भारतीय मोर सदियों से राजस्थानी परिदृश्य का एक विशेष अंग रहा है, जहाँ एक ओर राजस्थानी लोकगीतों, किस्सों और कहानियों में मोर जिक्र होता है वहीँ दूसरी ओर आज भी यहाँ कई गाँव ऐसे हैं जहाँ सैकड़ों वर्षों से स्थानीय लोग और मोर एक साथ रहते हैं तथा एक-दूसरे को सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से प्रभावित करते हैं। परन्तु भारत में अलग-अलग स्थानों पर लोगों की मोर के प्रति भावनाएं भी अलग-अलग है जैसे कि कई हिस्सों में मोर को खेती के लिए सिर्फ एक कीट के नज़रिए से देखा जाता है तो कुछ स्थानों पर इन्हें पर्यटकों के लिए आकर्षण और एक पवित्र पक्षी माना जाता है।
रणथम्भौर के पास एक खेत में विचरण करते हुए भारतीय मोर
मनुष्यों और मोरों के बीच इस व्यवहार को देखते हुए मैंने और मेरी टीम (प्रियंका डांगे, वेदांती महिमकर, रूपेश गावड़े और टाइगर वॉच वॉलंटियर्स) ने रणथम्भौर बाघ अभयारण्य के आसपास स्थित गांवों में भारतीय मोर के बारे में अध्ययन किया। इस अध्ययन में हमने भारतीय मोर की आहार विविधता, आपसी सामूहिक व्यवहार और शरीर में पाए जाने वाले परजीवियों को देखा। साथ ही यह समझने के भी प्रयास किये गए कि कैसे मानवीय आबादी क्षेत्रों के पास आसानी से मिलने वाला भोजन उनके व्यवहार और रोगों को प्रभावित करता है?
भारतीय मोर अक्सर अकेले, जोड़ों में या समूहों में रहते व घूमते हैं, तथा इन समूहों में नर, मादा, किशोर और चूज़े शामिल होते हैं। जहाँ एक ओर समूह में रहने से शिकारियों से सुरक्षा मिल जाती है वहीँ दूसरी ओर समूह में भोजन को लेकर प्रतिस्पर्धा और कई बार अन्य सदस्यों से बीमारी से संक्रमित होने की संभावना भी बढ़ जाती है। इसीलिए हमारी टीम ने यह भी अध्यन्न किया कि, क्या मोर विभिन्न मौसमों में उनके सामने आने वाली चुनौतियों के अनुसार समूह पैटर्न को बदलते हैं?
मोरों के मलों के नमूने एकत्रित करते हुए मेरे टीम के सदस्य
संक्रमित पानी, मिट्टी और भोजन द्वारा न केवल मनुष्यों बल्कि प्रकृति में मौजूद सभी जीवों को विभिन्न बिमारियों का खतरा होता है। इसी क्रम में हमने मोरों में परजीवियों के संक्रमण का पता लगाने हेतु रणथम्भौर के पास स्थित मानवीय आबादी क्षेत्रों के आसपास पाए जाने वाली मोरों की आबादी के मलों के नमूने इकट्ठे किए। ये सभी नमूने वर्ष के तीन अलग-अलग मौसमों: मानसून से पहले (जनवरी-जून), मानसून (जुलाई- सितंबर) और मानसून के बाद (अक्टूबर- दिसंबर) इकट्ठे किए गए तथा उनकी जांच की गई।
मानसून से पहले (शुष्क गर्मी) के नमूनों में देखा गया कि, बहुत कम मोरों में परजीवी संक्रमण था और जिनमें था भी तो उनमें परजीवियों की संख्या कम थी तथा इस मौसम में मोरों के बड़े समूह (लगभग 14-15 मोर एक साथ) देखे गए थे। इस परिस्थिति में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि, क्योंकि मोरों में परजीवियों का संक्रमण कम था इसीलिए वे बड़े समूहों में रह रहे थे तथा शिकारियों से सुरक्षा का लाभ उठा रहे थे। परन्तु जैसे ही मानसून की शुरुआत होती है विभिन्न प्रकार के भोजन श्रोत जैसे कि, कीट, घास के बीज, विभिन्न पौधों के अंकुरित अनाज की बहुतायत बढ़ जाती है।
और मानसून के मौसम में 80% से अधिक मोर आंतों के परजीवियों से संक्रमित हो जाते हैं जो गीले मौसम में और आसानी से फैलते हैं। ऐसे में समूहों में रहना अधिक जोखिम भरा हो जाता है क्योंकि समूह के अन्य सदस्यों से संक्रमित होने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए, इस परिस्थिति में मोर भी “सोशल डिस्टेंसिंग (Social Distancing)” का पालन करते हैं और अपने समूहों के आकार छोटा कर लेते हैं।
मोरों के मलों में पाए गए परजीवी
मानसून में जब इनका प्रजनन काल शुरू होता है तब प्रत्येक नर को अपना क्षेत्र (territory) स्थापित कर उसकी रक्षा करनी पड़ती है और इसीलिए बदलते मौसम के साथ बड़े समूह टूट जाते हैं और हमें मोर अकेले, जोड़े में या फिर 3-4 के छोटे समूह में ही देखने को मिलते हैं। मानसून के बाद भी इनमें परजीवियों का संक्रमण अधिक ही रहता है। तथा इस मौसम में हमें ज्यादातर मादाएं और किशोर एक समूह में देखने को मिलते हैं, जबकि अधिकांश नर अभी भी अकेले ही रहते हैं।
इस प्रकार, मोर जोखिम और लाभों को मापते हुए अपने समूह और व्यवहार को बदलते हैं।
परजीवी के फैलने का एक और दिलचस्प पहलू है:
क्या आपने कभी सोचा है कि, मनुष्यों द्वारा दिया गया भोजन कैसे पक्षियों में बीमारियों की संभावनाओं को बदलता है।
फसल के लिए नुक्सान माने जाने के बावजूद, रणथंभौर के आसपास के गांवों में स्थानीय लोग साल भर मंदिरों में एक दैनिक अनुष्ठान के रूप में भारतीय मोर को अनाज देते हैं। इसे “चुग्गा डालने का रिवाज (food provisioning)” कहा जाता है। इस चलन के तहत गाँव वालों द्वारा मंदिर परिसर में और आसपास रोज़ाना औसतन 15 किलों अनाज वन्यजीवों के लिए उपलब्ध कराया जाता है। यह अनाज मोरों के लिए पौष्टिक भोजन का एक विश्वसनीय स्रोत है। अब ऐसे में आसानी से मिलने वाले पौष्टिक भोजन को पाने का मौका कौन गवाना चाहेगा? नतीजतन, जिस स्थान पर अनाज डाला जाता है, आसपास के क्षेत्रों के कई समूह वहां इकट्ठे हो जाते हैं। जैसे ही कई अलग-अलग समूहों के मोर भोजन स्थल पर एक साथ आते हैं, उन जगहों पर आसानी से संक्रमण फैलने की संभावना बढ़ जाती है। और ऐसा ही कुछ हमने अध्यन में भी देखा।
स्थानीय लोग साल भर मंदिरों में एक दैनिक अनुष्ठान के रूप में भारतीय मोर को अनाज देते हैं
भोजन स्थलों से इकट्ठे किए गए मल के नमूनों में किसी अन्य स्थानों के अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में परजीवी पाए गए। और इसीलिए ये भोजन स्थल बिमारी का “केंद्र (Hotspot)” बन सकते हैं। इसीलिए मोर तो क्या किसी भी पक्षियों को भोजन डालना पक्षियों के लिए लाभदायक नहीं बल्कि हानिकारक होता है।
आसानी से भोजन मिलने पर आसपास के क्षेत्रों के कई मोर एक स्थान पर एकत्रित हो जाते हैं
मोर के इन दिलचस्प समूह व्यवहारों से हम क्या सीखते हैं?
मनुष्यों की तरह ही, मोर भी बड़े समूहों में रह सकते हैं। परन्तु, ये बदलती परिस्थितियों के अनुसार लाभ को अधिकतम और नुकसान को कम करने के लिए अपने व्यवहार को बदलते हैं। जब बीमारी होने की संभावना अधिक होती है, तो ये आत्मनिर्भर या छोटे समूहों में रहना पसंद करते हैं। लेकिन जब अच्छा भोजन प्राप्त करने की बात आती है, तो ये दूसरों से होने वाले संक्रमण के प्रति सारी सावधानियों को भूल जाते हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं सूखा तो कहीं बाढ़, कभी तेज गर्मी तो कभी सर्दी और इसके द्वारा न जाने कितनी अन्य मुसीबतों से आज पूरा विश्व गुजर रहा है। ऐसे में राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश लगातार जलसंकट का सामना कर रहे है कई खरपतवार वनस्पतियाँ इस संकट की घडी में पर्यावरण की मुश्किलों को और बढ़ा रही है जैसे की “पार्थीनियम “।
पार्थीनियम, राजस्थान की दूसरी सबसे खराब खरपतवार है जो की राज्य के अधिकांश इलाकों में आक्रामक तरीके से फैल चुकी है। यह राजस्थान के पारिस्थितिक तंत्र की मूल निवासी नहीं हैं तथा राजस्थान तो क्या पूरे भारत में इसके विस्तार को सिमित रखने वाले पौधे एवं प्राणी नहीं है क्योंकि यह एक आक्रामक प्रजाति (Invasive species) है। आक्रामक प्रजाति वे पौधे, प्राणी एवं सूक्ष्मजीव होते है जो जाने-अनजाने में मानव गतिविधियों द्वारा अपने प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र से बाहर के क्षेत्र में पहुंच जाते है और फिर बहुत ही आक्रामक तरीके से फैलते है क्योंकि उनको नियंत्रित रखने वाली प्रजातियां वहां नहीं होती है।
Parthenium hysterophorus (Photo: Dr. Ravikiran Kulloli)
आज सिर्फ राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे भारत का लगभग 65 प्रतिशत भू-भाग पार्थीनियम की चपेट में है। परन्तु प्रश्न ये उठता है कि, अगर ये यहाँ की मूल निवासी नहीं हैं तो यहाँ आयी कैसे?
तो बात है सन 1945 की जब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नामक शहर पर दुनिया का पहला परमाणु बम गिराया था। इस हमले के बाद दुनिया के तमाम देशों ने अमेरिका की आलोचना की तथा दुनिया के सामने अपनी छवि सुधारने के लिए सन 1956 में अमेरिका ने पब्लिक लॉ 480 (PL-480) स्कीम की शुरुआत की। इस स्कीम के अंतर्गत अमेरिका ने विश्व के आर्थिक रूप से गरीब व जरूरतमंद देशों को खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने का वादा किया तथा भारत भी उन देशों में से एक था। परन्तु इस स्कीम के तहत जो गेंहू आयात हुआ उसके साथ कई प्रकार की अनचाही वनस्पतिक प्रजातियां भी भारत में आ गयी और उनमें से एक थी “पार्थीनियम “। आज देखते ही देखते यह खरपतवार पूरे भारत सहित 40 अन्य देशों में फ़ैल चुकी है तथा इसके प्रकोप और प्रभावों को देखते हुए IUCN द्वारा इसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों में से एक माना गया है।
पार्थीनियम को “गाजर घास” एवं “कांग्रेस घास” भी कहा जाता है तथा इसका वैज्ञानिक नाम “Parthenium hysterophorus” है। उत्तरी अमेरिका मूल का यह पौधा Asteraceae परिवार का सदस्य है। एक से डेढ़ मीटर लम्बे इस पौधे पर गाजर जैसी पत्तियां और सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे फूल आते है।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में पार्थीनियम एक ऐसी खरपतवार है जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र ख़ासतौर से राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश के लिए एक बड़ा संकट बनती जा रही है। राजस्थान में लगभग सभी इलाके 236 ब्लॉक में से 190 ब्लॉक डार्क ज़ोन में है तथा जलसंकट से ग्रसित है। यहाँ के ज्यादातर क्षेत्र शुष्क व अर्ध शुष्क घास के मैदान, बीहड़, पर्णपाती वन और रेगिस्तान हैं तथा इन सभी आवासों की एक खास बात यह है कि, ये कभी भी वर्ष भर हरियाली से ढके नहीं रहते हैं क्योंकि हरीयाली यहाँ वर्षा जल पर निर्भर करती है ऐसे में पार्थीनियम का अनियंत्रित फैलाव न केवल वनस्पति समुदाय को बल्कि विभिन्न वन्य जीवों को भी अलग-अलग प्रकार से प्रभावित करता है।
इस खरपतवार से निम्न नुकसान होते हैं
स्थानीय वनस्पतियों के हैबिटैट में प्रसार : राजस्थान जैसे शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क जलवायु वाले प्रदेश में स्थानीय वनस्पतिक अपेक्षाकृत कम घनत्व वाली वनस्पति आवरण पायी जाती है ऐसे में पार्थीनियम विभिन्न तरीकों से स्थानीय वनस्पतियों को आच्छादित कर लेता है एवं उसके स्थान पर स्वयं फैलने लगता है जैसे कि, यह एक शाकीय पौधा है और पास-पास उग कर यह सघन झाड़ियों (Thickets) के रूप में वृद्धि करता है जिसके द्वारा इससे छोटे पौधों को पूरी तरह से प्रकाश नहीं मिल पाता, उनकी वृद्धि नहीं हो पाती और न ही उनके बीज बनने की क्रिया पूरी हो पाती है। फिर धीरे-धीरे वो खत्म हो जाते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में छोटे पौधे और विभिन्न घास प्रजातियां सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। साथ ही इसमें पाए जाने वाले रसायन भी फसलों तथा अन्य वनस्पतियों पर एलेलोपैथिक प्रभाव डाल बीज अंकुरण व वृद्धि को रोकते है।
कृषि क्षेत्र में पार्थीनियम (फोटो: मीनू धाकड़)
संरक्षित वन क्षेत्रों में नुकसान: राजस्थान में पाए जाने वाले सभी वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र शुष्क पहाड़ी क्षेत्र है जो न सिर्फ वन्यजीव संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि इस शुष्क प्रदेश के लिए जलग्रहण क्षेत्र भी है क्योंकि वर्षा ऋतु के दिनों में इनसे कई छोटी-छोटी जलधाराएं निकलती है जो आगे जाकर नदियों, तालाबों और बांधों का जल स्तर भी बढ़ाती है। परन्तु अब पार्थीनियम इन संरक्षित क्षेत्रों में भी फैलता जा रहा है तथा बाकि वनस्पतियों को हटा कर दुर्लभ वन्यजीवों के आवास व भोजन को नुकसान पंहुचा रहा है।
मवेशियों व वन्यजीवों पर प्रभाव: राजस्थान में पानी की कमी के कारण चरागाह भूमि और घास के मैदान भी बहुत सिमित है जिनपर बहुत से मवेशियों के साथ-साथ शाकाहारी वन्यजीव जैसे सांभर, चीतल, चिंकारा, काला हिरन आदि भी निर्भर है और इन भूमियों के अधिकतर हिस्सों में अब पार्थीनियम फैल गया है जिससे न सिर्फ चरागाह भूमियों की उत्पादकता में कमी आ रही बल्कि यह आवास धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं और इसका सीधा प्रभाव उन जीवों पर पड़ रहा है जो इन आवासों के मुख्य निवासी हैं। साथ ही मवेशियों और अन्य जानवरों के लिए विषैला होता है और यदि कोई प्राणी इसकी हरियाली के प्रति आकर्षित होकर इसे खा ले तो वह बीमार हो जाता है या मर सकता है।
नमभूमियों को नुकसान: सिर्फ यही नहीं पार्थीनियम अपने पैर हर मुमकिन जगहों पर फैला रहा है जैसे की नमभूमियों के किनारे। राजस्थान में भीषण गर्मी के दिनों में छोटे जल स्रोत सूख जाया करते है और ऐसे में वर्षभर पानी उपलब्ध कराने वाले जल स्रोतों की महत्वता बहुत ही बढ़ जाती है। क्योंकि ये जल स्रोत न सिर्फ जानवरों को पानी उपलब्ध कराते है बल्कि वर्ष के सबसे भीषण गर्मी वाले दिनों में जब कहीं भी कोई घास व हरा चारा नहीं बचता है उस समय इनके किनारे उगने वाले हरे चारे पर कई जीव निर्भर करते है। परन्तु आज पार्थीनियम इन जल स्रोतों के किनारों पर भी उग गया है तथा जानवरों के लिए गर्मी के दिनों में मुश्किल का सबब बन रहा है। राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश जहाँ पहले से ही पानी की कमी के कारण मनुष्य, मवेशी और वन्यजीव मुश्किल में है वहां पार्थीनियम जैसी खरपतवार मुश्किलों को और भी ज्यादा बढ़ा रही है।
छोटी जैव विविधता को नुकसान: प्रकृति में घास और अन्य पौधों की झाड़ियों में चिड़ियाँ, मकड़ी, शलभ (moth) और कई प्रकार के छोटी जीव रहते हैं परन्तु पार्थेनियम के विस्तार के साथ एक ही प्रकार का आवास बनता जा रहा है जिसके कारण यह कम जैव विविधता को समर्थन करता है।
आग की घटनाओ को बढ़ाना: क्योंकि यह एक साथ लगातार बड़े-बड़े हिस्सों में फैलता जा रहा है। गर्मी के दिनों में नमी की कमी से यह सूख जाता है और सूखने पर यह एक आसानी से जलनेवाला पदार्थ (Combustible) है तथा जंगल में आग की घटनाओं को बढ़ाता है।
फसलों और आय पर प्रभाव: आज अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी यह फ़ैल चुका है और जिसके करण खेतों की उत्पादकता और फसलों की पैदावार कम हो रही है क्योंकि यह जरुरी पोषक तत्वों के लिए फसलों के साथ प्रतिस्पर्धा करता है।
मनुष्यों पर प्रभाव: न सिर्फ वनस्पत्तियों और जीवों के लिए यह हानिकारक है बल्कि यह मनुष्यों के लिए भी बहुत नुकसान दायक है क्योंकि इस पौधे के संपर्क में आने से मनुष्यों में खाज, खुजली, चर्म रोग, दमा, हेफीवर जैसी बीमारियां पैदा होती हैं।
फैलने के कारण व तरीके:
इसके तेजी से फैलने के पीछे कई कारण है जिसमें सबसे मुख्य है कि, इसका जीवनचक्र 3-4 माह का ही होता है और इसका एक पौधा एक बार में लगभग 10,000 से 25,000 बीज पैदा करता है। यह बीज हल्के होते हैं जो आसानी से हवा और पानी से आसपास के सभी क्षेत्रों में फ़ैल जाते हैं तथा यह वर्षभर प्रतिकूल परिस्तिथतियों एवं कहीं भी उगने व फलने फूलने की क्षमता रखता है।
पार्थीनियम, एक बारी में ही बड़ी तादाद में बीज पैदा करता है। (फोटो: मीनू धाकड़)
वन क्षेत्रों को जब भी सड़क, रेल लाइन और नहरों के निर्माण के लिए खंडित किया जाता है अर्थात जंगल को काटा जाता है तो जंगल का कैनोपी कवर हटने से भूमि खाली होती है और जिसपर प्रकाश भी भरपूर होता है। बस प्रकाश और खाली स्थान मिलते ही ऐसे खरपतवार वहां उग जाते है। साथ ही निर्माण कार्य के दौरान आसपास बने गड्ढों में पानी भर जाने पर भी ये उग जाता है।
अगर ये नदी या पानी के किनारे पर मौजूद होता है तो बहते हुए पानी के साथ आते-आते इसके बीज पूरे क्षेत्र में फ़ैल जाते है और धीरे-धीरे यह खेतों में भी पहुंच जाता है।
स्वास्थ्य के ऊपर कई नुकसान होने के कारण कोई भी प्राणी इसे नहीं खाता है जिसके कारण यह बचा हुआ है और तेजी से फ़ैल रहा है।
हालांकि प्राणी इसे नहीं खाते हैं परन्तु ऐसा देखा गया है कि, गधा इसे बड़े चाव से खाता है और फिर उसके गोबर के साथ इसके बीजों का बिखराव आसपास के सभी क्षेत्र में हो जाता है।
वनस्पति विशेषज्ञ डॉ सतीश कुमार शर्मा के अनुसार इसे निम्न तरीकों से हटाया जा सकता है:
पार्थीनियम अधिकतर कृषि क्षेत्रों में भी फ़ैल चूका है और इसे उन्मूलन, पुनः रोपण और जांच इन तीन चरणों से ही हटाया जा सकता है। (फोटो: मीनू धाकड़)
इस खरपतवार को हटाने का सबसे पहला और बड़ा तरीका यह है कि, इसे छोटे-छोटे क्षेत्रों से हटाने से सफलता नहीं मिलेगी। यानी अगर हम इसे छोटे क्षेत्र से ही हटाते हैं जैसे किसी किसान ने सिर्फ अपने खेत से हटाया या फिर वन विभाग ने सिर्फ एक रेंज से हटाया और आसपास यह मौजूद है तो आसपास के क्षेत्रों से यह वापिस आ जाएगा। इसीलिए इसे छोटे-छोटे हिस्सों में नहीं बल्कि “लैंडस्केप स्तर” पर हटाना होगा। यानी की इसे विस्तृत रूप से हटाना होगा जैसे वन विभाग वाले वनों से हटाए, चरागाह वाले चरागाह से हटाए और नगरपालिका वाले शहरों से हटाए। यानी एक साथ सब जगह से हटाने से ही इसका नियंत्रण होगा।
इसे हमेशा फूल और फल बनने से पहले हटाना चाहिए नहीं तो बीज सब तरफ फ़ैल जाएगें। इसे हटाते समय काटो या जलाओ मत, नहीं तो यह फिर से उग जाएगा। इसको पूरी जड़ सहित उखाड़ा जाना चाहिए और यह करने का सबसे सही समय होता है बारिश का मौसम।
इसे पूर्णरूप से हटाने के तीन चरण है; उन्मूलन (Eradication), पुनः रोपण (Regeneration) और जांच (Followup) अर्थात जैसे ही एक क्षेत्र से इसे हटाया जाए साथ के साथ स्थानीय वनस्पति का पुनः रोपण (Regeneration) भी किया जाए ताकि खाली ज़मीन से मिट्टी का कटाव न हो। साथ ही हटाए गए क्षेत्र का समय-समय पर सर्वेक्षण कर जांचना चाहिए कि, कहीं कोई नए पौधे तो नहीं उग गए क्योंकि जो बीज मिट्टी में पड़े रह गए होंगे बारिश में नया पौधा बन सकते हैं। ऐसे में उन नए पौधों को भी हटा देना चाहिए। इन तीन चरण को लगभग चार से पांच वर्ष तक किये जाने पर इसे हटाया जा सकता है।
पहाड़ी क्षेत्रों में इसे ऊपर से नीचे की तरफ और समतल क्षेत्रों में बीच से बाहरी सीमा की तरफ हटाया जाना चाइये।
विभिन्न विकास कार्यों के दौरान जंगलों के कटाव के कारण भी यह वन क्षेत्रों में आ जाता है। इसीलिए हमें सबसे पहली कोशिश यही रखनी चाहिए की वनों का खंडन न करें और अन्य विकल्प खोजने की पूरी कोशिश करें। और यदि काटे भी तो स्थानीय पौधों का रोपण कर खाली स्थानों को भर दिया जाए।
राजस्थान में पानी की बढ़ती कमी के इस दौर में पार्थीनियम जैसी खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए सभी विभागों को मिलकर कार्य करना होगा। विशेषरूप से संरक्षित क्षेत्रों से इसे हटाने के लिए विभाग को एक मुहीम चलानी चाहिए तथा राज्य सरकार को भी नरेगा जैसी स्कीम के तहत जल स्रोतों और चारागाह भूमियो से इसे हटाने के प्रयास करने चाइये।
साथ ही वन विभाग के सभी कर्मियों को उनके क्षेत्र में पायी जाने वाली खरपतवार की पहचान, उनकी वानिकी और नियंत्रण के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे ऐसी खरपतवार को सफलतापूर्वक तरीके से हटा सके।
हम जब वन क्षेत्र मे जाते हैं तो उस प्राकृतिक आवास के वन्य प्राणी हमें कहीं न कहीं, किसी न किसी जैविक गतिविधि में लिप्त नजर आते हैं। हर प्राणी, हर जगह एवं हर समय दिखाई नहीं देता। प्रत्येक वन्य प्राणी का अपना विशिष्ठि स्वभाव होता है। सबके अपने जगने, सोने, भोजन प्राप्ति हेतु क्रियाशाील होने, प्रजनन गतिविधियाँ करने, खेलने, सुस्तानें, धूप सेकने, आदि का एक खास समय होता है। कुछ प्राणी रात्रि में सक्रिय रहते हैं एवं दिन में सोते रहते हैं या आराम करते हैं। इन्हें रात्रिचार (Nocturnal) प्राणी कहते हैं। कुछ सुबह-शाम सक्रिय रहते हैं बाकी रात्रि व दिन में सोते रहते हैं या आराम करते हैं। इन्हें क्रीपसकुलर (Cripuscular) प्राणी कहते हैं।
वन क्षेत्र के पथ पर वन्यजीव के पगचिन्ह (फोटो: डॉ जॉय गार्डनर)
इस तरह सक्रियता के आधार पर प्राणियों के तीन वर्ग होते हैं। इन वर्गों के कुछ उदाहरण निम्न हैं
* रात्रिचर व्यवहार भी करते हैं , # दिनचारी व्यवहार भी करते हैं , $ क्रीपसकुलर व्यवहार भी करते हैं
दिनचारी प्राणी भी पूरे दिन सक्रिय नहीं रहते बल्कि कुछ खास घन्टों में ही अपनी सक्रियता ज्यादा बनाये रखते हैं बाकि समय किसी सुरक्षित जगह व्यतीत करते हैं। यही बात रात्रिचर प्राणियों पर लागू होती है। वे भी कुछ खास घन्टों अधिक सक्रिय रहते है। बाकी समय सुरक्षित जगह पर चले जाते हैं।
वन्यजीवों के चिन्हों का अवलोकन करते हुए वन्यजीव प्रेमी (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
कोई व्यक्ति प्राणी अवलोकन हेतु वन में दिन में निकलता है एवं माना उसे उडन गिलहरी की तलाश है तो चाहे वह वन में कितना ही घूमे, संभावना यह रहेगी कि उसे उडन गिलहरी नहीं मिलेगी। उडन गिलहरी रात्रि में निकलेगी जबकि व्यक्ति उसे दिन में तलाश कर रहा है। यानी प्राणी भौतिक रूप से साक्षात दिन में नज़र नहीं आयेगा, परन्तु रात्रि में जब वह सक्रिय बना रहा था उस समय उसने कई प्रमाण पीछे छोडे़ होंगे जो प्रकृति में मिलने की पूरी संभावना होती है। मसलन किसी महुये या सालर वृक्ष के नीचे टहनियों के छोर पत्तियों के भूमि पर बेतरतीब बिखरे मिलेंगे। यदि इन टहनियों के निचले चोरों का अवलोकन किया जाये तो पायेंगे कि वहाँ इनसाइजर दाँतों से कुतरने के स्पष्ट निशान हैं। यह एक ऐसा पुख्ता प्रमाण है जो दिन में गिलहरी दिखाई न देने के बावजूद रात्रि में उसकी उपस्थिती को निश्चायक रूप से प्रमाणित करता है। यहाँ महुये की कुतरी टहनियां “प्राणी प्रमाण“ कहलायेंगी। प्रकृति में जब भी हम वन पथों, पगंडडियों या आवास के दूसरे भागों में घूमते हैं, हमें तरह-तरह के प्राणी प्रामाण देखने को मिलाते हैं। ये सब किसी न किसी प्रजाति विशेष के चिन्ह या प्रमाण होते हैं जो उसकी उपस्थिति को सिद्व करते हैं। जब भी हम वन में अकेले जायें या एक गाइड के रूप में जायें, प्राणी नजर नहीं भी आ रहे हो तो रास्तों पर व उनके आस-पास, तिराहों व चौराहों पर ध्यान से देखेंगे तो कोई न कोई निशानात अवश्य मिलेंगे।
आजकल वन्यजीवों की गतिविधियों की निगरानी करने के लिए “कैमरा ट्रैपिंग” तकनीक का प्रयोग किया जाता है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
कुछ प्राणी प्रमाण :
प्रकृति में अनेक प्राणी प्रमाण देखने को मिलते हैं। हमारे क्षेत्र में मिलने वाले कुछ प्राणी प्रमाण निम्न हैः
चलने के दौरान बने पैरों के निशान (Pugmark & Hoof Mark)
रेंगने के निशान: सरीसृप् वर्गो के प्रार्णीयों के चलने के दौरान पैर,पेट व पूँछ द्वारा बनाये घसीट जैसे निशान
घसीट के निशानः माँसाहारी प्राणी कई बार शिकार को घसीट कर सुरक्षित स्थान पर ले जाते हैं। शिकार को घसीटने से जमीन की घास व पौधे मुड़ जाते हैं तथा एक घसीट का स्वच्छ निशान बन जाता है।
कंकाल व शव के अवशेषः माँसाहारी प्राणियों द्वारा किसी शाकाहारी का शिकार करने के बाद उसे खाने के उपरान्त हडियों का ढाँचा छोड दिया जाता है। ताजा स्थिति में खाल,बाल,पेट में भरा चारा आदि भी मौके पर मिलते हैं। दुर्गन्ध भी मिलती है। समय के साथ जरख प्राणी कंकाल को भी इधर-उधर कर देते हैं फिर भी कुछ अवशेष कई दिनों तक पड़े मिल जाते हैं।
बाघ और जंगल कैट के पगचिन्ह (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
किलः माँसाहारी प्राणी द्वारा बडा शाकाहारी मारने पर वह एक से अधिक दिन खाया जाता है। मरा हुआ प्राणी किल के रूप मेें जाना जाता है। कई बार किल पर दूर से देखने पर गिद्व व कौवे भी मँडराते देखे जाते हैं। किल दो प्रजातियों की उपस्थिती सिद्व करता है। एक शाकाहारी प्रजाति व दूसरी माँसहारी प्रजाति की।
पंखः पक्षी मॉल्टिग द्वारा अपने पंख स्वयं भी गिराते हैं एवं किसी शिकारी प्राणी द्वारा मारे जाने पर भी बेतरतीब पंख बिखरे मिल सकते हैं। पंखों को पहचान कर पक्षी की प्रजाति पहचानी जा सकती है।
आंकड़ों का संग्लन करते समय हमेशा पगचिन्ह के साथ एक मापक रखना चाहिए ताकि पगचिन्ह के आकार का अंदाजा लगाया जा सके (फोटो: डॉ जॉय गार्डनर)
छाल उतारने व छाल खाने के निशानः नर साँभर व नर चीतल एन्टलरों की वेलवेट सूख जाने पर किसी वृक्ष के तने या टहनी के एण्टलर रगड़-रगड़ कर सूखी खाल उतारते हैं। इस प्रयास में वृक्ष की छाल भी छिल जाती है। साँभर चीतल के मुकाबले अधिक ऊंचाई पर छाल उतारता है। इस तरह वृक्ष की छिली छाल व उसकी ऊंचाई को देख कर साँभर व चीतल की उपस्थिति जानी जा सकती है। सेही व लंगूर भी हरे वृक्षों व झाडियों की छाल को खाते हैं। सेेही छाल उतारने में ऊपरी व निचले जबडे के 2-2 इनसाइजर दाँतों का उपयोग करती है अतः छीलने के स्थान पर दो-दो इनसाइजरों के स्पष्ट निशान मिलते हैं। लंगूर केनाइन का उपयोग करता है अतः पौधे के तने पर अकेले केनाइन का लकीरनुमा निशान मिलता है।
नखर चिन्हः तेदुआ जब वृक्ष पर चढता है तो अपने नाखून छाल में गडा कर चढता व उतरता है। इस प्रयास में तने की छाल में खरौंचनुमा निशान उभर आते हैं। भालू चढता है तब भी वृक्ष की छाल में नाखून गड़ाने से खरौंच का निशान बनता है। लेकिन तेदुऐ के नाखून पैने होने से छाल में सँकरी व गहरी खरौंच बनती है।
घौंसलेः हर पक्षी के घौंसले की बनावट, रखने का स्थान,बनाने में प्रयोग की गई सामग्री के बहुत अंतर होता है। घौंसले के प्रकार को देख कर पक्षी की प्रजाति को पहचाना जा सकता है। घौंसलों के पास टूटे अण्डों के खोल, बीटों के प्रकार आदि का मुल्यांकन कर भी पक्षीयों की प्रजाति को पहचाना जा सकता है। घौंसले किसी प्रजाति के वहाँ होने के अच्छे प्रमाण होते हैं।
अवाजेंः जंगल में तरह-तरह की आवाज़ें सुनने को मिलती हैं। बाघ या तेंदुऐ की उपस्थिति में शाकाहारी प्राणी जैसे साँभर, चीतल, नीलगाय आदि डर के मारे अलार्म काल निकलते हैं। इन आवाजों को पहचान कर शाकाहारी प्रजाति की उपस्थिति व प्रजाति का निर्धारण किया जा सकता है। माँसाहारी के वहाँ होने का भी प्रमाणीकरण हो जाता है। ऐसे ही डिस्ट्रेसकॉल भी बिल्ली या साँप पास होने पर पक्षी करते हैं। पक्षियों के बच्चे भोजन माँगने हेतु बैगिंगकाल करते है। प्रजनन में प्राणी प्रणय आवाजें निकालते हैं। आवाजों को समझने का एक पृथक विज्ञान है जिसे “आवाज विज्ञान“ कहते हैं।
अन्य प्रमाणः कुतरे फल व बीज, केंचुली,मल, मैंगणी, बिल, मल की ढेरी, मुड़ी हुई घास, चरे हुये पौधे, वृक्षों के तनों पर रगड़ के निशान या कींचड़ रगडने के निशान, बीटिंग पाथ(बार-बार चलने से बने रास्ते) आदि प्रकृति में अनेक प्राणियों की उपस्थिति का संकेत देते हैं।
सेही का मल (फोटो: श्री महेंद्र दन)
निम्न स्थानों पर प्राणियों के अप्रत्यक्ष प्रमाण मिलने की संभावना अधिक रहती हैः
कच्चे वन पथ
पगंडडिया व गेम टेªल
तिराहे व चौराहे
जल स्त्रोतों के पास
दो आवासों के मिलन स्थल पर
सेही के पैर, इस से आप अंदाज लगा सकते हैं की इसका पगचिन्ह कैसा दिखेगा (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
प्राणी प्रमाणों का महत्वः
हम हर बार उस समय जंगल में नहीं जा सकते जब कोई प्राणी सक्रिय रूप से घूम रहा हो। हम नियमों एवं प्रबन्ध व्यवस्था का पालन करते हुये किसी खास घन्टों में ही जंगल में जा सकते हैं। हो सकता है उन घन्टों में प्राणी अपनी दैनिक क्रियाएं पूर्ण कर सोने व आराम करने चला गया हो। इन विषम घन्टों में यदि हम प्राणी प्रमाणों को ढूंढें तो हमारी यात्रा का उद्देश्य व आनन्द किसी हद तक पूर्ण हो जाते हैं। अतः प्राणी प्रमाणों को ढूढने की काबलियत व उनको समझने की क्षमता विकसित करनी चाहिये।
जानते है किस प्रकार पक्षी समूह “बटनक्वेल” में नर और मादा अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते है…
हम सभी जानते हैं कि, पक्षी जगत में नर, मादा की अपेक्षा अधिक सुंदर और चटकीले रंगों का होता है और प्रजनन काल के दौरान प्रणय (Courtship) का आगाज़ भी नर ही करता है। नर हमेशा मादा के ऊपर अपना दबदबा (Dominance) बनाये रखता है। वहीँ दूसरी ओर मादा धूसर रंगों की होती है ताकि वह खुद को सफलतापूर्वक छुपाये रखते हुए, अंडो को सेह कर चूज़ों का लालन पालन कर सके। परन्तु पक्षी जगत बहुत ही विविधता भरा है और इसमें कुछ पक्षी ऐसे भी पाए जाते हैं जिनमें उल्टा होता है, यानी इनमें नर की भूमिका मादा और मादा की भूमिका नर निभाता है। इनमें मादा ज्यादा सुंदर एवं चटकीले रंगों की होती हैं तो वहीँ दूसरी ओर नर धूसर रंगों के होते हैं और यही नहीं इनमे प्रणय का आगाज़ भी मादा ही करती है। नर अण्डों को सेते व चूज़ों का लालन पालन करते है तथा मादा इलाके पर राज करती है और नर के ऊपर मादा का दबदबा रहता है। यदि कभी नर घोंसले से दूर चला जाए और यह बात मादा को पता चल जाए तो, नर की खैर नहीं। इस तरह के दिलचस्ब व्यवहार वाले पक्षी हैं “बटनक्वेल”। आइए जानते हैं इनके व्यवहार से जुड़े कुछ और रोचक पहलु।
भारत में कई प्रकार के क्वेल अथवा बटेर मिलते है, यह छोटे और ज़मीन पर रहने वाले पक्षियों का एक समूह है। परन्तु इन कई बटेरो में मात्र तीन बटनक्वेल प्रजातियां हैं। यह तीनो प्रजातियां राजस्थान भी पायी जाती हैं; बार्ड बटनक्वेल, येलो लेग्गड बटनक्वेल और स्माल बटनक्वेल। स्थानीय भाषा में इन्हें बटेर के साथ “लवा” भी कहा जाता है। बटनक्वेल को “हेमीपोड” भी कहा जाता है, जो एक ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है “आधा पैर”। यानी इन पक्षियों के पैरों में अंगूठा नहीं होता है, जिसके कारण अपने जीवन में यह कभी भी पेड़ पर नहीं बैठ सकते हैं और अपना पूरा जीवन ज़मीन पर ही बिताते हैं। बटनक्वेल आकार में अन्य बटेर से छोटे होते हैं। अन्य बटेर वे होते हैं जिनके पैरों में अंगूठा होता है परन्तु यह भी ज़मीन पर ही रहते हैं।
मुख्य पहचान बिंदु:
बार्ड बटनक्वेल: गले पर काले रंग का पैच एवं छाती पर काली सफेद धारियां। इसके पैर और चोंच नीले रंग के होते हैं और अक्सर यह जोड़ों में दिखते हैं पर कभी-कभी अन्य बटेर के झुंड मैं भी दिख जाते हैं। (फोटो: धर्म वीर सिंह जोधा )
येलो लेग्गड बटनक्वेल: निचला भाग बादामी रंग का होता है जिस पर काले धब्बे होते है। इसके पैर और चोंच पीले रंग के होते हैं और यह प्रजाति हमेशा जोड़ों में रहती है और कभी भी अन्य बटेर के साथ एकत्रित नहीं होती। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
स्माल बटनक्वेल: इस पक्षी का शरीर रेतीले-भूरे रंग का होता है। माता के पैर धूसर रंग के होते हैं वही नर के पैर हल्के गुलाबी रंग के होते हैं और यह प्रजाति झुंड नहीं बनाती है। (फोटो: श्री राजू करिआ)
बटनक्वेल में प्रजनन :
बटनक्वेल में प्रजनन काल आने पर कोर्टशिप का आगाज़ मादा ही करती है तथा इस समय पर मादा विशेष प्रकार की आवाज़ भी निकालती है। यह आवाज दूसरी मादाओं को चुनौती देने के लिए की जाती है। मादाओं की इन आवाज्ज़ो की भी एक विशेषता है जिसे वर्ष 1879 , में प्रकाशित ऐ.ओ. ह्यूम की पुस्तक “गेम बर्ड्स ऑफ इंडिया बर्मा एंड सैलन” में कर्नल टिकल (Samuel Tickell) बताते हैं कि, जब मादा 50 से 60 मीटर की दूरी से आवाज करती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह एक 2 मीटर दूर हो और जब वह पास होती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि वह 50 से 60 मीटर दूर है। और अपनी इसी खूबी से यह पक्षी माहिर शिकारियों को भी चकमा दे देता है।
मादाएँ विशेष आवाज़ निकाल कर एक-दूसरे को चुनौती देती हैं जिसके बाद मादाओं में संघर्ष होता है और विजेता मादा नर के साथ सहवास करती है। सेत स्मिथ (Seth Smith) अपनी पुस्तक “एवीकल्चरल मैगजीन (Vol 1 1903)” में लिखते हैं कि, कई बार मादा नर को भोजन देकर भी अपनी तरफ लुभाती है। सहवास करने के बाद मादा घोंसला बनाकर अंडे देती है और फिर से एक नए साथी की तलाश में निकल जाती है। वहीँ दूसरी ओर नर अंडों को सहता है और चूजों का पालन पोषण भी करता है। यही चीज बटनक्वेल को दूसरे पक्षियों से अलग और अनूठा बनाती है। इस भूमिका के परिवर्तन और मादा का एक ही प्रजनन काल में अलग-अलग नरों के साथ सहवास करना और अलग-अलग घोंसलो में अंडे देना ही पॉलिएंड्री (polyandry) कहलाता है।
बार्ड बटनक्वेल में जब मादा आवाज करती है तो उसका गला और छाती फूल जाता है जैसा आप इस फोटो में देख सकते हैं। (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा )
बार्ड बटनक्वेल में प्रजनन काल अलग-अलग स्थानों के साथ बदलता है और इसमें मादा dr-r-r-r और hoon-hoon जैसी आवाज़ निकालती है और आवाज़ निकालते समय उसका गला और छाती फूल जाती है। येलो लेग्गड़ बटनक्वेल में प्रजनन मार्च और सितंबर के बीच होता है, इनमें मादा hoot-hoot जैसी आवाज निकालती है। स्माल बटनक्वेल में प्रजनन कॉल जून से सितंबर तक रहता है और इस दौरान मादा गहरी hoon-hoon-hoon जैसी आवाज निकालती है।
घोंसला:
बटनक्वेल अपना घोंसला घास के मैदानों, छोटी सूखी झाड़ियों वाले इलाकों में सीधे ज़मीन पर या फिर हल्के गहरे गड्ढे में बनाते हैं जो की ऊपर से घास में ढका होता है। इनके घोंसले के चारों तरफ भी झाड़ियां होती है ताकि आसानी से कोई उस तक न पहुंच पाए। ह्यूम अपनी पुस्तक “गेम बर्ड्स ऑफ इंडिया बर्मा एंड सैलन” में बताते हैं कि, बटनक्वेल कभी-कभी घोंसला बनाने के लिए गाय या भैंस के खुर से बने गड्ढे का भी इस्तेमाल कर लेते है और मूंझ या सरपट (Saccharum munja) इनकी पसंदीदा घास होती है।
स्माल बटनक्वेल नर अपने चूज़ों के साथ (फोटो: श्री राजू करिआ)
बार्ड बटनक्वेल कई बार अपना घोंसला मानव उपस्थिति वाले इलाकों में भी बना लेती है जिससे यह पता चलता है कि, इन्हें मानव उपस्थिति से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ह्यूम अपनी पुस्तक में बताते हैं कि, एक बार मेरठ में एक मुगल शिकारी ने उन्हें बताया की मादा की अनुपस्थिति में नर घोंसले के आसपास भोजन ढूंढ़ने व खाने लग जाता है परन्तु जैसे ही उसे मादा की आवाज सुनाई पड़ती वह फटाफट घोंसले पर जाकर ऐसे बैठ जाता था जैसे कि कभी वहां से हिला ही न हो। यह वाक्या इनमें मादाओं के दबदबे को दर्शाता है।
येलो लेग्गड बटनक्वेल (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
येलो लेग्गड़ बटनक्वेल का घोंसला स्कूप के आकार का होता है जिसमें घुसने के लिए घास के बीच में से रास्ता होता है। यह एक बार में तीन से चार अंडे देते हैं। सभी बटनक्वेल में नर 12 से 13 दिनों तक अंडों को सहता है। चूज़ों की त्वचा पर पंख अंडे में ही आ जाते हैं जो कि बारीक रोयें जैसे होते हैं और इनके चूजे अंडों से निकलते ही दौड़ लगा सकते हैं। इनका रंग भी इनके आवास के समान होता है और ये अपने आसपास के पर्यावास में ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि एक सरसरी नज़र में तो दिखाई ही न दे। जब इन्हें खतरा महसूस होता है तो चूजे दुबक कर बैठ जाते हैं और यह किसी कंकड़ पत्थर की तरह प्रतीत होते हैं तथा सामने होकर भी सामने नहीं हो जैसे लगते हैं। खतरा टलने के बाद चूजे आवाज करते हैं और इस आवाज को सुनकर पिता इन्हें आसानी से ढूंढ लेता है और यह फिर से एकत्रित हो जाते हैं। इनकी यह खूबियां इन्हें जीवित रहने में मदद करती हैं।
बटनक्वेल, शिकार और कुछ बचाव के तरीके:
वर्ष 1903 में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के “ई.डब्ल्यू . हारपर (E W Harper)” पुस्तक “एवीकल्चरल मैगजीन” में बताते हैं कि, उस समय एक साल में हजारों की तादात में बटनक्वेल और क्वेल कोलकाता के बाजारों में बेचे जाते थे। इन क्वेल को पकड़ने वाले कई सारे पिंजरों में एक-एक बटनक्वेल रखते थे, और जब वह आवाज निकालते तो दूसरे बटनक्वेल इनकी ओर आकर्षित होते। सुबह सूर्योदय से कुछ समय पहले 3-4 शिकारी घास में शोर कर इन सभी बटनक्वेल को जाल की ओर खदेड़ते और साथ ही पिंजरे वाले पक्षियों की आवाज सुनकर बटनक्वेल जाल की ओर बढ़ते जाते और फिर उस में फंस जाते थे। पालतू बटनक्वेल को आहार की तौर पर सादा दाना जैसे कि, बाजरा और पानी दिया जाता था। उस समय बड़ी तादाद में बटनक्वेल पकड़े जाते थे परंतु वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम,1972 के तहत बटनक्वेल के शिकार पर रोक लगा दी गई। आजकल तो क्वेल को मीट और अंडे के लिए पोल्ट्री फॉर्म में पाला जाता है और इससे जंगली बटनक्वेल प्रजातियों का शिकार काफी हद तक कम हो गया है परन्तु आज भी कई जगहों पर स्पीकर से रिकॉर्डेड आवाज निकाल कर बटनक्वेल को आकर्षित करके पकड़ा जाता है।
“ई.डब्ल्यू . हारपर” पुस्तक “एवीकल्चरल मैगजीन” में बताते हैं कि, उस समय एक साल में हजारों की तादात में बटनक्वेल और क्वेल कोलकाता के बाजारों में बेचे जाते थे।
भारत में घास के मैदानों और झाड़ीदार इलाकों को बेकार ज़मीन समझकर तबाह करा जाता है पर असल में यही इलाके क्वेल के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए के लिए आवश्यक हैं। फिलहाल तो आई.यू.सी.एन. सूची के मुताबिक यह खतरे की श्रेणी से बाहर है परंतु इनके आवास खत्म होने के साथ ही यह खतरे की कगार पर पहुंच जाएंगे। इन पक्षियों की और इनके आवासों को सुरक्षा की बहुत जरूरत है क्योंकि यह प्रकृति में बहुत सारे कीटों का नियंत्रण करके मानव समाज को बहुत लाभ पहुंचाते हैं।
बटनक्वेल की इस प्रजाति को पहली बार वर्ष 1789 में, एक जर्मन प्रकृतिविद “जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin)” ने खोजा था।
राजस्थान में बार्ड बटनक्वेल उत्तरी-पश्चिमी रेगिस्तानी इलाके के अलावा सभी जगह पाए जाते हैं तथा इन्हें खेत-खलियान,घास के मैदान और खुले झाड़ीदार इलाकों में रहना पसंद है। भारत के अलावा यह प्रजाति इंडोनेशिया,थाईलैंड,बर्मा और श्रीलंका में भी पायी जाती है।
ऐ ओ हूयूम की पुस्तक “The Game Birds Of India,Burmah& Ceylon ” में प्रकाशित बार्ड बटनक्वेल का चित्र।
इस बटनक्वेल को पहचानने का सबसे विशिष्ट गुण इसके नाम में ही छुपा है और वो है “येलो लेग्गड़” यानी “पीली टाँगे”। अर्थात इस बटनक्वेल की टाँगे पीली होती हैं जिसकी वजह से इसे बाकि बटनक्वेल से अलग पहचाना जा सकता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप दक्षिणी पूर्वी एशिया की स्थानिक प्रजाति है जिसे वर्ष 1843 में, एक अंग्रेज जीव वैज्ञानिक “एडवर्ड ब्लायथ (Edward Blyth)” ने खोजा था। ब्लायथ, कलकत्ता में स्थित एशियाटिक सोसाइटी के संग्रहालय (museum of the Royal Asiatic Society of Bengal) में प्राणी शास्त्र के क्यूरेटर के रूप कार्य करते थे और इस बीच इन्होने पक्षियों की कई नई प्रजातियां खोजी थी।
एवीकल्चरल मैगजीन में प्रकाशित येलो लेग्गड बटनक्वेल का चित्र।
राजस्थान में पाई जाने वाली उप-प्रजाति –Turnix tanki tanki , भारत,पाकिस्तान,नेपाल और अंडमान-निकोबार द्वीप में पाई जाती है। मानसून के दौरान यह प्रजाति दक्षिण से राजस्थान के सूखे इलाकों की तरफ प्रवास करती है जहाँ इसे जून से सितंबर तक देखा जा सकता है। राजस्थान में अभी तक इसे अजमेर,उदयपुर और सवाई माधोपुर में घास के मैदानों में देखा गया है। इसे सूखे छोटी झाड़ियों वाले इलाके पसंद होते हैं |
बटनक्वेल की इस प्रजाति को पहली बार वर्ष 1789 में, एक जर्मन प्रकृतिविद “जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin)” ने खोजा था। यह प्रजाति आकार में तीनों बटनक्वेल में सबसे छोटा होता है। इसकी चाल इंडियन कोरसर जैसी होती है जिसमें यह छोटी-छोटी दौड़ लगाकर चलता है और बीच-बीच में रुक कर आसपास मुआइना करता है और फिर से भागता है।
जॉन गोल्ड की पुस्तक “Birds of Asia” में प्रकाशित स्माल बटनक्वेल का चित्र।
राजस्थान में यह प्रजाति अजमेर, बूंदी और सवाई माधोपुर में देखी गयी है। इन्हे खेत-खलियान, घास के मैदान और छोटी झाड़ियों वाले इलाकों में रहना अधिक पसंद होता है। भारत के अलावा यह मोरक्को,अफ्रीका और इंडोनेशिया तक पाई जाती है। पहले यह स्पेन में भी पाई जाती थी परन्तु अब वहां से विलुप्त हो गई है।
सन्दर्भ:
Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
Birds of Asia a Book by John Gould 1850.
The Avicultural Magazine A Journal by Avicultural Society Volume 1 1903
The Game Birds Of India,Burmah& Ceylon by Hume and Marshall Volume 2 १८७९
वैज्ञानिकों और बाघ प्रेमियों में हमेशा से यह एक चर्चा का विषय रहा है कि, आखिर बाघ का इलाका औसतन कितना बड़ा होता है? इस विषय पर प्रकाश डालते हुए राजस्थान के वन अधिकारियों द्वारा सरिस्का के सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं का एक अध्यन्न कर कई महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है आइये जानते हैं…
हाल ही में राजस्थान के कुछ वन अधिकारीयों द्वारा बाघों पर एक अध्ययन किया गया है जिसमें अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” के बाघ मूवमेंट क्षेत्र (Territory) को मानचित्र पर दर्शाकर तुलना करने का प्रयास किया गया। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य बाघों की गतिविधियों और वितरण सीमा को प्रभावित करने वाले संभावित कारणों को समझना था ताकि बाघों की बढ़ती आबादी के फैलाव और उसके साथ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाओं को कम करने के लिए बेहतर योजनाए भी बनाई जा सके (Bhardwaj et al 2021)।
दअरसल सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है। निगरानी के सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके। नियमित रूप से निगरानी और वैज्ञानिक तरीकों से एकत्रित आंकड़ों की मदद से यहाँ बाघों के स्वभाव एवं पारिस्थितिकी को समझने के लिए विभिन्न प्रकार के शोध भी किये जाते हैं।
सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
मुख्यत: राजस्थान के अर्ध-शुष्क एवं अरावली पर्वत श्रृंखला का भाग सरिस्का बाघ परियोजना जो कि अलवर जिले में स्थित हैं इसका कुल क्षेत्रफल 1213.31 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ मुख्यरूप से उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन हैं, जिसमें धोक (Anogeissus pendula) सबसे ज्यादा पायी जाने वाली वृक्ष प्रजाति है। इसके अलावा सालार (Boswellia serrata), Lannea coromandelica , कत्था (Acacia catechu), बेर (Zizyphus mauritiana), ढाक (Butea monosperma) और केर (Capparis separia) आदि पाई जाने वाली अन्य प्रजातियां हैं। वन्यजीवों में बाघ यहाँ का प्रमुख जीव है इसके अलावा यहाँ तेंदुआ, जरख, भालू, सियार, चीतल, सांबर, लोमड़ी आदि भी पाए जाते हैं।
सरिस्का में स्थित सूरज कुंड बाउरी (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
वर्ष 1978 में सरिस्का को बाघों की आबादी के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान समझते हुए “बाघ परियोजना (Project Tiger) का हिस्सा बनाया गया था। परन्तु वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा।
सरिस्का में दुबारा बाघों को लाने के लिए, सरिस्का से 240 किलोमीटर दूर राजस्थान के एक और सबसे प्रसिद्ध बाघ अभयारण्य “रणथम्भौर” का चयन किया गया तथा 28 जून 2008 को भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर विमल राज (wing commander Vimal Raj) द्वारा रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में पहली बाघ (ST-1) विस्थापन की प्रक्रिया को Mi-17 हेलीकॉप्टर की मदद से सफल बनाया गया।
उस समय अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।
बाघिन ST9 (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दंश भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और इसके आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय व्यवहार के दबाव में है।
पिछले कुछ वर्षों में यह भी देखा गया है कि, बाघों की बढ़ती आबादी के कारण कुछ शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने हेतु अभयारण्य की सीमा को पार कर गाँवों के आसपास चले गए थे ऐसे में बाघों के मानव बस्तियों के आसपास जाने के कारण बाघ-मानवीय संघर्ष की घटनाएं भी हो उतपन्न हो जाती हैं
बाघों की बढ़ती आबादी व इनकी गतिविधियों को देखते हुए, विभाग द्वारा सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं को समझने की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके की वन क्षेत्र बिना किसी संघर्ष घटनाओं के सफलतापूर्वक कितने बाघों को रख सकता है तथा बढ़ती आबादी के अनुसार उचित उपाय ढूंढे जा सके।
जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
बाघ, पुरे विश्व में बिल्ली परिवार का सबसे बड़ा सदस्य है जो विभिन्न प्रकार के पर्यावासों में रहने के लिए अनुकूल है। इन आवासों में पर्यावरणीय विविधताओं के कारण शिकार की बहुतायत में भी अंतर देखे जाते हैं और इसी कारण बाघों की वितरण सीमा में भी भिन्नता देखी गई है। बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ का अपना एक निर्धारित क्षेत्र (इलाका/Territory) होता है।
वहीँ दूसरी ओर जब हम प्रकाशित सन्दर्भों को देखते हैं तो विभिन्न तरह की बाते सामने आती हैं जैसे कि, जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं।
सरिस्का के बाघों की वंशावली:
क्र स
बाघ ID
लिंग
माँ का नाम
जन्म स्थान
वर्तमान स्थिति
इलाके का क्षेत्रफल (वर्ग किमी )
1
ST1
नर
–
रणथम्भौर
मृत
2
ST2
मादा
–
रणथम्भौर
जीवित
19.34
3
ST3
मादा
–
रणथम्भौर
जीवित
172.75
4
ST4
नर
–
रणथम्भौर
मृत
85.4
5
ST5
मादा
–
रणथम्भौर
मृत
51.91
6
ST6
नर
–
रणथम्भौर
जीवित
79.94
7
ST7
मादा
ST2
सरिस्का
जीवित
16.59
8
ST8
मादा
ST2
सरिस्का
जीवित
43.04
9
ST9
मादा
–
रणथम्भौर
जीवित
85.24
10
ST10
मादा
–
रणथम्भौर
जीवित
80.1
11
ST11
नर
ST10
सरिस्का
मृत
57.63
12
ST12
मादा
ST10
सरिस्का
जीवित
50.87
13
ST13
नर
ST2
सरिस्का
जीवित
61.39
14
ST14
मादा
ST2
सरिस्का
जीवित
36.58
15
ST15
नर
ST9
सरिस्का
जीवित
47.67
16
ST16
नर
–
रणथम्भौर
जीवित
–
कई विशेषज्ञों के शोध यह भी बताते हैं कि, नर बाघ का इलाका उसकी ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने से भी काफी ज्यादा बड़ा होता है और ये इसीलिए हैं ताकि बाघ अपने प्रजनन के अवसरों को अधिकतम कर सके। इसी प्रकार के कई तर्क एवं तथ्य संदर्भो में देखने को मिलते हैं।
मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे एक वर्ष (2017 -2018) तक सभी बाघों (उस समय मौजूद कुल 16 बाघों) की गतिविधियों (Movement Pattern) का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों के आधार पर की गई। इसके अलावा सभी बाघों को उनकी उम्र के आधार पर तीन भागों में बांटा गया; शावक (<1.5 वर्ष), उप-वयस्क (1.53 वर्ष) और वयस्क (> 3 वर्ष)। इसके पश्चात सभी बाघों के मूवमेंट क्षेत्रो को मानचित्र पर दर्शाने के साथ तुलना भी की गई।
रेडियो-टेलीमेट्री के महत्त्व को देखते हुए सरिस्का में अब तक नौ बाघ रेडियो कॉलर किये गए हैं जिनमे सात बाघ वे हैं जो रणथम्भोर से लाये गए थे और दो नर बाघ (ST11 और ST13) जो सरिस्का में ही पैदा हुए थे।
ST11 और ST13 के अलावा आज तक सरिस्का में पैदा होने वाले किसी भी बाघ को रेडियो-कॉलर नहीं लगाया गया है क्योंकि ये दोनों बाघ अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान काफी बड़े इलाके और अभयारण्य की सीमा के बाहरी छोर पर घूम रहे थे। ऐसे में इनकी सुरक्षा को देखते हुए इनको रेडियो कॉलर लगाया गया।
इन नौ बाघों के अलावा बाकी सभी बाघों की पगचिन्हों और कैमरा ट्रैप के आधार पर ही निगरानी की जाती है।
अध्ययन द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों की जांच से पता चलता है कि, सरिस्का में बाघिनों की क्षेत्र सीमा न्यूनतम 16.59 किमी² से अधिकतम 172.75 किमी² तक हैं, जिसमें से सबसे छोटा क्षेत्र बाघिन ST7 (16.59 किमी²) का तथा सबसे बड़ा क्षेत्र ST3 (172.75 किमी²) का देखा गया है। अन्य बाघिनों जैसे ST9 का क्षेत्र 85.24 किमी², ST10 (80.10 किमी²), ST5 (51.91 किमी²), ST12 (50.87 किमी²), ST8 (43.04 किमी²), ST14 (36.58 किमी²) और ST2 (19.34 किमी²) तक पाए गए।
पिछले वर्षों में सरिस्का के अलावा अन्य अभयारण्यों में हुए कुछ अध्ययनों की समीक्षा से ज्ञात होता है कि, अमूर बाघों के क्षेत्र अपर्याप्त शिकार और आवास की गुणवत्ता की कमी के कारण बड़े होते हैं वहीँ दूसरी ओर भारतीय उपमहाद्वीप में वयस्क मादाओं के क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध होने के कारण छोटे होते हैं। इस अध्ययन में भी कुछ ऐसा ही देखा गया है जहाँ बाघिन ST7, ST2, ST14, और ST8 के क्षेत्र, शिकार की बहुतायत होने के कारण छोटे (50 किमी² से छोटे) हैं।
परन्तु सरिस्का के बाघों की वंशावली को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो बाघिन ST2 इन सभी बाघिनों (ST7, ST14 और ST8) की माँ है तथा इनके ये क्षेत्र “female philopatry” का परिणाम है जिसमें, ST2 के क्षेत्र में उसकी बेटियों को जगह मिल गई है तथा ST2 का क्षेत्र 181.4 किमी² से कम होकर 19.34 किमी² रह गया है। इस तरह की female philopatry को कई मांसाहारी प्रजातियों में भी देखी गई है, जिसमें उप-वयस्क मादाओं को अक्सर अपनी माँ के क्षेत्र में ही छोटा हिस्सा प्राप्त हो जाता है और नर शावकों को लम्बी दुरी तय कर अन्य स्थान पर जाकर अपना क्षेत्र स्थापित करना पड़ता है।
कई अध्ययन इस व्यवहार के लिए एक ही कारण बताते हैं और वो है बेटियों की प्रजनन सफलता बढ़ाना। हालाँकि ST2 की केवल एक ही बेटी (ST14) ने सफलतापूर्वक दो मादा शावकों जन्म दिया व पाला है।
वहीँ दूसरी ओर अन्य बाघिनों जैसे ST3 (172.75 km²), ST9 (85.25 km²) और ST10 (80.10 km²) के क्षेत्र काफी बड़े थे क्योंकि इनके इलाके सरिस्का में ऐसे स्थान पर हैं जहाँ मानवजनित दबाव अधिक होने के कारण शिकार की मात्रा कम है तथा इसके पीछे एक और कारण प्रतीत होता है कि, अलग वंशावली के होने के कारण, इन बाघिनों को अन्य बाघिनों द्वारा कम शिकार और अपेक्षाकृत अशांत क्षेत्रों में बसने के लिए मजबूर किया गया है।
यदि नर बाघों की क्षेत्र सीमाओं की तुलना की जाए तो, बड़ी उम्र और पहले स्थान घेरने के कारण पहले सरिस्का भेजे गए नर बाघों के इलाके नए पैदा हुए नरों से बड़े हैं। सबसे बड़ा क्षेत्र ST11 (646.04 km²) का देखा गया है। परन्तु यदि वर्ष के सभी महीनों की औसत निकाली जाए तो सबसे बड़ा क्षेत्र ST4 (85.40 km²) का और सबसे छोटा क्षेत्र ST15 (47.67 km²) का दर्ज किया गया है। इसके अलावा अन्य बाघों के इलाके ST6 (79.94 km²), ST13 (61.39 km²) और ST11 (57.63 km²) तक पाए गए।
अध्ययन में यह भी पाया गया कि, वर्ष 2017 में, बाघिन माँ ST9 से अलग होने के शुरुआती महीनों के दौरान ST15 का क्षेत्र अधिकतम (189.5 किमी²) हो गया था, लेकिन सरिस्का के दक्षिणी भाग में बस जाने के बाद इसका क्षेत्र धीरे-धीरे कम हो गया था। इसी प्रकार शुरुआत में ST13 (687.58 वर्ग किमी) का क्षेत्र भी काफी बड़ा था जो की बाद में कम हो गया था।
मार्च 2018 में, नर बाघ ST11 की किसी कारण वश मृत्यु हो गई और शोधकर्ताओं का यह अनुमान था कि, इसके बाद अन्य नरों के क्षेत्रों में वृद्धि होगी परन्तु यह अनुमान गलत साबित हुआ और बाघों की क्षेत्र सीमाओं में गिरावट देखी गई।
बाघों के इलाके पूर्ण रूप से अलग-अलग होते हैं या कहीं-कहीं एक दूसरे में मिलते भी हैं इस प्रश्न को हल करने के लिए सभी बाघों के प्रत्येक माह और पुरे वर्ष के इलाकों को मानचित्र पर दर्शाया गया। जब सभी नर बाघों की प्रत्येक माह की क्षेत्र सीमाओं को देखा गया तो वे पूर्णरूप से अलग-अलग थी। परन्तु, पुरे वर्ष की क्षेत्र सीमाएं कुछ जगहों पर एक-दूसरे से मिल रही थी, जिसमें सबसे अधिक ओवरलैप ST4 व ST11 और ST4 व ST13 के बीच में देखा गया।
ऐसा इसलिए था क्योंकि नर बाघ ST11 और ST13 युवा हैं और उस समय वे अपना क्षेत्र स्थापित करने के लिए अभयारण्य में अधिक से अधिक क्षेत्र में घूम रहे थे। परन्तु ST11 की मृत्यु के बाद यह ओवरलैप कम हो गया।
कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि, नर बाघ की मृत्यु के बाद अन्य बाघ उस क्षेत्र को कब्ज़ा कर अपने क्षेत्र को बड़ा कर लेते हैं परन्तु इस अध्ययन में किसी भी बाघ की सीमाओं में बदलाव नहीं देखे गए तथा यह पहले से बसे नर बाघों के गैर-खोजपूर्ण व्यवहार के बारे में संकेत देता है।
रेडियो-टेलीमेट्री एक महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
अध्ययन में यह भी पाया गया कि, नर बाघों का क्षेत्र कुछ मादाओं के साथ लगभग पूरी तरह से ओवरलैप करता है और कुछ मादाओं के साथ बिलकुल कम। युवा बाघ ST15 के अलावा बाकि सभी नरों के क्षेत्र मादाओं के साथ ओवरलैप करते हैं। अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान ST11 का संपर्क सभी मादाओं के क्षेत्रों के साथ रहा है। इसके अलावा वर्ष के अलग-अलग महीनों में लगभग सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं में थोड़ी बहुत कमी, विस्तार और विस्थापन भी देखा गया है जिसमें सबसे अधिक मासिक विस्थापन युवा बाघ ST15 के क्षेत्र में (4.23 किमी) देखा गया और एक स्थान पर बस जाने के बाद यह कम हो गया। इसके बाद ST4 (2.04 किमी), ST13 (1.88 किमी), ST6 (1.69 किमी), और न्यूनतम विस्थापन ST11 (1.51 किमी) के क्षेत्र में दर्ज किया गया। परन्तु सभी बाघों की सीमाओं में ये बदलाव सरिस्का जैसे मानव-बहुल पर्यावास में एक ज़ाहिर सी बात है।
इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि, सभी बाघों की क्षेत्र सीमायें (Territories) अलग-अलग तो होती हैं लेकिन विभिन्न कारणों की वजह से यह वर्ष के किसी भी समय में बदल सकती हैं तथा पूर्णरूप से निर्धारित कुछ भी नहीं है। सरिस्का जैसे अभयारण्य में जहाँ मानवजनित दबाव बहुत है बाघों की बढ़ती आबादी के साथ-साथ मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बढ़ सकते हैं और ऐसे में रेडियो-टेलीमेट्री (radio-telemetry) एक बहुत ही महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस तरह की तकनीक का इस्तेमाल कर भविष्य में होने वाले मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम किया जा सकता है तथा बहार निकले वाले बाघों को वापिस से संरक्षित क्षेत्र के अंदर स्थानान्तरण किया जा सकता है।
सन्दर्भ:
Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A., Gupta, R. & Reddy, G.V. (2021). The spacing pattern of reintroduced tigers in human-dominated Sariska Tiger Reserve, 5(1), 1-14
लेखक:
Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
Dr. Gobind Sagar Bhardwaj (R), IFS is APCCF and Nodal officer (FCA) in Rajasthan. He has done his doctorate on birds of Sitamata WLS. He served in the different ecosystems of the state like Desert, tiger reserves like Ranthambhore and Sariska, and protected areas of south Rajasthan and as a professor in WII India. He is also a commission member of the IUCN SSC Bustard Specialist Group.
स्मूद कोटेड ओटर (Lutrogale perspicillata), एशिया में पाए जाने वाला सबसे बड़ा ऊदबिलाव जो नदी के स्वच्छ जल में निवास करते हैं। परन्तु आजकल वन क्षेत्रों के आसपास बढ़ती मानव आबादी के कारण आवारा कुत्तों की संख्या और इनके द्वारा न सिर्फ वन्यजीवों बल्कि जलीय स्तनधारियों पर भी हमले की घटनाएं भी बढ़ रही है क्योंकि उनका काफी समय किनारों पर धुप सेकते और खेलते हुए बीतता है तथा इनकी मांदे/गुफ़ा भी नदी के किनारे चट्टानों के पास ही होती है जहाँ ये बच्चे देते हैं। इसी बीच कई बार इन्हें कुत्तों के साथ मुठभेड़ का सामना करना पड़ता है ऐसी ही एक संघर्ष की घटना इस चित्र कथा में दर्शाई गई है।
चम्बल नदी में कुछ ऊदबिलाव नदी में मछलियों का शिकार कर उन्हें खा रहे थे। वहीँ दूसरी ओर किनारे पर दो कुत्ते आपस में खेल व भोंक रहे थे। कुत्तों की आवाज सुन कर ऊदबिलाव किनारे की तरफ जाने लगे।
जैसे ही वे किनारे पर पहुंचे उन कुत्तों ने ऊदबिलावों के ऊपर भोंकना व हमला करने की कोशिश शुरू कर दी। परन्तु ऊदबिलाव समझ रहे थे कि, कुत्ते पानी में नहीं आ सकते इसीलिए वे आसपास फ़ैल गए और कुत्ते इधर-उधर भाग कर परेशान होने लगे।
ऊदबिलावों और कुत्तों के बीच यह संघर्ष कुछ 10-15 मिनट तक चला और फिर वे वापिस नदी में चले गए।
कुत्तों के साथ भिड़ने से ऊदबिलाव घायल भी हो सकते है परन्तु फिर भी उनके पास जाना और ऐसा व्यवहार काफी दिलचस्प घटना है।