महामारी के दौर में कैसे रहें? मोर से सीखे कुछ सबक !!
जाने कैसे खुद को बिमारी के संक्रमण से बचाने के लिए मोर करते हैं सोशल डिस्टेंसिंग और बन जाते हैं आत्मनिर्भर…
भारतीय मोर सदियों से राजस्थानी परिदृश्य का एक विशेष अंग रहा है, जहाँ एक ओर राजस्थानी लोकगीतों, किस्सों और कहानियों में मोर जिक्र होता है वहीँ दूसरी ओर आज भी यहाँ कई गाँव ऐसे हैं जहाँ सैकड़ों वर्षों से स्थानीय लोग और मोर एक साथ रहते हैं तथा एक-दूसरे को सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से प्रभावित करते हैं। परन्तु भारत में अलग-अलग स्थानों पर लोगों की मोर के प्रति भावनाएं भी अलग-अलग है जैसे कि कई हिस्सों में मोर को खेती के लिए सिर्फ एक कीट के नज़रिए से देखा जाता है तो कुछ स्थानों पर इन्हें पर्यटकों के लिए आकर्षण और एक पवित्र पक्षी माना जाता है।
मनुष्यों और मोरों के बीच इस व्यवहार को देखते हुए मैंने और मेरी टीम (प्रियंका डांगे, वेदांती महिमकर, रूपेश गावड़े और टाइगर वॉच वॉलंटियर्स) ने रणथम्भौर बाघ अभयारण्य के आसपास स्थित गांवों में भारतीय मोर के बारे में अध्ययन किया। इस अध्ययन में हमने भारतीय मोर की आहार विविधता, आपसी सामूहिक व्यवहार और शरीर में पाए जाने वाले परजीवियों को देखा। साथ ही यह समझने के भी प्रयास किये गए कि कैसे मानवीय आबादी क्षेत्रों के पास आसानी से मिलने वाला भोजन उनके व्यवहार और रोगों को प्रभावित करता है?
भारतीय मोर अक्सर अकेले, जोड़ों में या समूहों में रहते व घूमते हैं, तथा इन समूहों में नर, मादा, किशोर और चूज़े शामिल होते हैं। जहाँ एक ओर समूह में रहने से शिकारियों से सुरक्षा मिल जाती है वहीँ दूसरी ओर समूह में भोजन को लेकर प्रतिस्पर्धा और कई बार अन्य सदस्यों से बीमारी से संक्रमित होने की संभावना भी बढ़ जाती है। इसीलिए हमारी टीम ने यह भी अध्यन्न किया कि, क्या मोर विभिन्न मौसमों में उनके सामने आने वाली चुनौतियों के अनुसार समूह पैटर्न को बदलते हैं?
संक्रमित पानी, मिट्टी और भोजन द्वारा न केवल मनुष्यों बल्कि प्रकृति में मौजूद सभी जीवों को विभिन्न बिमारियों का खतरा होता है। इसी क्रम में हमने मोरों में परजीवियों के संक्रमण का पता लगाने हेतु रणथम्भौर के पास स्थित मानवीय आबादी क्षेत्रों के आसपास पाए जाने वाली मोरों की आबादी के मलों के नमूने इकट्ठे किए। ये सभी नमूने वर्ष के तीन अलग-अलग मौसमों: मानसून से पहले (जनवरी-जून), मानसून (जुलाई- सितंबर) और मानसून के बाद (अक्टूबर- दिसंबर) इकट्ठे किए गए तथा उनकी जांच की गई।
मानसून से पहले (शुष्क गर्मी) के नमूनों में देखा गया कि, बहुत कम मोरों में परजीवी संक्रमण था और जिनमें था भी तो उनमें परजीवियों की संख्या कम थी तथा इस मौसम में मोरों के बड़े समूह (लगभग 14-15 मोर एक साथ) देखे गए थे। इस परिस्थिति में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि, क्योंकि मोरों में परजीवियों का संक्रमण कम था इसीलिए वे बड़े समूहों में रह रहे थे तथा शिकारियों से सुरक्षा का लाभ उठा रहे थे। परन्तु जैसे ही मानसून की शुरुआत होती है विभिन्न प्रकार के भोजन श्रोत जैसे कि, कीट, घास के बीज, विभिन्न पौधों के अंकुरित अनाज की बहुतायत बढ़ जाती है।
और मानसून के मौसम में 80% से अधिक मोर आंतों के परजीवियों से संक्रमित हो जाते हैं जो गीले मौसम में और आसानी से फैलते हैं। ऐसे में समूहों में रहना अधिक जोखिम भरा हो जाता है क्योंकि समूह के अन्य सदस्यों से संक्रमित होने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए, इस परिस्थिति में मोर भी “सोशल डिस्टेंसिंग (Social Distancing)” का पालन करते हैं और अपने समूहों के आकार छोटा कर लेते हैं।
मानसून में जब इनका प्रजनन काल शुरू होता है तब प्रत्येक नर को अपना क्षेत्र (territory) स्थापित कर उसकी रक्षा करनी पड़ती है और इसीलिए बदलते मौसम के साथ बड़े समूह टूट जाते हैं और हमें मोर अकेले, जोड़े में या फिर 3-4 के छोटे समूह में ही देखने को मिलते हैं। मानसून के बाद भी इनमें परजीवियों का संक्रमण अधिक ही रहता है। तथा इस मौसम में हमें ज्यादातर मादाएं और किशोर एक समूह में देखने को मिलते हैं, जबकि अधिकांश नर अभी भी अकेले ही रहते हैं।
इस प्रकार, मोर जोखिम और लाभों को मापते हुए अपने समूह और व्यवहार को बदलते हैं।
परजीवी के फैलने का एक और दिलचस्प पहलू है:
क्या आपने कभी सोचा है कि, मनुष्यों द्वारा दिया गया भोजन कैसे पक्षियों में बीमारियों की संभावनाओं को बदलता है।
फसल के लिए नुक्सान माने जाने के बावजूद, रणथंभौर के आसपास के गांवों में स्थानीय लोग साल भर मंदिरों में एक दैनिक अनुष्ठान के रूप में भारतीय मोर को अनाज देते हैं। इसे “चुग्गा डालने का रिवाज (food provisioning)” कहा जाता है। इस चलन के तहत गाँव वालों द्वारा मंदिर परिसर में और आसपास रोज़ाना औसतन 15 किलों अनाज वन्यजीवों के लिए उपलब्ध कराया जाता है। यह अनाज मोरों के लिए पौष्टिक भोजन का एक विश्वसनीय स्रोत है। अब ऐसे में आसानी से मिलने वाले पौष्टिक भोजन को पाने का मौका कौन गवाना चाहेगा? नतीजतन, जिस स्थान पर अनाज डाला जाता है, आसपास के क्षेत्रों के कई समूह वहां इकट्ठे हो जाते हैं। जैसे ही कई अलग-अलग समूहों के मोर भोजन स्थल पर एक साथ आते हैं, उन जगहों पर आसानी से संक्रमण फैलने की संभावना बढ़ जाती है। और ऐसा ही कुछ हमने अध्यन में भी देखा।
भोजन स्थलों से इकट्ठे किए गए मल के नमूनों में किसी अन्य स्थानों के अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में परजीवी पाए गए। और इसीलिए ये भोजन स्थल बिमारी का “केंद्र (Hotspot)” बन सकते हैं। इसीलिए मोर तो क्या किसी भी पक्षियों को भोजन डालना पक्षियों के लिए लाभदायक नहीं बल्कि हानिकारक होता है।
मोर के इन दिलचस्प समूह व्यवहारों से हम क्या सीखते हैं?
मनुष्यों की तरह ही, मोर भी बड़े समूहों में रह सकते हैं। परन्तु, ये बदलती परिस्थितियों के अनुसार लाभ को अधिकतम और नुकसान को कम करने के लिए अपने व्यवहार को बदलते हैं। जब बीमारी होने की संभावना अधिक होती है, तो ये आत्मनिर्भर या छोटे समूहों में रहना पसंद करते हैं। लेकिन जब अच्छा भोजन प्राप्त करने की बात आती है, तो ये दूसरों से होने वाले संक्रमण के प्रति सारी सावधानियों को भूल जाते हैं।
क्या यह हम मनुष्यों जैसा व्यवहार नहीं है?
Cover photo credit: Mr. Deepak Mani Tripathi