राजस्थान के भूभाग पर विशाल प्राकृतिक आवास जैसे थार का रेगिस्तान, अरावली एवं विंध्यन की शुष्क पर्वतमाला, शुष्क और अर्ध-शुष्क पतझड़ी वन, अलवणीय एवं लवणीय झीलें तथा आर्द्र भूमि आदि मौजूद हैं | राजस्थान के इन पारिस्थितिकी तंत्रों में अत्यंत विकसित जैव विविधता भी उपलब्ध है |
क्या शुष्क राजस्थान में जलीय प्राणी वर्ग में भी विविधता होगी ? राजस्थान राज्य में 26 बड़ी नदियाँ बहती हैं एवं यहाँ पर बड़ी संख्या में झीलें एवं तालाब हैं | राजस्थान में जलीय कछुओं की 10 प्रजातियाँ पाई जाती हैं और 01 प्रजाति जमीन पर रहने वाली पाई जाती है | जैव विविधता के एक अनोखे वर्ग – कछुओं के प्रति हम सदैव अनभिज्ञ रहे है। कछुए माँसाहारी और शाकाहारी दोनों ही तरह के होते हैं, ये मरे हुए जानवरों के सड़े-गले अवशेषों को खा जाते हैं, इससे नदी, नालों को साफ रखने में बहुत सहायता मिलती है | कछुए भोज्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते है।
राजस्थान में पाए जाने वाले कछुओं में सबसे ज्यादा जलीय कछुओं की निम्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं:
निल्सोनिया गेंजेटिका (इंडियन सॉफ्ट शेल टर्टल) Nilssonia gangetica (Indian softshell turtle): यह नदियों एवं तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 94 से.मी तक बड़ी होती है | यह प्रजाति सड़े गले मांस एवं पानी में पाए जाने वाले पौधों के साथ में जलीय वनस्पती, मछलियों, अन्य कछुओं की हैचलिंग एवं जल पक्षियों पर शिकार करते है| गंगा स्वछता अभियान के अंतर्गत इस प्रजाति को नदी साफ करने के लिए छोड़ा गया हैं| यह एक बार में 13-35 अंडे देते हैं और अपने अंडे अगस्त से दिसंबर मास तक देते है जिनमें से बच्चे निकलने में तकरीबन 9 महीने लगते है | रणथंभोर टाइगर रिजर्व में कुछ साल पहले एक बाघ को इन्डियन सॉफ्टशेल टर्टल का शिकार करते हुए भी देखा गया है | इनके मांस और अंडो के लिए इनका इंसानों द्वारा अवैध तरीके से शिकार किया जाता है |
इंडियन सॉफ्ट शेल टर्टल (निल्सोनिया गेंजेटिका), IUCN status : V, WLPA Sch.- I. (फोटो: अरुणिमा सिंह/ TSA- India)
2. निल्सोनिया हुरम (इंडियन पीकॉक सॉफ्ट शेल टर्टल) Nilssonia hurum (Indian peacock softshell turtle): यह नदियों एवं तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक और प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 60 से.मी तक बड़ी होती है और मछली एवं घोंघे खाते है | इनके खोल पर 4 से 5 गोल निशान देखे जा सकते हैं | यह एक बार में 20-38 अंडे देते हैं और अपने अंडे अगस्त से दिसंबर मास में देते हैं| यह प्रजाति राजस्थान में केवलादेव राष्ट्रीय वन्य जीव अभ्यारण्य एवं चम्बल नदी के कुछ हिस्सों में पाई जाती हैं| इस प्रजाति का शिकार मांस और अंडो के लिए किया जाता है।
इंडियन पीकॉक सॉफ्ट शेल टर्टल (निल्सोनिया हुरम), IUCN status : V, WLPA Sch.- I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)
3. लिसेमिस पंक्टाटा (इंडियन फ्लेपशेल टर्टल) Lissemys punctata (Indian flapshell turtle): नदी, झीलों और तालाबों में पाए जाने वाली नरम खोल की एक छोटी प्रजाति है| यह प्रजाति लगभग 37 से.मी की होती है और टैडपोल, मछली और जल कुम्भी आदि खाते हैं। यह प्रजाति सितंबर से नवंबर मास में अंडे देते हैं और एक बार में 8- 14 अंडे देते हैं जिनमें से बच्चे तकरीबन 9 महीने में निकलते हैं । यह कछुआ पालने और इसके मांस के लिए अधिक मांग में हैं| माना जाता है की इस प्रजाति की राजस्थान में 2 उप-प्रजातियां पायी जाती है ( लिसेमिस पंक्टाटा आंडर्सनी- Lissemys punctata andersonii और लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा – Lissemys punctata punctata) राजस्थान की लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा उप -प्रजाति इंडिया में पाए जाने वाली वाकी लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा से कुछ अलग बताई जाती है। इसलिए इस उप-प्रजाति पर आनुवंशिक अनुसंधान चल रहा जिससे इसके बारे में कुछ विशेष बातें पता लग सकती है।
इंडियन फ्लेपशेल टर्टल (लिसेमिस पंक्टाटा आंडर्सनी), IUCN status : LC, WLPA Sch: I, (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)
इंडियन फ्लेपशेल टर्टल (लिसेमिस पंक्टाटा पंक्टाटा ), IUCN status : LC, WLPA Sch: I, (फोटो: मेहुल सिंह तोमर)
4. चित्रा इंडिका (नेरो हेडेड सॉफ्ट शेल टर्टल) Chitra indica (Narrow headed softshell turtle): यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक नरम खोल की बड़ी प्रजातियों में से एक है | वे नदी के तल पर मौजूद रेत में खुद को दफनाते हैं और मछलियां, मोलस्क, आदि का शिकार करते हैं | इस प्रजाति के कछु-ए 150 से.मी तक बढ़ सकते हैं और अगस्त-सितंबर मास में अंडे देते हैं। एक बार में यह प्रजाति 65 से 193 अंडे दे सकते हैं| वे अपने अंडे रेत में देते हैं और उनमें से बच्चे 40-70 दिनों में बाहर आते हैं। इनके मांस और अंडो के लिए इनका इंसानों द्वारा अवैध तरीके से शिकार किया जाता है |
5. जियोक्लेमिस हैमिल्टोनी (स्पोटेड पोंड टर्टल) Geoclemys hamiltonii (Spotted pond turtle): झीलों और तालाबों में पाए जाने वाली सख्त खोल की एक छोटी प्रजाति है| इसका रंग काला होता है और इसके ऊपर पीले डॉट्स भी होते है। यह प्रजाति लगभग 41 से.मी तक बड़ी होती है और मछली,घोंघे, घास, फल एवं जलकुम्भी खाते है | भारत में यह प्रजाति अप्रैल-मई मास में लगभग 12-36 अंडे देते है और उनमें से बच्चे 50-60 दिनों में बाहर आते हैं। यह कछुआ इसके आकर्षक चित्तीदार पैटर्न के कारण पालने के लिए अधिक मांग में हैं|
6. हार्देला थुरजी (क्राउंड रिवर टर्टल) Hardella thurjii (Crowned river turtle): यह नदी व उनकी छोटी और स्थिर शाखाओं में पाए जाने वाली सख्त खोल की एक बड़ी प्रजाति है। इसका रंग काला होता है और इसके मुँह पर 4 पीली-नारंगी रंग की धारियां देखी जा सकती है। इस प्रजाति की मादा कछुआ लगभग 61 से.मी तक बड़ी हो सकती है और नर लगभग 18 से.मी के हो सकते है। मुख्य तौर पर शाकाहारी होती है, इसलिए सब्ज़ी, फल, आदि खाते है। यह प्रजाति सितम्बर से जनवरी मास में अंडे देते है और एक बार में 30-100 अंडे दे सकते है। जिनमें से बच्चे निकलने में तकरीबन 9 महीने लगते है। इसके मांस की खपत और मछली पकड़ने के जाल में फसना उनके लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभर के आया है।
7. बटागुर कछुगा (पेंटेड रूफ टर्टल) Batagur kachuga (Painted roofed turtle): यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक सख्त खोल की बड़ी प्रजाति है। भारत में यह प्रजाति मुख्य तौर पे गंगा व उसकी सहायक नदियों में पायी जाती है। राजस्थान में यह प्रजाति चम्बल में देखी जा सकती है। इस प्रजाति में भी नर मादा से छोटे होते है, प्रजनन काल में वयस्क नर का मुँह चटक लाल, नीला और पीला रंग अपना लेता है। यह लगभग 56 से.मी तक बढ़ सकते है और शाखाहारी होते है, मुख्या तौर पर यह प्रजाति जलीय वनस्पती खाते है। यह साल में दो बार अंडे देते है मार्च से अप्रैल और दिसंबर माह में, एक बार में करीब 11-30 अंडे देते है। इसके ऊपर मंडराता खतरा इसके मांस के सेवन और प्राकृतिक वास का नुकसान बने हुए है।
8. बटागुर ढोंगोका (थ्री-स्ट्राइपड रूफ टर्टल ) Batagur dhongoka (Three-striped roofed turtle) : यह रेतीले किनारों वाली नदियों में पाए जाने वाले एक सख्त खोल की बड़ी प्रजातियों में से एक है | इस प्रजाति को इसके कवछ पे मौजूद 3 काली धारियों और आँखों के पार जाती पीली धारी से पहचाना जा सकता हैं। भारत में यह प्रजाति मुख्य तौर पे गंगा व उसकी सहायक नदियों एवं चम्बल में पायी जाती है। इस प्रजाति की मादा कछुआ लगभग 48 से.मी तक बड़ी हो सकती है और नर लगभग 25.5 से.मी तक बढ़ सकते है। मुख्या तौर पर यह शाखाहारी होते है मगर इस प्रजाति के नर अवसरवादी मांसाहारी होते है। यह मार्च से अप्रैल माह में अंडे देते है , एक बार में यह 21-35 अंडे तक दे सकते है जिनसे बचे निकलने में 56-89 दिन लगते है। इसके ऊपर मंडराता खतरा भी इसके मांस के सेवन और प्राकृतिक वास का नुकसान बने हुए है।
9. पेंग्शुरा टेक्टा( इंडियनरूफड टर्टल) Pangshura tecta (Indian roofed turtle): ये कछुए ठहरे पानी वाली नदियों व नालों में पाए जाती है। इस प्रजाति के कई कछुए एक साथ धूप सेकते देखे जा सकते है। ये एक सख्त खोल की छोटी प्रजाति का कछुआ है। यह कछुआ लगभग 18 से.मी बड़े हो सकते है, यह किशोर अवस्था में मासाहारी होते है लेकिन व्ययस्क होते-होते शाकाहार अपना लेते है। यह सितम्बर से नवंबर मास में एक कछुआ 5 से 10 अंडे दे सकता है। यह उत्तर भारत और मध्य भारत में पाए जानी वाली प्रजाति है। इस प्रजाति का इस्तेमाल चीनी दवाइयों में और इसके आकर्षक रंगो के कारण पालने के लिए किया जाता है।
इंडियन रूफड टर्टल (पेंग्शुरा टेक्टा), IUCN status: LC, WLPA sch: I (फोटो: शैलेन्द्र सिंह/ TSA- India)
10. पेंग्शुरा टेंटोरिया (इंडियन टेंट टर्टल) Pangshura tentoria (Indian tent turtle): यह छोटी एवं बड़ी नदियों में पाए जाने वाली सख्त खोल की छोटी प्रजाति है। इसके ऊपर खोल के किनारो पर मौजूद गुलाबी धारी इसे वाकी पेंग्शुरा प्रजाति के कछुओं से अलग करती है। यह कछुआ लगभग 27 से.मी बड़े हो सकते है । इस प्रजाति के किशोर एवं व्ययस्क नर मांसाहारी होते है, लेकिन इस प्रजाति के मादाएं पूरी तरह से शाकाहारी होती है। ये एक बार में 3-6 अंडे देते है जिनमे से बच्चे निकलने में 125-144 दिन लग सकते है। इस प्रजाति के नर और किशोर पालने के लिए पकडे जाते है।
इंडियन टेंट टर्टल (पेंग्शुरा टेंटोरिया), IUCN status: LC, WLPA sch.: Not listed (फोटो: रिषिका दुबला / TSA- India)
11. जियोचिलोन एलिगेंस (इंडियन स्टार टोरटोइस) Geochelone elegans (Indian star tortoise): स्टार टोरटोइस एक ज़मीनी कछुए की प्रजाति है जो खेतों के आस-पास अथवा वन में पाए जाते है। इनका खोल सख्त होता है और उसके ऊपर स्टार जैसा पैटर्न होता है। यह लगभग 38 से.मी जितना बड़ा हो जाता है | पुरानी स्टडीज से पता चलता है कि स्टार टोरटोइस शाकाहारी है परन्तु इसे मृत जानवरों के अवशेषों को खाते हुए देखा गया है, स्टार टोरटोइस को मृत जीवो को खाते हुए भी देखा गया है | यह मार्च- जून एवं नवंबर माह में 2-10 अंडे देते है, जिनमे से बच्चे निकलने में 100-130 दिन लग सकते है।इन कछुओं की मांग पालने एवं काले जादू के लिए इस्तेमाल में लिए जाने की वजह से बढ़ती जा रही है। प्राकृतिक वास के नुकसान से भी इनके लिए खतरा बना हुआ है।
इंडियन स्टार टोरटोइस (जियोचिलोन एलिगेंस), IUCN status: V, WLPA sch.: IV (फोटो: अरुणिमा सिंह/ TSA- India)
भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार ये कहा जाता है कि एक विशाल कछुए ने समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत के मंथन में बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया था , यही मुख्य कारण है कि इनकी तस्करी की जाती है | आज भी माना जाता है कि एक और मिथ हैं कि कछुए के माँस से ट्यूबरक्लोसिस का उपचार होता है जिसके कारण इसका बहुत अधिक मात्रा में शिकार होता हैं | इनको माँस के लिए भी मारा जाता हैं | स्टार टोरटोइस को पालने के लिए अधिकांशत: अरावली की तलहटी एवं राजस्थान के अन्य वनों में से पकड़कर बेचा जाता है, इनकी मांग दीवाली के त्यौहार के दौरान सर्राफा व्यवसायियों के बीच बढ़ जाती है | संरक्षित क्षेत्रों में से होकर बाँध, उच्च मार्गों का निर्माण, बालू का खनन इनके लिए मुख्य खतरे हैं, टर्टल संरक्षण के लिए राजस्थान में भी जागरूकता पैदा किए जाने की अत्यधिक आवश्यकता है, अन्यथा हम देखेंगे कि राज्य से बहुत सारी प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी | 11 में से 07 प्रजातियों को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में (वन्यजीव संरक्षण अधिनियम स्थिति) अनुसूची-I एवं अनुसूची-IV में 1 के अंतर्गत अनुसुचिबद्ध किया गया है |
राजस्थान में कछुओं की बहुरूपता का बहुत अधिक अध्ययन नहीं हुआ है, इस बारे में अधिकांश जो अध्ययन हुआ है, वो चंबल एवं केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य में हुआ है, इसलिए यह अनुशंसा है कि कछुओं के संरक्षण हेतु विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से इनके निवास को संरक्षित एवं कछुओं पर गहन अध्ययन किये जाने चाहिए। |
ग्रेटर हूपु लार्क, रेगिस्तान में मिलने वाली एक बड़े आकार की लार्क, जो उड़ते समय बांसुरी सी मधुर आवाज व् खूबसूरत काले-सफ़ेद पंखों के पैटर्न, भोजन खोजते समय प्लोवर जैसी दौड़ और खतरा महसूस होने पर घायल होने के नाटक का प्रदर्शन करती है। इस के व्यवहार को देखने पर लगेगा जैसे आप कोई शानदार नाटक देख रहे हो।
ग्रेटर हूपु लार्क, एक छोटा पेसेराइन पक्षी जिसे राजस्थान की तेज गर्मी में झुलसते रेगिस्तान में रहना पसंद आता है तथा वर्षा ऋतू के आगमन के साथ ही इसका प्रजनन काल शुरू हो जाता है, जिसमें नरों द्वारा एक ख़ास प्रकार की उड़ान का प्रदर्शन किया जाता है नर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करते हुए धीमी गति में उड़ते हैं और इसी आवाज के कारण इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है। इस पक्षी को “लार्ज डेजर्ट लार्क” के नाम से भी जाना जाता है, परन्तु यह एक बेहद चतुर पक्षी होता है जो शिकारी को देखते ही उसे भर्मित करने के लिए घायल होने का नाटक कर ज़मीन पर गिर जाता है। रेगिस्तानी पर्यावास में जब यह ज़मीन पर होता है तो इसे देख पाना मुश्किल है क्योंकि इसके शरीर का रेतीला-भूरा रंग इसे परिवेश में छलावरण करने में मदद करता है, परन्तु जब यह उड़ान भरता है तो इसके पंखों के काले-सफ़ेद रंग के पैटर्न से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसके पंखो का यह पैटर्न किसी भी अन्य लार्क प्रजाति से अद्वितीय है। अपनी लम्बी टांगों से तेजी से एक प्लोवर की तरह भागते हुए अपनी छोटी, पतली व् तीखी चोंच से यह मिटटी को खोद कर तो कभी खुरच कर छोटे कीटों को ढूंढ अपना शिकार बनाते हैं।
निरूपण (Description):
ग्रेटर हूपु लार्क, “Alaudidae” परिवार का सदस्य है, इसका वैज्ञानिक नाम Alaemon alaudipes है जो एक ग्रीक भाषा के शब्द alēmōn से लिया गया है तथा इसका अर्थ “घुमक्कड़” होता है। पहले इसे Upupa और Certhilauda जीनस में रखा गया था परन्तु वर्ष 1840 में बाल्टिक जर्मन भूवैज्ञानिक व् जीवाश्म वैज्ञानिक “Alexander Keyserling” और जर्मन जीव वैज्ञानिक “Johann Heinrich Blasius” द्वारा Alaemon जीनस बनाया गया तथा इसे इसमें रखा गया।
ग्रेटर हूपु लार्क का चित्र (Nicolas, H. 1838)
ग्रेटर हूपु लार्क को शुष्क व् अर्ध-शुष्क मरुस्थलीय परिवेश में रहना पसंद होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
यह लार्क आकार में बाकि लार्क प्रजातियों से अपेक्षाकृत बड़ी होती है। शरीर का ऊपरी भाग रेतीला-भूरा और अंदरूनी भाग सफ़ेद-क्रीम होता है। इसके पैर लम्बे व् इसकी चोंच पतली-लम्बी और हल्की सी नीचे की ओर घुमावदार होती है। इसके चेहरे पर चोंच के आधार से होते हुए आँखों के पास से एक काली रेखा निकलती है तथा आँखों पर सफ़ेद भौंहें होती है। छाती के पास कुछ काले धब्बे होते हैं। उड़ते समय इसके सफ़ेद किनारों वाले काले पंखों का पैटर्न और बाहरी काले पंख वाली सफ़ेद पूँछ स्पष्ट दिखाई देता है। नर व् मादा दोनों दिखने में लगभग समान होते हैं, हालांकि मादा, नर की तुलना में छोटी होती हैं और छाती पर काले धब्बे कम होते हैं।
उड़ते समय इसके पंखो पर काले-सफ़ेद रंग का पैटर्न स्पष्ट दिखाई देते है जिसके कारण इसको तुरंत पहचाना जा सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वितरण व आवास (Distribution & Habitat):
बहुत ही व्यापक वितरण होने के कारण इसकी कई आबादी पायी जाती हैं जिन्हें चार उप-प्रजाति के रूप में नामित किया गया है, तथा भारत में Eastern greater hoopoe-lark (A. a. doriae) उप-प्रजाति पायी जाती है जो राजस्थान व् गुजरात में ही पायी जाती है। राजस्थान में यह थार रेगिस्तान के रेट के टीलों, शुष्क व् अर्ध-शुष्क छोटी झाड़ियों वाले खुले इलाकों में पायी जाती है। ग्रेटर हूपु लार्क रेगिस्तानी, अत्यंत गर्म व् शुष्क वातावरण में पाया जाता है, और यह 50 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में जीवित रहने में सक्षम है। क्योंकि प्रकृति ने इसे इस वातावरण में रहने के लिए अनुकूलन प्रदान किया है। इसकी लम्बी टाँगे इसके शरीर को गर्म ज़मीन से ऊपर रखती हैं और अधर भाग का सफ़ेद रंग जमीन की गर्मी को वापस प्रतिबिंबित करता है। चीते की तरह इसकी आँखों के पास लम्बी काली रेखा होती है। गर्मियों में कभी-कभी जब सतह का तापमान असहनीय हो जाता है, तो ऐसे में ग्रेटर हूपु लार्क खुद को पानी की कमी होने से बचाने के लिए सांडा छिपकली के बिल में छुप जाती है। छिपकली शाकाहारी होती है इसलिए इसे किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता है।
व्यवहार एवं पारिस्थितिकी (Behaviour and ecology):
राजस्थान के थार रेगिस्तान में ग्रेटर हूपु लार्क को अकेले या जोडों में भोजन की तलाश करते हुए देखा जा सकता है, जहाँ ये टहलते, दौड़ते व् उछलते-कूदते हुए जमीन को अपनी छोटी चोंच से खोदते हुए विचरण करते हैं। यह छोटे कीटों, छिपकलियों और विभिन्न प्रकार के बीजों को खाते हैं तथा इन्हें कवक (Fungi) को खाते हुए देखा गया है। घोंघों का खोल तोड़ने के लिए, कई बार इसे घोंघों को ऊपर से किसी सख्त सतह पर गिराते या फिर उन्हें लगातार किसी पत्थर पर पीटते हुए भी देखा गया है। जीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल ने अपने एक आलेख में इसके द्वारा “डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis)” के शिकार किये जाने के एक की घटना की व्याख्या की है।
यह जमीन को खोद कर छोटे कीटों को अपना शिकार बनाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)
इनका प्रजनन काल मुख्यरूप से पहली बारिश के बाद लगभग मार्च से जुलाई माह तक रहता हैं। कई बार देर से बारिश आने पर अगस्त में भी इनका प्रजनन देखा गया है। प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं, जिसमें वह धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। नर लगभग 15 – 20 फीट तक ऊपर जाते हैं, और फिर बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज की एक श्रृंखला के साथ धीरे-धीरे नीचे की ओर आते हैं तथा एक छोटी झाडी पर बैठ जाता है। धीमी गति में उड़ते समय जो बांसुरी व् सीटी जैसी आवाज करने के कारण ही इसे “हूपु लार्क” कहा जाता है।
प्रजनन काल में नर मादा को आकर्षित करने के लिए एक बहुत सुन्दर उड़ान का प्रदर्शन करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
इस ख़ास उड़ान में नर धीरे-धीरे पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर की ओर उड़ान भरते हैं और फिर पंखो को बंद किये नीचे की ओर आते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
छोटी टहनियों से बना हुआ इसका घोंसला एक कप के आकार का होता है जो छोटी झाड़ी के नीचे व् कभी-कभी ज़मीन पर ही रखा होता है। इसके चूज़े बहुत ही तेजी से बड़े होते हैं तथा उड़ना सीखने से पहले ही इनको इधर-उधर भागते हुए देखा जा सकता है। ज़मीन पर घोंसला व् चूज़ों का चंचल स्वभाव होने के कारण इनको कई प्रकार के शिकारी जीवों जैसे की छिपकली, गीदड़, लोमड़ी, चूहे और सांप का सामना करना पड़ता है। जब भी हूपु लार्क किसी प्रकार के शिकारी को अपने घोंसले की ओर बढ़ते देखती है, तो वह शिकारी को विचलित करने के लिए घायल या चोट का नाटक करती है। घोंसले से थोड़ी दूर पर ये ऐसे फड़फड़ाती है जैसे वह उड़ नहीं सकती, इस परिस्थिति में शिकारी को यह एक आसान शिकार महसूस होती है और शिकारी घोसले को छोड़ इसकी और बढ़ता है। शिकारी को पास आता देख यह कुछ दूर उड़ कर फिर से नीचे गिर जाती है और शिकारी इसको पकड़ पाने के विश्वास में उसकी और बढ़ता रहता है। ऐसा कई बार होता है और जब लार्क शिकारी को घोसले से दूर ले जानें सफल हो जाती है तो तुरंत उड़ कर वापिस घोंसले के पास आ जाती है।
ग्रेटर हूपु लार्क में नर व् मादा दोनों ही चूजों की देख-रेख में बराबर भूमिका निभाते हैं।(फोटो: श्री नीरव भट्ट)
संरक्षण स्थिति (Conservation status):
ग्रेटर हूपु लार्क की वैश्विक आबादी निर्धारित नहीं की गई है परन्तु इसकी आबादी का चलन कम होता दिखाई दे रहा है क्योंकि इसकी पूरी वितरण सीमा में इसके सामान्य से असामान्य होने की सूचनाएं मिली हैं। इसका विस्तार बहुत ही व्यापक है तथा अन्य मापदंडों के अनुसार अभी यह संकटग्रस्त होने की सीमा रेखा से कोसों दूर है। इसीलिए इसे IUCN द्वारा Least Concern श्रेणी में रखा गया है।
तो इस बार वर्षा ऋतू में राजस्थान आइये और इसकी मधुर आवाज व् उड़ान की खूबसूरती को देख पाने की कोशिश कीजिये।
सन्दर्भ:
Nicolas, H. 1838. Nouveau recueil de planches coloriées d’oiseaux. Vol III
Oates, EW (1890). Fauna of British India. Birds. Volume 2. Taylor and Francis, London. pp. 316–318.
स्परफाउल, वे जंगली मुर्गियां जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार होते हैं राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित हैं तथा इनका व्यवहार और भी ज्यादा दिलचस्प होता है…
पक्षी जगत की मुर्ग जाति में कुछ सदस्य ऐसे पाए जाते हैं जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं और इसी लक्षण की कारण इन्हे स्परफाउल (Spurfowl) कहा जाता है। स्परफाउल कहलाये जाने वाले ये पक्षी आकार में कुछ हद्द तक तीतर जैसे होते हैं परन्तु इनकी पूँछ थोड़ी लम्बी होती है। स्परफाउल को गैलोपेरडिक्स (Galloperdix) वंश में रखा गया है। इस जीनस में कुल तीन प्रजातियां हैं; रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea), पेंटेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata) और श्रीलंका स्परफाउल (Galloperdix bicalcarata)। इन तीन प्रजातियों में से दो रैड स्परफाउल और पेंटेड स्परफाउल राजस्थान में पायी जाती हैं। आइये इनके बारे में विस्तार से जानें।
“झापटा” यानी रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea):
यह एक छोटे आकार की मुर्ग प्रजाति है जो मूल रूप से भारत की ही स्थानिक (Endemic) है। यह एक एकांतप्रिय व् जंगलों में रहने वाला पक्षी है, और इसीलिए इसको सहजता से खुले में देख पाना काफी मुश्किल भी होता है। इसकी पूँछ तीतर (जो स्वयं फ़िज़ेन्ट कुल का पक्षी है) की तुलना में लंबी होती है और जब यह ज़मीन पर बैठा होता है, तो इसकी पूँछ साफ़ दिखाई देती है। हालांकि इसका पालतू मुर्गी से कोई निकट सम्बन्ध नहीं है, लेकिन भारत में इसे जंगली मुर्गा ही माना जाता है। यह लाल रंग का होता है और लम्बी पूँछ वाले तीतर की तरह लगता है। इसकी आंख के चारों ओर की त्वचा पर कोई पंख नहीं होने के कारण आँखों के आसपास नंगी त्वचा का लाल रंग दिखाई देता है। नर और मादा दोनों के पैरों में एक या दो नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं, जिनकी वजह से इनको अंग्रेज़ी नाम Spurfowl मिला है। इसके पृष्ठ भाग गहरे भूरे रंग के और अधर भाग गेरू रंग पर गहरे भूरे रंग चिह्नों से भरा होता है। नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं।
रैड स्परफाउल में नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)
रेड स्परफाउल, वंश Galloperdix की टाइप प्रजाति (type species) है। इस प्रजाति को 18 वीं शताब्दी के अंत में भारत से मेडागास्कर ले जाया गया था, और फिर मेडागास्कर से ही इस पर पहली बार एक फ्रांसीसी यात्री पीर्रे सोनेरेट (Pierre Sonnerat) द्वारा व्याख्यान दिया गया था। वर्ष 1789 में जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) ने द्वीपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए इसे “Tetrao spadiceus” नाम दिया था। गमेलिन, एक जर्मन प्रकृतिवादी, वनस्पति विज्ञानी, किट वैज्ञानिक (Entomologist), सरीसृप वैज्ञानिक (Herpatologist) थे। इन्होंने विभिन्न पुस्तकें लिखी तथा 1788 से 1789 के दौरान कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) कृत Systema Naturae का 13वां संस्करण भी प्रकाशित किया। परन्तु वर्ष 1844 में एक अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ Edward Blyth ने इसे “Galloperdix” वंश में रख दिया।
ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित रैड स्परफाउल का चित्र
यह स्परफाउल मुख्यरूप से दक्षिणी राजस्थान में दक्षिण अरावली से लेकर मध्य अरावली पर्वतमाला के वन क्षेत्रों में पाया जाता है। लेखक (II) के अनुसार रैड स्परफाउल राजस्थान के लगभग 9 जिलों; उदयपुर, राजसमन्द, पाली, अजमेर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौडगढ़, सिरोही और जालौर में निश्चयात्मक रूप से उपस्थित है। इस मुर्गे की एक उप-प्रजाति जिसे अरावली रैड स्परफाउल (Aravalli Red Spurfoul Galloperdix spadicea caurina) नाम से जाना जाता है, आबू पर्वत, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, कुम्भलगढ वन्यजीव अभयारण्य एवं टॉडगढ-रावली अभयारण्यों में अच्छी संख्या में पाई जाती है। यह प्रजाति आबू पर्वत के दक्षिण में स्थित गुजरात राज्य के वन क्षेत्रो में भी कुछ दूर तक देखी जा सकती है। यह प्रजाति पहाड़ी, शुष्क और नम-पर्णपाती जंगलों में पाई जाती है। झापटा आमतौर पर तीन से पांच के छोटे समूहों में अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। जब चारों ओर घूमते हैं, तो अपनी पूंछ को कभी-कभी घरेलु मुर्गे की तरह सीधे ऊपर उठा कर रखते हैं। दिन में यह काफी चुप रहते हैं लेकिन सुबह और शाम के समय आवाज करते हैं। विभिन्न अनाजों के बीज, छोटे फल व् कीड़े इनका मुख्य भोजन हैं तथा पाचन को सही करने के लिए कभी-कभी ये छोटे कंकड़ भी खा लेते हैं। यह भोजन के लिए खुले में आना पसन्द नहीं करता है और छोटी घनी झाड़ियों में ही अपना भोजन ढूंढता है।
रैड स्परफाउलआमतौर पर अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)
इनका प्रजनन काल जनवरी से जून, मुख्य रूप से बारिश से पहले होता है। यह ज़मीन पर घोंसला बना कर एक बार में 3-5 अंडे देते हैं। नर अपना जीवन एक ही मादा के साथ बिताता है जिसकी वजह से चूजों की देखरेख में उसकी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है तथा नर अन्य शिकारियों को दूर भगाता व् चूजों की रक्षा करता है। ऐसी ही एक जानकारी रज़ा एच. तहसीन (Raza H. Tehsin) ने अपने आलेख में सूचीबद्ध की थी। रज़ा एच. तहसीन, एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने उदयपुर में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया तथा उन्हें उदयपुर के “वास्को-डि-गामा” के नाम से भी जाना जाता है। रज़ा एच. तहसीन अपने आलेख में बताते हैं की “29 मई, 1982 को मैंने स्पर फॉल के दिलचस्प व्यवहार को देखा। उदयपुर के पश्चिम में एक पहाड़ी इलाके भोमट में, जो शुष्क पर्णपाती मिश्रित वन से आच्छादित है। वहां मैं बोल्डर्स और स्क्रब जंगल में ग्रे जंगल फाउल (गैलस सोनरटैटी) की तलाश कर रहा था और तभी एक मोड़ पर मुझे रेड-स्परफॉल का एक परिवार दिखा। मुझे देख नर ने अपने पंखों का शानदार प्रदर्शन करते हुए, एक बड़े बोल्डर के चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाना शुरू कर दिया। और इसी दौरान मादा चूजों को लेकर वहाँ से जाने लगी। जैसे ही मादा बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंच गयी, नर ने एक छोटी उड़ान भरी और मेरी आँखों के सामने से गायब हो गया। मैं समझ गया था की अपने चूजों को बचाने के लिए नर ने घुसपैठिये (मेरा) का ध्यान हटाने के लिए गोल चक्कर लगाने शुरू किये थे।”
पेन्टेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata):
चित्तीदार जंगली मुर्गी यानी पेन्टेड स्परफाउल अपने अंग्रेज़ी नाम के अनुसार काफ़ी रंग-बिरंगा एक छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। यह अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में छोटी झाड़ियों में देखे जाते हैं। खतरा महसूस होने के समय यह पंखों का इस्तेमाल करने के बजाये तेजी से भागना पसंद करते हैं। यह आकार में मुर्गी और तीतर के बीच होता है। नर बड़े ही चटकीले रंग के होते हैं जिनके पृष्ठ भाग गहरे और अधर भाग गेरू रंग के होते हैं तथा पूँछ काली होती है। ऊपरी भागों के पंखों पर बहुत सी छोटी-छोटी सफ़ेद बिंदियां होती हैं जिनके सिरे काले होते हैं। नर का सिर और गर्दन एक हरे रंग की चमक के साथ काले होते हैं और सफेद रंग की छोटी बिंदियो से भरे होते हैं। मादा गहरे भूरे रंग की होती है तथा इसके शरीर पर किसी भी तरह के सफेद धब्बे नहीं होते हैं। नर में टार्सस (tarsus) के पास दो से चार कांटे (spur) तथा मादा में एक या दो कांटे होते हैं।
पेन्टेड स्परफाउल एक रंग-बिरंगा छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित पेंटेड स्परफाउल का चित्रI
लेखक (II) के अनुसार यह प्रजाति दक्षिणी – पूर्वी राजस्थान की विंद्याचल पर्वतमाला की खोहों की कराईयों से लेकर पूर्वी राजस्थान में सरिस्का तक सभी वन क्षेत्रो में जगह-जगह विद्यमान है। विंद्याचल पर्वतमाला की कराईयों में पाए जाने वाले कई मंदिर परिसर जहाँ नियमित चुग्गा डालने की प्रथा है, वहाँ कई अन्य पक्षी प्रजातियों के साथ पेन्टेड स्परफाउल को भी दाने चुगते हुए देखा जा सकता है। कोटा जिले का गरडिया महादेव एक ऐसा ही जाना पहचाना स्थल हैं। सवाई माधोपुर में रणथम्भौर बाघ परियोजना क्षेत्र में मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढने पर मुख्य मार्ग के दोनों तरफ की पहाडी चट्टानों एवं पथरीले नालों में सुबह- शाम यह मुर्ग प्रजाति आसानी से देखी जा सकती है। यह बेर व् लैंटाना के रसीले फलों के साथ-साथ छोटे छोटे कीटों को खाते हैं। अक्सर जनवरी से जून तक इनका प्रजनन काल होता है परन्तु राजस्थान के कुछ हिस्सों में बारिश के बाद अगस्त में चूजों को देखा गया है। इनका घोंसला जमीन पर पत्तियों व् छोटे कंकड़ों से घिरा हुआ एक कम गहरा सा गड्डा होता है। मादा अण्डों को सेती है परन्तु दोनों, माता-पिता चूजों की देखभाल करते हैं।
उपरोक्त व्याख्या से सपष्ट है कि राजस्थान में रैड स्परफाउल और पेन्टेड स्परफउल कई जिलों में उपस्थित हैं। मुर्ग प्रजातियाँ दीमक व कीट नियत्रंण कर कृषि फसलों, चारागाहों एवं वनों की सुरक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं अतः हमें उनका संरक्षण करना चाहियें।
सन्दर्भ:
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Blanford WT (1898). The Fauna of British India, Including Ceylon and Burma. Birds. Volume 4. Taylor and Francis, London. pp. 106–108.
Ojha, G.H. (1998): Banswara Rajya ka Itihas. (First published in 1936).
Ranjit Singh, M.K. (1999) : The Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Ranthambhore National Park, Rajasthan. JBNHS 96 (2): 314.
Shankar, K. (1993) Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. JBNHS 90 (2): 289.
Shankar, K., Mohan , D. & Pandey, S. (1993): Birds of Sariska Tiger Reserve, Rajasthan, India. Forktail 8: 133-141.
Tehsin, Raza H (1986). “Red Spurfowl (Galloperdix spadicea caurina)”. J. Bombay Nat. Hist. Soc. 83 (3): 663.
Vyas, R (2000): Distribution of Painted spurfowl Galloperdix lunulata in Rajasthan. Mor, February 2000, 2:2.
लेखक:
Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.
Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.
जानिये राजस्थान के दुर्लभ नारंगी रंग के चमगादड़ों के बारे में जिन्हे चिड़िया के घोंसलों में रहना पसंद है…
राजस्थान चमगादडों की विविधता से एक धनी राज्य है। यहाँ थार रेगिस्तान से लेकर अरावली पर्वतमाला क्षेत्र एवं पूर्व दिशा में स्थित विन्ध्याचल पर्वत एवं उपजाऊ मैदान में चमगादडों की अच्छी विविधता पायी जाती है। यों तो हर चमगादड अपने में सुन्दर भी है, उपयोगी भी और विशेष भी; लेकिन पेन्टेड चमगादड़ (Painted Bat) का रंग देखने लायक होता है। ये चमगादड़ कैरीवोला वंश का होता हैं । सर्वप्रथम इस वंश की खोज वर्ष 1842 में हुई थी। भारत में इस वंश की तीन प्रजातियाँ ज्ञात हैं- Kerivoula hardwickii,Kerivoula papillosa तथा Painted Bat or Painted woody Bat, “Kerivoula picta“। इन तीनों में से अंतिम प्रजाति केरीवोला पिक्टा (Kerivoula picta) राजस्थान में पाई जाती है जिसकी खूबसूरती वाकई लाजवाब है। मानों काले व नारंगी – लाल रंग से किसी ने बहुत ही सुन्दर पेन्टिंग बना दी हो। यह सुन्दरता डैनों पर तो देखने लायक ही होती है।
Schreber द्वारा वर्ष 1774 में बनाया गया पेंटेड चमगादड़ “Kerivoula picta” का चित्रण (Source : Die Säugthiere in Abbildungen nach der Natur, mit Beschreibungen)
राजस्थान में इस चमगादड को पहली बार जुलाई 15, 1984 को अलवर जिले की मुण्डावर तहसील में अलवर बहरोड रोड के समीप स्थित किशोरपुरा गाँव में वन विभाग के एक वृक्षारोपण क्षेत्र में देखा गया था। राजस्थान में यह इस चमगादड़ का गत 36 वर्ष में एकमात्र उपस्थिति रिकार्ड दर्ज है। किशोरपुरा में यह चमगादड़ बया पक्षी के लटकते अधूरे घोंसलों में लटकती हुई लेखक द्वारा दर्ज की गई थी। इसकी उपस्थति का यह रिकोर्ड बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के जर्नल के वर्ष 1987 के अंक में दर्ज है। तत्कालीन सर्वे में इसे किशोरपुरा में तीन बार देखा गया जिसका विवरण निम्न हैः
क्र. सं.
दिनांक
बया के घौंसले की अवस्था
घोंसले किस प्रजाति के वृक्ष पर था
घोंसले में कुल किनते चमगादड पाये गये
1
5-7-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
1
2
1-8-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
4
3
4-8-1984
अधूरा (हैल्मेट अवस्था)
खेजडी
1
पेन्टेड चमगादड प्राणी कुल वैस्परटिलिनोइडीज (Vespertilionidae) की सदस्य है। इसके शरीर की लम्बाई 3.1 से 5.7 सेमी., पूँछ की लम्बाई 3.2 से 5.5 सेमी., फैले हुये पंखों की चौडाई 18-30 सेमी., अगली भुजा की लम्बाई 2.7 से 4.5 सेमी. तथा वजन 5.0 ग्राम होता है। इसके मुँह में विभिन्न तरह के 38 दांत होते हैं। जाँघों व पूँछ को जोडती हुई पतली चमडी की बनी जिल्ली होती है जो एक टोकरीनुमा जाल सा बनाती है जिसकी मदद से यह चमगादड कीटों को पकडने का कार्य करती है। इस चमगादड के शरीर पर लम्बे, नर्म, सघन व घुँघराले बालों की उपस्थिति होती है। इसकी थूथन के आस- पास के बाल अपेक्षाकृत अधिक लम्बे होते हैं। इसके कान कीपाकार व बाल रहित होते हैं। कानों में उपस्थित विशेष रचना ’’ट्रगस (Tragus)” लम्बा, होता है। मादा एक बार में एक शिशु को जन्म देती है। इस चमगादड के रंग बेहद भड़कीले होते हैं। पंखों, पूँछ, पेट, पिछली व अगली भुजाओं, सिर तथा अंगुलियों के सहारे – सहारे गहरा नारंगी या लाल रंग विद्यमान होता है तथा अंगुलियों की हड्डियों पर बनी नारंगी-लाल पट्टी से हट कर तीसरी व चौथी, चौथी व पाँचवी अंगुली व भुजा के बीच गहरे काले रंग के बडे- बडे तिकौनाकार से धब्बे विद्यमान होते हैं। इस तरह एक पंख पर तीन बडे धब्बे बने होते हैं। कई बार कुछ अतिरिक्त छोटे धब्बे भी मिल सकते हैं। नारंगी – लाल व काले रंग का यह संयोजन लेकर जब यह चमगादड सूखे पत्तों में छुपकर, दिन में उल्टी लटक कर विश्राम करती व सोती है तो यह अदृश्य सी स्थिति में बनी रहती है तथा यह पहचाने जाने से भी बची रहती है। इस तरह इस “कैमोफ्लेज” रंग के विन्यास से यह छोटा स्तनधारी प्राणी सुरक्षा प्राप्त करता है। अधिक आयु के नरों में रंग अधिक प्रखर होते हैं।
बया पक्षी के आधे बने हुए घोंसलों की कालोनी जिन्हे अक्सर पेन्टेड चमगादड द्वारा इस्तेमाल किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)
नारंगी चमगादड़ एक रात्रिचर प्राणी है जो उडते कीटों को पकड कर उनका सफाया करता है। अन्य कीटाहारी चमगादडों की तरह रात्रि में यह अपने “जैविक राडार तन्त्र” का उपयोग कर उडते कीटों की दिशा व दूरी का पता लगा कर अन्धेरे में ही उन्हें पकड लेती है। रात्रि में यह कुछ विलम्ब से शिकार पर निकलने वाला जीव है। यह चमगादड भूमि के अधिक पास रहते हुये गोल- गोल उडान भरते हुये अपना शिकार पकडती है। यह प्रायः 1-2 घन्टे ही शिकार अभियान पर रहती है फिर विश्राम स्थल (Roost) पर लौट आती है तथा शेष रात्रि व अगला पूरा दिन वहीं रहती है।
दो आधा निर्मित घोंसलों (हेलमेट चरण) का क्लोजअप। हेलमेट की छत का निचली सतह (ceiling) का उपयोग चमगादड़ द्वारा लटकने के लिए किया जाता है (फोटो: मीनू धाकड़)
दिन में यह चमगादड बया पक्षी (Baya Weaver bird) व शक्कर खोरा (Sunbird) जैसे पक्षियों के लटकते घौंसलों में छुपी सोयी रहती है। केले के सूखे पत्तों, वृक्षों के खोखलों व छतों की दरारों व छेदों में भी ये दिन मे विश्राम कर लेती है। यह चमगादड़ दिन के विश्राम स्थल में अकेले या परिवार (नर, मादा व बच्चे) के साथ छुप कर सोती रहती है। इनके छुपाव स्थल पर छेडने पर भी ये सुस्ती दिखाते हुये प्रायः वहीं बने रहते हैं। हाँ, कई दिन एक जगह नहीं रहते। थोडे- थोडे दिनों के अन्तराल पर ये अपनी सोने की जगह में परिवर्तन करते रहते हैं।
आई. यू. सी. एन. द्वारा इसे कम खतरे की श्रेणी (LC) में शामिल किया गया है। यह एक अपेक्षाकृत कम मिलने वाली चमगादड है जो दक्षिण- पूर्व एशिया में वितरित है। यह चमगादड भारत, चीन, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, सुमात्रा, जावा, बाली, मौलूक्का द्वीप, ब्रुनेई, कंबोडिया, मलेशिया, नेपाल, श्रीलंका, थाइलैण्ड एक वियतनाम में वितरित है। भारत में यह राजस्थान, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गोवा, बंगाल, सिक्किम, असम व उडिसा से ज्ञात है।
सन्दर्भः
Cover Image: Prater, S.H. 1971. The Book of Indian Animals. BNHS.
Menon, V. (2014): Indian mammals – A field guide.
Prater, S.H. (1980): The Book of Indian Animals. Bombay Natural History Society.
Sharma, S.K. (1987): Painted bats and nests of Baya Weaver Bird. JBNHS 83:196.
Sharma, S.K. (1991): Plant life and weaver birds. Ph.D. Thesis. University of Rajasthan Jaipur
Sharma, S.K. (1995): Ornithobotany of Indian weaver birds. Himanshu Publications, Udaipur and Delhi.
यदि तेंदुए और बाघ शावक अपनी छोटी उम्र में कमजोर अथवा दिव्यांग हो तो माँ उनको बेहाल ही छोड देती है, जिसके बाद ऐसे शावकों की मौत हो जाती है अथवा कभी कभी तो माँ खुद उनको मार के खा जाती है। अधिकतर वन्यजीव विशेषज्ञ एक वाक्य ‘‘सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट‘‘ में सारी कहानी को ख़तम कर देते है।
यह वाक्य एक बघेरे के शावक का है जिसने सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट वाली अवधारणा को गलत साबित कर दिया साथ ही एक मां को प्रकृति के तय नियमों से लडते देखा।
आप बखूबी वाकिफ होंगे राजस्थान में स्थित जवाई लेपर्ड कन्जर्वेशन रिजर्व के बारे में, वहां एक लोकप्रिय मादा तेन्दुआ ‘‘नीलम‘‘ रहती है। वर्ष 2019 में नीलम ने तीन शावकों को जन्म दिया था। जिसमें से एक की मौत हो गई थी और अब अपने दो बचे हुए शावकों की परवरिश में नीलम जुट गई। पहली बार इस परिवार को तब देखा गया जब शावकों की उम्र करीब 2 माह थी। जिनमें से एक नर व एक मादा शावक थे। मादा शावक के अगले पंजे में कुछ कमजोरी रहने से वह सही ढंग से न तो चल पाती थी और न ही दौड पाती थी।
2 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
5 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
झाड़ियों के बीच छुप कर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
इस दिव्यांग शावक को देखते ही कईं सवाल उमडने लगते थे । नर शावक अक्सर उछलकूद करता और खेलता हुआ दिखता रहता था लेकिन लंगडी नर शावक की तरह न तो ज्यादा उछल कूद करती थी और न ही उसकी तरह दौडती थी। उसके आगे वाले एक पैर की दुर्बलता उसे चाहकर भी ऐसा कर पाने की हिम्मत नहीं देती थी। इस कमजोर मादा शावक ने अपनी जिजीविषा को बलवती रखा और अपनी बहादुर मां की परवरिश में धीरे धीरे अपनी युवावस्था की ओर बढने लगी ।
उसने समय के साथ छद्मावरण की कला में महारत हासिल कर ली और घात लगाकर शिकार करने की खूबी में पारंगत हो गई। एक वर्ष और कुछ महिनों की उम्र की होने तक इस दिव्यांग शावक को लगातार देखा गया। जिस छोटी उम्र में अपनी मां के शिकार पर निर्भर थी आज वही एक युवा तेंदुआ बन गई थी। अब वह अपनी मां नीलम से जुदा हो चुकी थी और एक नया इलाका हासिल कर लिया था। काफी खूबसूरत आंखों वाली इस मादा ने अपनी कमजोरी पर मनो विजय हासिल काली हो और प्रकृति के तमाम नियमों को चुनौती दे दी थी। अंतिम बार वह फरवरी 2020 में देखी गयी थी, और अब वह पहले से ज्यादा मजबूत दिख रही थी और आत्मविश्वास के साथ चट्टान पर लंगडाते हुए चलकर अपने वर्चस्व को स्थापित कर रही थी ।
माँ से अलग होने के पश्चात अकेले रहने का अभ्यास करती दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
अपनी पूर्ण युवावस्था में गुफा के बाहर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
पूर्ण व्यस्क अवस्था में दूर पहाड़ की चोटी पर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
थार के रेगिस्तान में एक रहस्यमय सांप सोये हुए लोगों को बिना डसे ही मारने के लिए जाना जाता है। पीवणा कि डरावनी कहानियां सदियों से इन रेतीले इलाकों में सुनी और सुनाई जाती रही हैं। मैं और मेरे साथी इस डर के पीछे के रहस्य को खोजने के लिए इस मिथक का पीछा करते हैं…
राजस्थान के रेतीले इलाकों में ऐसा माना जाता है कि एक रहस्यमयी सांप सोये हुए लोगों के नींद में ही प्राण चूस लेता है, हमने मिथक के रहस्य को जानने के लिए एक खोज कि …
उस सुबह, उनकी संकुचित आंखों और माथे पर गहरी शिकन थी, सुबह की हल्की धुप में उनकी सोने की भारी बालियां पसीने से लथपथ हो चमक रही थी, तभी हुकुम नीचे आये, उनकी उत्तेजना ने सारी बेचैनी को दूर कर दिया। इससे पहले उन्होंने कभी सांपों को जिंदा पकड़ने के बारे में नहीं सोचा था।
“कोली” राजस्थान के इस भाग में सांप पकड़ने वाला पारंपरिक समुदाय हैं, लेकिन ये अपने जीवनयापन के लिए कभी किसी जीवित सांप को नहीं पालते। रेगिस्तानी इलाकों में जहाँ सांपों को किसी शैतान से कम नहीं माना जाता, वहाँ कोली समुदाय के लोग केवल मरे हुए साँपों (विषैले या गैर-विषैले) को दिखा कर अपनी आजीविका कमाने में कुशल होते हैं। लेकिन आज सुबह, उनका वृतान्त रूप कुछ अलग ही था। अचानक एक सावधानी से खोदे जा रहे चूहे के बिल के चारों ओर जमा भीड़ चीखने और शोर मचाने लगी। लोगों ने मेरे लिए रास्ता बनाते हुए जगह खाली कि और मैंने बिल के सामने झुकते हुए देखा तो पाया कि उसमे से एक कांटेदार गुलाबी जीभ निकलकर हमारे पैरों कि तरफ आ रही थी, और जैसे ही फावड़े से एक और बार खोदा गया तो एक चमकदार लाल सर उजागर हुआ। तुरंत ही उस सांप को पहचानते हुए मानो मेरा दिल ही बैठ गया हो, लेकिन कोली लोग उन्मादा थे और लगातार बोल रहे थे “पकड़ लो! इससे पहले कि वह हमला करे, पकड़ लो पीवणा को“। जब उस शानदार 4 फीट लंबे सांप मैंने उँगलियों के बीच जकड़ा तो मुझे आभास हुआ कि मेरी खोज मुझे विफलता कि ओर ले जा रही।
राजस्थान के थार रेगिस्तान में रहने वाले सामुदायिक लोग (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
मैंने पहली बार वर्ष 2002 में भारत के दो परमाणु परीक्षणों के स्थल पोखरण में राजमार्ग पर स्थित एक ढाबे पर पीवणा के बारे में सुना था। कुछ स्थानीय लोग सांपों पर चर्चा कर रहे थे और मैंने लगभग उस पंद्रह मिनट में जो जानकारी पाई उससे यह बेहद विचित्र लगा खासकर तब जब हम नए भारत, परमाणु शक्ति क्षेत्र मे बैठे हों। वह जानकारी यह थी की, राजस्थान के रेगिस्तानों में, पीवणा नामक एक सांप सोते हुए लोगों कि सांसें चूस कर मौत की नींद सुला देता है। यह रात में हमला करता है और पीड़ितों को उनकी सांस के माध्यम से विषक्त कर देता है।
मैंने 2008 में फिर से वही कहानी सुनी, इस बार एक युवा क्षेत्र जीवविज्ञानी से। डॉ धर्मेंद्र खांडल 2007 में थार से गुजर रहे थे जब उन्हें मिथ के बारे में पता चला और उन्होंने बताया की कई मौतों के लिए अभी भी पीवणा को ही दोषी ठहराया जाता है। इस बार यह बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया की विज्ञान निश्चित रूप से एक “सांस चूसने वाले” सांप की व्याख्या नहीं कर सकता है, लेकिन जाहिर सी बात है की कोई चीज़ तो जरूर थी जो रात में दर्जनों लोगों को मार रही थी। क्या यह सांप था? या यह कुछ और था? मालूम नहीं।
इंटरनेट पर बहुत खोज-भीन करने के बाद भी बहुत कम जानकारी हाथ लगी। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में, भारत की सीमाओं से परे भी पीवणा के बारे में मिथक स्पष्ट रूप से प्रचलित था, और यहाँ इस सांप को “फुकणी” (जो फूंख मारता है) भी कहा जाता था।
कुछ वेबसाइटों ने पीवणा या फ़ुकणी की पहचान सिंध क्रेट (Bungarus sindanus) के रूप में की है, जिसके देखे जाने की बहुत ही कम रिपोर्ट सामने आती है तथा इसे भारत में पाए जाने वाले चार विषैले साँपों; कोबरा, रसेल वाइपर, सॉ-स्केल वाइपर और कॉमन क्रेट से लगभग “10 -15 गुना अधिक विषैला” माना जाता है। एक ओर सिंध क्रेट का पर्यावास थार रेगिस्तान के उन्ही इलाकों के पास था जहाँ यह पीवणा या फुकणी से जुड़े मिथक प्रचलित थे।
वहीँ दूसरी तरफ हम देखें तो भारत में कहीं भी सिंध क्रेट का कोई संरक्षित नमूना नहीं था। सिंध क्रेट की पहचान का सुराग केवल एक ही आधिकारिक स्रोत, शर्मन ए मिंटन जूनियर द्वारा रचित A Contribution to the Herpetology of West Pakistan (1966) में मिला, जहां उन्होंने एक ऐसे करैत की व्याख्या की जिसके मध्य-शरीर शल्कों कि गिनती 17 (सामान्य 15 के बजाय) होते हैं। मिंटन ने यह भी उल्लेख किया कि “पीवणा” सिंध क्रेट का एक स्थानीय नाम है। लेकिन सिंध क्रेट के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी जिससे यह पता चले कि यह पीड़ितों को साँस चूसकर या फूंककर लोगों को मार सकता है।
पीवणा से बचने के लिए कई ग्रामीण पूरी रात रखवाली करते है और बच्चों को लहसुन और प्याज वाला दूध पिलाया जाता है ताकि पीवणा को दूर रखा जा सके। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
सितम्बर माह में थार रेगिस्तान में तीन महीने के “साँपों के मौसम” की शुरुआत के साथ ही मेरे इस निराशाजनक शोध की समाप्ति हुई। रास्ते में डॉ. धर्मेंद्र खांडल और उनकी कीमती एंटी-वेनम सीरम किट के साथ मैं जुड़ा और हम ग्राउंड जीरो की ओर चल पड़े।
हमारा पहला पड़ाव था जयपुर, जहां हम विष्णु दत्त शर्मा से मिले, जो राजस्थान के प्रधान मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक के रूप में सेवानिवृत्त हो चुके थे। हमारी तरह, शर्मा ने भी पीवणा के बारे में सुना था और उन्होंने पुष्टि की कि मिथक की भौगोलिक पहुंच रेत के टीलों के विस्तार के साथ हुई है। शर्मा के कहने पर, हमने जोधपुर में जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI) के रेगिस्तान मुख्यालय जो हमसे 300 किलोमीटर दूर था की ओर बढ़ना शुरू किया।
समय पाते हम रास्ते में बर्र शहर से कुछ किलोमीटर दूर तिरंगा ढाबा में रात के खाने के लिए रुक गए। जब हम वहां बैठकर साँपों की बात कर रहे थे तभी ढाबे का मालिक, राजू अपना काउंटर छोड़ कर हमारे पास आ गया और बड़े ही रहस्यमय तरीके से बताने लगा की “हमारे इस ढाबे में एक नाग (कोबरा) वर्षों से रह रहा है, लेकिन उसने कभी भी किसी पर हमला नहीं किया है।”
हमने पूछा “लेकिन अगर किसी को काट लिया, तो क्या होगा ?” मालिक बोलता “तो क्या, केसरिया कवरजी का मंदिर ज्यादा दूर नहीं है। आपको बस मंदिर से मंत्रित धागा सर्पदंश पीड़ित व्यक्ति के बांधना होगा।” तभी हमने उससे पूछा “पीवणा के बारे में क्या?” उसने बताया “यहाँ पीवणा के मामले नहीं मिलते हैं। लेकिन अगर मिलते भी तो केसरिया कवरजी उसको भी ठीक कर देते।”
भोजन गर्म और मसालेदार था, और केसरिया कवरजी तिरंगा ढाबा पर देख रहे थे, निवासी कोबरा कहीं नहीं था, हमने भोजन किया और आगे बढ़े।
ZSI के डेजर्ट रीजनल सेंटर की निदेशक डॉ. पदमा बोहरा ने यह स्वीकारने से पहले कि उनको “स्थानीय सांपों” के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं थी, इस बात का खंडन कर दिया कि पीवणा “ग्रामीणों द्वारा वाइपर सांप को दिया जाने वाला स्थानीय नाम है” फिर, उन्होंने पूर्व-निदेशक “डॉ. नरेंद्र सिंह राठौर” से हमारा संपर्क करवाया।
अब सेवानिवृत्त, डॉ. राठौर ने तब ZSI परिसर का विकास किया था और वे एक आत्मविश्वास से भरे व्यक्ति थे। उन्होंने कहा “ओह, हाँ, यह सिंध क्रेट है और क्या तुम्हें पता है, शर्मा-जी ने सिंध क्रेट को पीवणा बताया था…”
शर्मा जी, दिवंगत आर सी शर्मा, ZSI के एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे जिन्होंने वर्ष 2003 में सांपों पर एक किताब लिखी थी। मिंटन के अवलोकन के बाद, शर्मा जी की बातों ने सिंध क्रेट के मामले को और मजबूत कर दिया। लेकिन क्या डॉ. राठौर संभवतः पीवणा द्वारा लोगों कि हत्या करने की विधि समझा सकते हैं?
डॉ. राठौर बताते की “मच्छरों की तरह, सिंध क्रेट भी सोये हुए लोगों के पास कार्बन-डाइऑक्साइड के घनत्व का पीछा करते हुए पहुंचता है, जो मनुष्यों की नाक के पास अधिक होता है”।
हमने पूछा “क्या इस सिद्धांत का कोई वैज्ञानिक प्रमाण है?” मुझे पक्का नहीं पता, लेकिन क्यूँकि शर्मा-जी ने यह कहा था …” यह कहते हुए डॉ. राठौर कहीं खो जाते है। और यह बात सुनकर मुझे संकोच हुआ, और मैंने पूछ ही लिया कि “क्या डॉ. राठौर ने वास्तव में कभी सिंध क्रेट देखा भी है”
“मैंने? उम्म… सिंध क्रेट… निश्चित रूप से देखा है, हमारे पास ZSI संग्रहालय में एक नमूना संरक्षित है । आओ, मैं तुम्हें भी दिखाता हूँ” डॉ. राठौर बोले।
मन में अच्छे की आशा करते हुए हम डॉ राठौर के साथ संग्रहालय गए, वहाँ हमने एक बहुत पुराना, रंग उड़ा हुआ “कॉमन क्रेट” का लेबल लगा हुआ नमूना पाया। डॉ. राठौर एक पल के लिए शांत रहे और तुरंत बोले “आह, गलत लेबलिंग! बेशक, मैं उन्हें लेबल बदलने के लिए कहूंगा…”
और जब डॉ. खांडल ने यह निर्धारित करने के लिए की यह सांप सिंध क्रेट ही है या कुछ और, सांप के नमूने को जार से बाहर निकालने और उसके स्केल्स की गिनती का सुझाव दिया, तो डॉ. राठौर ने जल्दी से जार वापस रख दिया और संग्रहालय से बाहर कि ओर का रास्ता निर्देशित किया।
डॉक्टर राठोड के द्वारा पीवणा के सम्बन्ध में जानकारी साझा करे हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
पोखरण, बहुत सारे प्रतिबंधित क्षेत्रों के साथ अभी भी सेना के एक केंद्र के समान ही था, परिणास्वरूप दिन के किसी भी समय, लोग महसूस कर सकते थे कि वे भारतीय सेना की सक्त निगरानी में थे। ऐसे में डॉ. खांडल कि सांप पकड़ने की छड़ी, जिसपर ‘मेड इन पाकिस्तान‘ का लेबल लगा हुआ था, से कोई मदद कि उम्मीद ना थी।
सेना के अधिकारियों कि संदिग्ध नज़रों को चकमा देते हुए हमने सुभाष उज्जवल की तलाश की जो कि डॉ. खांडल को सोशल नेटवर्किंग साइट के माध्यम से जानते थे। स्कुल शिक्षक उज्जवल बताते की “जब हम बच्चे थे, पोखरन में भी पीवणा का एक बड़ा डर था। बच्चों को रात में लहसुन और प्याज के साथ दूध पिलाया जाता था, ताकि पीवणा को दूर रखा जा सके। यदि आप पश्चिम की यात्रा करते हैं, तो आपको पीवणा मिलेगा … ग्रामीण लोग अब भी पूरी रात डर में बैठे रहते हैं … आप जानते हैं, मैं हमेशा से ही पीवणा पर एक फिल्म बनाना चाहता था। क्या यह एक बेहद डरावना विषय नहीं है?”
सांप की डरावनी फिल्म बनाने के लिए हमने उज्जवल के उत्साह को बढ़ावा नहीं दिया तो उज्जवल ने साँपों की धार्मिक पौराणिक कथाओं की ओर रुख किया और हमे एक कहानी सुनाई…
लगभग 1200 साल पहले, एक निःसंतान चरवाहा ममराव, चौतन के पास चलकाना गाँव में रहता था। बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाजमाता मंदिर कि सात साल की तीर्थयात्रा से प्रसन्न देवी ने उसे बताया कि वे, उसकी बेटी के रूप में उसके घर आएंगी। ममराव की सात बेटियाँ हुईं – आवरा, अछि, छेछी, गेहली, दूली, रूपा और लंगडी – और मेहरोक नामक एक पुत्र भी। हालांकि, किसी को भी यह पता नहीं चला कि लड़कियां कोई साधारण इंसान नहीं थीं।हर चरने के मौसम में, ममराव अपने मवेशियों को बाड़मेर के अन्य चरवाहों के साथ सिंध ले जाया करता था, लेकिन जैसे-जैसे साल गुजरे, मेहरोक ने अपने जिम्मेदारियों को निभाने का फैसला किया। अपने बूढ़े पिता ममराव को समझाने के लिए सभी बेटियों ने अपने छोटे भाई का साथ देने और उसकी देखभाल करने का वादा किया। अपने पिता की देख-रेख से मुक्त होकर, भाई-बहनों ने सिंध कि ओर रास्ते पर चलना शुरू कर दिया और जल्द ही भटक कर, एक क्रूर राजा सुमराह द्वारा शासित नाननगंज राज्य में पहुंच गए। जाहिर है, जिस दिन सुमराह ने मेहरोक की खूबसूरत बहनों को देखा, उसने उन सभी को पाने की चाहत रखी और अपने सैनिकों को उनपर निगरानी रखने के लिए भेज दिया। लेकिन सभी बहनों ने पहली बार अपनी दैवीय शक्तियों का इस्तेमाल किया और साँपों का रूप धारण कर लिया। हर बार जब वे नदी में स्नान करने या जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने के लिए निकलती, तो वे सांप बन जाती। लेकिन मेहरोक राजा कि तुलना में सांपों से ज्यादा डरता था। वह सदैव अपनी बहनों को घर के अंदर रहने और उनके मानव रूप में ही रहने को बोलता था।
एक दिन, जैसे ही बहनें अपने भाई की मूर्खतापूर्ण आशंकाओं पर हँसते हुए घर से निकालने लगीं, मेहरोक को गुस्सा आ गया और वह बोला “जाओ! मैं जानता हूँ कि आप सभी राजा के आदमियों के साथ रहना चाहती हैं! आपको लगता है कि मुझे समझ नहीं आ रहा है? आप सभी उस राजा द्वारा चुने जाने की उम्मीद से बाहर जाती हो। बड़ी बहन आवरा, जो अब तक उसे शांत करने की कोशिश कर रही थी, को गुस्सा आ जाता है। “तुम हमसे लड़ते हो, तुम साँप से बहुत डरते हो,” उसने कहा और मेहरोक को श्राप दे दिया कि एक पीवणा द्वारा उस पर हमला होगा। अगले ही पल, आवरा और उसकी बहनें पश्चाताप करने लगी, लेकिन देवी होने के नाते, अभिशाप पूर्ववत नहीं हो सका और जल्द ही, एक पीवणा ने देर रात मेहरोक को विषक्त कर दिया और सूरज की पहली किरण के छूते ही वह मर जाता। लेकिन बहनों ने उसे एक काले कम्बल से ढँक दिया ताकि धूप उस तक न पहुँचे। और जब वे कुछ और समय पाने में सफल हो गई, तो बहनो ने अपनी सभी शक्तियों का आहवाहन कर अपने भाई को ठीक किया। सभी सात बहनों को उनकी दिव्यता के पदानुक्रम में पदोन्नत किया गया, जबकि सबसे बड़ी बहन आवरा को जैसलमेर के पास तनोट में अपना मंदिर मिला और सभी बहनें पूरे क्षेत्र में सातमाता पट (सात देवी) के रूप में मुख्य देवी बन गईं।
साँपों की धार्मिक पौराणिक कथा सुनाते श्री सुभाष उज्जवल (दायें) और श्री जय मजूमदार (बाएं) (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
पीवणा से प्रभावित लोगों के उपचार को हमने एक चमत्कार ही माना और हम जोधपुर से पश्चिम की ओर बढ़ने लगे तथा परिदृश्य बदलने लगा। दूर-दूर तक कांटेदार झाड़ियों के लगातार अंतहीन सूखे क्षेत्र थे, जहाँ मौसमी बारिश से वंचित मक्का के काले कान, पतले हो जाते हैं तो कभी प्राचीन चट्टान के टिल्ले आ जाते। अब हर ओर हल्का हरा और स्पष्ट नीला रंग था, लाल, नारंगी, इंडिगो पगड़ी, सुन्दर ओढ़नियां, रंग-बिरंगे धागे, सुन्दर आभूषण और हर तरफ पिघला देने वाली गर्म हवा थी।
दोपहर के एक अच्छे भोजन के बाद, मैं बैकसीट पर थोड़ा सुस्त महसूस कर रहा था जब एक तेज मोड़ ने मुझे हिला दिया और मेरी सुस्ती उड़ा दी। मैंने कार की खिड़की से बाहर देखा और मैं हक्का-बक्का रह गया। बाड़मेर से केवल दो घंटे की दुरी पर कैर और खेजड़ी के यह एक जादुई भूमि थी। सभी दिशाओं में फैले सूर्यास्त के आसमान में जैसे की बहुत सारे उड़ता कालीन तैर रहे थे। सिर के ऊपर हज़ारो छोटे पक्षियों की चहचहाहट में हमारी अपनी आवाज डूब गई। मेरे पास खड़े डॉ. खांडल उनकी तस्वीरें लेने लगे। लेकिन वह जादू कहाँ कैमरा में समाता।
जब हम संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्रों में जाने के लिए परमिट के लिए बाड़मेर के जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय पहुँचे, तो कागजात धीरे आगे बढ़ रहे थे। लेकिन पीउणा पर राय तेजी से आगे बढ़ थी। जिला मजिस्ट्रेट के निजी सचिव ने उल्लेख किया कि कहीं चौतन नामक स्थान के पास एक आध्यात्मिक रूप से प्रतिभाशाली वृद्ध महिला रहती थी, जो पीउणा पीड़ितों का इलाज करने के लिए प्रसिद्ध थी। परन्तु एक अर्दली ने चेतावनी दी थी – पीउणा जहर का कोई इलाज नहीं है जब तक कि पीड़ित के गले के अंदर से जहर को खुद ही बाहर न निकाला जाये। सरकारी अधिकारी, जो कार्यालय के समय के बाद तक रोके जाने पर नाराज थे, बोले की अगर हम पीउणा के इलाके में खुले में सोते हैं तो हमारे जीवित रहने की बहुत कम संभावना है और अगर हममें चौतन से आगे जाने की हिम्मत है तो हमें खुले में ही सोना होगा। मेरी जेब में अनुमति थी और मैं बाड़मेर के कलिंग होटल में लाल मास खाने चल गया। रेगिस्तान के सबसे मशहूर इस मांस व्यंजन को तैयार करने का एक नियम था की प्रत्येक किलोग्राम मास में 60 लाल मिर्च का उपयोग करना जरुरी है। मैं इस बात की पुष्टि कर सकता हूं कि उस रात कलिंग महाराज का जायका बिलकुल सही था।
“शौबत अली” 6 फीट 6 इंच की लंबाई के साथ, आलमसर कि भीड़ में अलग पहचान लिए बड़ी उदारता के साथ हमारा स्वागत किया। चार शताब्दियों से, उनका परिवार अलमसार के पास एक पारंपरिक, अल्पविकसित खेत में सिंधी घोड़ों का प्रजनन करवाता था। अली ने हमें रात के खाने के लिए मटन बिरयानी और हमको को अपने स्टड फार्म में खुले में रात बिताने को चारपाई दी और हमें सेरवा की ओर रवाना किया।
जय मजूमदार शोबत अली के साथ चर्चा करते हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
बुजुर्ग स्नेकवूमन जिसके बारे में हमने बहुत सुना था, मरीजों को देखने के लिए अब बहुत कमजोर थी। लेकिन अब उसका सारा दायित्व कायम खान पर आ गया था, जो अपने बड़े भाई सुल्तान के साथ युनानी दवाओं का अभ्यास करता था। कायम सेरवा में अपने क्लिनिक-सह-निवास पर हमारा स्वागत करते हुए बोलता है की “मैं केवल एक ही हूँ जो यहाँ पीउणा पीड़ितों का इलाज करता हूँ। कल भी मैंने चार मामलों का इलाज किया था। ”
हमे बताया गया की पीउणा दो प्रकार का होता है, लाल और काला। जबकि कायम का मानना था कि काले पीउणा अधिक आक्रामक होते हैं, सुल्तान ने जोर देकर कहा कि लाल पीउणा तेजी से वार करते हैं । लक्षणों में सिरदर्द, सांस फूलना, चेहरे की सूजन, भारी जीभ, बदबूदार मुंह और सबसे महत्वपूर्ण, गले में एक छोटा छाला शामिल था।
खान ने समझाया की इसका उपचार सरल हैं, बस पीड़ित के मुँह में दो ऊँगली डालो और गले में से पस सहित छाले को बाहर निकाल दो। पीड़ित मवाद थूकता है – सुल्तान ने दावा किया कि यह मवाद ही पीउणा विष है – और लगभग आधे घंटे में में पीड़ित को आराम आ जाता है।
काइम ने यह भी बताया कि इस क्षेत्र में सॉ-स्केल वाइपर (Echis carinatus) के काटने के मामले भी आते हैं, लेकिन उन पीड़ितों का इलाज सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में एंटी-वेनम सीरम से किया जाता है। “लेकिन सीरम पीउणा विष के खिलाफ काम नहीं करता है। इसलिए पीवणा के पीड़ित कभी अस्पतालों में नहीं जाते, वे मेरे पास आते हैं।” हमने जिज्ञासा में पूछ लिया “क्या वे ठीक हो जाते हैं?” तो कायम बोले “जब वे देर से आते हैं तो पीड़ित मर जाते हैं। अन्यथा, मेरे हाथों में बहुत कम लोगों की मृत्यु हुई है“।
जय मजूमदार स्थानीय हकीम श्री खान के साथ पीवणा के इलाज पर विचार करते हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
यह खान बंधु ही थे जिन्होंने हमें पीवणा को खोजने के लिए कोली समुदाय की मदद लेने का सुझाव दिया था तथा वे सांप की पहचान करने में हमारी मदद करेंगे यदि हम एक खोज लाये तो। सूर्यास्त के एक घंटे पहले, हम सेरवा से 7 किमी दूर सलारिया में एक कोली बस्ती में पहुंचे और समुदाय के छोटे सदस्य सांप दिखाने के लिए 200 रुपये के इनाम पर ख़ुशी से राजी हो गए। “कल हमें जल्दी शुरुआत करनी होगी। हवा से रेत के कर्ण उड़ जाते हैं और सांप के निशान सूर्योदय के कुछ घंटों के भीतर गायब हो जाते हैं। लेकिन क्या आप हमें हर उस सांप के लिए भुगतान करेंगे जो हमें दिखेगा या हर उस सांप के लिए जिसे आप पकड़ते हैं? ” गाँव का प्रधान भावाराम, ने हमसे पूछा।
बात पक्की कर के, हम रात के लिए शौबत अली के फार्महाउस पर वापस चले गए। बस जहाँ सड़क खत्म हो गयी और खेत शुरू हो गए, वहां एक मस्जिद ईद के लिए सजा रखी थी। उस रात कोई चाँद नहीं था, और डॉ खांडल ने पीवणा भूमि में खुले में हमारी पहली अंधेरी रात के लिए मुझे तैयार किया। जिस पल हम अपने स्लीपिंग बैग में लेटे और बैटरी बचाने के लिए अनिच्छा से अपनी टॉर्च बंद कि उसी पल काला अँधेरा आसमान में जग गया। मुझे मालूम भी नहीं है की लगभग कितनी देर तक मैं सितारों को देख रहा था तभी डॉ खांडल दोबारा बोले “अगर रात में सांप आपको सलामत छोड़ता है तो सुबह जूते में पैर डालने से पहले बिच्छू की जांच कर लेना।”
अगली सुबह का आसमान भी काला ही था जब हम कोलियों से मिले थे। वे पांच गुटों में बट गए और रेत में साँपों की लकीरे देखने लगे। मैं मन में बहुत सी उमीदे लिए अपनी टीम के साथ चल पड़ा। आधे घंटे बाद, एक छोटा कोली लड़का दौड़ता हुआ आया। डॉ. खांडल वाली टीम ने एक लाल पीवणा पकड़ा था, लेकिन वे अभी एक किलोमीटर दूर थे। एक घंटे बाद, एक और लड़का एक और लाल पीवणा की खबर लाया। जल्द ही, कोली ने रेत पर कुछ स्पष्ट रेखाएँ देखीं और खुदाई शुरू कर दी। घुमावदार बिल जमीन के अंदर गहराई में चला गया। कोली परेशान थे। अचानक, छेद से निकली एक जीभ ने कोली को चीखने पर मजबूर कर दिया। “इसे पकड़ो, इससे पहले कि यह हमला कर दे, पीवणा को पकड़ लो“। मैं बिल के पास झुका और कोली ने उस पर चढ़कर सांप को पकड़ लिया। कोली फिर से चिल्लाया और बोला “कसम खता हूँ यह लाल पीवणा ही है जैसे अन्य दो डॉ खांडल ने पकडे हैं।”
कोली लोगो द्वारा खोदे जा रहे एक बिल से एक टिमटिमाती हुई जीभ निकली और फिर एक चमकदार लाल सिर बाहर आया और तुरंत हमने उसको पकड़ लिया। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
मैं अच्छे से जानता था और मेरा दिल बैठ गया। यदि यह हानिरहित रेड स्पॉटेड रॉयल स्नेक (Spalerosophis arenarius) होने के बजाए खतरनाक पीवणा हुआ जो बिना काटे भी लोगों की जान ले लेता है, तो मैं वास्तव में चार दिनों से एक हजार किलोमीटर से अधिक का सफर तय कर एक बेवकूफ मिथक का पीछा कर रहा था।
कोली ने हमे पीवणा दिखाए और हम निशब्द रह गए क्यूंकि तीनो साँपों को प्लास्टिक के डिब्बे में बंद कर रखा था। हमने तुरंत पहचान करने के लिए सेवा के खान भाइयों को बुलाया। सुलतान ने साँपों को देखते ही एक क्षण में जवाब दिया “लाल पीवणा“! आपने यह कहाँ से कैसे पकड़ा? आँगन में बड़ी भीड़ जमा हो गई थी। हमने रॉयल स्नेक जो दूसरों के लिए पीवणा था को डिब्बे से बाहर निकाला – और बहादुर सदस्यों को आगे बढ़ने के लिए कहा। जल्द ही, ख़ान ने ख़ुशी से देखा, “खतरनाक” लाल पीवणा हाथ से हाथ पर घूम रहा था। लेकिन कायम ने अभी तक हार नहीं मानी थी। “शायद लाल एक हानिरहित है। लेकिन काले पीवणा को नज़रअंदाज मत करो। क्या आपने देखा नहीं मेरे पास कितने सारे पीड़ित आते हैं… ” भीड़ में किसी ने फिर जन्नो का नाम लिया, जो पास में ही रहती थी और लगभग दो हफ्ते पहले खानो के पास पीउणा के लक्षण लेकरआई थी। इससे पहले की हम जन्नो को खोज पाते, किसी बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति ने हमे तलब किया।
नारायण पाल बिश्नोई, जो कि सेरवा पुलिस स्टेशन के आंशिक रूप से थाना प्रभारी थे, एक मित्रता प्रेमी पुलिसकर्मी लगे। उन्होंने कहा “यह सेरवा एक बहुत ही शांतिपूर्ण पोस्टिंग है … ज्यादातर छोटे मामलों में, आप देख सकते हैं”। कुछ 17 बलात्कार के मामले, “छोटे” मामलों की सूची क्राइम चार्ट पर लगी हुई थी। मैंने उनसे पीउणा के बारे में पूछा। बिश्नोई ने तुरंत एक हिंदी दैनिक अखबार के साथ स्थानीय पत्रकार चुन्नीलाल को बुलाया, जिनके पास हमारे लिए पहले से ही खबर थी। “आज सुबह ही मैंने भारत-पाक सीमा की ओर लगभग 8-9 किमी दूर सड़क पर एक पीवणा को देखा है।” मैंने उनसे पूछा क्या वह काला सांप था? हाँ यह था।
वाधा गांव के पास से एकत्रित किया हुआ काला पीवणा “कॉमन करैत”। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
डॉ खांडल वाधा गांव के पास घटना स्थल पर पहुंचे और आधे घंटे में वापस आ गए। सड़क पर मरा हुआ सांप काफी अच्छी अवस्था में था। उसपर एक नज़र डालते ही हमें पता था कि यह एक क्रेट था। लेकिन क्या यह वास्तव में दुर्लभ सिंध किस्म थी? वह काला सुन्दर सांप लम्बाई में 3 फीट 10 इंच था। इसके शरीर पर दो-दो सफ़ेद धारियों की श्रृंखला होती है और हमने इसके स्केल्स की गिनती भी की और यह एक कॉमन क्रेट था। मुझे हर्पेटोलॉजिस्ट रोमुलस व्हिटकेर की बात भी याद है, जब उन्हें मिंटन और शर्मा द्वारा किए गए निष्कर्ष पर संदेह था कि कि सिंध क्रेट ही पीवणा है। हो सकता है, यह सिर्फ कॉमन क्रेट था।
हमने बिश्नोई का धन्यवाद किया और सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में डॉ दिनेश दत्त शर्मा से मिलने के लिए निकल पड़े। एक युवा मेडिकल स्नातक, उसने सर्पदंश के दर्जनों मामलों को सफलतापूर्वक संभाला था। पीड़ितों ने कहा, डॉ शर्मा, आमतौर पर सांप के साथ आते थे जिसने उनको काटा होता था। बांडी (सौ-स्केल्ड वाइपर), उन्होंने कहा पिछले दिनों में यही आम हत्यारा था। “मैंने किसी भी पीवणा पीड़ित को नहीं देखा है लेकिन यहाँ के लोग इसके बारे में बात करते हैं। यह पीवणा सांप काटता नहीं है बल्कि गले के अंदर एक फोड़ा बना देता है। शायद, यह कुछ ऐसा है जो विज्ञान समझा नहीं सकता … ”
देश का सबसे विषैला सांप “कॉमन करैत”। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
इसलिए हम खान के पास वापस चले गए। जब हमने उन्हें मृत क्रेट दिखाया तो उनके चेहरे खिल उठे। “हाँ, यह एक है। अब मुझे यह मत कहना कि यह भी हानिरहित है।
हमने उसे आश्वासन दिया कि क्रेट देश का सबसे विषैला सांप है। कायम खान अपनी जीत महसूस कर मुस्कुराया और हमें बताया कि उसने एक और मृत काले पीवणा के लिए कुछ लोगों को भेजा था। परन्तु, एक दिन पहले कुछ ग्रामीणों ने उस सांप को जला दिया था। जले हुए अवशेष कुछ ही मिनटों में हमारे पास पहुँच गए। डॉ खांडल ने मध्य शरीर के एक हिस्से को अच्छे से साफ़ किया और धोया ताकि उसके स्केल्स को स्पष्ट देखा जा सके। वह स्केल्स की गिनती के बाद उत्साहित दिखे। “मिड-बॉडी स्केल काउंट 17 है, यह हमारा सिंध क्रेट होना चाहिए। लेकिन मैं वेंट्रल्स स्केल्स की गिनती नहीं कर सकता। उन्हें इसे क्यों जलाना पड़ा?… ”
विजयी कायम खान ने अब हमें चाय के लिए पूछा लेकिन तभी चुन्नीलाल आ गया, और बोला की हमने पीउणा से बचने वाली जन्नो को खोज लिया है।
सेरवा से एक किलोमीटर की दूरी पर, अलीसरन का डेरा भील आदिवासियों की एक बस्ती थी जहाँ कुछ मुस्लिम परिवार भी बस गए थे। जन्नो मजबूत पुरुषों और महिलाओं के एक विस्तारित परिवार में बीमार अजीब आदमी निकला।
जन्नो ने बताया “एक पीवणा ने लगभग दो सप्ताह पहले रात में मेरी सांस ली। सुबह जब मैं उठा तो बहुत भयानक लगा। जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, मेरी हालत और बुरी होती गयी। परिवार के लोग शाम को मुझे कायम खान के पास ले गए। ” जन्नो के भाइयों ने बताया कि कैसे कायम खान ने जन्नो के गले से विष निकाला था। उन्होंने कहा, जन्नो एक घंटे के भीतर ठीक था। अगर उनका दावा सही था तो जन्नो रक्त प्रवाह में विष के प्रवेश करने के 18-20 घंटे बाद ठीक हो गया था। परन्तु यदि पीवणा वास्तव में क्रेट था, तो यह असंभव था। इसके अलावा, अब हमें “जहर-श्वास” तंत्र का पता लगाना था।
जैसे ही हम वापस आलमसर पहुंचे, अव्यवस्था साफ होने लगी थी। जबकि रेगिस्तान के लोगों ने सॉ-स्केल्ड वाइपर का एक हत्यारे साँप के रूप में उल्लेख किया, उन्हें क्रेट के बारे में पता नहीं था। लेकिन अगर हम दो दिनों में दो क्रेट खोज सकते हैं, तो यह स्पष्ट था कि पर्याप्त संख्या में मौतें होने के लिए यहाँ पर्याप्त क्रेट थे। परन्तु एक तथ्य यह भी था कि किसी ने भी क्रेट के काटने का नाम नहीं लिया था, जिसका मतलब है कि मामलों को कुछ और के रूप में समझा जा रहा था – जैसे कि पीउणा।
रोमुलस सही था। तो मिंटन और शर्मा भी सही थे। कॉमन और सिंध क्रेट दोनों ही इस मिथक के पीछे थे। वैसे भी, केवल उन्हें देखकर दोनों में अंतर करने के लिए बहुत कुछ नहीं था। ऑक्सफ़ोर्ड्स सेंटर फॉर ट्रॉपिकल मेडिसिन के संस्थापक निदेशक प्रोफेसर David A Warrell ने मुझे आगाह किया था कि पॉलीवलेंट सीरम (polyvalent serum) के सिंध क्रेट के जहर के खिलाफ प्रभावी होने के कोई सबूत नहीं थे। लेकिन कॉमन क्रेट के पीड़ित लोगों पर सीरम का कोई असर क्यों नहीं होता? निश्चित रूप से, सभी पीउना सिंध क्रेट नहीं थे। मुझे याद आया कि किस तरह सेरवा स्वास्थ्य केंद्र में एक व्यक्ति ने सांप के काटने का वर्णन किया था – बिना रुके लगातार खून का बहना, काटने की जगह पर असहनीय और एक सूजन – सभी एक सॉ-स्केल्ड वाइपर द्वारा काटे जाने के लक्षण। रात में सोते समय क्रेट द्वारा काटे जाने पर पीड़ितों को पता नहीं चलता था कि उन्हें काट लिया गया था। इसके अलावा, क्रेट के नुकीले दांत कोई निशान नहीं छोड़ते तथा किसी भी प्रकार की जलन नहीं होती। वाइपर सांप द्वारा दर्दनाक तर्रिके से कांटे जाने वाले लोगों के बीच में, क्रेट एक मिथक पीवणा था- “सांस-चूसने वाला” सांप जो काटता नहीं था!
जब तक क्रेट पीड़ित जागते थे, तब तक न्यूरोटॉक्सिन पहले ही काफी नुकसान पहुंचा चुका होता है। चूंकि पॉलीवलेंट सीरम विष के कारण होने वाले नुकसान को रिवर्स नहीं करता है – यह केवल बाद में होने वाली क्षति को रोक देता है – एक लेट स्टेज पीड़ित के जीवित रहने की संभावना हमेशा बहुत कम होती है। हमें कोई आश्चर्य नहीं था कि सरकारी क्लिनिक में डॉ शर्मा या उनके साथी एंटी-वेनम से तथाकथित पीवणा पीड़ितों की मदद नहीं कर पाते थे।
डॉ खांडल मेरे निष्कर्ष से सहमत थे, लेकिन उन्होंने मुझे पहेली के आखिरी हिस्से की याद दिला दी। “आप गले के अंदर छाले की व्याख्या कैसे करते हैं?” मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मेरे ज्ञान के अनुसार, एक क्रेट के काटने से सिरदर्द, ज्यादा नींद व् सुस्ती, भारी पलकें, धुंधली दृष्टि, हाथ-पैरों में लकवे जैसा, बेहोशी और कुल श्वसन विफलता होती है। मैंने मुँह से अधिक लार स्राव के बारे में भी पढ़ा था। लेकिन छाला नहीं।
मैं शोध करने के लिए वापस लौटा और महाराष्ट्र के महाड स्थित एक क्षेत्र चिकित्सक डॉ एचएस बावस्कर द्वारा ” The Lancet” में एक पेपर में लार के इकठे होने के बारे में पढ़ा। डॉ बावस्कर, वास्तव में, निगलने में कठिनाई या गाँठ, न्यूरोटॉक्सिन का एक लक्षण था। सीधे शब्दों में कहें, क्रेट वेनम से मांसपेशियों में लकवा हो जाता है जिससे गले में लार का जमाव होने लगता है। मैंने प्रोफेसर वॉरेल के साथ जाँच की और पुष्टि प्राप्त की। तो क्या लार की इस गाँठ को “पस” या “विष” कहा जा सकता है? जिसे खान भाई पीड़ित के गले से निकालने का दावा करते हैं? मैंने जोधपुर से डॉ बावसकर को बुलाया और वे सहमत हो गए।
लेकिन लार बाहर निकालने से एक क्रेट पीड़ित को नहीं बचाया जा सकता है। तो कैसे खान भाई एक उच्च सफलता दर का दावा कर सकते हैं? डॉ बावस्कर ने बताया की “जो लोग इस तरह के हमलों से ठीक हो जाते हैं, सबसे पहले तो उन्हें क्रेट ने कभी काटा ही नहीं होता है क्योंकि सर्पदंश गले में गाँठ बनने के लिए एकमात्र कारण नहीं होता है। इस तरह के रोगियों को कुछ अन्य बीमारी होती है और लार की गाँठ निकाल देने से वे कुछ समय के लिए बच जाते है और सर्पदंश के पीड़ित लोगों की तरह जल्दी नहीं मरते हैं”। मुझे जन्नो का मामला याद आया की यदि उसपर वास्तव में पीउना ने हमला किया था, तो क्या वह क्रेट काटने के 18 घंटे बाद भी जीवित होगा? वह भी बिना दवा के?
तथाकथित लाल पीवणा वास्तव में रेड स्पॉटेड रॉयल स्नेक (Spalerosophis arenarius) होता है और यह पूरी तरह से हानिरहित होता है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
लौटते समय रास्ते में, हम डेजर्ट मेडिकल रिसर्च सेंटर के एक शीर्ष वैज्ञानिक डॉ फूलचंद कनौजिया से मिलने जोधपुर गए। वह रेगिस्तान के विषैले सांपों पर शोध की योजना बना रहे थे और हाल ही में उन्होंने चौतन की यात्रा के दौरान विभिन्न सरकारी चिकित्सा केंद्रों से कुछ मृत सॉ-स्केल्ड वाइपर एकत्र किए थे। डॉ खांडल ने एक बोतल में मरे हुए कॉमन क्रेट को बाहर निकाला। वैज्ञानिक की आँखें बड़ी हो गईं। “इतना बड़ा क्रेट! वहाँ रेगिस्तान में क्रेट हैं? ” हमने डॉ कनौजिया को संक्षिप्त में सारी बात बताई और डॉ खांडल ने डॉ कनोजिया के संग्रह के लिए अपनी खोज को उधार देने पर सहमति व्यक्त की। वापिस जयपुर आते समय हम एक अच्छे भोजन के लिए रुके।
“तो क्या हम खतरनाक पीवणा के बारे में समझा सकते है?” डॉ खांडल ने मेरे सवाल को अपनी आँखें बंद करके विचार किया। “जितना अधिक आप जानते हैं, उतना ही जिज्ञासु आप महसूस करते हैं।” मैं बता सकता था कि वह अपने घर ले जाने वाले जले हुए क्रेट पर एक और नज़र डालने की प्रतीक्षा कर रहा था। “कम से कम, तथाकथित लाल पीवणा अब सुरक्षित होना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि कोली उन मासूम साँपों को मारना बंद कर देंगे। ”
(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद प्रवीण कुमार द्वारा)
अंग्रेजी आलेख “In Search of the Snake Demon” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम जून 2009 में Open magazine में प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://openthemagazine.com/features/india/in-search-of-the-snake-demon/