विभिन्न वनस्पत्तियों के लिए स्थानीय समूदायों का पारम्परिक ज्ञान हमेशा से ही एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक विरासत है, परन्तु इन समुदायों की कई परम्परायें ऐसी भी हैं जो प्रकृति के संरक्षण की मुहिम की खिलाफत भी करती हैं।
स्थानीय समूदायों का पारम्परिक ज्ञान एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक विरासत है। यह ज्ञान समस्त स्थानीय समुदायों के स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, साँस्कृतिक, धार्मिक, व्यापारिक, भौतिक विकास एवं कृषि उत्पत्ति का माध्यम तो है साथ ही उनके स्थानीय पर्यावरण की सुरक्षा भी करता है तथा उनकी विशिष्ठ पहचान को भी बनाये रखने में मदद करता है।
परम्परागत चिकित्सकीय ज्ञान प्रथायें समाज के स्वास्थ्य देखभाल में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया की आबादी का 80 प्रतिशत भाग परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों का लाभ लेता है तथा इस कार्य में हर्बल दवायें बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। रासायनिक क्रांति के बाद अनेक परम्परागत आदिम दवाओं के रासायनिक संघटन को समझने में मदद मिली एवं उन दवाओं की प्रभाविता को आधुनिक विज्ञान ने भी पहचान व मान्यता प्रदान की। निश्चय ही यह हमारे परम्परागत समुदायों के लिए गर्व का विषय है। प्राचीन समय से ही इफेड्रा का उपयोग दमा व कम रक्तचाप उपचार के साथ-साथ हृदय रोगों के निवारण में होता रहा है। सर्पगंधा (Rauwolfia serpentina) उच्च रक्तचाप को कम करने की अग्रणी दवा रही है; तो अफीम ने दर्द निवारक दवायें प्रदान की हैं। सदाबहार (Catharanthus roseus) ने रक्त केंसर के ईलाज का मार्ग खोला है तो मधुमेह से निजात पाने की दवायें भी दी हैं। सैलिक्स प्रजाति से “सालिकिन” मिला है जिसके संश्लेषित विकल्प एसिटाइल सेलिसाइलिक अम्ल (एस्प्रिन) ने गठिया से बचने का मार्ग प्रशस्त किया है। अनेक मनोरोगों के ईलाज हेतु धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजनों में अनेक पौधों के अर्क के उपयोग का विवरण आदिम जातियों के सन्दर्भ में कटेवा एवं जैन (2006) ने प्रस्तुत किया है। औषधियों से सम्बन्धित पौधें विरासत है जिस पर समय के साथ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की इमारत खड़ी हुई है। चिकित्सा का परम्परागत ज्ञान आदिवासियों द्वारा संजोई बड़ी विरासत है जिस पर समय के साथ चिकित्सा और वनस्पतियों का विविध तरह से उपयोग कुछ ऐसे ज्ञान क्षेत्र हैं जिसमें आदिवासी समुदायों के योगदान को मानवता भूल नहीं सकती (सुलीवस, 2016; यादव 2019; वेद एवं साथी, 2007; कटेवा एवं जैन 2006; जोशी, 1975; शर्मा एवं जैन, 2009)।
एक कटोरी हथियार का इस्तेमाल कर के लंगूरों को पकड़ा जाता है तथा उनके शरीर के विभिन्न अंगों को निकाल लिया जाता है।(डॉ. अनिता जैन)
राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है जो देश के उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। राज्य की कुल जनसंख्या में 13.47 प्रतिशत आदिवासी समुदायों का प्रतिनिधित्व हैं। यह प्रतिशत देश की औसत आदिवासी आबादी से लगभग दुगना है। राजस्थान में भील, मीणा, गरासिया, डामोर एवं सहरिया प्रमुख जनजातियाँ हैं। राजस्थान की जनजातियाँ अपने परम्परागत ज्ञान में बहुत घनी हैं। इन जातियों ने सदियों से जल, जंगल, पहाड़ों एवं प्राकृतिक स्त्रोतों का किफायती उपयोग के साथ-साथ उनकों संरक्षित भी किया है। वन सुरक्षा एवं संरक्षण का सिलसिला उनकी परम्पराओं, सांस्कृतिक व धार्मिक आयोजनों में ना-ना तरह से रचा-बसा आ रहा है। वे जंगल व पहाड़ को देवता का रूप मानते हैं। दक्षिण राजस्थान में आदिवासी जंगल एवं पहाड़ को बड़े आदर के साथ सदियों से “मगरा बावसी” यानी “पर्वत देव” मानते चले आ रहे हैं।
लेकिन एक दूसरा पहलू भी महत्त्वपूर्ण है। जनजातियों में अनेक परम्परायें ऐसी भी हैं जो प्रकृति के संरक्षण की मुहिम की खिलाफत भी करती हैं। इन परम्पराओं से जैविक विरासत/प्राकृतिक विरासत को नुकसान भी पहुँचता है। यहाँ ऐसी ही कुछ परम्पराओं की जानकारी दी जा रही है।
“मगरा स्नान” पर्वत देव यानी मगरा बावसी की एक विशेष पूजा की एक परम्परा है। जिसमे भील समुदाय के लोग अपने आराध्य देव मगरा बावसी से अपनी मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना करते हैं। जब उनका मनोरथ पूर्ण हो जाता है तो वे कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु पर्वत देव को “अग्नि स्नान” या “मगरी स्नान” कराते हैं। यह आयोजन गर्मी के मौसम में किया जाता है तथा पूजा के रूप में पहाड़ के जंगल में आग लगाई जाती है। जंगल की आग आगे और आगे फैलती जाती है तथा सूखी घास-पत्तों के साथ हरी-भरी वनस्पत्तियाँ, नये उगे नन्हें पौधे, कीट-पतंगे व धीरे चलने वाले जीव-जन्तु सभी मारे जाते हैं। भूमि की नमी को काफी नुकसान पहुँचता है तथा भूमि में रहने वाले उपयोगी जीवाणु व कनक भी मारे जाते हैं। कई बार आग इतनी विषम जगह पहुँच जाती है जहाँ न तो आग बुझाने के लिये वाहन से पानी पहुँचाया जा सकता है न ही सहजता से मनुष्य पहुँच पाता है। फलतः कई दिनों तक जंगल जलता रहता है। लकड़ी के रूप में जमा कार्बन इस समय वाजिक कार्बन डाई ऑक्साइड बनकर वातावरण में पहुँच जाता है। हवा में पहुँचा यह कार्बन जलवायु के परिवर्तन हेतु उत्तरदायी है। हम सहज ही अनुमान लगा सकते है गर्मी की अनियंत्रित विनाशकारी आग में कितनी जैव विविधता का नाश होता होगा (जोशी,1995)।
मगरा पूजा के दौरान पहाड़ के जंगल में लगाईं जाने वाली आग का भीष्म रूप। (डॉ. अनिता जैन)
मधुमक्खियों का शहद परम्परागत विधि से ही संग्रह करने की परिहारी है। जब शहद जोड़ना होता है, छत्ता तोड़ने में माहिर व्यक्ति, जिसे “मामा” कहा जाता है, अपने हाल में घास-फूस का एक बत्ता सा सुलगा कर मधुमक्खियों को धुँआ कर उड़ाता है। कई बार हवा के प्रावह से छत्ता जल उठता है तथा मधुमक्खियों के झिल्लीनुमा नाजुक पंख जल जाते हैं। अब उनके लिये उड़ना संभव नहीं हो पाता एवं वे असहाय छत्ते के नीचे गिर जाती है। कई बार रात्रि को ठंडा पानी छत्ते पर उड़ेल कर मधुमक्खियों को छत्ते से हटाया जाता है। दिनचारी मधुमक्खियाँ रात में उड़ नहीं पाती है, तथा इधर-उधर गिर जाती हैं। इन सभी तरीकों से कितनी बड़ी संख्या में मधुमक्खियाँ मारी जाती हैं, हम सहज अनुमान लगा सकते हैं। यह भी सर्व विदित है यह नुकसान मानवता के लिए बड़ा नुकसान है क्योंकि मधुमक्खियाँ परागण द्वारा फल, सब्जियाँ, बीज उत्पादन करती हैं। वनों में उनकी संख्या में गिरावट आने से प्राकृतिक रूप से बीज बनने की प्रक्रिया पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे वनों का प्राकृतिक पुनरूद्भाव भी बाधित होता है।
महुआ वृक्ष, आदिवासी समाज में एक सम्मानित वृक्ष हैं। गर्मी के मौसम में एक लघु वन उपज के रूप में महुआ-फूल संग्रह किया जाता हैं। जब महुआ वृक्ष फूलों से लड़ जाता है, तो फूलों को आसानी से इकठ्ठा करने हेतु, वृक्ष की छाँया में पड़ी सूखी पत्तियों में आग लगा दी जाती हैं। कई जगह महुआ वृक्ष बहुत पास-पास होते हैं तथा सूखी पत्तियों की निरन्तरता वन क्षेत्र तक रहती हैं। ऐसी स्थिति में आग बढ़ती हुई जंगल तक पहुँच जाती है। प्रायः देखा जाता है, लोग महुये की पत्तियों की आग को फैलाने से नहीं रोकते। किसी पगदंडी पर यदि कौंच की फली लटकी है तो वहाँ आग लगा कर फली के रौंये से झुलसाये जाते हैं ताकि मार्ग सुरक्षित हो जाये। इस कार्य से भी जंगल में जब-तब आग फैल जाती हैं।
जंगली पक्षियों को पकड़ने का उपकरण। (डॉ. अनिता जैन)
मकर संक्रान्ति पर आदिवासी समाज की लड़कियाँ सुबह विदारी कंद (Pueraria tuberosa) की तलाश में निकल जाती है। वनों से सामूहिक रूप से एक ही दिन में बड़ी संख्या में विदारी कंदों का दोहन हो जाता है। घर लाकर इसको खाने की प्रथा है। जून माह में किसान हल्दी, अदरक, सूरण, रतालू आदि कंदीय फसलों को खेत में उगाने का कार्य करते है। इन फसलों को बीज से नहीं, कन्दों से ही उगाया जाता है। खेत में कन्द मिट्ठी में दबा कर उन पर पलाश (Butea monosperma) की पत्तियाँ तोड़ कर ढकाई का कार्य किया जाता है। इस समय फूल एवं पातड़ी पैदा कर पलाश में आई सभी नई पत्तियाँ तोड़ कर खेत में कन्द रोपाई के काम में “पत्ति मल्य” (Leaf mulch) लगाने के काम में प्रयुक्त हो जाती हैं। पलाश वृक्षों को बड़ी मात्रा में अपने पत्तियाँ खोनी पड़ती हैं। दक्षिण राजस्थान में होली का “डाँडा” रोपने हेतु सेमल की लकड़ी काम में ली जाती हैं। होली पर्व पर जंगलों से बड़ी संख्या में हरे सेमल काट कर शहरों एवं कस्बों में पहुँचाये जाते हैं। इस तरह चयनात्मक कटाई (Selective Felling) से दक्षिणी राजस्थान में सेमल वृक्ष अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है (जैन, 2009)।
Eulophia ochreata के कंद का बाजार।(डॉ. अनिता जैन)
वनों में अतिक्रमण एक बड़ी समस्या है। यह धीमी प्रक्रिया से किया जाता हैं। पहले वृक्षों के आधार पर घेरे में छाल उतारी (Girdling) जाती हैं। जब ये सूख जाते हैं, इन्हें काट कर आग के हवाले कर दिया जाता है। नदियों के तट पर यह कार्य बढ़-चढ़ कर किया जाता है क्योंकि नदि के तट पर यदि खेत बनता है तो नदि का पानी सिंचाई में प्रयोग करने की सुविधा रहती हैं। इससे नदियों के तट के “राइपेरियन वन” बर्बाद हो जाते हैं तथा नम क्षेत्र की जैव विविधताएं नष्ट हो जाती है।
कई जगह खजूर का रस निकाला जाता हैं एवं उससे ताड़ी भी बनाई जाती है। बार-बार रस निकाले जाने से खजूर की सेहत काफी खराब हो जाती है। खजूर के संग्रहित रस को पानीे बड़ी संख्या में मधुमक्खियाँ आती हैं तथा रस के घड़ों में गिर कर मर जाती हैं। कई बार इन घड़ों का रस पीने एवं मधुमक्खियों को खाने भालू भी आने लगते हैं। इस तरह भालूओं के व्यवहार में परिवर्तन होने लागता है जिससे उनका मानव से संघर्ष बढ़ने लगता हैं।
केरिया, बहते पानी में आदिवासियों द्वारा मछली पकड़ने का उपकरण। (डॉ. अनिता जैन)
आदिवासी मछलियाँ पकड़ने हेतु कई मीन विषों का उपयोग करते हैं। ये मीन विष पेड़-पौधों से प्राप्त कर ठहरे पानी में फैंके जाते हैं जिससे मछलियाँ मर कर तैरने लगती हैं। कई बार आदिवासी पानी में विस्फोटक फैंक कर मछली मारते हैं। इस प्रयास में मेंठक, पानी के साँप, कछुये एवं कई बार मगर जैसे प्राणी भी मारे जाते हैं। इन सभी विधियों से न केवल बड़ी बल्कि नन्ही-नन्ही मछलियाँ भी मारी जाती हैं एवं आने वाले वर्षों में प्रजनन लायक मछलियाँ भी नहीं बचने से उनकी संख्या में भारी गिरावट आ जाती है। इससे जलीय पक्षियों एवं मछलियों पर निर्भर करने वाले दूसरे जीवों को भी भोजन संकट से जूझना पड़ता है।
हम यदि अपने आदिवासी समुदायों को जागरूक करें तो निसंदेह उसके सकारात्मक परिणाम आयेंगे इससे उनका सदियों से प्रकृति के साथ का रिशता अटूट रहेगा।
सन्दर्भ:
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Katewa, S.S. & A. Jain (2006). “Traditional folk Herbal Medicines” Apex Publishing House, Jaipur Rajasthan.
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लेखक:
Dr. Anita Jain (L): Dr. Anita Jain, is currently FES Head, Department of Botany, Vidya Bhawan Rural Institute, Udaipur. She has published several research papers in National & international journals and authored reference books.
Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.
जल संरक्षण का सूक्ष्मता से अध्ययन के लिए आप शेखावाटी के अद्धभुत जोहडों और कुंडो की संस्कृति को आधार बना सकते हो …
राजस्थान के चूरू जिले के गाँवो में जब भी काले बादल छाते है, यहाँ के निवासी अपनी छत्तों की सफाई करने लग जाते हैं, ताकि बारिश की हर एक बून्द को शुद्धता के साथ पीने के लिए बचाया जा सके। सीकर, झुंझुनूं और चूरू जिले जो शेखावाटी के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग हर घर और खेत में एक बड़ा पानी का टांका पारंपरिक रूप से बनाया हुआ होता हैं, जिसमें स्थानीय लोग वर्षा जल को शुद्ध पेयजल के रूप में संरक्षित करते आये हैं, जो स्थानीय भाषा में कुंड कहलाते हैं। रेगिस्तान के इस शुष्क इलाके में यह परम्परा सदियों से है। पानी का उपयोग भी घी की तरह बड़ी मितव्यता से करते थे, कुछ दशक पहले तक तो बिना साबुन से नहाया और कपड़े धोया हुआ पानी भी पेड़ पौधों में डाल कर उसका अंतिम उपभोग किया जाता था,और बारिश के अलावा घरों से पानी का नाला न के बराबर बहता था।
कुण्डों का संचित पानी घर में सिर्फ पीने के लिए काम में लिए जाता है।
सोमासी (चूरू, राजस्थान) गांव का दृश्य जिसमें गहनता से देखने पर हर घर में एक कुंड (टांका) देखा जा सकता है। यह पानी पुरे साल पीने के काम में लिया जाता है, जो फ्लोराइड से भी मुक्त होता है। (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
इस परम्परा को नजदीक से जानने वाले सोमासी गांव (चुरु) के निवासी श्री मनोज गोरसिया के अनुसार पालतू पशुओं के साथ साथ वन्य प्राणियों को भी पानी की उपलब्धता हो, इसके लिए जोहड़ का निर्माण एक लम्बी परंपरा रही है। अक्सर खेतो, गोचर या ओरण में जोहड़ का निर्माण उन स्थानों पर होता था जहाँ मिटटी में जिप्सम की अधिकता हो जो जल को लम्बे समय तक जमीन में रिस कर नीचे जाने से रोके रखने में सक्षम हो। बलुई टीलों के मध्य जिप्सम के इन मैदानों के मध्य में बनाये गए हल्के गहरे गड्ढे में बारिश की हर बून्द को करीने से सुरक्षित किया जाता रहा है। हर एक जोहड़ के चारों तरफ जलग्रहण के लिए स्थान को सुरक्षित रखना सबसे बड़ी कवायद और चुनौती होती है। इस स्थल को जिसे पायतान के नाम से भी जाना जाता है को साफ-सुथरा रखने के लिए गांव की तरफ एक रखवाला भी रखा जाता है जो ये सुनिश्चित करता है कि जोहड़ पायतान में कोई मृत पशु डालने का कार्य, व शौच क्रिया ना हो साथ ही बच्चों को भी जोहड़ में नहाने से रोकना होता है ताकि उनके साथ होने वाली किसी दुर्घटना को टाला जा सके,,
फतेहपुर कस्बे (सीकर, राजस्थान) की गोचर भूमि में स्थित जोहड़I (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
फतेहपुर (सीकर , राजस्थान) के जोहड़ का अनूठा निर्माण शिल्प I (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
जल ही जीवन है शायद इसीलिए इन स्थानों को मंदिरो की तरह आदर भाव से देखा गया, जिनका लाभ इंसानो, पशुओ एवं वन्यजीवन ने भरपूर उठाया। समाज का हर एक व्यक्ति इस से जुड़े अलिखित संरक्षण के नियमो का पालन करता था, जिसमें इन स्थानों में शौच आदि न जाना, यहाँ की मिट्टी को अन्यत्र नहीं ले जाना शामिल है। श्री गोरसिया कहते है इन छोटे और आसान नियमो में बंधे समाज ने रेगिस्तान में पशु , वन्यजीव एवं इंसानो के मध्य एक साम्य बना कर रखा। वर्ष के तय दिनों में इनके जलग्रहण क्षेत्र में उगने वाले झाड़ झंकाड़ को हटाया जाता था एवं जल का प्रवाह तय स्थान तक पहुंचे इसके लिए मिट्टी को समतल भी किया जाता था। राजस्थान के शेखावाटी के समृद्ध स्थानों में तो धनाढ्य वर्गों ने जोहड़ो को चूना पत्थर से पक्का निर्माण करवादिया। साथ ही जोहड़ निर्माण को अपनी प्रतिष्ठा एवं सम्मान से जोड़ना शुरू कर दिया एवं इनके निर्माण को उच्च स्तर पर ले गए। यह पक्के जोहड़ आज भी उस शानदार इतिहास की एक झलक दिखाते है।
इस जल कुंड के पास पगडंडिया बताती है की, इनका आज भी कितना अधिक उपयोग होता है, यह जल कुंड रोलसाबसर (चूरू जिला ) गांव के पास स्थित है I (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
रामगढ कस्बे के पास स्थित जोहड़ के पास सेंकडो चिंकारा एवं अन्य वन्यजीव रहते है, जो इसके जल को उपयोग में लेते है। (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
अक्सर यह वर्गाकार आकृति के होते है जिनमें चारो कोनो पर सूंदर गुम्बंद वाली छतरीयां और हर ओर मध्य में पानी तक जाने के रास्ते होते है। कच्चे जोहड़ में अधिकतम छह माह तक ही पानी संरक्षित रखा जा सकता था पर पक्के और चूने से बने इन खूबसूरत जोहड़ में बारह मास पीने का शुद्ध और मीठा पानी मिलता रहता ह। पक्के जोहड़ सीढ़ी नुमा गहराई में होते हैं, गहराई के साथ पानी के अलग अलग सीढ़ी नुमा तल को चौपड़ कहते है। जोहड़ की बाहरी सीमा उंची बनाई जाती है, ताकि पशु आदि उसे गन्दा नहीं करे, पालतू पशु और वन्य जीवो के पानी पीने के लिए, जोहड़ से जुड़ा हुआ एक अलग से स्थान बनाया जाता था, जिसे गऊघाट कहते है।
पीथलाना गांव (चूरू जिला) के जोहड़े का उपयोग पशुओ की जलापूर्ति करता है, यह स्थान एक अच्छा पिकनिक स्पॉट भी है। (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
शेखावाटी के एक कस्बे रामगढ के जोहड़ संरक्षण में लगे श्री ओम प्रकाश कलावटीया कहते है, के वर्तमान में अत्यधिक दोहन एवं जलवायु परिवर्तन के कारण जब जल संकट गहराता जा रहा है, तब इन जोहड़ो के महत्व को नकारते हुए खुद सरकार इनके संरक्षण की बजाय इनको समाप्त करने में लगी हुई है । श्री कलावटिया ने कहा के जोहड़ बिना इसके जल ग्रहण स्थल के बेमानी है, रामगढ के एक जोहड़ का उदाहरण देते हुए वह कहते है- सरकार ने अपने चार विभागों को इसकी जल ग्रहण की जमीन आवंटित कर इसमें भवन निर्माण भी करदिये है एवं कई और विभाग इस श्रंखला में लगे है। जबकि कानूनन जोहड़ पायतान में किसी भी तरह के निर्माण की इजाजत नहीं है,,,
चूरू के वनक्षेत्र में स्थित गोल जोहड़ कई महीनो तक वन्यजीवन के लिए जीवन का आधार बनता है, मुख्यतया जब माइग्रेशन कर सुदूर देशो से कई प्रकार के पक्षी यहाँ आते है। (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
चारणवासी गांव (चूरू जिला) के सामुदायिक कुंड (टांके) जहाँ से ग्रामीण अपने सभी तरह के उपयोग का पानी काम में लेते थे। सामुदायिक जुड़ाव कम होने से इनके रख रखाव में निरंतर गिरावट आयी है। (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
जोहड़ की वर्तमान परिपेक्ष्य में उपयोगिता के सवाल पर श्री कलावटिया कहते है की इंसानो ने अपने लिए हर सुविधा का इंतजाम करलिया पर वन्यजीवों के लिए इनकी उपयोगिता कल्पनातीत है, इसी तरह रेगिस्तान में पशुपालन करने वाले लोगों से पूछोगे तो पता लगेगा के, उनके पशुओ के लिए यह कितने उपयोगी है। सुप्रीम कोर्ट के सपष्ट आदेशों के बाद भी खुद सरकार जल संचय के इन स्थानों के संरक्षण में अत्यंत लापरवाह एवं यदि यह कहे के नष्ट करने में खुद शामिल है। जहाँ तहाँ पक्के मार्गो के निर्माण ने पायथन समाप्त करदिये अथवा इन जोहड़ों को कस्बे के गंदे पानी ने बर्बाद कर दिया।
चूरू शहर का जोहड़ जिसे सेठानी का जोहड़ नाम से जाना जाता है। सरकार ने इसकी निरंतर मरमत्त करवा कर इसे अच्छे स्थिति में रखा है। (फोटो: श्रीमती. दिव्या खांडल)
रही सही कसर मनरेगा जैसी योजना ने पूरी कर दी, बिना किसी कारण मनरेगा कर्मियों से सरकार जोहड़ पायतान की पक्की और सपाट जमीन को खोद खोद कर बर्बाद कर दिया, 100 तक कार्य देने की मज़बूरी के कारण अक्सर अवांछनीय कार्य करवाना पड़ता है जिसे करवाने के लिए मानो सरकार के पास इन स्थलों के अलावा कुछ बचा ही नहीं।
हम इन्हे अपने इतिहास की धरोहर के रूप में ही नहीं बल्कि उपयोगी स्थलों के रूप में संरक्षित करना होगा।
राजस्थान के शुष्क वातावरण में पाए जाने वाला वृक्ष “इंद्रधौक” जो राज्य के बहुत ही सिमित वन क्षेत्रों में पाया जाता है, जंगली सिल्क के कीट के जीवन चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है…
राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के वनस्पतिक संसार में वंश एनोगिसस (Genus Anogeissus) का एक बहुत बड़ा महत्व है, क्योंकि इसकी सभी प्रजातियां शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में मजबूत लकड़ी, ईंधन, पशुओं के लिए चारा तथा विभिन्न प्रकार के औषधीय पदार्थ उपलब्ध करवाती हैं। जीनस एनोगिसस, वनस्पतिक जगत के कॉम्ब्रीटेसी कुल (Family Combretaceae) का सदस्य है, तथा भारत में यह मुख्य रूप से समूह 5- उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन का एक घटक है। यह वंश पांच महत्वपूर्ण बहुउद्देशीय प्रजातियों का एक समूह है, जिनके नाम हैं Anogeissus acuminata, Anogeissus pendula, Anogeissus latifolia, Anogeissus sericea var. sericea and Anogeissus sericea var. nummularia। दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर शहर राज्य का एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ सभी पाँच प्रजातियों व् उप प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है। सज्जनगढ़ अभयारण्य राज्य का एकमात्र अभयारण्य है जहाँ Anogeissus sericea var. nummularia को छोड़कर शेष चार प्रजातियों व् उप-प्रजातियों को एक साथ देखा जा सकता है।
Anogeissus sericea var. sericea, इस जीनस की एक महत्वपूर्ण प्रजाति है जिसे सामान्य भाषा में “इंद्रधौक” भी कहा जाता है। इसे Anogeissus rotundifolia के नाम से अलग स्पीशीज का दर्जा भी दिया गया है, यदपि सभी वनस्पति विशेषज्ञ अभी तक पूर्णतया सहमत नहीं है। इस प्रजाति के वृक्ष 15 मीटर से अधिक लम्बे होने के कारण यह राज्य में पायी जाने वाली धौक की सभी प्रजातियों से लम्बी बढ़ने वाली प्रजाति है। यह एक सदाबहार प्रजाति है जिसके कारण यह उच्च वर्षमान व् मिट्टी की मोटी सतह वाले क्षेत्रों में ही पायी जाती है। परन्तु राज्य में इसका बहुत ही सिमित वितरण है तथा सर्वश्रेष्ठ नमूने फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य और उसके आसपास देखे जा सकते हैं। राजस्थान जैसे शुष्क राज्य के लिए यह बहुत ही विशेष वृक्ष है। गर्मियों के मौसम में मवेशियों में लिए चारे की कमी होने के कारण लोग इसकी टहनियों को काट कर चारा प्राप्त करते हैं, तथा इसकी पत्तियां मवेशियों के लिए एक बहुत ही पोषक चारा होती हैं। काटे जाने के बाद इसकी टहनियाँ और अच्छे से फूट कर पहले से भी घनी हो जाती हैं तथा पूरा वृक्ष बहुत ही घाना हो जाता है। इसकी पत्तियों पर छोटे-छोटे रोए होते है जो पानी की कमी के मौसम में पानी के खर्च को बचाते हैं।
Anogeissus sericea var. sericea (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)
वर्षा ऋतू में कभी-कभी इसकी पत्तियाँ आधी खायी हुयी सी दिखती हैं क्योंकि जंगली सिल्क का कीट इसपर अपने अंडे देते हैं तथा उसके कैटेरपिल्लर इसकी पत्तियों को खाते हैं। जीवन चक्र के अगले चरण में अक्टूबर माह तक वाइल्ड सिल्क के ककून बनने लगते हैं तो आसानी से 1.5 इंच लम्बे व् 1 इंच चौड़े ककूनों को वृक्ष पर लटके हुए देखा जा सकता है तथा कभी-कभी ये ककून फल जैसे भी प्रतीत होते है। यह ककून पूरी सर्दियों में ज्यो-के-त्यों लटके रहते हैं तथा अगली गर्मी के बाद जब फिर से वर्षा होगी तब व्यस्क शलम (moth) बन कर बाहर निकल जाते हैं। ककून बन कर लटके रहना इस शलम का जीवित रहने का तरीका है जिसमे इंद्रधोक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही इस प्रजाति के वृक्ष गोंद बनाते है जिनका विभिन्न प्रकार की दवाइयां बनाने में इस्तेमाल होता है। इसकी लकड़ी बहुत ही मजबूत होने के कारण खेती-बाड़ी के उपकरण बनाने के लिए उपयोग में ली जाती है।
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण
राजस्थान में इंद्रधौक का वितरण बहुत ही सिमित है तथा ज्ञात स्थानों को नीचे सूची में दिया गया है:
क्रमांक
जिला
स्थान
संदर्भ
1
उदयपुर
सज्जनगढ़ वन्यजीव अभयारण्य, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य
ऊपर दी गयी तालिका से यह स्पष्ट है कि Anogeissus sericea var. sericea अब तक केवल राजस्थान के सात जिलों में ही पायी गयी है। इसकी अधिकतम सघनता माउंट आबू और उदयपुर जिले की चार तहसीलों गोगुन्दा, कोटरा, झाड़ोल एवं गिर्वा तक सीमित है। चूंकि यह प्रजाति बहुत ही प्रतिबंधित क्षेत्र में मौजूद है और वृक्षों की संख्या भी बहुत ज्यादा नहीं है इसलिए इस प्रजाति को संरक्षित किया जाना चाहिए। वन विभाग को इस प्रजाति के पौधे पौधशालाओं में उगाने चाहिए और उन्हें वन क्षेत्रों में लगाया जाना चाहिए। ताकि राजस्थान में इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सके।
संदर्भ:
Cover photo credit : Dr. Dharmendra Khandal
Aftab, G., F. Banu and S.K. Sharma (2016): Status and distribution of various species of Genus Anogeissus in protected areas of southern Rajasthan, India. International Journal of Current Research, 8 (3): 27228-27230.
Sharma, S.K. (2007): Study of Biodiversity and ethnobiology of Phulwari Wildlife Sanctuary, Udaipur (Rajasthan). Ph. D. Thesis, MLSU, Udaipur
Shetty, B.V. & V. Singh (1987): Flora of Rajasthan, vol. I, BSI.
जानिये राजस्थान के दुर्लभ नारंगी रंग के चमगादड़ों के बारे में जिन्हे चिड़िया के घोंसलों में रहना पसंद है…
राजस्थान चमगादडों की विविधता से एक धनी राज्य है। यहाँ थार रेगिस्तान से लेकर अरावली पर्वतमाला क्षेत्र एवं पूर्व दिशा में स्थित विन्ध्याचल पर्वत एवं उपजाऊ मैदान में चमगादडों की अच्छी विविधता पायी जाती है। यों तो हर चमगादड अपने में सुन्दर भी है, उपयोगी भी और विशेष भी; लेकिन पेन्टेड चमगादड़ (Painted Bat) का रंग देखने लायक होता है। ये चमगादड़ कैरीवोला वंश का होता हैं । सर्वप्रथम इस वंश की खोज वर्ष 1842 में हुई थी। भारत में इस वंश की तीन प्रजातियाँ ज्ञात हैं- Kerivoula hardwickii,Kerivoula papillosa तथा Painted Bat or Painted woody Bat, “Kerivoula picta“। इन तीनों में से अंतिम प्रजाति केरीवोला पिक्टा (Kerivoula picta) राजस्थान में पाई जाती है जिसकी खूबसूरती वाकई लाजवाब है। मानों काले व नारंगी – लाल रंग से किसी ने बहुत ही सुन्दर पेन्टिंग बना दी हो। यह सुन्दरता डैनों पर तो देखने लायक ही होती है।
Schreber द्वारा वर्ष 1774 में बनाया गया पेंटेड चमगादड़ “Kerivoula picta” का चित्रण (Source : Die Säugthiere in Abbildungen nach der Natur, mit Beschreibungen)
राजस्थान में इस चमगादड को पहली बार जुलाई 15, 1984 को अलवर जिले की मुण्डावर तहसील में अलवर बहरोड रोड के समीप स्थित किशोरपुरा गाँव में वन विभाग के एक वृक्षारोपण क्षेत्र में देखा गया था। राजस्थान में यह इस चमगादड़ का गत 36 वर्ष में एकमात्र उपस्थिति रिकार्ड दर्ज है। किशोरपुरा में यह चमगादड़ बया पक्षी के लटकते अधूरे घोंसलों में लटकती हुई लेखक द्वारा दर्ज की गई थी। इसकी उपस्थति का यह रिकोर्ड बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल के वर्ष 1987 के अंक में दर्ज है। तत्कालीन सर्वे में इसे किशोरपुरा में तीन बार देखा गया जिसका विवरण निम्न हैः
क्र. सं.
दिनांक
बया के घौंसले की अवस्था
घोंसले किस प्रजाति के वृक्ष पर था
घोंसले में कुल किनते चमगादड पाये गये
1
5-7-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
1
2
1-8-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
4
3
4-8-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
1
पेन्टेड चमगादड प्राणी कुल वैस्परटिलिनोइडीज (Vespertilionidae) की सदस्य है। इसके शरीर की लम्बाई 3.1 से 5.7 सेमी., पूँछ की लम्बाई 3.2 से 5.5 सेमी., फैले हुये पंखों की चौडाई 18-30 सेमी., अगली भुजा की लम्बाई 2.7 से 4.5 सेमी. तथा वजन 5.0 ग्राम होता है। इसके मुँह में विभिन्न तरह के 38 दांत होते हैं। जाँघों व पूँछ को जोडती हुई पतली चमडी की बनी जिल्ली होती है जो एक टोकरीनुमा जाल सा बनाती है जिसकी मदद से यह चमगादड कीटों को पकडने का कार्य करती है। इस चमगादड के शरीर पर लम्बे, नर्म, सघन व घुँघराले बालों की उपस्थिति होती है। इसकी थूथन के आस- पास के बाल अपेक्षाकृत अधिक लम्बे होते हैं। इसके कान कीपाकार व बाल रहित होते हैं। कानों में उपस्थित विशेष रचना ’’ट्रगस (Tragus)” लम्बा, होता है। मादा एक बार में एक शिशु को जन्म देती है। इस चमगादड के रंग बेहद भड़कीले होते हैं। पंखों, पूँछ, पेट, पिछली व अगली भुजाओं, सिर तथा अंगुलियों के सहारे – सहारे गहरा नारंगी या लाल रंग विद्यमान होता है तथा अंगुलियों की हड्डियों पर बनी नारंगी-लाल पट्टी से हट कर तीसरी व चौथी, चौथी व पाँचवी अंगुली व भुजा के बीच गहरे काले रंग के बडे- बडे तिकौनाकार से धब्बे विद्यमान होते हैं। इस तरह एक पंख पर तीन बडे धब्बे बने होते हैं। कई बार कुछ अतिरिक्त छोटे धब्बे भी मिल सकते हैं। नारंगी – लाल व काले रंग का यह संयोजन लेकर जब यह चमगादड सूखे पत्तों में छुपकर, दिन में उल्टी लटक कर विश्राम करती व सोती है तो यह अदृश्य सी स्थिति में बनी रहती है तथा यह पहचाने जाने से भी बची रहती है। इस तरह इस “कैमोफ्लेज” रंग के विन्यास से यह छोटा स्तनधारी प्राणी सुरक्षा प्राप्त करता है। अधिक आयु के नरों में रंग अधिक प्रखर होते हैं।
बया पक्षी के आधे बने हुए घोंसलों की कालोनी जिन्हे अक्सर पेन्टेड चमगादड द्वारा इस्तेमाल किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)
नारंगी चमगादड़ एक रात्रिचर प्राणी है जो उडते कीटों को पकड कर उनका सफाया करता है। अन्य कीटाहारी चमगादडों की तरह रात्रि में यह अपने “जैविक राडार तन्त्र” का उपयोग कर उडते कीटों की दिशा व दूरी का पता लगा कर अन्धेरे में ही उन्हें पकड लेती है। रात्रि में यह कुछ विलम्ब से शिकार पर निकलने वाला जीव है। यह चमगादड भूमि के अधिक पास रहते हुये गोल- गोल उडान भरते हुये अपना शिकार पकडती है। यह प्रायः 1-2 घन्टे ही शिकार अभियान पर रहती है फिर विश्राम स्थल (Roost) पर लौट आती है तथा शेष रात्रि व अगला पूरा दिन वहीं रहती है।
दो आधा निर्मित घोंसलों (हेलमेट चरण) का क्लोजअप। हेलमेट की छत का निचली सतह (ceiling) का उपयोग चमगादड़ द्वारा लटकने के लिए किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)
दिन में यह चमगादड बया पक्षी (Baya Weaver bird) व शक्कर खोरा (Sunbird) जैसे पक्षियों के लटकते घौंसलों में छुपी सोयी रहती है। केले के सूखे पत्तों, वृक्षों के खोखलों व छतों की दरारों व छेदों में भी ये दिन मे विश्राम कर लेती है। यह चमगादड़ दिन के विश्राम स्थल में अकेले या परिवार (नर, मादा व बच्चे) के साथ छुप कर सोती रहती है। इनके छुपाव स्थल पर छेडने पर भी ये सुस्ती दिखाते हुये प्रायः वहीं बने रहते हैं। हाँ, कई दिन एक जगह नहीं रहते। थोडे- थोडे दिनों के अन्तराल पर ये अपनी सोने की जगह में परिवर्तन करते रहते हैं।
आई. यू. सी. एन. द्वारा इसे कम खतरे की श्रेणी (LC) में शामिल किया गया है। यह एक अपेक्षाकृत कम मिलने वाली चमगादड है जो दक्षिण- पूर्व एशिया में वितरित है। यह चमगादड भारत, चीन, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, सुमात्रा, जावा, बाली, मौलूक्का द्वीप, ब्रुनेई, कंबोडिया, मलेशिया, नेपाल, श्रीलंका, थाइलैण्ड एक वियतनाम में वितरित है। भारत में यह राजस्थान, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोवा, बंगाल, सिक्किम, असम व उडिसा से ज्ञात है।
सन्दर्भः
Cover Image: Prater, S.H. 1971. The Book of Indian Animals. BNHS.
Menon, V. (2014): Indian mammals – A field guide.
Prater, S.H. (1980): The Book of Indian Animals. Bombay Natural History Society.
Sharma, S.K. (1987): Painted bats and nests of Baya Weaver Bird. JBNHS 83:196.
Sharma, S.K. (1991): Plant life and weaver birds. Ph.D. Thesis. University of Rajasthan Jaipur
Sharma, S.K. (1995): Ornithobotany of Indian weaver birds. Himanshu Publications, Udaipur and Delhi.
कुत्तों से फैला कैनाइन मोर्बिली वायरस या कैनाइन डिस्टेंपर वायरस शेर और बाघ के लिए खतरा बना गया है। यह वायरस कभी भी उनपर कहर बरपा सकता है। अभी तक इसके संक्रमण से जूझ रहे शेर-बाघों को बचाने वाली कोई वैक्सीन तक नहीं है।
अखिल भारतीय बाघ सर्वेक्षण में उपयोग किए गए कैमरा-ट्रैप ने 17 बाघ अभयारण्यों में बाघों की तुलना से ज्यादा आवारा कुत्तों को कैप्चर किया। कुत्तों और पशुधन दोनों की उपस्थिति महत्वपूर्ण संख्या में कम से कम 30 टाइगर रिजर्व में दर्ज की गई थी। विशेषज्ञों का कहना है कि पहले से ही अवैध शिकार और पर्यावास कि कमी आदि चुनौतियों से जूझ रहे बाघ, शेर और अन्य जंगली मांसाहारी, इन जंगली और परित्यक्त कुत्तों और पशुओं (कैटल), के प्रसार से विभिन्न रोगों का संचरण और संक्रमण जल्द ही इनकी विलुप्त हो रही आबादी को लुप्तप्राय कर सकता है।(Jay Mazumdar, 2020)
यहाँ आप वन्यजीवों में खतरे के रूप में उभरे वायरस के बारे में पढ़ने जा रहे हैं। वर्ष 2018 में गुजरात के 23 शेरों कि मौत का कारण बना कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस (सीडीवी) एक संक्रामक वायरस है। मूलतः कुत्तों में फैलने वाले इस वायरस से ग्रसित जानवरों का बचना बेहद मुश्किल होता है। सीडीवी पॅरामीक्सोविरइडे (Paramyxoviridae) परिवार के मोर्बिली वायरस जीनस का सदस्य है। सीडीवी एक एनवेलप्ड़पले ओमॉरफीक आरएनए वायरस है, जिसका बाहरी एन्वेलपहेमगलुटिनीन और फ्यूज़न प्रोटीन का बना होता है। ये प्रोटीन, वायरस को नॉर्मल सेल से जुडने और अंदर प्रवेश कर संक्रमित करने में मदद करते हैं। मोर्बिलीवायरस, मध्यम-से-गंभीर श्वसन, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, इम्युनोसुप्रेशन और न्यूरोलॉजिकल रोगों को भिन्न प्रकार के जीवों जैसे की मनुष्य (खसरा वायरस), मांसाहारी (कैनाइनडिस्टेंपर वायरस), मवेशी (रिन्डरपेस्ट वायरस) डॉल्फ़िन और अन्य लुप्तप्राय वन्यजीव प्रजातियों को संक्रमित करने के कारण जाना जाता है। कुत्तों में इसके संक्रमण से गंभीर, बहु-तंत्रीय रोग हो सकते है जो मुख्य रूप से गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, श्वसन और न्यूरोलॉजिकलसिस्टम को प्रभावित करते हैं। (Appel M. J.1987)
कुत्ते वन्यजीवों के शिकार का उपभोग करते हुए उसे CDV से संक्रमित कर देते हैं और जब वन्यजीव अपने शिकार को खत्म करने के लिये वापस लौटता तो इस घातक बीमारी की चपेट में आ जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
अपने नाम के बावजूद, कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस को ऑर्डर कार्निवोरा में विभिन्न प्रकार की प्रजातियों को संक्रमित करने के लिए जाना जाता है। यहां तक कि वर्ष 2013 में गैर-मानवीय प्राइमेट भी सीडीवी से संक्रमित हो गए हैं, जिससे संभावित मानव संक्रमण कि भी संभावनाएँ बढ़ गई है। फेलिड्स को सीडीवी के लिए ज्यादातर प्रतिरोधी माना जाता था लेकिन अमेरिकी जूलॉजिकल पार्कों में रहने वाले बंदी बाघों, शेरों, तेंदुओं और जगुआर में घातक संक्रमणों की एक श्रृंखलाने इस धारणा को गलत साबित किया। फिर, 1994 में, तंजानिया के सेरेनगेटी नेशनल पार्क में कुल शेरों की आबादी के लगभग एक तिहाई शेरों का संक्रमण से मौत होना साबित करता था कि बड़ी बिल्लियाँ इससे बची ना थी। उनकी मौतों के साथ ही सेरेनगेटी इकोसिस्टम के भीतर विभिन्न प्रकार के मांसाहारियों में होने वाली मौतों के लिए सीडीवी को जिम्मेदार ठहराया गया था। उसके बाद फिर ऐसे कई मामले सामने आए जिनमे अन्य फेलिड्स की आबादीजैसे कि बॉबकैट, कनाडा लिनक्स, यूरेशियन लिनक्स, गंभीर रूप से लुप्तप्राय इबेरियन लिनक्स, और अमूर बाघ भी शामिल थे। (Terio, KA. 2013)
इसके अलावा भारत में देखें तो, थ्रेटेड टैक्स (Threatened Taxa) में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि राजस्थान के रणथंभौर नेशनल उद्यान (Ranthambhore National Park) के समीप 86% कुत्तों का परीक्षण किये जाने के बाद इनके रक्तप्रवाह में CDV एंटीबॉडीज़ के होने की पुष्टि की गई है। इसका अर्थ है कि ये कुत्ते या तो वर्तमान में CDV से संक्रमित हैं या अपने जीवन में कभी-न-कभी संक्रमित हुए हैं और उन्होंने इस बीमारी पर काबू पा लिया है। इस अध्ययन में यह इंगित किया गया है कि उद्यान में रहने वाले बाघों और तेंदुओं में कुत्तों से इस बीमारी के हस्तांतरण का खतरा बढ़ रहा है। अक्सर ऐसा होता है कि शेर/ बाघ एक बार में पूरे शिकार को नहीं खाते हैं। कुत्ते उस शिकार का उपभोग करते हुए उसे CDV से संक्रमित कर देते हैं। शेर/बाघ अपने शिकार को खत्म करने के लिये वापस लौटता है और इस घातक बीमारी की चपेट में आ जाता है।(Sidhu et al, 2019)
वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसाइटी, कॉर्नेल और ग्लासगो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक वायरस के लिए नियंत्रण उपायों (जैसे कि एक टीका देना, आदि जो इन जानवरों के लिए सुरक्षित हो) को विकसित करके इसके संकट को दूर करने के लिए तेजी से कार्रवाई करने का आग्रह कर रहे हैं। उन्होंने कैनाइन डिस्टेंपर वायरस का नाम बदलकर कार्निवॉर डिस्टेम्पर वायरस रखने का भी सुझाव दिया है ताकि जानवरों की विस्तृत श्रृंखला को दिखाया जा सके जो वायरस का संचरण करते हैं और बीमारी से पीड़ित हो सकते हैं।
कैनाइन डिस्टेंपर कैसे फैलता है?
कुत्ते में सीडीवी के संक्रमण के तीन मुख्य तरीके हैं – एक संक्रमित जानवर या वस्तु के साथ सीधे संपर्क के माध्यम से, एयरबोर्न एक्सपोज़र के माध्यम से, और प्लसेन्टा के माध्यम से। कैनाइन डिस्टेंपर वायरस शरीर कि लगभग सभी प्रणालियों को प्रभावित करता है। 3-6 महीने की उम्र के पिल्ले विशेष रूप से अतिसंवेदनशील होते हैं। सीडीवी एरोसोल की बूंदों के माध्यम से और संक्रमित शारीरिक तरल पदार्थों के संपर्क के 6 से 22 दिन बाद से फैलता है, जिसमें नाक और नेत्र संबंधी स्राव, मल और मूत्र शामिल हैं। यह इन तरल पदार्थों से दूषित भोजन और पानी से भी फैल सकता है। जब संक्रमित कुत्ते या जंगली जानवर खाँसते, छींकते या भौंकते हैं, तो एयरोसोल की बूंदों को पर्यावरण में छोड़ते हैं जो कि आस-पास के जानवरों और सतहों को संक्रमित करते है। संक्रमण और बीमारी के बीच का समय 14 से 18 दिनों का होता है, हालाँकि संक्रमण के 3 से 6 दिन बाद बुखार आ सकता है।डिस्टेम्पर वायरस पर्यावरण में लंबे समय तक नहीं रहता है और अधिकांश कीटाणुनाशकों द्वारा नष्ट किया जा सकता है। जबकि डिस्टेम्पर-संक्रमित कुत्ते कई महीनों तक वायरस का प्रवाह कर सकते हैं और अपने आसपास के कुत्तों को जोखिम में डालते हैं।
कैनाइन डिस्टेम्पर वाइरस संरचना (Source – veteriankey.com)
सीडीवी संक्रमण द्वारा प्रभावित एनाटॉमिक साइट्स (Source – veteriankey.com)
कैनाइन डिस्टेम्पर के लक्षण:
कैनाइन डिस्टेम्पर के प्रारम्भिक लक्षणों के दौरान आँखों से पानी के साथ मवाद जैसा पदार्थ निकलता है। इसके बाद बुखार, भूख ना लगना, और नाक बहने जैसे लक्षण देखे जा सकते हैं। अन्य लक्षणों में उलटी, दस्त, अत्यधिक लार, खांसी, और सांस लेने में तकलीफ शामिल है। यदि तंत्रिका संबंधी लक्षण विकसित होते हैं, तो असंयम हो सकता है। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के संकेतों में मांसपेशियों या मांसपेशियों के समूहों की एक स्थानीय अनैच्छिक ट्विचिंग शामिल है। जबड़ों में ऐंठन, जिसे आमतौर पर “च्यूइंग-गम फिट”, या अधिक उपयुक्त रूप से “डिस्टेंपर मायोक्लोनस” के रूप में वर्णित किया जाता है, भी लक्षण में शामिल है। जैसे-जैसे संक्रमण बढ़ता है जानवर प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता, असंयम, चक्कर, दर्द या स्पर्श के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि, और मोटर क्षमताओं के बिगड़ने के लक्षण दिखा सकता है। कुछ मामलों में संक्रमण अंधापन और पक्षाघात का कारण बन सकते हैं।
कैनाइन डिस्टेम्पर के प्रारम्भिक लक्षणों के दौरान आँखों से पानी के साथ मवाद जैसा पदार्थ निकलता है। इसके बाद बुखार, भूख ना लगना, और नाक बहने जैसे लक्षण देखे जा सकते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
कैनाइन डिस्टेम्पर का निवारण:
दुर्भाग्य से इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है, लेकिन उपचार के तौर पर लक्षणों को नियंत्रित करना शामिल है। हालांकि कैनाइन डिस्टेंपर का इलाज इस बात पर भी निर्भर है कि जानवर की प्रतिरक्षा प्रणाली कितनी मजबूत है और वायरस का असर कितना है। इसके अलावा यदि इस बीमारी का निदान व इलाज शुरुआती चरणों में शुरू कर दिया जाए तो इसे आसाानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
कुत्तों के लिए कैनाइन डिस्टेंपर के खिलाफ कई टीके मौजूद हैं। कीटाणुनाशक, डिटर्जेंट के साथ नियमित सफाई से वातावरण से डिस्टेम्पर वायरस नष्ट हो जाता है। यह कमरे के तापमान (20-25 डिग्री सेल्सियस) पर कुछ घंटों से अधिक समय तक पर्यावरण में नहीं रहता है, लेकिन ठंड से थोड़े ऊपर तापमान पर छायादार वातावरण में कुछ हफ्तों तक जीवित रह सकता है। यह अन्य लेबिल वायरस के साथ, सीरम और ऊतक के मलबे में भी लंबे समय तक बना रह सकता है। कई क्षेत्रों में व्यापक टीकाकरण के बावजूद, यह कुत्तों की एक बड़ी बीमारी है।
आरक्षित वनों से डिस्टेम्पर के रोकथाम के लिए सर्वप्रथम राष्ट्रीय उद्यानों के आसपास के क्षेत्र में मुक्त घुमने वाले और घरेलू कुत्तों का टीकाकरण किया जाना चाहिये। इस बीमारी को पहचानने तथा इसके संबंध में आवश्यक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है। जहाँ कहीं भी मांसाहारी वन्यजीवों में CDV के लक्षणों का पता चलता है वहाँ संबंधित जानकारियों का एक आधारभूत डेटा तैयार किया जाना चाहिये ताकि भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर इसका इस्तेमाल किया जा सकें। नियंत्रण उपायों पर विचार करने के क्रम में स्थानीय CDV अभयारण्यों में घरेलू पशुओं की भूमिका को विशेष महत्तव दिया जाना चाहिये तथा इस संबंध में उपयोगी अध्ययन किये जाने चाहिये।
इस समस्या का सबसे आसान तरीका है- इस रोग की रोकथाम। वन्यजीवों की आबादी में किसी भी बीमारी का प्रबंधन करना बेहद मुश्किल होता है। सरकार को देश में वन्यजीव अभयारण्यों के समीप कुत्तों के टीकाकरण के लिये पहल शुरू करनी चाहिये।
सन्दर्भ :
1. Appel M. J.Canine distemper virus Virus infections of carnivores. Appel M. J. 1987 133 159 Elsevier SciencePublishers B. V. Amsterdam, The Netherlands Google Scholar
2. Terio KA, Craft ME. Canine distemper virus (CDV) in another big cat: should CDV be renamed carnivore distemper virus?. mBio. 2013;4(5):e00702-e713. Published 2013 Sep 17. doi:10.1128/mBio.00702-13American Society for Microbiology
3. Mazumdar J. What camera traps saw during survey: More domestic dogs than tigers in major reserves. Indianexpress.com. Published 2020 Aug 3. https://indianexpress.com/article/cities/delhi/tiger-reserves-domestic-dogs-india-survey-6536467/
4. Sidhu, N., Borah, J., Shah, S., Rajput, N., & Jadav, K. K. (2019). Is canine distemper virus (CDV) a lurking threat to large carnivores? A case study from Ranthambhore landscape in Rajasthan, India. Journal of Threatened Taxa, 11(9), 14220-14223. https://doi.org/10.11609/jott.4569.11.9.14220-14223
यदि तेंदुए और बाघ शावक अपनी छोटी उम्र में कमजोर अथवा दिव्यांग हो तो माँ उनको बेहाल ही छोड देती है, जिसके बाद ऐसे शावकों की मौत हो जाती है अथवा कभी कभी तो माँ खुद उनको मार के खा जाती है। अधिकतर वन्यजीव विशेषज्ञ एक वाक्य ‘‘सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट‘‘ में सारी कहानी को ख़तम कर देते है।
यह वाक्य एक बघेरे के शावक का है जिसने सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट वाली अवधारणा को गलत साबित कर दिया साथ ही एक मां को प्रकृति के तय नियमों से लडते देखा।
आप बखूबी वाकिफ होंगे राजस्थान में स्थित जवाई लेपर्ड कन्जर्वेशन रिजर्व के बारे में, वहां एक लोकप्रिय मादा तेन्दुआ ‘‘नीलम‘‘ रहती है। वर्ष 2019 में नीलम ने तीन शावकों को जन्म दिया था। जिसमें से एक की मौत हो गई थी और अब अपने दो बचे हुए शावकों की परवरिश में नीलम जुट गई। पहली बार इस परिवार को तब देखा गया जब शावकों की उम्र करीब 2 माह थी। जिनमें से एक नर व एक मादा शावक थे। मादा शावक के अगले पंजे में कुछ कमजोरी रहने से वह सही ढंग से न तो चल पाती थी और न ही दौड पाती थी।
2 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
5 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
झाड़ियों के बीच छुप कर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
इस दिव्यांग शावक को देखते ही कईं सवाल उमडने लगते थे । नर शावक अक्सर उछलकूद करता और खेलता हुआ दिखता रहता था लेकिन लंगडी नर शावक की तरह न तो ज्यादा उछल कूद करती थी और न ही उसकी तरह दौडती थी। उसके आगे वाले एक पैर की दुर्बलता उसे चाहकर भी ऐसा कर पाने की हिम्मत नहीं देती थी। इस कमजोर मादा शावक ने अपनी जिजीविषा को बलवती रखा और अपनी बहादुर मां की परवरिश में धीरे धीरे अपनी युवावस्था की ओर बढने लगी ।
उसने समय के साथ छद्मावरण की कला में महारत हासिल कर ली और घात लगाकर शिकार करने की खूबी में पारंगत हो गई। एक वर्ष और कुछ महिनों की उम्र की होने तक इस दिव्यांग शावक को लगातार देखा गया। जिस छोटी उम्र में अपनी मां के शिकार पर निर्भर थी आज वही एक युवा तेंदुआ बन गई थी। अब वह अपनी मां नीलम से जुदा हो चुकी थी और एक नया इलाका हासिल कर लिया था। काफी खूबसूरत आंखों वाली इस मादा ने अपनी कमजोरी पर मनो विजय हासिल काली हो और प्रकृति के तमाम नियमों को चुनौती दे दी थी। अंतिम बार वह फरवरी 2020 में देखी गयी थी, और अब वह पहले से ज्यादा मजबूत दिख रही थी और आत्मविश्वास के साथ चट्टान पर लंगडाते हुए चलकर अपने वर्चस्व को स्थापित कर रही थी ।
माँ से अलग होने के पश्चात अकेले रहने का अभ्यास करती दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
अपनी पूर्ण युवावस्था में गुफा के बाहर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
पूर्ण व्यस्क अवस्था में दूर पहाड़ की चोटी पर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)