सरिस्का बाघ अभयारण्य में भामर मधुमक्खी पर एक अध्ययन

सरिस्का बाघ अभयारण्य में भामर मधुमक्खी पर एक अध्ययन

“सरिस्का टाइगर रिजर्व में “भामर मधुमक्खी” द्वारा छत्ता बनाने के लिए बरगद कुल के बड़े एवं पुराने पेड़ों को प्राथमिकता दिया जाना पुराने पेड़ों की महत्वता पर प्रकाश डालती है।”

हमारी प्रकृति में विभिन्न प्रकार के जीव “परागणकर्ता (पोलिनेटर)” की भूमिका निभाते हैं जो न सिर्फ पर-परागण (Cross pollination) को बढ़ावा देते हैं बल्कि आनुवंशिक विविधता को बढ़ाने, नई प्रजातियों के बनने और पारिस्थितिकी तंत्र में स्थिरता लाने में भी योगदान देते हैं। यह परागण, सहजीविता पर आधारित पारिस्थितिक तंत्र प्रक्रिया का एक ऐसा उदाहरण है जो उष्णकटिबंधीय स्थानों पर रहने वाले मानव समुदायों को एक सीधी सेवा प्रदान करता है और इसीलिए सभी परागणकर्ता पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं। परन्तु, परागणकर्ताओं की बहुतायत, विविधता और स्वास्थ्य को मानव गतिविधियों जैसे मानवजनित जलवायु परिवर्तन, निवास स्थान के विनाश और पर्यावरण प्रदूषकों से खतरा है।

ऐसी ही एक परागणकर्ता है, “बड़ी मधुमक्खी” जिसका वैज्ञानिक नाम “एपिस डोरसाटा (Apis dorsata)” है और राजस्थान में इसे “भामर” नाम से जाना जाता है। भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में उष्णकटिबंधीय वनों का विखंडन बहुत तेजी से हुआ है, फिर भी ऐतिहासिक रूप से मधुमक्खियों पर निवास स्थान के विखंडन के प्रभावों पर बहुत कम अध्ययन किये गए हैं और जो किये गए हैं वो सिर्फ नवोष्ण-कटिबंधीय क्षेत्रों पर आधारित हैं।

भामर, एशिया भर के उष्णकटिबंधीय वर्षावनों और कृषि क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण शहद उत्पादक है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

हाल ही में राजस्थान के वन अधिकारी श्री गोविन्द सागर भरद्वाज एवं साथियों द्वारा अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” में भामर “Apis dorsata” के छत्तों के स्वरूप एवं वितरण पर एक अध्ययन किया है, जो की “Indian Forester” में प्रकाशित हुआ है, इसमें भामर द्वारा पसंदीदा पौधे व वृक्ष प्रजातियों की पहचान और विखंडित एवं घने वन क्षेत्रों में बामर के छत्तों की बहुतायत की तुलना भी की गई (Bhardwaj et al 2020)।

भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है जो विविध पारिस्थितिक तंत्रों से युक्त है जिनमें विभिन्न प्रकार की वनस्पति प्रजातियां पायी जाती हैं तथा विभिन्न मधुमक्खी प्रजातियों के लिए अनुकूल निवास स्थान प्रदान करती है। इन सभी प्रजातियों के बीच, भामर मूल रूप से एक जंगली मधुमक्खी प्रजाति हैं क्योंकि यह वन क्षेत्रों में अपना छत्ता बनाती हैं। यह एपिस जीनस में सबसे बड़ी मधुमक्खियों में से एक है जिसकी कुल लंबाई 17 से 20 मिमी तक होती है। यह बड़े एवं घने पेड़ों की शाखाओं, चट्टानों और पानी के टैंकों जैसी मानव निर्मित संरचनाओं पर बड़े आकार के छत्तों का निर्माण करते हैं।

भामर चट्टानों की दरारों के पास भी छत्तों का निर्माण करते हैं (फोटो: डॉ. गोविन्द सागर भारद्वाज)

भामर, दक्षिण और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में पायी जाती है। एशिया में उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों और कृषि क्षेत्रों में एक जंगली परागणकर्ता और शहद उत्पादक के रूप में इसकी भूमिका व्यापक रूप से सराहनीय मानी जाती है। यह एक संगठित रक्षा प्रतिक्रिया या हमला करने के लिए जानी जाती है तथा इसकी एक कॉलोनी हर साल लगभग 100-200 किमी दूरी तक प्रवास करती है, और इनका प्रवास सूखे और बरसात के मौसम पर निर्भर करता है। इनकी प्रत्येक कॉलोनी में आमतौर पर एक रानी, ​​कई नर और हज़ारों कार्यकर्ता मधुमक्खियां होती हैं। यह अपने छत्तों का निर्माण एकल या फिर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक निर्माण करते हैं तथा छत्ते जमीन से लगभग 6 मीटर तक की ऊंचाई तक होते है।

इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने अगस्त 2018 में भामर कॉलोनियों के लिए सरिस्का बाघ परियोजना क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। हर क्षेत्र सम्बंधित चौकी के फ्रंटलाइन स्टाफ (बीट ऑफिसर) के अनुभव के आधार पर भामर कॉलोनियों को खोजा गया तथा उनकी गणना की गई। जिन पेड़ों पर भामर कॉलोनियां पायी गई उन सभी की परिधि का माप दर्ज किया गया, नामों की सूचि बनायी गई, कॉलोनियों की तस्वीर ली गई तथा जीपीएस लिया गया। कॉलोनी के आवास सम्बंधित अन्य सूचनाएं भी दर्ज की गई।

भामर कई बार एक ही बड़े पेड़ पर 10- 25 छत्तों तक का निर्माण करते हैं(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

अध्ययन के लेखकों ने सम्पूर्ण सरिस्का क्षेत्र का सर्वेक्षण कर कुल 242 भामर कॉलोनियां पाई जिनमें से 161 कॉलोनियां पेड़ों पर, 78 चट्टानों, 2 झाड़ियों और 3 मानव निर्मित इमारतों पर बानी हुई थी। दर्ज की गई सभी सूचनाओं की समीक्षा से ज्ञात हुआ की सबसे अधिक 102 कॉलोनियां बरगद कुल के पेड़ों पर बनाई जाती हैं तथा इनमें से 80.12% कॉलोनियां 100 सेमी से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर देखी गई। बरगद कुल के पेड़ों पर अधिक कॉलोनियां बनाने का कारण इन पेड़ों का बड़ा आकार हो सकता है। परन्तु यदि पेड़ का बड़ा आकार और उसके तने की परिधि ही मायने रखती है तो ढाक (Butea monosperma) के पेड़ की औसतन  परिधि सालार (Boswellia serrata) के पेड़ से ज्यादा होती है। अब क्योंकि ढाक सरिस्का क्षेत्र में बहुतायत में मौजूद है, परिणामस्वरूप ढाक के प्रत्येक पेड़ पर छत्ता मिलना चाइये था, परन्तु सालार पेड़ पर अधिक कुल 14 छत्ते पाए गए और ढाक पर सिर्फ 3 छत्ते ही देखे गए। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि ढाक का पेड़ ग्रामीणों द्वारा मवेशियों को खिलाये की वजह से लगातार कांटा जाता है तथा भामर के लिए यह शांतिपूर्वक स्थान नहीं है।

इनके अलावा 34 कॉलोनियां चट्टानों पर भी देखी गई। अध्ययन के दौरान एक बरगद का पेड़ ऐसा भी देखा गया जिसकी परिधि 425 सेंटीमीटर की थी और उसपर 15 भामर कॉलोनियां बानी हुई थी। घने वन क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर में 0.25 कॉलोनियां और विखंडित वन क्षेत्र में 0.15 कॉलोनियां दर्ज की गई।

भामर के 80% छत्तों का एक मीटर से अधिक परिधि वाले पेड़ों पर पाया जाना, वनों में बड़े पेड़ों की भूमिका व महत्वता को दर्शाता है और ये केवल तभी संभव है जब ऐसे परिदृश्यों को संरक्षण दिया जाता है।

मधुमक्खी कॉलोनियों की स्थिति का आकलन करने के लिए अतीत में बहुत कम अध्ययन किए गए हैं, और ऐसे में वर्तमान अध्ययन से निकली किसी भी जानकारी की तुलना व टिप्पणी करने की गुंजाइश बहुत कम है। हालांकि इस डेटा को आधार मान कर मानवजनित हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली चुनौतियों के संबंध में मधुमक्खियों पर गहन अध्ययन एवं उनकी स्थिति की निगरानी की जा सकती है। जैसे बाघ परियोजना क्षेत्र के लिए बाघ को संकेतक माना जाता है वैसे ही मधुमक्खियों के छत्तों की स्थिति को वन पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य का सूचक माना जा सकता है।

सन्दर्भ:
  • Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Singh, H., Kumar, A. and Reddy, G.V. 2020. A survey on demonstrating pattern of Apis dorsata colonization in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. Indian Forester, 146 (8) : 682-587, 2020 DOI: 10.36808/if/2020/v146i8/154146

 

 

अरावली के सूंदर एवं महत्वपूर्ण वृक्ष

अरावली के सूंदर एवं महत्वपूर्ण वृक्ष

अरावली राजस्थान की मुख्य पर्वत शृंखला है जो छोटे और मध्य आकर के वृक्षों से आच्छादित है, इन वृक्षों में विविधता तो है परन्तु कुछ वृक्षों ने मानो पूरी अरावली में बहुतायत में मिलते है जिनमें सबसे महत्वपूर्ण वृक्षों का विवरण यहाँ दिया गया है।
  1. धोक (Anogeissus pendula) :- यदि रेगिस्तान में खेजड़ी हैं तो, अरावली के क्षेत्र में धोक सबसे अधि० 8क संख्या में मिलने वाला वृक्ष हैं। कहते हैं लगभग 80 प्रतिशत अरावली इन्ही वृक्षों से ढकी हैं।  अरावली का यह वृक्ष नहीं बल्कि उसके वस्त्र हैं जो समय के साथ उसका रंग बदलते रहते हैं।  सर्दियों में इनकी पत्तिया  ताम्बई लाल, गर्मियों में इनकी सुखी शाखाये धूसर और बारिश में पन्ने जैसे हरी दिखने लगती हैं।  अरावली के वन्य जीवो के लिए यदि सबसे अधिक पौष्टिक चारा कोई पेड़ देता हैं तो वह यह हैं। इनके उत्तम चारे की गुणवत्ता के कारण लोग अक्सर इन्हे नुकसान भी पहुंचाते रहते हैं।  इनकी कटाई होने के बाद इनका आकर एक बोन्साई के समान बन जाता हैं, एवं पुनः पेड़ बनना आसान नहीं होता क्योंकि अक्सर इन्हे बारम्बार कोई पालतू पशु चरते रहते हैं, और इनके बोन्साई आकार को बरकरार रखते हैं।  यदि खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष नहीं होता तो शायद धोक को यह दर्जा मिलता।

2. तेन्दु एवं विषतेन्दु (Diospyros Melanoxylon) and (Diospyros cordifolia) :- बीड़ी जलाईल ले … जिगर मा बड़ी आग है
बस हर साल इस जिगर की आग को बुझाने के लिए हम बीड़ी के रूप में 3 से 4 लाख टन तेंदू के पत्ते जला देते हैं। तेन्दु का उपयोग बीड़ी के उत्पादन के लिए किया जाता है। देश में इनका अत्यधिक उत्पादन होना , उम्दा स्वाद होना, पते का लचीलापन, काफी समय तक आसानी से नष्ट नहीं होना और आग को बनाए रखने की क्षमता के कारण तेन्दु की पतियों को बीड़ी बनाने के लिए काम लिया जाता है ।जाने कितने लोग बीड़ी बनाने और पते तोड़ने के व्यापर में शामिल है। स्थानीय समुदायों को यह जीवनयापन के लिए एक छोटी कमाई भी देता है। तेंदू चीकू (सपोटा) परिवार से संबंधित है और वे स्वाद में भी कमोबेश इसी तरह के होते है। तेन्दु या टिमरू के फल को खाने का सौभाग्य केवल भालु, स्थानीय समुदाय और वन रक्षको को ही मिलता है।तेंदू के पेड़ का एक और भाई है- जिसे विषतेन्दु (डायोस्पायरस कॉर्डिफोलिया) कहा जाता है, जिसके फल मनुष्यों के लिए खाने योग्य नहीं बल्कि बहुत ही कड़वे होते हैं, लेकिन कई जानवर जैसे कि सिवेट इन्हें नियमित रूप से खाते हैं।विष्तेन्दु वृक्ष एक छोटी हरी छतरी की तरह होता है और चूंकि यह पतझड़ी वन में एक सदाबहार पेड़ है, बाघों को इनके नीचे आराम करना बहुत पसंद है। आदित्य सिंह हमेशा कहते हैं कि अगर आप गर्मियों में बाघों को खोजना चाहते हैं तो विष्तेन्दु के पेड़ के निचे अवस्य खोज करें। मैंने बाघ के पर्यावास की एक तस्वीर साझा की और आपको आसानी से पता चल जाएगा कि बाघों के लिए सबसे अच्छा पेड़ कौन सा है और यह छोटा हरा छाता क्यों एक अच्छा बाघों का पसंदीदा स्थान होता है? आप तस्वीर में पेड़ अवस्य ढूंढे।

3. कडायाSterculia urens ):-इसे  स्थानीय रूप से कतीरा, कडाया (कतीरा या कडाया गोंद के लिए प्रसिद्ध) कहा जाता है, लेकिन सबसे लोकप्रिय नाम है ‘घोस्ट ट्री’ है क्योंकि जब वे अपने पत्तों को गिराते देते हैं तो इसके सफेद तने एक मानव आकृति का आभास देते हैं।मेरे वनस्पति विज्ञान के एक प्रोफेसर ने इसे एक प्रहरी वृक्ष के रूप में वर्णित किया है क्योंकि यह आमतौर पर पहाड़ो के किनारे उगने वाला यह पेड़, किलों की बाहरी दीवार पर खड़े प्रहरी (गार्ड) की तरह दिखता है।यह के पर्णपाती पेड़ है और सभी पर्णपाती पेड़ जल संसाधनों का उपयोग बहुत मितव्ययीता से करते है लेकिन इनके पत्तों का आकर विशाल होता है और उनके उत्पादन में कोई कमी नहीं होती। अरावली पहाड़ियों में कतीरा पेड़ के संभवतः सबसे बड़ा पत्ता होते है; उनकी पत्तियाँ बहुत नाज़ुक और पतली होती हैं और वे पूरे वर्ष के लिए कुछ महीनों में पर्याप्त भोजन बनाने में सक्षम भी होती हैं। यह पर्णपाती पेड़ों की एक रणनीति का हिस्सा है कि उनके पास हरे पेड़ों की तुलना में बड़े आकार के पत्ते हैं, जो यह सुनिश्चित करते है कि प्रकाश संश्लेषण की दर और प्रभावशीलता अपेक्षाकृत अधिक रहे ।कतीरा का विशिष्ट सफेद चमकता तना चिलचिलाती धूप को प्रतिबिंबित करदेता हैं और यह भी पानी के नुकसान को कम करने के लिए एक और अनुकूलन है। अधिकांश पर्णपाती पेड़ो पर फूलो की उत्पती उस समय होती है जब वे सरे पत्ते झाड़ा देते है, उस समय के दौरान परागण की संभावना बढ़ जाती है । घनी पत्तियां से होने वाली रुकावटों के कारण परागण में बाधा होती हैं I कुछ मकड़ियों ने पश्चिमी घाट में कीड़ों का शिकार करने के लिए अपने आप को इस पेड़ के साथ अनुकूलित किया है। कतीरा के पेड़ पर कुछ मकड़ियों को आसानी से देखा जा सकता है जैसे कि फूलों पर प्यूसेटिया विरिडान और उनकी तने पर पर हर्नेनिया मल्टीफंक्टा।मानव आवासों के नजदीक, हम तेजी से उन्हें विदेशी सदाबहार पेड़ पौधे लगा रहे है जो जैव विविधता के साथ जल संरक्षण के लिए भी हानिकारक है I

4. गुरजणLannea coromandelica ):-वृक्ष पक्षीयो के बड़े समूहों के लिए पसंदीदा बसेरा है, पत्तों से लदे वृक्ष के बजाय पक्षी इस पर्ण रहित पेड़ की शाखाओं पर बैठना अधिक पसंद करते हैं, जहां से वह अपने शिकारियों पर निगरानी रख सके उत्तर भारत के सूखे मौसम में गुरजण में वर्षा ऋतू के कुछ दिनों बाद ही पते झड़ने लगते हैI यह पुरे वर्ष में आठ माह बिना पत्तियों के गुजरता है। इसकी प्रजाति का नाम कोरोमंडलिका है जो कोरामंडल (चोला मंडल साम्राज्य) से आया हैI यह जंगलो में स्थित प्राचीन भवनो और इमारतों में उगना पसंद करते हैं I

5. कठफडी  ( Ficus mollis ):- एक सदाभारी पेड़ हैं, जो पत्थरो और खड़ी चट्टानों को पसंद करता हैं। इनकी लम्बी जड़े चट्टानों को जकड़े रखती हैंजो अरावली और विंध्य पहाड़ियों की सुंदरता को बढ़ाती हैं।  इसीलिए इस तरह के पेड़ो को लिथोफिटिक कहते हैं।  यह बाज और अन्य शिकारी पक्षियों को ऊंचाई पर घोसले बनाने लायक सुरक्षित स्थान प्रदान करता हैं।  स्थानीय लोग मानते हैं यदि इसके पत्ते भैंस को खिलाया जाये तो उसका दुग्ध उत्पादन बढ़ जाता हैं।

6. ढाक / छिला / पलाशButea monosperma ) :- दोपहर की राग भीम पलाशी हो या अंग्रेजो के साथ हुआ बंगाल का  प्रसिद्ध पलाशी का युद्ध इन सबका सीधा सम्बन्ध सीधा सम्बन्ध इस पेड़ से रहा हैं- जिसे स्थानीय भाषा में पलाश कहते हैं ।जब इनके पुष्प एक साथ इन पेड़ो पर आते हैं, तो लगता हैं मानो जंगल में आग लग गयी हो अतः इन्हे फ्लेम ऑफ़ थे फारेस्ट भी कहते हैं।  इनके चौड़े पत्ते थोड़े बहुत सागवान से मिलते हैं अतः ब्रिटिश ऑफिसर्स ने नाम दिया ‘बास्टर्ड टीक ‘ जो इस शानदार पेड़ के लिए एक बेहूदा नाम हैं।  वनो के नजदीक रहनेवाले लोग  अपने पशुओ के लिए इनसे अपने झोंपड़े भी बना लेते हैं।

7. झाड़ी ( Ziziphus nummularia ) :-सिक्को के समान गोल-गोल पत्ते होने के कारण झाड़ी को वैज्ञानिक नाम Ziziphus nummularia हैं। यद्पि यह राजस्थान में झड़ी नाम से ही प्रसिद्ध है।एक से दो मीटर ऊंचाई तक की यह कटीली झाडिया बकरी, भेड़ आदि के लिए उपयोगी चारा उपलब्ध कराता हैं।  लोग इनके ऊपरी भाग को काट लेते हैं एवं सूखने पर पत्तो को चारे के लिए अलग एवं कंटीली शाखाओ को अलग करके उन्हें बाड़ बनाने काम लिया जाता हैं।  झाड़ियों में लोमड़िया, सियार, भालू, पक्षी आदि के लिए स्वादिष्ट फल लगते हैं एवं इनकी गहरी जड़ो से स्थिर हुई मिटटी के निचे कई प्राणी अपनी मांद बनाके रहते हैं।  बच्चे भी इनके फल के लिए हमेशा लालायित रहते हैं।

 

राजस्थान में पीले पुष्प वाले पलाश

राजस्थान में पीले पुष्प वाले पलाश

फूलों से लदे पलाश के पेड़, यह आभास देते हैं मानो वन में अग्नि दहक रही है I इनके लाल केसरी रंगों के फूलों से हम सब वाकिफ हैं, परन्तु क्या आप जानते है पीले फूलों वाले पलाश के बारे में ?

पलाश (Butea monosperma) राजस्थान की बहुत महत्वपूर्ण प्रजातियों में से एक है जो मुख्यतः दक्षिणी अरावली एवं दक्षिणी-पूर्वी अरावली के आसपास दिखाई देती है। यह प्रजाति 5 उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वनों का महत्वपूर्ण अंश है तथा भारत में E5 – पलाश वन बनाती है। E5 – पलाश वन मुख्यरूप से चित्तौड़गढ़, अजमेर, पाली, जालोर, टोंक, भीलवाड़ा, बूंदी, झालावाड़, धौलपुर, जयपुर, उदयपुर, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, अलवर और राजसमंद जिलों तक सीमित है।

पीले पलाश (Butea monosperma var. lutea) का वृक्ष (फोटो: डॉ. सतीश शर्मा)

राजस्थान में पलाश की तीन प्रजातियां पायी जाती हैं तथा उनकी विविधताएँ नीचे दी गई तालिका में प्रस्तुत की गई हैं:

क्र. सं. वैज्ञानिक नाम प्रकृति  स्थानीय नाम मुख्य वितरण क्षेत्र फूलों का रंग
1 Butea monosperma मध्यम आकार का वृक्ष पलाश, छीला, छोला, खांखरा, ढाक मुख्य रूप से अरावली और अरावली के पूर्व में लाल
2 Butea monosperma var. lutea मध्यम आकार का वृक्ष पीला खांखरा, ढोल खाखरा विवरण इस लेख में दिया गया है पीला
3 Butea superba काष्ठबेल पलाश बेल, छोला की बेल केवल अजमेर से दर्ज (संभवतः वर्तमान में राज्य के किसी भी हिस्से में मौजूद  नहीं) लाल

लाल पलाश (Butea monosperma) का वृक्ष (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

लाल पलाश के पुष्प (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

Butea monosperma var. lutea राजस्थान में पलाश की दुर्लभ किस्म है जो केवल गिनती योग्य संख्या में मौजूद है। राज्य में इस किस्म के कुछ ज्ञात रिकॉर्ड निम्न हैं:

क्र. सं. तहसील/जिला स्थान वृक्षों की संख्या भूमि की स्थिति
1 गिरवा (उदयपुर) पाई गाँव झाड़ोल रोड 1 राजस्व भूमि
2 गिरवा (उदयपुर) पीपलवास गाँव के पास, (सड़क के पूर्व के फसल क्षेत्र में) 2 राजस्व भूमि
3 झाड़ोल (उदयपुर) पारगीया गाँव के पास (पलियाखेड़ा-मादरी रोड पर) 1 राजस्व भूमि
4 झाड़ोल (उदयपुर) मोहम्मद फलासिया गाँव 2 राजस्व भूमि
5 कोटड़ा (उदयपुर) फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के पथरापडी नाका के पास 1 राजस्व भूमि
6 कोटड़ा (उदयपुर) बोरडी गांव के पास फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य के वन ब्लॉक में 4 आरक्षित वन
7 कोटड़ा (उदयपुर) पथरापडी नाका के पूर्व की ओर से आधा किलोमीटर दूर सड़क के पास एक नाले में श्री ननिया के खेत में (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य का बाहरी इलाका) 2 राजस्व भूमि
8 झाड़ोल (उदयपुर) डोलीगढ़ फला, सेलाना 1 राजस्व भूमि
9 झाड़ोल (उदयपुर) गोत्रिया फला, सेलाना 1 राजस्व भूमि
10 झाड़ोल (उदयपुर) चामुंडा माता मंदिर के पास, सेलाना 1 राजस्व भूमि
11 झाड़ोल (उदयपुर) खोड़ा दर्रा, पलियाखेड़ा 1 आरक्षित वन
12 प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़) जोलर 2 झार वन ब्लॉक
13 प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़) धरनी 2 वन ब्लॉक
14 प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़) चिरवा 2 वन ब्लॉक
15 प्रतापगढ़ (चित्तौड़गढ़) ग्यासपुर 1 मल्हाड वन खंड
16 आबू रोड गुजरात-राजस्थान की सीमा, आबू रोड के पास 1 वन भूमि
17 कोटड़ा (उदयपुर) चक कड़ुवा महुड़ा (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य) 1 देवली वन  ब्लॉक
18 कोटड़ा (उदयपुर) बदली (फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य) 1 उमरिया वन ब्लॉक
19 कोटड़ा (उदयपुर) सामोली (समोली नाका के उत्तर में) 1 राजस्व भूमि
20 बांसवाड़ा जिला खांडू 1 राजस्व भूमि
21 डूंगरपुर जिला रेलड़ा 1 राजस्व भूमि
22 डूंगरपुर जिला महुडी 1 राजस्व भूमि
23 डूंगरपुर जिला पुरवाड़ा 1 राजस्व भूमि
24 डूंगरपुर जिला आंतरी रोड सरकन खोपसा गांव, शंकर घाटी 1 सड़क किनारे
25 कोटड़ा (उदयपुर) अर्जुनपुरा (श्री हुरता का कृषि क्षेत्र) 2 राजस्व भूमि
26 गिरवा (उदयपुर) गहलोत-का-वास (उबेश्वर रोड) 6 राजस्व भूमि
27 उदयपुर जिला टीडी -नैनबरा के बीच 1 राजस्व भूमि
28 अलवर जिला सरिस्का टाइगर रिजर्व 1 वन भूमि

चूंकि पीला पलाश राज्य में दुर्लभ है, इसलिए इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। राज्य के कई इलाकों में स्थानीय लोगों द्वारा इसकी छाल पूजा और पारंपरिक चिकित्सा के लिए प्रयोग ली जाती है जो पेड़ों के लिए हानिकारक है। वन विभाग को इसकी रोपाई कर वन क्षेत्रों में इसका रोपण तथा स्थानीय लोगों के बीच इनका वितरण करना चाहिए।