स्परफाउल: राजस्थान में मिलने वाली जंगली मुर्गियां

स्परफाउल: राजस्थान में मिलने वाली जंगली मुर्गियां

स्परफाउल, वे जंगली मुर्गियां जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार होते हैं राजस्थान के कई जिलों में उपस्थित हैं तथा इनका व्यवहार और भी ज्यादा दिलचस्प होता है…

पक्षी जगत की मुर्ग जाति में कुछ सदस्य ऐसे पाए जाते हैं जिनके पैरों में नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं और इसी लक्षण की कारण इन्हे स्परफाउल (Spurfowl) कहा जाता है। स्परफाउल कहलाये जाने वाले ये पक्षी आकार में कुछ हद्द तक तीतर जैसे होते हैं परन्तु इनकी पूँछ थोड़ी लम्बी होती है। स्परफाउल को गैलोपेरडिक्स (Galloperdix) वंश में रखा गया है। इस जीनस में कुल तीन प्रजातियां हैं; रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea), पेंटेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata) और श्रीलंका स्परफाउल (Galloperdix bicalcarata)। इन तीन प्रजातियों में से दो रैड स्परफाउल और पेंटेड स्परफाउल राजस्थान में पायी जाती हैं। आइये इनके बारे में विस्तार से जानें।

“झापटा” यानी रैड स्परफाउल (Galloperdix spadicea):

यह एक छोटे आकार की मुर्ग प्रजाति है जो मूल रूप से भारत की ही स्थानिक (Endemic) है। यह एक एकांतप्रिय व् जंगलों में रहने वाला पक्षी है, और इसीलिए इसको सहजता से खुले में देख पाना काफी मुश्किल भी होता है। इसकी पूँछ तीतर (जो स्वयं फ़िज़ेन्ट कुल का पक्षी है) की तुलना में लंबी होती है और जब यह ज़मीन पर बैठा होता है, तो इसकी पूँछ साफ़ दिखाई देती है। हालांकि इसका पालतू मुर्गी से कोई निकट सम्बन्ध नहीं है, लेकिन भारत में इसे जंगली मुर्गा ही माना जाता है। यह लाल रंग का होता है और लम्बी पूँछ वाले तीतर की तरह लगता है। इसकी आंख के चारों ओर की त्वचा पर कोई पंख नहीं होने के कारण आँखों के आसपास नंगी त्वचा का लाल रंग दिखाई देता है। नर और मादा दोनों के पैरों में एक या दो नाख़ून-नुमा उभार (spurs) होते हैं, जिनकी वजह से इनको अंग्रेज़ी नाम Spurfowl मिला है। इसके पृष्ठ भाग गहरे भूरे रंग के और अधर भाग गेरू रंग पर गहरे भूरे रंग चिह्नों से भरा होता है। नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं।

रैड स्परफाउल में नर और मादा दोनों के सिर के पंख थोड़े बड़े होते हैं जिन्हे ये कलंगी (crest) की तरह खड़ा कर लेते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

रेड स्परफाउल, वंश Galloperdix की टाइप प्रजाति (type species) है। इस प्रजाति को 18 वीं शताब्दी के अंत में भारत से मेडागास्कर ले जाया गया था, और फिर मेडागास्कर से ही इस पर पहली बार एक फ्रांसीसी यात्री पीर्रे सोनेरेट  (Pierre Sonnerat) द्वारा व्याख्यान दिया गया था। वर्ष 1789 में जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin) ने द्वीपद नामकरण पद्धति का अनुसरण करते हुए इसे “Tetrao spadiceus” नाम दिया था। गमेलिन, एक जर्मन प्रकृतिवादी, वनस्पति विज्ञानी, किट वैज्ञानिक (Entomologist), सरीसृप वैज्ञानिक (Herpatologist) थे। इन्होंने विभिन्न पुस्तकें लिखी तथा 1788 से 1789 के दौरान कार्ल लिनिअस (Carl Linnaeus) कृत Systema Naturae का 13वां संस्करण भी प्रकाशित किया। परन्तु वर्ष 1844 में एक अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ Edward Blyth ने इसे “Galloperdix” वंश में रख दिया।

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित रैड स्परफाउल का चित्र

यह स्परफाउल मुख्यरूप से दक्षिणी राजस्थान में दक्षिण अरावली से लेकर मध्य अरावली पर्वतमाला के वन क्षेत्रों में पाया जाता है। लेखक (II) के अनुसार रैड स्परफाउल राजस्थान के लगभग 9 जिलों; उदयपुर, राजसमन्द, पाली, अजमेर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौडगढ़, सिरोही और जालौर में निश्चयात्मक रूप से उपस्थित है। इस मुर्गे की एक उप-प्रजाति जिसे अरावली रैड स्परफाउल (Aravalli Red Spurfoul Galloperdix spadicea caurina) नाम से जाना जाता है, आबू पर्वत, फुलवारी वन्यजीव अभयारण्य, कुम्भलगढ वन्यजीव अभयारण्य एवं टॉडगढ-रावली अभयारण्यों में अच्छी संख्या में पाई जाती है। यह प्रजाति आबू पर्वत के दक्षिण में स्थित गुजरात राज्य के वन क्षेत्रो में भी कुछ दूर तक देखी जा सकती है। यह प्रजाति पहाड़ी, शुष्क और नम-पर्णपाती जंगलों में पाई जाती है। झापटा आमतौर पर तीन से पांच के छोटे समूहों में अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। जब चारों ओर घूमते हैं, तो अपनी पूंछ को कभी-कभी घरेलु मुर्गे की तरह सीधे ऊपर उठा कर रखते हैं। दिन में यह काफी चुप रहते हैं लेकिन सुबह और शाम के समय आवाज करते हैं। विभिन्न अनाजों के बीज, छोटे फल व् कीड़े इनका मुख्य भोजन हैं तथा पाचन को सही करने के लिए कभी-कभी ये छोटे कंकड़ भी खा लेते हैं। यह भोजन के लिए खुले में आना पसन्द नहीं करता है और छोटी घनी झाड़ियों में ही अपना भोजन ढूंढता है।

रैड स्परफाउलआमतौर पर अपने-अपने चिन्हित इलाकों (Territories) में घूमते हुए पाए जाते हैं। (फोटो: श्री दीपक मणि त्रिपाठी)

इनका प्रजनन काल जनवरी से जून, मुख्य रूप से बारिश से पहले होता है। यह ज़मीन पर घोंसला बना कर एक बार में 3-5 अंडे देते हैं। नर अपना जीवन एक ही मादा के साथ बिताता है जिसकी वजह से चूजों की देखरेख में उसकी जिम्मेदारी काफी बढ़ जाती है तथा नर अन्य शिकारियों को दूर भगाता व् चूजों की रक्षा करता है। ऐसी ही एक जानकारी रज़ा एच. तहसीन (Raza H. Tehsin) ने अपने आलेख में सूचीबद्ध की थी। रज़ा एच. तहसीन, एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने उदयपुर में वन्यजीवों को संरक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया तथा उन्हें उदयपुर के “वास्को-डि-गामा” के नाम से भी जाना जाता है। रज़ा एच. तहसीन अपने आलेख में बताते हैं की “29 मई, 1982 को मैंने स्पर फॉल के दिलचस्प व्यवहार को देखा। उदयपुर के पश्चिम में एक पहाड़ी इलाके भोमट में, जो शुष्क पर्णपाती मिश्रित वन से आच्छादित है। वहां मैं बोल्डर्स और स्क्रब जंगल में ग्रे जंगल फाउल (गैलस सोनरटैटी) की तलाश कर रहा था और तभी एक मोड़ पर मुझे रेड-स्परफॉल का एक परिवार दिखा। मुझे देख नर ने अपने पंखों का शानदार प्रदर्शन करते हुए, एक बड़े बोल्डर के चारो तरफ गोल-गोल चक्कर लगाना शुरू कर दिया। और इसी दौरान मादा चूजों को लेकर वहाँ से जाने लगी। जैसे ही मादा बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान पर पहुंच गयी, नर ने एक छोटी उड़ान भरी और मेरी आँखों के सामने से गायब हो गया। मैं समझ गया था की अपने चूजों को बचाने के लिए नर ने घुसपैठिये (मेरा) का ध्यान हटाने के लिए गोल चक्कर लगाने शुरू किये थे।”

पेन्टेड स्परफाउल (Galloperdix lunulata):

चित्तीदार जंगली मुर्गी यानी पेन्टेड स्परफाउल अपने अंग्रेज़ी नाम के अनुसार काफ़ी रंग-बिरंगा एक छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। यह अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में छोटी झाड़ियों में देखे जाते हैं। खतरा महसूस होने के समय यह पंखों का इस्तेमाल करने के बजाये तेजी से भागना पसंद करते हैं। यह आकार में मुर्गी और तीतर के बीच होता है। नर बड़े ही चटकीले रंग के होते हैं जिनके पृष्ठ भाग गहरे और अधर भाग गेरू रंग के होते हैं तथा पूँछ काली होती है। ऊपरी भागों के पंखों पर बहुत सी छोटी-छोटी सफ़ेद बिंदियां होती हैं जिनके सिरे काले होते हैं। नर का सिर और गर्दन एक हरे रंग की चमक के साथ काले होते हैं और सफेद रंग की छोटी बिंदियो से भरे होते हैं। मादा गहरे भूरे रंग की होती है तथा इसके शरीर पर किसी भी तरह के सफेद धब्बे नहीं होते हैं। नर में टार्सस (tarsus) के पास दो से चार कांटे (spur) तथा मादा में एक या दो कांटे होते हैं।

पेन्टेड स्परफाउल एक रंग-बिरंगा छोटा सुन्दर मुर्गा होता है जो अक्सर जोड़े या छोटे समूहों में चट्टानी पहाड़ी व् झाड़ियों वाले जंगलों में पाया जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ “A O Hume” की पुस्तक “The Game Birds of India, Burmah and Ceylon” में प्रकाशित पेंटेड स्परफाउल का चित्रI

लेखक (II) के अनुसार यह प्रजाति दक्षिणी – पूर्वी राजस्थान की विंद्याचल पर्वतमाला की खोहों की कराईयों से लेकर पूर्वी राजस्थान में सरिस्का तक सभी वन क्षेत्रो में जगह-जगह विद्यमान है। विंद्याचल पर्वतमाला की कराईयों में पाए जाने वाले कई मंदिर परिसर जहाँ नियमित चुग्गा डालने की प्रथा है, वहाँ कई अन्य पक्षी प्रजातियों के साथ पेन्टेड स्परफाउल को भी दाने चुगते हुए देखा जा सकता है। कोटा जिले का गरडिया महादेव एक ऐसा ही जाना पहचाना स्थल हैं। सवाई माधोपुर में रणथम्भौर बाघ परियोजना क्षेत्र में मुख्य प्रवेश द्वार से आगे बढने पर मुख्य मार्ग के दोनों तरफ की पहाडी चट्टानों एवं पथरीले नालों में सुबह- शाम यह मुर्ग प्रजाति आसानी से देखी जा सकती है। यह बेर व् लैंटाना के रसीले फलों के साथ-साथ छोटे छोटे कीटों को खाते हैं। अक्सर जनवरी से जून तक इनका प्रजनन काल होता है परन्तु राजस्थान के कुछ हिस्सों में बारिश के बाद अगस्त में चूजों को देखा गया है। इनका घोंसला जमीन पर पत्तियों व् छोटे कंकड़ों से घिरा हुआ एक कम गहरा सा गड्डा होता है। मादा अण्डों को सेती है परन्तु दोनों, माता-पिता चूजों की देखभाल करते हैं।

उपरोक्त व्याख्या से सपष्ट है कि राजस्थान में रैड स्परफाउल और पेन्टेड स्परफउल कई जिलों में उपस्थित हैं। मुर्ग प्रजातियाँ दीमक व कीट नियत्रंण कर कृषि फसलों, चारागाहों एवं वनों की सुरक्षा में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं अतः हमें उनका संरक्षण करना चाहियें।

सन्दर्भ:
  • Anonymous (2010): Assessment of biodiversity in Sitamata Wildlife Sanctuary: An conservation perspective. Foundation for Ecological Security study report.
  • Blanford WT (1898). The Fauna of British India, Including Ceylon and Burma. Birds. Volume 4. Taylor and Francis, London. pp. 106–108.
  • Ojha, G.H. (1998): Banswara Rajya ka Itihas. (First published in 1936).
  • Ranjit Singh, M.K. (1999) : The Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Ranthambhore National Park, Rajasthan. JBNHS 96 (2): 314.
  • Reddy, G.V. (1994): Painted spurfowl in Sariska. NBWI 43 (2): 38.
  • Shankar, K. (1993) Painted spurfowl Galloperdix lunulata (Valenciennes) in Sariska Tiger Reserve, Rajasthan. JBNHS 90 (2): 289.
  • Shankar, K., Mohan , D. & Pandey, S. (1993): Birds of Sariska Tiger Reserve, Rajasthan, India. Forktail 8: 133-141.
  • Tehsin, Raza H (1986). “Red Spurfowl (Galloperdix spadicea caurina)”. J. Bombay Nat. Hist. Soc. 83 (3): 663.
  • Vyas, R (2000): Distribution of Painted spurfowl Galloperdix lunulata in Rajasthan. Mor, February 2000, 2:2.

 

लेखक:

Ms. Meenu Dhakad (L): She has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of the Rajasthan Forest Department.

Dr. Satish Sharma (R): An expert on Rajasthan Biodiversity, he retired as Assistant Conservator of Forests, with a Doctorate in the ecology of the Baya (weaver bird) and the diversity of Phulwari ki Nal Sanctuary. He has authored 600 research papers & popular articles and 10 books on nature.

 

पारिस्थितिक तंत्र ने बदला पंछी का रंग : ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क एवं ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क

पारिस्थितिक तंत्र ने बदला पंछी का रंग : ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क एवं ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क

जाने वो कौनसे कारण है की लार्क की एक प्रजाति ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क जहाँ मिलना बंद होती है वहां दूसरी ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क शुरू होती है। यह पारिस्थितिक कारण जानना और इनके पर्यावास में आये बदलाव का अध्ययन करना अत्यंत रोचक होगा

लार्क, पेसेराइन पक्षियों का वह समूह है जो लगभग सभी देशों में पाया जाता है। भारत में भी लार्क की कई प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमे से सबसे व्यापक लगभग पूरे भारत में पायी जाने वाली प्रजाति है ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क। यह प्रजाति 1000 मीटर की ऊंचाई से नीचे के क्षेत्रों तक ही सीमित है और यह हिमालय के दक्षिण से श्रीलंका तक और पश्चिम में सिंधु नदी प्रणाली तक और पूर्व में असम तक पाई जाती है। जहाँ यह छोटी झाड़ियों, बंजर भूमि, नदियों के किनारे रेत में पायी जाती है, तथा यह हमेशा नर-मादा की जोड़ी में देखने को मिलती है। परन्तु यह प्रजाति राजस्थान के थार रेगिस्तान में नहीं पायी जाती है, और राजस्थान के इसी भाग में लार्क की एक अन्य प्रजाति मिलती है जिसे कहते है ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क जो अक्सर थार-रेगिस्तान में जमीन पर बैठे हुए दिखाई देते हैं। यह दो प्रजातियां आंशिक रूप से राजस्थान के कुछ इलाकों में परस्पर पायी जाती हैं, हालांकि ये एक साथ कभी भी नहीं देखी जाती।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क में वयस्क नरों में मुख्यरूप से एक पाइड हेड पैटर्न होता है जिसमें काले सिर पर सफ़ेद माथा तथा गालों पर सफ़ेद पैच होता है। (फोटो: श्री. नीरव भट्ट)

ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क का माथा ज्यादा भूरा होता है तथा आँखों के पास काली पट्टी थोड़ी पतली होती है जो मुख्यतः भौहे जैसी लगती है। (फोटो: श्री. नीरव भट्ट)

वर्गिकी एवं व्युत्पत्ति-विषयक (Taxonomy & Etymology):

ब्लैक क्राउंड स्पैरो लार्क (Eremopterix nigriceps) एक मध्यम आकार का पक्षी है जो पक्षी जगत के Alaudidae परिवार का सदस्य है। इसे कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे की ब्लैक क्राउंड फिंच लार्क, व्हाइट-क्रस्टेड फिंच-लार्क, व्हाइट-क्रस्टेड स्पैरो-लार्क, और व्हाइट-फ्रंटेड स्पैरो-लार्क। वर्ष 1839 में अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ “John Gould” ने इसे द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार Eremopterix nigriceps नाम दिया था। Gould, एक बहुत ही नामी पक्षी चित्रकार भी थे, उन्होंने पक्षियों पर कई मोनोग्राफ प्रकाशित किए, जो प्लेटों द्वारा चित्रित किए गए थे।

बहुत ही व्यापकरूप से वितरित होने की कारण अलग-अलग भौगिलिक स्थितियों में इसके रंग-रूप में थोड़े-बहुत अंतर मिलते हैं और इन्ही अंतरों के आधार पर कुछ वैज्ञानिको ने समय-समय पर इसकी कुछ उप-प्रजातियां घोषित की हैं। इनमे से ईस्टर्न ब्लैक क्राउंड स्पैरो लार्क (E. n. melanauchen), भारत में पायी जाने वाली उप-प्रजाति है, जिसे एक जर्मन पक्षी विशेषज्ञ Jean Louis Cabanis ने वर्ष 1851 में रिपोर्ट किया तथा यह पूर्वी सूडान से सोमालिया, अरब, दक्षिणी इराक, ईरान, पाकिस्तान और भारत तक पायी जाती है।

निरूपण (Description):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क में नर और मादा रंग-रूप में एक दूसरे से बिलकुल भिन्न होते है जहाँ वयस्क नरों में मुख्यरूप से एक पाइड हेड पैटर्न होता है जिसमें काले सिर पर सफ़ेद माथा तथा गालों पर सफ़ेद पैच होता है। इसका पृष्ठ भाग ग्रे-भूरे तथा अधर भाग व् अंडरविंग्स काले रंग के होते हैं, जो छाती की किनारों पर एक सफेद पैच के साथ बिलकुल विपरीत होते हैं। इसकी काली पूँछ के सिरे भूरे रंग के होते है तथा पूँछ के बीच वाले पंख ग्रे रंग के होते हैं। वहीँ दूसरी और मादा में पृष्ठ भाग पीले-भूरे मटमैले रंग के होते हैं सिर पर हल्की धारियां (streaking), आँख के पास व् गर्दन के बगल में सफ़ेद पैच होता हैं। मादा के पृष्ठ भाग हल्के-पीले भूरे रंग के होते हैं और सिर पर हल्की लकीरे (streakings) होती हैं। इनकी आंख के चारों ओर और गर्दन के पास एक सफ़ेद पैच होता है तथा इसके अधर भाग सफ़ेद व् छाती के पास एक हल्के भूरे रंग की पट्टी होती है। इसके किशोर कुछ हद्द तक मादा जैसे दीखते हैं परन्तु किशोरों के सिर के पंखों के सिरे हल्के-भूरे रंग के होते हैं। नर की आवाज काफी परिवर्तनशील होती है, जिसमें आम तौर पर सरल, मीठे नोटों की एक छोटी श्रृंखला होती है, जो या तो उड़ान के दौरान या एक झाड़ी में या एक चट्टान पर बैठ कर निकाली जाती है।

कई बार इस पक्षी को लगभग इसके जैसे दिखने वाला ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क समझ लिया जाता है, जो भारत और पाकिस्तान के शुष्क क्षेत्रों में इस प्रजाति की वितरण सीमा के साथ आंशिक रूप से परस्पर पायी जाती है। परन्तु ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क का माथा ज्यादा भूरा होता है तथा आँखों के पास काली पट्टी थोड़ी पतली होती है जो मुख्यतः भौहे जैसी लगती है। मादा भूरे रंग की होती है और घरेलू गौरैया के समान होती है।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, मादा के पृष्ठ भाग हल्के-पीले भूरे रंग के होते हैं तथा आंख के चारों ओर और गर्दन के पास एक सफ़ेद पैच होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क, मादा भूरे-भूरे रंग की होती है और गौरैया के समान प्रतीत होती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, उत्तरी-पूर्वी अफ्रीका में, उत्तरी-अफ्रीका के साहेल से अरब प्रायद्वीप, पकिस्तान और भारत में वितरित हैं। भारत में यह थार-रेगिस्तान में पायी जाती है। यह बिखरी हुई छोटी घासों, झाड़ियों व् अन्य वनस्पतियों वाले शुष्क व् अर्ध-शुष्क मैदानों में पायी जाती है, तथा कई बार इसे नमक की खेती वाले इलाकों में भी देखा गया है।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क का वितरण क्षेत्र (Source: Grimett et al 2014 and Birdlife.org)

व्यवहार एवं परिस्थितिकी (Behaviour & Ecology):

शुष्क प्रदेश में पाए जाने वाला यह पक्षी अपने पर्यावास के अनुसार अपने जल संतुलन को बहुत ही अच्छे से संचालित करता है, जैसे की दोपहर की गर्मी में छाया में रहकर पानी के नुकसान को कम करते हैं तथा कई बार बड़ी छिपकलियों के बिलों के अंदर आश्रय लेते भी इसको देखा गया है। यह अपने शरीर के तापमान को संचालित करने के लिए अपनी टांगों को निचे लटका कर उड़ान भरते है ताकि इनके अधर भाग पर सीधे हवा लगे तथा कई बार यह हवा के सामने वाले स्थान पर भी बैठ जाते हैं। प्रजनन काल के मौसम के अलावा, बाकी सरे समय में यह 50 पक्षियों तक के झुंड बना सकते हैं जो एक साथ रहते हैं परन्तु कई हजार के बड़े झुंड भी रिकॉर्ड किए गए हैं।

प्रजनन (Breeding):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, के प्रजनन काल में नर एक बहुत ही ख़ास हवाई उड़ान का प्रदर्शन करता है, जिसमे नर गोल-गोल चक्कर लगते हुए साथ ही आवाज करते हुए तेजी से ऊपर जाता है और फिर छोटी पत्नियों वाली उड़ान की एक श्रृंखला धीरे-धीरे निचे गिरता है। कभी-कभी नर और मादा दोनों साथ में उड़ान का प्रदर्शन करते है जिसमें नर धीरे घूमते हुए मादा का पीछा करता है। वे आमतौर पर गर्मियों के महीनों के दौरान प्रजनन करते हैं, और अक्सर बारिश से इनका प्रजनन शुरू होता है तथा लगभग जब भी परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, इनका प्रजनन शुरू होता हैं। इनके घोंसले आकार में छोटे, कम गहरे और पौधे व् अन्य सामग्री के साथ पंक्तिबद्ध होता है, तथा उसके मुँह की किनार पर छोटे पत्थर व् मिटटी के छोटे ढेले रखे होते हैं। घोंसला आमतौर पर एक झाड़ी या घास के नीचे स्थित होता है ताकि उसे कुछ छाया प्रदान की जा सके। नर व् मादा दोनों लगभग 11 से 12 दिनों के लिए, 2 से 3 अंडे के क्लच को सेते हैं।

आहार व्यवहार (Feeding habits):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, एक बीज कहानी वाला पक्षी है, लेकिन यह कीटों और अन्य अकशेरुकी जीवों को भी खा लेता है। घोंसले में रहने वाले छोटे किशोरों को मुख्यरूप से कीड़े ही खिलाये जाते है। राजस्थान जैसे गर्म व् शुष्क वातावरण में यह पक्षी सुबह और शाम के समय में ही भोजन का शिकार करते हैं, जहाँ आमतौर पर इन्हे जमीन पर शिकार मिल जाते हैं तथा कई बार उड़ने वाले कीड़ों को यह हवा में उड़ कर भी पकड़ लेते हैं।

बस तो फिर थार में जाने से पहले अपनी दूरबीनों को तैयार कर लीजिये और इस छोटे फुर्तीले पक्षी को देखने के लिए सतर्क रहिये…

सन्दर्भ:
  • Cover Image Picture Courtesy Dr. Dharmendra Khandal.
  • Gould, J. 1839. Part 3 Birds. In: The Zoology of the voyage of H.M.S. Beagle, under the command of Captain Fitzroy, R.N., during the years 1832-1836. Edited and superintended by Charles Darwin. Smith, Elder & Co. London. 1841. 156 pp., 50 tt.
  • Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
  • http://datazone.birdlife.org/species/factsheet/ashy-crowned-sparrow-lark-eremopterix-griseus

 

 

राजस्थान में खोजी गयी एक नयी वनस्पति: Elatostema cuneatum

राजस्थान में खोजी गयी एक नयी वनस्पति: Elatostema cuneatum

कैलादेवी अभ्यारण्य में पायी गयी वेस्टर्न घाट्स में पायी जाने वाली एक वनस्पति जो राज्य के वनस्पतिक जगत में एक नए जीनस को जोड़ती है

रणथम्भौर स्थित टाइगर वॉच संस्था के शोधकर्ताओं ने रणथंभौर बाघ अभयारण्य के कैलादेवी क्षेत्र की जैव विविधता के सर्वेक्षण के दौरान एक दिलचस्प वनस्पति की खोज की जिसका नाम है Elatostema cuneatum तथा राजस्थान राज्य के लिए यह एक नयी वनस्पति है। कैलादेवी अभ्यारण्य में यह पत्थरों पर ऊगा हुआ मिला जहाँ सारे वर्ष पानी गिरने के कारण नमी तथा पत्थरों की ओट के कारण छांव बनी रहती है तथा इसके आसपास Riccia sp और Adiantum sp भी उगी हुई थी। शोधकर्ताओं ने इसके कुछ चित्र लिए तथा इनका व्यापक अवलोकन करने से यह पता चला की इस वनस्पति का नाम Elatostema cuneatum है और शोधपत्रों से ज्ञात हुआ की राजस्थान में अभी तक इसे कभी भी नहीं देखा गया तथा राजस्थान के वनस्पतिक जगत के लिए यह न सिर्फ एक नयी प्रजाति है बल्कि एक नया जीनस भी है। जीनस Elatostema में लगभग ३०० प्रजातियां पायी जाती है जो पूरे उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और ओशिनिया में वितरित है। भारत में यह जीनस गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, तमिल नाडु और सिक्किम में पाया जाता है। कैलादेवी अभ्यारण्य से एकत्रित किये गए इसके नमूनों को RUBL (Herbarium of the Rajasthan university, botany lab) में जमा करवाया गया है।

Elatostema cuneatum, पत्थरों पर उगती है जहाँ सारे वर्ष पानी गिरने के कारण नमी तथा पत्थरों की ओट के कारण छांव बनी रहती है।(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

Elatostema cuneatum location map

 

Elatostema cuneatum, 15 सेमी तक लम्बी वार्षिक वनस्पति है जिसका तना त्रिकोणीय होता है तथा इसके सिरों पर बारीक़ रोये होते है। सीधी तने से जुडी (sub-sessile) इसकी पत्तियां उत्‍तरवर्धी (accrescent), सिरों से कंगूरेदार-दांतेदार और नुकीली होती हैं। यह वनस्पति अगस्त से अक्टूबर में फलती-फूलती है। राजस्थान में इसका पहली बार मिलना अत्यंत रोचक है एवं हमें यह बताता है की राजस्थान में वनस्पतियों पर खोज की संभावना अभी भी बाकि हैI

संदर्भ:

Dhakad, M., Kotiya, A., Khandal, D. and Meena, S.L. 2019. Elatostema (Urticaceae): A new Generic Record to the Flora of Rajasthan, India. Indian Journal of Forestry 42(1): 49-51.

 

 

 

 

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन: राजस्थान में वर्षा ऋतू का मेहमान

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन: राजस्थान में वर्षा ऋतू का मेहमान

“बड़ी तादाद और विस्तृत क्षेत्र में पाए जाने वाले मानसून मार्ग प्रवासी पक्षी, रूफस-टेल्ड स्क्रब-रॉबिन अपनी सुंदरता के रंग बिखेरने जल्द ही अगस्त में भारत आने वाला हैं, तो तैयार हो जाइये जल्द ही इसे देखने के लिए”

राजस्थान में विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षी आते हैं कुछ सर्दियों में अत्यधिक ठण्ड से बचने के लिए तो कुछ वर्षा ऋतू में प्रजनन के लिए यहाँ आते हैं। परन्तु कुछ पक्षी ऐसे भी हैं जो यहाँ से गुजरने वाले पर्यटक होते हैं जो लम्बी दुरी तय करने के दौरान बीच में किसी एक स्थान पर कुछ दिन के लिए रुक जाते हैं। ऐसा ही एक पर्यटक पक्षी जिसका नाम “रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन” जल्द ही (अगस्त) में राजस्थान में आने वाला है तथा इसे दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान यानि थार-मरुस्थल और रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) व इसके आसपास के इलाकों में देखा जा सकता है। रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन, खुले-खुले पेड़ों और झाड़ियों वाले शुष्क प्रदेश में मिलने वाला एक कीटभक्षी पक्षी है जो अपनी लंबी, गहरे भूरे रंग की पूंछ द्वारा पहचाना जाता हैं, जिसे वह अक्सर ऊपर-नीचे हिलाता और फैलाता है।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन, पृथक पेड़ों और झाड़ियों वाले शुष्क प्रदेश में मिलने वाला एक कीटभक्षी पक्षी है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्गिकी एवं नाम उत्‍पत्ति (Taxonomy & Etymology):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन (Cercotrichas galactotes) एक मध्यम आकार का पक्षी है जो पक्षी जगत के Muscicapidae परिवार का सदस्य है। इसे रूफस स्क्रब रॉबिन, रूफस बुशचैट, रूफस बुश रॉबिन और रूफस वॉबलर नाम से भी जाना जाता है। वर्ष 1820 में Coenraad Jacob Temminck ने रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन को द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार Cercotrichas galactotes नाम दिया। Temminck एक डच जीव वैज्ञानिक और संग्रहालय निदेशक थे। इसका वैज्ञानिक नाम “Cercotrichas galactotes” एक ग्रीक भाषा का नाम है, जिसमें Cercotrichas ग्रीक भाषा के शब्द kerkos से लिया गया है जिसका अर्थ “पूँछ” होता है, तथा “galactotes” ग्रीक भाषा के शब्द “gala” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है दूध जैसा।

जर्मन वैज्ञानिक Johann Friedrich Naumann जिन्हे यूरोप में वैज्ञानिक पक्षी विज्ञान के संस्थापक के रूप में जाना जाता है द्वारा बनाया गया चित्र।

निरूपण (Description):

इस रॉबिन में वयस्क नर और मादा एक जैसे ही दिखते हैं और सिर से पूँछ तक यह लगभग 6 इंच (150 मिमी) लंबे होते हैं तथा इनके पैर शरीर की अपेक्षा लम्बे होते हैं। इसके शरीर का ऊपरी भाग (पृष्ठ भाग) ललाई लिए भूरे रंग (चेस्टनट) का होता है। इसकी नाक से होते हुए आँख के पीछे तक एक हल्की घुमावदार क्रीम-सफ़ेद रंग की लकीर और आँख के पास एक गहरे भूरे रंग की लकीर होती है, तथा आँख का निचला हिस्सा सफेद रंग का होता है। आंख और चोंच दोनों ही भूरे रंग के होते हैं लेकिन चोंच का निचला हिस्सा ग्रे रंग का होती है। पूँछ के ठीक ऊपर का शरीर (Rump) और अप्परटेल कोवेर्ट्स बादामी रंग के होते हैं। शरीर का निचला भाग (अधर भाग) भूरे-सफेद रंग का होता है, परन्तु ठोड़ी, पेट और अंडर टेल कोवेर्ट्स अन्य भागों की तुलना में हल्के रंग के होते हैं।

इसके पंख गहरे भूरे रंग के होते हैं, जो सिरों से हल्के बादामी रंग और पीछे के किनारे ब्राउन होते हैं और सेकेंडरिस के सिरे सफ़ेद होते हैं। इसकी पूँछ के बीच वाले पंख (केंद्रीय) पंख चटक चेस्टनट रंग के होते हैं जिनके सिरों पर छोटी-सकड़ी काली पट्टी होती हैं तथा पूँछ के बाकि पंख चेस्टनट रंग के साथ सिरों से सफ़ेद रंग के होते हैं।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन को अक्सर खुले इलाको में जमीन पर घुमते हुए देखा जा सकता हैं और अपनी पूँछ को ऊपर-निचे हिलाता हैं फैलता है (फोटो: श्री नीरव भट)

इनके किशोर दिखने में लगभग वयस्क जैसे ही होते हैं लेकिन आमतौर पर इनके शरीर का रंग रेतीला-भूरा होता हैं। शरद ऋतु में यह मॉल्टिंग (अपनी पूँछ के पंख गिरा देते हैं) करते हैं तथा इससे कुछ दिन पहले ही इनकी पूंछ के पंखों के सफेद सिरे कम या बिलकुल गायब हो जाते हैं।

इसकी आवाज कुछ हद तक लार्क जैसी होती हैं, कभी-कभी स्पष्ट और तेज तो कभी हल्की। यह एक ऊँचे स्थान पर पेड़ के शीर्ष पर बैठकर आवाज करता है तथा ऐसा कहा जाता है कि, इसका गीत निराश व् उदास स्वर वाला होता है।

इसकी आवाज कुछ हद तक लार्क जैसी होती हैं, कभी-कभी स्पष्ट और तेज तो कभी हल्की। (फोटो: श्री नीरव भट)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

इसकी प्रजनन रेंज पुर्तगाल, दक्षिणी स्पेन और बाल्कन प्रायद्वीप से लेकर मध्यपूर्व से इराक, कजाकिस्तान और पाकिस्तान तक फैली हुई है तथा यह एक आंशिक प्रवासी पक्षी है जिसकी दक्षिण की ओर जाने वाली आबादी भारत से होकर गुजरती हैं। यह उत्तरी यूरोप के लिए एक असामान्य पर्यटक है। सर्दियों का समय यह उत्तरी अफ्रीका और पूर्व में भारत में बिताते हैं। यह निचले तलहटी वाले खुले शुष्क इलाकों जिनमे घनी झाड़ियां पायी जाती हैं में पाए जाते हैं तथा कई बार यह पार्को और बागों में भी पाया जा सकता है।

यह पक्षी बहुत ही व्यापक रूप से वितरित है और भौगोलिक स्थितियों व मौसम के कारण इसके रंग-रूप में हल्के-फुल्के अंतर भी मिलते हैं, तथा इन्हीं अंतरों के आधार पर विभिन्न वैज्ञानिको ने इसकी पांच उप-प्रजातियां बनायीं हैं; Cercotrichas galactotes familiaris, Cercotrichas galactotes galactotes, Cercotrichas galactotes hamertoni, Cercotrichas galactotes minor and Cercotrichas galactotes syriaca. ऐसा माना जाता है कि, भारत में C. g. familiaris उप-प्रजाति पायी जाती है, यह दक्षिणी-पूर्वी प्रवासी है जो की अगस्त और सितंबर के महीने में राजस्थान, गुजरात, पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में देखने को मिलती है। राजस्थान में इस प्रजाति को थार-मरुस्थल; जैसलमेर और सवाई माधोपुर में देखा जाता है।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन वितरण दर्शाता मानचित्र (Source: Grimett et al 2014)

व्यवहार एवं परिस्थितिकी (Behaviour & Ecology):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन घनी वनस्पति वाले पर्यावास और खुले स्थानों पर भी पाए जाते हैं। खुले इलाको में इन्हे अक्सर जमीन पर घुमते हुए देखा जा सकता हैं और अपनी पूँछ को फैला कर ऊपर-नीचे हिलाता है। यह मुख्य रूप से बीटल्स, टिड्डों, तितलियों व पतंगों के लार्वा, छोटे कीटों और केंचुओ को खाते हैं, तथा अपने भोजन को खोजने के लिए यह नीचे पड़ी हुई पत्तियों को उलट-पलट करते हैं। अक्सर नर रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन एक असामान्य उड़ान का प्रदर्शन करते हैं जिसमें ये अपने पंखों को ऊपर किये हुए एकदम से नीचे की और जाते हैं और साथ ही आवाज करते हैं।

यह एक ऊँचे स्थान पर पेड़ के शीर्ष पर बैठकर आवाज करता हैं तथा ऐसा कहा जाता हैं की इसका गीत निराश व् उदास स्वर वाला होता है। (फोटो: श्री नीरव भट)

संरक्षण स्थिति (Conservation status):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन की एक व्यापक रूप से वितरित पक्षी है, जिसका अनुमानित विस्तार 4.3 मिलियन वर्ग किलोमीटर (1.66 मिलियन वर्ग मील) है, और एक बड़ी आबादी (96 से 288 हजार), यूरोप में उपस्थित है। इन सब आकड़ों के साथ इनकी आबादी स्थिर भी है तथा इसीलिए IUCN रेड लिस्ट में इसको लिस्ट कंसर्न श्रेणी में रखा गया है।

तो बस यदि आप भी राजस्थान, गुजरात व दिल्ली में रहते हैं तो आने वाले हफ़्तों में इस बरसाती मेहमान को देखने के प्रयास करें और इसके सुंदरता का आनंद ले।

सन्दर्भ:
  • Sharma, N. 2017. First record of Rufous-tailed Scrub Robin Cercotrichas galactotes (Aves:Passeriformes: Muscicapidae) from Jammu & Kashmir, India. Journal of Threatened taxa. 9(9):10726-10728.
  • http://orientalbirdimages.org/search.php?Bird_ID=2562&Bird_Image_ID=108219
  • https://timesofindia.indiatimes.com/city/gurgaon/birders-cheer-sighting-of-rare-rufous-tailed-scrub-robin/articleshow/65554990.cms
  • Naumann. F. Naturgeschichte Der Vogel, Mitteleuropas. Herausgegeben von Dr. Carl R. Hennicke in Gera. II. Band.
    (Grasmücken, Timalien, Meisen und Baumläufer.). LITHOGRAPHIE, DRUCK UND VERLAG VON. FR. EUGEN KÖHLER.
राजस्थान में मिला एक नया मेंढक : Uperodon globulosus (इंडियन बलून फ्रॉग )

राजस्थान में मिला एक नया मेंढक : Uperodon globulosus (इंडियन बलून फ्रॉग )

“राजस्थान के चित्तौरगढ़ जिले की एक पिता पुत्र की जोड़ी ने अपनी सुबह की सैर के दौरान खोजी एक नयी मेंढक प्रजाति।”

राजस्थान के बेंगु (चित्तौरगढ़ जिले ) कस्बे में 21  जुलाई 2020 को राज्य के लिए एक नए मेंढक को देखा गया। यह मेंढक Uperodon globulosus है इसे सामान्य भाषा में “इंडियन बलून फ्रॉग” भी कहा जाता है क्योंकि यह अपना शरीर एक गुब्बारे की भांति फुला लेता है।  राजस्थान में इस मेंढक की खोज एक पिता पुत्र की जोड़ी ने की है- श्री राजू सोनी एवं उनके 12 वर्षीय पुत्र श्री दीपतांशु सोनी जब सुबह की सैर के लिए जा रहे थे तो उन्हें यह मेंढक रास्ते पर मिला, उस स्थान के पास लैंटाना की घनी झाड़ियां है एवं मूंगफली एवं मक्के के खेत है।  श्री सोनी ने  मोबाइल के सामान्य कैमरे से इसके कुछ चित्र लिए। जिनके माध्यम से प्रसिद्द जीव विषेशज्ञ श्री सतीश शर्मा ने इस मेंढक की पहचान की।  राजस्थान में इसी Uperodon जीनस के दो अन्य  मेंढक भी मिलते है –Uperodon systoma एवं Uperodon taprobanicus।  श्री राजू सोनी सरकारी अस्पताल में नर्स के पद पर कार्यरत है। टाइगर वॉच के श्री धर्मेंद्र खांडल मानते है की यह यद्पि  Uperodon globulosus प्रतीत होता है  परन्तु एक पूर्णतया नवीन प्रजाति भी हो सकती है, अतः इस पर गंभीता से शोध की आवश्यकता है।

Uperodon globulosus “इंडियन बलून फ्रॉग” (फोटो: श्री राजू सोनी)

Uperodon globulosus location map

 

Uperodon globulosus का पर्यावास जहाँ यह पाया गया (फोटो: श्री राजू सोनी)

इस मेंढक Uperodon globulosus की खोज एक जर्मन वैज्ञानिक Albert Günther ने 1864 में की थी। यह एक भूरे रंग का गठीले शरीर का  मेंढक है जो 3  इंच तक के आकार का होता है। शुष्क राज्य राजस्थान में मेंढ़को में अब तक मिली यह 14 वे नंबर की प्रजाति है I राजस्थान में इसका पहली बार मिलना अत्यंत रोचक है एवं हमें यह बताता है की राजस्थान में मेंढको पर खोज की संभावना अभी भी बाकि हैI

श्री राजू सोनी चित्तौरगढ़ के सरकारी अस्पताल में नर्स के पद पर कार्यरत है तथा वन्यजीवों की फोटोग्राफी के साथ-साथ उनके संरक्षण में रूचि रखते है।
श्री दीपतांशु सोनी अपने पिता के साथ खोजयात्राओं में जाते हैं तथा वनजीवों में रूचि रखते हैं।