दोंगड़े के बाद उड़ान: रणथम्भौर में पायोनीर तितलियाँ

दोंगड़े के बाद उड़ान: रणथम्भौर में पायोनीर तितलियाँ

लेखक: प्रवीण सिंह, धर्म सिंह गुर्जर, एवं डॉ धर्मेंद्र खांडल 

‘दोंगड़े’ — राजस्थान में अप्रैल-मई की शुरुआत में अचानक और अल्पकालिक रूप से होने वाली यह वर्षा — स्थानीय पारिस्थितिकी के लिए एक महत्वपूर्ण संकेत होती है, जो कई जीवों के जीवनचक्र को सक्रिय कर देती है।

हमें अक्सर अपने बगीचे या घर के आसपास जब कोई रंग-बिरंगी तितली उड़ती दिखती है, तो मन अपने आप आनंदित हो उठता है। अब ज़रा कल्पना कीजिए — जब ऐसी ही एक प्रजाति की तितली सैकड़ों-हजारों की संख्या में, एक साथ दिखाई दे — तो वह दृश्य कैसा अद्भुत होगा!

कुछ ऐसा ही दृश्य हर साल रणथंभौर के सीमावर्ती क्षेत्रों के आस पास देखने को मिलता है। जिसे हमने शेरपुर और खिलचीपुर के गोचर भूमि में देखा। यहाँ खुली ज़मीन पर, कैर और हींश की झाड़ियों और ज़मीन पर उगे छोटे छोटे जंगली फूलों के बीच सफेद-पीली तितलियों की लहरें एकाएक दिखाई देने लगती हैं। इनके पंखों के सिरों पर काले धब्बे और काली धारियां साफ दिखाई देती हैं। नर तितलियाँ सामान्यतः फीकी रंगत वाली (हल्की पीली) और साफ-सुथरी धारियों वाली होती हैं। मादा तितलियों के अगले पंखों पर काले पैटर्न अधिक स्पष्ट होते हैं और वे आकार में थोड़ी बड़ी भी होती हैं। हाँ, मादा बड़ी होती है – क्योंकि उन्हें अपने पेट में अंडे जो पालने होते है। (Smetacek, 2012) यह नज़ारा यहाँ लगभग एक-डेढ़ महीने तक देखने को मिलता है।

pioneer, caper white, butterfly feeding nectar from Oligochaeta ramose

पायनियर तितली सबसे अधिक ब्रह्म डंडी (Oligochaeta ramose) के पुष्प पर गई (फ़ोटो: प्रवीण)

ये हैं पायनियर तितलियाँ (Belenois aurota), जिन्हें ‘कैपर व्हाइट’ भी कहा जाता है। एकाएक इनकी संख्या इतनी अधिक हो जाती है कि लगभग हर झाड़ी पर सिर्फ एक ही प्रजाति की तितलियाँ दिखाई देती है। हमारे द्वारा एक 10×10 वर्ग मीटर के क्षेत्र में की गई इनकी गिनती में हमें 500 से 1000 तितलियाँ मौजूद मिली थी। यह असाधारण दृश्य यहाँ हर साल देखने को मिलता है।

कहाँ से आती हैं ये तितलियाँ?

प्रश्न उठता है — ये तितलियाँ इतनी बड़ी संख्या में अचानक आती कहाँ से हैं? क्या ये दूरदराज़ से प्रवास करके आती हैं, जैसा कि ब्रिटिश काल के कीटविज्ञानी मूर (1890s) और बिंघम (1905) ने उल्लेख किया? या यह उनके जीवन चक्र की स्थानीय पुनरावृत्ति है?

हमारा मानना है की शायद ये तितलियाँ प्रवासी नहीं, बल्कि यहीं की निवासी हैं, जो अप्रैल  माह की पहली बारिश के साथ ही अपने छिपे हुए जीवन से बाहर आती हैं, और अचानक प्रकट हो जाती हैं। यानी इस समय अपने प्यूपा से बाहर निकल कर यह जीवन के एक नए रूप को धारण करती है। 

pioneer, caper white, butterfly feeding nectar from Convolvulus prostratus

एक नजर में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सफेद फूलों वाला संतरी (Convolvulus prostratus) इस क्षेत्र में सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध है। फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल 

इतिहास के पन्नों से

ब्रिटिश भारत में कार्यरत फ्रेडरिक मूर ने अपनी श्रृंखला “Lepidoptera Indica में पहली बार इस तितली का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने यह ध्यान दिया कि ये मानसून के बाद एकाएक प्रकट होती हैं और कैपेरिस के पौधों के पास मंडराती हैं। बाद में चार्ल्स बिंघम ने इनके विशाल झुंडों की दिशा — दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व — का वर्णन किया, जो की उनके अनुसार मानसून के समानांतर चलती प्रतीत होती थी।

जो हमने देखा

आजकल, मूर और बिंघम के वर्णन के विपरीत, हमने इन तितलियों को मानसून में नहीं देखकर इन्हें अप्रैल माह में होने वाली बारिश के बाद कैर और हींश की झाड़ियों और ज़मीन पर उगे छोटे छोटे फूलों के आस-पास बहुतायत में देखा है। हींश की झाड़ी पर तो 100-150 तितलियाँ दिखाई दे जाती है। अप्रैल- मई के समय होने वाली बारिश को स्थानीय भाषा में दोंगड़े कहा जाता है, हम सब जानते है की गर्मी के बाद में आने वाली बारिश को मानसून कहते है, वहीं ठंड में आने वाली बारिश को मावठ कहते है। दोंगड़े जो अचानक और अनिश्चित रूप से आ जाती है। यद्यपि इसका समय काल अत्यंत लघु होता है, एक या दो बारिश में यह सिमट जाता है। यह संक्षिप्त लेकिन गर्मी के मौसम में प्राणियों के लिए एक अचानक से भोजन की बहुतायत और सुखद मौसम लाने वाली जीवनदायी वर्षा अनेक प्राणियों के लिए यह वरदान और पायनियर तितली के जीवन की कुंजी है।

पायनियर तितलियों का जीवन चक्र खासतौर पर कैपरेसी कुल (Capparaceae) के पौधों से जुड़ा हुआ है। इनके मुख्य लारवल होस्ट प्लांट हींश (Capparis sepiaria) और कैर (Capparis decidua) हैं (Arora & Mondal, 1981) इस क्षेत्र में इनकी उपस्थिति विशेष रूप से इन दोनों झाड़ियों पर अधिकतम पाई गई और यही वे पौधे हैं जिन्हें ये तितलियाँ अंडे देने के लिए चुनती हैं।

पायनियर तितली शारीरिक रूप से नाजुक और गर्मी सहने में असक्षम होती है। दिन में प्रातः काल से सुबह लगभग 9 बजे तक ही यह सक्रिय रह पाती है इसके बाद होने वाली तेज धूप में यह झाड़ियों के नीचे छुप कर रहने लगती है। हालाँकि इनकी उड़ान तेज होती है परन्तु थोड़ी दूरी की होती है — साथ ही नीचे-नीचे, फुर्तीली लहरों में यह विचरण करती है। ये अधिकतर अपने होस्ट प्लांट या फूलों के इर्द-गिर्द मंडराती हैं, जिससे इनके लंबी दूरी की उड़ान की संभावना न के बराबर ही है। साथ ही रेगिस्तान में अप्रैल में स्थान विशेष पर होने वाले दोंगड़े वर्षा पूरे क्षेत्र को तितली के लिए अनुकूल नहीं बनाते है, ताकि यह प्रवर्जन के लिए दूर तक जा सके।

इन्ही बातों के आधार पर हमने यह अनुमान लगाया गया कि ये तितलियाँ यहाँ की स्थानीय हैं जो यहीं पैदा होती हैं और यहीं अपना जीवन चक्र पूर्ण करते हुए अगली पीढ़ी को जन्म देती हैं।

पायनियर तितली के जीवन चक्र के विभिन्न चरण (फ़ोटो: प्रवीण)

विस्तार में व्यवहार

वैज्ञानिकों का मानना है कि ये विशेष रूप से चौड़े और खुले आकार वाले फूलों से रस लेना पसंद करती है। सामान्यतः इसे त्रिडैक्स डेज़ी (Tridax procumbens), लैंटाना (Lantana camara), आक (Calotropis) और बेर (Ziziphus) के फूलों पर देखा गया है (Kunte, 2000; Kunte et al., 2021)

लेकिन रणथंभौर क्षेत्र में प्रातःकालीन समय के हमारे व्यवस्थित अध्ययन में यह तितली कुछ अन्य स्थानीय वनस्पतियों से रस लेती देखी गई – और वह भी सूरज की पहली किरणों के साथ!

एक नजर में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सफेद फूलों वाला संतरी (Convolvulus prostratus) इस क्षेत्र में सबसे अधिक मात्रा में उपलब्ध है — खुले मैदानों में बिखरा हुआ तथा  व्यापक रूप से फैला हुआ पुष्पों मानो इसका मुख्य नेक्टरिंग पौधा है। लेकिन जब हमने 10×10 वर्ग मीटर के प्लॉट में पुष्पों की संख्या गिनी, तो सबसे अधिक पुष्प ब्रह्म डंडी (Oligochaeta ramose) के पाए गए — लगभग 500 फूल, जो कि इस तितली की पहली पसंद साबित हुए। इसके बाद त्रिनाड़ी (Lepidagathis trinervis) के लगभग 300 पुष्प और संतरी के केवल 100 पुष्प दर्ज किए गए।

इन तीन प्रमुख पुष्पों के अतिरिक्त, पायनियर तितलियाँ कुछ और स्थानीय वनस्पतियों से भी रस लेती देखी गईं:

  • Echinops echinatus (गोल कांटेदार फूल)
  • Argemone mexicana (सत्यानाशी)
  • Evolvulus alsinoides (विष्णुकांत)
  • Solanum xanthocarpum (कांटे वाला बैंगन) और
  • Launaea procumbens (पाथरी)

पायोनीर तितली अलग-अलग फूलों से रसपान करते हुए (ब्रह्म डंडी, संतरी, खून-रोकनी, और ऊंट-कंटेली) (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल, प्रवीण)

ये तितलियाँ दिन की शुरुआत बहुत जल्दी कर देती हैं। भोर में लगभग 6:00 बजे से ही इनकी गतिविधियाँ प्रारंभ हो जाती हैं। शुरुआत में ये तितलियाँ ब्रह्म डंडी के फूलों पर जाती हैं, फिर 7:00 बजे के बाद संतरी के नए खिले फूलों पर जिनका रंग अभी भी थोड़ा बैंगनी था और पूर्ण सफेद नहीं हुआ था, और इसके बाद अन्य उपलब्ध पुष्पों की ओर आकर्षित होती हैं।

सुबह 8:30 से 9:30 के बीच, अधिकांश तितलियाँ कैर, हींस और बेर की झाड़ियों के पास खुले स्थानों में तथा संतरी के फूलों पर पंख फैलाकर धूप सेंकती देखी जाती हैं। यह धूप सेंकना तापमान संतुलन बनाए रखने के लिए एक सामान्य और महत्वपूर्ण व्यवहार है।

इनका प्रजनन व्यवहार भी सुबह के समय, कम तापमान के दौरान ही शुरू होता है, और सामान्यतः दो घंटे तक सक्रिय रहता है। यह अवधि प्रायः 6:00 से 8:00 बजे के बीच होती है। इसके बाद, लगभग 10:00 बजे तक इनकी गतिविधियाँ लगभग समाप्त हो जाती हैं।

दोपहर के समय, अधिकांश तितलियाँ कैर और बेर जैसी झाड़ियों की छाया में विश्राम करती हुई दिखाई देती हैं। हालांकि कुछ तितलियाँ दिनभर उड़ती भी रहती हैं, परंतु गतिविधि में स्पष्ट वृद्धि शाम 4:00 बजे के आसपास पुनः देखी जाती है। रात्रि में यह तितली झाड़ी के पूर्वी हिस्से में आराम करती है ताकि पश्चिम में छिपते सूरज की गर्मी इन्हें झेलनी नहीं पड़े और सुबह का उगता सूरज इन शीतरक्त कीटो को शीघ्र इतना गर्म करदे की यह सुबह सुबह अपना कार्य प्रारंभ कर सके।

शाम के समय ज्यादातर तितलियाँ प्रायः उड़ान में व्यस्त रहती हैं, जबकि कुछ मादाएँ होस्ट प्लांट पर स्थिर बैठी हुई, पंख फैलाकर नर के संपर्क का इंतजार करती देखी जाती हैं। इस दौरान, जब भी मादा अपने आसपास किसी अन्य तितली की हलचल महसूस करती है, तो वह अपना उदर (abdomen) ऊपर की ओर उठा लेती है—एक नजर में हमने इस व्यवहार को यौन संकेत या जोड़े के चयन से जुड़ा माना।

बाद में हमने पाया कि यह “उदर उठाने” का व्यवहार प्रजनन संकेत होता है। संभोग के बाद मादा तितली ऐसा करके यह संकेत देती है कि वह पुनः संकरण के लिए तैयार नहीं है, जिससे वह अनचाहे प्रयासों से बच पाती है।

belenois aurota abdomen lifting

संभोग के बाद मादा पायनियर तितली अपना उदर ऊपर उठा लेती है — यह एक स्पष्ट संकेत होता है कि वह अब दोबारा संकरण के लिए तैयार नहीं है। (फ़ोटो: प्रवीण)

वैज्ञानिकों का यह भी मानना है की मादा तितली अपने जीवन चक्र की अगली पीढ़ी को सुनिश्चित करने के लिए, होस्ट प्लांट की पत्तियों की निचली सतह पर एकल या छोटे समूहों में अंडे देती है। ये अंडे अंडाकार, सीध में खड़े, हल्के क्रीम या पीले रंग के होते हैं जिन पर महीन रेखाएँ या खांचे स्पष्ट दिखते हैं (Sharma & Khan, 2022) आमतौर पर ये अंडे एक ही पत्ती की छाया में दिए जाते हैं ताकि अधिकतम सुरक्षा मिल सके और आद्र्रता बनी रहे।

लेकिन हमने पाया की सभी अंडे पत्तों की ऊपरी सतह पर ही दिए गए हैं, यहाँ हमने यह भी पाया की ज्यादातर अंडे दोनों किनारो से हल्की सी घुमाव वाली पत्तियों पर ही दिए गए हैं।

इस प्रक्रिया के दौरान नर तितलियाँ ‘मेट गार्डिंग’ करते देखी गई हैं — यानी संभोग के बाद वे मादा के पास रहकर उसकी रक्षा करते हैं ताकि अन्य नर तितलियाँ दोबारा संकरण का प्रयास न कर सकें। अक्सर आने वाले नर तितली को दूर भागते रहते है।

पायनियर तितली पारिस्थितिक रूप से एक दोहरी भूमिका निभाती है — एक ओर यह मौसमी वनस्पतियों, केर और हींश की पत्तियों पर अंडे देकर अपने जीवन चक्र को पूरा करती है, तो दूसरी ओर इसकी बड़ी संख्या में उपस्थिति इन पौधों के लिए एक दबाव उत्पन्न करती है। यह कैपरेसी कुल की झाड़ियों की बड़ी मात्रा में पत्तियाँ खा जाती है।

belenois aurota eggs

पायनियर तितली सामान्यतः अंडे पत्तियों की ऊपरी सतह पर देती है, और विशेष रूप से ऐसी पत्तियाँ चुनती है जो दोनों किनारों से हल्के रूप से मुड़ी हुई होती हैं। (फ़ोटो: प्रवीण)

हालाँकि, इसी संदर्भ में यह तितली अन्य जीवों के लिए भी संसाधन बन जाती है। रणथम्भौर क्षेत्र में हमारे अवलोकनों में एक विशेष जैविक अंतर्क्रिया सामने आई — यहाँ की कुछ सामाजिक मकड़ियाँ (social spiders) विशेष रूप से पायनियर तितलियों को शिकार के रूप में चुनती हैं। ये मकड़ियाँ अपने जाले या घोंसले अक्सर केर या हींश की झाड़ियों के पास या ऊपर बनाती हैं — यह एक अत्यंत चतुर रणनीति प्रतीत होती है, क्योंकि ये झाड़ियाँ पायनियर तितलियों की प्रमुख होस्ट प्लांट हैं। इन जालों में हमने एक समय में दर्जनों से लेकर सैकड़ों तक पायनियर तितलियों को फंसा हुआ पाया — जो इस बात का प्रमाण है कि यह तितली न केवल परागण जैसी पारिस्थितिक सेवाओं में भागीदार है, बल्कि खाद्य शृंखला में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी भी है। यह अंतर्क्रिया जैव विविधता के स्तर पर शिकारी-शिकार संबंधों की जटिलता को दर्शाती है, और तितलियों की अत्यधिक उपस्थिति अन्य जीवों के जीवन चक्र को भी प्रभावित कर सकती है।

belenois aurota social spider interaction

हमने पाया की सोशल स्पाइडर यहाँ केर या हींश की झाड़ियों पर अपने जाले बनाती हैं — जहाँ वे एक ही जाल में सैकड़ों पायोनीर तितलियों को फंसा लेती हैं ।  (फ़ोटो: प्रवीण)

 हमारे अवलोकनों और इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी को देखते हुए, यह संभावना अधिक प्रबल प्रतीत होती है कि पायनियर तितली एक स्थानीय निवासी प्रजाति है, जो क्षेत्रीय जलवायु संकेतों के अनुसार प्रतिवर्ष पुनः प्रकट होती है — विशेष रूप से अप्रैल-मई की पहली वर्षा दोंगड़ेके बाद।

यह तितली न केवल हमारे मौसमीय चक्रों की संवेदनशील दूत है, बल्कि पारिस्थितिकी में विविध और कभी-कभी उलझी हुई भूमिकाओं में भी सक्रिय है — एक परागक, एक कीट, और कई शिकारी प्रजातियों के लिए पोषण का स्रोत। जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग के बदलते पैटर्न के संदर्भ में, पायनियर जैसी तितलियों का दस्तावेज़ीकरण, उनकी जनसंख्या गतिशीलता और अंतर्संबंधों को समझना आज पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है। शायद इसी में भविष्य की पारिस्थितिक स्थिरता की कुंजी छुपी हो।

Cover Image: Dr Dharmendra Khandal

रंग दृष्टि: प्रत्येक जीव के लिए अलग-अलग अनुभव

रंग दृष्टि: प्रत्येक जीव के लिए अलग-अलग अनुभव

बाघ और हिरण को दुनिया वैसे नहीं दिखती जैसे हमें दिखती है। प्रत्येक प्रजाति ने अपने पर्यावरण के अनुकूल रंग दृष्टि विकसित की है। हमारी आँखें प्रकाश को पहचानने और प्रोसेस करने की अनूठी प्रणाली से लैस होती हैं। यह प्रणाली हमारी आँखों और मस्तिष्क के संयोजन से संभव होती है। विभिन्न प्राणी समूह अपनी ज़रूरतों के अनुरूप अपनी दृष्टि विकसित करते हैं। शिकारी प्राणी, जैसे बाघ और बघेरे, अपने शिकार की हलचल पर अधिक निर्भर होते हैं, इसलिए इन्हें विस्तृत रंग श्रेणी देखने की आवश्यकता नहीं होती। इनके पास बायनोक्यूलर दृष्टि होती है, जिससे वे गहराई और दूरी का सही अंदाजा लगा सकते हैं। वहीं, शिकार प्राणी, जैसे हिरण और खरगोश, शिकारियों से बचने के लिए अधिक क्षेत्र देखने की आवश्यकता होती है, इसलिए उनकी आँखें सिर के दोनों ओर स्थित होती हैं, जिससे वे व्यापक दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं।

रंग देखने की क्षमता आँख में मौजूद प्रकाश-संवेदनशील कोशिकाओं (फोटोरिसेप्टर्स) पर निर्भर करती है। ये मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं: रॉड कोशिकाएँ, जो कम रोशनी में देखने और चमक का पता लगाने में सहायक होती हैं, और शंकु (कॉन) कोशिकाएँ, जो रंग और सूक्ष्मता को पहचानने में सहायक होती हैं। मनुष्यों में तीन प्रकार के शंकु होते हैं, जो त्रिवर्णी दृष्टि (Trichromatic vision) प्रदान करते हैं। हम नीले, हरे और लाल रंगों को पहचान सकते हैं, जिससे हमें रंगों की विस्तृत श्रेणी दिखती है। दूसरी ओर, बाघों की आँखों में केवल दो प्रकार के शंकु होते हैं, जिससे वे केवल नीले और हरे रंग को स्पष्ट देख सकते हैं। लाल और नारंगी रंग उन्हें धुंधले भूरे या फीके दिखाई देते हैं। बाघ गति और कंट्रास्ट पर अधिक निर्भर रहते हैं, जिससे रात और शाम के समय शिकार करने में उन्हें सहायता मिलती है। हिरणों की दृष्टि भी द्विवर्णी होती है, लेकिन वे नीले और पीले रंग को बेहतर तरीके से देख सकते हैं। लाल और नारंगी रंग उनके लिए भूरे या धूसर जैसे दिखते हैं। इसलिए, हिरण बाघ के नारंगी फर को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, जिससे बाघ जंगल में आसानी से घुलमिल जाते हैं। 

how do different animals see the same scene

कुछ जीव, जैसे पक्षी, चतुर्वर्णी (Tetrachromatic) दृष्टि रखते हैं, जिससे वे UV प्रकाश भी देख सकते हैं, जबकि मेंटिस श्रिम्प 16-वर्णी (Hyper-spectral) दृष्टि रखते हैं और UV, इन्फ्रारेड और ध्रुवीकृत प्रकाश भी देख सकते हैं। मनुष्य इन्फ्रारेड और UV नहीं देख सकते क्योंकि हमारी आँखों के लेंस UV को फ़िल्टर कर देते हैं। हालांकि, कुछ लोगों को लेंस सर्जरी के बाद UV देखने की क्षमता विकसित होने की रिपोर्ट मिली है।

पक्षी अपनी आँखों को UV प्रकाश से सुरक्षित रखने के लिए कई अनुकूलन विकसित कर चुके हैं। उनकी आँखों के लेंस और कॉर्निया UV प्रकाश को फ़िल्टर करने में सक्षम होते हैं, जिससे अधिक तीव्र UV किरणें सीधे रेटिना तक नहीं पहुँचतीं। इसके अलावा, उनकी आँखों में विशेष प्रकार के तेलयुक्त रंगीन ड्रॉपलेट्स (oil droplets) पाए जाते हैं, जो हानिकारक प्रकाश तरंगदैर्ध्य को फ़िल्टर करने और रंगों को बेहतर तरीके से पहचानने में मदद करते हैं। कुछ पक्षी अपनी पलकें और तीसरी पलक (nictitating membrane) का भी उपयोग UV किरणों से सुरक्षा के लिए करते हैं, जो उनकी आँखों को नमी देने और धूल से बचाने के साथ-साथ UV प्रकाश के प्रभाव को भी कम कर सकती है। 

how does a human and a bird sees the same thing differently

जंगल में किस रंग के कपड़े पहने ?

यदि आप जंगल में जानवरों को कम आकर्षित करना चाहते हैं, तो सही रंगों के कपड़े पहनना महत्वपूर्ण है। चमकीला हरा, सफेद, काला, नीला और बैंगनी रंग जानवरों को स्पष्ट दिख सकते हैं, जबकि भूरा, खाकी और ग्रे रंग प्राकृतिक वातावरण में अच्छी तरह से घुलमिल जाते हैं। नारंगी रंग हिरण और अन्य स्तनधारियों के लिए हल्के भूरे जैसा दिखता है, लेकिन पक्षियों के लिए यह आकर्षक हो सकता है। इसलिए, पक्षियों को कम परेशान किया जाए इसके लिए लाल, नारंगी और पीले रंग से बचना चाहिए।

हर प्राणी का रंग दृष्टि का अनुभव अलग होता है। बाघ और हिरण रंगों को हमारी तरह नहीं देख सकते, लेकिन उनके लिए गति और चमक अधिक महत्वपूर्ण होती है। जंगल में घुलमिल जाने के लिए भूरे, खाकी और ग्रे रंग के कपड़े पहनना सबसे उपयुक्त रहता है।

जंगल में घुलमिल जाने के लिए भूरे, खाकी और ग्रे रंग सबसे उपयुक्त होते हैं
काईरोप्टेरोफेजी: एक शिकारी और शिकार की कहानी

काईरोप्टेरोफेजी: एक शिकारी और शिकार की कहानी

 साँप और चमगादड़, प्रकृति के दो पहरेदार! दोनों ही विचित्र, दोनों ही रहस्यमय। सांप, रेंगने वाले रहस्य के प्रतीक, भूमि के अंधेरे कोनों में छिपे रहते हैं, अपने शिकार की प्रतीक्षा करते हैं। दूसरी ओर, चमगादड़, अंधेरे आकाश के स्वामी, चुपचाप अपने पंखों की सहायता से उड़कर शिकार की तलाश करने वाले एकमात्र स्तनधारी जीव हैं।

इन दोनों प्राणियों में एक अद्भुत समानता है – निशाचर जीवन। रात की खामोशी में ही इनकी दुनिया जीवंत होती है। लेकिन क्या आपने कभी कल्पना की है, क्या ये दोनों कभी एक दूसरे के जीवन का हिस्सा बन सकते हैं? क्या उनके रास्तों में कभी कोई दिलचस्प मोड़ आ सकता है? क्या ये दो अलग-अलग दुनिया एक दूसरे पर निर्भर हो सकती हैं?

यहाँ एक और दिलचस्प पहलू उभरता है: ‘काईरोप्टेरोफेजी’। यह शब्द, चमगादड़ों को खाने की क्रिया को दर्शाता है। यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि कुछ साँप प्रजातियाँ, अवसर मिलने पर, चमगादड़ों का शिकार करती हैं। गुफाओं के अंधेरों में, जहाँ चमगादड़ आश्रय लेते हैं, वहाँ साँपों का छिपकर घात लगाना, प्रकृति के एक अनोखे दृश्य को उजागर करता है।

शाट्टी (Schatti, 1984) ने सर्वप्रथम इस जटिल शिकारी-शिकार संबंध पर प्रकाश डाला है। उन्होंने विशेष रूप से गुफाओं में रहने वाले साँपों की कुछ प्रजातियों को चमगादड़ों का शिकार करते हुए देखा और दर्ज किया। उनके शोध ने यह दर्शाया कि कुछ साँप, गुफा की दीवारों या छत से लटके हुए चमगादड़ों पर हमला करने के लिए अनुकूलित हो गए हैं, और उनकी विशेष शारीरिक संरचना और शिकार करने की तकनीकें उन्हें चमगादड़ों को पकड़ने में मदद करती हैं।

इसके बाद, विश्व स्तर पर हुए कई अध्ययनों से पता चलता है कि सांपों द्वारा चमगादड़ों का शिकार, कई साँप प्रजातियों में सामान्य है। ऐसे मामलों का वैज्ञानिकों द्वारा विश्लेषण करने पर 20 से अधिक सांप प्रजातियों को चमगादड़ों का शिकार करते हुए पाया गया। जिनमें मुख्यतः बोआ परिवार (बोइड्स) में यह अधिक देखा गया।

परन्तु, भारत में साँप-चमगादड़ अंतःक्रियाएँ अभी भी प्रकृति के अंधेरे कोनों में छिपी हैं। भारत में चमगादड़ों (127 प्रजातियाँ) और साँपों (लगभग 302 प्रजातियाँ) की एक समृद्ध विविधता है, लेकिन फिर भी इनकी पारिस्थितिक अंतःक्रियाओं के प्रकाशित विवरण किसी अनसुनी कहानी के बिखरे हुए पन्ने की तरह खोये हुए हैं।

हालाँकि, चमगादड़ों का शिकार करते हुए साँपों को देखना मुश्किल काम है, क्योंकि ऐसा बहुत कम होता है। और इसके लिए हमें ऐसी जगहों पर जाना पड़ता है जहाँ चमगादड़ रहते हैं, जो आमतौर पर दुर्गम या दूरदराज के क्षेत्रों में स्थित होते हैं, मानो प्रकृति इन रहस्यों को अपनी गहरी गुफाओं में छिपाकर रखना चाहती हो।

यहाँ हम आपसे राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों से दर्ज हुए ऐसे ही कुछ मामलों को साझा करने जा रहे हैं।

कोबरा द्वारा फलभक्षी चमगादड़ शिकार

अप्रैल 2018 में, राजस्थान के सवाई माधोपुर में रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के पास एक होटल के नजदीक, एक कोबरा (Naja naja) एक फलभक्षी  चमगादड़ (Cynopterus sphinx) को निगलता हुआ देखा गया। यह घटना एक खुले क्षेत्र में घटी, जिससे अनुमान लगाया गया कि चमगादड़ शायद चंपा के पेड़ (Plumeria rubra) पर आराम कर रहा था। कोबरा को, चमगादड़ को उसके मुंह की तरफ से निगलते हुए देखा गया, और तस्वीरें सुरक्षित दूरी से ली गईं, ताकि वह उसे उल्टी न कर दे। ऐसे दृश्य, अक्सर हमारी नज़रों से ओझल रहते हैं, और यह हमें याद दिलाते हैं कि प्रकृति का हर क्षण अपनी एक अलग कहानी कहता है।

    रैट स्नेक द्वारा शिकार के प्रयास

    सितंबर 2020 में, राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के मैनाल के पास, एक प्राचीन मंदिर कई प्रकार के चमगादड़ प्रजातियों का घर है, जिनमें ब्लैक बेयरडेड टॉमब बैट (Taphozous melanopogon), नैकड-रम्पड टॉमब बैट (Taphozous nudiventris) और लेसर माउस-टेलड़ बैट (Rhinopoma hardwickii) शामिल थे। मंदिर के एक कमरे में, एक भारतीय धामन साँप (Ptyas mucosa) दीवार के एक टूटे हुए हिस्से के पास मौजूद देखा गया। वह साँप, ज़मीन से लगभग 5 फीट ऊपर, और दीवार के खुले हिस्से से करीब डेढ़ फीट की दूरी पर लटके हुए एक चमगादड़ को पकड़ने का प्रयास कर रहा था। मानो, एक प्राचीन मंदिर की दीवारों के बीच, जीवन और मृत्यु का एक छोटा सा नाटक खेला जा रहा था। साँप अपनी पूरी कोशिश कर रहा था, पर अंत में, उसकी कोशिश नाकाम रही। हमारी उपस्थिति के कारण, उसे दीवार के अंदर वापस छिपना पड़ा।

    सारांश यह की प्राचीन संरचनाएँ न केवल इतिहास की कहानियाँ सुनाती हैं, बल्कि प्रकृति के अनगिनत रहस्यों को भी अपने भीतर समेटे हुए हैं।

      फ्रॉस्टेन कैट स्नेक की उपस्थिति

      मई 2023 में, भैंसरोड़गढ़ वन्यजीव अभयारण्य के पाडाझर झरने (चित्तौड़गढ़) में, एक चूना पत्थर की गुफा के भीतर लगभग 15 फीट ऊपर एक लटकी हुई चूना पत्थर की दीवार पर दो फ्रॉस्टेन कैट स्नेक (Boiga forsteni) आराम करते हुए देखे गए। उसी गुफा में दो प्रकार के चमगादड़ भी मौजूद थे: ब्लैक बेयरडेड टॉमब बैट (Taphozous melanopogon) और लेसर माउस-टेलड़ बैट (Rhinopoma hardwickii)। यहाँ एक दिलचस्प बात देखने को मिली – जिस दीवार पर साँप थे, वहाँ चमगादड़ नहीं थे, शायद तेज़ रोशनी या साँपों की उपस्थिति के कारण। साँपों की चालें बहुत ही धीमी और सतर्क थीं।

      वहीं पास में मौजूद एक और चूना पत्थर की गुफा थी जिसके अंदर शिव मंदिर बनाया गया था और पूजा-पाठ की दैनिक क्रिया के कारण गुफा की दीवारें काली पड़ गई थी। इस मंदिर में लेसर माउस-टेलड़ बैट की एक बड़ी आबादी थी, जहाँ अप्रैल 2018 में भी एक ऐसे ही साँप को देखा था, जो फ्रॉस्टेन कैट स्नेक जैसा लग रहा था, लेकिन उसकी पहचान पूरी तरह से नहीं हो पाई थी।

      चूना पत्थर की ऊबड़-खाबड़ दीवारें साँपों के शिकार के लिए कई दरारें प्रदान करती है, और ये दृश्य हमें बताते हैं कि कैसे गुफाएँ सिर्फ पत्थर नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के अनगिनत नाटकों का मंच हैं, जहाँ शिकारी और शिकार एक साथ रहते हैं।

        फ्रॉस्टेन कैट स्नेक द्वारा रणनीतिक स्थान का चुनाव

        अगस्त 2023 में, राजस्थान के बारां जिले में स्थित शाहबाद किले में भी एक फ्रॉस्टेन कैट स्नेक को किले के एक विशाल कक्ष के प्रवेश द्वार पर देखा। हैरानी की बात यह थी कि साँप ने अपनी रहने की जगह एक पुराने दरवाज़े के चौखट के ऊपर बनाई थी, जो अपने आस-पास के वातावरण से थोड़ी ही दूरी पर था। साँप के केंचुली की मौजूदगी से पता लग रहा था कि साँप इस स्थान पर नियमित रूप से आता है। यह स्थान उड़ते हुए चमगादड़ों को घात लगाकर पकड़ने के लिए एक रणनीतिक शिकारगाह की तरह प्रतीत हो रहा था।

        शाहबाद के किले में चमगादड़ के साथ मौजूद फ्रॉस्टेन कैट स्नेक (फ़ोटो: डॉ धर्मेन्द्र खांडल)

        राजस्थान के इन दृश्यों से साँप और चमगादड़ों के बीच एक छिपा संबंध दिखाई देता है। ये हमें बताते हैं कि प्रकृति में अभी भी बहुत कुछ जानना बाकी है। हर जीव ज़रूरी है, और संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है। इस रिश्ते को और समझने के लिए और शोध की ज़रूरत है, और हमें इन जीवों के घरों की सुरक्षा करनी चाहिए। प्रकृति में हर जीव का सम्मान करना ज़रूरी है।

        Ranthambhore: A Journey Through Historical Names

        Ranthambhore: A Journey Through Historical Names

        According to the Archaeological Survey of India, the history of Ranthambhore is believed to be 1,500 years old.

        However, was this place always known by the same name?

        My curiosity did not stop at this single question; I also wondered about the origin of the name.

        When was it first referred to as Ranthambhore?

        The answers to these questions are neither straightforward nor entirely precise, but through fragments of historical accounts, I have tried to piece together the story behind the name.

        Historically, this place has been known by four distinct names:

        Ranasthambhapur, Ranthambhore, Ranatbhanwar, and Ranantpur

        These names, too, appear in various forms across different sources. Most historical accounts suggest that the name Ranthambhore originated from two words: Ran and Thambhore.

        Ran refers to a battlefield, a term still used for the plateau behind the main fort, where Akbar’s army is said to have waged war and fired cannonballs at the fort.

        Thambhore refers to the hill where the fort is located. The word Thambhore is thought to mean “forehead,” as the hill resembles a prominent brow in the landscape.

        However, this explanation has some inconsistencies. For instance, the plateau behind the fort might have been named Ran after the battle during Akbar’s time, but significant battles before this era seem unlikely, as earlier armies lacked artillery, making an assault from this location improbable. Most historians agree that significant conflicts, such as those with the Khilji forces, likely took place near the Delhi Gate of the fort, not at the plateau. Moreover, local inhabitants have never referred to the hill as Thambhore.

        The name Ranatbhanwar has been associated with the Ganesh deity enshrined within the fort. In Rajasthan, Bhanwar is a term often used for the son of a king, and Ganesh is revered as the son of Shiva.

        The term Ranantpur appears in a poetic context and lacks substantial historical evidence to support its usage.

        Mangalana inscription erected by Jaitra Singh of Ajmer in 1215 AD

        Kwalji Shiva Temple inscription from 1288 AD

        The oldest and most reliable evidence of the name comes from two ancient inscriptions. The first is the Mangalana inscription from 1215 AD, commissioned by Jaitra Singh of Ajmer for a stepwell, now housed in a museum in Ajmer. The second is an inscription from 1288 AD, found in the Kwalji Shiva temple- Indergarh (Bundi), installed by a prominent minister of that time. Both inscriptions primarily document the reign of the Chauhan rulers and mention the term Ranasthambhapur, the oldest known name for Ranthambhore.

        The term Ranasthambhapura is derived from three words:

        Ran (War)+ Sthambha (Pillar)+ Pur (Place)

        Together, it signifies a place upheld by the pillars of war. Over time, this name evolved into Ranthambhore, which remains in use today.

        Thus, Ranasthambhapur is the earliest documented name for this historically significant place. Beyond this, no further explanations are available regarding the origin of the name.

        राजस्थान में पहली बार टारेंटुला मकड़ी का रिकॉर्ड: एक अद्भुत खोज

        राजस्थान में पहली बार टारेंटुला मकड़ी का रिकॉर्ड: एक अद्भुत खोज

        टारेंटुला मकड़ियां थेराफोसिडे परिवार से संबंधित बड़े आकार की, घने बालों वाली मकड़ियां हैं। ये दुनिया भर के गर्म क्षेत्रों में पाई जाती हैं और भारत में भी इनकी कई प्रजातियां देखी जाती हैं। राजस्थान में पहली बार टारेंटुला को रणथंभौर के एक अनुभवी गाइड श्री बत्ती लाल मीणा ने रिकॉर्ड किया। उन्होंने इसे 2018 में सिंहद्वार के पास रणथम्भोर किले पर जाने वाली मुख्य सड़क पर फोटोग्राफ किया था। टारेंटुला आमतौर पर मनुष्यों के प्रति आक्रामक नहीं होते हैं, लेकिन इनमें हल्का ज़हर होता है, जो मधुमक्खी या बिच्छू के डंक के समान होता है। ये ज़हर कीड़ों, छोटे सरीसृपों और उभयचरों जैसे शिकार को वश में करने के लिए इस्तेमाल होता है। टारेंटुला रात में शिकार करते हैं और कंपन का पता लगाने के लिए अपने संवेदनशील बालों पर निर्भर रहते हैं। ये पारिस्थितिकी तंत्र में शिकारियों और शिकार दोनों के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डरावनी छवि के बावजूद, टारेंटुला अपने अनोखे व्यवहार और जैव विविधता में योगदान के लिए जाने जाते हैं। यह खोज अपने आप में राजस्थान के लिए तो अनूठी है ही बल्कि मेरा मानना है की यह विज्ञान के लिए एक नयी मकड़ी की एक प्रजाति भी हो सकती है।

        राजस्थान में पहली बार टारेंटुला मकड़ी के खोजकर्ता श्री बत्ती लाल मीणा
        रणथंभोर में बाघ संरक्षण की वर्तमान चुनौतियां

        रणथंभोर में बाघ संरक्षण की वर्तमान चुनौतियां

        राजस्थान में बाघ संरक्षण में रणथंभोर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और यहीं से राज्य के अन्य क्षेत्रों के लिए बाघों को भेजा जा रहा है। अक्सर यह देखा गया है की राजनीतिक दबाव के कारण नए स्थापित रिजर्वों में भेजे जाने वाले बाघों का चयन जल्दबाजी में अवैज्ञानिक तरीके से किया जाता रहा है, जिससे रणथंभोर के बाघों की आबादी पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। यह लेख रणथंभोर में बाघों की आबादी से जुड़ी मुश्किलों और चुनौतियों पर प्रकाश डालता है, साथ ही यह आलेख स्पष्ट करता है की किस प्रकार कुछ वर्षों में किये गए बाघों के अन्यत्र स्थानांतरण ने रणथंभोर को किस प्रकार मुश्किल में डाला है।

        यहाँ मुख्यतः निम्न प्रश्नों पर टिप्पणी की गई है:

        • रणथंभोर के बाघों में अक्सर नर अपना जीवनकाल पूरा नहीं कर पाते और समय से पहले ही अपना क्षेत्र खो देते हैं, जबकि मादा अधिक समय तक जीवित रहती हैं, कुछ तो 19 वर्ष की आयु भी पार कर जाती हैं। इसके पीछे क्या कारण रहते है? यदि स्थान की कमी मात्र एक कारण होता तो यह प्रभाव दोनों पर देखने को मिलना चाहिए था?
        • रणथंभोर में बाघों की वर्तमान जनसंख्या के आंकड़े क्या हैं? और रणथंभोर की बाघ आबादी में कितने नर और मादा हैं?
        • बढ़ते मानव-बाघ संघर्ष के पीछे क्या कारण हैं?

        1.   वयस्क नर-मादा अनुपात में असंतुलन

        वर्तमान में, रणथंभोर (डिवीजन I) की बाघ आबादी 46 (वयस्क) हैं – इनमें 23 नर और 23 मादा है। हालांकि, 23 में से केवल 18 मादा ही प्रजनन योग्य हैं। जबकि पाँच बाघिनें (T08, T39, T59, T69, और T84) 15 वर्ष से अधिक या समकक्ष आयु अथवा बीमार हैं और उनके आगे प्रजनन करने की संभावना अत्यंत क्षीण है। हालाँकि अभी 23 नर में से कोई भी नर 11 वर्ष से अधिक का नहीं हुआ है, जो नरों के बीच उच्च संघर्ष दर का कारण है। वयस्क नर समय से पहले ही उनकी टेरिटरी से भगा दिए जा रहे है।

        रणथंभोर में 46 वयस्क बाघों के अलावा 15 शावक भी हैं। इसके अतिरिक्त, कैलादेवी क्षेत्र (रणथंभोर के डिवीजन II) में 4 बाघ हैं, जिससे रणथंभोर बाघ अभयारण्य में बाघों की कुल आबादी 65 हो गई है। हालांकि, रणथंभोर में कुछ लोगों की माने तो 88 बाघ है, परन्तु यह दावे गलत हैं। एक समय यह संख्या निश्चित रूप से 81 तक पहुँच गई थी, लेकिन कई बाघ प्राकृतिक कारणों से समय से पहले मर गए और अनेक बाघ इधर उधर भेज दिए गए। आजकल शावकों को भी गिनती में शामिल किया जाने लगा है, जिससे बाघों की बढ़ी हुई संख्या सामने आती है। हालाँकि छोटे शावकों को गिनती में शामिल करना एक सही तरीका नहीं है। अक्सर वन अधिकारियों द्वारा इन बढ़े हुए आंकड़ों को मीडिया में बढ़ावा दिया जाता रहा है। इसका उद्देस्य असल में रणथंभोर से बाघों के स्थानांतरण को विरोध का सामना नहीं करना पड़े इसलिए किया जा रहा है।

        2.   बाघों के स्थानांतरण के परिणाम: बिगड़ा हुआ लिंग अनुपात, परिणाम स्वरूप मानव-बाघ एवं बाघ-बाघ संघर्ष में बढ़ोतरी।

        अब तक 11 बाघिनों (T1, T18, T44, T51, T52, T83, T102, T106, T119, T134, और T2301) और 5 नर बाघों (T10, T12, T75, T110, और T113) को रणथंभोर से दूसरे रिजर्व में स्थानांतरित किया जा चुका है। मादा-से-नर के इस 2:1 स्थानांतरण अनुपात ने रणथंभोर में नर-मादा के अनुपात को पूरी तरह असंतुलित कर दिया है। पारिस्थितिकी जरूरत के अनुरूप बनाए जाने के बजाय,  राजनीतिक प्रभाव में स्थापित किए गए नए रिजर्व एवं बिना इकोलॉजिकल सुधार के बाघों के स्थानांतरण के कारण अनेक स्थानांतरित बाघों (T10, T12, T44, T75, T83, T102, और T106) की मृत्यु दर्ज की गयी, साथ ही उनको प्रजनन सफलता की कमी और मानव-वन्यजीव संघर्षों का सामना करना पड़ा है। रणथंभोर के भीतर गुढ़ा और कचिदा जैसे प्रमुख क्षेत्र अब बाघों के हटाए जाने के कारण खाली पड़े हैं, जिससे आबादी का सामाजिक ढांचा बाधित हो रहा है क्योंकि इन जगह से अनेक बार रेजिडेंट बाघों को उठाया गया है। जैसे स्थानांतरित बाघिन T102 का क्षेत्र तीन वर्षों से अधिक समय से खाली पड़ा है। इसी तरह, नर T12 के स्थानांतरित होने के बाद, उसकी मादा  साथी T13 पार्क छोड़कर चली गयी और अंततः उसके दो शावक मारे गए। यह सभी कारण प्रदर्शित करते है कि बाघों के संरक्षण में अवैज्ञानिक तरीके अपनाए गए है।

        3.   युवा नर बाघों की अधिक संख्या से संघर्ष बढ़ रहे हैं

        रणथंभोर में आज के समय जो 23 नर हैं, उनमें सबसे अधिक उम्र का मात्र एक बाघ है, जो 10-11 साल का है।  इन 23 बाघों में से 20 बाघ छह साल से कम उम्र के हैं, जो दर्शाता है कि इनके मध्य संघर्ष बढ़ने की संभावना है और यह सब भी संघर्ष का ही नतीजा प्रतीत हो रहा है। इन बाघों के बीच क्षेत्रीय संघर्ष के कारण बाघ अपनी उम्र से पहले ही टेरिटरी छोड़ रहे है।

        कुछ को नए क्षेत्रों की तलाश में बाहरी क्षेत्रों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। रणथंभोर में विषम लिंग अनुपात के बारे में पता होने के बावजूद, पिछले साल तीन बाघिनों को अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर दिया गया था। संतुलन बहाल करने और संघर्ष को कम करने के लिए नर बाघों की अधिक संख्या को नियंत्रित करने की आवश्यकता है और मादाओं के स्थानन्तरित करने पर रोक की ओर अधिक बल देना चाहिए।

        4.   रणथंभोर में बाघिनों की दीर्घायु के कारण

        रणथंभोर में मादाएँ अक्सर लंबे समय तक जीवित रहती हैं, कुछ की आयु 19 वर्ष से अधिक पहुंची है। यह दीर्घायु आंशिक रूप से पार्क अधिकारियों द्वारा किए गए हस्तक्षेपों के कारण है, जो अक्सर स्वास्थ्य चुनौतियों या शिकार की कठिनाइयों का सामना करने वाले बाघिनों को शिकार उपलब्ध करवाकर के उनकी सहायता करते हैं। हालाँकि ये उपाय उनके कठिन समय के दौरान जीवित रहने को सुनिश्चित करते हैं, परन्तु वे उन्हें जंगल की प्राकृतिक प्रतिकूलताओं से बचाकर कृत्रिम रूप से उनके जीवनकाल को भी बढ़ाते हैं। इसमें सबसे बड़े कारण हमारे मीडिया बंधु होते है अथवा बाघ प्रेम प्रदर्शित करने वाले सोशल मीडिया के बाघ प्रेमी जो इसके लिए अक्सर कई तरह से दबाव बनाते है। दूसरा कारण है की बाघिनें पार्क के भीतर अधिक आसानी से दिखाई देती हैं, अक्सर अधिकारियों को अधिक दिखाई देती है और वे उनके प्रति नरम दृष्टिकोण अपनाते हैं ओर उन्हें बुढ़ापा आने तक भी मरने नहीं देते है।

        इसके अलावा, युवा बाघिनों को अन्य रिजर्व में स्थानांतरित करने से रणथंभोर में मादाओं की संख्या में और कमी आई है। परिणामस्वरूप, शेष बाघिनों, जिनमें से कई बड़ी उम्र की हैं को शिकार, पानी और सुरक्षित क्षेत्रों जैसे संसाधनों के लिए कम प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है ओर वे आधी उम्र तक जिंदा रहती है।

        हालाँकि, प्रजनन क्षमता वाली कम उम्र की मादा बाघिनों के स्थानांतरण के साथ, सीमित प्रजनन क्षमता वाली वृद्ध मादा बाघिनों की उपस्थिति इस भ्रामक धारणा को और मजबूत करती है कि पार्क में संतुलित या अधिक मादा आबादी है। यह क्षेत्र में बाघ आबादी की दीर्घकालिक स्थिरता को कमजोर करता है।

        5.   क्या रणथंभोर से बाघों के स्थानांतरण को पूरी तरह से रोक दिया जाना चाहिए?

        नहीं, बाघों के स्थानांतरण को पूरी तरह से रोकना समाधान नहीं है। रणथंभोर की बाघ आबादी राज्य और उसके बाहर के अन्य पार्कों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालाँकि, ऐसे स्थानांतरण के लिए धैर्य, सावधानीपूर्वक योजना और सूचित निर्णय की आवश्यकता होती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि स्रोत आबादी को खतरे में डाले बिना (स्रोत और प्राप्तकर्ता) दोनों क्षेत्रों को लाभ हो।

        रणथंभोर में वर्तमान में 15 शावक वयस्कता के करीब हैं, जो भविष्य के स्थानांतरण की संभावना प्रदान करते हैं। हालाँकि, इस स्तर पर मादा बाघिनों को और हटाने से आबादी की स्थिरता गंभीर रूप से बाधित हो सकती है। अन्य अभयारण्यों की जरूरतों को रणथंभोर की बाघ आबादी के दीर्घकालिक स्वास्थ्य और स्थिरता के साथ संतुलित करना महत्वपूर्ण है।

        सुझाव

        1.  बाघिनों के स्थानांतरण पर तुरंत रोक लगाएं

        रणथंभोर की आबादी को और अधिक अस्थिर होने से बचाने के लिए बाघिनों के स्थानांतरण को रोका जाना चाहिए। यदि स्थानांतरण आवश्यक है, तो  कुछ नर बाघों को स्थानांतरित करने से क्षेत्रीय टकराव कम होगा और महत्वपूर्ण मादा आबादी सुरक्षित रहेगी।

        2.  आनुवंशिक विविधता के लिए अन्य राज्य का सहयोग करें एवं उनसे मदद

        राजनीतिक रूप से समान विचारधारा के राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से नए बाघ मांगे जा सकते है।  उनसे बाघों के आदान-प्रदान का अवसर ढूँढने पर बल देना चाहिए। इससे राजस्थान की बाघ आबादी में नई आनुवंशिक विविधता का संचार होगा और इसकी दीर्घकालिक व्यवहार्यता मजबूत होगी।

        3.  डिवीजन II के विकास पर ध्यान केंद्रित करें

        नए रिजर्व बनाने के बजाय, संसाधनों को रणथंभोर के डिवीजन II के विकास के लिए आवंटित किया जाना चाहिए। स्रोत आबादी को मजबूत करना पूरे राजस्थान में बाघ संरक्षण प्रयासों को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।

        4.  विचारशील स्थानांतरण रणनीतियों को अपनाएं

        बाघ SBT 2303 के हालिया स्थानांतरण उल्लेखनीय कदम है, यह कोर आबादी को प्रभावित किए बिना भटकते बाघों को स्थानांतरित करने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। कड़ी निगरानी और विशेषज्ञ परामर्श द्वारा समर्थित इसी तरह के स्थानांतरण को बढ़ावा देना चाहिए ।

        5.  स्थानांतरण पर एक साल का स्थगन लागू करें

        स्थानांतरण पर अस्थायी रोक बाघों की निगरानी और अध्ययन में सहायता करेगा और साथ ही स्थानांतरण के लिए संभावित उम्मीदवारों पहचान में भी लाभकारी होगा। यह विराम सुनिश्चित करने में मदद करेगा कि भविष्य के स्थानांतरण विज्ञान-संचालित और न्यूनतम विघटनकारी हों।