“जंगल असीम प्रेम के स्रोत हैं। यह सभी को सुरक्षा देते हैं ये उस कुल्हाड़ी को भी लकड़ी का हत्था देते है, जो जंगल को काटने के काम आती है। ” (भगवन बुद्ध)
राजस्थान के करौली जिले की अर्ध-शुष्क विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित “कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य” गहरी घाटियों और चट्टानी पठारों का एक शानदार भूभाग है। शुष्क पर्णपाती धोक वन से आच्छादित इन पठारों को स्थानीय भाषा में “डांग” कहा जाता है। यहाँ की गहरी घाटियां जल की अधिक उपलब्धता के कारण मिश्रित पर्णपाती वनस्पति प्रजातियों और विभिन्न जीव-जंतुओं का घर है जो स्थानीय भाषा में “खोह” कहलायी जाती हैं।
परन्तु सालों से चारकोल, चारे, जलाऊ लकड़ी और अन्य कई चीजों के लिए पेड़ों की कटाई के कारण आज अधिकांश जंगल घास के मैदानों और धोक के पेड़ छोटी झाड़ियों में तब्दील हो गए हैं। हालांकि यह अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध रणथम्भौर टाइगर रिज़र्व के आधे से अधिक हिस्से को बनाता है, लेकिन रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान की तुलना में यह काफी सूखा, बंजर और मानवीय दबाव वाला क्षेत्र है।
कैलादेवी में रहने वाले परिवार (फोटो: डॉ विशाल रसाल)
कैलादेवी अभयारण्य के अंदर लगभग 66 गाँव स्थित हैं जिनमें लगभग 5000 परिवार (कुल 19,179 लोग) और लगभग 1 लाख से अधिक गाय,भैंस, बकरी एवं भेड़े रहती हैं और वे निरंतर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए पूरी तरह से अभयारण्य पर ही निर्भर रहते हैं। हालाँकि अभयारण्य मात्र इन्ही गाँवों की जरूरतों को पूरा नहीं करता बल्कि बारिश के मौसम में यहाँ आसपास के क्षेत्र से लगभग 35,000 से भी अधिक मवेशी चराई के लिए लाये जाते हैं। इसके अलावा 75 से अधिक गांव अभयारण्य के परीक्षेत्र पर स्थित हैं और यहाँ के लोग निरंतर जलाऊ लकड़ी और मवेशियों के लिए चारा लेने के लिए अभयारण्य का उपयोग कर रहे हैं।
इतनी बड़ी मात्रा में मानवीय आवश्यताओं को पूरा करने के बाद भी यह अभयारण्य कई ऐसी सेवाओं का खज़ाना हैं जिसकी हम न तो कल्पना कर सकते हैं और न ही मूल्यांकन। परन्तु एक कोशिश तो की जा सकती है।
इसी क्रम में, हाल ही में रणथम्भौर स्थित वन्यजीव संरक्षण संस्था टाइगर वॉच और रणथंभौर बाघ संरक्षण प्राधिकरण (Ranthambhore tiger conservation authority) द्वारा “कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य द्वारा दी जाने वाली पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का मूल्यांकन” करने के लिए एक अध्ययन करवाया गया, जिसका कार्य मेरे नितृत्व में किया गया।
यह अध्ययन दस लोगों की टीम (4 शोधकर्ता एवं 6 फील्ड कर्मचारी) द्वारा एक साल तक किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों और जांचों का परिणाम है जो अभयारण्य की विभिन्न सेवाओं पर प्रकाश डालता है।
अध्ययन के लिए आंकड़े संग्रहित करती टीम (फोटो: डॉ विशाल रसाल)
अध्ययन द्वारा संगृहीत आंकड़ों के संकलन से पता चलता है कि, प्रतिवर्ष कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य 36,730 करोड़ रुपए की सेवाएं देता है। हालांकि शायद ही कोई पर्यटक इस अभयारण्य का दौरा करता है, परन्तु अगर आप यहां पहुंचते हैं तो आपको विश्वास नहीं होगा कि, इस बंजर खाली प्रतीत होने वाले अभयारण्य से हमें इतनी बड़ी कीमत की सेवाएं मिलती हैं।
आखिर क्या होती हैं पारिस्थितिक तंत्र सेवाएं ?
हमारी प्रकृति में वन और अन्य सभी प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र अविश्वसनीय रूप से मूल्यवान संसाधनों का खज़ाना हैं। ये शुद्ध पानी और हवा का श्रोत होने के साथ-साथ लकड़ी, चारा, दवा आदि के रूप में लाखों लोगों को आजीविका भी प्रदान करते हैं। यदि सरल भाषा में कहा जाए तो ये सभी पारिस्थितिक तंत्र कुदरत के खज़ाने हैं, जिसे हम “प्राकृतिक पूंजी (Natural capital)” कहते हैं और हम जो लाभ प्राप्त करते हैं, उन्हें पारिस्थितिक तंत्र सेवाएँ (Ecosystem Services) कहते हैं।
पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को चार समूहों में वर्गीकृत किया गया है:
1 उत्पाद सेवाएँ (Provisioning services) : इन सेवाओं में सीधे उपयोग किए जाने वाले उत्पाद शामिल हैं जैसे भोजन, लकड़ी, चारा, दवाइयां आदि।
2 विनियमित सेवाएँ (Regulating Services) : इस श्रेणी में ऐसी प्रक्रियाएं शामिल हैं जो पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन को नियंत्रित करती हैं जैसे वनों द्वारा हवा की शुद्धता बनाए रखना, कार्बन स्ववियोजन (Carbon sequestration), नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen fixation), जल चक्र, जल शुद्धिकरण और मिट्टी के कटाव को रोकना आदि।
3 सहायक सेवाएँ (Supporting services) : वन पारिस्थितिक तंत्र के समुचित कार्यों को सही से चलाने के लिए सहायक सेवाएं आवश्यक होती हैं। ये ऐसा कोई उत्पाद प्रदान नहीं करती हैं जो सीधे मनुष्यों को लाभ देते हैं परन्तु पारिस्थितिक तंत्र के अन्य महत्व पहलु जैसे जीन पूल एवं जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये इतनी महत्वपूर्ण हैं कि, सभी पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं में, अकेले सहायक सेवाओं का योगदान लगभग 50% है।
4 सांस्कृतिक सेवाएँ (Cultural services) : इन सेवाओं में वनों से प्राप्त गैर-भौतिक लाभ शामिल हैं जैसे, मनोरंजन, सौंदर्य, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक लाभ आदि। यह मुख्यरूप से पर्यटन ही है जिसमें, अधिकांश प्राकृतिक क्षेत्रों जैसे कि, वन, पहाड़, गुफाएं, सांस्कृतिक और कलात्मक उद्देश्यों के लिए एक स्थान के रूप में उपयोग किए जाते हैं।
प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र और उनकी बहुमूल्य सेवाओं की कीमत का अनुमान लगाना निश्चित ही एक कठिन कार्य है।
पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का इतिहास एवं विषय उत्पत्ति :
1970 के दशक तक शोधकर्ताओं को एक ऐसी विधि की आवश्यकता महसूस होने लगी जिससे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के लाभों का मूल्यांकन किया जा सके और वनों को काटने के बजाय उनके संरक्षण के लिए ठोस सबूत सामने रखे। इसी आवश्यकता ने, पारिस्थितिक तंत्र की भूमिका को दर्ज करने के उद्देश्य से ‘पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं’ के विचार को जन्म दिया।
हम सभी ने बचपन में कहानी सुनी है जिसमें, एक लालची आदमी सोने सारे अंडे एक साथ पाने के लालच में सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मार डालता है। इसी प्रकार हम मनुष्य भी छोटे फायदों के लिए प्राकृतिक वनों का दोहन कर रहे हैं।
ऐसे में हमें पारिस्थितिक तंत्र सेवा और उनके महत्त्व के दृष्टिकोण का उपयोग करके लोगों को जंगल या किसी अन्य पारिस्थितिक तंत्र के ‘वास्तविक मूल्य’ को समझा सकते हैं।
अब हम सबसे दिलचस्प भाग पर आते हैं। हम पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को मूल्य कैसे प्रदान करते हैं?
कुछ पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं में कई मापने योग्य वस्तुएं शामिल हैं, जैसे जंगली फल, चारा, लकड़ी, प्राकृतिक फाइबर, दवाएं। तो हम उन सेवाओं का एक मूल्य लगा सकते हैं। फिर कुछ सेवाएं ऐसी हैं जैसे स्वच्छ पानी, ऑक्सीजन और परागण जिनका मूल्य लगा पाना कठिन है। इसलिए यहां हम उनके मूल्य का आकलन करने के लिए अप्रत्यक्ष तरीकों का उपयोग करते हैं। जैसे कि, वन द्वारा मिलने वाले मिलने वाले जल की कीमत का आकलन करने के लिए कैलादेवी वन और गैर वन क्षेत्र से जल गुणवत्ता की जांच की गई। जांच में पाया गया कि, वनों से निकलने वाला पानी गैर वन क्षेत्रों की तुलना में बेहतर और शुद्ध था। फिर कुछ ज्ञात सूत्रों का उपयोग करके हमने कैलादेवी अभयारण्य से निकलने वाले पानी की मात्रा की गणना की और नगरपालिका जल विभाग की दरों के अनुसार हमने इस शुद्ध जल सेवा के लिए एक मूल्य ज्ञात किया।
जल गुणवत्ता की जांचने के लिए पानी के सैंपल लेते हुए टीम के सदस्य (फोटो: डॉ विशाल रसाल)
फिर कई ऐसी सेवाएँ भी हैं जिनकी कीमत का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। जैसे कुड़का खोह से सूर्यास्त का मनमोहक दृश्य, खोह के प्राचीन जल में तैरने का आनंद। ये अनुभव वाकई अनमोल हैं। कैलादेवी में लगभग तीन हजार साल पुराने रॉक पेंटिंग हैं। अब बताइये हम इन अमूल्य सांस्कृतिक विरासत पर मूल्य टैग कैसे लगा सकते हैं?
ऐसी सेवाओं का मूल्यांकन करने के लिए हमने “मूल्य+” दृष्टिकोण का प्रयोग किया। यहां ‘+’ अतिरिक्त मूल्यों को दर्शाता है जो रुपए के संदर्भ में अमूल्य हैं। इस अध्ययन में ऐसी सभी अमूल्य पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को सूचीबद्ध किया और उनके लिए कोई मूल्य टैग नहीं लगाया गया।
हम 21 विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का आकलन निम्नानुसार करते हैं
इस विषय को और बेहतर तरीके से समझने के लिए हमें ये समझना होगा कि, पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को व्यापक रूप से प्रवाह लाभ (Flow benefits) और भंडार लाभ (stock benefits) के रूप में बांटा जाता है। प्रवाह लाभ वे होते हैं जिनका मनुष्यों द्वारा नियमित रूप से शोषण किया जाता है जैसे मछली पकड़ना, चराई और ईंधन की लकड़ी आदि। भंडार लाभ वे लाभ हैं जो एक पारिस्थितिक तंत्र में मौजूद तो होते हैं लेकिन विभिन्न कारणों से उपयोग नहीं किए जाते हैं जैसे कैलादेवी में मौजूद लकड़ी के भंडार का बाजार मूल्य तो बहुत है लेकिन भविष्य में इसका दोहन नहीं किया जा सकता है। सरल भाषा में समझे तो “भंडार लाभ” बैंक में जमा हमारी पूंजी की तरह है और “प्रवाह लाभ” प्रति वर्ष मिलने वाला ब्याज।
गहरी घाटियों को स्थानीय भाषा में खोह कहते हैं (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
अध्ययन में सभी प्रवाह लाभों का कुल 84.41 अरब रुपए प्रति वर्ष मूल्यांकन किया गया है; जिसमें सबसे अधिक मूल्य जीन पूल का 6124.01 मिलियन रुपए प्रति वर्ष पाया गया। इसके बाद भूजल सेवा (823 मिलियन/वर्ष), अपशिष्ट निपटारा (484.43 मिलियन/वर्ष), चारा (415 मिलियन/वर्ष), आवास सेवा (157.44 मिलियन/वर्ष), परागण (121.10 मिलियन/वर्ष), कार्बन स्ववियोजन (86.943 मिलियन/वर्ष), मिट्टी के पोषक तत्व (85.92 मिलियन/वर्ष), जलाऊ लकड़ी (38.08 मिलियन/वर्ष) रही। इसके अलावा अन्य सेवाएं जैसे मिट्टी कटाव का बचाव, संग्रहित जल, मछली, जैविक नियंत्रण, वायु शुद्धिकरण और धार्मिक पर्यटन आदि मिलकर कुल 105.42 मिलियन रुपए प्रति वर्ष रही।
वहीँ दूसरी ओर भंडार लाभों को कुल 36.6 अरब रुपए प्रति वर्ष देखा गया जिसमें मुख्यरूप से कार्बन और लड़की भडार को पाया गया जिनका मूल्य क्रमशः 2.570 और 34.1 मिलियन रुपए प्रति वर्ष था।
और इस प्रकार कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य कुल 36.6 अरब रुपए की पूंजी है जिसपर हमें हर वर्ष 84.41 अरब रुपए का सेवाओं के रूप में ब्याज प्राप्त होता है।
इस अध्ययन में संसाधन उपयोग की स्थिरता और निरंतरता को भी समझा गया और पाया कि, कैलादेवी अभयारण्य में कई पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का अत्यधिक दोहन किया गया है और वे सेवाएं आज गंभीर खतरे में हैं। जिसका सबसे मुख्य कारण है ईंधन की लकड़ी के लिए वन का कटाव और भारी मात्रा में चराई।
अध्ययन में बाघों को एक सुरक्षित क्षेत्र प्रदान करने, अन्य वन्यजीवों के संरक्षण और मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम करने के लिए पर्यटन जैसी कुछ सेवाओं को बढ़ाने के संभावित लाभों की पहचान की है। तथा बाघ पर्यटन को बढ़ावा देकर करौली जिले में स्थानीय लोगों के लिए अतिरिक्त रोजगार और राजस्व उत्पन्न करने की अपार संभावनाएं हैं।
वर्ष ऋतू में कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
मानव समाज कई तरह से प्रकृति द्वारा लाभान्वित और उस पर निर्भर है। पहले समय में वनों को अपार संसाधनों का भण्डार माना जाता था और आर्थिक लाभ के लिए उनका दोहन भी किया जाता था। जैसे उदाहरण के लिए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा को लकड़ी, मसाले, दवाइयाँ और सबसे महत्वपूर्ण हाथियों जैसी वस्तुओं के लिए जंगलों की रक्षा करने के लिए कहा था!
अधिकांश वन वस्तुओं और सेवाओं की पुनःपूर्ति की भी एक सीमित क्षमता होती है। जैसे, यदि एक लकड़हारा लकड़ी के लिए बहुत सारे पेड़ काटता है, तो जंगल में कोई पेड़ नहीं बचेगा। संक्षेप में कहें तो, कोई जंगल नहीं बचेगा। और पेड़ों के साथ-साथ अन्य संबंधित सेवाएं जैसे मिट्टी और जल संरक्षण भी खत्म हो जायेगी। ऐसे में वह लकड़हारा कई लोगों के नुकसान के लिए जिम्मेदार है जो जंगल पर निर्भर हैं जैसे कि, किसान खेती में पानी की आपूर्ति के लिए जंगल पर निर्भर हैं, आदिवासी समुदाय शहद, दवा और अन्य उत्पादों के लिए जंगल पर निर्भर हैं। अंततः लकड़हारे का लालच जंगल को नष्ट करके उसकी नौकरी भी खा जायेगा। यदि बड़े पैमाने पर देखें तो सरकारें भी लालची लकड़हारे के रूप में कार्य कर रही हैं और अल्पकालिक छोटे आर्थिक फायदों जैसे बांध, खदान आदि के लिए जंगलों का व्यापार कर रही हैं।
अभयारण्य में भारतीय भेड़ियों की एक अच्छी आबादी पायी जाती है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
इसीलिए हमें सभी प्राकृतिक संसाधनों का ध्यानपूर्वक उपयोग करना चाइये ताकि प्ररिस्थितक तंत्र की पूंजी समाप्त न हो।
हमें यकीन है कि, इस आलेख और अध्ययन ने आर्थिक दृष्टि से कैलादेवी वन के संरक्षण के पक्ष में एक ठोस सबूत प्रस्तुत किए है। हालांकि, यह पारिस्थितिक तंत्र द्वारा दिए जाने वाले बहुत सारे लाभों में से केवल कुछ लाभों का ही मूल्यांकन है, परन्तु प्रकृति की सभी सेवाओं का मूल्य लगा पाना असंभव है।
इसी के साथ मैं इस आलेख को पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट के एक सुविचार के साथ समाप्त करता हूं !
“A nation that destroys its soils destroys itself. Forests are the lungs of our land, purifying the air and giving fresh strength to our people.”
क्या आप इस बात पर विश्वास करेंगे कि, जैसे हम मनुष्य दूध के लिए गाय एवं बकरियों को पालते हैं वैसे ही चीटियां भी विशेष प्रकार के पोषक रस के लिए कुछ कीड़ों को पालती व उनकी देखभाल करती हैं ?
कुछ खास पेड़ों (अमलताश, जूलीफ्लोरा आदि ) के कोमल तनो पर आप बड़ी चीटियों को देखेंगे जो खास तरह के कीड़ो का ध्यान रखती है यह है प्लांट होप्पर्स एवं स्केल इंसेक्ट्स, आप पाएंगे कि, वे चींटे प्लांट होप्पर्स के अंडों व उनके समहू की रक्षा और निगरानी कर रही होती हैं। एक माहिर ग्वाले की भांति यह चींटिया इधर-उधर खोए और भटके हुए कीड़ों को वापस लेकर भी आ रही होती हैं। इन प्लांट होप्पर्स नामक कीड़े एक मीठे रस का स्त्राव करती है जो इन चीटियों के लिए बने बनाये भोजन का एक स्रोत होता है। और इस प्रकार ये कीड़े इन चींटियों के लिए छोटी गाय की तरह काम करते हैं।
यह चींटियों और प्लांट होप्पर्स एवं स्केल इंसेक्ट्स के मध्य विकसित हुई सहजीविता है, जिसमें, कीड़े चींटियों को रस देते हैं और बदले में चींटियां उन्हें विभिन्न प्रकार के खतरों से सुरक्षा प्रदान करती हैं।
वास्तव में प्लांट होप्पर्स एवं स्केल इंसेक्ट्स पेड़ पौधों का रस चूसते रहते ह। पौधों के रस में शर्करा की अत्यधिक मात्रा जमा रहती है जबकि अन्य पोषक तत्व उतनी मात्रा में नहीं होते हैं। लेकिन इन कीड़ों को अन्य पोषक तत्वों की आवश्यकता पूर्ति तक वह रस चूसते रहते है, एवं अतरिक्त शर्करा को चींटियों के लिए बूंदों के रूप में बाहर निकालते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि, ये रस की बूंदें चींटियों को बहुत सटीक रूप से दी जाती हैं। जब चींटी धीरे से अपने एंटीना को कीड़े के शरीर पर फिराती है मनो दूध निकलने के लिए मालकिन गाय को स्नेह से दुलार रही हो। कीड़े रस की बून्द को तब तक पकड़ कर रखते हैं जब तक चींटी उसे पूरा ग्रहण नहीं करले। चींटियाँ इस रस को भोजन के रूप में इस्तेमाल करती हैं और नाइट्रोजन के लिए उन कीड़ों को खाती है जो उनकी गायों के लिए खतरा है।
तो अब चीटियों को मीठा रस और कीड़ों को सुरक्षा मिलती हैं।
तो आने वाले मानसून के महीनों में, आप सड़क किनारे उगी वनस्पतियों के आसपास इनको आसानी से देख सकते हैं। और जब आप किसी पेड़ या कीट के चारों ओर चीटियों की कतार को दौड़ते हुए देखें तो आपको पता होना चाहिए कि, यह बिना किसी उद्देश्य के नहीं है। ये मेहनती चींटियाँ अपनी ही दुनिया में व्यस्त हैं, और आप उनकी गतिविधि को देखकर आनंद ले सकते हैं!
हाल ही में राजस्थान सरकार ने आमजन के स्वास्थ्य को सुरक्षित करने के लिए “घर-घर औषधि योजना” का प्रारम्भ किया है जिसके अंतर्गत औषधीय पौधों को आम जनता में निशुल्क वितरित किया जाएगा ताकि जब भी आमजन को इनकी आवश्यकता पड़े तो उन्हें ये आसानी से उपलब्ध हो सके। यह योजना आम जान में जैव विविधता के संरक्षण के लिए प्रेरणा का कार्य भी करेगी। देखते हैं यह योजना किस प्रकार से प्रभावी होगी ?
राजस्थान के वन एवं वनों के सीमावर्ती क्षेत्र विभिन्न प्रकार की औषधीय प्रजातियों से संपन्न हैं। जिनका उपयोग आयुर्वेद तथा स्थानीय परम्परागत ज्ञान के अनुरूप स्वास्थ्य चिकित्सा के लिए होता आया है। वर्तमान में जब पूरा विश्व कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है और ऐसे में भारत के घर-घर में आयुर्वेदिक दवाइयों, काढ़ो और जड़ीबूटियों का इस्तेमाल काफी बढ़ गया है। प्रत्येक घर में लोग गिलोय व तुलसी जैसे औषधीय पौधों का काढ़ा बना कर या फिर बाजार से बने बनाये काढ़े खरीद कर सेवन कर रहे हैं ताकि वे कोरोना से बचने के लिए अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा सके। इसीलिए राज्य सरकार ने ये योजना शुरू की है ताकि सभी घरों में ये औषधीय पौधे उपलब्ध हो और लोग इनका सेवन कर सके।
योजना को लागू करते समय सरकार द्वारा इसकी पूरी जानकारी व कई दिशा-निदेश जारी किए गए हैं जैसे कि, योजना कार्य कैसे करेगी और किस विभागीय स्तर पर क्या कार्य किया जाएगा साथ ही कुछ समितियां भी बनाई गई है ताकि योजना के कार्यभार को ठीक से नियंत्रित कर इसे सफल बनाया जा सके। परन्तु फिर भी योजना को लेकर आमजन और विशषज्ञों के मन में कई जिज्ञासाएं हैं और कुछ लोग इसकी सफलता व उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं।
आखिर क्या है घर-घर औषधि योजना:
घर-घर औषधि योजना के अंतर्गत वन-विभाग द्वारा औषधीय पौधों की पौधशालाएं विकसित कर तुलसी, गिलोय, अश्वगंधा और कालमेघ के पौधे उगा कर आम जनता को दिए जाएंगे। आमजन को औषधीय पौधे आसानी से उपलब्ध कराना व उनको घरों में उगाने में मदद और पौधों की उपयोगिता के बारे में प्रचार-प्रसार कर जन चेतना को बढ़ा कर राजस्थान के निवासियों के स्वास्थ्य में सुधार करना इस योजना का मुख्य उद्देश्य है। इस पंच वर्षीय योजना (2021 -2022 से 2025 -2026 तक) का कुल बजट 210 करोड़ रुपए है जिसमें से 31.4 करोड़ रुपए पहले वर्ष में खर्च किए जाएंगे। इस योजना के तहत हर परिवार को चार औषधीय प्रजाति के पौधे “तुलसी, गिलोय, अश्वगंधा और कालमेघ” के दो-दो पौधे (एक बार में कुल 8 पौधे) मिलेंगे और पांच साल में तीन बार तो, इस प्रकार हर परिवार को कुल 24 पौधे दिए जाएंगे।
पौधों का वितरण एवं योजना का प्रबंधन कैसे होगा ?
इस योजना को एक जन अभियान के रूप में संचालित किया जा रहा है और इसको अमल में लाने के लिए वन विभाग में HOFF और PCCF की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है तथा जिला कलेक्टर की अध्यक्षता में एक “जिला स्तरीय टास्क फाॅर्स” बनाई गई है जिसका कार्यकाल योजना अवधि तक होगा। जिसमें जिला प्रशासन के नेतृत्व में, माननीय जन-प्रतिनिधियों, पंचायती संस्थाओं, विभिन्न राजकीय विभागों व संस्थाओं, विद्यालयों आदि का सहयोग लेकर बड़े स्तर पर अभियान चलाया जा रहा है।
जिला स्तरीय टास्क फाॅर्स विभिन्न तरह के कार्य करेगी जैसे कि, पौधों का वितरण, जन अभियान, योजना के लिए अतिरिक्त संसाधनों की व्यवस्था, नियमित प्रबोधन आदि।
प्रत्येक जिले में जिला स्तरीय कार्य योजना बनाई गई है जिसमें वितरण स्थानों का चयन, वितरण व्यवस्था, विभिन्न विभागों के सहयोग प्राप्त करने की व्यवस्था, प्रचार-प्रसार की रणनीति, अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था इत्यादि विषय सम्मिलित है।
उप वन संरक्षक के निर्देश अनुसार वन विभाग पौधशालाओं में इन पौधों को तैयार किया गया है और पौधों का वितरण वन विभाग की पौधशाला व अन्य स्थल जैसे चिकित्सालय या राजकीय कार्यालय पर उपलब्ध कराए जाएगे। पौधे लेने वालों परिवारों की आधार कार्ड जानकारी प्राप्त की जाएगी ताकि रिकॉर्ड रखे जा सके व मूल्याङ्कन में आसानी हो और साथ ही अगले वर्ष जिन परिवारों को पौधे दिए जाने हैं उनको चिन्हित करना आसान हो। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि, आकड़ों का यह कार्य इतना बड़ा हो जाएगा जिसको बनाये रखने के लिए एक अलग टीम की जरूरत पड़ेगी।
योजना के प्रचार प्रसार पर भी मुख्य ध्यान दिया जा रहा है जिसके लिए सबसे पहले वर्ष 2021 में वन महोत्सव की थीम “घर घर औषधि योजना” राखी गई और राज्य के सभी जिलों के वन मंडलों, रेंज, तहसीलों, पंचायतों शहरी निकायों में वन महोत्सव मनाया गया। स्थानीय निवासियों को पौधों के लाभ, प्रयोग और सार संभाल की जानकारी दी जा रही है तथा पोस्टर भी लगाए जा रहे हैं। राज्य स्तर पर मीडिया प्लान बना कर प्रचार के लिए सोशल मीडिया का प्रयोग भी किया जा रहा है। कुछ लोगों का यह मानना है कि, सरकार इसके प्रचार खुद को अछूता नहीं रखना चाहती और इन सब कार्यों पर समय एवं मानव संसाधन खर्च होंगे।
इन पौधों से होने वाले लाभ:
आयुर्वेद में तुलसी, गिलोय, अश्वगंधा और कालमेध जैसे औषधीय पौधों को इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए अच्छी औषधि बताया है। आइये जानते हैं इनके महत्व के बारे में :
1. तुलसी (Ocimum sanctum):
जिसे आमतौर पर तुलसी के रूप में जाना जाता है, लैमियासी परिवार का एक सुगंधित बारहमासी पौधा है। तुलसी के पारंपरिक उपयोग का भारत में एक लम्बा इतिहास है और बहुत रोगों से लड़ने की क्षमता होने के कारण इसे ‘क्वीन ऑफ हर्ब्स’ भी कहा जाता है।
तुलसी / Ocimum sanctum (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)
फायदे: तुलसी को आयुर्वेद की प्राचीन संहिताओं चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और ऋग्वेद जिनका समय कम से कम 3500-1600 ईसा पूर्व माना जाता है, में खांसी, श्वसन संबंधी विकार, विषाक्तता और गठिया के इलाज के लिये औषधि के रूप में वर्णित किया गया है। साथ ही आचार्य भावमिश्र ने भावप्रकाश के पुष्पवर्ग में तुलसी के गुणों का वर्णन किया है:
तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमञ्जरी।
अपेतराक्षसी गौरी भूतघ्नी देवदुन्दुभिः॥
तुलसी कटुका तिक्ता हृद्योष्णा दाहपित्तकृत्।
दीपनी कुष्ठकृच्छ्रास्रपार्श्वरुक्कफवातजित्।
शुक्ला कृष्णा च तुलसी गुणैस्तुल्या प्रकीर्तिता।
तुलसी पर हुए कई शोध बताते हैं कि, तुलसी का नियमित सेवन करने से सामान्य स्वास्थ्य, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने, दैनिक जीवन के तनावों को कम करने, खांसी, अस्थमा, बुखार, गठिया, नेत्र रोग, अपच, उल्टी, पेट की परेशानियों, हृदय रोग, त्वचा रोग, गिंगिवाइटिस और मसूढ़ों की सूजन सहित कई अन्य बिमारियों में फायदा मिलता है। तुलसी में कफ एवं वात दोष को कम करने, पाचन शक्ति एवं भूख बढ़ाने और रक्त को शुद्ध करने वाले गुण भी होते हैं। (Cohen 2014, Jackson, 2018, Wong 2020, Maiti 2020)।
कैसे लें: तुलसी के पत्तों, जड़, तने और बीजों का औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। इसके पत्तों को रोज सुबह खली पेट खा सकते हैं तथा इसके बीजों का चूर्ण बनाकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, तुलसी के पत्तों को कभी चबाना नहीं चाहिए बल्कि निगल लेना चाहिए। यदि निगने में मुश्किल होती है तो हाथ से उन पत्तों के छोटे टुकड़े कर लें या फिर पत्तों को गोल लपेटकर सिर्फ आगे के कृतंक दांतों से सिर्फ एक कट लगाकर निगल जाए। तुलसी के पत्ते को चाय की तरह उबालकर क्वाथ पीने सर्दी-जुकाम में फायदा होता है। वयस्क 3 – 5 पत्ते प्रतिदिन और बच्चे (3 साल से बड़े) 2- 3 पत्ते प्रतिदिन (Jackson, 2018)।
सावधानी: हालांकि वैसे तुलसी बिना किसी साइड इफेक्ट के कई चीजों में लाभकारी होती है, लेकिन इसके अत्यधिक सेवन से कुछ परेशानियां भी हो सकती हैं। इसीलिए इसे ध्यान से खाये जैसे कि, गर्म तासीर की होने के कारण तुलसी का अत्यधिक सेवन पेट में जलन पैदा कर सकता है। यदि किसी की कोई सर्जरी हुई है या होने वाली है तो तुलसी का सेवन नहीं करना चाहिए। तुलसी खून पतला करती है, जिसकी वजह से सर्जरी के दौरान या बाद में ब्लीडिंग का खतरा बढ़ सकता है। डायबिटीज़ की दवा खा रहे लोगों को तुलसी नहीं खानी चाहिए क्योंकि इससे ‘ब्लड शुगर’ लेवल कम होता है। तुलसी में पोटेशियम की मात्रा अधिक होने के कारण ‘लो ब्लड प्रेशर’ में इसे नहीं खाना चाहिए। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि, लंबे समय तक नियमित रूप से तुलसी के पत्तों का सेवन करने से यूजेनॉल (eugenol) की उपस्थिति के कारण लीवर और उसकी कोशिकाओं को नुकसान हो सकता है। इसलिए औषधि का सेवन सही मात्रा में करें। (TOI 2021, Indian.com 2021, Jackson, 2018)।
2. कालमेघ (Andrographis Paniculata):
कालमेघ एक गुणकारी औषधीय पौधा है जिसको हरा चिरायता नाम से भी जाना जाता है। इसमें एक प्रकार का क्षारीय तत्व एन्ड्रोग्राफोलाइडस और कालमेघिन पाया जाता है जिसके कारण इसका स्वाद बहुत ही कड़वा होता है।
कालमेघ / Andrographis Paniculata (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)
फायदे: इसकी पत्तियों का उपयोग बुखार, पीलिया, मलेरिया, सिरदर्द, पेट के कीड़े, रक्तशोधक, विषनाशक, उच्च रक्तचाप, त्वचा रोग तथा अन्य पेट की बीमारियों में बहुत ही लाभकारी पाया गया है। सरसों के तेल में मिलाकार एक प्रकार का मलहम तैयार कर चर्म रोग जैसे दाद, खुजली इत्यादि दूर करने में बहुत उपयोगी होता है। इसकी जड़ का उपयोग भूख लगने वाली औषधि के रूप में भी होता है। (Kumar et al 2012, Balkrishan 2019, Sarah et al 2015)
आचार्य प्रियव्रत ने शपतपुष्पादी वर्ग में लिखा है की यह मुख्यतया तिक्त एवं कफ विपाका के गुणों से युक्त है।
कालमेघस्तुभूनिम्बो यवाकारफलस्तथा|
सुतिक्त: लघुरुक्षोष्ण कफपित्तपविनाशन:||
द्वीपन: स्वेदनो ज्ञेयः कृमिघ्न: पित्तसारकः|
यकृतरोगेक्रिमी कुष्ठेज्वरेचासौ प्रशस्यते||
(पुष्पादि वर्ग, श्लोक- १३५-१३६)
कैसे लें: दिनभर में एक चम्मच कालमेघ चूर्ण का सेवन किया जा सकता है। दिन में कालमेघ की ¼ टेबलस्पून या ½ टेबलस्पून की दो खुराक ले सकते हैं। इसके अलावा, कालमेघ की आठ से दस पत्तियों को एक कप पानी के साथ जूस बनाकर भी सेवन किया जा सकता है। इसकी पत्तियों के पेस्ट को घाव पर लगाया जा सकता है और पत्तियों का जूस बनाकर भी पी सकते हैं।
सावधानी: यदि कालमेघ का अत्यधिक मात्रा में सेवन किया जाए तो एलर्जी, सिरदर्द, थकान, गैस्ट्रिक समस्या, जी मचलाना, दस्त आदि शिकायते हो सकती हैं। दूसरी अंग्रेजी दवाओं के साथ इसेलेने से पहले अपने डॉक्टर से परामर्श ले। कालमेघ का अधिक सेवन लो बीपी और लो शुगर का कारण बन सकता है। इसलिए समय-समय पर बीपी और शुगर लेवल मॉनिटर करते रहें। गर्भावस्था और ब्रेस्टफीडिंग के दौरान कालमेघ का सेवन नहीं करें (Balkrishan 2019)।
3. गिलोय (Tinospora cordifolia):
गिलोय कभी न सूखने वाली एक बड़ी लता है। इसका तना देखने में रस्सी जैसा लगता है। इसके कोमल तने तथा शाखाओं से जडें निकलती हैं। इसके पत्ते कोमल तथा पान के आकार के और फल मटर के दाने जैसे होते हैं।
गिलोय / Tinospora cordifolia (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)
गुडूची को अनेक बीमारियों के विरुद्ध प्रयोग किया जाता है। आचार्य भावमिश्र ने स्पष्ट किया है कि (भा.प्र.पू.ख. गुडुच्यादिवर्ग 6.8-10):
फायदे: गिलोय के मिस्रण और काढ़े द्वारा कई रोगों में फायदा मिलता है जैसे कि, टाइफाइड, वात, पित्त, कफ, पीलिया, साइनस, लीवर विकार, बुखार, गठिया, कब्ज, शुगर, डेंगू, चिकनगुनिया, उल्टी, साइन में जलन, एसिडिटी, त्वचा रोग, मुँह के छाले, यूरिनरी ट्रैक्ट से जुड़े रोग, फाइलेरियासिस और आंख से जुड़े तमाम रोग (saha & Ghosh 2012, Upadhyay et al 2010, Srivastava, 2020) ।
कैसे लें: गिलोय को काढ़ा या फिर पत्तों के रस दोनों ही रूप में लिया जा सकता है। यदि कड़ा लेना है तो उसके तने के छोटे टुकड़ों को 100 मिली पानी में दाल कर उबाले और जब पानी 25 मिली रह जाए तब उसे पी लें। पत्तों का सीधा जूस बनाकर पिया जा सकता है। एक बार में केवल 20-30 मिली काढ़ा या फिर 20 मिली रस का सेवन करना चाहिए (Balkrishan 2019)।
सावधानी: गिलोय का सेवन यदि ज्यादा किया जाए तो इससे कब्ज और डायबटीज के रोगियों पर दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं। इससे रोग प्रतिरोधक शमता अगर बहुत बढ़ जाए तो Autoimmune diseases भी हो सकती है साथ ही गर्भवती महिलायें इसका सेवन न करें। (Balkrishan 2019, Gupta 2020)।
4. अश्वगंधा (Withania somnifera):
अश्वगंधा आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है। इसके वैज्ञानिक नाम में “somnifera” एक लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है “नींद लाने वाला”।
अश्वगंधा / Withania somnifera (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)
फायदे: आयुर्वेद में अश्वगंधा के भी कई गुण बताए गए है। अश्वगंधा में एंटीऑक्सीडेंट, लीवर टॉनिक, एंटी-इंफ्लेमेटरी, एंटी-बैक्टीरियल के साथ-साथ और भी कई पोषक तत्व होते हैं जो स्वास्थ्य को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसके अलावा इसमें एंटी-स्ट्रेस गुण भी होते है जो मानसिक तनाव जैसी गंभीर समस्या को ठीक करने में लाभदायक है और इससे अच्छी नींद आती है। स्ट्रेस को कम करने में मदद करते है। यह वाइट ब्लड सेल्स और रेड ब्लड सेल्स दोनों को बढ़ाने का काम करता है। जो कई गंभीर शारीरिक समस्याओं में लाभदायक है
भावप्रकाश निघण्टु, श्लोक १८९-१९० के अनुसार अश्वगंधा में निम्न गुण है – मुख्यतया तासीर में गर्म एवं ताकत देने वाली है और पौरुष गुण को बढ़ने वाली है।
कैसे लें : अश्वगंधा का इस्तेमाल अश्वगंधा के पत्ते या चूर्ण (Ashwagandha Powder) के रुप में किया जाता है। अश्वगंधा चूर्ण खाने का तरीका बहुत आसान है। पानी, शहद या फिर घी में मिलाकर अश्वगंधा चूर्ण का सेवन किया जा सकता है। इसके अलावा, अश्वगंधा कैप्सूल, अश्वगंधा चाय और अश्वगंधा का रस इस्तेमाल किया जा सकता है (Balkrishan 2019)।
सावधानी: अश्वगंधा का सेवन सीमित मात्रा में ही किया जाए तो अच्छा है क्योंकि अत्यधिक सेवन से न सिर्फ उल्टियां हो सकती हैं बल्कि पेट गड़बड़ हो सकता है। यदि लो ब्लड प्रेशर की परेशानी रहती है तो उन्हें अश्वगंधा नहीं खाना चाइये नहीं तो ब्लड प्रेशर बहुत ही ज्यादा लो हो जाएगा। नींद न आने पर अश्वगंधा का इस्तेमाल कुछ हद तक सही है, लेकिन नींद बुलाने के लिए इसका नियमित सेवन नुकसानदेह साबित हो सकता है। अश्वगंधा थाइरोइड को बढाता है अर्थात जिनको थाइरोइड की कमी की शिकायत है उनके लिए तो ये फायदेमंद है परन्तु जिन्हें पहले सेथाइरोइड ज्यादा है तो उनके लिए बहुत खतरनाक हो सकता है (Zielinski 2019 , Balkrishan 2019)
आमजन के कुछ प्रश्न व विशेषज्ञ की राय:
इस योजना को लेकर आमजन की तरफ से कई प्रश्न सामने आ रहे हैं तथा डॉ. दीप नारायण पाण्डेय, IFS (वरिष्ठ वन अधिकारी) द्वारा उन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया गया है।
प्रश्न 1 : कुछ पौधों को गार्डन या फ्लैट में गमलों में लगाने से इन पौधों का संरक्षण कैसे होगा?
उत्तर : आज हम उस युग में जी रहे हैं जब केवल वनों में संरक्षण करने से जैव-विविधता का संरक्षण नहीं हो सकता बल्कि हमें जैव-विविधता का संरक्षण वहीँ करना होगा जहां हम रहते और काम करते हैं। घर से वन तक सम्पूर्ण भू-परिदृश्य में जैव-विविधता संरक्षण जरुरी है। इसीलिए सबसे पहले हमें अपने घरों में पौधों को संरक्षित करना होगा।
दूसरी बात यह है कि, आयुर्वेद में उपयोग होने वाले लगभग 70-80 प्रतिशत औषधीय पौधे अभी भी वनों से प्राप्त होते हैं। यदि हम प्रत्येक घर में इन औषधीय पौधों को अपने उपयोग के लिये उगा लेते हैं तो स्वाभाविक है कि, वनों से इनका हनन हमें कम करना पड़ेगा और अप्रत्यक रूप से प्रजातियों का संरक्षण होगा।
प्रश्न 2 : केवल पौधे बाँट देने से क्या होगा?
उत्तर : दरअसल घर-घर औषधि योजना केवल पौधे बांटने की योजना नहीं है बल्कि स्वास्थ्य और संरक्षण से जुड़े उन विचारों को बांटने की भी योजना है जो औषधीय पौधों के योगदान को जन-मानस को समझाती है। एक उदाहरण देखें तो कोविड-19 की चिकित्सा के लिये अभी तक किसी भी चिकित्सा पद्धति में कोई पक्की तौर पर ज्ञात औषधि नहीं मिल सकी है। तथा, विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों में औषधियों पर शोध व प्रयोग किए जा रहे है और स्वाभाविक है कि, आयुर्वेद में भी शोध और प्रयोग हो रहे है। कई शोधपत्रों से स्पष्ट हो जाता है कि, तुलसी, कालमेघ, अश्वगंधा और गिलोय रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कुछ हद तक संक्रमित होने से बचाव भी करते हैं। तथा इन औषधियों का प्रयोग बीमारी की तीव्रता इतनी नहीं बढ़ने देता कि, व्यक्ति को अपनी जिंदगी ही गावनि पड़े।
प्रश्न 3 : घर-घर औषधि योजना के लिये तुलसी कालमेघ, अश्वगंधा और गिलोय ही क्यों चयनित किए गए?
उत्तर : यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर चार अलग-अलग दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। पहला चयनित की गई चारों प्रजातियां अलग-अलग या एक दूसरे से विभिन्न अनुपातों में मिलकर अधिक से अधिक रोगों के विरुद्ध प्रभावी हो सकती हैं। दूसरा, इन चारों प्रजातियों के बारे में संहिताओं, समकालीन वैज्ञानिक शोध एवं चिकित्सा आधारित कई प्रमाण उपलब्ध है। तीसरा, इन प्रजातियों को एथनोमेडिसिन के रूप में भी जाना जाता है और पहले लोग वैद्य की सलाह से बड़ी ही सरलता से इनसे विभिन्न औषधि बना लेते थे। चौथा दृष्टिकोण चयनित प्रजातियों की जलवायुवीय आवश्यकताओं से संबंधित है जिनके आधार पर यह समझा जा सकता है कि इन प्रजातियों का राजस्थान में उगाया जा सकता है।
कालमेघ (फोटो: डॉ. दीप नारायण पाण्डेय)
आमजन के इन प्रश्नों के अलावा योजना और इसको अमल में लाने पर भी कई जिज्ञासाएं भी हैं जैसे की,
1. क्या कालमेघ आसानी से राजस्थान जैसे शुष्क व अर्ध-शुष्क पर्यावास में उग सकते हैं? क्योंकि कालमेघ नमी वाले क्षेत्र का पौधा है और इसलिए ये राजस्थान के सिर्फ कुछ जिलों में ही उग सकता है। साथ ही वन विभाग के नर्सरी कर्मचारियों को भी इसे उगाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है तो आमलोग इसे कैसे ऊगा पाएंगे?
2. नर्सरी में इन पौधों को उगाया गया है परन्तु बड़ी ही छोटी और नाजुक अवस्था वाले इन पौधों को सुरक्षित तरीके से वितरित कर हर घर तक पहुंचा पाना निश्चित ही एक मुश्किल कार्य होगा ?
3. योजना के तहत हर घर को यानी 12650000 परिवारों को पौधे वितरित किए जाएंगे। इतनी बड़ी जनसँख्या के हर घर तक पौधे पंहुचा पाना निश्चित ही बड़ा कार्य है जिसके लिए एक बड़ी टीम की आवश्यकता होगी।
4. जिला स्तरीय टास्क फाॅर्स के सदस्यों में पंचायती संस्थाएं, विभिन्न राजकीय विभाग और विद्यालय शामिल हैं। अब प्रश्न ये उठता है कि, जिन लोगों को ये कार्य दिए जाएंगे उनके लिए यह नियमित विभागीय कार्य के अलावा एक अतिरिक्त कार्य होगा और कर्मचारियों पर कार्यभार बढ़ जाएगा।
5. शुरुआत में लोग खुशी-खुशी पौधे ले तो जाएंगे और कुछ दिन ध्यान भी रख लेंगे परन्तु क्या हमेशा ध्यान रख पाएंगे ?
वैश्विक महामारी से निपटने के बाद में अर्थव्यवस्था को ग्रीन डेवलपमेंट की ओर ले जाना और पारिवारिक स्तर पर क्षमता बेहतर करना एक बड़ी प्राथमिकता होगी। विश्व भर की सरकारें महामारी से निपटने के बाद आने वाले समय में अपने आधारभूत ढांचे में भारी परिवर्तनों की घोषणा कर चुकी हैं। इस दिशा में सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय विकास के लिए तमाम योजनायें भी बन रही हैं और इनमें से कुछ तो शुरू भी हो चुकी है।
घर-घर औषधि योजना को राजस्थान में इस परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण माना जा रहा है। महामारी काल में अमीर और गरीब दोनों ही प्रकार के परिवार महामारी का भयानक चेहरा देख चुके हैं। अतः परिवार के स्तर पर प्रत्येक गांव और शहर को रेसिलियंट बनाने तथा स्वास्थ्य आपदाओं से निपटने में सक्षम बनाने के लिये घर-घर औषधि योजना का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है।
सन्देश यह है कि, घर-घर औषधि योजना मानव के स्वास्थ्य-रक्षण और जैव-विविधता के संरक्षण की दिशा में बहुत बड़ा कदम है। इसको सफल बनाने में प्रत्येक नागरिक का योगदान प्राप्त होगा, ऐसी आशा है।
राजस्थानी लहजे में एक विद्वान कहते है -गुडूची, कालमेघ अश्वगंधा और तुलसी जैसे पौधे पहले अपने माथे में उगाइये, मिट्टी में तो उग ही जायेंगे।
References:
Cohen, M.M. 2014. Tulsi – Ocimum sanctum: A herb for all reasons. J Ayurveda Integr Med.5:251-9.
Kumar, A. Dora, J., Singh, A. and Tripathi, R. 2012. A review on king of bitter (Kalmegh). INTERNATIONAL JOURNAL OF RESEARCH IN PHARMACY AND CHEMISTRY. 2(1): 116-124
Maiti, M. 2020. A review on effect of tulsi (Ocimum sanctum) in Human as a medicinal plant. International Journal of Engineering Technology Research & Management. 4(9): 72-75.
Saha, S. and Ghosh, S. 2012. Tinospora: One plant, many roles. J. Ancient Science of Life. 31(4): 151-159
Salve J, Pate S, Debnath K, et al. (December 25, 2019) Adaptogenic and Anxiolytic Effects of Ashwagandha Root Extract in Healthy Adults: A Double-blind, Randomized, Placebo-controlled Clinical Study. Cureus 11(12): e6466. DOI 10.7759/cureus.6466
Sarah E. Edwards, Inês da Costa Rocha, Elizabeth M. Williamson and Michael Heinrich.2015. Phytopharmacy: An evidence-based guide to herbal medicinal products, First Edition. John Wiley & Sons, Ltd. Published 2015 by John Wiley & Sons, Ltd.
Srivastava, P. 2020. Study of medicinal properties of Herb Tinospora Cordifolia (Giloy) in preventing various diseases/abnormalities by increasing immunity naturally in human bodies. International Journal of Engineering Research and General Science. 8(4):10-14.
Upadhyay, A.K., Kumar, K., Kumar, A. and Mishra, H.S. 2010. Tinospora cordifolia (Willd.) Hook. f. and Thoms. (Guduchi) – validation of the Ayurvedic pharmacology through experimental and clinical studies. Int J Ayurveda Res. 1(2): 112-121.
रणथम्भौर जैसे गर्म व शुष्क जंगल में बारिश हो जाने से मौसम बड़ा ही खुशनुमा हो जाता। जहाँ एक ओर धोक के सभी पेड़ों पर नई पत्तियां आने लगती हैं तो दूसरी ओर वन्यजीवों का भी खेलने-कूदने और मस्ती करने का समय आ जाता। ऐसे में अक्सर बाघ के शावक एक-दूसरे के साथ खेलते हुए नज़र आते हैं। जिसमें वे एक दुसरे के पीछे भागते हैं, एक दुसरे के ऊपर लोटपोट करते है और जो पेड़ ज़मीन पर झुके होते है उन पर चड़ते है। कई बार उनको देख कर ऐसा लगता है जैसे वे वास्तव में ही लड़ाई के रहे हो। ऐसा ही एक दृश्य इस कथा चित्र में दर्शाया गया।
रणथम्भौर में एक रात बहुत तेज बारिश हुई और अगली ही सुबह राजबाग तालाब के पास वेटिवेरिया घास के एक बड़े पैच में बाघ के तीन शावक छुपे हुए थे। थोड़ी ही देर बाद दो शावक एरोहेड और पॅकमैन अचानक से लंबी घास के बीच से एक दूसरे के ऊपर चार्ज करते हुए बाहर आए और एक दूसरे के साथ खेलने लगे।
तालाब के किनारे की घास पूरी तरह से पानी से भीगी हुई थी और शावकों की हर छलांग के साथ सब तरफ पानी के छींटे उड़ रहे थे।
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अगले दस मिनट तक दोनों शावक फुर्ती से एक दूसरे के साथ खेलते हुए लड़ते रहे। कभी वे एक दूसरे के ऊपर अपने हलके हाथ से वार करते तो कभी ऊंची छलांग लगा कर एक-दूसरे पर झपट्टा मारते। परन्तु हर तरफ पानी की बुँदे उड़ रही थी और ऐसा लग रहा था मानों उनपर कोई फव्वारा चल रहा हो।
कुछ देर बाद मुछे तीसरे शावक ने भी इस खेल में भाग लिया परन्तु बहुत कम समय के लिए और अधिक्तर खेल एरोहेड और पॅकमैन के बीच ही चला।
लगभग दस मिनट के बाद वे तीनों वापस लंबी घास में चले गए।
बाघ के शावक अक्सर यूँ लड़ाई कर खेलते हैं ताकि, उनकी चुस्ती-फुर्ती बनी रहे, और वे खुद को एक शिकारी की तरह जीवन के संघर्षों में निपुण बना सके।
रणथम्भौर दुनिया का सबसे सूखा और गर्म जंगल है ऐसे में गर्मियों के मौसम में यहाँ के कुछ स्थायी जलश्रोतों के अलावा अधिकाँश जलश्रोत सूख जाते हैं। सरल भाषा में कहा जाए तो, पानी यहाँ पर एक Limiting Factor है। Limiting Factor, एक ऐसा कारक होता है जो किसी भी क्षेत्र में आबादी को निर्धारित करता है एवं उसके विकास को धीमा या रोकता है। खाना, पानी और आवास जंगल के कुछ Limiting Factor हैं जो वन्यजीवों की आबादी को निर्धारित करते हैं।
ऐसे में बाघ को हमेशा ऐसा इलाका चाहिए होता है जिसमें भरपूर मात्रा में शिकार और पानी हो तथा कई बार बाघों में जलश्रोत वाले इलाकों के लिए संघर्ष भी देखा जाता है। इस कथा चित्र में ऐसे ही एक संघर्ष को दर्शाया गया है।
रणथम्भौर में दो बाघिनों (घोस्ट (T60) और नूर) के क्षेत्र की सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी और उस क्षेत्र के किनारे पर ही कुछ जलश्रोत थे जिन्हें वो आपस में बांटा करती थी। दोनों बाघिन तीन-तीन शावकों की माँ थी और पानी की आवश्यकता के चलते वो आपस में सामंजस्य बनाये रखती थी। लेकिन जैसे ही गर्मिया तेज होने लगी नूर के इलाके में पानी सूखने लगा जबकि घोस्ट के हिस्से में बहुत पानी था।
गर्मियों की एक दोपहर, जब नूर अपने शावकों के साथ क्षेत्र की सीमा पर आराम कर रही थी, उसने घोस्ट को आते देखा और तुरंत उसे लड़ाई की चुनौती दी। दोनों बाघिन एक-दूसरे की ओर बढ़ी और तेज़ धार वाले पंजों और बहुत तेज आक्रामक आवाज़ के साथ लड़ाई शुरू हो गई।
दोनों बाघिन पूरी ताकत से लड़ रही थी और नूर लड़ाई जीत रही थी परन्तु फिर अचानक वह चट्टान पर गिर गयी।
नूर के गिरते ही घोस्ट ने तुरंत पीछे हटने का मौका देखा और वहां से जाने लगी।
जैसे ही नूर उठी, उसने घोस्ट का पीछा किया लेकिन वो लड़ाई को समाप्त कर नूर को विजयी छोड़ते हुए वहां चली गयी और नूर ने गर्व से तेज़ आवाज में दहाड़ कर अपनी जीत प्रसारित की।
इस घटना के बाद नूर उस क्षेत्र के सभी जलकुंडों की नयी मालिक बन गई और घोस्ट वापस नहीं आयी।