स्मूद कोटेड ओटर– उपेक्षित लुप्तप्राय जलमानुष

स्मूद कोटेड ओटर– उपेक्षित लुप्तप्राय जलमानुष

स्वस्थ नदी तंत्र के सूचक ऊदबिलाव जलीय खाद्य श्रृंखला में अहम भूमिका निभाते हैं जिसको पहचानते हुए इनके प्रति जागरूकता और संरक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए भारतीय डाक सेवा ने अपने नियत डाक टिकट के नौवें संस्करण में 20 जुलाई 2002 को एक डाक टिकट जारी किया था।

स्मूद कोटेड ओटर, एशिया में पाए जाने वाला सबसे बड़ा ऊदबिलाव है जो इराक में एक सीमित क्षेत्र के साथ भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकांश हिस्सों में पाए जाते हैं। इन देशों में ये व्यापक रूप से वितरित तो है लेकिन दुर्भाग्यवश किसी भी क्षेत्र में बहुल तादाद में नहीं पाए जाते। ये प्रायः नदी के स्वच्छ जल में निवास करते हैं, झीलें,आर्द्रभूमि और मौसमी दलदल इनके अन्य पर्यावास में शामिल हैं। चंबल नदी भारत की सबसे साफ बारहमासी नदियों में से एक जो मध्य प्रदेश और राजस्थान कि सीमा बनती है, ऊदबिलाव कि एक सीमित आबादी कि शरणस्थली है। राजस्थान में स्मूद कोटेड ओटर कि उपस्थिति रावतभाटा, केशोराय पाटन, धौलपुर और सवाई माधोपुर के पाली घाट क्षेत्र में दर्ज कि गई है। अस्थाई तौर पर रणथंभौर नेशनल पार्क में 2019 में पहली बार ओटर पूरे परिवार के साथ झालरामें छोटी छतरी के पीछे वन विभाग के अधिकारियों द्वारा देखे गए थे जो कि संभवतः चम्बल नदी में बाढ़ कि वजह से नदी के ऊपरी क्षेत्र में आ गए थे। अक्सर ये किसी भी उपयुक्त आवास में रहने में सक्षम हैं, लेकिन अन्य ऊदबिलाव प्रजातियों कि मौजूदगी में ये छोटी नदियों और नहरों कि अपेक्षा बड़ी नदियों के बीच में रहना पसंद करते हैं। ये भूमि पर खुले क्षेत्रों में बहुत कम समय बिताते हैं और अधिकतर समय पानी में ही व्यतीत करना पसंद करते हैं।कुछ वर्ष पहले तक ये केवलादेव नेशनल पार्क, भरतपुर और प्रतापगढ़ में भी पाए जाते थे लेकिन अन्य संरक्षित प्रजातियों कि तरह इनके संरक्षण को प्राथमिकता या उचित महत्तव न मिलने के कारण ये आज कुछ सीमित पर्यावासों में अपने अस्तित्व पर खतरा लिए जूझ रहे हैं।

स्मूद कोटेड ओटर एक मांसाहारी अर्द्ध जलीय स्तनपायी प्राणी है जो नदी के एक लंबे खंड को कवर करते हैं और अक्सर नदी के किनारों के उन हिस्सों में अपनी छोटी सी मांद (den, holt या couch भी कहते हैं) बनाकर रहते हैं जो पूरी तरह से अन्य जीवों कि पहुँच से दूर हो। इनके बड़े सुगठित तरीके से निर्मित छोटे मख़मली फर होने के कारण इन्हें स्मूद कोटेड ओटर कहा जाता है। इनको स्थानीय भाषा में जलमानुष, पानी का कुत्ता, उदबिलाव, आदि नामों से जाना जाता है। चम्बल क्षेत्र मेंअक्सर इन्हें जल मानस्या नाम से संबोधित किया जाता है। इनका वैज्ञानिक नाम एक फ्रांसीसी प्रकृतिवादी ए टि एन जियोफ़रॉय सेंट-हिलैरे द्वारा सन 1826 में सुमात्रा सेएकत्र एक भूरे रंग के ओटर के लिए Lutra perspicillata दिया गया था। 1865 में जॉन एडवर्ड ग्रे ने इन्हें Lutrogale जीनस में रखा। लुटरोगेल जीनस में तीन प्रजातियाँ पहचानी गई थी लेकिन वर्तमान में इस जीनस में सिर्फ स्मूद कोटेड ओटर (Lutrogale perspicillata) ही एकमात्र जीवित प्रजाति है। स्मूद कोटेड ओटर कि तीन उप-प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। पहली भारतीय प्रायद्वीप से दक्षिण-पूर्वी एशिया में पाए जाने वाले हल्के भूरे फ़र के ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata), दूसरे पाकिस्तान के सिंध और पंजाब क्षेत्र में पाए जाने वाले हल्की पीली खाल वाले ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata sindica), और तीसरे इराक के टिग्रिस नदी के क्षेत्र में पाए जाने वाले गहरे भूरे रंग कि खाल वाले ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata maxwelli)

ऊदबिलाव का आकार तीन से पांच फुट तक होता है और यह लम्बे और पतले शरीर वाले होते हैं। इनके सिर गोल, रोम रहित नाक, पूँछ चपटी होती है। इनकी आँखें छोटी, मूँछें घनी और कान छोटे तथा गोलाकार होते हैं। इनकी टांगे छोटी व मजबूत होती है जिनमें मजबूत पंजे और जालीदार अंगुलियाँ होती है। इनके पैर छोटे होने के कारण ये अधिक ऊंचे नहीं होते है। इनका वजन दस से तीस किलोग्राम तक हो सकता है, फिर भी ये बहुत फुर्तीले होते हैं। अक्सर अपने शिकार के पीछे पानी में बहुत तेजी से तैरते हुए तली तक पहुंच जाते हैं। ये पानी में इस प्रकार तैरते हैं, जैसे कोई रिवर राफ्टिंग कर रहा हो। इनके असामान्य रूप से छोटे और चिकने फर इन्हें ऊष्मा प्रदान कर ठंड से बचाव करते हैं; इनका फर पीछे की ओर गहरे लाल-भूरे रंग का हो सकता है, जबकि नीचे का भाग हल्के भूरे रंग का होता है।

परिवार समूह (romp) मे विचरण करते ऊदबिलाव (फोटो: डॉ. कृष्णेन्द्र सिंह नामा)

स्मूद कोटेड ओटर समूह में रहने वाले जीव हैं जो तीन-चार संतानों के साथ एक जोड़े का छोटा परिवार समूह (romp) बनाकर रहते हैं। इनके एक समूह में 4 से 11 ऊदबिलाव हो सकते हैं। समूह के नर ऊदबिलाव को dogs / boars कहा जाता है, मादा को bitches या sows कहा जाता है, और उनकी संतानों को pups कहा जाता है। ऊदबिलाव का संचय (copulation) पानी में होता है जो एक मिनट से भी कम समय तक रहता है।जिन क्षेत्रों में खाद्य आपूर्ति पर्याप्त है, वे पूरे वर्ष प्रजनन करते हैं; लेकिन जहां ऊदबिलाव पर्याप्त जल के लिए मानसून पर निर्भर हैं वहाँ प्रजनन अक्टूबर और फरवरी के बीच होता है। मादा ऊदबिलाव (bitches) कि गर्भावधि 60-63 दिनों कि होती है जिसके बाद ये एक बार में 4-5 पिल्ले पैदा करते हैं। मादाएँ अपने बच्चे को पानी के पास एक बिल में जन्म देती हैं और उनकी परवरिश करती हैं। जन्म के समय पिल्ले अंधे और असहाय होते हैं और इनकी आँखें 10 दिनों के बाद खुलती हैं। पिल्लों को लगभग तीन से पांच महीने तक भोजन समूह के वयस्कों द्वारा उपलब्ध करवाया जाता है। वे लगभग एक वर्ष की उम्र में वयस्क आकार तक पहुंचते हैंऔर दो या तीन साल में यौन परिपक्वता प्राप्त करते हैं।

ऊदबिलाव एक मछली के शिकार के साथ (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव, मगरमच्छ और फिशईगल के साथ जलीय खाद्य श्रृंखला में सबसे ऊपर हैं। ऊदबिलाव के लिए नदी में पाई जाने वाली बड़ी मछलियाँ, कैट्फिश, आदि पसंदीदा भोजन है। रावतभाटा के आस-पास के गांवों में मछली पालन के उद्देश्य से लायी गई मछलियों की एक विदेशी प्रजाति तिलापिया (Tilapia) संयोगवश चम्बल के नदी तंत्र में शामिल हो गयी और यहाँ की स्थानीय प्रजातियां के लिए संकट बन गई। जहाँ एक ओर तिलापिया के कारण मछलियों कि स्थानीय प्रजातियाँ संकट में है वही दूसरी ओर इस क्षेत्र में यह ऊदबिलाव का प्रमुख आहार भी है। मछलियों के अलावा ये चूहे, सांप, उभयचर और कीड़े आदि का शिकार भी करते हैं जो कि इनके आहार का एक छोटा सा हिस्सा बनाते हैं। ये अकेले या समूह में घेरा डालकर मछलियों का शिकार करते हैं।

चट्टानों और वनस्पतियों पर अपने पूरे समूह के साथ पेशाब और मल (spraint) करके अपने क्षेत्र को चिह्नित करते ऊदबिलाव (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव रेतीले रिवर बैंक पर आराम करते हैं और पेड़ों की जड़ों के नीचे या बोल्डर के बीच एक छोटी सी मांद बनाकर रहते हैं जिनमें अनेक निकास होते हैं। कोटा से रावतभाटा के बीच चम्बल नदी में ऊदबिलावों की स्वस्थ प्रजनन आबादी सुबह और शाम के घंटों में सक्रिय रूप से देखी जा सकती है। आमतौर पर ये दिन के दौरान, दोपहर में थोड़े आराम के साथ, सक्रिय रहते हैं। समूह में जब ये नदी में बार-बार गोता लगा बाहर निकलते हैं तो अक्सर उनके मुंह में एक मछली होती है इस दौरान उनकी धनुषाकार पीठ एक छोटी डॉल्फ़िन जैसा प्रभाव पैदा करती है जिसे देखना एक अलग रोमांच पैदा करता है। ऊदबिलाव चट्टानों और वनस्पतियों पर अपने पूरे समूह के साथ पेशाब और मल (spraint) करके अपने क्षेत्र को चिह्नित कर घुसपैठियों को दूर रखते हैं। झुण्ड में मस्ती करने वाले जानवर होने के नाते, वे लगातार एक-दूसरे के साथ ऊँची-ऊँची चीखो के माध्यम से संवाद करते रहते हैं। समूह में कई बार इन्हें अन्य जीवों को चंचलता पूर्वक पीछा करते देखा गया है। कोटा के वन्यजीव फोटोग्राफर बनवारी यदुवंशी बताते हैं कि रावतभाटा में ऊदबिलावों द्वारा कुत्तों के समूह का पीछा और इसके प्रतिकूल कुत्तों द्वारा ऊदबिलाव का चंचलता पूर्वक पीछा करना अक्सर देखा जा सकता है। कई बार इन्हें मगरमच्छों को परेशान करते भी देखा गया है।

रावतभाटा मे अक्सर कुत्तों के साथ चंचलतापूर्वक संघर्ष करते देखे जाते ऊदबिलाव (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव मानवीय हस्तक्षेप पसंद नहीं करते, अक्सर मनुष्यों से शर्माते हैं और मानवीय गतिविधि होने पर दूर चले जाते हैं। लेकिन ऊदबिलाव द्वारा समझदारी दिखाने के बावजूद मनुष्य उनके जीवन में वर्षों से हस्तक्षेप कर उनके आशियाने उजाड़ रहा है। मानवीय हस्तक्षेप के कारण ही आज दुनिया भर से ऊदबिलाव के 13 प्रजातियों में से 7 संकटग्रस्त हैं, जिनमें से तीन भारत में पाए जाते हैं। स्मूद कोटेड ओटर के अलावा दो और प्रजातियां, यूरेशियन ओटर, एशियन स्मॉल क्लाव्ड ओटर, हमारे देश में मौजूद है।

भारत में पाए जाने वाले ऊदबिलाव की तीनों प्रजातियाँ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम से सुरक्षित हैं। स्मूथ कोटेड ओटर को इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) द्वारा ‘Vulnerable’के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-II के तहत संरक्षित है। लेकिन फिर भी ये अपनी घरेलू सीमा – दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया – में सुरक्षित नहीं हैं, और इनकी संख्या उन मुद्दों के कारण कम हो रही है जिनसे सभी लोग परिचित हैं, शिकार। इनका शिकार भी उन्हीं लोगों द्वारा किया जाता है जो बाघों और तेंदुओं को फँसाते हैं, मारते हैं, और विदेशों में बेचते हैं।

2014 में IOSF (International Otter Survival Fund) द्वारा ऊदबिलाव के गैर-कानूनी व्यापार पर जारी एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर भारत से जब्त किए गए जंगली जानवरों के खाल में से लगभग 20-30% खाल ऊदबिलाव के होते हैं। ऊदबिलाव के खाल (pelts) कि तस्करी तिब्बत और चीन के अवैध फर बाजारों के लिए कि जाती है। ओटरफर को इसकी शानदार मोटाई (650,000 बाल प्रति वर्ग इंच) की वजह से उच्च गुणवत्ता का माना जाता है और इसका उपयोग कोट, जैकेट, स्कार्फ और हैंडबैग बनाने के लिए किया जाता है। यह अनुमान है दुनिया की 50% ओटर स्किन भारत में उत्पन्न होती हैं, जो पूरी तरह से अवैध है। वास्तव में चीन ने आखिरी बार 1993 वैध तरीके से ऊदबिलावों के खाल का आयात किया था। हालांकि, पाकिस्तान, तुर्की और अफगानिस्तान से प्राप्त खाल भी बहुत मूल्यवान हैं लेकिन यह कहा जाता है कि सबसे अच्छा जल रोधक ओटर खाल भारत और पाकिस्तान से प्राप्त होता है। वर्तमान के व्यापक ऑनलाइन व्यापार ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है।

मछली के जाल मे फंसा ऊदबिलाव(फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

खाल के अलावा ऊदबिलाव के शरीर के अंगों के “पारंपरिक” चिकित्सा में इस्तेमाल होने की भी खबरें हैं, ओटर जननांगों, खोपड़ी और अन्य शरीर के अंगों को पीसकर पारंपरिक दवाओं के घटक के रूप में उपयोग किया जाता है। ओटर के वसा से निकाले गए ऑटर ऑयल भी परंपरिक दवाओं के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

ऊदबिलाव के आवास की हानि भी एक गंभीर समस्या है, इनके आवास को मनुष्य अपने तरीके से उपयोग, बस्तियां बसाने, कृषि और जल-विधयुत परियोजनाओं के लिए परिवर्तित कर नुकसान पहुँचा चुका है। भूमि उपयोग परिवर्तन के साथ ही नदी तंत्र को क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन और ऑर्गनो फॉस्फेट जैसे कीटनाशकों द्वारा प्रदूषित किया जा रहा जिससे कि ऊदबिलाव के आधार शिकार कम होते जा रहे हैं। इसके अलावा बंगाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान के कई क्षेत्रों में ऊदबिलाव का उपयोग मछलियों को पकड़ने के लिए भी किया जाता है। मछुवारे ऊदबिलावों को रस्सी से बांध कर नाव के दोनों किनारों से नदी में नीचे तक भेजते है जिसकी वजह से मछलियाँ ऊपर कि तरफ उनके द्वारा बिछाए गए जाल में आकार फंस जाती है।

राजस्थान में चंबल किनारे, सर्दियों में जब ऊदबिलाव बच्चे पालने के दौरान सबसे ज्यादा असहाय होते हैं। इस मौसम के दौरान, वे मनुष्यों द्वारा फसलों की कटाई और नदी के चट्टानी हिस्सों के साथ लकड़ी हटाने से परेशान रहते हैं और विशेष रूप से जलीय कृषि स्थलों पर ऊदबिलाव अंधाधुंध मारे जाते हैं।

नियत डाक टिकट के नौवें संस्करण मे जारी डाक टिकट

ऊदबिलाव नदी तंत्र के अच्छे पारिस्थितिक स्वास्थ्य के संकेतक हैं जिनके लुप्त होने के पर्यावरण पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो सकता है। हाल ही में (2018) कर्नाटक सरकार ने तुंगभद्रा नदी के 34 किमी. क्षेत्र को देश का पहला ओटर रिजर्व घोषित कर देश में ओटर संरक्षण की शुरुआत की है। दुर्भाग्यवश, विडंबना यह है कि ऊदबिलाव के लुप्तप्राय और अत्यधिक संरक्षित होने के वावजूद इनके वास्तविक सुरक्षा के लिए ना ही कोई नीति है और ना ही कोई कार्यक्रम है।

 

References:

  1. Hussain, Syed Ainul. (1993). Aspects of the ecology of smooth coated Indian otter Lutra perspicillata, in National Chambal Sanctuary.Shodhganga: a reservoir of Indian theses @ INFLIBNET.http://hdl.handle.net/10603/58828
  2. Chackaravarthy, SD, Kamalakannan, B and Lakshminarayanan, N (2019). The Necessity of Monitoring and Conservation of Smooth-Coated Otters (Lutrogale perspicillata) in Non-Perennial Rivers of South India. IUCN Otter Spec. Group Bull. 36 (2):83 – 87. https://www.iucnosgbull.org/Volume36/Chakaravarthy_et_al_2019.html
  3. IOSF, (2014). A Report by The International Otter Survival Fund. https://www.otter.org/Public/AboutOtters_OtterSpecies.aspx?speciesID=11
  4. Nawab, A. (2013). Conservation Prospects of Smooth-coated Otter Lutrogale perspicillata (Geoffroy Saint-Hilaire, 1826) in Rajasthan. Springer Link. https://link.springer.com/chapter/10.1007%2F978-3-319-01345-9_13
घास के मैदान और शानदार बस्टर्ड प्रजातियां

घास के मैदान और शानदार बस्टर्ड प्रजातियां

भारत में मूलरूप से तीन स्थानिक (Endemic) बस्टर्ड प्रजातियां; गोडावण, खड़मोर और बंगाल फ्लोरिकन, पायी जाती हैं तथा मैकक्वीनस बस्टर्ड पश्चिमी भारत में सर्दियों का मेहमान है, परन्तु घास के मैदानों के बदलते स्वरुप के कारण यह सभी संकटग्रस्त है। वहीँ इनके आवास को बंजर भूमि समझ कर उनके संरक्षण के लिए राष्ट्रिय स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे है। राजस्थान इनमें से तीन बस्टर्ड प्रजातियों के लिए महत्वपूर्ण स्थान है

आज भी मुझे अगस्त 2006 का वह दिन याद है, जब एक उत्सुक पक्षी विशेषज्ञ मेरे दफ्तर में पहुंचा और बड़े ही उत्साह से उसने मुझे प्रतापगढ़ से 15 किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव करियाबाद में “खड़मोर” (लेसर फ्लोरिकन) के आगमन की खबर दी। प्रतापगढ़, राजस्थान के दक्षिणी भाग में स्थित एक छोटा शहर और जिला मुख्यालय है। भूगर्भिक रूप से यह मालवा पठार का हिस्सा है और इसके अवनत परिदृश्य के कारण काफी दर्शनीय है। क्योंकि मैं उस क्षेत्र में प्रभागीय वन अधिकारी के रूप में नियुक्त हुआ था, इसलिए मुझे विशेष रूप से बरसात के दौरान करियाबाद और रत्नीखेरी क्षेत्रों में लेसर फ्लोरिकन के देखे जाने के बारे में बताया जाता था।

मानसून की शुरुआत के बाद से ही, मैं इस खबर का बेसब्री से इंतजार कर रहा था और तुरंत मैं इस रहस्य्मयी बस्टर्ड को देखने के लिए करियाबाद इलाके की सैर के लिए रवाना हो गया। मैं बड़ी ही उत्सुकता से हरे-भरे घास के मैदान की आशा कर रहा था, जो मेरे किताबी ज्ञान के कारण एक सैद्धांतिक फ्लोरिकन निवास स्थान के रूप में मेरी कल्पना में था; इसके बजाय मुझे चरागाह व्फसलों के खेतों के बीच में स्थित घास के मैदानों के खण्डों में प्रवेश कराया गया। बीट ऑफिसर शामू पहले से ही वहां मौजूद था और उसने मुझे बताया कि उसने अभी-अभी फ्लोरिकन की आवाज सुनी थी। हवा में उड़ते हुए पक्षी की आवाज़ को सुनने के लिए हम चुपचाप खड़े हो गए।

बस कुछ ही मिनटों में शामू चिल्लाया, “वहाँ से आ रहा है।” मुझे तब एहसास हुआ कि यह वही आवाज़ थी जिसे मैंने पहले गलती से एक मेंढक की आवाज समझा था और यह पहली बारी थी जब मैंने लेसर फ्लोरिकन की आवाज़ सुनी। एक मिनट बाद शामू फिर चिल्लाया, “हुकुम, वो रहा।” मैंने उस तरफ अपनी दृष्टि डाली और पूछा, “कहाँ?” “हुकुम, अभी कूदेगा”, शामू ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया। तभी, अचानक, उसने बड़ी-बड़ी घासों से ऊपर उठते हुए अपनी छलांग लगाने की कला का प्रदर्शन किया- ये देख मेरा दिल मानो उत्साह से एक बार धड़कना ही भूल गया हो। मैं एक घंटे के लिए उसके छलांग लगाने के व्यवहार को देखकर रोमांचित हो गया और अपने कैमरे के साथ एक जगह पर बैठ गया। एक उछलते-कूदते फ्लोरिकन को देखना, मेरे जीवन के सबसे मंत्रमुग्ध कर देने वाले क्षणों में से एक था जो की मेरे लिए, जंगल में एक बाघ को देखने से भी ज्यादा सम्मोहक था।

छलांग लगाते लेसर फ्लोरिकन (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

भारतीय उपमहाद्वीप के स्थानिक, लेसर फ्लोरिकन (Sypheotides indica), एक लुप्तप्राय प्रजाति है जो मुख्यरूप से मानसून के मौसम के दौरान उत्तरी-पश्चिमी भारत में देखी जाती है, जहां यह मानसून के दौरान प्रजनन करती है। स्थानीय रूप से “खड़मोर” कहलाये जाने वाला, लेसर फ्लोरिकन या “लीख”, भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले बस्टर्ड (Family Otididae, Order Gruiformes) की छह प्रजातियों में से एक है। यह सभी बस्टर्ड में सबसे छोटा होता है तथा इसका वज़न मुश्किल से 510 से 740 ग्राम होता है। घास के मैदान इसका प्राथमिक प्रजनन स्थान है जहाँ इसे प्रजनन के समय में पर्याप्त ढकाव उपलब्ध होता है। जार्डन और शंकरन अपने लेख में लिखते है की लेसर फ्लोरिकन प्रजनन काल के दौरान, पूर्वी राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी मध्य प्रदेश के उन क्षेत्रों में इकट्ठा होते है जहाँ अच्छी वर्षा होती है। किसी विशेष क्षेत्र में इसका आगमन और प्रजनन सफलता पूरी तरह से बारिश की मात्रा और वितरण पर निर्भर करता है, जो कि इसके पूरे प्रजनन क्षेत्र में अनिश्चित है।

नर लेसर फ्लोरिकन की छलांग, इस बस्टर्ड की विशिष्ट विशेषता है। नरों द्वारा लगाए जाने वाली छलांग उनके प्रजनन काल के आगमन का संकेत देती है। नर एक चयनित स्थान पर खड़े होकर, चारों ओर देखता है और 1.5 से 2 मीटर की ऊंचाई तक कूदता है। एक नर लेसर फ्लोरिकन एक दिन में कम से कम 600 बार तक छलांग लगा सकता है। नरों द्वारा यह प्रदर्शन अन्य नरों को उसके क्षेत्र में घुसने से रोकने तथा संभोग के लिए मादाओं को बुलाने में मदद करता है। कूदते समय, यह एक मेंढक जैसी क्रॉकिंग कॉल भी करता है, जो 300 से 500 मीटर की दूरी सुनाई देती है और हवा का एक झोंका इस ध्वनि को एक किलोमीटर से भी अधिक दुरी तक लेजा सकता है।

मैंने इस लुप्तप्राय प्रजाति पर नज़र रखने के लिए हर मानसून में करियाबाद के घास के मैदानों और प्रतापगढ़ के हर अन्य क्षेत्रों की अपनी यात्रा जारी रखी। परन्तु हर गुजरते साल के साथ ये घास के मैदान फसल के खेतों के दबाव से सिकुड़ रहे थे, जिसके कारण फ्लोरिकन की उपस्थिति व् उनका दिखना कम हो रहा था। एक ही स्थान पर आबादी की घटती प्रवृत्ति ने मुझे पश्चिमी भारत में इसकी संपूर्ण वितरण रेंज में एक सर्वेक्षण करने के लिए मजबूर किया, जिसके परिणाम स्वरूप 2010 से 2012 तक अगस्त और सितंबर के महीनों में कुल तीन क्षेत्र सर्वेक्षण कि ये गए। वर्तमान में, पक्षियों और वन्यजीव प्रेमियों के लिए बहुत कम ऐसी जगहे है जहाँ मानसून के दौरान इस पक्षी को देखा जा सकता है, हालांकि कभी-कभी कई अन्य क्षेत्रों से भी फ्लोरिकन के देखे जाने की रिपोर्टें मिलती हैं।

किसी समय पर पूरे देश में वितरित होने वाला लेसर फ्लोरिकन, आज केवल कुछ ही क्षेत्रों जैसे राजस्थान के सोनखलिया, शाहपुरा, करियाबाद; पूर्वी मध्य प्रदेश में सैलाना, सरदारपुरा अभ्यारण्य और पेटलाबाद ग्रासलैंड; रामपुरिया ग्रासलैंड, वेलावदार राष्ट्रिय उद्यान, कच्छ के छोटा रण और गुजरात में भुज के नालिया ग्रासलैंड में देखा जाता है। इन घास के मैदानों में सर्वेक्षणों से पश्चिमी भारत में लेसर फ्लोरिकन की उपस्थिति का भी पता चला है। इसके अलावा, महाराष्ट्र के अकोला क्षेत्र से भी फ्लोरिकन की सूचना मिली है।

राजस्थान के अजमेर जिले के नसीराबाद शहर के पास स्थित सोनखलिया क्षेत्र, लेसर फ्लोरिकन की संख्या में वृद्धि और अच्छे से दिखने के कारण, तेजी से पक्षी और वन्यजीव प्रेमियों के लिए एक पसंदीदा स्थान के रूप में उभर रहा है। लगभग 400 वर्गकिमी के क्षेत्र के साथ, सोनखलिया लगभग 300 प्रवासी फ्लोरिकन के लिए एक आकर्षक स्थान बन गया है तथा वर्ष 2014 में, इस क्षेत्र से लगभग 80 नर फ्लोरिकन की उपस्थिति दर्ज की गई थी। इस क्षेत्र में वर्ष प्रतिवर्ष पर्यटकों की संख्या कई गुना बढ़ती जा रही है – 2011 में 20 बर्डर्स से शुरू होकर, यह संख्या 2014 के मानसून के दौरान लगभग 150 बर्डर्स तक बढ़ गई है। कृषि क्षेत्रों से घिरे हुए ये घास के मैदान, दुनिया में लेसर फ्लोरिकन की सबसे बड़ी आबादी का आवास स्थान है। अपने गैर-संरक्षित क्षेत्र की स्थिति के कारण और घना वन क्षेत्र नहीं होने के कारण, इस कूदते –फाँदते सुन्दर पक्षी को देखने के लिए बर्डर्स का मनपसंद गंतव्य हैं। वन विभाग के राजेंद्र सिंह और गोगा कुम्हार इस क्षेत्र के असली नायक हैं जो इस परिवेश में इस पक्षी की निगरानी और सुरक्षा का कार्य कर रहे हैं।

घास के मैदानों में लेसर फ्लोरिकन (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

हालांकि प्रतापगढ़ का करियाबाद-बोरी इलाका भी स्थानीय रूप से लेसर फ्लोरिकन के दर्शन के लिए जाना जाता था, परन्तु घास के मैदानों के कृषि क्षेत्रों में तेजी से रूपांतरण के परिणाम स्वरूप यह पक्षी स्थानीय रूप से विलुप्त हो गया है। मालवा क्षेत्र के सैलाना, सरदारपुरा, पेटलाबाद और पमपुरिया घास के मैदानों से अभी भी फ्लोरिकन की उपस्थिति की खबरें आती रहती हैं। पिछले कुछ वर्षों में तेजी से भूमि रूपांतरण और बदलते कृषि स्वरुप के बाद, नालिया घास के मैदानों में फ्लोरिकन के दिखने में अचानक से कमी आई है। हालांकि वेलावादर में फ्लोरिकन की आबादी ध्यान देने योग्य है क्योंकि कम से कम 100 फ्लोरिकन की आबादी का समर्थन करने वाला यह लेसर फ्लोरिकन के लिए एकमात्र शेष प्राकृतिक परिवेश है।

पश्चिमी भारत, दो अन्य बस्टर्ड, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) और मैकक्वीनस बस्टर्ड के लिए भी जाना जाता है। स्थानीय रूप से गोडावन, जिसे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड कहा जाता है, राजस्थान का राज्य पक्षी भी है। लगभग 50-150 पक्षियों की विश्वव्यापी घटती आबादी के कारण, यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त पक्षी है जो थार, नालिया (गुजरात) और नानज (महाराष्ट्र) के घास के मैदान में जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। आज थार मरुस्थल के कुछ छोटे-छोटे भाग गोडावन का एक मात्र निवास स्थान हैं जो वर्तमान में इसकी सबसे बड़ी प्रजनन आबादी का समर्थन करता हैं। इसके वितरण रेंज में तेजी से गिरावट ने दुनिया भर में वन्यजीव विशेषज्ञों, प्रबंधकों, पक्षी विज्ञानियों और पक्षी प्रेमियों को चिंतित कर दिया है, हालांकि स्वस्थानी संरक्षण रणनीतियों (in-situ conservation strategies) को विभिन्न राज्यों ने अपनाया और संरक्षण वादियों की याचनाओं द्वारा कुछ घास के मैदानों को 1980 के दशक की शुरुआत में संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में भी शामिल किया गया।

दुर्भाग्य से, ये सभी उपाय गोडावण की आनुवंशिक रूप से वर्धनक्षम (Viable) और जनसांख्यिकी (Demography) रूप से स्थिर आबादी को बनाए रखने में विफल हे। अब बची हुई यह छोटी सी आबादी भी आनुवांशिक, पर्यावरणीय और जनसांख्यिकीय कारकों के कारण विलुप्त होने की कगार पर है। शिकार, घास के मैदानों का रूपांतरण, प्रजनन । जैसलमेर से लगभग 55 किमी दूर, डेजर्ट नेशनल पार्क इस खूबसूरत पक्षी के लिए एक प्राकृतिक आवास है जहाँ सुदाश्री व् सम  क्षेत्र में इसको देखा जा सकता है, इसके आलावा यह कभी-कभी राष्ट्रीय उद्यान के बाहर सल्खान और रामदेवरा के पास भी देखा जा सकता है।

एक शीतकालीन प्रवासी; मैकक्वीनस बस्टर्ड, गोडावण के निवास स्थान में पाया जाता है। यह एक सुंदर और बहुत ही शर्मीला पक्षी है इसीलिए इस पक्षी को देखने के लिए धैर्य और तेज दृष्टि की आवश्यकता होती है। अभी भी पाकिस्तान सहित कई देशों में इस का शिकार किया जाता है, यह व्यापक रूप से कई लोगों द्वारा गेम बर्ड के रूप में शिकार किया जाता था, विशेषरूप से अरब के शेखों ने, इसका 1970 के दशक के अंत तक जैसलमेर में लगातार शिकार किया।

शीतकालीन प्रवासी मैकक्वीनस बस्टर्ड (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

इन तीन बस्टर्ड्स के अलावा एक और बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन है जो ज्यादातर शुष्क और अर्ध-घास के मैदानों में रहते हैं तथा भारत के तराई क्षेत्रों में पाए जाते है। उत्तर प्रदेश में लग्गा-बग्गा घास के मैदान पीलीभीत और दुधवा टाइगर रिजर्व, असम में मानस टाइगर रिजर्व और काजीरंगा घास के मैदान, इस पक्षी के आवास स्थान हैं। लेसर फ्लोरिकन की तरह, यह भी अपने शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। परन्तु इसमें एक अंतर है, जहाँ लेसर फ्लोरिकन लंबवत छलांग लगता है वहीँ बंगाल फ्लोरिकन संभोग प्रदर्शन में 3-4 मीटर ऊंची उड़ान भरता है फिर थोड़ा नीचे होते हुए दुबारा ऊपर उठता है। निचे उतरते समय इसकी गर्दन पेट के पास तक घूमी रहती है। इसकी यह उड़ान चिक-चिक-चिक की कॉल और पंखों की तेज आवाज के साथ होती है।

विश्व में बस्टर्ड की कुल 24 प्रजातियां है, तथा जिनमे से तीन प्रजातियां मुख्यरूप से भारतीय ग्रासलैंड में पायी जाती हैं – ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, लेसर फ्लोरिकन और बंगाल फ्लोरिकन। 30 से अधिक देशों में पाए जाने वाला “मैकक्वीनस बस्टर्ड”, सर्दियों के दौरान पश्चिमी भारत में आते है। भारत से इन बस्टर्ड का गायब होना दुनिया के नक्शे से इनके विलुप्त होने का संकेत देगा। ग्रासलैंड प्रजातियों के रूप में, बस्टर्ड्स की उपस्थिति घास के मैदानों के संतुलित पारिस्थितिक तंत्र का संकेत देती है, जो दुर्भाग्य से, अक्सर नज़र अंदाज किये जाते है और यहां तक इनकों एक बंजर भूमि भी माना जाता है। इसके विपरीत, ये घास के मैदान न केवल कुछ वन्यजीव प्रजातियों के लिए घर हैं, बल्कि वे स्थानीय समुदायों की अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि यह ग्रासलैंड्स पशुधन की चराई के लिए चारा उपलब्ध करवाते हैं। विश्व की कुल पशुधन आबादी का लगभग 15-20 प्रतिशत भाग भारत में रहता है और कोई भी घास के मैदानों पर इनकी निर्भरता का अंदाजा लगा सकता है।

वैज्ञानिक तरीकों से ग्रासलैंड प्रबंधन की कमी, निवास स्थान के लगातार घटने, घास के मैदानों पर वृक्षारोपण गतिविधियाँ, बदलते लैंडयुस पैटर्न, कीटनाशक, आवारा कुत्ते- बिल्लियों द्वारा घोंसलों का नष्ट करना, आक्रामक वनस्पतिक प्रजातियाँ, अंधाधुंध विकास गतिविधियाँ, वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र में अपर्याप्त कवरेज और लोगो में ज्ञान की कमी, लेसर फ्लोरिकन जैसी प्रजातियों के लिए बड़े खतरे हैं। संभावित घास के मैदानों में चराई और आक्रामक वनस्पतिक प्रजातियों से निपटने के अलावा, बस्टर्ड्स के प्रजनन स्थानों को कुत्तों, बिल्लियों और कौवे जैसे अन्य शिकारियों से बचाने की सख्त जरूरत है। इसके अलावा, बस्टर्ड प्रजातियों पर शोध और निगरानी के साथ-साथ सार्वजनिक जागरूकता और संवेदीकरण जैसे कार्यक्रम भी शुरू किये जाने चाहिए।

वर्तमान में, ग्रासलैंड प्रबंधन की एक राष्ट्रीय नीति की तत्काल आवश्यकता है जो कि ग्रासलैंड पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा प्रदान की गई पारिस्थितिक सेवाओं की सराहना करे। मौजूदा संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में और अधिक बस्टर्ड निवास स्थानों को शामिल करना और स्थानीय समुदायों को इसकी निगरानी व् संरक्षण  कार्यों में साथी बनाना इसके संरक्षण में एक बड़ी सफलता हो सकती है। बस्टर्ड को बचाने के लिए किए गए हर प्रयास से हमारे ग्रासलैंड और उससे जुड़े कई अन्य जींवों को बचाया जा सकता है, क्योंकि यदि बाघ वन पारिस्थितिकी तंत्र की नब्ज है, तो बस्टर्ड घास के मैदान के पारिस्थितिकी तंत्र की नब्ज है।

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)

राजस्थान की प्रथम कैमरा ट्रैप फोटो

राजस्थान की प्रथम कैमरा ट्रैप फोटो

क्या आपने कभी सोचा है आजादी से पूर्व में राजस्थान में कैमरा ट्रैप फोटो लिया गया था ? आइये जानिए कैमरा ट्रैप के इतिहास एवं उससे जुड़े कुछ रोचक तथ्यो के बारे में…

वन्यजींवों के संरक्षण में वन्यजींवों की संख्या का अनुमान लगाना एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। भारत में वर्ष 2006 के बाद से बाघ अभयारण्य में बाघों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए कैमरा ट्रैप का उपयोग होने लगा।  आज कैमरा ट्रैप के उपयोग से संख्या का अनुमान अधिक सटीक और बिना इंसानी दखल के होने लगा है। कैमरा ट्रैप के इस्तेमाल से न केवल वन्यजींवों की संख्या का अनुमान बल्कि इससे उनके संरक्षण के लिए कई महत्वपूर्ण जानकारियां जैसे जंगल में शिकारियों व् अवैध कटाई के परिणाम भी प्राप्त किये जाते है।

वर्तमान में प्रयोग में लिया जाने वाला कैमरा ट्रैप दूर से काम करने वाली मोशन सेंसर बीम तकनीक पर आधारित है, इन अत्याधुनिक उपकरण में से निकलने वाली इंफ़्रारेड बीम के सामने यदि कोई भी गतिविधि होती है तो तस्वीर कैद हो जाती है। परन्तु पहली बार जब कैमरा ट्रैप के अविष्कार कर्ता जॉर्ज शिरस-III  ने सन 1890 में इसका उपयोग किया तब वह एक ट्रिप वायर और एक फ़्लैश लाइट का इस्तेमाल करके बनाया गया था।  इनसे लिए गए फोटो 1906 में नेशनल जियोग्राफिक मैगज़ीन में प्रकाशित हुए थे। भारत में ऍफ़ डब्लू  चैंपियन ने 1926 में राजाजी नेशनल पार्क में टाइगर की कैमरा ट्रैप से पहली पिक्चर लेने में सफलता प्राप्त की। ऍफ़ डब्लू चैंपियन, प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट के दोस्त एवं संरक्षक थे और उन्होने ही जिम कॉर्बेट को बन्दुक की जगह कैमरा पकड़ने की सलाह दी थी। जिसके बाद जिम कॉर्बेट एक वन्यजीव प्रेमी के रूप में प्रसिद्ध हुए।

आधुनिक कैमरा ट्रैप लगाते हुए एक स्वयंसेवक

परन्तु क्या आप जानते है?  राजस्थान में संयोजित तरह से आधुनिक कैमरा ट्रैप का इस्तेमाल डॉ जी वी रेड्डी के दिशा निर्देशन में  रणथम्भोरे रास्ट्रीय उद्यान  में सन 1999 में किया गया था। उन्होने पहली बार डॉ उल्हास कारंथ के सहयोग से बाघों की संख्या का अनुमान लगाने का प्रयास किया। परन्तु इतिहास के अनछुए पन्नो में प्रमाण मिलते है की राजस्थान में सबसे पहले कैमरा ट्रैप का इस्तेमाल चितोड़गढ़ में किया गया था। आज़ादी से पहले देश में ब्रिटिश लोगो को खुश रखने के लिए यहाँ के राजा-महाराजा, वन्यजीवों के शिकार के लिए विशेष आयोजन किया करते थे। परन्तु इन्ही दिनों की एक विशेष फोटो अनायाश ध्यान आकर्षित करती है। वर्ष 1944 में चित्तोड़ में एक तालाब पर आने वाले बाघ की फोटो लेने में जब सफलता हासिल नहीं हुई तो यहाँ सबसे पहले कैमरा ट्रैप का इस्तेमाल करके टाइगर का चित्र लिया गया। जिसका साक्षी  बीकानेर का लक्ष्मी  विल्लास होटल हे, जहाँ यह फोटो आज भी लगी हुई है और यदि ध्यान से देखा जाये तो टाइगर के पीछे के पैर के पास एक खींची हुई रस्सी या तार देखी जा सकती है जो दाये और बाये दोनों हिस्सों में दिखाई देती है।

यह वह दुर्लभ फोटो है जिसे राजस्थान की प्रथम कैमरा ट्रैप फोटो माना जा सकता है

कैमरा ट्रैप फोटो के निचे लिखा विवरण

आजकल कैमरा ट्रैप अत्याधुनिक डिजीटल कार्ड तथा बैटरी द्वारा संचालित फोटो एवं वीडियो दोनों बनाने में सक्षम होते  हैI उस दौर में  कैमरा ट्रैप में प्लेट एवं कालांतर में रील का उपयोग किया जाता था और फोटो को लैब में प्रोसेस होने के बाद ही देखा जा सकता था।

आज डिजिटल कार्ड की बदौलत पलभर में जंगल के अंदर ही मोबाइल में फोटो देखी व् तुरंत साझा की जा सकती है।

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इंडियन स्किमर्स: पानी की सतह को चीरता पनचीरा

इंडियन स्किमर्स: पानी की सतह को चीरता पनचीरा

पनचीरा कलाबाजी खाते हुए और करीने से  पानी को चीरते हुए मछली का शिकार कर यह सिद्ध कर देता है की वह एक अचूक और माहिर शिकारी है और हर समय अद्वितीयरूप से विजित ही रहेगा, पर मानवीय हस्तक्षेप के चलते यह अपने  एकमात्र प्रजनन स्थल या फिर यों कहे अपने अंतिम गढ़ चंबल नदी पर भी अस्तित्व की लड़ाई में पराजीत होता प्रतीत हो रहा है…

इंडियन स्कीमर (Indian skimmer) जिसे हिंदी में पनचीरा व राजस्थानी स्थानीय भाषा में पंछीडा भी कहते है। अपनी काली टोपी और चटक नारंगी रंग की चोंच, जिसका निचला भाग ऊपरी भाग की अपेक्षा लम्बा होने, के कारण इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसका नाम, इसके भोजन को पकड़ने के तरीके से एक पल में ही स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि यह अपनी चोंच से पानी की ऊपरी सतह को चीरते हुए, जैसे दूध से मलाई निकालते हो, मछली को पकड़ता है। इसका वैज्ञानिक नाम “Rynchops albicollis” है तथा यह Laridae परिवार का सदस्य है। यह कुछ हद तक टर्न (Tern) जैसे लगते है। राजस्थान में यह चम्बल व उसकी सहायक नदियों के पास मिलता है, परन्तु मानवीय हस्तक्षेपों और घटते आवास के कारण आज यह एक संकटग्रस्त प्रजाति है।

इंडियन स्कीमर का चित्रण/निरूपण (Description):

इंडियन स्कीमर की चोंच उसके शरीर का सबसे आकर्षक भाग होती है क्योंकि इसकी चोंच लम्बी, मोटी, गहरी नारंगी तथा सिरे से हल्के पीले रंग की होती है। चोंच का निचला भाग ऊपरी भाग की अपेक्षा लम्बा होता है तथा यह सिरे से चाकू की तरह चपटा व धारदार होता है। इसके सिर का ऊपरी भाग काला होता है मानो सिर पर काली टोपी रखी हो। शरीर के ऊपरी भाग काले तथा निचले भाग सफ़ेद रंग के होते हैं। अपने लम्बे और नुकीले पंखों के कारण यह टर्न जैसा दिखता है परन्तु इसके पंखों के किनारे सफ़ेद होते है तथा इसके पंखों का विस्तार लगभग 108 सेमी होता है। इसकी पूँछ काली, छोटी, सिरे से कांटे जैसी तथा इसके बीच के पंख सफ़ेद होते है। टंगे तथा पैर लाल होते है। नर और मादा दिखने में एक से ही होते हैं, हालांकि, नर आकार में थोड़े बड़े होते हैं।

युवा पक्षियों के शरीर के ऊपरी भाग भूरे तथा सिर वयस्कों से ज्यादा सफ़ेद होता है। इनकी चोंच नारंगी-भूरी तथा सिरे से गहरे रंग की होती है। चोंच सामान्य ही होती है परन्तु उम्र के साथ निचला भाग बढ़ जाता है। एक नज़र में किसी उड़ान भरते या स्थिर बैठे स्कीमर को देखने पर उनकी क्षैतिज रूप से विस्तारित (horizontally extended) आँखें एक पतली पट्टी या धारी (slits) कि तरह दिखती हैं जो कि इनके समुद्र की सतह पर घूमते समय पानी के संभावित बौछार से आँखों को सुरक्षित रखता है।

इंडियन स्कीमर “Rynchops albicollis” (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इतिहास के पन्नो में इंडियन स्कीमर

इंडियन स्कीमर का जिक्र सबसे पहले एडवर्ड बक्ले (1602-1709) द्वारा बनाए गए उनके चित्र में किया गया। एडवर्ड बक्ले मद्रास में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्जन और एक अग्रणी प्रकृतिवादी थे। ये पहले इंसान थे जिन्होंने भारतीय पक्षियों की प्रजातियों के चित्र बनाकर दस्तावेजीकरण किया था। इन्होंने मद्रास स्थित फोर्ट सेंट जॉर्ज (Fort St. George) के आसपास के इलाके से कुल 22 पक्षियों के चित्र व विवरण तैयार किए थे। सन 1713 में यह सभी विवरण और चित्र एक अंग्रेजी प्रकृतिवादी जॉन रे की किताब Synopsis Methodica Avium & Piscium: Opus Posthumum में छपे जो कि भारतीय पक्षियों पर छपने वाला पहला दस्तावेज था। एडवर्ड बक्ले ने ही स्कीमर का सबसे पहला चित्र बनाया जिसे उस समय मद्रास सी क्रो (Madras Sea Crow) का नाम दिया था।

अल्फ्रेड हेनरी माइल्स ने An Encyclopedia of Natural History में जिक्र किया है कि सन 1731 किसी अमेरिकी लेखक ने समुद्र के ऊपर पानी को चीरते हुए उड़ने वाले पक्षी को “cut water” नाम से संबोधित किया था जो कि बाद में Scissors Bill नाम से जाना जाने लगा।

विलियम जॉन स्वेन्सन (William John Swainson) ने सन 1838 में इंडियन स्कीमर को द्विपदनाम पद्धति के अनुसार “Rynchops albicollis” नाम दिया। स्वेन्सन एक अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ,मैलाकोलॉजिस्ट, किट विशेषज्ञ और कलाकार थे जो प्रकृति के सुंदर रंगीन चित्रों, विशेष रूप से फूलों और पक्षियों के लिए जाने जाते थे।

एडवर्ड बक्ले द्वारा बनाया गया मद्रास सी क्रो (Madras Sea Crow) का चित्र

इंडियन स्कीमर का वितरण

पक्षी विशेषज्ञ TC Jerdon द्वारा 1864 में भारतीय पक्षियों पर लिखी पुस्तक के एक विवरण कि कल्पना करें तो ये अनुमानित किया जा सकता है कि पनचिरा कभी हजारों कि तादाद में पाया जाता था। जेरडोन कि पुस्तक का विवरण कुछ इस प्रकार है श्री ब्रुक्स लिखते है की उन्होंने मिर्ज़ापुर में सैकड़ों की तादाद में स्किमर्स के चूजे को देखा तो वो दृश्य आश्चर्यचकित कर देने वाला था, मानो बहुत सारे छोटे कछुए की सेना नदी की तरफ दौड़ रही हो।

इंडियन स्कीमर मुख्य रूप से नदियों, झीलों और नमभूमियों में पाया जाता है। सुन्दर (2004) के अनुसार, पहले यह म्यांमार की प्रमुख नदियों, भारत-चीन में मेकांग के आसपास तथा भारतीय उप-महाद्वीप में व्यापक रूप से मिलते थे। परन्तु इसकी सीमाएं हाल के दशकों में तेजी से खंडित हुई है जिसके परिणामस्वरूप आज पाकिस्तान और म्यांमार में इनकी बहुत छोटी सी आबादी जीवित बची है तथा मेकांग डेल्टा में यह पूर्णरूप से लुप्त हो चुकी है। मोहसिन (2014) के अनुसार, वर्तमान में भारत, और बांग्लादेश इंडियन स्कीमर के अंतिम गढ़ हैं तथा भारत इस प्रजाति के लिए एकमात्र शेष प्रजनन आवास है। भारत में, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, बिहार और ओडिशा से इसकी सूचना है।

Distribution of Indian Skimmer (Source: birdlife.org)

आज भारत में राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य भारतीय स्किमर की एक बड़ी आबादी (लगभग 80 प्रतिशत) का प्रजनन स्थान है। अभी तक राजस्थान में यह केवल चम्बल व उसकी सहायक नदियों जैसे रामेश्वरम घाट, बनास नदी व इसके पास के कुछ तालाबों जैसे “सूरवाल” में देखा जाता है। इनको आसानी से चम्बल नदी के किनारे पर देखा जा सकता है।

राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य में इंडियन स्किमर (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

आहार व्यवहार

इंडियन स्कीमर का नाम इसके भोजन के शिकार करने की विधि के आधार पर रखा गया है। यह अपनी चोंच को खोल कर पानी की सतह को निचली चोंच से चीरते हुए, सीधी उड़ान भरते है और जैसे ही कोई मछली सामने आती है तो तुरंत अपनी चोंच से उसे पकड़ लेते है। यह एक उल्लेखनीय एरोबैटिक कौशल दिखाते हैं जिसमें यह अपनी चोंच को पानी की सतह पर स्थिर एक सीधे पथ पर बनाये रखते है। यह देखा गया है की इंडियन स्कीमर मुख्यरूप से सतह पर उपलब्ध छोटी मछलियों की प्रजातियों को खाते है तथा छोटे झुंडों में खाना खोजते है। इसके आहार में मुख्य रूप से 04-14 सेमी लंबाई की छोटी मछलियाँ होती हैं तथा जो मछली 2 सेमी से छोटी होती है, उन्हें युवा पक्षियों को खिलाया जाता है। राजगुरु (2017) के अनुसार यह Salmophasia bacaila, Salmophasia sardinella, Systomous sarana, Pethiaticto, Dermogenys pusilla आदि प्रजातियों की मछलियां खाते है।

अपनी चोंच से पानी की सतह को चीरते हुए मछली पकड़ते इंडियन स्कीमर (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

प्रजनन

इंडियन स्कीमर का प्रजनन काल भीषण गर्मी के दिनों में (मार्च से मई) होता है तथा यह मुख्य रूप से खुले रेत तट पर अपना घोंसला बनाते है। अंडे भूरे धब्बों और लकीरों के साथ सफेद व भूरे रंग के होते हैं। राजगुरु (2017) ने यह सूचित किया है की तेजी गर्मियों में यह अपने अंडों को गर्मी के प्रभाव से बचाने के लिए बार-बार पानी में जाकर अपने अग्र भाग को भिगो कर अंडों पर बैठ उन्हें ठंडा करते है। देबाता (2018) ने यह सूचित किया है की इंडियन स्कीमर, टर्न के घोंसलों में अपने अंडे रख कर Brood Parasitism का उद्धरण देते है, परन्तु इस व्यवहार के अन्य संदर्भ नहीं आये है। इनका प्रजनन काल नदियों के जल स्तर पर भी निर्भर करता है।

इंडियन स्कीमर पर खतरे

पहले यह पक्षी भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक रूप से मिलता था परन्तु आज मानवीय हस्तक्षेपों के चलते यह बहुत कम हो गए तथा IUCN के अनुसार एक संकटग्रस्त प्रजाति है। वर्तमान में इसकी वैश्विक आबादी केवल 6,000-10,000 पक्षी हैं। यह मनुष्यों द्वारा निवास स्थान के खत्म होने, मछली पकड़ने, परिवहन, घरेलू उपयोग, सिंचाई योजनाओं और कृषि व औद्योगिक रसायनों से नदियां व झीलें प्रदूषित हो रही है तथा इन्हीं कारणों से इंडियन स्कीमर की आबादी में गिरावट आ रही है क्योंकि इन कारकों ने इसके प्रजनन और खाना ढूंढने की सफलता को कम कर दिया है। सुंदर (2004) के अनुसार राजस्थान में चम्बल नदी के ऊपर बांध बनने से, भी इसकी आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, क्योंकि बाँध से पानी छोड़ने के कारण जलस्तर में निरंतरता नहीं रहती है। प्रजनन काल में यह नदी किनारे रेत पर घोंसला बनाते है परन्तु ऐसे में यदि बाँध से पानी छोड़ा जाता है तो नदी किनारों पर जलस्तर बढ़ने के कारण इनके घोंसले बह जाते है। और यदि किनारों पर पानी बहुत काम रहे तो आवारा कुत्ते व मवेशी, इनके घोंसलों को नष्ट कर देते है।

इसकी अधिकांश आबादी असुरक्षित हैं लेकिन कुछ संरक्षित क्षेत्रों जैसे राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य में सुरक्षित हो रही है। परन्तु सरकार को इस पक्षी के संरक्षण के लिए और कदम भी उठाने चाहिए, क्योंकि यह जल-पक्षी नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र का एक अभिन्न अंग हैं तथा ये पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

References:

  • Debata, S., T. Kar, K.K. Swain & H.S. Palei (2017). The Vulnerable Indian Skimmer Rynchops albicollis Swainson, 1838 (Aves: Charadriiformes: Laridae) breeding in Odisha, eastern India. Journal of Threatened Taxa 9(11): 10961–10963
  • Debata, S., T. Kar, K.K. Swain & H.S. Palei(2018): Occurrenceof Indian Skimmer Rynchops albicollis eggs in River Tern Sterna aurantia nests, Bird Study
  • https://books.google.co.in/books?id=DWtCw6-AxA8C&pg=PA262&lpg=PA262&dq=Indian+scissors-bill+name+given+by&source=bl&ots=gUvUYj5lrJ&sig=ACfU3U1FPmQ5xerPWDd8fDQwWPqpYK92DQ&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwjvsoz4m_joAhWKzDgGHQ8ZB4YQ6AEwCXoECAoQAQ#v=onepage&q=Indian%20scissors-bill%20name%20given%20by&f=false
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  • Rajguru, S. K., (2017). Breeding biology of Indian Skimmer Rynchops albicollis at Mahanadi River, Odisha, India. Indian BIRDS 13 (1): 1–7.
  • Sundar, K.S.G. (2004). Observations on breeding Indian Skimmers Rynchops albicollis in the National Chambal Sanctuary, Uttar Pradesh, India. Forktail 20: 89–90.
  • Swainson,1838. Animals in menageries. Part III. Two centenaries and a quarter of birds, either new or hitherto imperfectly described. p. 360.
साँड़ा: मरुस्थलीय भोज्य श्रृंखला का आधार

साँड़ा: मरुस्थलीय भोज्य श्रृंखला का आधार

साँड़ा, पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पायी जाने वाली छिपकली, जो मरुस्थलीय खाद्य श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है परन्तु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते इसकी आबादी घोर संकट का सामना कर रही हैं।

साँड़े का तेल, भारत के विभन्न हिस्सो मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक प्रचलित औषधि हैं परन्तु इस तेल का तथाकथित बिमारियों मे कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र हैं एवं इस तेल के रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाये गये हैं। आज इस अंधविश्वास के कारण इस जीव का बहुतायत में अवैध शिकार किया जाता हैं, जिसके परिणाम स्वरूप सांडो की आबादी तेजी से घटती जा रही हैं।

साँड़े के नाम से जाने जाने वाला ये सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क प्रदेशों में पाए जाने वाली एक छिपकली हैं। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मजबूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती हैं। साँड़ा का अँग्रेजी नाम, Spiny-tailed lizard होता है जो इसे इसकी पूंछ पर पाये जाने वाले काँटेदार स्केल्स के अनेकों छल्लो (Rings) की शृंखला के कारण मिला हैं।

विश्वभर में साँड़े की 20 प्रजातियाँ पायी जाती हैं जो की उत्तरी अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाने वाली इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम “Saara hardiwickii” हैं, जो की मुख्यतः अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा, एवं गुजरात के कच्छ जिले के शुष्क घास के मैदानों में पायी जाती है। कुछ शोधपत्रों के अनुसार साँड़े की कुछ छोटी आबादियाँ उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों, उत्तरी कर्नाटक, तथा पूर्वी राजस्थान के अलवर एवं सवाई माधोपुर जिलों में भी पायी जाती हैं, जो की इनके शुष्क आवास के अलावा अन्य आवासों में वितरण को दर्शाती हैं। वहीँ दूसरी ओर वन्यजीव विशेषज्ञो के अनुसार साँड़े का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय गतिविधियों, मुख्यत: अवैध शिकार का परिणाम हो सकता हैं क्योंकि वन्यजीव व्यापार में अनेकों जीवो को उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता हैं।

साँड़े की भारतीय प्रजाती में नर (40 से 49 सेमी) सामन्यत: आकार में मादा (34 से 40 सेमी) से बड़े होते हैं तथा अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हें। नर की पूंछ उसके शरीर की लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर से नुकीली होती हें जबकि मादा की पूंछ शरीर की लंबाई से छोटी तथा सिरे से भोंटी होती हैं।

भारतीय साँड़ा छिपकली (Indian Spiny tailed lizard “Saara hardiwickii”)

पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पायी जाने वाली साँड़े की आबादी में, त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के स्केल्स में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परन्तु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में इस तरह का कोई भी रंग नहीं पाया जाता है। दोनों राज्यों में पायी जाने वाली आबादी में रंग के इस अंतर का कारण जानने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता हैं। परन्तु रंगों में यह अंतर आहार में भिन्नता तथा दोनों आवास में पायी जाने वाली वनस्पतियों में अंतर होने के कारण भी हो सकता है।

भारतीय साँड़े को भारत मे पाये जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल के नमूनो की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक सीमित रहता हैं लेकिन शिशु साँड़ा प्रायतः वनस्पति के साथ विभ्न्न कीटो मुख्यत: भृंग, चींटिया, दीमक, एवं टिड्डे का सेवन करते भी जाने जाते हैं।बारिश मे एकत्रित किए गए कुछ वयस्क साँड़ो के मल में भी कीटो की बहुतायत मिलना इनकी आहार के प्रति अवसरवादिता को दर्शाता हैं।

साँड़ा, मुख्यरूप से शाकाहारी भोजन पर ही निर्भर रहती है

मरुस्थल में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए साँड़े भी अन्य मरुस्थलीय जीवो के समान भूमिगत माँद में रहते हैं। साँड़े की माँद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार समान होता है तथा इसी कारण से यह अन्य सस्थलीय जीवों की माँद से अलग दिखाई पड़ती हैं। ये मांदे अक्सर टेड़ी-मेढी, सर्पाकर तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती हैं। माँद का आंतरिक तापमान बाह्य तापमान की तुलना में बहुत ही प्रभावी रूप से कम होता हैं, जिससे साँड़े को रेगिस्तान की भीषण गर्मी में सुरक्षा मिलती हैं। ये छिपकली दिनचर होती हैं तथा माँद में आराम करते समय अपनी काँटेदार पूंछ से प्रवेशद्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों विशेषकर परभक्षी जीवो को रोकने के लिए प्रवेश द्वार को अपनी पूंछ द्वारा मिट्टी से सील भी कर देती हैं।

माँद बनाना, रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है तथा इसी कारण पैदा होने के कुछ ही समय बाद ही साँड़े के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ माँद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य सरीसृपों के समान साँड़े भी अत्यात्धिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिंद्रा में चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की रस प्रक्रिया (metabolism) दर को धीमी कर शरीर में संचित वसा (stored fats) पर ही जीवित रहते हैं। हालांकि कच्छ के घास के मैदानों में शिशु साँड़ों को अक्सर दिसम्बर एवं जनवरी माह में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका मुख्य कारण कच्छ में सर्दियों के समय तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता हैं।

साँड़ों का प्रजनन काल फरवरी माह से शुरू होता है और उनके छोटे शिशुओं को जून व् जुलाई के महीने तक घास के मैदानों में इधर-उधर दौड़ते हुए देखा जा सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय के दौरान भी ये छिपकलियां प्रकृति में सख्ती से दिनचर बनी रहती हैं तथा इनकी गतिविधियां सूर्योदय के साथ शुरू होती हैं एवं सूर्य क्षितिज से नीचे पहुंचते ही समाप्त हो जाती हैं। गर्मी के दिनों में तेज धूप खिलने पर यह भरी दोपहर तक सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल छाए रहे तो इनकी शाम तक भी रहती है।

साँड़ा मरुस्थलीय खाद्य श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरमिड के सबसे निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लाइकोजन और वसा की अधिक मात्रा, इसे रेगिस्तान में अनेकों परभक्षी जीवो के लिए प्रमुख भोजन बनाते हैं। साँड़े को दोनों, भूमि तथा हवा से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल मे पाये जाने वाले परभक्षी जीवो की विविधता एवं बहुतायता जिनमे स्तनधारी, सरीसृप, स्थानीय एवं प्रवासी शिकारी पक्षी शामिल हैं, सांडो की बड़ी आबादी का ही परिणाम हैं। हैरियर और फाल्कन जैसे कई अन्य शिकारी पक्षियो को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते हुए देखा जा सकता है। केवल बड़े शिकारी पक्षी ही नहीं परंतु किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात साँड़ों का शिकार करने का अवसर नहीं गवाते।

पक्षियों के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इन उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत साँड़ों को प्राप्त करने का एक अवसर भी नही गवातें। थार रेगिस्तान में विषहीन सांप की एक आम प्रजाति जिसे आम बोली में दो मूहीया धुंभी (Red sand-boa) कहते हैं, अक्सर साँड़े को माँद से बाहर खदेड़कर कहते हुए देखी जा सकती हैं। दो मूही द्वारा माँद में हमला करने पर साँड़े के पास अपने पंजो से जमीन पर मजबूत पकड़ बनाने एवं माँद की संकीर्न्ता के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय नहीं होता हैं। हालांकि दोमूही के लिए भी ये कार्य अत्यधिक ऊर्जा व समय की खपत करने वाला होता है क्योंकि साँड़े को माँद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए आसान काम नहीं होता। लेकिन ये प्रयास व्यर्थ नहीं हैं क्योंकि एक सफल शिकार की कीमत ऊर्जा युक्त भोजन होती है। प्रायतः संध्या काल में सक्रिय होने वाली भारतीय मरु-लोमड़ी भी अपनी वितरण सीमा में अक्सर साँड़े को माँद से खोदकर शिकार करती देखी जा सकती हैं।

खाद्य पिरामिड के विभिन्न ऊर्जा स्तरो से परभक्षी जीवो की ऐसी विविधता के कारण साँड़े ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके विकसित किये है। हालांकि इस छिपकली के पास किसी भी प्रकार की आक्रामक सुरक्षा प्रणाली से नहीं हैं परंतु इसका छलावरण, फुर्ती एवं सतर्कता इसका प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सुखी घास के समान होता हैं, जो इसके आसपास के पर्यावास में अच्छी से घुलकर एक छलावरण का कार्य करता हैं एवं इसे शिकारियों की नजर से बचाता हैं।

यदि छलावरण शिकारियों के खिलाफ काम नहीं करता, तो यह शिकारियों से बचने के लिए अपनी गति पर निर्भर रहती हैं। साँड़ा छिपकली के पीछे के टांगे मजबूत तथा उंगलिया लम्बी होती हैं जो इसे किसी भी शिकारी  से बचने के लिए उच्च गति प्राप्त करने में मदद करती है। गति के साथ-साथ, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद सतर्क रहती है। विशेष रूप से, जब शिशुओं के साथ हो, वयस्क छिपकली आगे के पैरो पर सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पे नजर रखती हैं। साँड़ा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढ़ती हैं और आसपास में एक मामूली हलचल मात्र से ही खतरा भांप कर निकट की माँद मे भाग जाती हैं। साँड़े अक्सर समूहो में रहते है तथा अपनी माँद एक दूसरे से निश्चित दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरो को मादाओ से मिलन के लिए मुक़ाबला करते देखा जा सकता हैं। नर अपने इलाके को लेकर सक्त क्षेत्रीयत्ता प्रदर्शित करते हैं तथा अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।

अवैध शिकार एवं खतरे

आज मनुष्यों से, साँड़ा छिपकली को बचाने के लिए न तो छलावरण, न ही गति और न ही सतर्कता पर्याप्त प्रतीत होती हैं। साँड़े की वितरण सीमाओं में इनके अंधाधुन शिकार की घटनाएँ अक्सर सामने आती रहती हैं। माँद में रहने वाली इस छिपकली को पकड़ने के लिए शिकारीयो को भी अनेकों तरीके इस्तेमाल करते देखा गया हैं।सबसे सामन्या तरीके में साँड़े की माँद को गरम पानी से भर के या माँद खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता हैं। एक अन्य तरीके में शिकारी, साँड़े की माँद ढूंढने के बाद उसके प्रवेश द्वार पर एक छोटी रस्सी का फंदा लगा देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे जमीन में गाड़ देते हैं। जब साँड़ा अपनी माँद से बाहर निकलता है तो उस समय ये फंदा उसके सर से निकलते हुए पैरों तक आ जाता हैं तथा जैसे ही साँड़ा वापस माँद में जाने की कोशिश करता हैं वैसे ही फंदा उसके शरीर पे कस जाता हैं, परिणाम स्वरूप साँड़ा वापस माँद में पूरी तरह नहीं जा पता हैं। तभी फिर साँड़े को पकड़ के उंसकी रीड की हड्डी तोड़ दी जाती हैं ताकि वो भाग न सके। तत्पश्चात उसके शरीर से मांस एवं पूंछ के वसा से तेल निकाला जाता हैं।

साँड़े को भारतीय संविधान के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत अनुसूची 2 में रखा गया हैं, जो इसके शिकार पर पूर्णत: प्रतिबंद लगता हैं। हालांकि, भारतीय साँड़े का आईयूसीएन (IUCN) की रेड डाटा लिस्ट के लिए मूल्यांकन नहीं किया गया है, लेकिन यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन (CITES) के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल हैं। TRAFFIC की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीय साँड़े का हिस्सा 1997 से 2001 के बीच सांडो की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार का केवल दो प्रतिशत ही पाया गया, लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय पैमाने पर शिकार के गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीय साँड़े का छोटा हिस्सा इसके कम शिकार का पर्यायवाची नहीं हैं, अपितु इसकी अधिक मात्र में स्थानीय खपत एवं व्यापार स्थानीय बाजार की स्थिति को दर्शाता हैं।

हाल ही में बेंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार साँड़े के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग हैं। पकड़े गए गिरोह का सम्बन्ध राजस्थान के जैसलमर जिले से पाया गया, जहां पर साँड़े अभी भी बुहतायत में पाये जाते हैं। समय समय पर चर्चा में आने वाले इस तरह के गिरोह का नेटवर्क कितना गहरा पसरा हुआ हैं कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडो को अक्सर कई स्थानीय बाजार में खुले बिकते भी देखा जाता हैं। प्रशासन की सख्ती के साथ साथ आम जनता में जागरूकता सांडो एक सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। अन्यथा भारतीय चीते के समान ये अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डोक्य्मेंटेरी में समा के रहा जाएगा।

सवाल यह है कि क्या भारतीय साँड़ा अपनी गति और सतर्कता के साथ आज की दुनिया में विलुप्ति की कगार से वापस आ सकता है जहां प्राकृतिक आवास शहरी विकास की कीमत चुका रहे हैं और जैवविविधता संरक्षण के नियमों की अनदेखी की जा रही है।

थार मरुस्थल का कंकरनुमा मेंटिस

थार मरुस्थल का कंकरनुमा मेंटिस

मार्च महीने की एक सुबह थार के मरुस्थल में मैंने एक शानदार मरुस्थलीय पक्षी ग्रेटर हूपु लार्क (Alaemon alaudipes) देखा जो कभी शिकार की तलाश में ‘मगरे’ पर इधर उधर उड़ रहा था, तो कभी अपनी लम्बी टांगो से दौड़ रहा था ।चारों ओर से रेत के टीलों से घिरे,कंक्रीट की कठोर सतह वाले स्थान को स्थानीय भाषा में ‘मगरा’ कहा जाता है।

काफी कोशिश करने के बाद लार्क को एक मकड़ीनुमा शिकार मिला जिसे उसने अपनी लम्बी चोंच में पकड़ रखा था । मैंने उस समय इस पक्षी के व्यवहार के कुछ फोटो लिए, जिनमें शिकार की मात्र टांगे ही दिखाई दे रही थी, उसके शरीर का कुछ हिस्सा पक्षी के मुंह में था। मुझे लगा शायद यह एक बड़ी मकड़ी है या फिर केमल स्पाइडर (solifuge) है, परन्तु ये दोनों अक्सर रात को ही  सक्रीय होते हैं।  

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ग्रेटर हूपु लार्क द्वारा पकड़ा गया डेजर्ट मेंटिस फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल

अगली सुबह उसी ‘मगरे’ पर मुझे कुछ फिसलता हुआ दिखाई दिया, लगा मानो कोई कंकर का टुकड़ा हो। उस समय बहुत तेज हवा चल रही थी। पत्थर की तरह दिखने वाला यह जीव हवा के विपरीत दिशा में तेजी से चल रहा था। मैंने उसे नजदीक जाकर देखा देखा तो प्रकृति का एक अद्भुत छलावरण (camouflage) नजर आया। यह था एक मरुस्थल में मिलने वाला प्रेइंग मैंटिस (Praying  mantis), जो पत्थर या कंकर के सामान लगता है। मुझे नजदीक पाकर वह बचाव की मुद्रा में आ गया।  इसी मुद्रा में यह मैंटिस परिवार का सदस्य लगता है, जिसमें वह अपने आगे की दोनों टांगे हाथ जोड़ने की मुद्रा में ले आता है।

यह वही जीव था जिसे ग्रेटर हूपु लार्क ने पिछले दिन पकड़ रखा था। यह थार डेजर्ट मैंटिस (Eremiaphila rotundipennis) था। यह मेंटिस छलावरण (कैमोफ्लाज) में इतना माहिर होता है की इसको आंखों के सामने आने पर भी पहचानना लगभग असंभव होता है।

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मानव जैसे दिखने वाले चहरे को ऊपर उठाते हुए डेजर्ट मेंटिस फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल

इसका शरीर त्रिभुजाकार, आगे के पैर अच्छी पकड़ वाले, एवं पेट के पास का हिस्सा रंगीन होता है । यह एक आक्रामक शिकारी मेंटिस है। अन्य अधिकांश मेन्टिसों के विपरीत डेजर्ट मेंटिस उड़ नहीं सकते हैं क्योंकि इनके उड़ने वाले पंख अवशेषी रह गए हैं । जब ये मेंटिस आगे के पैरों को बंद करके बैठते हैं तो लगता है जैसे पूजा में हाथ जोड़कर बैठे हुए हों। यह देखना बहुत ही रोचक लगता है।

डेजर्ट मेंटिड इरेमियाफिला (Eremiaphila) जीनस का सदस्य है जिसकी पूरी दुनिया में 68  प्रजातियां हैं एवं उनमें से केवल एक ही यह प्रजाति थार डेजर्ट मेंटिस (Eremiaphila rotundipennis) भारत में पायी जाती है।

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डेजर्ट मेंटिस के पेट के नीचे का हिस्सा रंगीन एवं पंख अवशेषी रह गए हैं फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल

डेजर्ट मेंटिस मरुस्थलीय पर्यावरण के प्रति पूरी तरह से अनुकूलित होते हैं। ये जमीन पर रहते हैं जहाँ इनके लम्बे पैरों के कारण आसानी से तेजी से चल सकते हैं। ये कीड़ों एवं मकड़ियों को खाकर जीवित रहते हैं । रेगिस्तान में भीषण गर्मी,पानी की कमी,धूल भरी आंधियां सामान्य हैं जिसमे जीवों एवं पेड़ों को प्रतिकूल जलवायु का सामना करना पड़ता है।डेजर्ट मेंटिस इन सब परिस्थितियों को सहन करता है यही कारण है की उड़ने वाला यह जीव जमीन पर पाया जाता है। मुझे लगता है की थार मरुस्थल में डेजर्ट मेंटिस एवं  ग्रेटर हूपु लार्क का कोई गहरा सम्बन्ध है, तो जब भी आपको रेगिस्तान के मगरे में यह पक्षी दिखाई दे तो आप डेजर्ट मेंटिस को भी तलाशने की कोशिश करें।