राजस्थान में सर्पदंश से जुड़े मुद्दे और मुश्किलें

राजस्थान में सर्पदंश से जुड़े मुद्दे और मुश्किलें

राजस्थान देश का विशालतम राज्य है, जहाँ हर वर्ष हज़ारों लोग सर्प दंश से मारे जाते है। सांपो के बारे में कुछ लोग अज्ञानतावश और कई लोग अपने स्वार्थ के लिए भ्रामक जानकारियां फैला रहे हैं।

पास के एक गांव से मुझे किसी जानकार का फ़ोन आया कि, किसी को सांप ने हाथ में काटा है, मुझे लगा जरूर कोई महिला होगी, क्योंकि महिलाये ही हाथ से अधिकांश काम करती है, पांव में सांप काटता तो पुरुष होने की अधिक सम्भावना रहती है, जो इधर-उधर घूमते फिरते हैं। गांव वाला बोला हाँ महिला ही है और उसे एक देवता के लेकर आये हैं, परन्तु आराम नहीं आया, आप कुछ करो। मेरा सहज सुझाव था, आप डॉक्टर के लेकर जाओ। गांव वाला बोला, यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि लोग मानेगे नहीं। अक्सर विभिन्न देवताओं के स्थानों पर सांप काटे के इलाज के लिए सर्प दंश से पीड़ित लोगों को लेकर आते है। यह एक आम परिदृश्य है, जो राजस्थान के सभी जिलों में देखने को मिल जाता है। कुछ दिनों बाद महिला अपने दूध मुहे बालक को छोड़ कर परलोक सिधार गयी।

सॉ स्केल वाईपर Saw-scaled viper (Echis carinatus): इसे स्थानीय भाषा में फुरसा, फोपसिया, अथवा बांडी नाम से जाना जाता है। रक्तसंचार प्रणाली पर असर डालने वाला विष छोड़ते है। शरीर से शल्कों को रगड़ कर आवाज पैदा करता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

राजस्थान में सांपो के इलाज से जुड़े अनेक लोक देवता है जैसे – गोगाजी, देलवारजी, हरबूजी, रामदेवजी, तेजाजी, कारिशदेवजी आदि, इन देवताओं में स्थानीय लोगों की अटूट आस्था है। इन देवता में आस्था ने लोगों को सांप काटने के बाद मानसिक रूप से सबल भी किया है। इन देवताओं का यदि इतिहास देखे तो पता चलता है कि, यह योद्धा रहे हैं, जो स्थानीय युद्ध वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये थे। इनके स्थलों पर जिस प्रकार के वाद्य यंत्र आदि बजाये जाते हैं, वह किसी युद्ध के माहौल में बजाये जाने वाले ध्वनि यंत्रो की भांति होते है। सर्प दंश से पीड़ित को जब उत्सावर्धक माहौल मिलता है वह प्लेसिबो इफ़ेक्ट से अपने आप को कुछ हद तक समस्या से उबार लेता है। प्लेसिबो इफ़ेक्ट का मतलब है मानसिक रूप से अपने आप को मजबूत कर बिना दवा और इलाज के अपने कष्ट से लड़ना अथवा कष्ट को नगण्य मानना। इसके लिए इन देव स्थलों पर अनोखा माहौल होता है जहाँ अनेको लोग आप के कष्ट में शामिल होते हैं और उत्तेजक धुन पर लोग नाच गा रहे होते हैं। पीड़ित व्यक्ति को देवताओं के स्थलों पर जाने से जीवित रहने की आशा तो मिलती है, परन्तु यह पर्याप्त नहीं, उसे उचित इलाज मिलना आवश्यक है।

इंडियन कोबरा Indian cobra (Naja naja) : नाग भारतीय मिथको का सबसे अधिक विषमयकारी प्राणी जिसे देवताओं के गले की शोभा बढ़ाने का दर्जा दिया गया है। अत्यंत विषैला परन्तु उतना ही शर्मीला सरीसृप अक्सर अपने सिर के आस पास की त्वचा को फन के रूप में फैला कर और फुफकार कर अपने दुश्मन को दूर रखने की चेष्टा करता है। इस का विष हेमो और न्यूरो टॉक्सिक दोनों प्रकार के गुणों से युक्त होता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

असल में सांपो के काटने के बाद उसका सही इलाज होना ही कोई आधी सदी पूर्व से शुरू हुआ है। एन्टीवेनॉम का चलन और उसका निर्माण का इतिहास कोई अधिक लंबा नहीं है, इसी कारण भारत की विशाल अनपढ़ जनसंख्या अपने पारम्परिक तरीके से दूर नहीं हो पायी। हज़ारों वर्षो तक इन देवस्थलों पर पीड़ितों को मानसिक तोर पर सबल बनाकर सांप काटे का इलाज होता रहा है।

रसल्स वाईपर Russell’s viper (Daboia russelii) : चित्ती नाम से जाना जाने वाला बेहद खूबसूरत परन्तु अत्यंत गुसैल सांप, भारत में सबसे अधिक लोगो की मृत्यु का कारण बनता है। इसके विष दन्त बहुत अधिक लम्बे और मजबूत होते है, जो काफी गहराई तक विष छोड़ते है एवं इनके विष की मात्रा भी सिर के बड़े होने के कारण अधिक होती है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

इन स्थलों पर पीड़ित के बचने के कई कारण थे -कई बार सर्प दंश में विष की मात्रा थोड़ी छोड़ पाता है, कई बार तो सर्प काटने के बाद भी अपना विष छोड़ता नहीं जिसे ड्राई बाईट कहते है, कई बार केवल सांप की फुफकार आदि से व्यक्ति डर जाता है, अनेक बार विषहीन सर्प ही काट लेता है, राजस्थान में 40 सांपो की प्रजातियों में 35 तो विषहीन ही है। इस तरह के मामलो में जब व्यक्ति बच जाते है, तो आस्था के इन स्थलों में और अधिक विश्वास बढ़ता चला जाता है। इन सभी मसलों को गहराई से बिना समझे लोग झाड़ फूंक में लगे रहते हैं और इन देवताओं के स्थलों के संचालक, लोगों को भर्मित कर, अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं, और साथ ही ऐसे लोग सही इलाज से भी लोगो को दूर रखते हैं।
यह तय मान के चलिए की यदि किसी विषैले सांप ने काटा है तो एंटीवेनम के अलावा कोई इलाज नहीं है। आपको ऐसे कई उदहारण मिलेंगे जिसमें व्यक्ति देवता के स्थान पर पहुंचे है और मारे गए, उसके बाद देवता के पुजारी बिना जिम्मेदारी लिए पीड़ित और उसके परिवार को ही लापरवाह बता कर उसी की गलती सिद्ध कर देते हैं।

करैत common krait (Bungarus caeruleus) : पूरणतया रात्रिचर सांप अत्यंत विषैला होता है। इसके अत्यंत छोटे विषदंत लोगो को काटने पर दर्द नहीं होने देते एवं इसका न्यूरोटोएक्सिक विष निद्रा में सोते हुए व्यक्ति की मृत्यु का कारण बन जाता है। इसी सांप से मिलती जुलती प्रजाति का एक और सांप राजस्थान के मरुस्थली क्षेत्रो पाया जाता है जिसे पीवणा नाम से भी जाना जाता है। तंत्रिका तंत्र पर असर डालने के कारण इस सर्प का विष व्यक्ति को और गहरी नींद में ले जाता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

सांपो के सही इलाज का विचार भी भारतीय उपमहाद्वीप की ही देन है, वर्ष 1870, में सर्जन मेजर एडवर्ड निकोल्सोन ने मद्रास मेडिकल जर्नल में एक बर्मा देश के सपेरे के बारे में आलेख प्रकाशित किया की किस प्रकार वह अपने आपको सर्प दंश करवाकर भविस्य में होने वाले सांपो के दंशो से सुरक्षित रखता था। इस तरह के उल्लेख भारतीय मिथको में पढ़ने को भी मिलते रहे है। खैर इसी तरह के कई और शुरुआती पर्यवेक्षण आधार बने एक विशेष शोध के कारण 1896 में पहली बार एक फ्रेंच चिक्तिसक अल्बर्ट कालमेट्टे ने पहले मोनोक्लेड कोबरा सर्प दंश के टीके का निर्माण किया। इन्होने इस टीके का निर्माण वियतनाम में बाढ़ ग्रस्त इलाके में फसे अनेक लोगो के सर्प दंश से मारे जाने के बाद किया था।
100 वर्ष से अधिक पहले विकशित हुए इस इलाज को कई वर्षो तक कोई अधिक मान्यता नहीं मिली परन्तु 1950 के आस पास जाकर ही लोगो ने इसे स्वीकारा एवं पिछले कुछ दशकों से ही इसकी उपलब्धता बढ़ी है। यद्दपि आज भी देश में एंटीवेनम की कमी है।

देश में होने वाले कई सर्प मेला में अनेको सांपो को अवैध रूप से प्रदर्शित किया जाता है एवं सांपो के प्रति वैज्ञानिक सोच की बजाय अन्धविश्वास को जारी रखा जाता है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

राजस्थान में कितने लोग सर्प दंश से प्रभावित होते है ?

विश्व स्वास्थ्य संघठन (World Health Organization -WHO ) के अनुसार विश्व में 81,000–138,000 लोग सर्प दंश से मारे जाते है और इनसे तीन गुणा लोग स्थायी तौर पर अपने अंगो से विकलांग हो जाते हैं।
मिलियन डेथ स्टडी (MDS) भारत सरकार के द्वारा किया गया ऐसा अध्ययन है, जिसमें अल्पायु में मृत्यु के कारणों पर आंकड़े संगृहीत किये गए थे। यह अनूठा अध्ययन वर्ष 1998-2014 के मध्य संपन्न किया गया। इसी अध्ययन के अनुसार वर्ष 2001 to 2014 के मध्य 14 वर्षो में भारत देश में लगभग 808,000 लोगो की जान सर्प दंश से गयी। यानी एक वर्ष में भारत में 58000 लोग सर्प दंश से मारे जाते है। जिनमें से 94% लोग ग्रामीण इलाको में और उनमेसे 77% अस्पताल नहीं पहुंचे थे।

सर्प दंश से मारे जाने वालों की संख्या के हिसाब से भारत के अन्य राज्यों की तुलना में राजस्थान का शीर्ष से पांचवा स्थान है जो कि, एक अत्यंत चिंता का विषय है। इस अध्ययन के अनुसार 14 वर्षो में राजस्थान में 52,100 लोगों की मृत्यु हुई जिसका प्रतिवर्ष हुई मृत्यु का औसत 3722 होता है।

सांपो को इन मेलो में अनेक प्रकार से सांपो परेशान किया जाता है, एवं कुछ व्यक्ति अपने सांप पकडने के कौशल को देवीय शक्ति के रूप में प्रदर्शित करते है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

सूरवीरा एवं साथियो 2020 द्वारा प्रकाशित आलेख ”Trends in snakebite deaths in India from 2000 to 2019 in a nationally representative mortality study ” – (https://elifesciences.org/articles/54076) के अनुसार भारत में होने वाले सर्प दंशो में रसल्लस वाईपर (Daboia russelii) द्वारा 43%, करैत द्वारा (Bungarus species) द्वारा 18%, कोबरा द्वारा (Naja species) 12% एवं सर्प प्रजाति की पहचान नहीं हो पायी 21%, अन्य सांप की प्रजातिया ने 6 % लोगो की मृत्यु के कारण बने। इन्होने प्रकाशित शोध एवं अन्य तथ्यों के आधार पर कई प्रकार के अन्य आंकड़े भी जुटाए और पाया की 59 % पुरुषो एवं 41 % महिलाओं की मृत्यु हुई। इनके अनुसार सबसे अधिक जून से सितम्बर के मध्य 48 % सर्पदंश से मारे गए जबकि जनवरी फरवरी में सबसे कम 9 % लोगो को ही सांपो ने द्वारा मारे गए।

चिरंजी लाल के पुत्र ने अपने मृत पिता का चित्र हाथ में लिए उन्हें याद करते है और बताते है की किस प्रकार उनके पिता सर्प दंश से मारे गए जबकि वह सांप के काटे का इलाज भी करते थे। यह अनोखी विडंबना है की जो सर्प दंश का इलाज करता था, उसे सांप की वजह से अपनी जान गवानी पड़ी। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

बचाव और प्राथमिक चिकित्सा आदि:

सर्प दंश से बचने के लिए प्रस्तावित प्राथमिक चिकित्सा के उपायों में अत्यंत भ्रम की स्थिति है, आपको भली प्रकार याद होगा की सर्प दंश के पश्च्यात अक्सर लोग कहते थे, उस स्थान पर “X” अथवा “+” के निशान के चीरे लगाए एवं रक्त के श्राव को होने दे। यह प्राथमिक चिकित्सा की पुस्तिकाओं में भी छपा हुआ मिल जाता है। परन्तु यह तरीका अत्यंत घातक होसकता है एवं पीड़ित अति रक्त स्त्राव से अपनी जान गवां सकता है। अनेक बॉलीवुड फिल्मो में आपने देखा होगा की एक हीरो चाकू से चीरा लगाकर मुँह से विष चूस कर हेरोइन की जान बचा लेता है। यह अत्यंत गलत उपाय है।

इनको रसल्स वाईपर ने काटा, तत्काल घर के लोग इन्हे देवता के यहाँ लेगये, परन्तु पहले मंदिर के मना करने के बाद दूसरे मंदिर में ले गये और बहुमूल्य समय को नष्ट करदिया। इनके द्वारा की गयी देरी के कारण इनके घाव ठीक होने में कुछ माह का टाइम लगा। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

हमें सर्प दंश वाले स्थान पर किसी भी प्रकार का चीरा नहीं लगाना चाहिए – सर्प के विष दो प्रकार के होते है – हेमोटोक्सिक एवं न्यूरोटॉक्सि। दोनों वाईपर प्रजाति के सर्पो में हेमोटोक्सिक विष विद्यमान है एवं यह जब काटते है तो परिसंचरण तंत्र या वाहिकातंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है और परिणाम स्वरुप नाक, मुँह, मूत्रमार्ग एवं सर्प द्वारा काटे जाने वाले स्थान पर रक्त का स्त्राव शुरू होजाता है। इस स्थिति में यदि किसी प्रकार का चीरा लगाकर और रक्त निकलने का प्रयास किया जाए तो बिना चिक्तिसक की मदद के रक्त प्रवाह रुकना बहुत दूभर कार्य होजाता है। इस तरह व्यक्ति की मृत्यु विष से पूर्व अति रक्तप्रवाह से ही हो जाती है। अतः याद रखे कभी चीरा नहीं लगाये।

सर्प दंश से पीड़ित महिला को देव स्थान की तेज गति से दौड़ते हुए परिक्रमा दिलवाते स्थानीय लोग, इस से रक्त चाप बढ़जाता है जो हानिकारक है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

पीड़ित महिला को बेहोशी से जगाने के लिए लोग नारे जयकारे लगते रहते है, कभी थपियाते और हिलाते रहते है। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

दूसरा प्रचलित प्राथमिक चिकित्सा का तरीका है , सर्प के काटे स्थान से थोड़ा ऊपर ताकत के साथ एक रस्सी या कपडे का बंध बांधना। यह तरीका भी पुरानी प्राथमिक चिकित्सा की पुस्तकों में आम तोर पर पढ़ने को मिलता है परन्तु यह तरीका भी पीड़ित के लिए घातक होसकता है। क्योंकि शरीर के एक ही हिस्से में विष का संग्रहण होजाता है और यह उस अंग के लिए अत्यंत घातक होसकता है। रक्त प्रवाह के सम्पूर्ण रुकने से वैसे भी उस अंग को हानि पहुँच सकती है।

इस बालक को सोते हुए सॉ स्केल्ड वाईपर ने मुँह पर काटने के बाद इन्हे देवता के यहाँ लेजाया गया। कई दिन परेशान होने के बाद धीरे धीरे यद्पि बालक ठीक होगया, परन्तु उसके कोनसे शारीरिक अंगो पर विष का लम्बे समय तक प्रभाव रहेगा कोई नहीं जानता। (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

वर्तमान ज्ञान के अनुसार यह अत्यंत प्रचलित प्राथमिक उपचार के दोनों तरीके ही पूर्णतया हानिकारक हो सकते है। तो फिर क्या किया जाए ?
विशेषज्ञ दो प्रकार की रणनीत से चलने की सलाह देते है —- बचाव और उचित इलाज।
बचाव –
  1. सबसे अधिक महत्वपूर्ण है सर्प दंश से बचना, सांप आपके घरो के आस पास अधिक नहीं पनपे इसकेलिए उनके साफ सफाई रखे, अक्सर चूहों आदि को खाने के लिए ही सांप आपके घर के नजदीक आते है। कबाड़ आदि रखे स्थानों को साफ सुथरा रखे।
  2. रात्रि में इधर उधर जानेके लिए प्रकाश की उचित व्यवस्ता रखे। रात्रि विचरण के लिए अच्छी टोर्च को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाये।
  3. सांपो की प्रजातियों को पहचानना सीखे ताकि आप उनके व्यव्हार को समझ सके।
  4. सांपो के साथ उचित दुरी बनाये एवं सावधानी बरते, अनेको बार लापरवाही के कारण सांप पकड़ने वाले प्रशिक्षित व्यक्ति भी सर्पदंश के शिकार बन जाते है।

प्राथमिक चिकित्सा एवं इलाज :

  1. बांधना एवं काटना नहीं करे , जिसका जिक्र हम शुरू में कर चुके है। परन्तु सांप के काटे हुए स्थान पर एक साफ कपडा लपेटे , जिसे आप हलके दबाव के साथ बंध सकते है, परन्तु तेज ताकत के साथ कदापि नहीं।
  2. पीड़ित व्यक्ति को शांत रखे एवं उसका होंसला बढ़ाते रहे।
  3. व्यक्ति को बिना दौड़ाये / भगाये चिकित्शालय तक पहुंचाए, इसके लिए वाहन का इस्तेमाल करे। यदि वाहन उप्लंध नहीं हो तो दुपहिया वाहन का इस्तेमाल करे एवं दो जनो के बीच में पीड़ित को बैठा कर अस्पताल लेकर जाना चाहिए ।
  4. अस्पताल में यदि किसी को जानते है तो उनको पीड़ित के पहुंचने से पहले सूचित कर दे, ताकि वह बिना समय गवाए पहले ही संशाधनो की व्यवस्था कर सके।
  5. अधिक सांप पाये जाने वाले क्षेत्र में रहने वाले लोग आस पास के अस्पताल के बारे में जानकारी रखे क्या वाहन एवं सर्प दंश से सम्बंधित इलाज उपलब्ध है।
  6. एंटीवेनम का इस्तेमाल मात्र प्रशिक्षित डॉक्टर ही कर सकता अतः अपने पास इनका अनावस्यक संग्रहण नहीं करे एवं स्वयं इसका इस्तेमाल तो कदापि नहीं करे।
  7. सर्प दंश में जिस एंटीवेनम- पॉलीवालेन्ट स्नेक एंटीवेनम का भारत में इस्तेमाल किया जाता है वह भारत के चार प्रमुख विषैले सांपो के विष के लिए प्रभावी है परन्तु फिर भी सांप की प्रजाति अगर पहचान सकते है तो इलाज आसान होता है। अतः उसे पहचान ने का प्रयास करे एवं डॉक्टर को ठीक से वर्णित करे।
  8. कई बार डॉक्टर को भी सांप के काटे के इलाज का अनुभव नहीं होता है, अतः आस पास के सर्प विशेषज्ञ से मदद लेकर उन्हें अनुभवी डॉक्टर से राय मशविरा करवाया जा सकता है।
  9. अक्सर निजी अस्पताल सांप के काटे का इलाज करते है परन्तु जिले के मुख्य सरकारी अस्पताल में यह पूर्णतया मुफ्त है, चूँकि एंटीवेनम की दवा को लाइफ सेविंग ड्रग की श्रेणी में रखा गया है, अतः वह इनका पर्याप्त स्टॉक भी रखना उनके लिए अनिवार्य है । एंटीवेनम की दवा महंगी होती है अतः आम जनता सरकार की योजना का लाभ भी इन्ही सरकारी अस्पतालों में ही उठा सकती है।

सांप के देवता के मंदिर में आये चढ़ावे आदि को समेटते प्रबंधक और पुजारी (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

इस प्रकार राजस्थान के विशाल भू भाग जहाँ अधिकांश जनता ग्रामीण इलाकों में रहती है, सर्प दंश से प्रभावित होसकती है। आवस्यकता है इसके बाद उचित इलाज लेने की। सांप हमारे पर्यवरण के महत्वपूर्ण घटक है इन्हे बचाना भी आवश्यक है। आप थोड़ी सावधानी से सर्प दंश से बच सकते है इनके शिकार आप नहीं आपका शत्रु चूहा है। असावधानी वश आपका इनसे प्रभावित होसकते है। अंधविश्वास से दूर रहे सही वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर निर्णय लेकर अपनी और अपने मित्रो की जान बचाये एवं सांप की भी जान बचाये।

राजस्थान वन विभाग के लेखकों द्वारा वन एवं वन्यजीवों संबंधी साहित्य सृजन में योगदान

राजस्थान वन विभाग के लेखकों द्वारा वन एवं वन्यजीवों संबंधी साहित्य सृजन में योगदान

राजस्थान मे वानिकी साहित्य सृजन के तीन बडे स्त्रोत है – वन अधिकारीयों द्वारा  स्वतंत्र लेखन, विभागीय स्तर पर दस्तावेजीकरण एवं वन विभाग के बाहर के अध्येताओं द्वारा लेखन। वन विभाग राजस्थान में कार्य योजनाऐं (Working plans), वन्य जीव प्रबन्ध योजनाऐं (Wildlife management plans), विभागीय कार्य निर्देशिकायें, तकनीकी निर्देशिकायें, प्रशासनिक प्रतिवेदन, वन सांख्यिकी प्रतिवेदन (Forest statistics),  ब्रोशर, पुस्तकें, लघु पुस्तिकायें, न्यूज लेटर, पत्रिकाएं, सामाजिक-आर्थिक सवेंक्षण (Socio-economic surveys) आदि तैयार की जाती है। या प्रकाशित की जाती है। इन दस्तावेजों/वानिकी साहित्य से विभिन्न सूचनाओं, योजनाओं एवं तकनीकों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

वन विभाग मुख्य रूप से वन एवं वन्यजीवों के प्रबन्धन एवं विकास कार्यों के संपादन से संबंध रखता है लेकिन अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अनुसंधान एवं सर्वेक्षण कार्य भी संपादित करता है। वन कर्मी अपने अनुभव, अनुसंधान एवं सर्वेक्षण कार्यों को कई बार अनुसंधान पत्रों एवं पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करते रहे है। यह कार्य राज्य सेवा के दौरान या सेवानिवृति के बाद भी किया जाता है। प्रस्तुत लेख मे वर्ष 1947 से 2019 तक 73 वर्षों में राजस्थान वन विभाग के अधिकारीयों-कर्मचारीयों द्वारा लिखित, प्रकाशित  एवं संपादित पुस्तक/ पुस्तिकाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है जो नीचे सारणी में प्रस्तुत हैः

सारणी 1: राजस्थान के कार्मिकों द्वारा लिखित पुस्तकों की सूची
क्र.सं. लेखक वन/विभाग में अंतिम पद/ वर्तमान पद लिखित पुस्तक मय प्रकाशन वर्ष भाषा
1 श्री वी.डी.शर्मा’ (श्री राजपाल सिंह के साथ प्रथम लेखक के रूप में सहलेखन किया) प्रधान मुख्य वन संरक्षक Wild Wonders of Rajasthan (1998) अंग्रेजी
2 डॉ. डी. एन. पान्डे* प्रधान मुख्य वन संरक्षक 1000 Indian Wildlife Quiz (1991) अंग्रेजी
अरावली के वन्यवृक्ष (1994) हिन्दी
Beyond vanishing woods (1996) अंग्रेजी
साझा वन प्रबन्धनःजल और वन प्रबंध में लोग ज्ञान की साझेदारी (1998) हिन्दी
Ethnoforestry: Local knowledge for sustainable forestry and livelihood security (1998) अंग्रेजी
वन का विराट रूप: वन के उपयोग, दुरूपयोग और सदुपयोग का संयोग (1999) (श्री आर.सी.एल.मीणा के साथ द्वितीय सहलेखक के रूप में लेखन) हिन्दी
3 श्री पी.एस.चैहान* (श्री डी.डी.ओझा के साथ द्वितीय सहलेखक के रूप में लेखन) प्रधान मुख्य वन संरक्षक मरूस्थलीय परितंत्र में वानिकी एवं वन्यजीव (1996) हिन्दी
4 श्री सम्पतसिंह* उप वन संरक्षक राजस्थान की वनस्पति (1977) हिन्दी
5 श्री आर.सी.एल. मीणा* मुख्य वन संरक्षक अरावली की समस्यायें एवं समाधान (2003) हिन्दी
जल से वन: पारंपरिक जल प्रबंध से वानिकी विकास (2001) हिन्दी
वन का विराट रूप: वन के उपयोग, दुरूपयोग और सदुपयोग का संयोग (1999) (श्री डी.एन. पाण्डे के साथ प्रथम सह लेखक के रूप में लेखन) हिन्दी
6 श्री एस.के.वर्मा* प्रधान मुख्य वन संरक्षक राजस्थान का वन्यजीवन (1991) हिन्दी
Reviving wetlands: Issues and Challenges (1998) अंग्रेजी
7 श्री अभिजीत घोष* प्रधान मुख्य वन संरक्षक सही विधि से कैसे करें पौधारोपण? (2005) हिन्दी
8 श्री एस.के.जैन* (डी.के.वेद, जी.ए.किन्हाल,के.रविकुमार, एस.के.जैन, आर. विजय शंकर एवं आर. सुमती के संयुक्त संपादकत्व में प्रकाशित) मुख्य वन संरक्षक Conservation, Assessment and Management prioritization for the medicinal plants of Rajasthan (2007) अंग्रेजी
9 श्री कैलाश सांखला* मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक National Parks (1969) अंग्रेजी
Wild Beauty (1973) अंग्रेजी
Tiger (1978) अंग्रेजी
The story of Indian Tiger (1978) अंग्रेजी
Garden of God (1990) अंग्रेजी
Return of Tiger (1993) अंग्रेजी
10 डॉ.. जी.एस. भारद्वाज* अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक Tracking Tigers in Ranthambhore अंग्रेजी
11 यू.एम.सहाय* प्रधान मुख्य वन संरक्षक Tennis the menace: 1000 Tennis quiz (1998) अंग्रेजी
12 श्री पी.आर सियाग* वन संरक्षक Afforestaiton Manual (1998) अंग्रेजी
13 श्री एस. एस चौधरी प्रधान मुख्य वन संरक्षक Ranthambhore beyond tigers (2000) अंग्रेजी
14 श्री फतह सिंह राठौड* उप वन संरक्षक With tigers in the wild (1983) (श्री तेजवरी सिंह एवं श्री वाल्मिक थापर के साथ प्रथम लेखक के रूप में लेखन) अंग्रेजी
Wild Tiger of Ranthambhore (श्री वाल्मिक थापर के साथ द्वितीय लेखक के रूप में लेखन) अंग्रेजी
Tiger Portrait of Predators (श्री वाल्मिक थापर एवं श्री जी. सिजलर के साथ तृतीय लेखक के रूप में लेखन) अंग्रेजी
15 श्री वी. एस. सक्सेना* मुख्य वन संरक्षक Afforestation as a tool for environmental improvement (1990) अंग्रेजी
Tree nurseries and planting practices (1993) अंग्रेजी
Useful trees, shrubs and grasses (1993) अंग्रेजी
16 श्री एच.वी. भाटिया** उप वन संरक्षक राजस्थान की आन-बान-शान (2011) हिन्दी
पुण्यात्मा दानी वृक्ष (प्रकाशन वर्ष अंकित नहीं) हिन्दी
17 डॉ. सतीश कुमार शर्मा** सहायक वन संरक्षक Ornithobotany of Indian weaver birds (1995) अंग्रेजी
लोकप्राणि-विज्ञान (1998) हिन्दी
वन्यजीव प्रबन्ध (2006) हिन्दी
Orchids of Desert and Semi-arid Biogeographic  zones of India (2011) अंग्रेजी
वन्य प्राणी प्रबन्ध एवं पशु चिकित्सक (2013) हिन्दी
Faunal and floral endemism in Rajasthan (2014) अंग्रेजी
Traditional techniques used to protect farm and forests in India(2016) अंग्रेजी
वन विकास एवं परिस्थितिकी (2018) हिन्दी
वन पौधशाला-स्थापना एवं प्रबन्धन (2019) हिन्दी
वन पुनरूद्भवन एवं जैव विविधता संरक्षण (2019) हिन्दी
18 डॉ. भगवान सिंह नाथवत** सहायक वन संरक्षक वन-वन्यजीव अपराध अन्वेषण (2006) हिन्दी
पर्यावरण कानून बोध (2010) हिन्दी
19 डॉ. रामलाल विश्नोई** उप वन संरक्षक सामाजिक वानिकी से समृद्धि (1987) हिन्दी
भीलवाडा जिले में वन विकास (1997) हिन्दी
Prespective on social forestry (2001) अंग्रेजी
20 श्री भागवत कुन्दन*** वनपाल रूँखड़ा बावसी नी कथा (1990) हिन्दी
21 डॉ. सूरज जिद्दी*** जन सम्पर्क अधिकारी रणथम्भौर का इतिहास (1997) हिन्दी
Bharatpur (1986) अंग्रेजी
वनः बदलते सन्दर्भ में (1985) हिन्दी
Museum and art galleries of Rajasthan (1998) अंग्रेजी
Step well and Rajasthan (1998) अंग्रेजी
मानव स्वास्थ्य (2003) हिन्दी
अजब गजब राजस्थान के संग्रहालय (2005) हिन्दी
राजस्थान के जन्तुआलय (2005) हिन्दी
राजस्थान के मनोहारी वन्यजीव अभयारण्य (2005) हिन्दी
राष्ट्रीय उद्यान एवं अभयारण्य हिन्दी
कचरा प्रबन्ध (2009) हिन्दी
वनमित्र योजना (2010) हिन्दी
A guide to the Wildlife parks of Rajasthan (1998) अंग्रेजी
22 श्री संजीव जैन*** क्षेत्रीय वन अधिकारी विद्यालयों में बनावें ईको क्लब (2005) हिन्दी
प्रकृति प्रश्नोत्तरी (2003) हिन्दी
23 डॉ. राकेश शर्मा*** क्षेत्रीय वन अधिकारी साझा वन प्रबन्ध (2002) हिन्दी
पर्यावरण प्रशासन एवं मानव पारिस्थितिकी (2007) हिन्दी
पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण (2012) हिन्दी
राजस्थान फोरेस्ट लॉ कम्पेडियम   (2012) हिन्दी
24 श्री दौलत सिंह शक्तावत** उप वन संरक्षक My encounters with the big cat and other adventures in Ranthabhore (2018) अंग्रेजी
25 श्री सुनयन शर्मा* उप वन संरक्षक Sariska (2015) अंग्रेजी

*भारतीय वन सेवा का अधिकारी, **राजस्थान वन सेवा को अधिकारी, ***अन्य स्तर के अधिकारी – कर्मचारी, 1-वर्ष 2019 तक सेवा निवृत हो चुके कार्मिक, 2- वर्तमान में भी विभाग में कार्यरत कार्मिक

सारणी 1 से स्पष्ट है कि राजस्थान के वन कार्मिकों ने राज्य से सम्बन्धित वानिकी साहित्य के सृजन हेतु आजादी के बाद यानी 1947 के बाद ही स्वतंत्र लेखन किया है। 1947 से 2019 तक 26 वन विभाग लेखकों ने कुल 70 पुस्तकें प्रकाशित की जिनमें 37 हिन्दी भाषा में एवं 33 अंग्रेजी में लिखी गई। भारतीय वन सेवा के 17 अधिकारीयों ने एवं राजस्थान वन सेवा के 5 अधिकारीयों ने अपनी लेखनी चलाई। श्री कैलाश सांखला (1973 से 1993) ने मुख्यतया बाघ (Tiger-Panthera tigris) पर मोनोग्राफ तर्ज पर विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं। उन्होंने बाघ के रहस्यमय जीवन का जो दिग्दर्शन कराया वह अनूठा है। श्री वी,डी, शर्मा (1998) द्वारा अपने सेवाकाल के प्रेक्षणों को बेजोड़ रूप में पुस्ताकाकार प्रस्तुत किया गया। उनकी पुस्तक ’’वाइल्ड वन्डर्स ऑफ़ राजस्थान” में विषय व छायाचित्रों की विविधता देखने लायक है। डॉ. जी.एस.भारद्वाज (1978), श्री फतह सिंह राठौड़ (1983,2000), श्री तेजवीर सिंह (1983) एवं श्री सुनयन शर्मा (2015) ने अपने लेखन कौशल द्वारा श्री सांखला की बाघ संरक्षण संबंधी लेखन विरासत को और आगे बढाया है। श्री आर.सी.एल.मीणा (1999,2001,2003) ने ग्रामीण परिवेश से जुडे पर्यावरणीय एवं वानिकी मुद्दों को छूआ है। डॉ. डी. एन. पाण्डे (1991, 94, 96, 98, 99) ने पारम्परिक देशज ज्ञान व लोक वानिकी की अहमियत को रेखंकित कर इसके उपयोग को बढावा देकर वन समृद्धि लाने पर जोर दिया है। श्री वी.एस.सक्सेना (1990, 93) ने पौधशाला एवं वृक्षारोपण विषयों पर लिखा है। श्री एस.के.वर्मा (1991, 98) ने वन्यजीवन की विविधतापूर्ण झाँकी प्रस्तुत की है एवं नमक्षेत्र की समस्याओं व संरक्षण उपायों को प्रकट किया है। श्री पी.एस.चैहान (1996) ने थार मरूस्थल की समस्याओं व जुड़े मुद्दों पर प्रकाश डाला है एवं विषम क्षेत्र की परिस्थितियों में वानिकी एवं वन्यजीवन संरक्षण-प्रबन्धन प्रद्धतियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है।

श्री सम्पतसिंह (1977) ने राजस्थान के विभिन्न महत्वपूर्ण पौधों की जानकारी प्रस्तुत की है। श्री अभिजीत घोष (2005), डॉ. भगवान सिंह नाथावत (2006, 2010), डॉ. सूरज जिद्दी (1977 से 2010) एवं श्री संजीव जैन (2005) ने वानिकी से सम्बन्धित अलग-अलग विषयों पर सरल भाषा में सचित्र पुस्तिकायें प्रकाशित की हैं। डॉ. जिद्दी द्वारा लिखित विभिन्न पुस्तिकायें बच्चों हेतु बहुत उपयोगी हैं जो विद्यालय – महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं के लिये बहुत ज्ञान वर्धक हैं एवं एक हद तक वानिकी क्षेत्र के बाल साहित्य की कमी पूरी करती हैं। श्री यू.एम.सहाय (1996) ने टेनिस खेल संबंधी प्रश्नोत्तरी पर पुस्तक लिखी है। हालांकि इस पुस्तक का वन से संबंध नहीं है तथापि वनाधिकारी की लेखन कुशलता का प्रमाण है। वानिकी से संबंधित प्रश्नोत्तरी डॉ. डी.एन.पान्डे (1991) एवं श्री संजीव जैन (2003) ने पुस्तककार प्रस्तुत की हैं। डॉ. राकेश शर्मा (2002,07,12) ने वानिकी के क्षेत्र में जनता की भागीदारी, प्रशासनिक पहलुओं एवं नियामवली जैसे विषयों पर प्रकाश डाला है। श्री एस.के.जैन (2007) ने राज्य के औषधीय पौधों पर हुई कैम्प कार्यशाला (Camp Workshop)  के आधार पर तैयार रेड डेटा बुक के संपादन में भाग लिया है। डॉ. सतीश कुमार शर्मा (1995 से 2019) ने राजस्थान की जैव विविधता, तथा वन एवं वन्यजीवों के वनवासियों से संबंध की झलक के साथ- साथ संरक्षित क्षेत्रों एवं चिडियाघरों में वन्यप्राणी संरक्षण-संवर्धन एवं प्रबन्धन विषयों पर सविस्तार प्रकाश डाला है। श्री एच.वी. भाटिया (2011) ने रजवाडों के समय एवं आजादी के तुरन्त बाद की वानिकी पर प्रकाश डाला है। उन्होंने जन – जागरण हेतु भी कलम चलाई है। श्री भागवत कुन्दन (1990) ने डूंगरपुर- बांसवाडा की स्थानीय वागडी बोली में वनों-वृक्षों की महिमा को काव्य रूप में प्रस्तुत कर वन संरक्षण हेतु जनजागृत में योगदान दिया है। जब वे राजकीय सेवा में थे, उन्होंने अपने काव्य को आमजन के समक्ष गेय रूप में भी प्रस्तुत कर जागरण अभियान चलाया। लेखक ने 1986 में उनके काव्य पाठ स्वयं सुने हैं।

वन कार्मिकों के लेखन में एक बात सामने आई है, वह है उनके द्वारा अनुभवों एवं संस्मरणों का भी वैज्ञानिकता के साथ प्रस्तुतिकरण। फील्ड में निरन्तर होने वाले प्रेक्षणों एवं अनुभवों से हम अच्छे निष्कर्ष निकाल सकते हैं तथा नये सिरे से ऐसी चीजों पर अनुसंधान की ज्यादा जरूरत नहीं होती।

आजादी के बाद राजस्थान वन विभाग में श्री सी.एम. माथुर पहले ऐसे वन अधिकारी हुऐ हैं जिन्होने 1971 मे पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वनअधिकारीयों में पीएच.डी. उपाधि लेने की प्रवृति प्रारंभ हुई और वन अनुसंधान को गति मिलने लगी। श्री कैलाश सांखला ने 1970 के आसपास फील्ड में प्रेक्षण लेकर उसे आधार बना कर वैज्ञानिक लेखन की नींव प्रारंभ की। राजस्थान में वैज्ञानिक प्रेक्षण-लेखन को आधार मानकर पुस्तकें लिखने का युग डॉ. सी.एम. माथुर एवं श्री कैलाश सांखला जैसे वन अधिकारियों ने प्रारंभ किया। उनके बाद यह प्रवृति और बढती गयी। माथुर – सांखला के लेखन युग से प्रारंभ कर अगले 45 सालों में 26 वनकर्मी पुस्तक -लेखक के रूप में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं।

वन कार्मिकों के लेखन में विविधता है। वन, वन्यजीव, पर्यावरण, जैव विविधता आदि विषयों पर अत्याधिक लेखन हुआ है लेकिन अभी वन – इतिहास (थ्वतमेज भ्पेजवतल) एवं आत्मकथा लेखन का कार्य किसी ने नहीं किया है। राजकीय स्तर पर हाँलांकि “विरासत” नामक पुस्तक में इतिहास लेखन की तरफ कदम उठाया गया हैं लेकित यह शुरूआत भर है। आने वाले समय में इन क्षेत्रों में भी लेखन होगा, ऐसी आशा है।

Cover photo Credit: Mr. Abhikram Shekhawat

 

 

 

 

दुनिया कि सबसे छोटी बिल्ली एवं राजस्थान में उसका वितरण

दुनिया कि सबसे छोटी बिल्ली एवं राजस्थान में उसका वितरण

हाल ही में एक अध्ययन से खुलासा, कि राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित है दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली …

दुनियाँ की सबसे छोटी बिल्ली रस्टी-स्पोटेड कैट (Prionailurus rubiginosus), का वितरण क्षेत्र अन्य बिल्ली प्रजातियों की अपेक्षाकृत सीमित है। यह बिल्ली भारत, नेपाल एवं श्रीलंका में पायी जाती है। मनुष्यों की बढ़ती आबादी तथा जंगलों के विनाश व खंडन के कारण आज यह खतरे के निकट (Near Threatened) है। भारत में इसकी उपस्थिति राजस्थान के अलावा गुजरात, हरियाणा उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से दर्ज की गयी है। राजस्थान में इसकी वितरण सीमा को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में यह राज्य इसकी वितरण सीमा का पश्चिमी छोर है। वर्ष 2020 से पहले इसे राजस्थान के कुल 34 जिलों में से केवल पांच से दर्ज किया गया था। राजस्थान के दक्षिणी छोर पर स्थित उदयपुर जिले में 1994 में रस्टी-स्पॉटेड कैट की प्रथम उपस्थिति दर्ज की गयी थी। इसके बाद कुल 86,205 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले चार और जिलों; अलवर, सवाई माधोपुर, बूंदी और भरतपुर से इसे दर्ज किया गया है और शेष जिलों में इसकी उपस्थिति के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था।

वैज्ञानिकों और प्रकृतिवादियों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात यह है की हाल ही में रस्टी-स्पॉटेड कैट के वर्तमान वितरण क्षेत्र पर एक अध्ययन किया है, जो की  “Journal of Threatened Taxa” में प्रकाशित हुआ है, इसमें यह देखा गया है, कि पिछले 20 वर्षों (2000 से 2020) में रस्टी-स्पॉटेड कैट की राजस्थान में उपस्थिति कहाँ-कहाँ रही है (Sharma and Dhakad 2020)?

रस्टी-स्पॉटेड कैट, आकार में बिल्ली कुल कि सबसे छोटी सदस्य है। इनके भूरे फर पर कत्थई-भूरे-लाल रंग के धब्बे और बादामी रंग की लकीरें होती है। इसकी आँखों के ऊपर चार काली रेखाएं होती हैं जिनमें से दो गर्दन के ऊपर तक फैली होती हैं। सिर के दोनों तरफ छः गहरे रंग कि धारियाँ होती हैं जो गालों और माथे तक फैली जाती हैं। इसकी ठुड्डी, गला, पैरों का अंदरूनी भाग और पेट मुख्यतः सफ़ेद होते हैं जिस पर छोटे भूरे धब्बे होते हैं। इसके पंजे और पूंछ एक समान लाल भूरे रंग के होते हैं। यह लगभग 35 से 48 सेंटीमीटर तक लम्बी होती है तथा इसका वज़न 1.5 किलो तक हो सकता है।

रस्टी-स्पोटेड कैट कैमरा ट्रैप तस्वीर (फोटो: टाइगर वॉच)

मनुष्यों की बढ़ती जनसंख्या और वनों के कटाव एवं विखंडन के कारण रस्टी-स्पॉटेड कैट की स्थिति प्रभावित हुई है। वर्ष 2016 में इसे IUCN की रेड लिस्ट में खतरे के निकट (Near Threatened) श्रेणी में रखा गया। इस बिल्ली प्रजाति के वितरण क्षेत्र व अन्य पहलुओं पर अध्ययन बहुत ही सीमित है। इसी प्रयास में, राजस्थान में इसकी उपस्थिति जानने हेतु इस अध्ययन के लेखकों ने राज्य से पिछले 20 वर्षों की सभी सूचनाएं; प्रत्यक्ष अवलोकन, सड़क दुर्घटना में मारे गए, विपदा में फंसे बचाये बिलौटे तथा कैमरा ट्रैप में दर्ज हुए प्राणियों के चित्र एकत्रित करने का प्रयास किया, तथा इन सभी सूचनाओं को नक़्शे पर दर्शाया और वितरण क्षेत्र एवं सीमा का मूल्यांकन भी किया।

अध्ययन के लेखकों ने वर्ष 2000 से शुरू होकर मार्च 2020 तक 30 अलग-अलग स्थानों से कुल 51 सूचनाएं एकत्रित की। अध्ययन द्वारा संगृहीत आंकड़ों के संकलन से पता चलता है कि रस्टी-स्पॉटेड कैट राजस्थान के दस और जिलों; अजमेर, सिरोही, कोटा, धौलपुर, करौली, चित्तौड़गढ़, जयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और पाली में भी उपस्थित है, तथा इसकी वितरण सीमा 71,586 वर्ग किमी क्षेत्र तक है जो मुख्यरूप से अरावली एवं विंध्यन पर्वतमाला तथा पूर्वी राजस्थान के अर्ध-शुष्क क्षेत्र हैं। इसे विभिन्न प्रकार के आवासों में देखा गया जैसे कि कांटेदार और शुष्क पर्णपाती वन, मानव बस्तियों के बाहरी इलाकों में, कंदरा क्षेत्र (ravines), बगीचे, वनों के निकट स्थित कृषि क्षेत्र एवं मानव आबादियों के पास स्थित वन कुंजों, सागवान वन और अर्ध-सदाबहार चौड़ी पत्ती के पहाड़ी वन क्षेत्र।

 राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट का वितरण क्षेत्र

सभी सूचनाओं की समीक्षा करने पर यह ज्ञात होता है कि रस्टी स्पॉटेड कैट अरावली पर्वत श्रृंखला में व्यापक रूप से वितरित है। यदि हम ऊंचाई के दृष्टिकोण से बात करते हैं, तो इसे अरावली हिल्स के सबसे ऊंचे स्थान “माउंट आबू” तक वितरित है।

सभी सूचनाओं कि समीक्षा से यह भी पता चलता है कि यह बिल्ली पूर्णरूप से निशाचर है क्योंकि इसे मुख्यतः अँधेरे के समय देर शाम और शुरुआती सुबह में ही देखा गया है। वर्षा ऋतु में इसे कई बार वन क्षेत्रों कि दिवार एवं पैरापेट दीवार पर भी बैठा देखा गया है, जिसमें से एक बार तो इसे और तेंदुए को लगभग 50 मीटर कि दूरी पर एक साथ बैठे देखा गया है। एक अवसर पर, बिल्ली को रौंज (Acacia leucophloea) के वृक्ष पर देखा गया और पेड़ के कांटे होने के बावजूद भी बिल्ली को एक शाखा पर आराम से बैठे देखा गया था। इन अवलोकनों से बिल्ली के अर्ध-वृक्षीय स्वभाव के बारे में पता चलता है।

अध्ययन में अरावली पर्वतमाला के पश्चिमी भाग से कोई भी रिकॉर्ड नहीं मिला जो कि राजस्थान का थार मरुस्थलीय भाग है। थार में बिल्ली की अनुपस्थिति के लिए उच्च तापमान और आवास प्रकार में अंतर को मुख्य कारण प्रतीत होते हैं। इसके अलावा अरावली के पूर्व में आने वाले कुछ जिलों जैसे कि दौसा, टोंक, राजसमंद, भीलवाड़ा, बारां और झालावाड़ में शुष्क पर्णपाती वन होते हुए भी कोई रिकॉर्ड नहीं मिला है। इन जिलों में उपयुक्त आवासों में कैमरा ट्रैप विधि को अपनाने की जरुरत है ताकि इस प्रजाति की उपस्थिति सम्बन्धी ठोस जानकारी मिल सके।

सड़क दुर्घटना में मारी गई रस्टी-स्पोटेड कैट की तस्वीर (फोटो: श्री नीरव भट्ट)

अध्यन्न के दौरान छह बार बिलौटे देखे गए। वयस्क बिल्लियां 45 बार दर्ज की गयी जिनमें 41 जीवित तथा चार सड़क दुर्घटना में मृत पायी गई। विशेष रूप से रात के समय, बिल्ली को सड़क के आसपास विचरण करते हुए देखा गया, सडकों पर विचरण करने से इस बिल्ली के वाहनों के चपेट में आने का खतरा बढ़ जाता है। रस्टी-स्पोटेड कैट को सड़क दुर्घटना में शिकार होने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण निवारक उपायों की आवश्यकता है। जैसे कि पैट्रोलिंग स्टाफ को सड़क पर मरे (Roadkill) एवं आसपास निस्तारित किए गए मवेशियों के शवों की जांच करने और जंगलों से गुजरने वाली सड़कों से उनको हटवाने का उचित प्रावधान किया जाना चाहिए। इस प्रजाति के संरक्षण हेतु सडकों के किनारे स्थित होटलों और रेस्तरां में उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली, सडकों पर उचित अंतराल पर अंडरपास की व्यवस्था, सड़कों से दूर पानी की सुविधा, और ड्राइवरों के लिए गति संकेतों, द्वारा न केवल रस्टी-स्पोटेड कैट को दुर्घटनाओं से बचा सकते हैं बल्कि सड़कों को पार करने वाली कई अन्य प्रजातियों को भी बचाया जा सकता है।

राजस्थान में रस्टी-स्पोटेड कैट अभी भी कम ज्ञात प्रजाति है। वन विभाग को इस बिल्ली की सही पहचान करने के लिए वन कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने और गणना के आंकड़ों को शामिल करने की पहल करनी चाहिए। इस प्रजाति की स्थिति जानने के लिए राज्य के अन्य जिलों में गहन कैमरा ट्रैप अध्ययन की आवश्यकता है। रस्टी-स्पॉटेड कैट के दीर्घकालीन बचाव हेतु वन संरक्षण सबसे जरूरी है। राजस्थान में रस्टी-स्पॉटेड कैट की संख्या निर्धारण हेतु संरक्षित क्षेत्रों के बाहर इसके सर्वेक्षण की पुरजोर अनुशंषा करते हैं।

सन्दर्भ:

  • Cover photo credits: Dr. Dharmendra Khandal
  • Sharma, S.K. & M. Dhakad (2020). The Rusty-spotted Cat Prionailurus rubiginosus (I. Geoffroy Saint-Hillaire, 1831) (Mammalia: Carnivora: Felidae) in Rajasthan, India – a compilation of two decades. Journal of Threatened Taxa 12(16): 17213–17221. https://doi.org/10.11609/jott.6064.12.16.17213-17221

लेखक:

Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.

Dr. Satish Kumar Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.

 

 

 

 

Diminishing Dominions: Revelations from a New Study on the Caracal in India

Diminishing Dominions: Revelations from a New Study on the Caracal in India

The Caracal (Caracal caracal) is among the most widespread small cats in the world. However, knowledge of its conservation status and ecology in its Asian range countries is minimal and severely outdated. Consistent reports however do originate from India, Israel and Iran. The Caracal has interestingly been considered rare in India for a little more than three centuries. In 1671, President Gerald Aungier, British East India Company Officer who became the second Governor of Bombay, was presented a Caracal by the Mughal General Diler Khan in exchange for a pair of English greyhounds. Even back then, Aungier was made aware of what a rarity the Caracal was in India and thus arranged to have it shipped back to England. Naturalists have continued to comment on the Caracal’s rarity in India since then to the present day, with some even going as far as to suggest that it is on the verge of extinction.

However, little is known of the Caracal’s ecology in India during the last four centuries. In order to understand whether the species has indeed experienced a decline in India, Dr. Dharmendra Khandal and Ishan Dhar of Ranthambhore based NGO, Tiger Watch and Dr. G.V. Reddy, recently retired as Head of Forest Forces for the state of Rajasthan conducted a study on the Historic and current extent of occurrence for the Caracal in India published in the most recent special issue on small wild cats in the Journal of Threatened Taxa. This is the culmination of two yearlong effort, which involved the review of several books and journals as well as sourcing and interacting with individuals from all walks of life who might have crossed paths with this elusive animal in India.

Cover photo of December month edition of Journal of Threatened Taxa

Despite the Caracal’s rarity, it has an extraordinarily rich history with humans in India. The Caracal was prized for its ability to hunt birds mid-flight. The vernacular name, Caracal, originates from the Turkic word Karakulak, which literally translates to ‘black-ear’, drawing emphasis on its long black tufted ears. In India, the Caracal is vernacularly known by its Persian name, Siyagosh, which also directly translates to ‘black-ear’. A fable from the Sanskrit text, the Hitopadesa, focuses on a small wild cat named Dirgha-karan or ‘long-eared preying on a bird’s chicks. This is the closest we come to what could possibly be a Caracal in Sanskrit literature. In fact, it was only in 1953, that a Sanskrit name, sas-karan or ‘rabbit like ears’ was proposed as a part of a broader attempt at formulating Sanskrit nomenclature for the fauna of India, Myanmar and Sri Lanka following the Linnaean system of classification.

The Caracal was first used as a coursing animal in India during the Delhi Sultanate. In the 14th century, Sultan Firoz Shah Tughlaq established a ‘Siyah-Goshdar Khana’ for the maintenance of his vast collection of coursing Caracals. The Third Mughal Emperor Akbar also used the Caracal extensively for coursing. It was during the Akbar’s reign that the Caracal also began to be represented in illustrated simplified Persian illustrations of Sanskrit, Arabic and Turkic texts literature such as Anvar-i-SuhayliTutinama, as well as Persian classics such as the Khamsa-e-Nizami and Shahnameh. The Caracal’s extensive use historically as a coursing animal and the lack of a Sanskrit name led to some questioning whether the species is indigenous to India at all. However, in 1982, a scientist with the ZSI, Mranomoy Ghosh re-examined a skull fragment purported to have been the earliest fossil of a domestic cat in India. The fragment had been collected from Harappa in 1930 and had been erroneously identified as that of the domestic cat. Ghosh reviewed the skull and discovered that it in fact belonged to a Caracal. This fossil record is India’s oldest Caracal finding, dating to 3000-2000 BC and establishing that the Caracal was present in the Indian subcontinent during the Indus Valley Civilization.

The vernacular name, Caracal, originates from the Turkic word Karakulak, which emphasis on its long black tufted ears. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

However, it is possible that the Caracal’s rarity can be explained by landscape-level anthropogenic changes that have occurred in India since at least 1880. Examining changes to the Caracal’s extent of occurrence in India is a step towards understanding how such change could have impacted the species. In this endeavour, the authors of the study attempted to collate all records of the Caracal in India from the start of recorded history until April 2020, map its historical extent of occurrence and evaluate any changes to its present extent of occurrence. An endeavour made all the more challenging by the prevalence of coursing Caracals historically as well as the at times frustratingly elusive behaviour of wild Caracals.

The authors search entailed an extensive review of literature from the onset of recorded history to the year 2020, spanning almost four centuries. This included the writings of naturalists, zoologists, natural historians, historians, forest officers, gazetteers, chroniclers, erstwhile royalty and army officers. An examination of Caracal specimens deposited at the Bombay Natural History Society (BNHS), Zoological Survey of India (ZSI), the Natural History Museum in London, private trophy collections in India and other museums was also conducted, along with open-ended interviews with forest officers and biologists who observed the Caracal in the field and people who provided photographs. The authors collated and categorized reports according to their reliability in the following manner: A.) confirmed reports based on tangible evidence like photographs, specimens including animal carcasses or body parts that can be accessed currently; B.) confirmed reports based on direct sightings of live or dead individuals, specimens submitted to museums that are no longer accessible or missing, photographic reports that are no longer accessible, destroyed or missing; C.) confirmed reports that indicate Caracal occurrence through species specific information which includes species description and the provision of distinct vernacular names; D.) unconfirmed or questionable reports without any accompanying description, photos or erroneous description.

Indeed 33 reports were considered ‘unconfirmed’ as they were questionable or erroneous. Misidentification with the Jungle Cat is also an ever -present challenge, with erroneous reports continuing to be perpetuated to this day, simply because they have been published. The authors strictly did not include any reports of captive or coursing Caracals as their wild origins were unknown unless explicitly stated. In addition, a regular camera trapping exercise carried out by Tiger Watch’s Village Wildlife Volunteers in and around the Ranthambhore Tiger Reserve since 2015 was also drawn upon. For this exercise, camera trapping is carried out by trained pastoral herders monitoring tigers outside the Tiger Reserve. All reports gleaned from this search were geotagged onto maps to determine the historical and current extent of occurrence areas.

In India there are only two potentially viable populations of Caracal, one in the Ranthambore Tiger Reserve and other in the Kutch district of Gujarat. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

The authors collated 134 reports starting from the year 1616 until April 2020. The Caracal was historically present in 13 Indian states and in 9 out of 26 biotic provinces. Since 2001, the Caracal’s presence has been reported in the three states of Rajasthan, Gujarat and Madhya Pradesh and four biotic provinces, with only two possible viable populations in the Ranthambhore Tiger Reserve in Rajasthan and the district of Kutch in Gujarat. Prior to 1947, the Caracal was reported from an area of 793,927 km2. Between 1948 and 2000, the Caracal’s reported extent of occurrence in India decreased by 47.99%. From 2001 to 2020, the reported extent of occurrence further decreased by 95.95%, with current presence restricted to 16,709km2, less than 5% of the Caracal’s reported extent of occurrence in the 1948 to 2000 period and just 2.17% of the period before 1947.

In Rajasthan, there have been a total of 24 Caracal reports since the year 2001. 17 of these reports are backed by photographic evidence. 15 of which are from Ranthambhore, along with a photograph taken from Sariska in 2004 and a camera trap picture from the Keoladeo Ghana National Park in Bharatpur in 2017. However, from 2015 to April 2020, the Village Wildlife Volunteers obtained 176 camera trap pictures of Caracals from 6 locations in and around the Ranthambhore Tiger Reserve. Their camera trapping efforts even conclusively established the Caracal’s presence in the district of Dholpur in Rajasthan. This is the largest repository of photographs for the Caracal in India and quite possibly its entire Asian range. With Ranthambhore being one of two possible viable populations in India, the Village Wildlife Volunteers will be indispensable to any forthcoming conservation intervention concerning the Caracal in India. Since 2001, there have been only 9 photographic Caracal records from Kutch and no photographic records from Madhya Pradesh.

Camera trap photo taken by Village Wildlife Volunteers (PC: Tiger Watch)

It is possible that the Caracal might still be present but underreported in states like Maharashtra, Madhya Pradesh, Uttar Pradesh, and the eastern parts of India. Targeted surveys will be required to further verify and adjust the putative reduction in range size established by this study. With the exception of a handful of studies, there has been virtually no contribution to the knowledge of Caracal ecology in India in the 21st century. Surveys on Caracal population size, reproduction, mortality, home range sizes, and prey dynamics are the need of the hour. A review of just how the categorization of land as a wasteland, impacts the Caracal, which is a scrub dwelling species is also urgently required. Long-term studies focusing on the movement patterns of Caracals to determine and establish wildlife corridors that are suitable to connect the remaining fragmented population units are equally essential. The authors of the study hope to inspire conservationists to join the fight to prevent the Caracal from becoming extinct in India.

Authors:

Mr. Ishan Dhar (L) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

Dr. Dharmendra Khandal (R) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

 

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Locusts: Ancient migratory pests

Locusts: Ancient migratory pests

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They came, they saw, they plundered. They settled on every tree and on every blade of grass; they settled on the houses and covered the bare ground. The skies went black and the Pink city turned brown. It had not happened for many a long year; alas it’s happening now and about 23 countries are under their direct impact with many more to join. And the locusts have the impression of not moving away anytime soon all the while working as if sent to destroy humanity…

Much before the humans took over the world, insects have reigned the planet. These ubiquitous creatures can be found under the ground, as low as life could get; and over the ground, as high as our mountains could reach and are very much associated to human life as both useful and harmful creatures. Among the harmful insects are the Desert Locusts defying the zenith of challenges for humans. As per the estimates of Food and Security Organisation, desert locusts affect the livelihood of one in ten people on the planet and hence are deemed to be the deadliest pests infesting the world. The challenges created by them are not new, they find mentions throughout history and have references of existence through early paintings of pre-historic period.

On an average locust hit once in every six years, the hit so intense it seems they have come all together, to end humans all at once. They cover houses, swing against the windows, collapse against moving vehicles, acting as if they are assigned the only task to plunder greenery and cause destruction.

The highly mobile locusts’ swarms cover a huge area ranging from Mauritania to India, Turkmenistan to Tanzania affecting the lives and crops of people inhabiting these countries. World Bank along with various other development-oriented agencies help the countries in coping with the damaging effects and control locusts, however, there is no significant improvement in lives of people as their attack is unconditional, they are not bound to appear every year and don’t follow a determined specific time to attack instead they appear at irregular intervals, many a time after a gap of several years. This is called periodicity of locust activity. India has witnessed several locust plagues and locust upsurges and incursions during the last two centuries including at least 15 recorded cycles since 1812. During recent past India has witnessed 2 major swarms in 1968 and 1993 and the story continues to date with them appearing at regular intervals.

The year 2020, so far, has proved to be miraculously challenging with various natural calamities including one of a kind THE NOVEL CORONA VIRUS, cyclones, earthquakes and floods. While the whole world is fighting the novel coronavirus epidemic by putting humans under lockdown to limit the spread of the virus, nature has created an equally challenging, but not so new, threat in the form of locusts plague in some African and Asian nations, proving humans can be dethroned from earth anytime, without any warning if the interference with nature is not controlled.

These locusts are once again in front of us in their macabre form and wreaking havoc on crops. People this time speculating various causes for their emergence, some say changing land use pattern might be responsible, some other blaming increased greenery in the deserts, yet another group advocating the rising temperature of the Earth. Before getting to know about their arrival, let’s get acquainted with Locust briefly.

Locusts are mainly grasshoppers found in dry grasslands and desert areas. They are the world’s oldest and highly noticeable migratory pests due to their extreme destruction potential. Mistakenly, people also consider long-horned grasshopper to be locusts as they also breed in favourable summer conditions to increase numbers and destroy crops in a limited area.

Locust is the swarming stage of some species of short-horned grasshopper from the family Acrididae. There is no taxonomic difference between locust and grasshopper species, they look similar to grasshoppers but in practice are completely different from them. Grasshoppers are found on agricultural land while locusts are found in desert and arid conditions. No morphological changes are seen in Grasshopper, whereas many changes are seen during the 90 days life cycle of Locusts.

These grasshoppers are usually solitary but under certain circumstances, when their numbers increase, they witness some behavioural changes and undergo phenotypic shift and change phase to turn gregarious and start migrating. This phase change is the only basis of their definition. This change is called “density-dependent phenotypic plasticity” in scientific terms.

Boris Uvarov first described two stages of phage polymorphisms, the solitaria (independently living hoppers) and the Gregoria (hopper living as bands of immature hopper). These are also known as statary and migratory forms although, in true form, their swarms are nomadic rather than being migratory.

Solitary locusts are forced to live together during the dry season due to the limited greenery in the area. Increased tactile stimulation of the posterior leg leads to an increase in serotonin levels that causes the grasshopper to change colour, eat more, and breed easily. Locusts breed in desert areas and often coincide with forests, agricultural areas, and pastoral livelihoods. In all locusts have three breeding seasons: winter breeding (November to December), spring breeding (January to June) and summer breeding (July to October). There is only one season of grasshopper breeding in India, i.e., the summer breeding while our neighbour, Pakistan has both spring and summer breeding seasons.

The life cycle of locusts consists of three distinct stages, egg, hopper and adult. Locusts lay eggs at a depth of 10 cm in moist sandy soil. Gregarious females usually lay eggs in 2-3 pods with 60–80 eggs in a pod. The solitary female mostly lays an average of 150–200 eggs in 3–4 pods. The rate of growth of eggs depends on soil moisture and temperature. There is no growth below 15°C. Incubation period during the optimum temperature of 32–35°C is between 10–35 days.

There are about 28500 species of grasshoppers worldwide, of which only 500 exist in the form of agricultural pests, and only 20 have the potential to become locusts. India is mainly affected by four species of locusts, the desert locust (Schistocerca gregaria), the African migratory locust (Locusta migratoria), the Bombay locust (Patanga succincta), and tree locust (Anacridium spp).

After the incubation is complete the eggs hatch and nymphs come out which are called “hoppers”. The gregarious stage consists of 5 instars and the Solitarius population consists of 5–6 instars. Each instar has different growth and special colour changes. The growth rate of the hopper depends on the temperature. Where it takes 22 days at an average temperature of 37°C, the same can be delayed up to 70 days at an average temperature of 22°C.

Hoppers become adults after the fifth instar stage. This change is called ‘fledging’ and the young adult is called ‘fledgeling’ or ‘immature adult’. The duration of sexual maturity varies. In the appropriate condition, the adult can mature in 3 weeks and can take up to 8 months in frost and/or drought conditions. During this stage, adults fly to search for favourable reproductive status and can travel thousands of kilometres. During this time, if favourable conditions are found at any time, they can become gregarious

Younger grasshoppers are solitary at the time of hatching and are green and brown to fit with their surroundings. When the food is in abundance, dessert locusts increase the number by breeding and achieve a “gregarious state”. Younger immature adults are pink in colour while older adults turn dark red or brown in cold conditions.

As the locusts grow larger and denser, they act in a group with behavioural changes to form a flying flock known as a swarm. The change of grasshopper form is induced by several contacts per minute over a period of four hours. A large swarm spread over an area of thousands of square kilometres can contain billions of grasshoppers, with a population of about 80 million per square kilometre. At this point, the grasshoppers are fully mature and adult. Adults become bright yellow at maturity. Males mature earlier than females. Changes in locust behaviour and physical symptoms are reversible, which can eventually change their original form or pass on to their offspring.

Locusts hatch from an egg to adulthood after a breeding cycle of about three months and can increase in number up to 20 times. It can increase 400 times after six months and up to 8,000 after nine months. They come in swarms of thousands of millions to eat all the leaves, flowers, fruits, seeds, and bark of trees, plants or crops. They sit on trees in such a number that under their weight the tree can even break. A grasshopper makes a meal equal to its weight i.e. at least two grams. The locust of the flying band also shows the cannibalistic action of biting each other during food shortages. Migrations in desert locusts are influenced by their cannibalism. Research by Sepideh Bazzazi suggests that grasshopper swarms are formed because they like to stay one step ahead of their cannibalistic neighbours to protect themselves.

Their emergence as swarms cannot be attributed to a single factor entirely. They follow a sequence. Yes, changing land use pattern and other factors play an important role, but at a particular point following the sequence. For example, the greenery is essential but only after the eggs have hatched into nymphs, to keep them alive.

Dr S. Pradhan in 1967 put forth the Biotic theory of periodicity of locust cycles, who was at that time head of the division of Entomology at the Indian Agricultural Research Institute, New Delhi. Locusts breed in semi-desert areas where sandy soil is suitable for thrusting the eggs up to a depth of 15 cm. While locusts lead a marginal existence in these areas, their vertebrate predators, namely, lizards, snakes, birds, shrews, hedgehogs, moles etc. find it difficult to sustain themselves in the extreme conditions of deserts and semi-deserts and hence gradually move out to the more tolerant areas on the periphery.

But in desert areas, once in a decade or so, there is sufficient rainfall that triggers the growth of sedge grass and other weeds and locust gets a chance to realise its full biotic potential and its population shoots up in the absence of predators that are present outside the breeding areas and cannot move in fast enough to contain its population. Unchecked by the natural enemies, locust moves from the solitary phase to migratory phase and develops into large congregations and eventually to swarms that migrate out of the breeding areas causing immense destruction. Locust swarms having gone out of the desert areas, scattered population of adults and nymphs is left behind which then persists as solitary phase, throughout Mauritania and India, till the arrival of another phase of tolerant environmental conditions.

Grasshoppers are major components of grassland ecosystems around the world and play an important role in trophic mobility and nutrient cycling. But when green grasslands develop due to good rains, locusts take advantage of the greenery and multiply rapidly to increase in number within a month or two and take the shape of a terrible swarm.

If not controlled on time, small groups of wingless hoppers or bands can form a small group or swarm of winged adult grasshoppers called an OUTBREAK and is typically spread around 5,000 square kilometres in a part of a country. If an outbreak or multiple outbreaks concurrently are not controlled and there is widespread or unusually heavy rainfall in the surrounding areas, a series of breeding seasons may occur that would later lead to the formation of hopper bands and adult swarms. This is called UPSURGE and generally affects the entire region.

if an Upsurge is not controlled, and the environmental condition remains favourable for reproduction, locust populations continue to increase in number and size developing into a PLAGUE. Most infestations occur in the form of bands and swarms at the time of the Plague. A major Plague occurs when two or more regions are affected simultaneously.

Locusts outbreaks are common and frequent, with only a few of these outbreaks taking the form of upsurge, and some of the upsurges turn into plagues. The last Plague was observed in 1987–89 and the last major upsurge in 2003–05. Upsurges and plagues do not emerge on a single night, they may take several months to a year or two to develop.

Globally, Locusts are monitored by the Local Watch Department in guidance of Food and Agriculture Organization (FAO) of United Nation, according to which the current locust attack story began in the year 2018 with cyclonic storms and heavy rains on the Arabian Peninsula. The storm of May caused so much water that for the next six months the desert saw the emergence of green landscapes capable of sustaining two generations of locusts. Subsequently, due to the October storms, locusts got another few months to breed and thrive where their three generations grew up. They became dangerous from here and targeted Africa starting in 2019. Locusts increased their populations in remotely undeveloped areas such as Oman and Yemen due to cyclones.

According to FAO’s locust’s expert Keith Cressman, the organization monitors the attacks of locust through human resources and satellites but has failed in this case. Monitoring network collapsed. According to Cressman, no one knew what was happening in the remote area of ​​the Earth then. There is nothing in this area, no roads, no infrastructure, no Facebook, nothing. Some are large mounds of sand, which are no less than skyscrapers.

When locust swarms develop a tendency to live in groups and become gregarious, they rely primarily on carbohydrate-rich foods. The land from which successive crops have been taken and which have been over-grazed lack Nitrogen. Due to this lack of essential nutrient from the soil carbohydrate-rich grasses develop. Experts have found this in studies on South American locusts.

At the end of 2018, when people saw locusts in Oman, the news reached Cressman’s organization and alerted the situation. But it was too late by then. From here locust swarms had reached Yemen and Iran and were continuously coming out of Oman. War-torn Yemen had the crisis of not having the force to fight the locust attack. Yemen received heavy rainfall during these conditions and the locust swarm found a favourable environment to breed and flourish. The locust disaster reached Somalia from here during the last spring and summer seasons (2019) and then wreaked havoc in Ethiopia and Kenya. Last March saw heavy rain in East Africa, which again proved to be a boon for locusts. Over the last forty years, control of desert locusts with preventive strategy has proved effective, but due to negligence and organizational problems, locust swarms have once again become a serious problem.

Locusts are very difficult to control at the time of the attack as they are spread over a large area. Early intervention in locusts is the only successful way to prevent a swarm. Many organizations around the world monitor threats from locusts. They provide forecasts of areas likely to suffer locusts in the near future.

FAO’s Desert Locust Information Service (DLIS) monitors daily weather, ecological conditions and locust conditions from Rome, Italy. The DLIS obtains the results of field survey and control operations conducted by national teams in the affected countries and assesses the current situation by combining this information with satellite data, such as MODIS, rainfall estimates and seasonal temperatures and rainfall forecasts, etc. Information on breeding and migration during the week is estimated.

Locust Warning Organisation (LWO), Directorate of Plant Protection Quarantine and Storage is responsible for monitoring, survey and control of Desert Locust in Scheduled Desert Areas mainly in the States of Rajasthan and Gujarat. The incursion of exotic locust swarms into India is prevented through the organization of suitable control operation. LWO keeps itself abreast with the prevailing locust situation at National and International level through monthly Desert Locust Bulletins of FAO issued by the Desert Locust Information Service. Survey data are collected by the field functionaries from the fields which are transmitted to LWO circle offices, field HQ Jodhpur and Central HQ Faridabad where these are compiled and analysed to forewarn the probability of locust outbreak and upsurges. The locust situation is appraised to the State Governments of Rajasthan and Gujarat with the advice to gear up their field functionaries to keep a constant vigil on locust situation in their areas and intimate the same to nearest LWO offices for taking necessary action at their end. A lot of innovations have been made in the field of locust survey and surveillance for quick transmission of locust survey data, their analysis, decision making, mapping of survey areas through computerization, adoption of new software like eLocust2/ eLocust3 and RAMSES.

Historically, people were incapable of protecting crops from locusts, however, today we have the advantage of deeper knowledge and technology to fight locusts than ancestors, but still the spread over a huge area (16–30 million km), limited Resources, underdeveloped infrastructure and permeability of those areas, etc. make locusts difficult to control or contain.

Currently, the primary method of controlling desert locust swarm is small concentrated doses of organophosphate chemicals (the major ingredient in herbicides and pesticides). Which are done by spraying ultra-low volume (ULV) with vehicle-mounted or aerial sprayers. Locusts acquire the chemical either directly or indirectly by walking on the plant or eating their residues. These controls are carried out entirely by government agencies. DPPQ&S has approved 4 pesticides for use in scheduled desert areas of India. 11 pesticides have been approved for control of desert locust on crops and trees.

Organic pesticides made from fungi, bacteria, and neem extracts are also used to prevent locusts. The effectiveness of many biological pesticides is comparable to traditional chemical pesticides but in general, it takes a longer time to kill pests. To prevent these, farmers in the affected areas have started growing crops that can be harvested before the local swarm season. Additionally, inhibition of serotonin has succeeded in controlling the number of locusts in laboratories, but the field test of this technique is yet to be done.

Desert locust predator includes wasps and flies, parasitoid wasps, predator beetle larvae, birds and reptiles as natural enemies. Recently, Dr Dharmendra Khandal has seen Jacobin cuckoo, peahen hunting them in Sawai Madhopur. But these predators have the impression that they can be effective in keeping solitary populations under control. Due to a large number of locusts in the swarm and hopper bands, their influence against them is limited.

Although it is almost impossible to stop a grasshopper attack, their severity can be reduced by controlling the swarms, destroying a large number of eggs. Stringent efforts are being made in the affected countries to control the current ‘plague’. But how they will end up is difficult to say. At present, only the monsoon will control their swarm to some extent.

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