राजस्थान में सर्दियों के मेहमान: ग्रिफॉन गिद्ध

राजस्थान में सर्दियों के मेहमान: ग्रिफॉन गिद्ध

“सर्दियों के मेहमान प्राचीन युग गिद्ध “ग्रिफॉन”, जिनके आगमन से लगता है…गिद्धों की संख्या में वृद्धि हो रही है।”

राजस्थान में, अचानक जब सर्दियों में गिद्ध देखने को मिलते हैं तो अक्सर लोग ये अनुमान लगाते हैं कि यहाँ गिद्धों की आबादी में बढ़ोतरी हो रही है। परन्तु वास्तव में इनमें से अधिक्तर तो हमारे सर्दियों के मेहमान होते हैं अतः प्रवास कर यहाँ आते हैं। इन प्रवासी गिद्धों के समूहों में मुख्यतः ग्रिफ़ॉन कुल की दो प्रजातियां यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन देखने को मिलती है जिनके बारे में हम इस आलेख में जानेंगे…

“ग्रिफ़ॉन (Griffon)”, यह नाम ग्रीक भाषा के शब्द “Gryphos” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है “हुक जैसी नाक वाला प्राणी” और यह स्पष्ट रूप से गिद्धों कि हुक के आकार वाली चोंच कि ओर इशारा करता है। साथ ही पौराणिक कहानियों में ग्रिफ़ॉन एक ऐसा प्राणी माना गया है जिसका सिर एवं पंख ईगल के तथा शरीर, टाँगे और पूँछ शेर कि होती है। आज विश्व में दो प्रकार के ग्रिफॉन पाए जाते हैं यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन और इन्हें प्राचीन युग गिद्ध (Old World Vultures) भी कहा जाता है।

हिमालयन ग्रिफ़ॉन, भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालय में पाया जाने वाला सबसे बड़े आकार का पक्षी है (फोटो: श्री रजत चोरडिया)

यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (Eurasian Griffon) जिसे “Gyps fulvus” नाम से भी जाना जाता है, एक बड़े आकार का गिद्ध है जिसके पंखों का विस्तार लगभग 300 सेमी तक होता है। यानि एक 6 फ़ीट का आदमी अपने दोनों हाथों को फैलाये तो उसके हाथों के विस्तार से भी बड़ा इसके पंखों का विस्तार है। विभिन्न प्रजातियों के समूह में इसे आसानी से पहचाना जा सकता क्योंकि इसका शरीर मुख्यरूप से तीन रंगों का होता है जिसमें सिर व गर्दन सफ़ेद, शरीर हल्के भूरे रंग और पंख गहरे रंग के होते हैं। और सबसे ख़ास इसकी गर्दन पर सफेद पंखों का एक मफलर जैसा कॉलर होता है। इस गिद्ध की वितरण सीमा बहुत बड़ी है, यह मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप, भारत से पुर्तगाल और स्पेन में पाए जाते हैं परन्तु राजस्थान में ये किस ओर से आते है यह स्पष्ट नहीं हो पाया है क्योंकि अभी तक इनको रेडियो टैगिंग कर इनके प्रवास मार्ग का अध्यन्न नहीं किया गया है। पक्षी विशेषज्ञ डॉ दाऊ लाल के अनुसार राजस्थान में यूरेशियन ग्रिफ़ॉन कज़ाकिस्तान, अफगानिस्तान और बलुचिस्तान से आते हैं अर्थात इनका प्रवास मार्ग मध्य-पूर्व से दक्षिणी एशिया की ओर है। इस मार्ग को यूरेशियन ग्रिफॉन के अलावा अन्य प्रजातियां भी इस्तेमाल करती हैं।

वहीँ दूसरी ओर हिमालयन ग्रिफ़ॉन (Gyps himalayensis) भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालय में पाया जाने वाला सबसे बड़े आकार का पक्षी है तथा यह दो सबसे बड़े प्राचीन युग गिद्धों (Old World Vultures) में से एक है। यह प्रजाति मुख्यरूप से हिमालय पर्वत श्रृंखला में पायी जाती है और इसी से इसका नाम हिमालयन ग्रिफ़ॉन रखा गया है। एक व्यस्क हिमालयन ग्रिफ़ॉन को उसके बड़े आकार, हल्के भूरे रंग के शरीर और गहरे व लगभग काले रंग के पंखों व पूंछ के कारण आसानी से यूरेशियन ग्रिफ़ॉन से अलग की किया जा सकता है परन्तु इसकी गर्दन का कॉलर मफलर जैसा नहीं बल्कि हल्के-भूरे लम्बे नोंकदार पंखों के गुच्छे जैसा होता है। यह मध्य एशिया के ऊपरी इलाकों के मूल-निवासी है, जो पश्चिम में कज़ाकिस्तान और अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पश्चिमी चीन, नेपाल, भूटान और मंगोलिया तक वितरित हैं तथा सर्दियों में उत्तरी भारत से दक्षिणी की ओर प्रवास करते हैं और इसी दौरान ये राजस्थान आते हैं। यदि हम हिमालय पर्वत श्रृंखला को देखे तो उसे चार भागों में बांटा जा सकता है; पाकिस्तान (POK), जम्मू कश्मीर, नेपाल और तिब्बत। राजस्थान में आने वाली हिमालयन ग्रिफ़ॉन कि आबादी पकिस्तान व् जम्मू कश्मीर से आती है, जबकि नेपाल वाली आबादी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हिमांचल प्रदेश जाती है तथा तिब्बत कि आबादी चीन कि ओर प्रवास करती है।

राजस्थान में इन दोनों गिद्ध प्रजातियों को देखने का सबसे अच्छा स्थान है “जोड़बीड़” जहाँ ये एक साथ हजारों की तादाद में एकत्रित होते हैं यहाँ इन्हें आसानी से मृत जानवरों का मांस खाते और खेजड़ी व पीलू के पेड़ों पर बैठे देखा जा सकता है। जोड़बीड़ के अलावा इन्हें जैसलमेर में लाठी नामक स्थान पर भी देखा जा सकता है।

यूरेशियन ग्रिफ़ॉन

हिमालयन ग्रिफ़ॉन

आकार

95-105 सेमी 115-125 सेमी

पंख विस्तार

270-300 सेमी 270-300 सेमी

निरूपण

सिर व गर्दन सफ़ेद और गर्दन के आधार पर सफेद पंखों की एक कॉलर होती है।

शरीर हल्के भूरे रंग और पंख गहरे रंग के होते हैं।

चोंच व आँखे पीली तथा टाँगे व पंजे सलेटी ग्रे रंग के होते हैं और पूँछ काली होती है।

सिर हल्का पीला तथा गर्दन पर हल्के भूरे नोंकदार पंखों की एक कॉलर होती है।

शरीर मुख्यतः क्रीम और काला होता है। पृष्ठ भाग हल्का भूरा तो वहीँ पूंछ के पंख काले रंग के होते हैं।

छोटी पीली चोंच काफी मजबूत और सिरे से हुक जैसी होती है। टाँगे भूरे रंग के पंखों से ढकी होती हैं तथा पैर हरे-ग्रे से सफ़ेद तक होते हैं।

किशोर

किशोरों को आसानी से पहचाना जा सकता है क्योंकि व्यस्क होने तक उनकी कॉलर भूरे रंग की रहती है। किशोर गहरे चॉकलेटी-काले रंग के होते हैं। सिर पूरी तरह से सफ़ेद और गर्दन पर गहरे चॉकलेटी पंखों की एक कॉलर होती है। अप्पर-विंग कोवेर्ट्स (Upperwing coverts) पर हल्के भूरे रंग की लकीरें (streakings) होती हैं। इनके अंडर विंग कोवेर्ट्स (Underwing coverts) पर दो सफ़ेद बैंड होते हैं और इन बैंड के कारण ही इसे सामान देखने वाले सिनेरियस वल्चर के किशोर से अलग पहचाना जा सकता है।

यूरेशियन ग्रिफ़ॉन (फोटो: श्री रजत चोरडिया)

यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, एक बड़े आकार का गिद्ध है जिसके पंखों का विस्तार लगभग 300 सेमी तक होता है। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)

इन दोनों गिद्ध प्रजातियों की खोज एवं वर्गिकी में इतिहास के रोचक पहलु छुपे हैं। जब हम यूरेशियन ग्रिफ़ॉन के बारे में पढ़ते हैं तो इसके वैज्ञानिक नाम के साथ दो वैज्ञानिकों कार्ल लुडविग वॉन हैब्लिट्ज़ (Carl Ludwig von Hablitz) और जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) का नाम देखने को मिलता है। हैब्लिट्ज़ एक रूसी वनस्पति वैज्ञानिक थे जिन्होंने वर्ष 1783 में द्विपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए यूरेशियन ग्रिफ़ॉन को Gyps fulvus नाम दिया। परन्तु हैब्लिट्ज़ ने केवल एक वाक्य में इसका विवरण दिया था जिससे इस गिद्ध के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती थी। इसके पश्चात वर्ष 1788 में एक जर्मन प्रकृतिविद गमेलिन ने यूरेशियन ग्रिफ़ॉन का सबसे पहला विस्तृत वर्णन दिया, जिसे उन्होंने कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) द्वारा लिखित पुस्तक Systema Naturae के 13 वें संस्करण में प्रकाशित किया गया। कुछ पुस्तकों कि समीक्षा करने पर यह भी पाया जाता है कि व्यापक विस्तार होने के कारण एक समय पर इसकी दो उप-प्रजातियां मानी जाती थी; G.f. fulvus को रुसी वनस्पति वैज्ञानिक हैब्लिट्ज़ ने वर्ष 1783 में पर्शिया से दर्ज की और G.f. fulvescens को वर्ष 1869 में ऐ ओ ह्यूम (A O Hume) ने भारत से दर्ज की। ह्यूम, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के संस्थापक थे तथा इन्हें “Father of Indian Ornithology” के नाम से भी जाना जाता है। ह्यूम ने वर्ष 1869 में जहाँ एक ओर यूरेशियन ग्रिफॉन की एक उपप्रजाति दर्ज की वहीं दूसरी ओर उसी वर्ष गिद्ध की एक नयी प्रजाति “हिमालयन ग्रिफ़ॉन” को भी खोजा।

ब्रिटिश पक्षीविज्ञान संघ के अध्यक्ष “Lord Lilford” द्वारा बनाया गया तथा उनकी पुस्तक “Colored figures of The Birds of The British Islands” में प्रकाशित यूरेशियन ग्रिफॉन का चित्र

जिसके बारे में ह्यूम, अपनी पुस्तक “My Scrapbook” में बताते हैं कि वे वर्ष 1867 में धर्मशाला के पास पिकनिक मनाने गए हुए थे, तब पहली बार उन्होंने इस पक्षी को एक ऊँची चट्टान पर बैठे हुए देखा। उन्हें लगा की चट्टान ज्यादा ऊँची नहीं है तथा एक पत्थर फेक कर उसे उड़ाया जाए ताकि उसकी पहचान की जा सके। परन्तु जब नीचे से पत्थर फेका गया तो वह चट्टान कि आधी ऊंचाई तक भी नहीं पहुंचा। ह्यूम को चट्टान की ऊंचाई और उस तक पहुँचने की कठिनाई का एहसास हो चूका था। परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और दो पहाड़ी लोगों को बुलाया, जिनके साथ वे चट्टान के ऊपर पहुंचे। इंसानों को देख गिद्ध तो उड़ गया परन्तु वहां एक चूज़ा था, जिसे देख ह्यूम ने अगले वर्ष का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। अगले वर्ष 1868 वहां दो घोंसले मिले और साथ ही गिद्ध भी दिखाई दिया। उस गिद्ध को देख ह्यूम को ये विचार आया की यह गिद्ध कुछ अलग है, तथा पक्षी विशेषज्ञ Blyth और Jerdon ने हमें भारतीय गिद्धों की केवल तीन प्रजातियां (Gyps fulvus, Gyps indicus, Gyps bengalensis) बतायी हैं जबकि चार होनी चाइये। इसके पश्चात ह्यूम ने इस गिद्ध को और ध्यानपूर्वक तरीके से जाँचा और एक नयी प्रजाति के रूप में स्थापित किया तथा वर्ष 1869 में द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार “Gyps himalayensis” नाम दिया।

प्रजनन (Breeding):

यूरेशियन ग्रिफ़ॉन और हिमालयन ग्रिफ़ॉन, दोनों प्रजातियां लगभग 4 से 5 साल की उम्र में प्रजनन के लायक हो जाती हैं और ये पूरी तरह से मोनोगैमस (monogamous) होती हैं अर्थात नर व मादा की जोड़ी आजीवन साथ रहती है। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन, प्रजनन काल में घोंसले की चट्टानों के आसपास एक विशेष उड़ान का प्रदर्शन करते हैं जिसमें साथी जोड़ी एक-दूसरे के पीछे रहकर आसमान में गोल-गोल चक्कर लगाते हैं। दोनों साथी एक दूसरे के इतने करीब रहते हैं कि नीचे से देखने पर ऐसा लगता हैं जैसे एक ही गिद्ध उड़ रहा है। यह आमतौर पर चट्टानों के खोखले भागों में, चट्टानों के किनारे या गुफाओं में 40 से 50 के समूहों में घोंसले बनाते व प्रजनन करते हैं। परन्तु पाकिस्तान (POK), टर्की और अफगानिस्तान में पायी जाने वाली आबादी पेड़ों पर घोंसले बनाती हैं और यही कारण है कि राजस्थान में इनको पेड़ों पर बैठे देखा जा सकता है। जनवरी से फरवरी के बीच मादा एक अंडा देती है जिसे लगभग डेढ़ से दो महीनों (45 से 60 दिनों) तक इन्क्यूबेट किया जाता है। अंडा देने के समय से लेकर जब तक चूज़ा अपनी उड़ान नहीं भर लेता मादा एक पल के लिए भी अपने घोंसले को अकेला नहीं छोड़ती है परिणामस्वरूप, नर गिद्ध को मादा व चूज़े के लिए भोजन व्यवस्था करनी पड़ती है। अण्डों से बाहर आने के बाद नर व मादा मिलकर चूज़े का लगभग 113 से 159 दिनों तक ख़याल रखते हैं। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन से बिलकुल विपरीत हिमालयन ग्रिफ़ॉन में किसी भी प्रकार का प्रणय प्रदर्शन (courtship display) या विशेष प्रकार की उड़ान नहीं देखी जाती है परन्तु इनमें प्रजनन काल में मादाओं की छाती के पास एक हल्के लाल रंग आभा देखी जाती है।

हिमालयन ग्रिफ़ॉन, आमतौर पर घोंसले वाली जगह पर ही प्रजनन करते हैं, लेकिन कभी भी जमीन पर नहीं। यह आमतौर पर साल-दर-साल एक ही घोंसले के स्थान पर लौटते हैं। यह चट्टानों के खोखले भागों में, चट्टानों के किनारे या गुफाओं में छोटे समूहों में घोंसले बनाते व प्रजनन करते हैं। अन्य गिद्धों की तुलना में, वयस्क हिमालयन ग्रिफ़ॉन कम मिलनसार होते हैं, इसीलिए ये अकेले या फिर 5 से 6 घोंसलों की कॉलोनी में रहना पसंद करते हैं। घोंसले बनाने में नर व मादा दोनों बराबर भूमिका निभाते हैं। अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि कई बार यह पुराने घोंसले की मरम्मत करके उनको भी इस्तेमाल कर लेते हैं। आमतौर पर दिसंबर से मार्च तक घोंसले बनाए या मरम्मत किए जाते हैं। प्रत्येक मादा द्वारा जनवरी से अप्रैल के बीच केवल एक ही अंडा दिया जाता है। फरवरी से मई के बीच नर व मादा बारी-बारी से अंडे को सेते है और जुलाई से सितंबर तक चूजों का लालन-पालन किया जाता है। शुरूआती दिनों में ये अपने पेट से एक गाढ़ा, सफ़ेद तरल पदार्थ निकालते है, जो चूजों के लिए प्राथमिक खाद्य स्रोत के रूप में कार्य करता है, और फिर बाद में इनको मांस के छोटे टुकड़े खिलाना शुरू किया जाता है। कुल मिलकर, देखा जाए तो दोनों नर और मादा सामान जिम्मेदारियां निभाते हैं।

आहार व्यवहार (Feeding Behaviour):  

गिद्ध केवल मृत जानवरों का मांस खाते हैं। ग्रिफ़ॉन गिद्धों में गंध लेने की शक्ति कम होती है इसीलिए अपने भोजन को खोजने के लिए ये पूरी तरह से अपनी तेज दृष्टि पर निर्भर रहते हैं। जब एक गिद्ध को कोई मारा हुआ जानवर मिल जाता है, तो दूसरे गिद्ध उसको नीचे जाते देख अन्य गिद्ध भी नीचे उतर जाते हैं। यूरेशियन ग्रिफ़ॉन की चोंच बाकि गिद्धों जितनी मजबूत नहीं होती है इसीलिए ये मृत जानवरों की कठोर चमड़ी को फाड़ने में असमर्थ होते हैं, तथा ये दूसरी गिद्ध प्रजातियों द्वारा शव को खोलने या फिर सूरज कि गर्मी द्वारा चमड़ी के फटने का इंतज़ार करते हैं। यह बड़े समूहों में अन्य गिद्ध प्रजातियों के साथ मिलकर खाना खा लेते हैं। वहीँ दूसरी और हिमालयन ग्रिफ़ॉन अपने बड़े आकार के कारण अन्य गिद्धों के साथ भोजन करते समय ये अपना वर्चस्व स्थापित रखते हैं तथा अन्य गिद्ध भी इनसे दूर रहते हैं। इन गिद्धों के मुर्दाखोर होने के कारण ही तो आज इनकी आबादी विभिन्न प्रकार के खतरों का सामना कर रही है।

ग्रिफ़ॉन बड़े समूहों में अन्य गिद्ध प्रजातियों के साथ मिलकर खाना कहते हैं। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)

खतरे (Threats):

गिद्ध मृत जानवरों को खाकर हमारे पर्यावरण को साफ़-सुथरा रखते हैं साथ ही पारिस्थितिक तंत्र में भोज्य श्रृंखला को भी बनाये रखते हैं। एक समय था जब भारत में गिद्धों कि बड़ी आबादी पायी जाती थी परन्तु पशुओं को दिये जाने वाली दर्द निवारक दवाई डाइक्लोफिनॅक (Diclofenac) है के कारण भारत से गिद्धों कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा (97%- 99%) खतम हो गया। परिणामस्वरूप आज हिमालयन ग्रिफ़ॉन IUCN की रेड डाटा बुक के अनुसार खतरे में (Near Threatened) है। वहीं दूसरी ओर क्योंकि यूरेशियन ग्रिफॉन भारत में प्रवासी प्रजाति है उनकी आबादी पर ज्यादा बुरा असर नहीं पड़ा। परन्तु स्पेन में डाइक्लोफिनॅक जैसी ही एक दवाई फ्लूनिक्सिन (Flunixin) के कारण यूरेशियन ग्रिफॉन वहां खत्म होने वाली पहली गिद्ध प्रजाति थी।

डाइक्लोफिनॅक के बंद होने के बाद अब ketoprofen और aceclofenac नामक दवाइयां गिद्धों के लिए हानिकारक हैं। (फोटो: श्री रजत चोरडिया)

भारत सरकार द्वारा डाइक्लोफिनॅक की बिक्री व् इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करवा दिया गया है परन्तु इसके अलावा भी गिद्धों पर कई और खतरे भी हैं जिनमें से सबसे मुख्य है भोजन की उपलब्धता।

शहरी इलाकों में कचरा निस्तारण विधियों (Solid waste management) के चलते गिद्धों को प्रयाप्त भोजन नहीं मिल पाता है जिसके कारण वे एक स्थान से दूसरे स्थान भोजन के लिए घूमते हैं तथा उनकी आबादी पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ है जोधपुर स्थित “केरु डंप” के पास, जहाँ प्रतिवर्ष सर्दियों में हिमालयन ग्रिफ़ॉन और यूरेशियन ग्रिफॉन एक बड़ी संख्या में आया करते थे। परन्तु वर्ष 2008 में, नगरपालिका अपशिष्ट प्रबंधन विभाग द्वारा केरू डंपिंग क्षेत्र, में मृत पशुओं के शवों का प्रक्रमण संयंत्र शुरू किया। इसके चलते अब शवों को सीधे मशीन में डालकर एक पाउडर के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है, जो कृषि और मछलियों के भोजन के रूप में उपयोग में लिया जाता है। परिणामस्वरूप वहां आने वाले प्रवासी गिद्ध अब बीकानेर में जोड़बीड़ की ओर आने लगे हैं।

कचरा निस्तारण विधियों के अलावा दूसरी समस्या है “कचरे के ढेरों में आग लगाई जाना” और इसका उदाहरण है उदयपुर का डंपिंग क्षेत्र, जहाँ बड़ी तादाद में घरेलु व बूचड़खानों का कचरा डाला जाता था। पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलने के कारण वहां गिद्धों की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती थी। परन्तु फिर वहां नियमितरूप से कचरा जलाने की प्रकिया शुरू की गयी, जिसके चलते वहां हर समय प्लास्टिक का हानिकारक धुँआ रहने लगा और धीरे-धीरे वहां से गिद्ध पूरी तरह से चले गए है। आज वहां हालत कुछ ऐसे है की हर समय कहीं न कहीं धुंआ उठता ही रहता है तथा गिद्ध तो क्या वहां अन्य पक्षी भी मुश्किल से दिखाई देते हैं।

इन डंपिंग क्षेत्रों के आसपास आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी भी गिद्धों के लिए एक बड़ा खतरा बन रही है। डंपिंग क्षेत्रों के आसपास कुत्ते, गिद्धों के साथ न सिर्फ भोजन के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, बल्कि कई बार गिद्धों के ऊपर हमला भी कर देते हैं। भोजन की कमी और आवारा कुत्तों की आबादी में वृद्धि ने गिद्धों को पलायन के लिए मजबूर किया है। डंपिंग क्षेत्र के आसपास बिजली की तारों से करंट लग जाने के कारण भी गिद्धों की कई बार मौत हो जाती है।

इसके अलावा अभी भी कुछ दवाइयां ऐसी हैं जो गिद्धों के हानिकारक हैं। डॉ बोहरा के अनुसार  डाइक्लोफिनॅक के बंद होने के बाद अब बाज़ार में ketoprofen और aceclofenac नामक दवाइयां बिकती हैं तथा इन दवाइयों का भी गिद्धों के ऊपर जानलेवा प्रभाव पड़ता है।

इस समय की आवश्यकता यह है की गिद्धों के संरक्षण के लिए कड़े कदम उठाये जाए जिसमे विशेष रूप से उनके लिए भोजन की उपलब्धता की ओर ध्यान दिया जाना चाइये।

सन्दर्भ:
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  • Saran, R.P. and Purohit, A. 2012. Eco-transformation and electrocution. A major concern for the decline in vulture population in and around Jodhpur. Volume 3(2): 111-118
  • Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
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