कैलादेवी अभ्यारण्य में पायी गयी वेस्टर्न घाट्स में पायी जाने वाली एक वनस्पति जो राज्य के वनस्पतिक जगत में एक नए जीनस को जोड़ती है
रणथम्भौर स्थित टाइगर वॉच संस्था के शोधकर्ताओं ने रणथंभौर बाघ अभयारण्य के कैलादेवी क्षेत्र की जैव विविधता के सर्वेक्षण के दौरान एक दिलचस्प वनस्पति की खोज की जिसका नाम है Elatostema cuneatum तथा राजस्थान राज्य के लिए यह एक नयी वनस्पति है। कैलादेवी अभ्यारण्य में यह पत्थरों पर ऊगा हुआ मिला जहाँ सारे वर्ष पानी गिरने के कारण नमी तथा पत्थरों की ओट के कारण छांव बनी रहती है तथा इसके आसपास Riccia sp और Adiantum sp भी उगी हुई थी। शोधकर्ताओं ने इसके कुछ चित्र लिए तथा इनका व्यापक अवलोकन करने से यह पता चला की इस वनस्पति का नाम Elatostema cuneatum है और शोधपत्रों से ज्ञात हुआ की राजस्थान में अभी तक इसे कभी भी नहीं देखा गया तथा राजस्थान के वनस्पतिक जगत के लिए यह न सिर्फ एक नयी प्रजाति है बल्कि एक नया जीनस भी है। जीनस Elatostema में लगभग ३०० प्रजातियां पायी जाती है जो पूरे उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और ओशिनिया में वितरित है। भारत में यह जीनस गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, तमिल नाडु और सिक्किम में पाया जाता है। कैलादेवी अभ्यारण्य से एकत्रित किये गए इसके नमूनों को RUBL (Herbarium of the Rajasthan university, botany lab) में जमा करवाया गया है।
Elatostema cuneatum, पत्थरों पर उगती है जहाँ सारे वर्ष पानी गिरने के कारण नमी तथा पत्थरों की ओट के कारण छांव बनी रहती है।(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
Elatostema cuneatum location map
Elatostema cuneatum, 15 सेमी तक लम्बी वार्षिक वनस्पति है जिसका तना त्रिकोणीय होता है तथा इसके सिरों पर बारीक़ रोये होते है। सीधी तने से जुडी (sub-sessile) इसकी पत्तियां उत्तरवर्धी (accrescent), सिरों से कंगूरेदार-दांतेदार और नुकीली होती हैं। यह वनस्पति अगस्त से अक्टूबर में फलती-फूलती है। राजस्थान में इसका पहली बार मिलना अत्यंत रोचक है एवं हमें यह बताता है की राजस्थान में वनस्पतियों पर खोज की संभावना अभी भी बाकि हैI
संदर्भ:
Dhakad, M., Kotiya, A., Khandal, D. and Meena, S.L. 2019. Elatostema (Urticaceae): A new Generic Record to the Flora of Rajasthan, India. Indian Journal of Forestry 42(1): 49-51.
“राजस्थान के बीकानेर जिले में पायी गई एक नई वनस्पति प्रजाति… “
केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI), जोधपुर और बोटैनिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के कुछ शोधकर्ताओं द्वारा राजस्थान के बीकानेर जिले से एलो ट्राईनर्विस (Aloe trinervis) नामक एक नई वनस्पति की प्रजाति की खोज की गई है। इस प्रजाति में फूलों के ब्रैट्स में तीन तंत्रिकाएं (nerve) मौजूद होने के कारण इस प्रजाति का नाम ट्राईनर्विस रखा गया हैं क्योंकि यह लक्षण इस प्रजाति के लिए विशेष और अद्वितीय हैं तथा इस प्रजाति में जून-अगस्त माह में फूल तथा सितम्बर-अक्टूबर माह में फल आते हैं।
Aloe trinervis के फूल (फोटो: Kulloli et. al.)
वनस्पतिक जगत के परिवार Asphodelaceae के जीनस “Aloe” में लगभग 600 प्रजातियां शामिल हैं जो ओल्ड वर्ल्ड (अफ्रीका, एशिया और यूरोप) सहित, दक्षिणी अफ्रीका, इथियोपिया और इरिट्रिया में वितरित हैं। इस जीनस की प्रजातियां शुष्क परिस्थितियों में फलने-फूलने के लिए अनुकूलित होती हैं तथा इनकी मोटी गुद्देदार पत्तियों में पानी संचित करने के टिश्यू होने के साथ-साथ एक मोटी छल्ली (cuticle) होती है। हालांकि भारत में इन सभी प्रजातियों में से केवल एक ही प्रजाति “अलो वेरा (Aloe vera)” सबसे अधिक व्यापकरूप से वितरित है। शोधकर्ताओं; सी.एस. पुरोहित, आर.एन. कुल्लोली और सुरेश कुमार की कड़ी मेहनत द्वारा इस नई प्रजाति की रिपोर्ट के साथ ही अब भारत में इस जीनस की दो प्रजातियां हो गई हैं। डॉ चंदन सिंह पुरोहित बोटैनिकल सर्वे ऑफ इंडिया में वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। यह घासों के विशेषज्ञ हैं जिन्होंने 100 से अधिक शोध पत्र, 2 पुस्तकें प्रकाशित की हैं। डॉ रविकिरन निंगप्पा कुल्लोली, पिछले 12 वर्षों से रेगिस्तान की जैव विविधता पर शोध कर रहे है। इन्होने प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पत्रिकाओं में 30 शोध पत्र प्रकाशित किए हैं तथा वर्तमान में यह राजस्थान और गुजरात राज्यों के वन क्षेत्रों के आनुवंशिक संसाधनों के दस्तावेजीकरण और मानचित्रण पर कार्य कर रहे है। डॉ सुरेश कुमार, सेवानिवृत्त प्रधान वैज्ञानिक (आर्थिक वनस्पति विज्ञान) और केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (CAZRI) जोधपुर के विभागाध्यक्ष थे। इन्होने डेजर्ट इकोलॉजी पर विशेषज्ञता हासिल की है और अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय पत्रिकाओं 250 से अधिक शोधपत्र और 10 पुस्तके प्रकाशित की हैं। साथ ही इन्होने चट्टानी, चूना पत्थर और जिप्सम वाले परियावासो को पुनः स्थापित करने तकनीक विकसित की है।
आखिर एलो ट्राईनर्विस और एलो वेरा में अंतर क्या है: एलो ट्राईनर्विस में पत्तियों के सिरों पर हल्के घुमावदार छोटे कांटे होते हैं, 3-नर्व्ड ब्रैक्ट्स, शाखित पुष्पक्रम (inflorescence), हल्के पीले-हरे रंग के फूल मध्य से भूरे व् 31-34 मिमी तक लम्बे होते हैं तथा इनके पुंकेसर की लम्बाई 29–33 मिमी तक होती हैं। जबकि एलो वेरा में पत्तियों के सिरों पर त्रिकोणाकार छोटे कांटे होते हैं, 5-नर्व्ड ब्रैक्ट्स, अशाखित पुष्पक्रम (inflorescence), संतरी-पीले रंग के फूल 29-30 मिमी तक लम्बे होते हैं तथा इनके पुंकेसर की लम्बाई 24–26 मिमी तक होती हैं। वर्तमान में इस नई प्रजाति एलो ट्राईनर्विस को शिवबाड़ी-जोरबीर संरक्षित क्षेत्र, बीकानेर, राजस्थान से एकत्रित किया गया हैं।
Aloe trinervis: A, inflorescence; B, leaf upper surface and margin; C, leaf lower surface and margin; D, white spots in young leaves; E, teeth; F, bract; G, bud; H, flower; I, perianth outer side; J, perianth inner side; K, stamens; L, pistil (Photo: C.S. Purohit & R.N. Kulloli).
Comparative plant parts of Aloe trinervis and Aloe vera (A & B) with respect to (1) inflorescence, (2) corolla ventral view, (3) corolla dorsal view, (4) teeth arrangement, (5) bud, (6) floral bract, (7) teeth shape (Photo: C.S. Purohit & R.N. Kulloli).
दोनों प्रजातियों एलो वेरा और एलो ट्राईनर्विस को CAZRI, जोधपुर में डेजर्ट बॉटनिकल गार्डन में लगाया गया है, तथा इसके नमूने BSI, AZRC, जोधपुर में संगृहीत हैं। स्थानीय लोग इसकी पत्तियों को सब्जी और अचार बनाने के लिए इकट्ठा करते हैं। इसकी पत्तियों का उपयोग त्वचा उपचार के लिए औषधीय रूप के रूप में भी किया जाता है। और जानकारी के लिए सन्दर्भ में दिए शोधपत्र को देखें।
संदर्भ:
Cover picture Kulloli et. al.
Kumar S., Purohit C.S., and Kulloli R. N. 2020. Aloe trinervis sp. nov.: A new succulent species of family Asphodelaceae from Indian Desert. Journal of Asia-Pacific Biodiversity. 13:325-330.
शोधकर्ता:
Dr. Chandan Singh Purohit (1)(L&R): Dr. C.S. Purohit is working as Scientist at Botanical Survey of India. He is grass expert and published more than 100 research papers, 2 books on taxonomy, conservation biology, new taxa. He has also worked on vegetation of Shingba Rhododendron Sanctuary, Sikkim.
Dr. Kulloli Ravikiran Ningappa (2): He is working on desert biodiversity since last 12 years. He has published 30 research papers in reputed international and national journals. He has hands on GIS mapping, Species Distribution Modelling. Currently he is working on documentation and mapping of Forest Genetic Resources of Rajasthan and Gujarat states.
Dr. Suresh Kumar (3): He is retired Principal Scientist (Economic Botany) & Head of Division of Central Arid Zone Research Institute (CAZRI) Jodhpur. He has expertise on Desert Ecology and published more than 250 research papers in international and national journals and 10 books. He has developed technology to rehabilitate rocky habitats, limestone, gypsum and lignite mine spoils.
“पिम्पा, राजस्थान के अत्यंत शुष्क वातावरण में उगने वाला सलाद पौधा जो भू उपयोग में आये बदलाव के कारण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।“
राजस्थान के थार मरुस्थल में उगने वाला एक पौधा, जिसके बारे में राजस्थान के लोगो को भी अधिक पता नहीं होगा, बहुत कम स्थानीय लोग ही इसे जानते है परन्तु थार मरुस्थल के कुछ लोग इसे सलाद की भांति खाने के उपयोग में लेते है I यह है Caralluma edulis, जिसे स्थानीय भाषा में लोग “पिम्पा” के नाम से जानते है इसका इस्तेमाल भोजन एवं दवा दोनों प्रकार से किया जाता है I यह राजस्थान के अत्यंत शुष्क क्षेत्र का एक मरुस्थलीय पौधा है I यह मुरैठ (Panicum turgidum) घास के साथ उगता हुआ देखा गया I यह जल को संगृहीत कर गर्म एवं अत्यंत शुष्क वातावरण में उगने के लिए अनुकूल होता है I अक्सर इसे कच्चा ही सलाद की भांति खाया जाता है I खाने में यह थोड़ा नमकीन होता है I अत्यंत चराई एवं भू उपयोग में आये बदलाव ने इसके अस्तित्व को संकटग्रस्त स्थिति में ला दिया है I
Caralluma edulis, भारत और पाकिस्तान का स्थानिक है तथा यह वनस्पतिक जगत के Asclepiadaceae परिवार का सदस्य है। (फोटो: डॉ. अमित कोटिया एवं डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
Caralluma edulis एक बहुशाखित पौधा है जिसकी शाखाये सिरे से नुकीली होती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
Caralluma edulis, जल को संगृहीत कर थार मरुस्थल के चरम शुष्क इलाको में उगने के सक्षम है। (फोटो: डॉ. अमित कोटिया एवं डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
एक सर्वे में इसे जैसलमेर के खुईयाला, बहरमसर धाम, देवा -II और चान्दन गाँवो के आस पास उगता हुआ देखा गया है I पिम्पा एक बहु शाखा वाला २०-३० सेंटीमीटर तक जमीन से ऊपर उगने वाला पौधा है जो Asclepiadaceae परिवार से सम्बन्ध रखता है I यह स्थानीय बाजार में कभी कभी बिकता भी है I कभी कभार कुछ लोग इसे एक सुंदरता बढ़ाने के लिए भी लगते है I राजस्थान के थार मरुस्थल से जुड़े वनस्पति वैज्ञानिको को इसे एक बार जरूर देखना चाहिए I
इसका तना स्वाद में नमकीन तथा बहुत ही रसीला होता है इसीलिए इस पौधे को सब्जी की तरह उगाया भी जाता है है। (फोटो: डॉ. अमित कोटिया)
फूलों से लदे पलाश के पेड़, यह आभास देते हैं मानो वन में अग्नि दहक रही है I इनके लाल केसरी रंगों के फूलों से हम सब वाकिफ हैं, परन्तु क्या आप जानते है पीले फूलों वाले पलाश के बारे में ?
पलाश (Butea monosperma) राजस्थान की बहुत महत्वपूर्ण प्रजातियों में से एक है जो मुख्यतः दक्षिणी अरावली एवं दक्षिणी-पूर्वी अरावली के आसपास दिखाई देती है। यह प्रजाति 5 उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वनों का महत्वपूर्ण अंश है तथा भारत में E5 – पलाश वन बनाती है। E5 – पलाश वन मुख्यरूप से चित्तौड़गढ़, अजमेर, पाली, जालोर, टोंक, भीलवाड़ा, बूंदी, झालावाड़, धौलपुर, जयपुर, उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, अलवर और राजसमंद जिलों तक सीमित है।
पीले पलाश (Butea monosperma var. lutea) का वृक्ष (फोटो: डॉ. सतीश शर्मा)
राजस्थान में पलाश की तीन प्रजातियां पायी जाती हैं तथा उनकी विविधताएँ नीचे दी गई तालिका में प्रस्तुत की गई हैं:
क्र. सं.
वैज्ञानिक नाम
प्रकृति
स्थानीय नाम
मुख्य वितरण क्षेत्र
फूलों का रंग
1
Butea monosperma
मध्यम आकार का वृक्ष
पलाश, छीला, छोला, खांखरा, ढाक
मुख्य रूप से अरावली और अरावली के पूर्व में
लाल
2
Butea monosperma var. lutea
मध्यम आकार का वृक्ष
पीला खांखरा, ढोल खाखरा
विवरण इस लेख में दिया गया है
पीला
3
Butea superba
काष्ठबेल
पलाश बेल, छोला की बेल
केवल अजमेर से दर्ज (संभवतः वर्तमान में राज्य के किसी भी हिस्से में मौजूद नहीं)
लाल
लाल पलाश (Butea monosperma) का वृक्ष (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
लाल पलाश के पुष्प (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
Butea monosperma var. lutea राजस्थान में पलाश की दुर्लभ किस्म है जो केवल गिनती योग्य संख्या में मौजूद है। राज्य में इस किस्म के कुछ ज्ञात रिकॉर्ड निम्न हैं:
क्र. सं.
तहसील/जिला
स्थान
वृक्षोंकीसंख्या
भूमिकीस्थिति
1
गिरवा (उदयपुर)
पाई गाँव झाड़ोल रोड
1
राजस्व भूमि
2
गिरवा (उदयपुर)
पीपलवास गाँव के पास, (सड़क के पूर्व के फसल क्षेत्र में)
2
राजस्व भूमि
3
झाड़ोल (उदयपुर)
पारगीया गाँव के पास (पलियाखेड़ा-मादरी रोड पर)
1
राजस्व भूमि
4
झाड़ोल (उदयपुर)
मोहम्मद फलासिया गाँव
2
राजस्व भूमि
5
कोटड़ा (उदयपुर)
फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के पथरापडी नाका के पास
1
राजस्व भूमि
6
कोटड़ा (उदयपुर)
बोरडी गांव के पास फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के वन ब्लॉक में
4
आरक्षित वन
7
कोटड़ा (उदयपुर)
पथरापडी नाका के पूर्व की ओर से आधा किलोमीटर दूर सड़क के पास एक नाले में श्री ननिया के खेत में (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य का बाहरी इलाका)
2
राजस्व भूमि
8
झाड़ोल (उदयपुर)
डोलीगढ़ फला, सेलाना
1
राजस्व भूमि
9
झाड़ोल (उदयपुर)
गोत्रिया फला, सेलाना
1
राजस्व भूमि
10
झाड़ोल (उदयपुर)
चामुंडा माता मंदिर के पास, सेलाना
1
राजस्व भूमि
11
झाड़ोल (उदयपुर)
खोड़ा दर्रा, पलियाखेड़ा
1
आरक्षित वन
12
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
जोलर
2
झार वन ब्लॉक
13
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
धरनी
2
वन ब्लॉक
14
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
चिरवा
2
वन ब्लॉक
15
प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़)
ग्यासपुर
1
मल्हाड वन खंड
16
आबू रोड
गुजरात-राजस्थान की सीमा, आबू रोड के पास
1
वन भूमि
17
कोटड़ा (उदयपुर)
चक कड़ुवा महुड़ा (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य)
1
देवली वन ब्लॉक
18
कोटड़ा (उदयपुर)
बदली (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य)
1
उमरिया वन ब्लॉक
19
कोटड़ा (उदयपुर)
सामोली (समोली नाका के उत्तर में)
1
राजस्व भूमि
20
बांसवाड़ा जिला
खांडू
1
राजस्व भूमि
21
डूंगरपुर जिला
रेलड़ा
1
राजस्व भूमि
22
डूंगरपुर जिला
महुडी
1
राजस्व भूमि
23
डूंगरपुर जिला
पुरवाड़ा
1
राजस्व भूमि
24
डूंगरपुर जिला
आंतरी रोड सरकन खोपसा गांव, शंकर घाटी
1
सड़क किनारे
25
कोटड़ा (उदयपुर)
अर्जुनपुरा (श्री हुरता का कृषि क्षेत्र)
2
राजस्व भूमि
26
गिरवा (उदयपुर)
गहलोत-का-वास (उबेश्वर रोड)
6
राजस्व भूमि
27
उदयपुर जिला
टीडी -नैनबरा के बीच
1
राजस्व भूमि
28
अलवर जिला
सरिस्का टाइगर रिजर्व
1
वन भूमि
चूंकि पीला पलाश राज्य में दुर्लभ है, इसलिए इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। राज्य के कई इलाकों में स्थानीय लोगों द्वारा इसकी छाल पूजा और पारंपरिक चिकित्सा के लिए प्रयोग ली जाती है जो पेड़ों के लिए हानिकारक है। वन विभाग को इसकी रोपाई कर वन क्षेत्रों में इसका रोपण तथा स्थानीय लोगों के बीच इनका वितरण करना चाहिए।
खर्चिया, पाली जिले की खारी मिट्टी में उगने वाला लाल गेंहू जिसने राजस्थान के एक छोटे से गाँव “खारची” को पुरे विश्व में प्रसिद्धि दिलवाई।
राजस्थान के पाली जिले में किसानों के साथ काम करने के दौरान मैंने गेहूं की एक स्थानीय प्रजाति देखी, जिसे पूरे जिले में खर्चिया गेहूं के नाम से जाना जाता है। परन्तु यह जानना बेहद दिलचस्प है कि इस किस्म को यह नाम कैसे मिला। दरअसल इस गेहूं की उत्पत्ति खारची नामक गाँव से हुई है और यहाँ की मिट्टी और पानी में नमक की मात्रा अधिक होने के कारण इस गाँव का नाम खारची पड़ा है। स्थानीय भाषा में खार्च का मतलब नमक होता है। खर्चिया गेहूं को पुरे विश्व में अत्यधिक नमक की मात्रा में उगने वाले गेहूं जीनोटाइप के रूप में जाना जाता है। मिट्टी में नमक की ज्यादा मात्रा के कारण फसलों में रस प्रक्रिया (metabolism) और खनिज का अपवाह (uptake of mineral) प्रभावित होता है। परन्तु, खर्चिया गेंहू की ऐसी किस्म है जो नमक के प्रभावों का अधिक कुशलता से सामना करती है । इसी कारण से ये स्थानीय गेंहू प्रजाति को व्यापक रूप से उच्च उपज वाली नमक प्रतिरोधी किस्म खर्चिया 65, KRL 1-4, KRL 39 और KRL 19 के उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता है। भविष्य के फसल सुधार कार्यक्रम के लिए इसके महत्त्व को ध्यान में रखते हुए, इसे गेहूं अनुसंधान निदेशालय, करनाल के पंजीकरण संख्या INGR 99020 द्वारा NBPGR, नई दिल्ली में पंजीकृत किया गया है। खर्चिया गेहूं को पीढ़ियों से खारची गाँव में उगाया जा रहा है। गेहूँ की अन्य हाइब्रिड किस्मों की तुलना में खर्चिया गेहूँ के लिए बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है और ऐसी जगहों पर जहाँ पानी उपलब्ध नहीं होता है, यह बारिश के मौसम में उगाया जाता है। इस किस्म की एक अन्य विशेषता यह है कि पौधे की लम्बाई भी अधिक होती है जिससे किसानो को अनाज के साथ-साथ पशुओं को खिलाने के लिए चारा भी मिल जाता है। जानवरो को भी अन्य गेहूं के भूसे की तुलना में खर्चिया गेहूँ का चारा अधिक पसंद आता हैं।
इस स्थानीय प्रजाति के महत्त्व को समझते हुए, हमने पीपीवी और एफआर प्राधिकरण, नई दिल्ली द्वारा दिए जाने वाले Plant Genome Saviour Community (PGSC) अवार्ड के लिए खार्ची गांव समुदाय के लिए आवेदन किया। प्रत्येक वर्ष यह पुरस्कार किसानो, विशेषरूप से आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के लोगो को कृषि जैव विविधता के संरक्षण व् सुधार के लिए प्रदान किया जाता है। पीपीवी और एफआर प्राधिकरण दवारा सभी प्रकार की जांच करने के बाद खारची गाँव के किसानो को यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला, जिसमे एक प्रशस्ति पत्र, एक स्मृति चिन्ह और दस लाख रुपयों की राशि थी तथा यह पुरस्कार माननीय कृषि मंत्री द्वारा NASC कॉम्प्लेक्स, नई दिल्ली में आयोजित एक विशेष समारोह में दिया जाता है।
खारची गाँव का विवरण:
खारची गाँव, जिला मुख्यालय पाली से पूर्व की ओर 32 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह एक ग्राम पंचायत है, जिसका खर्चिया गेहूं की खेती में बड़ा योगदान है। जोग माया मंदिर के समय से खारची गाँव की अपनी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। उस समय, खारची गाँव आसपास के तीन गाँवों और पंचायत समिति मारवाड़ जंक्शन का मुख्य व्यवसाय केंद्र और बिक्री स्थल हुआ करता था। यह गाँव और इसके आस-पास की भूमि नमक से इतनी अधिक प्रभावित है कि ऐसा लगता है मानो किसी ने मिट्टी पर नमक की परत चढ़ा दी हो। नमक के जमने के कारण भूमि ऊपर से सफेद हो जाती है जिसे स्थानीय रूप से खारच कहा जाता है और इसलिए इस गांव को खारची नाम मिला। इस पंचायत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल लगभग 12,224 वर्ग किमी है। जिसमें से 85 प्रतिशत भूमि क्षेत्र का उपयोग कृषि के लिए किया जाता है और केवल चार प्रतिशत ही सिंचित क्षेत्र है। गाँव के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है क्लस्टर बीन, मूंग, तिल खरीफ में उगाए जाते हैं और रबी में मिर्ची, चीकू, जीरा और जौ प्रमुख कृषि फसलें हैं। बेर, आमला और लहसोरा मुख्य बागवानी फ़सलें हैं। इस जिले में कृषि आधारित औद्योगिक क्षेत्रों में मुख्य रूप से मेंहदी उद्योग, दाल उद्योग और दूध प्रसंस्करण संयंत्र शामिल हैं। कृषि के साथ पशुधन भी आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण भाग है। गाँव में डेयरी क्षेत्र भी तेजी से बढ़ रहा है और वर्तमान में प्रतिदिन लगभग 2500 लीटर दूध का उत्पादन है तथा पशु, भैंस, भेड़ और बकरी यहाँ मुख्य पशु हैं।
जलवायु की स्थिति
शुष्क से अर्ध-शुष्क, 20-25˚C
मृदा प्रकार
दोमट से रेतीले दोमट, नमक की मात्रा अधिक है।
खरचिया गेहूं की बीज दर
100-120 Kg/Ha (मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करता है)।
बुवाई की विधि:
संरक्षित नमी की स्थिति में तथा सिंचित अवस्था में: 4-5 सिंचाई
उपज
16-32 qt / Ha (न्यूनतम और उच्चतम उपज मिट्टी में नमक की मात्रा और पानी की उपलब्धि पर निर्भर करती है)
प्रमुख कीट
दीमक
रोग
Yellow rust, Black smut
QUALITY PARAMETERS OF KHARCHIA WHEAT:
S. No.
Characteristics
Kharchia wheat
Normal Wheat
1.
Grain colour
Red
Generally amber
2.
Grain Texture
Semi-hard
Semi-hard to Hard
3.
Chapati
Soft (soft for eating and can be used for two days)
Soft-semi-soft (can be used up to 4-5 hours on the same day only)
Chapati prepared in morning is used with butter milk in the after noon gives more taste.
Normal taste
4.
Dalia
Absorbs plenty of water for cooking and gives more quantity after cooking
Absorbs less water
Gives more taste due to absorption of more water
Less tasty as compared to kharchia wheat
5.
Bran
More bran
Less bran
6.
Khichdi (Dalia+dal +ghee)
Given to the pregnant ladies, being light, there is less pressure on other body parts. It is light for stomach, increases blood and gives energy.
Normal
7.
Salt affected water
High production
Low production
Yield
16-32 qt/ha
10-15 q/ha
8.
Straw yield
More due to tallness
Less due to short height
9.
Marketing approach
· Used by local people
Well established market channels.
· Migrants from this region prefer to purchase bulk stock for the entire year from villagers/growers directly.
चूंकि, गाँव की भूमि ज्यादातर खारी है, इसलिए, राजस्थान के पाली जिले के खारची और आस-पास के क्षेत्र में खर्चिया गेंहू की खेती की जाती है। खारची गांव में 1200 बीघा में खर्चिया गेहूं उगाया जाता है। खर्चिया गेहूं की औसत उपज लगभग 16-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। लवणीय मिट्टी में खेती करने पर उपज की क्षमता कम होती है और यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो और भूमि सामान्य हो तो उपज बढ़ जाती है। किसान खेतों में केवल फार्म यार्ड खाद (FYM) का उपयोग करते हैं। परन्तु खर्चिया गेहूं की खेती प्रायः नमी और रासायनिक उर्वरकों के बिना की जाती है। चेन्नई, पुणे, बैंगलोर, हैदराबाद जैसे अन्य स्थानों के किसानों द्वारा भी खारची गाँव का दौरा किया जाता है जो इस गेंहू की गुणवत्ता के बारे में अच्छी तरह से जानते है और बुवाई के उद्देश्य से खारचिया गेहूँ खरीदने के लिए आते हैं। गाँव की महिलाओ से बातचीत के दौरान, यह पता लगा गया कि खर्चिया गेहूँ बहुत ही पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होता है इसके आटे से लड्डू और बर्फी बनायीं जाती है। इन लड्डूओं को एक सप्ताह या दस दिनों के प्रसव के बाद शिशु की माँ को एक पौष्टिक व्यंजन के रूप में दिया जाता है। इस से बने दलिया और लापसी का उपयोग आमतौर पर नाश्ते में किया जाता है। महिलाओं द्वारा यह भी बताया गया कि इस गेहूं का आटा गूंधने में अधिक मात्रा में पानी सोखता है और इसकी रोटी का स्वाद मीठा होता है तथा 24 घंटे तक ताजा रहती है और कभी भी अन्य गेहूं की किस्मों की तरह सूखती नहीं है। भंडारण में किसी प्रकार के कीट-पतंगे अनाज पर आकर्षित नहीं होते हैं, इसलिए इसे लंबे समय तक भंडारघर में रखा जा सकता है।
दुर्लभ वृक्ष का अर्थ है वह वृक्ष प्रजाति जिसके सदस्यों की संख्या काफी कम हो एवं पर्याप्त समय तक छान-बीन करने पर भी वे बहुत कम दिखाई पड़ते हों उन्हें दुर्लभ वृक्ष की श्रेणी में रखा जा सकता है। किसी प्रजाति का दुर्लभ के रूप में मानना व जानना एक कठिन कार्य है।यह तभी संभव है जब हमें उस प्रजाति के सदस्यों की सही सही संख्या का ज्ञान हो। वैसे शाब्दिक अर्थ में कोई प्रजाति एक जिले या राज्य या देश में दुर्लभ हो सकती है लेकिन दूसरे जिले या राज्य या देश में हो सकता है उसकी अच्छी संख्या हो एवं वह दुर्लभ नहीं हो।किसी क्षेत्र में किसी प्रजाति के दुर्लभ होने के निम्न कारण हो सकते हैं:
1.प्रजाति संख्या में काफी कम हो एवं वितरण क्षेत्र काफी छोटा हो, 2.प्रजाति एंडेमिक हो, 3.प्रजाति अतिउपयोगी हो एवं निरंतर व अधिक दोहन से उसकी संख्या में तेज गिरावट आ गई हो, 4.प्रजाति की अंतिम वितरण सीमा उस जिले या राज्य या देश से गुजर रही हो, 5.प्रजाति का उद्भव काफी नया हो एवं उसे फैलने हेतु पर्याप्त समय नहीं मिला हो, 6.प्रजाति के बारे में पर्याप्त सूचनाएं उपलब्ध नहीं हो आदि-आदि।
इस लेख में राजस्थान राज्य के दुर्लभ वृक्षों में भी जो दुर्लभतम हैं तथा जिनकी संख्या राज्य में काफी कम है, उनकी जानकारी प्रस्तुत की गयी है।इन दुर्लभ वृक्ष प्रजातियों की संख्या का भी अनुमान प्रस्तुत किया गया है जो वर्ष 1980 से 2019 तक के प्रत्यक्ष वन भ्रमण,प्रेक्षण,उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य अवलोकन एवं वृक्ष अवलोककों(Tree Spotters), की सूचनाओं पर आधारित हैं।
अब तक उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर राजस्थान की अति दुर्लभ वृक्ष प्रजातियां निम्न हैं:
क्र. सं.
नाम प्रजाति
प्रकृति
कुल
फ्लोरा ऑफ राजस्थान (भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण अनुसार स्टेटस)
कमलनाथ नाला (कमलनाथ वन खंड,उदयपुर) गौमुख के रास्ते पर(मा.आबू)
वन्य अवस्था में विद्यमान
5.
Butea monosperma leutea पीला पलाश
मध्यम आकार का वृक्ष
Fabaceae
दर्ज नहीं
B
मुख्यतः दक्षिणी राजस्थान, बाघ परियोजना सरिस्का
वन्य अवस्था में विद्यमान
6.
Celtis tetrandra
मध्यम आकार का वृक्ष
Ulmaceae
दुर्लभ के रूप में दर्ज
A
माउन्ट आबू (सिरोही), जरगा पर्वत (उदयपुर)
वन्य अवस्था में विद्यमान
7.
Cochlospermum religisoumगिरनार, धोबी का कबाड़ा
छोटा वृक्ष
Lochlospermaceae
‘अतिदुर्लभ’ के रूप में दर्ज
B
सीतामाता अभ्यारण्य, शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)
वन्य अवस्था में विद्यमान
8.
Cordia crenata ,(एक प्रकार का गैंदा)
छोटा वृक्ष
Boraginaceae
‘अतिदुर्लभ’ के रूप में दर्ज
पुख़्ता जानकारी उपलब्ध नहीं
मेरवाड़ा के पुराने जंगल, फुलवारी की नाल अभ्यारण्य
वन्य अवस्था में विद्यमान
9.
Ehretia serrata सीला, छल्ला
मध्यम आकार का वृक्ष
Ehretiaceae
दुर्लभ के रूप में दर्ज
A
माउन्ट आबू (सिरोही), कुम्भलगढ़ अभयारण्य,जरगा पर्वत,गोगुन्दा, झाड़ोल,कोटड़ा तहसीलों के वन एवं कृषि क्षेत्र
वन्य एवं रोपित अवस्था में विद्यमान
10.
Semecarpus anacardium, भिलावा
बड़ा वृक्ष
Anacardiaceae
फ्लोरा में शामिल लेकिन स्टेटस की पुख़्ता जानकारी नहीं
हाल के वर्षों में उपस्थित होने की कोई सूचना नहीं है
माउन्ट आबू (सिरोही)
वन्य अवस्था में ज्ञात था
11.
Spondias pinnata, काटूक,आमण्डा
बड़ा वृक्ष
Anacardiaceae
दर्ज नहीं
संख्या संबधी पुख़्ता जानकारी नहीं
सिरोही जिले का गुजरात के बड़ा अम्बाजी क्षेत्र से सटा राजस्थान का वनक्षेत्र, शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)
वन्य अवस्था में विद्यमान
12.
Antidesma ghaesembilla
मध्यम आकार का वृक्ष
Phyllanthaceae
दर्ज नहीं
A
रणथम्भौर बाघ परियोजना (सवाई माधोपुर)
वन्य अवस्था में विद्यमान
13.
Erythrinasuberosasublobata
छोटा वृक्ष
Fabaceae
दर्ज नहीं
A
शाहबाद तहसील के वन क्षेत्र (बारां)
वन्य अवस्था में विद्यमान
14.
Litsea glutinosa
मैदा लकड़ी
Lauraceae
दर्ज नहीं
A
रणथम्भौर बाघ परियोजना (सवाई माधोपुर)
वन्य अवस्था में विद्यमान
(*गिनती पूर्ण विकसित वृक्षों पर आधारित है A=50 से कम,B=50 से 100)
उपरोक्त सारणी में दर्ज सभी वृक्ष प्रजातियां राज्य के भौगोलिक क्षेत्र में अति दुर्लभ तो हैं ही,बहुत कम जानी पहचानी भी हैं।यदि इनके बारे में और विश्वसनीय जानकारियां मिलें तो इनके स्टेटस का और भी सटीक मूल्यांकन किया जा सकता है।चूंकि इन प्रजातियों की संख्या काफी कम है अतः ये स्थानीय रूप से विलुप्त भी हो सकती हैं। वन विभाग को अपनी पौधशाला में इनके पौधे तैयार कर इनको इनके प्राकृतिक वितरण क्षेत्र में ही रोपण करना चाहिए ताकि इनका संरक्षण हो सके।