In the year 1980, India’s Environment Minister Sh. Digvijay Sinh wrote in a book that-
“Harshvardhan is singularly responsible for converging global attention of experts on bustards and for having demanded a ban on hunting bustards through falconry in the Indian desert. He set a rare example. ”
Falconry is an antiquated form of hunting using trained hawks and similar raptors. Whilst it is an ancient hunting practice, it is a revered and very much practiced tradition in peninsular and gulf Arab nations. Even today, many in these nations, which includes members of their royal families, are ardent falconers with vast aviaries housing an untold number of raptors.
Great Indian Bustard (Photo: Mr. Nirav Bhatt)
Until about 40 years ago (1979), royalty from various Arab states would come to the desert areas of Rajasthan with their falcons, and hunt the great Indian bustard, putting it at even greater risk of extinction. Harkirat Sangha, an ornithologist from Rajasthan remembers that on those hunts, the sheikhs used very powerful vehicles with no less than 6 cylinders. We have no idea regarding the extent of damage caused by Arab falconers back then, because neither the forest department nor the police could pursue them in the Thar desert. This is because the roads were either rough or non-existent, while the Arab falconers, armed with hunting permits, roamed freely hunting anywhere they pleased in the deserted desert area in Jaisalmer. Foreign policy and foreign exchange were the reasons behind the granting of hunting permits.
All became mute spectators when faced with this gory spectacle, no one had the courage to say anything against the sheikhs and more importantly, anything against this decision by the government of the day. Meanwhile, the Arab falconers used to come to India every winter and do untold damage.
Harsh Vardhan could not bear to watch the devastation inflicted upon the great Indian bustard, but at the time, people were not very aware of conservation issues beyond the tiger. It was far easier to make people aware of tiger centric issues. While it was indeed difficult for Harsh Vardhan, he still managed to drum up awareness by staging many public protests, and launching several memorandums. Many newspapers followed suit and made the public aware of the plight of the great Indian bustard. It was such a well organized campaign by one motivated individual, that in no time, the public was talking about a once unknown bird, and heaping abuse on the visiting sheikhs, all the while citing India’s long history and tradition of wildlife conservation. However, the government remained silent. Harsh Vardhan finally secured an order from the High Court of Rajasthan, which imposed a complete ban on the hunting of the great Indian bustard by Arab falconers.
Soon after, Harsh Vardhan convened an international symposium on bustards, in which many people participated and for the first time the issues related to bustards were compiled in one place and a report titled ‘Bustards in Decline’ was published.
This was the first concentrated effort not only in India, but in the world for the conservation of any one particular bird species, and is still regarded as a key milestone by wildlife conservationists.
Finally, influenced by the campaign started by Harsh Vardhan, an individual secured a decision from the Rajasthan High Court which completely stopped the hunting of the great Indian bustard by Arab falconers.
Authors:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
वर्ष 1980 में भारत के पर्यावरण मंत्री दिग्विजय सिंह ने एक पुस्तक में लिखा है कि,
”हर्षवर्धन ने अपने अकेले के दम पर ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) की ओर विश्व का ध्यान आकर्षित किया है और उन्होंने एक पुरजोर मांग रखी है कि, भारतीय मरुस्थल में बाजदारी के माध्यम से इनका शिकार बंद हो। यह एक पक्षी प्रजाति के संरक्षण की दिशा में उठाया गया एक अत्यंत दुर्लभ उदहारण है। ”
बाज़दरी यानि बाज़ या इस जैसे अन्य शिकारी पक्षियों के माध्यम से शिकार करना। यह एक प्राचीन शिकार का तरीका रहा है जिसने अरब देशों में एक परम्परा की शक्ल लेली है। अरब देशों में एक आज भी कई लोग और मुख्यतया वहां के रॉयल परिवार इस शौक के पीछे पागल है।
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) (फोटो: श्री नीरव भट्ट)
लगभग 40 पूर्व (1979 ) पहले तक राजस्थान अरब के राजपरिवार से शेख राजस्थान के मरुस्थल में आते थे और बाज़ों की सहायता से तेजी से विलुप्त की और बढ़ते विशाल पक्षी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड का शिकार किया करते थे। राजस्थान के एक पक्षी विद्ध हरकीरत सांगा कहते हैं कि, शेखो के पास उस ज़माने में अत्यंत ताकतवर गाड़िया हुआ करती थी जिनमें ६ सिलिंडर से कम कोई नहीं थी। जैसे आज इस्तेमाल होने वाली जिप्सी गाड़ी में भी मात्र ४ सिलिंडर ही है। इन शेखो के द्वारा किये गए नुकसान का हमें कोई अंदाज नहीं है क्योंकि राज्य का वन विभाग या पुलिस उस समय के थार मरुस्थल में इनके पीछे ही नहीं जा पाता था। क्योंकि रास्ते कच्चे थे अथवा थे ही नहीं, जबकि शेख खुले आम शिकार के परमिट के साथ जैसलमेर के वीरान मरुथल में कहीं भी शिकार करते घूम रहे थे। सरकार ने उन्हें बाज से शिकार के लिए आज्ञा पत्र जारी किया हुआ था। इनको शिकार की आज्ञा मिलने के पीछे विदेश नीति और विदेशी मुद्रा महत्वपूर्ण कारण माना जा रहा था।
सभी लोग मूक दर्शक बने यह तमाशा देख रहे थे किसी की हिम्मत और सोच नहीं थी कि, शेखो के खिलाफ कुछ बोले और इस से अधिक सरकार के इस फैसले के खिलाफ कुछ बोले। शैख़ साल दर साल सर्दियों में यही काम करने भारत आते रहते थे।
यह सब देख कर हर्षवर्धन रह नहीं पाए परन्तु लोगों को संरक्षण के प्रति कोई अधिक जागरूकता ही नहीं थी। बाघों के प्रति हमारे मन मस्तिष्क में पहले से एक छवि थी अतः बाघों के प्रति जागरूकता पैदा करना कहीं आसान काम है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को लोग अधिक जानते ही नहीं थे। यह हर्षवर्धन के लिए मुश्किल काम होने वाला था परन्तु उन्होंने ने कई आंदोलन, धरने और ज्ञापन देकर एक माहौल पैदा किया। निरंतर अख़बारों के माध्यम से आमजन के मध्य ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के बारे में जानकारी बढ़ायी गयी। यह एक व्यक्ति द्वारा चलाया गया इतना सधा हुआ और संगठित आंदोलन था कि, हर व्यक्ति उस समय इस अनजान पक्षी के बारे में बात कर रहा था और भारत के संरक्षण के लम्बे इतिहास और परम्परा की दुहाई देकर शेखो को गाली दे रहा था। परन्तु सरकार फिर भी मूक बानी रही थी। अंततः हर्षवर्धन राजस्थान हाई कोर्ट से एक फैसला लेकर आये जिसने शेखो द्वारा इस तरह ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के शिकार पर पूर्णतया रोक लगवादी थी।
इसी क्रम में हर्षवर्धन ने बस्टर्ड पर एक अंतरष्ट्रीय सिम्पोजियम बुलाई, जिसमें अनेक लोगो ने भाग लिया और पहली बार बस्टर्ड से जुड़े मसलो को एक जगह एकत्रित किया और ‘बस्टर्ड इन डिक्लाइन’ नाम से एक दस्तवेज प्रकाशित किया गया ।
यह उस ज़माने में भारत का ही नहीं अपितु विश्व में किसी एक पक्षी प्रजाति के संरक्षण के लिए किया गया पहला प्रयास था, जिसे आज भी एक मील के पत्थर के रूप में जाना जाता है।
अंततः हर्षवर्धन द्वारा चलायी गयी इस मुहीम से प्रभावित हो कर एक व्यक्ति राजस्थान हाई कोर्ट से एक फैसला लेकर आये जिसने शेखो द्वारा किये जारहे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के शिकार पर पूर्णतया रोक लगवा दिया।
लेखक:
Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.
Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.
राजस्थान के राष्ट्रीय मरु उधान (Desert National Park) को विश्व भर में “गोडावण” (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) की अंतिम शरण स्थली माना जाता है। इसमें स्थित सुदासरी नामक स्थल गोडावण के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है, यहाँ आज भी यह फल-फूल रहे है। इनको यहाँ सुरक्षा मिले इसके लिए अनेकों लोग कड़ी मेहनत करते है, इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण नाम रहा है- सुखपाली देवी का जो राजस्थान वन विभाग में वन रक्षक के रूप में कार्यरत है। जहाँ अन्य लोग इस क्षेत्र में पानी की कमी के कारण इसे काला पानी की संज्ञा देते हैं, एवं काम करना नहीं चाहते वहीँ सुखपाली ने इस कठोर पारिस्थितिक तंत्र को दिल से स्वीकार किया।
संकटापन्न सूची में शामिल गोडावण पक्षी के संरक्षण लिए सुखपाली पहली महिला वनरक्षक के रूप में कार्यरत रही है जिसने पूर्ण मुस्तैदी के साथ मरुस्थल के सभी वन्यजीवों के संरक्षण के लिए महती भूमिका निभाई हैं। और यही नहीं वह अपनी ढाई साल की बच्ची के साथ कठिन क्षेत्र में रहकर बुलंद हौसलों के साथ कार्य किया हैं। वह जाबाज़ महिला वनरक्षक वर्तमान में जोड़बीड़ गिद्ध संरक्षण अभयारण्य में कार्यरत है।
सुखपाली बताती है कि, गोडावण एक बहुत ही शर्मिला पक्षी हैं, जो एक साल में एक ही अंडा देता हैं। इन अंडो को दो मुख्य खतरे हैं एक तो जंगल मे विचरण करने वाले पशुओं के खुरों से कुचला जाना और दूसरा आबादी क्षेत्र से आने वाले आवारा कुत्ते द्वारा नुकशान। सुखपाली ने गोडावण के इन्ही दुर्लभ अंडो की देखभाल की। इसके अलावा मादा गोडावण के लिए पानी की व्यवस्था को भी सुचारु रखा ताकि मादा को पानी की तलाश में अंडो से अधिक दूर नहीं जाना पड़े, और जब तक अंडो से चूजे बाहर नहीं आ गए तब तक सुखपाली उनकी देखभाल करती रही।
गोडावण के संरक्षण लिए सुखपाली पहली महिला वनरक्षक के रूप में कार्यरत रही है जिसने पूर्ण मुस्तैदी के साथ मरुस्थल के सभी वन्यजीवों के संरक्षण के लिए महती भूमिका निभाई हैं।
सुखपाली ने सुदासरी में कार्यरत रहने के समय एक पीएचडी की छात्रा जो गोडावण पर शोध करने आयी थी, के साथ रहकर उसकी शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसमें सुबह से शाम तक उनके साथ गोडावण पर निगरानी रखना, ब्लॉक बनाना, वाटर पॉइंट चेक करना व गोडावण की गतिविधियों पर नज़र रखना औऱ उसके खान पान की विविधता को दर्ज करना इनका मुख्य कार्य था।
परन्तु समाज का एक वर्ग आज भी इस साहसी कार्य को एक हे दृष्टि से देखता हैं सुखपाली ऐसे ही एक वाकये को याद करती हुई कहती हैं की शोध के दौरान ही एक रोज़ वह दोनों जंगल मे ट्रैकिंग कर रही थी तो पर्याप्त पानी न होने की वजह से पास में बसे एक गांव में पानी लेने के लिए चली गई। वहां एक घर में जाकर पानी पिया व बोतल में पानी भर लिया, तभी वहां पर मौजूद एक महिला इन दोनों से बात करने लग गई और वह महिला बोली कि, “आप इस तरह से जंगल मे भटकती रहती हो इसमें कोई इज्जत नही हैं हमारे यहां महिलाएं घर से बाहर नही जाती हैं आपकी जैसी महिलाओं का नारी जाति में कोई सम्मान नही है”। सुखपाली और उनकी साथी ने चुप चाप खड़े रहकर उस महिला की बातों को सुना और फिर वहां से चल दिए तथा रास्ते भर यही सोचते रहे कि, “हमने अच्छी शिक्षा हासिल कर अपने काम के लिए घर से दूर रहने का फैसला कर क्या कोई गलती कर दी है ?”
सुखपाली पंवार का जन्म श्रीगंगानगर जिले की सार्दुलशहर तहसील के प्रतापपुरा गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। परिवार में ये पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी हैं और इनकी शादी पंजाब के मुक्तसर जिले के भाइकेरा गांव में हुई। इनके पति का नाम हरपाल सिंह हैं और इनकी एक छोटी बेटी है जिसका नाम नवनीत कौर हैं।
सुखपाली की प्राथमिक शिक्षा प्रतापपुरा गांव के एक सरकारी विद्यालय में हुई थी और इन्होंने 9वी से लेकर स्नातक तक की पढ़ाई सादुलशहर से एवं बीएड पंजाब से की थी। अध्ययन के दौरान इन्हें विद्यालय में पौधारोपण करना, छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाना आदि बहुत पसंद था तथा बीएड करने के बाद इन्होंने एक निजी विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर भी कार्य किया था। बाद में इनके मन मे अध्यापक बनने का जुनून बढ़ता चला गया इन्होंने मेहनत और लगन के साथ अध्यापक भर्ती परीक्षा के लिए तैयारी शुरू की उसके बीच मे ही वनरक्षक भर्ती परीक्षा का विज्ञापन जारी हुआ, परिवार की स्वेच्छा से इनके पति ने वनविभाग में आवेदन करवा दिया और पहली ही भर्ती में सुखपाली का चयन हो गया।
जोधपुर में तीन माह के विभागीय प्रशिक्षण के बाद सुखपाली की पहली पोस्टिंग राष्ट्रीय मरु उधान स्थित बाड़मेर जिले के बछड़ा गांव स्थित नाके पर हुई। बाद में मार्च 2014 में इनको जैसलमेर जिले के सुदासरी नाके पर लगाया गया। राष्ट्रीय मरू उद्यान एक वन्य जीव अभयारण्य है जो क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा जीव संरक्षित क्षेत्र है।
सुदासरी क्षेत्र के बारे में वहां के उप वन संरक्षक भी मानते हैं कि, यहां पर छोटी सी बच्ची के साथ अकेले एक महीला वनरक्षक का रुकना कठिन और हिम्मत वाला कार्य है और इसलिए वन विभाग द्वारा उनके पति को निजी रोजगार भी दे दिया हैं।
यह जैसलमेर और बाड़मेर जिले में फैला हुआ है और वहाँ पर प्रयटक भी आते रहते हैं। सुदासरी में सुखपाली को गोडावण के संरक्षण के अलावा सभी पर्यटकों को जंगल का भ्रमण करवाने की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी थी जिसमें ये वहां आने वाले सभी पर्यटकों को जंगल का भ्रमण करवाती एवं वहां मिलने वाले वन्यजीवों के बारे में बताती थी।
सुदासरी में काम करने के दौरान इनका गोडावण संरक्षण की नई वैज्ञानिक तकनीकें सीखने हेतु दुबई जाने के लिए चयन हुआ था लेकिन बच्ची की परवरिश को देखतें हुए इन्होंने अपना नाम वापिस ले लिया।
वर्तमान में सुखपाली, कोटडी रेंज जोड़बीड़ (बीकानेर) में कार्यरत हैं
सुखपाली, सुदासरी नाके व आसपास के क्षेत्र के बारे में बताती हैं कि, मौसम में यहाँ काफी असमानताएं देखी जा सकती हैं सर्दियों में यहां पर तापमान 2 डिग्री से नीचे व गर्मियों में तापमान 50 डिग्री से ऊपर चला जाता है। गर्मी के दिनों में तेज आंधी, धूल भरे गुब्बार, चारों ओर रेत के टीले व धोरे ही धोरे नज़र आते हैं। आसपास पानी के अलावा बिजली व स्वास्थ्य सुविधा भी नहीं है सौर ऊर्जा से संचालित बैटरी के एक छोटे से बल्ब के उजाले से ही काम चलता है। मोबाइल नेटवर्क भी हमेशा नहीं मिल पाता है। नाके पर स्थित एक छोटी सी रसोई, पास में एक कमरा और बगल में एक पानी का टैंक है जिसमें टैंकर द्वारा जरूरत के अनुसार पानी डलवाया जाता है। इस प्रकार की कठिन परिस्थिति में सुखपाली एक दो माह नहीं बल्कि पुरे डेढ़ साल वहां रही हैं।
डेढ वर्ष तक सुदासरी रहने के बाद अगस्त 2015 में पोस्टिंग सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर) हो गई थी और इनका परिवार भी सूरतगढ़ ही आ गया था। सूरतगढ़ में नेशनल पार्क नही हैं बल्कि आसपास विश्नोई समुदाय के लोगों की ज़मीने हैं वे जीवो को अत्यधिक प्यार करते हैं। यहाँ भी कार्य की दिनचर्या सुदासरी जैसी ही थी जैसे गश्त करना, अवैध गतिविधियों की निगरानी, कुत्तो की निगरानी, घायल जानवरों का रेस्क्यू करना आदि रहता था।
सुखपाली बताती हैं कि, एक बार जब नवनीत तीन माह की थी रात का समय था तो इनको एक नर नील गाय के कुत्तों द्वारा घायल होने की सूचना मिली। इन्होने हिम्मत जुटाते हुए किराये की एक टैक्सी ली और मौके पर पहुँचकर लोगो की सहायता से नील गाय को टैक्सी में डाला व उपचार करवा के रायसिंह नगर स्थित रेस्क्यू सेंटर छोड़ कर आयी। रात का समय था और इनका मोबाइल फ़ोन भी बैटरी कम होने के कारण बंद हो गया था ऐसे में इनके परिवार वाले बहुत चिंतित थे। सुखपाली रात को 12 बजे घर पहुँची तो इनकी सासु माँ काफी चिंतित हुई लेकिन उनको एक गर्व की अनुभूति भी हुई कि मेरी बहू वन्यजीवों के लिए सदैव लगी रहती है।
सुखपाली बताती हैं कि, संरक्षित क्षेत्रों के आसपास बसे गांवो में खेती की जमीने बहुत कम होती हैं और ऐसे में कई बार आसपास के लोगो के साथ अवैध अतिक्रमण को लेकर भी आमना सामना हो जाता हैं। ऐसे लोग जेसीबी और ट्रैक्टर द्वारा पेड़ पौधों की सफाई करके कृषि कार्य के लिए जमीन खाली कर लेते हैं तथा सुखपाली उनको रोकती, समझाती और अगर नहीं समझते हैं तो फिर कानूनी तौर पर कार्यवाही करती। कई बार इनको महिला होने के नाते ऐसे कार्यों में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा अपशब्द भी सुनने को मिलते हैं लेकिन ग्रामीणों में भी ऐसे कुछ लोग होते हैं जो इनका साथ देते हैं और सामंजस्य स्थापित करवाते हैं। हालांकि ऐसे कार्यो से निपटना एक महिला वनरक्षक के लिए चुनौती भी है फिर भी ऐसी परिस्थितियों में तत्पर रहना बहुत आवश्यक है।
सुखपाली की कड़ी मेहनत और निष्ठा की सभी वन अधिकारी प्रशंसा करते हैं।
सूरतगढ़ में इनकी पोस्टिंग डिडमलसर चौकी पर थी तो रोज़ एक अधिकारी द्वारा सूचना आई कि, “आप तैयार रहे एक सेही (सेव पोर्क्युपाइन) के शिकार की खबर है”। सुचना मिलते ही ये और इनके पति स्टाफ के सदस्यों के साथ शिकारी को ढूंढने के लिए रवाना हो गए।
आसपास के लोगों से इनको शिकारी के चरित्र व उसकी दिनचर्या की जानकारी प्राप्त हुई और उसी के अनुसार इन्होने जहां उसका उठना बैठना रहता था, वहां इनकी टीम ने जाकर दबिश दी और मुज़रिम को पकड़ लिया। तो जैसे ही उसे हिरासत में लिया तो वह सच उगलने लगा उसके साथ दो व्यक्ति और थे तथा इनके बीच मांस के बंटवारे को लेकर विवाद भी हुआ था। सेही के शिकार के स्थान पर उसे लेकर गए लेकिन वहां इन्हे केवल कांटे व थोड़ा सा मांस बरामद हुआ जिसको तीन जगह दफ़नाया गया था। उन शिकारियों पर कानूनी कार्यवाही के साथ जुर्माना भी लगाया गया।
वर्तमान में सुखपाली, कोटडी रेंज जोड़बीड़ (बीकानेर) में कार्यरत हैं और यहाँ भी इनकी दिनचर्या वैसी ही रहती है जैसी सुदासरी और सूरतगढ़ में थी। कोटड़ी रेंज में इनकी चौकी के पास लोगों ने आबादी क्षेत्र से बाहर निकल कर जंगल में झोपड़ी बनाकर अवैध कब्जा कर रखा था जिसे सुखपाली ने स्टाफ के सदस्यों और गांव वालों की सहायता से सामंजस्य स्थापित कर वहां से हटवाया था। इस कदम की वजह से वहां के लोगों ने इनका जबरदस्त विरोध भी किया था लेकिन काम करने का हौसला इनको ऐसे विरोध को झेलने का सहस भी देता है।
जोड़बीड़ में रहकर सुखपाली ने पक्षियों के बारे में सीखा है और वहां आने वाले पर्यटकों को गाइड भी करती हैं। इसके अलावा ये रोज़ गस्त, पक्षियों के लिए बने वाटर स्रोतों को चेक करना व अगर उन में पानी नहीं होता है तो टेंकर द्वारा पानी डलवाना इनकी ड्यूटी है। कभी कभार गांव के लोग अवैध चराई व कटाई के लिए आते हैं तो ये उनको वन संपदा व वन्यजीवों के महत्व के बारे में भी बताती हैं।
सुखपाली बताती हैं कि, अवैध मानवीय गतिविधि अक्सर यहाँ होती रहती हैं कुछ महीनों दिवाली से पहले अक्टूबर में एक चिंकारा का शिकार हो चुका था। शिकारी को पकड़ने के लिए सुखपाली और इनके साथी अलग-अलग दल बनाकर शिकारी को ढूंढने के लिए रवाना हो गए। शिकारी को तो इन्होने सफलतापूर्वक पकड़ लिया लेकिन मृत जानवर के अवशेष इन्हे नही मिले क्योंकि उसे किसी दूसरी गाड़ी वाले लेकर फरार हो गए और बहुत कोशिश के बाद भी वो पकड़ में नही आ पाया। लेकिन जो शिकारी पकड़ा गया उसे पर कानूनी कार्यवाही के लिए पुलिस को सौंप दिया।
समय के साथ-साथ सुखपाली ने वन्यजीवों की विविधता का ज्ञान अर्जित कर किया है और विभिन्न जीवों का रेस्क्यू भी कर लेती हैं। आज सुखपाली वन विभाग में काम करने वाली हर महिला के लिए प्रेरणा का श्रोत है तथा इनके सुदासरी में रहने के बाद अब वहां रहने के लिए कई महिलाये तैयार हैं।
सुखपाली, अपनी बेटी को भी एक वन अधिकारी बनाना चाहती हैं।
सुखपाली बताती है कि, आज उनके इस मुकाम के पीछे उनके परिवार और उनके पति का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने इन्हे हर प्रकार से सहयोग किया है, हमेशा घरेलू कार्यों से दूर रख पढ़ाई में आगे बढ़ने के लिए हमेशा साथ दिया है। सुखपाली अपने पति के बारे में भी बताती है कि, “वह मेरे साथ रेगिस्तान में चले आये और हमेशा मेरा साथ दिया, जिसके लिए मैं उनका धन्यवाद करती हूँ।
सुखपाली के अनुसार अवैध मानवीय गतिविधियों से गोडावण के भोजन का प्रमुख़ आधार समाप्त हो जाना भी गोडावण की घटती संख्या का प्रमुख कारण हैं और इन गतिविधियों को तुरंत रोका जाना चाइये। साथ ही वर्तमान समय अनुसार नारी का योगदान इस युग मे अतुलनीय है ऐसे में हर महिला को आगे बढ़कर आना चाइये और मुश्किल कार्यों को भी करने की पहल करनी चाइये।
हम सुखपाली को उनके बुलंद हौसलों और भविष्य में यूँ ही निडर होकर कार्य करने ले लिए धन्यवाद और शुभकामनाये देते हैं।
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
कमलेश, बिश्नोई समाज का वह बालक जिसने अपने दादाजी के साथ ऊंट चराते हुए वन्यजीवों के बारे में सीखा और आज वन-रक्षक बन गोडावण सहित अन्य वन्यजीवों की रक्षा कर रहा है
“आई लव माई खेतोलाई”, खेतोलाई राजस्थान पोखरण में स्थित वह जगह है जहाँ प्रधानमंत्री स्व.श्री अटल बिहारी वाजपेई ने अपनी सूझबूझ साहस और दूरदर्शिता दिखाते हुए 11 मई 1998 को परमाणु परीक्षण किया था। उस परमाणु परीक्षण के इंचार्ज मिसाइल मैन स्व. श्री ए. पी.जे.अब्दुल कलाम थे। श्री कलाम साहब ने 2002 में राष्ट्रपति पद संभालने के बाद एक अंग्रेजी अखबार के इंटरव्यू में कहा था “आई लव माई खेतोलाई ।
इसी पोखरण की धरती में जन्म लेने वाले प्रकृति प्रेमी, कोमल ह्रदय कमलेश विश्नोई आज वनरक्षक में भर्ती होकर वन सम्पदा, जीव-जंतुओं एवं वन्य प्राणियों के प्रति समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं।
कमलेश बिश्नोई का जन्म 1 जुलाई 1990 को जैसलमेर जिले की पोखरण तहसील के खेतोलाई गांव में एक पशुपालक परिवार में हुआ। बचपन में ही जब इनकी उम्र मात्र 6 वर्ष थी इनके सिर से पिता का साया उठ चुका था। माता गृहणी थी और इनके दादाजी ऊंट चराते थे और घर चलाते। बचपन में कमलेश भी अपने दादाजी के साथ ऊंट चराने जाया करते थे, क्योंकि इनको ऊँटो की सवारी करना बहुत पसंद था। जब ये अपने दादाजी के साथ जाया करते थे तो आसपास की वनस्पतियां और जीव-जंतु इनको बड़ा आकर्षित करते थे और ये उनके बारे में अपने दादाजी से पूछते रहते थे और दादाजी इनको उन सभी जंतुओं के ग्रामीण नाम व उनकी विशेताएं बताया करते थे।
एक बार ये अपने दादाजी के साथ एक तालाब के पास बैठे हुए थे और तब इन्होने पहली बार ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (गोडावण) को देखा तभी से इनके मन वन्यप्राणियों के प्रति लगाव और उनको बचाने का जज़्बा आ गया और उस समय इनको लगा कि “मैं वन विभाग में ही कार्य करू जिससे मैं प्रकृति का प्रेमी बन सकू” साथ ही इनके दादाजी भी चाहते थे कि ये वनकर्मी बने और वे इन्हें प्रेरित भी करते रहते थे। कठिन घरेलू परिस्थितियों के चलते हुए भी इन्होंने हिम्मत नही हारी और बुलन्द हौसलों व जज्बातों के साथ एक उज्ज्वल व सफल भविष्य की ओर अग्रसर हो गए। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई व कक्षा 9 और 10 की पढ़ाई इन्होंने सागरमल गोपा स्कूल जैसलमेर से की थी 11वीं व 12वीं की पढ़ाई इन्होंने जयपुर से की थी इसी दौरान ये अंडर 16 व अंडर 18 में 800 मीटर तक की दौड़ में चार बार राष्ट्रीय स्तर पर खेलने भी गए थे। वर्ष 2013 में इनका वनरक्षक के पद पर चयन हुआ और ये सफलता इनके परिवार के लिए एक संजीवनी व इनके दादाजी के सपनो को साकार करने वाली थी।
विश्नोई समाज से आने वाले कमलेश बताते हैं कि हिरन को हम अपने परिवार का हिस्सा ही मानते है। यहां तक की इस समुदाय के पुरुषों को अगर जंगल के आसपास कोई लावारिस हिरन का बच्चा या हिरन दिखता है तो वह उसे घर पर लेकर आते हैं फिर अपने बच्चे की तरह उसे पालते हैं। यहां तक बिश्नोई समाज की महिलाएं भी हिरनों को एक मां का पूरा प्यार देती हैं। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान जैसे कभी कोई हिरन का बच्चा बीमार या दुर्घटना से घायल इनको मिल जाता था तो ये अपने दोस्तों के साथ मिलकर उसके इलाज की समुचित व्यवस्था उपलब्ध कराते थे।
घायल चिंकारा का इलाज करते हुए कमलेश
कमलेश की पहली पोस्टिंग कुम्भलगढ़ नाका (राजसमंद) में हुई और वर्तमान में ये वन्य जीव चौकी चाचा डेजर्ट नेशनल पार्क में तैनात हैं। वर्ष 2016 में जब इन्होने डेजर्ट नेशनल पार्क को ज्वाइन किया तो उस समय श्री अनूप के आर उप वन संरक्षक के पद पर कार्यरत थे। वन संरक्षक हमेशा गोडावण के संरक्षण के प्रति सोचते व कार्य करते रहते थे, तब कमलेश को भी बचपन में देखे हुए गोडावण की याद आ गई जिसके बारे में इनको बाद में पता चला था कि ये राज्य पक्षी है। तो साहब की प्रेरणा से कमलेश की भी “गोडावण बचाओ” के प्रति रुचि बढ़ती चली गई और इन्होने वन संरक्षक के निर्देशानुसार स्थानीय सरपंच व गांव वालों के सहयोग से डेढ़ सौ हेक्टेयर में एक व्यवस्थित ढंग से क्लोजर भी बनवाया था जिसे आसपास के लोग देखने भी आते हैं।
अपना कार्यभार संभालने के बाद जब कमलेश रोज़ पार्क में गश्त के लिए जाया करते थे तो इन्हे अनेक छोटे-छोटे गड्ढे देखने को मिलते थे जिनके बारे में इन्होने वहां घूमने वाले चरवाहों से जानकारी जुटाना शुरू किया। तब इनको मालूम कि भील समुदाय से आने वाले कुछ लोग जो अवैध गतिविधियों में शामिल हैं स्पाईनि टेल्ड लिजार्ड जिसको स्थानीय भाषा मे “सांडा” छिपकली कहा जाता है का शिकार करते हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि सांडा के ऊपरी हिस्से में से तेल निकलता है जो औषधि बनाने के काम में आता है। धीरे-धीरे कमलेश ने चरवाहों व पशुपालकों को विश्वास में लेने एवं उनका मनोबल बढ़ाने के लिए, वन संपदा और जीव-जंतुओं का प्रकृति में महत्व को समझाना शुरू किया। इस पहल से 8-10 चरवाहे कमलेश के लिए विश्वासपात्र मुखबिर बन गए और अपराधियों के नाम, पते और गतिविधियां बताने लगे। वर्तमान में 40 चरवाहे ऐसे हैं जो कमलेश को सहयोग करते हैं। कमलेश भी उन्हें जरुरत पड़ने पर सहायता करते हैं और ग्रामीण क्षेत्र में ये एक पहल हैं जो इनके बीच में सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए सामंजस्य स्थापित करती हैं।
इन चरवाहों के माध्यम से कमलेश ने चार बार सांडा के शिकारियों को पकड़ा। एक बार ये पोखरण थे तब इन्हे सुचना मिली कि, “रामदेवरा के पास तीन आदमी अभी-अभी साइकिल से आए हैं और वो ज़मीन खोद रहे हैं”। सुचना मिलते ही कमलेश ने अपनी पूरी टीम के साथ उनके ऊपर धावा बोलकर उनको पकड़ लिया जिनके पास से 6 सांडे बरामद हुए थे। बाद में उनके ऊपर कानूनी कार्रवाई की गई। इसी प्रकार ऐसा ही केस और आया ये घटना लोहारकी गांव के पास की हैं जब रात के समय गांव के स्थानीय लोग कहीं बाहर से आ रहे थे तो उनकी गाड़ी की लाइट में उन्होंने कुछ अवैध व्यक्तियों को सांडा के बिलों को खोदते हुए देखा तो उन लोगों ने तुरंत कमलेश को सूचित किया। सुचना मिलते है वन कर्मी टीम के साथ वहां पहुंचे और उनको पकड़कर उनपर कानूनी कार्रवाई की।
ऐसे ही एक बार कमलेश जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे थे तो उन्हें आदमी दिखा जिसका केवल सिर ही नज़र आ पा रहा था। वो एक पहाड़ी से नीचे की तरफ जा रहा था तो जैसे ही कमलेश पास गए तो पाया कि वहां दो आदमी थे और उन्होंने 16 सांडे खोदकर रखे हुए थे। कमलेश उस समय अकेले थे तो उन्होंने बुद्धिमता से काम लेते हुए रेंजर व अपने साथियों को फोन से मैसेज कर दिया और दूसरी ओर शिकारियों बातों में उलझाते रहे। इस से पहले कि शिकारी कमलेश को पहचान पाते वन-विभाग के अन्य लोग वहां पर पहुंच गए और अपराधियों को पकड़ लिया। एक बार और शिकारियों कि सुचना मिली थी परन्तु पहुंचने से पहले ही वे भाग गए थे तथा वहां से कुछ हथियार व 10 सांडे बरामद हुए थे।
शिकारियों से बरामद किये हुए सांडा
कमलेश बताते हैं कि “अवैध कार्यों में शिकारियों को गिरफ्तार करवाने पर मुझे जनप्रतिनिधि व असामाजिक तत्वों की धमकी भी सुनने को मिलती है लेकिन हम बिश्नोई समुदाय से आते हैं इसलिए जीव जंतुओं को हम हमेशा दया की भावना से ही देखते हैं तथा हमको कितनी भी धमकियां मिले लेकिन हम घबराते नहीं हैं”। साथ ही कमलेश मानते हैं कि आपराधिक तत्वों पर लगाम लगाने में कहीं न कहीं सुचना देने वाले ग्रामीण व चरवाहों का भी महत्वपूर्ण योगदान हैं।
कमलेश बताते हैं कि, आसपास के इलाके में चिंकारा का शिकार भी किया जाता है। एक घटना ऐसी हुई जब गांव के एक व्यक्ति ने सूचना दी कि “मावा गाँव के पास दो गाड़ियों पर चार व्यक्ति हैं और हिरन को मारने कि कोशिश कर रहे हैं, मई यहीं पर छिप कर बैठा हूँ आप जल्दी आजाओ “। चिंकारा का शिकार करने का यह सामान्य तरीका है, जब चिंकारा पानी पीता है तो तुरंत भाग नहीं पाता है ऐसे में शिकारी चिकारा कि तरफ गाड़ी चालते हैं। चिंकारा भागता है लेकिन जल्दी थक जाता है और मारा जाता है। उन शिकारियों ने भी चिंकारा के पीछे दौड़ा कर उसे मार दिया था तथा उसे जाल में डालकर शरीर को चीर रहे हैं। सुचना मिलते ही कमलेश ने स्टाफ के अन्य साथियों को सूचना दी और वहां पहुंचे थे। विभाग कि टीम के वहां पहुंचने से पहले वे शिकारी तीन और चिंकारा मार चुके थे। घटना स्थल पर पहुंचते ही उन शिकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया गया व कानूनी कार्यवाही की तथा उनको तीन महीने की जेल भी हुई। जेल से बाहर आने के बाद वे लोग कमलेश को धमकियाँ देने लगे। परन्तु ऐसी धमकियाँ कमलेश के जुनून व हौसले को कमजोर नहीं कर पाई।
समय के साथ-साथ कमलेश को विभिन प्रकार कि नई चीज़ें भी सीखने को मिली हैं, वरिष्ठ साथियों का अनुभव व अधिकारियों के मार्गदर्शन ने इनके इरादों को इतना मजबूत कर दिया कि प्रतिदिन इन्हे वन्य क्षेत्र में नया कार्य करने के लिए उत्सुकता रहती हैं। वर्ष 2019 में उपवनरक्षक महोदय ने कमलेश को बताया कि, “एक गोडावण ने अंडे दिए हैं और आपको विशेष तौर से उसकी निगरानी करनी होगी”। यह बात सुनते ही कमलेश इस कार्य के लिए तैयार हो गए और उस गोडावण व उसके अण्डों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले ली। कमलेश ने जरूरत का सारा सामान व एक टेंट पैक किया और उस स्थान के पास पहुँचा जहाँ गोडावण ने अंडे दिए थे। गोडावण को उनकी उपस्थिति से कोई परेशानी न हो इस बात को समझते हुए उन्होंने 100 मीटर की दुरी रखते हुए एक अस्थायी तम्बू तैयार किया। मादा गोडावण सुबह 9 बजे पानी पीने के लिए ताल पर जाती थी और सुबह-शाम भोजन के लिए इधर उधर टहलती थी और उस समय कमलेश उसके घोंसले की पूरी मुस्तैदी निगरानी करते थे ताकि कोई बाज़ या लोमड़ी अण्डों पर हमला न करदे।
गोडावण एक शर्मीला पक्षी होता है और इस बात को समझते हुए कमलेश टेंट में ऐसे रहते थे की जैसे वहां कोई है ही नहीं। ये पूरे 28 दिन तक उस तम्बू में रहे। गोडावण गर्मियों में अंडे देता है और उस समय पोखरण में रेत के धोरों पर दैनिक तापमान 45-46 डिग्री तक पहुँच जाता है और ऐसे तेज़ गर्मी वाले वातावरण में रहना बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। परन्तु यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी जिसे कमलेश ने भलभाँति निभाया।
आज अधिकतर संरक्षित क्षेत्रों के आसपास मानव बस्तियां हैं और इन बस्तियों में आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी वन्यजीवों के लिए मुश्किल बनती जा रही है। ये आवारा कुत्ते संरक्षित क्षेत्रों की सीमा के अंदर भी जाने लगे हैं तथा कई बार बाहर आने वाले जानवर जैसे की हिरन, चिंकारा और नीलगाय को घायल कर देते हैं। ऐसी की मुश्किल कमलेश के कार्य क्षेत्र में भी है। कमलेश बताते हैं की “जब से मैंने यहाँ कार्यभार संभाला है रोज कुत्तों द्वारा एक न एक दिन हिरण को घायल करना, मार देना ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। वन क्षेत्र के आसपास गाँव हैं जिधर अधिकतर लोगो ने अपने खेतों की तार बाढ़ कर रखी है। ऐसे में भोजन की तलाश में कई चिंकारे इधर-उधर भटक जाते हैं तो रास्ता तलाश कर खेतों में प्रवेश कर जाते हैं और पीछे से कुत्ते भी खेतों में घुस जाते हैं और चिंकारा का पीछा करते हैं। रास्ता न मिल पाने के कारण वो इधर उधर टकराकर घायल हो जाता है और कुत्ते उसको आसानी से मार देते है। इस परेशान को देखते हुए कमलेश ने अपने उच्च अधिकारियों से सम्पर्क किया और इस समस्या का समाधान ढूंढना शुरु किया। इन्होने विभाग से एक पिंजरा लाकर ग्रामीणों के सहयोग से उनको पकड़ना शुरू किया। इनकी सोच कुत्तो के खिलाफ नही थी बल्कि ऐसी घटनाओं की रोज पुनरावृत्ति न हो इसीलिए इन्होने कुत्तों को पकड़ कर अन्यत्र स्थान पर ले जाकर छोड़ा जहाँ उन्हें भोजन भी मिल जाए और कोई वन्यजीव को खतरा भी न हो। इसी प्रकार से कमलेश अभी तक और अब तक 250 कुत्तो को ग्रामीणों के सहयोग से अन्यत्र स्थान पर छोड़ चुके हैं।
वरिष्ठ अधिकारियों के साथ कमलेश
कमलेश बताते हैं कि वर्ष 2019 में, कमलेश के इन सभी कार्यों को देखते हुए टाइगर वॉच संस्था और वाइल्ड लाइफ क्राइम कण्ट्रोल ब्यूरो (WCCB) द्वारा पुरुस्कृत भी किया गया है। साथ ही श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वनसंरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क कमलेश के बारे में बताते हैं कि “कमलेश एक बहुत ही आश्वस्त और समर्पित वन रक्षक है। वह न केवल अपने कर्तव्य की भावना कार्य करते हैं, बल्कि वन्यजीवों के प्रति गहरी लगन और प्रेम से भी प्रेरित हैं। इनका स्थानीय लोगों के साथ एक अच्छा संपर्क है और संरक्षण के लिए समुदाय के समर्थन का होना बहुत जरुरी होता है”।
कमलेश बताते हैं कि उनकी शादी 2011 में हो गई थी और उनके दो बच्चे हैं। इनकी पत्नी भी चिंकारों के संरक्षण में रुचि रखती हैं उन्होने ने भी चिंकारे के बच्चे पाल-पालकर बड़े किए हैं फिर उनको जंगल मे छोड़ा हैं। आज जब इनके घर कोई अतिथि आता है और बच्चों से पूंछते हैं कि बेटा तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो इनके बच्चे बड़े गर्व से कहते हैं कि “पापा गोडावण बचाते हैं”। और इसके चलते परिवार व सगे सम्बंदियो के लिए तो यह स्लोगन बन चुका हैं कि “कमलेश एक गोडावण प्रेमी” हैं।
कमलेश बताते हैं कि गोडावण संरक्षण को लेकर विभाग स्तर पर सराहनीय प्रयास किए गए हैं। गोडावण प्रजनन व रहवासी स्थलों पर खुफिया कैमरों की नजर, अंडों के सुरक्षा के पुख्ता प्रबंधन, क्लोजरों में पानी की समुचित व्यवस्था, गोडावण रहवासी क्लोजरों में अन्य हिंसक वन्यजीवों के प्रवेश पर पाबंदी जैसी सुविधाओं का विस्तार कर गोडावण संरक्षण को लेकर विशेष कार्य किए गए हैं। और आगे बहुते से अन्य जरुरी कदम भी उठाये जाएगी जिनसे हमारे राज्य पक्षी गोडावण को बचाया जा सके।
हम कमलेश को उनके अच्छे कार्यों के लिए शुभकामनाये देते हैं।
प्रस्तावित कर्ता: श्री कपिल चंद्रवाल, उप-वन संरक्षक डेजर्ट नेशनल पार्क
लेखक:
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
राजस्थान के सूखे रेतीले इलाकों में पाए जाने वाला गोडावण पक्षी, दुनिया का सबसे बड़े आकार का पक्षी है जो कि लगभग एक मीटर तक ऊँचा व दिखने में शुतुरमुर्ग जैसा प्रतीत होता है। अपने भारी वजन के कारण यह लम्बी दुरी तक उड़ पाने में अशक्षम होता है परन्तु यह बहुत तेजी से दौड़ सकता है। यह राजस्थान का राज्य पक्षी है तथा जैसलमेर के मरू उद्यान में सेवन घास के मैदानों में पाया जाता है। एक समय था जब यह पक्षी बड़ी संख्या में पाया जाता था, परन्तु इसके घटते आवास व् अवैध शिकार के चलते आज यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजाति है।
परन्तु इस पक्षी के जीवन का संघर्ष केवल यही तक सिमित नहीं है बल्कि कई बार इसे खुद को शिकारी पक्षियों से भी बचाना पड़ता है…
जब भी कभी गोडावण किसी शिकारी पक्षी को अपनी ओर बढ़ते देखता है…
तो ऐसे में यह खुद को बचाने के लिए तुरंत नजदीकी किसी पेड़ या झाड़ के नीचे जाकर खुद को छुपा लेता है…
और तब तक छुपा रहता है जब तक शिकारी पक्षी वहां से चला नहीं जाता
अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए यह इस पक्षी की एक रणनीति होती है