संयुक्त उद्योग है। इनके अलावा कुछ निजी ठेकेदार जिनकी भूमि झील के पास स्थित है नमक का उत्पादन करते है।

वहीँ दूसरी ओर देखे तो आज नमक निष्कर्षण की पारंपरिक प्रक्रिया जो मानसून पर निर्भर हुआ करती थी लगभग समाप्त हो गई है। अब ठेकेदार छोटी अवधि में अधिक से अधिक नमक निकालने की कोशिश करते हैं। सांभर झील में नदियों और नालों पानी झील के तलछट के साथ प्रतिक्रिया कर नमक बनाता है, जिसे क्रिस्टलीकृत नमक को पीछे छोड़ते हुए वाष्पित होने में लगभग 50 – 60 दिन लगते हैं। परन्तु आज अधिकांश ठेकेदार इस प्रक्रिया अवधि को 15 – 20 दिनों की करने के लिए भूजल का उपयोग करते हैं तथा इसके लिए गहरे अवैध बोरवेल लगाए गए हैं। भूजल के अत्यधिक इस्तेमाल ने क्षेत्र में भूजल का स्तर लगभग 40 फीट तक कम कर दिया है तथा इस से आस-पास के गांवों में पानी की कमी होने लगी है।

आज ठेकेदारों द्वारा झील से ज्यादा से ज्यादा नमक निकला जाता है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

मानवीय हस्तक्षेप

सांभर झील के पारिस्थितिक तंत्र पर खतरे के लिए विभिन्न कारक जिम्मेदार है जैसे की झील के जल ग्रहण क्षेत्र के लैंडयूज पैटर्न में भी बदलाव हो रहा है। नमक उत्पादक इकाइयाँ झील के किनारों के ऊपर आ गई हैं और मेंढा व् रूपनगढ़  से आने वाले पानी को रोक रहीं हैं। हालांकि झील का जल ग्रहण क्षेत्र बहुत विशाल है, परन्तु फिर भी इसे मानवीय हस्तक्षेप के कारण बहुत कम अपवाह प्राप्त हो रहा है। जल ग्रहण क्षेत्र में अनियोजित निर्माण ने वर्षा जल के प्रवाह को भी रोक दिया है। सूखे की वजह से, सरकार ने कृषि के लिए चेक डैम और एनीकट बनाकर पानी की कटाई व् भूजल  के स्तर को सुधारने की एक पहल की। परन्तु इस से, झील का जल प्रवाह पूरी तरह से जल ग्रहण क्षेत्र से बंद हो गया है। पानी में लवणता बढ़ने के परिणाम स्वरूप कुछ प्रमुख नमक निर्माता संसाधनों का दोहन कर रहे हैं तो कुछ कम और सीमांत नमक निर्माता झील की परिधि में उप-मिट्टी से नमक निर्माण कर रहे हैं।

मानवीय हस्तक्षेपों के चलते झील में लवणता बढ़ गयी है जिसके परिणाम स्वरूप आज जीवों की विविधता कम हो रही है जैसे की ग्रीन एल्गी जो शुरू में ताजे पानी में ज्यादा पायी जाती थी, आज पूरी तरह से गायब हो गई है। कभी वर्ष 1982-83 में, 5 लाख से अधिक फ्लमिंगोस को इस झील में गिना गया, तो बड़ी संख्या में पेलिकन भी सर्दियों के दौरान इस झील में एकत्रित हुआ करते थे। परन्तु वर्ष 2008 में फ्लमिंगोस की संख्या घटकर 20,000 हो गई।

विडम्बना

स्थिति की विडम्बना यह है कि विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षियों के लिए इसके महत्त्व को समझते हुए भी सांभर को आज एक नमक के स्रोत के रूप में ही जाना जाता है। ऐसा नहीं है की भारत सरकार ने इसके संवर्धन के लिए कोई योजना नहीं बनायीं हैं क्योंकि, यदि वर्ष 2015 की लोकसभा की एक पत्रावली को देखे तो 7.19 करोड़ रुपये राशि सांभर झील के विकास के लिए दिए गये थे; परन्तु जिम्मेदारी पूर्ण नीति के अभाव में सांभर कि आर्द्रभूमि आज संकटग्रस्त है, सरकार को सर्वप्रथम इस स्थान को संरक्षित करना चाहिए तथा इसकी जैव-विविधता को संरक्षित करने के लिए निति बनानी चाहिए।

  

राजस्थान के एक शहर में मानव एवं मगरमच्छ के मध्य संघर्ष

राजस्थान के एक शहर में मानव एवं मगरमच्छ के मध्य संघर्ष

मगरमच्छ हमारे पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, परन्तु अब यह हमारे घरों में क्यों आ रहा है ? कही ऐसा तो नहीं हम ही इसके घर में चले गए हैं ? यह सब एक विस्तृत शोध का विषय है। यहाँ बी.बी.सी. न्यूज द्वारा प्रकाशित दिनांक 31.01.2019 की मुख्य पंक्ति मुझे याद आती है जिसमें माना गया है की भारतीय लोग अपने गाँवों को मगरमच्छ के साथ साझा करते हैं।

भारत में कई राज्य ऐसे भी हैं जहाँ पर अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष होते रहते है, इनमें महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में होकर बहने वाली कृष्णा एव इसकी सहायक नदी के किनारे बसे गाँवो से अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष की खबरें सुर्खियों में रहती हैं, राजस्थान से जाने वाली माही नदी जिसका विलय गुजरात की साबरमती नदी में होता है, के आसपास से अक्सर मानव और मगरमच्छ के बीच संघर्ष की खबरें दस्तक देती रहती हैं।

कोटा वासी भी अपने शहर के कुछ हिस्सों को मगरमच्छ के साथ साझा करते हैं, कोटा बैराज के दायीं और बायीं ओर सिंचाई हेतु नहर है, बायीं नहर कोटा शहर के जिस क्षेत्र से गुजरती है वह क्षेत्र थोड़ी ऊंचाई पर होने के कारण वहां मगरमच्छ के संघर्ष कम होते हैं किन्तु दायीं नहर का क्षेत्र कोटा बैराज से नीचे होने के कारण यहाँ मानव का मगरमच्छ से संघर्ष ज्यादा होता है। पिछले कुछ वर्षो में कृषि भूमि पर जो कॉलोनियां विकसित हुई हैं जैसे थेकडा रोड़ पर बसी कालोनियाँ, नया नोहरा, नम्रता आवास, बजरंग नगर, शिव नगर आदि बोरखेड़ा क्षेत्र में बसी हुई कई कॉलोनियां मानव एवं मगरमच्छ के संघर्ष का केन्द्र बनी हुई हैं।

हम कोटा में मगरमच्छ से संघर्ष की बात करें और “चन्द्रलोई“ नदी का नाम न ले ऐसा नहीं हो सकता, कोटा क्षेत्र की मगरमच्छ की सबसे बड़ी आबादी इसी नदी व इसमें आकर मिलने वाले विभिन्न मलनलों में फलफूल रहीं हैं। यह नदी कोटा से लगभग 21 कि.मी. दूर मवासा से प्रारम्भ होकर मानस गाँव पहुंच कर चम्बल नदी में मिल जाती है इसी नदी में मिलने वाला एक बरसाती नाला है जो अब “मलनल“ हो गया है इसमें अब बरसात का पानी कम और “व्यवसायिक बहिःस्त्राव“ ज्यादा मिलता है जो सीधा चल्द्रलोई नदी में होकर चम्बल नदी में आकर विलय होता है,  इस व्यवसायिक बहिःस्त्राव के कारण वर्णित मलनल में जल का प्रदूषण इस स्तर तक बढ़ गया है की इस व्यवसायिक बहिःस्त्राव के कारण मलनल में  निवास करने वाले मगरमच्छों पर सफेद रंग के केमिकल की परत चढ़ गयी है और सभी मगरमच्छ सफेद हो गये हैं, कभी कभी हम किसी नये व्यक्ति से यह व्यंग्य कर देते हैं कि सफेद रंग के मगरमच्छ पूरे विश्व में सिर्फ यहीं पाये जाते हैं।

आवासीय क्षेत्र से मगर को रेस्क्यू करते हुए गश्ती दल के सदस्य

प्रदुषण के कारण मलनल में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम होने पर भी मगर के बने रहने से लगता है की कि प्रलय के उपरांत पृथ्वी पर मगरमच्छ आखिरी जीव होगा। 

शोध में यह स्पष्ट हो चुका है कि चन्द्रलोई नदी का जल न तो पीने के लिए उपयुक्त है न ही खेती के लिए। ऐसे प्रदूषित जल में हम यदि मगरमच्छ के भोजन की बात करें तो यह कहना बहुत कठिन होगा के उसके भोजन की पूर्ति जलीय जीवों से हो जाती होगी और यही यहाँ मगरमच्छ का मानव से संघर्ष का कारण बनता है , मुझे अच्छे से ध्यान आता है कि जुलाई 19 में चन्द्रेसल मठ के नजदीक एक एनिकट पर नहाते हुये बालक मनीष भील को तीन मगरमच्छ खींच कर नदी में ले गए थे वहीं जुलाई 2018 में एक मगरमच्छ द्वारा अपने खेत में काम कर रहे नसरत उल्लहा खान (40) पर हमला कर दिया गया था किन्तु उनके साथी ने तत्परता दिखाते हुये मगरमच्छ पर कुल्हाडी से वार किये जिसके कारण मगरमच्छ को अपने शिकार को छोडने पर मजबूर होना पडा, इस हमले में नसरत उल्लाह खान गम्भीर रूप से घायल हो गये थे। इस इलाके से गाय, बछडे, सुअर आदि पालतू या आवारा जानवर को मगरमच्छ द्वारा उठा ले जाने की घटनाऐं आम हैं, ऐसा प्रतीत होता है की यहाँ जल में भोजन की मात्रा कम होने के कारण, मगरमच्छ का मुख्य भोजन यही हो गया है।

कोटा की एक आवासीय बस्ती में घुसा मगर

उपरोक्त कठिन परिस्थितियों में भी वन मण्डल, कोटा के लाडपुरा रेंज की टीम और वन्यजीव मण्डल, कोटा के गश्तीदल की टीम सराहनीय कार्य कर रही है, उन्हें जहाँ कहीं से भी मगरमच्छ के रिहायशी इलाके में होने व मानव और मगरमच्छ के संघर्ष की सूचना मिलती है तो यह टीम तुरन्त वहाँ पहुँच कर मगरमच्छ को रेस्क्यू कर वापस प्राकृतिक निवास चम्बल नदी में व मुकन्दरा हिल्स टाइगर रिजर्व के सावन भादो डेम में छोड़ देती है।

मेरे द्वारा ऊपर कठिन परिस्थितियों शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया क्योंकि मगरमच्छ को रेस्क्यू करने वाले उपरोक्त दोनो मण्डल के कर्मचारी न तो मगरमच्छ रेस्क्यू के लिए प्रशिक्षित हैं और न ही उनके पास रेस्क्यू के लिए उपकरण उपलब्ध हैं।

मगरमच्छ रेस्क्यू के आंकड़ों  का अध्ययन करने के बाद मैंने पाया कि विपरीत परिस्थिति में भी दोनो टीमों द्वारा वर्ष 2016 में 30, 2017 में 19, 2018 में 21, 2019 में 67 मगरमच्छ  रेस्क्यू कर सुरक्षित स्थान पर छोड़े गए, वहीं 2016 में 1, 2017 में 1, 2018 में 1, 2019 में 6 मगरमच्छ मृत पाये गए।  वर्ष 2019 में मगरमच्छ रेस्क्यू व मृत्यु की संख्या में वृद्वि भविष्य में मानव और “मगर“ बीच संघर्ष का जोखिम तो नहीं बढ़ा देंगी? 

कोटा शहर और चन्द्रलोई नदी में मानव से “मगर“ का संघर्ष खत्म हो जाएगा, यह तो कहना बहुत कठिन है किन्तु हम यह प्रयास तो कर ही सकते हैं कि चन्द्रलोई नदी में जल प्रदूषण शून्य हो जाए जिससे मगरमच्छ को जल में भोजन उपलब्ध हो और भोजन के लिए “मगर“ को मानव के साथ संघर्ष न करना पडे़।