पीवणा – एक रहस्यमय सर्प मिथक एवं वास्तविकता की कहानी

पीवणा – एक रहस्यमय सर्प मिथक एवं वास्तविकता की कहानी

थार के रेगिस्तान में एक रहस्यमय सांप सोये हुए लोगों को बिना डसे ही मारने के लिए जाना जाता है। पीवणा कि डरावनी कहानियां सदियों से इन रेतीले इलाकों में सुनी और सुनाई जाती रही हैं। मैं और मेरे साथी इस डर के पीछे के रहस्य को खोजने के लिए इस मिथक का पीछा करते हैं…

राजस्थान के रेतीले इलाकों में ऐसा माना जाता है कि एक रहस्यमयी सांप सोये हुए लोगों के नींद में ही प्राण चूस लेता है, हमने मिथक के रहस्य को जानने के लिए एक खोज कि …

उस सुबह, उनकी संकुचित आंखों और माथे पर गहरी शिकन थी, सुबह की हल्की धुप में उनकी सोने की भारी बालियां पसीने से लथपथ हो चमक रही थी, तभी हुकुम नीचे आये, उनकी उत्तेजना ने सारी बेचैनी को दूर कर दिया। इससे पहले उन्होंने कभी सांपों को जिंदा पकड़ने के बारे में नहीं सोचा था।

“कोली” राजस्थान के इस भाग में सांप पकड़ने वाला पारंपरिक समुदाय हैं, लेकिन ये अपने जीवनयापन के लिए कभी किसी जीवित सांप को नहीं पालते। रेगिस्तानी इलाकों में जहाँ सांपों को किसी शैतान से कम नहीं माना जाता, वहाँ कोली समुदाय के लोग केवल मरे हुए साँपों (विषैले या गैर-विषैले) को दिखा कर अपनी आजीविका कमाने में कुशल होते हैं। लेकिन आज सुबह, उनका वृतान्त रूप कुछ अलग ही था। अचानक एक सावधानी से खोदे जा रहे चूहे के बिल के चारों ओर जमा भीड़ चीखने और शोर मचाने लगी। लोगों ने मेरे लिए रास्ता बनाते हुए जगह खाली कि और मैंने बिल के सामने झुकते हुए देखा तो पाया कि उसमे से एक कांटेदार गुलाबी जीभ निकलकर हमारे पैरों कि तरफ आ रही थी, और जैसे ही फावड़े से एक और बार खोदा गया तो एक चमकदार लाल सर उजागर हुआ। तुरंत ही उस सांप को पहचानते हुए मानो मेरा दिल ही बैठ गया हो, लेकिन कोली लोग उन्मादा थे और लगातार बोल रहे थे “पकड़ लो! इससे पहले कि वह हमला करे, पकड़ लो पीवणा को“। जब उस शानदार 4 फीट लंबे सांप मैंने उँगलियों के बीच जकड़ा तो मुझे आभास हुआ कि मेरी खोज मुझे विफलता कि ओर ले जा रही।

राजस्थान के थार रेगिस्तान में रहने वाले सामुदायिक लोग (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

मैंने पहली बार वर्ष 2002 में भारत के दो परमाणु परीक्षणों के स्थल पोखरण में राजमार्ग पर स्थित एक ढाबे पर पीवणा के बारे में सुना था। कुछ स्थानीय लोग सांपों पर चर्चा कर रहे थे और मैंने लगभग उस पंद्रह मिनट में जो जानकारी पाई उससे यह बेहद विचित्र लगा खासकर तब जब हम नए भारत, परमाणु शक्ति क्षेत्र मे बैठे हों। वह जानकारी यह थी की, राजस्थान के रेगिस्तानों में, पीवणा नामक एक सांप सोते हुए लोगों कि सांसें चूस कर मौत की नींद सुला देता है। यह रात में हमला करता है और पीड़ितों को उनकी सांस के माध्यम से विषक्त कर देता है।

मैंने 2008 में फिर से वही कहानी सुनी, इस बार एक युवा क्षेत्र जीवविज्ञानी से। डॉ धर्मेंद्र खांडल 2007 में थार से गुजर रहे थे जब उन्हें मिथ के बारे में पता चला और उन्होंने बताया की कई मौतों के लिए अभी भी पीवणा को ही दोषी ठहराया जाता है। इस बार यह बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया की विज्ञान निश्चित रूप से एक “सांस चूसने वाले” सांप की व्याख्या नहीं कर सकता है, लेकिन जाहिर सी बात है की कोई चीज़ तो जरूर थी जो रात में दर्जनों लोगों को मार रही थी। क्या यह सांप था? या यह कुछ और था? मालूम नहीं।

इंटरनेट पर बहुत खोज-भीन करने के बाद भी बहुत कम जानकारी हाथ लगी। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में, भारत की सीमाओं से परे भी पीवणा के बारे में मिथक स्पष्ट रूप से प्रचलित था, और यहाँ इस सांप को “फुकणी” (जो फूंख मारता है) भी कहा जाता था।

कुछ वेबसाइटों ने पीवणा या फ़ुकणी की पहचान सिंध क्रेट (Bungarus sindanus) के रूप में की है, जिसके देखे जाने की बहुत ही कम रिपोर्ट सामने आती है तथा इसे भारत में पाए जाने वाले चार विषैले साँपों; कोबरा, रसेल वाइपर, सॉ-स्केल वाइपर और कॉमन क्रेट से लगभग “10 -15 गुना अधिक विषैला” माना जाता है। एक ओर सिंध क्रेट का पर्यावास थार रेगिस्तान के उन्ही इलाकों के पास था जहाँ यह पीवणा या फुकणी से जुड़े मिथक प्रचलित थे।

वहीँ दूसरी तरफ हम देखें तो भारत में कहीं भी सिंध क्रेट का कोई संरक्षित नमूना नहीं था। सिंध क्रेट की पहचान का सुराग केवल एक ही आधिकारिक स्रोत, शर्मन ए मिंटन जूनियर द्वारा रचित A Contribution to the Herpetology of West Pakistan (1966) में मिला, जहां उन्होंने एक ऐसे करैत की व्याख्या की जिसके मध्य-शरीर शल्कों कि गिनती 17 (सामान्य 15 के बजाय) होते हैं। मिंटन ने यह भी उल्लेख किया कि “पीवणा” सिंध क्रेट का एक स्थानीय नाम है। लेकिन सिंध क्रेट के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी जिससे यह पता चले कि यह पीड़ितों को साँस चूसकर या फूंककर लोगों को मार सकता है।

पीवणा से बचने के लिए कई ग्रामीण पूरी रात रखवाली करते है और बच्चों को लहसुन और प्याज वाला दूध पिलाया जाता है ताकि पीवणा को दूर रखा जा सके। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

सितम्बर माह में थार रेगिस्तान में तीन महीने के “साँपों के मौसम” की शुरुआत के साथ ही मेरे इस निराशाजनक शोध की समाप्ति हुई। रास्ते में डॉ. धर्मेंद्र खांडल और उनकी कीमती एंटी-वेनम सीरम किट के साथ मैं जुड़ा और हम ग्राउंड जीरो की ओर चल पड़े।

हमारा पहला पड़ाव था जयपुर, जहां हम विष्णु दत्त शर्मा से मिले, जो राजस्थान के प्रधान मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक के रूप में सेवानिवृत्त हो चुके थे। हमारी तरह, शर्मा ने भी पीवणा के बारे में सुना था और उन्होंने पुष्टि की कि मिथक की भौगोलिक पहुंच रेत के टीलों के विस्तार के साथ हुई है। शर्मा के कहने पर, हमने जोधपुर में जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI) के रेगिस्तान मुख्यालय जो हमसे 300 किलोमीटर दूर था की ओर बढ़ना शुरू किया।

समय पाते हम रास्ते में बर्र शहर से कुछ किलोमीटर दूर तिरंगा ढाबा में रात के खाने के लिए रुक गए। जब हम वहां बैठकर साँपों की बात कर रहे थे तभी ढाबे का मालिक, राजू अपना काउंटर छोड़ कर हमारे पास आ गया और बड़े ही रहस्यमय तरीके से बताने लगा की “हमारे इस ढाबे में एक नाग (कोबरा) वर्षों से रह रहा है, लेकिन उसने कभी भी किसी पर हमला नहीं किया है।”

हमने पूछा “लेकिन अगर किसी को काट लिया, तो क्या होगा ?” मालिक बोलता “तो क्या, केसरिया कवरजी का मंदिर ज्यादा दूर नहीं है। आपको बस मंदिर से मंत्रित धागा सर्पदंश पीड़ित व्यक्ति के बांधना होगा।” तभी हमने उससे पूछा “पीवणा के बारे में क्या?” उसने बताया “यहाँ पीवणा के मामले नहीं मिलते हैं। लेकिन अगर मिलते भी तो केसरिया कवरजी उसको भी ठीक कर देते।”

भोजन गर्म और मसालेदार था, और केसरिया कवरजी तिरंगा ढाबा पर देख रहे थे, निवासी कोबरा कहीं नहीं था, हमने भोजन किया और आगे बढ़े।

ZSI के डेजर्ट रीजनल सेंटर की निदेशक डॉ. पदमा बोहरा ने यह स्वीकारने से पहले कि उनको “स्थानीय सांपों” के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं थी, इस बात का खंडन कर दिया कि पीवणा “ग्रामीणों द्वारा वाइपर सांप को दिया जाने वाला स्थानीय नाम है” फिर, उन्होंने पूर्व-निदेशक “डॉ. नरेंद्र सिंह राठौर” से हमारा संपर्क करवाया।

अब सेवानिवृत्त, डॉ. राठौर ने तब ZSI परिसर का विकास किया था और वे एक आत्मविश्वास से भरे व्यक्ति थे। उन्होंने कहा “ओह, हाँ, यह सिंध क्रेट है और क्या तुम्हें पता है, शर्मा-जी ने सिंध क्रेट को पीवणा बताया था…”

शर्मा जी, दिवंगत आर सी शर्मा, ZSI के एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे जिन्होंने वर्ष 2003 में सांपों पर एक किताब लिखी थी। मिंटन के अवलोकन के बाद, शर्मा जी की बातों ने सिंध क्रेट के मामले को और मजबूत कर दिया। लेकिन क्या डॉ. राठौर संभवतः पीवणा द्वारा लोगों कि हत्या करने की विधि समझा सकते हैं?

डॉ. राठौर बताते की “मच्छरों की तरह, सिंध क्रेट भी सोये हुए लोगों के पास कार्बन-डाइऑक्साइड के घनत्व का पीछा करते हुए पहुंचता है, जो मनुष्यों की नाक के पास अधिक होता है”।

हमने पूछा “क्या इस सिद्धांत का कोई वैज्ञानिक प्रमाण है?” मुझे पक्का नहीं पता, लेकिन क्यूँकि शर्मा-जी ने यह कहा था …” यह कहते हुए डॉ. राठौर कहीं खो जाते है। और यह बात सुनकर मुझे संकोच हुआ, और मैंने पूछ ही लिया कि “क्या डॉ. राठौर ने वास्तव में कभी सिंध क्रेट देखा भी है

“मैंने? उम्म… सिंध क्रेट… निश्चित रूप से देखा है, हमारे पास ZSI संग्रहालय में एक नमूना संरक्षित है । आओ, मैं तुम्हें भी दिखाता हूँ” डॉ. राठौर बोले।

मन में अच्छे की आशा करते हुए हम डॉ राठौर के साथ संग्रहालय गए, वहाँ हमने एक बहुत पुराना, रंग उड़ा हुआ “कॉमन क्रेट” का लेबल लगा हुआ नमूना पाया। डॉ. राठौर एक पल के लिए शांत रहे और तुरंत बोले “आह, गलत लेबलिंग! बेशक, मैं उन्हें लेबल बदलने के लिए कहूंगा…”

और जब डॉ. खांडल ने यह निर्धारित करने के लिए की यह सांप सिंध क्रेट ही है या कुछ और, सांप के नमूने को जार से बाहर निकालने और उसके स्केल्स की गिनती का सुझाव दिया, तो डॉ. राठौर ने जल्दी से जार वापस रख दिया और संग्रहालय से बाहर कि ओर का रास्ता निर्देशित किया।

डॉक्टर राठोड के द्वारा पीवणा के सम्बन्ध में जानकारी साझा करे हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

पोखरण, बहुत सारे प्रतिबंधित क्षेत्रों के साथ अभी भी सेना के एक केंद्र के समान ही था, परिणास्वरूप दिन के किसी भी समय, लोग महसूस कर सकते थे कि वे भारतीय सेना की सक्त निगरानी में थे। ऐसे में डॉ. खांडल कि सांप पकड़ने की छड़ी, जिसपर ‘मेड इन पाकिस्तान‘ का लेबल लगा हुआ था, से कोई मदद कि उम्मीद ना थी।

सेना के अधिकारियों कि संदिग्ध नज़रों को चकमा देते हुए हमने सुभाष उज्जवल की तलाश की जो कि डॉ. खांडल को सोशल नेटवर्किंग साइट के माध्यम से जानते थे। स्कुल शिक्षक उज्जवल बताते की “जब हम बच्चे थे, पोखरन में भी पीवणा का एक बड़ा डर था। बच्चों को रात में लहसुन और प्याज के साथ दूध पिलाया जाता था, ताकि पीवणा को दूर रखा जा सके। यदि आप पश्चिम की यात्रा करते हैं, तो आपको पीवणा मिलेगा … ग्रामीण लोग अब भी पूरी रात डर में बैठे रहते हैं … आप जानते हैं, मैं हमेशा से ही पीवणा पर एक फिल्म बनाना चाहता था। क्या यह एक बेहद डरावना विषय नहीं है?”

सांप की डरावनी फिल्म बनाने के लिए हमने उज्जवल के उत्साह को बढ़ावा नहीं दिया तो उज्जवल ने साँपों की धार्मिक पौराणिक कथाओं की ओर रुख किया और हमे एक कहानी सुनाई…

लगभग 1200 साल पहले, एक निःसंतान चरवाहा ममराव, चौतन के पास चलकाना गाँव में रहता था। बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाजमाता मंदिर कि सात साल की तीर्थयात्रा से प्रसन्न देवी ने उसे बताया कि वे, उसकी बेटी के रूप में उसके घर आएंगी। ममराव की सात बेटियाँ हुईं – आवरा, अछि, छेछी, गेहली, दूली, रूपा और लंगडी – और मेहरोक नामक एक पुत्र भी। हालांकि, किसी को भी यह पता नहीं चला कि लड़कियां कोई साधारण इंसान नहीं थीं।हर चरने के मौसम में, ममराव अपने मवेशियों को बाड़मेर के अन्य चरवाहों के साथ सिंध ले जाया करता था, लेकिन जैसे-जैसे साल गुजरे, मेहरोक ने अपने जिम्मेदारियों को निभाने का फैसला किया। अपने बूढ़े पिता ममराव को समझाने के लिए सभी बेटियों ने अपने छोटे भाई का साथ देने और उसकी देखभाल करने का वादा किया। अपने पिता की देख-रेख से मुक्त होकर, भाई-बहनों ने सिंध कि ओर रास्ते पर चलना शुरू कर दिया और जल्द ही भटक कर, एक क्रूर राजा सुमराह द्वारा शासित नाननगंज राज्य में पहुंच गए। जाहिर है, जिस दिन सुमराह ने मेहरोक की खूबसूरत बहनों को देखा, उसने उन सभी को पाने की चाहत रखी और अपने सैनिकों को उनपर निगरानी रखने के लिए भेज दिया। लेकिन सभी बहनों ने पहली बार अपनी दैवीय शक्तियों का इस्तेमाल किया और साँपों का रूप धारण कर लिया। हर बार जब वे नदी में स्नान करने या जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने के लिए निकलती, तो वे सांप बन जाती। लेकिन मेहरोक राजा कि तुलना में सांपों से ज्यादा डरता था। वह सदैव अपनी बहनों को घर के अंदर रहने और उनके मानव रूप में ही रहने को बोलता था।

एक दिन, जैसे ही बहनें अपने भाई की मूर्खतापूर्ण आशंकाओं पर हँसते हुए घर से निकालने लगीं, मेहरोक को गुस्सा आ गया और वह बोला “जाओ! मैं जानता हूँ कि आप सभी राजा के आदमियों के साथ रहना चाहती हैं! आपको लगता है कि मुझे समझ नहीं आ रहा है? आप सभी उस राजा द्वारा चुने जाने की उम्मीद से बाहर जाती हो। बड़ी बहन आवरा, जो अब तक उसे शांत करने की कोशिश कर रही थी, को गुस्सा आ जाता है। “तुम हमसे लड़ते हो, तुम साँप से बहुत डरते हो,” उसने कहा और मेहरोक को श्राप दे दिया कि एक पीवणा द्वारा उस पर हमला होगा। अगले ही पल, आवरा और उसकी बहनें पश्चाताप करने लगी, लेकिन देवी होने के नाते, अभिशाप पूर्ववत नहीं हो सका और जल्द ही, एक पीवणा ने देर रात मेहरोक को विषक्त कर दिया और सूरज की पहली किरण के छूते ही वह मर जाता। लेकिन बहनों ने उसे एक काले कम्बल से ढँक दिया ताकि धूप उस तक न पहुँचे। और जब वे कुछ और समय पाने में सफल हो गई, तो बहनो ने अपनी सभी शक्तियों का आहवाहन कर अपने भाई को ठीक किया। सभी सात बहनों को उनकी दिव्यता के पदानुक्रम में पदोन्नत किया गया, जबकि सबसे बड़ी बहन आवरा को जैसलमेर के पास तनोट में अपना मंदिर मिला और सभी बहनें पूरे क्षेत्र में सातमाता पट (सात देवी) के रूप में मुख्य देवी बन गईं।

साँपों की धार्मिक पौराणिक कथा सुनाते श्री सुभाष उज्जवल (दायें) और श्री जय मजूमदार (बाएं) (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

पीवणा से प्रभावित लोगों के उपचार को हमने एक चमत्कार ही माना और हम जोधपुर से पश्चिम की ओर बढ़ने लगे तथा परिदृश्य बदलने लगा। दूर-दूर तक कांटेदार झाड़ियों के लगातार अंतहीन सूखे क्षेत्र थे, जहाँ मौसमी बारिश से वंचित मक्का के काले कान, पतले हो जाते हैं तो कभी प्राचीन चट्टान के टिल्ले आ जाते। अब हर ओर हल्का हरा और स्पष्ट नीला रंग था, लाल, नारंगी, इंडिगो पगड़ी, सुन्दर ओढ़नियां, रंग-बिरंगे धागे, सुन्दर आभूषण और हर तरफ पिघला देने वाली गर्म हवा थी।

दोपहर के एक अच्छे भोजन के बाद, मैं बैकसीट पर थोड़ा सुस्त महसूस कर रहा था जब एक तेज मोड़ ने मुझे हिला दिया और मेरी सुस्ती उड़ा दी। मैंने कार की खिड़की से बाहर देखा और मैं हक्का-बक्का रह गया। बाड़मेर से केवल दो घंटे की दुरी पर कैर और खेजड़ी के यह एक जादुई भूमि थी। सभी दिशाओं में फैले सूर्यास्त के आसमान में जैसे की बहुत सारे उड़ता कालीन तैर रहे थे। सिर के ऊपर हज़ारो छोटे पक्षियों की चहचहाहट में हमारी अपनी आवाज डूब गई। मेरे पास खड़े डॉ. खांडल उनकी तस्वीरें लेने लगे। लेकिन वह जादू कहाँ कैमरा में समाता।

जब हम संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्रों में जाने के लिए परमिट के लिए बाड़मेर के जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय पहुँचे, तो कागजात धीरे आगे बढ़ रहे थे। लेकिन पीउणा पर राय तेजी से आगे बढ़ थी। जिला मजिस्ट्रेट के निजी सचिव ने उल्लेख किया कि कहीं चौतन नामक स्थान के पास एक आध्यात्मिक रूप से प्रतिभाशाली वृद्ध महिला रहती थी, जो पीउणा पीड़ितों का इलाज करने के लिए प्रसिद्ध थी। परन्तु एक अर्दली ने चेतावनी दी थी – पीउणा जहर का कोई इलाज नहीं है जब तक कि पीड़ित के गले के अंदर से जहर को खुद ही बाहर न निकाला जाये। सरकारी अधिकारी, जो कार्यालय के समय के बाद तक रोके जाने पर नाराज थे, बोले की अगर हम पीउणा के इलाके में खुले में सोते हैं तो हमारे जीवित रहने की बहुत कम संभावना है और अगर हममें चौतन से आगे जाने की हिम्मत है तो हमें खुले में ही सोना होगा। मेरी जेब में अनुमति थी और मैं बाड़मेर के कलिंग होटल में लाल मास खाने चल गया। रेगिस्तान के सबसे मशहूर इस मांस व्यंजन को तैयार करने का एक नियम था की प्रत्येक किलोग्राम मास में 60 लाल मिर्च का उपयोग करना जरुरी है। मैं इस बात की पुष्टि कर सकता हूं कि उस रात कलिंग महाराज का जायका बिलकुल सही था।

“शौबत अली” 6 फीट 6 इंच की लंबाई के साथ, आलमसर कि भीड़ में अलग पहचान लिए बड़ी उदारता के साथ हमारा स्वागत किया। चार शताब्दियों से, उनका परिवार अलमसार के पास एक पारंपरिक, अल्पविकसित खेत में सिंधी घोड़ों का प्रजनन करवाता था। अली ने हमें रात के खाने के लिए मटन बिरयानी और हमको को अपने स्टड फार्म में खुले में रात बिताने को चारपाई दी और हमें सेरवा की ओर रवाना किया।

जय मजूमदार शोबत अली के साथ चर्चा करते हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

बुजुर्ग स्नेकवूमन जिसके बारे में हमने बहुत सुना था, मरीजों को देखने के लिए अब बहुत कमजोर थी। लेकिन अब उसका सारा दायित्व कायम खान पर आ गया था, जो अपने बड़े भाई सुल्तान के साथ युनानी दवाओं का अभ्यास करता था। कायम सेरवा में अपने क्लिनिक-सह-निवास पर हमारा स्वागत करते हुए बोलता है की “मैं केवल एक ही हूँ जो यहाँ पीउणा पीड़ितों का इलाज करता हूँ। कल भी मैंने चार मामलों का इलाज किया था। ”

हमे बताया गया की पीउणा दो प्रकार का होता है, लाल और काला। जबकि कायम का मानना था कि काले पीउणा अधिक आक्रामक होते हैं, सुल्तान ने जोर देकर कहा कि लाल पीउणा तेजी से वार करते हैं । लक्षणों में सिरदर्द, सांस फूलना, चेहरे की सूजन, भारी जीभ, बदबूदार मुंह और सबसे महत्वपूर्ण, गले में एक छोटा छाला शामिल था।

खान ने समझाया की इसका उपचार सरल हैं, बस पीड़ित के मुँह में दो ऊँगली डालो और गले में से पस सहित छाले को बाहर निकाल दो। पीड़ित मवाद थूकता है – सुल्तान ने दावा किया कि यह मवाद ही पीउणा विष है – और लगभग आधे घंटे में में पीड़ित को आराम आ जाता है।

काइम ने यह भी बताया कि इस क्षेत्र में सॉ-स्केल वाइपर (Echis carinatus) के काटने के मामले भी आते हैं, लेकिन उन पीड़ितों का इलाज सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में एंटी-वेनम सीरम से किया जाता है। “लेकिन सीरम पीउणा विष के खिलाफ काम नहीं करता है। इसलिए पीवणा के पीड़ित कभी अस्पतालों में नहीं जाते, वे मेरे पास आते हैं।” हमने जिज्ञासा में पूछ लिया “क्या वे ठीक हो जाते हैं?” तो कायम बोले “जब वे देर से आते हैं तो पीड़ित मर जाते हैं। अन्यथा, मेरे हाथों में बहुत कम लोगों की मृत्यु हुई है“।

जय मजूमदार स्थानीय हकीम श्री खान के साथ पीवणा के इलाज पर विचार करते हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

यह खान बंधु ही थे जिन्होंने हमें पीवणा को खोजने के लिए कोली समुदाय की मदद लेने का सुझाव दिया था तथा वे सांप की पहचान करने में हमारी मदद करेंगे यदि हम एक खोज लाये तो। सूर्यास्त के एक घंटे पहले, हम सेरवा से 7 किमी दूर सलारिया में एक कोली बस्ती में पहुंचे और समुदाय के छोटे सदस्य सांप दिखाने के लिए 200 रुपये के इनाम पर ख़ुशी से राजी हो गए। “कल हमें जल्दी शुरुआत करनी होगी। हवा से रेत के कर्ण उड़ जाते हैं और सांप के निशान सूर्योदय के कुछ घंटों के भीतर गायब हो जाते हैं। लेकिन क्या आप हमें हर उस सांप के लिए भुगतान करेंगे जो हमें दिखेगा या हर उस सांप के लिए जिसे आप पकड़ते हैं? ” गाँव का प्रधान भावाराम, ने हमसे पूछा।

बात पक्की कर के, हम रात के लिए शौबत अली के फार्महाउस पर वापस चले गए। बस जहाँ सड़क खत्म हो गयी और खेत शुरू हो गए, वहां एक मस्जिद ईद के लिए सजा रखी थी। उस रात कोई चाँद नहीं था, और डॉ खांडल ने पीवणा भूमि में खुले में हमारी पहली अंधेरी रात के लिए मुझे तैयार किया। जिस पल हम अपने स्लीपिंग बैग में लेटे और बैटरी बचाने के लिए अनिच्छा से अपनी टॉर्च बंद कि उसी पल काला अँधेरा आसमान में जग गया। मुझे मालूम भी नहीं है की लगभग कितनी देर तक मैं सितारों को देख रहा था तभी डॉ खांडल दोबारा बोले “अगर रात में सांप आपको सलामत छोड़ता है तो सुबह जूते में पैर डालने से पहले बिच्छू की जांच कर लेना।”

अगली सुबह का आसमान भी काला ही था जब हम कोलियों से मिले थे। वे पांच गुटों में बट गए और रेत में साँपों की लकीरे देखने लगे। मैं मन में बहुत सी उमीदे लिए अपनी टीम के साथ चल पड़ा। आधे घंटे बाद, एक छोटा कोली लड़का दौड़ता हुआ आया। डॉ. खांडल वाली टीम ने एक लाल पीवणा पकड़ा था, लेकिन वे अभी एक किलोमीटर दूर थे। एक घंटे बाद, एक और लड़का एक और लाल पीवणा की खबर लाया। जल्द ही, कोली ने रेत पर कुछ स्पष्ट रेखाएँ देखीं और खुदाई शुरू कर दी। घुमावदार बिल जमीन के अंदर गहराई में चला गया। कोली परेशान थे। अचानक, छेद से निकली एक जीभ ने कोली को चीखने पर मजबूर कर दिया। “इसे पकड़ो, इससे पहले कि यह हमला कर दे, पीवणा को पकड़ लो“। मैं बिल के पास झुका और कोली ने उस पर चढ़कर सांप को पकड़ लिया। कोली फिर से चिल्लाया और बोला “कसम खता हूँ यह लाल पीवणा ही है जैसे अन्य दो डॉ खांडल ने पकडे हैं।

कोली लोगो द्वारा खोदे जा रहे एक बिल से एक टिमटिमाती हुई जीभ निकली और फिर एक चमकदार लाल सिर बाहर आया और तुरंत हमने उसको पकड़ लिया। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

मैं अच्छे से जानता था और मेरा दिल बैठ गया। यदि यह हानिरहित रेड स्पॉटेड रॉयल स्नेक (Spalerosophis arenarius) होने के बजाए खतरनाक पीवणा हुआ जो बिना काटे भी लोगों की जान ले लेता है, तो मैं वास्तव में चार दिनों से एक हजार किलोमीटर से अधिक का सफर तय कर एक बेवकूफ मिथक का पीछा कर रहा था।

कोली ने हमे पीवणा दिखाए और हम निशब्द रह गए क्यूंकि तीनो साँपों को प्लास्टिक के डिब्बे में बंद कर रखा था। हमने तुरंत पहचान करने के लिए सेवा के खान भाइयों को बुलाया। सुलतान ने साँपों को देखते ही एक क्षण में जवाब दिया “लाल पीवणा“! आपने यह कहाँ से कैसे पकड़ा? आँगन में बड़ी भीड़ जमा हो गई थी। हमने रॉयल स्नेक जो दूसरों के लिए पीवणा था को डिब्बे से बाहर निकाला – और बहादुर सदस्यों को आगे बढ़ने के लिए कहा। जल्द ही, ख़ान ने ख़ुशी से देखा, “खतरनाक” लाल पीवणा हाथ से हाथ पर घूम रहा था। लेकिन कायम ने अभी तक हार नहीं मानी थी। “शायद लाल एक हानिरहित है। लेकिन काले पीवणा को नज़रअंदाज मत करो। क्या आपने देखा नहीं मेरे पास कितने सारे पीड़ित आते हैं… ” भीड़ में किसी ने फिर जन्नो का नाम लिया, जो पास में ही रहती थी और लगभग दो हफ्ते पहले खानो के पास पीउणा के लक्षण लेकरआई थी। इससे पहले की हम जन्नो को खोज पाते, किसी बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति ने हमे तलब किया।

नारायण पाल बिश्नोई, जो कि सेरवा पुलिस स्टेशन के आंशिक रूप से थाना प्रभारी थे, एक मित्रता प्रेमी पुलिसकर्मी लगे। उन्होंने कहा “यह सेरवा एक बहुत ही शांतिपूर्ण पोस्टिंग है … ज्यादातर छोटे मामलों में, आप देख सकते हैं”। कुछ 17 बलात्कार के मामले, “छोटे” मामलों की सूची क्राइम चार्ट पर लगी हुई थी। मैंने उनसे पीउणा के बारे में पूछा। बिश्नोई ने तुरंत एक हिंदी दैनिक अखबार के साथ स्थानीय पत्रकार चुन्नीलाल को बुलाया, जिनके पास हमारे लिए पहले से ही खबर थी। “आज सुबह ही मैंने भारत-पाक सीमा की ओर लगभग 8-9 किमी दूर सड़क पर एक पीवणा को देखा है।” मैंने उनसे पूछा क्या वह काला सांप था? हाँ यह था।

वाधा गांव के पास से एकत्रित किया हुआ काला पीवणा “कॉमन करैत”। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

डॉ खांडल वाधा गांव के पास घटना स्थल पर पहुंचे और आधे घंटे में वापस आ गए। सड़क पर मरा हुआ सांप काफी अच्छी अवस्था में था। उसपर एक नज़र डालते ही हमें पता था कि यह एक क्रेट था। लेकिन क्या यह वास्तव में दुर्लभ सिंध किस्म थी? वह काला सुन्दर सांप लम्बाई में 3 फीट 10 इंच था। इसके शरीर पर दो-दो सफ़ेद धारियों की श्रृंखला होती है और हमने इसके स्केल्स की गिनती भी की और यह एक कॉमन क्रेट था। मुझे हर्पेटोलॉजिस्ट रोमुलस व्हिटकेर की बात भी याद है, जब उन्हें मिंटन और शर्मा द्वारा किए गए निष्कर्ष पर संदेह था कि कि सिंध क्रेट ही पीवणा है। हो सकता है, यह सिर्फ कॉमन क्रेट था।

हमने बिश्नोई का धन्यवाद किया और सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में डॉ दिनेश दत्त शर्मा से मिलने के लिए निकल पड़े। एक युवा मेडिकल स्नातक, उसने सर्पदंश के दर्जनों मामलों को सफलतापूर्वक संभाला था। पीड़ितों ने कहा, डॉ शर्मा, आमतौर पर सांप के साथ आते थे जिसने उनको काटा होता था। बांडी (सौ-स्केल्ड वाइपर), उन्होंने कहा पिछले दिनों में यही आम हत्यारा था। “मैंने किसी भी पीवणा पीड़ित को नहीं देखा है लेकिन यहाँ के लोग इसके बारे में बात करते हैं। यह पीवणा सांप काटता नहीं है बल्कि गले के अंदर एक फोड़ा बना देता है। शायद, यह कुछ ऐसा है जो विज्ञान समझा नहीं सकता … ”

देश का सबसे विषैला सांप “कॉमन करैत”। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इसलिए हम खान के पास वापस चले गए। जब हमने उन्हें मृत क्रेट दिखाया तो उनके चेहरे खिल उठे। “हाँ, यह एक है। अब मुझे यह मत कहना कि यह भी हानिरहित है।

हमने उसे आश्वासन दिया कि क्रेट देश का सबसे विषैला सांप है। कायम खान अपनी जीत महसूस कर मुस्कुराया और हमें बताया कि उसने एक और मृत काले पीवणा के लिए कुछ लोगों को भेजा था। परन्तु, एक दिन पहले कुछ ग्रामीणों ने उस सांप को जला दिया था। जले हुए अवशेष कुछ ही मिनटों में हमारे पास पहुँच गए। डॉ खांडल ने मध्य शरीर के एक हिस्से को अच्छे से साफ़ किया और धोया ताकि उसके स्केल्स को स्पष्ट देखा जा सके। वह स्केल्स की गिनती के बाद उत्साहित दिखे। “मिड-बॉडी स्केल काउंट 17 है, यह हमारा सिंध क्रेट होना चाहिए। लेकिन मैं वेंट्रल्स स्केल्स की गिनती नहीं कर सकता। उन्हें इसे क्यों जलाना पड़ा?… ”

विजयी कायम खान ने अब हमें चाय के लिए पूछा लेकिन तभी चुन्नीलाल आ गया, और बोला की हमने पीउणा से बचने वाली जन्नो को खोज लिया है।

सेरवा से एक किलोमीटर की दूरी पर, अलीसरन का डेरा भील आदिवासियों की एक बस्ती थी जहाँ कुछ मुस्लिम परिवार भी बस गए थे। जन्नो मजबूत पुरुषों और महिलाओं के एक विस्तारित परिवार में बीमार अजीब आदमी निकला।

जन्नो ने बताया “एक पीवणा ने लगभग दो सप्ताह पहले रात में मेरी सांस ली। सुबह जब मैं उठा तो बहुत भयानक लगा। जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, मेरी हालत और बुरी होती गयी। परिवार के लोग शाम को मुझे कायम खान के पास ले गए। ” जन्नो के भाइयों ने बताया कि कैसे कायम खान ने जन्नो के गले से विष निकाला था। उन्होंने कहा, जन्नो एक घंटे के भीतर ठीक था। अगर उनका दावा सही था तो जन्नो रक्त प्रवाह में विष के प्रवेश करने के 18-20 घंटे बाद ठीक हो गया था। परन्तु यदि पीवणा वास्तव में क्रेट था, तो यह असंभव था। इसके अलावा, अब हमें “जहर-श्वास” तंत्र का पता लगाना था।

जैसे ही हम वापस आलमसर पहुंचे, अव्यवस्था साफ होने लगी थी। जबकि रेगिस्तान के लोगों ने सॉ-स्केल्ड वाइपर का एक हत्यारे साँप के रूप में उल्लेख किया, उन्हें क्रेट के बारे में पता नहीं था। लेकिन अगर हम दो दिनों में दो क्रेट खोज सकते हैं, तो यह स्पष्ट था कि पर्याप्त संख्या में मौतें होने के लिए यहाँ पर्याप्त क्रेट थे। परन्तु एक तथ्य यह भी था कि किसी ने भी क्रेट के काटने का नाम नहीं लिया था, जिसका मतलब है कि मामलों को कुछ और के रूप में समझा जा रहा था – जैसे कि पीउणा।

रोमुलस सही था। तो मिंटन और शर्मा भी सही थे। कॉमन और सिंध क्रेट दोनों ही इस मिथक के पीछे थे। वैसे भी, केवल उन्हें देखकर दोनों में अंतर करने के लिए बहुत कुछ नहीं था। ऑक्सफ़ोर्ड्स सेंटर फॉर ट्रॉपिकल मेडिसिन के संस्थापक निदेशक प्रोफेसर David A Warrell ने मुझे आगाह किया था कि पॉलीवलेंट सीरम (polyvalent serum) के सिंध क्रेट के जहर के खिलाफ प्रभावी होने के कोई सबूत नहीं थे। लेकिन कॉमन क्रेट के पीड़ित लोगों पर सीरम का कोई असर क्यों नहीं होता? निश्चित रूप से, सभी पीउना सिंध क्रेट नहीं थे। मुझे याद आया कि किस तरह सेरवा स्वास्थ्य केंद्र में एक व्यक्ति ने सांप के काटने का वर्णन किया था – बिना रुके लगातार खून का बहना, काटने की जगह पर असहनीय और एक सूजन – सभी एक सॉ-स्केल्ड वाइपर द्वारा काटे जाने के लक्षण। रात में सोते समय क्रेट द्वारा काटे जाने पर पीड़ितों को पता नहीं चलता था कि उन्हें काट लिया गया था। इसके अलावा, क्रेट के नुकीले दांत कोई निशान नहीं छोड़ते तथा किसी भी प्रकार की जलन नहीं होती। वाइपर सांप द्वारा दर्दनाक तर्रिके से कांटे जाने वाले लोगों के बीच में, क्रेट एक मिथक पीवणा था- “सांस-चूसने वाला” सांप जो काटता नहीं था!

जब तक क्रेट पीड़ित जागते थे, तब तक न्यूरोटॉक्सिन पहले ही काफी नुकसान पहुंचा चुका होता है। चूंकि पॉलीवलेंट सीरम विष के कारण होने वाले नुकसान को रिवर्स नहीं करता है – यह केवल बाद में होने वाली क्षति को रोक देता है – एक लेट स्टेज पीड़ित के जीवित रहने की संभावना हमेशा बहुत कम होती है। हमें कोई आश्चर्य नहीं था कि सरकारी क्लिनिक में डॉ शर्मा या उनके साथी एंटी-वेनम से तथाकथित पीवणा पीड़ितों की मदद नहीं कर पाते थे।

डॉ खांडल मेरे निष्कर्ष से सहमत थे, लेकिन उन्होंने मुझे पहेली के आखिरी हिस्से की याद दिला दी। “आप गले के अंदर छाले की व्याख्या कैसे करते हैं?” मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मेरे ज्ञान के अनुसार, एक क्रेट के काटने से सिरदर्द, ज्यादा नींद व् सुस्ती, भारी पलकें, धुंधली दृष्टि, हाथ-पैरों में लकवे जैसा, बेहोशी और कुल श्वसन विफलता होती है। मैंने मुँह से अधिक लार स्राव के बारे में भी पढ़ा था। लेकिन छाला नहीं।

मैं शोध करने के लिए वापस लौटा और महाराष्ट्र के महाड स्थित एक क्षेत्र चिकित्सक डॉ एचएस बावस्कर द्वारा ” The Lancet” में एक पेपर में लार के इकठे होने के बारे में पढ़ा। डॉ बावस्कर, वास्तव में, निगलने में कठिनाई या गाँठ, न्यूरोटॉक्सिन का एक लक्षण था। सीधे शब्दों में कहें, क्रेट वेनम से मांसपेशियों में लकवा हो जाता है जिससे गले में लार का जमाव होने लगता है। मैंने प्रोफेसर वॉरेल के साथ जाँच की और पुष्टि प्राप्त की। तो क्या लार की इस गाँठ को “पस” या “विष” कहा जा सकता है? जिसे खान भाई पीड़ित के गले से निकालने का दावा करते हैं? मैंने जोधपुर से डॉ बावसकर को बुलाया और वे सहमत हो गए।

लेकिन लार बाहर निकालने से एक क्रेट पीड़ित को नहीं बचाया जा सकता है। तो कैसे खान भाई एक उच्च सफलता दर का दावा कर सकते हैं? डॉ बावस्कर ने बताया की “जो लोग इस तरह के हमलों से ठीक हो जाते हैं, सबसे पहले तो उन्हें क्रेट ने कभी काटा ही नहीं होता है क्योंकि सर्पदंश गले में गाँठ बनने के लिए एकमात्र कारण नहीं होता है। इस तरह के रोगियों को कुछ अन्य बीमारी होती है और लार की गाँठ निकाल देने से वे कुछ समय के लिए बच जाते है और सर्पदंश के पीड़ित लोगों की तरह जल्दी नहीं मरते हैं”। मुझे जन्नो का मामला याद आया की यदि उसपर वास्तव में पीउना ने हमला किया था, तो क्या वह क्रेट काटने के 18 घंटे बाद भी जीवित होगा? वह भी बिना दवा के?

तथाकथित लाल पीवणा वास्तव में रेड स्पॉटेड रॉयल स्नेक (Spalerosophis arenarius) होता है और यह पूरी तरह से हानिरहित होता है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

लौटते समय रास्ते में, हम डेजर्ट मेडिकल रिसर्च सेंटर के एक शीर्ष वैज्ञानिक डॉ फूलचंद कनौजिया से मिलने जोधपुर गए। वह रेगिस्तान के विषैले सांपों पर शोध की योजना बना रहे थे और हाल ही में उन्होंने चौतन की यात्रा के दौरान विभिन्न सरकारी चिकित्सा केंद्रों से कुछ मृत सॉ-स्केल्ड वाइपर एकत्र किए थे। डॉ खांडल ने एक बोतल में मरे हुए कॉमन क्रेट को बाहर निकाला। वैज्ञानिक की आँखें बड़ी हो गईं। “इतना बड़ा क्रेट! वहाँ रेगिस्तान में क्रेट हैं? ” हमने डॉ कनौजिया को संक्षिप्त में सारी बात बताई और डॉ खांडल ने डॉ कनोजिया के संग्रह के लिए अपनी खोज को उधार देने पर सहमति व्यक्त की। वापिस जयपुर आते समय हम एक अच्छे भोजन के लिए रुके।

“तो क्या हम खतरनाक पीवणा के बारे में समझा सकते है?” डॉ खांडल ने मेरे सवाल को अपनी आँखें बंद करके विचार किया। “जितना अधिक आप जानते हैं, उतना ही जिज्ञासु आप महसूस करते हैं।” मैं बता सकता था कि वह अपने घर ले जाने वाले जले हुए क्रेट पर एक और नज़र डालने की प्रतीक्षा कर रहा था। “कम से कम, तथाकथित लाल पीवणा अब सुरक्षित होना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि कोली उन मासूम साँपों को मारना बंद कर देंगे। ”

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद प्रवीण कुमार द्वारा)

 

अंग्रेजी आलेख “In Search of the Snake Demon” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम जून 2009 में Open magazine में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें:  https://openthemagazine.com/features/india/in-search-of-the-snake-demon/

 

 

 

 

 

पारिस्थितिक तंत्र ने बदला पंछी का रंग : ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क एवं ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क

पारिस्थितिक तंत्र ने बदला पंछी का रंग : ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क एवं ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क

जाने वो कौनसे कारण है की लार्क की एक प्रजाति ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क जहाँ मिलना बंद होती है वहां दूसरी ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क शुरू होती है। यह पारिस्थितिक कारण जानना और इनके पर्यावास में आये बदलाव का अध्ययन करना अत्यंत रोचक होगा

लार्क, पेसेराइन पक्षियों का वह समूह है जो लगभग सभी देशों में पाया जाता है। भारत में भी लार्क की कई प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमे से सबसे व्यापक लगभग पूरे भारत में पायी जाने वाली प्रजाति है ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क। यह प्रजाति 1000 मीटर की ऊंचाई से नीचे के क्षेत्रों तक ही सीमित है और यह हिमालय के दक्षिण से श्रीलंका तक और पश्चिम में सिंधु नदी प्रणाली तक और पूर्व में असम तक पाई जाती है। जहाँ यह छोटी झाड़ियों, बंजर भूमि, नदियों के किनारे रेत में पायी जाती है, तथा यह हमेशा नर-मादा की जोड़ी में देखने को मिलती है। परन्तु यह प्रजाति राजस्थान के थार रेगिस्तान में नहीं पायी जाती है, और राजस्थान के इसी भाग में लार्क की एक अन्य प्रजाति मिलती है जिसे कहते है ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क जो अक्सर थार-रेगिस्तान में जमीन पर बैठे हुए दिखाई देते हैं। यह दो प्रजातियां आंशिक रूप से राजस्थान के कुछ इलाकों में परस्पर पायी जाती हैं, हालांकि ये एक साथ कभी भी नहीं देखी जाती।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क में वयस्क नरों में मुख्यरूप से एक पाइड हेड पैटर्न होता है जिसमें काले सिर पर सफ़ेद माथा तथा गालों पर सफ़ेद पैच होता है। (फोटो: श्री. नीरव भट्ट)

ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क का माथा ज्यादा भूरा होता है तथा आँखों के पास काली पट्टी थोड़ी पतली होती है जो मुख्यतः भौहे जैसी लगती है। (फोटो: श्री. नीरव भट्ट)

वर्गिकी एवं व्युत्पत्ति-विषयक (Taxonomy & Etymology):

ब्लैक क्राउंड स्पैरो लार्क (Eremopterix nigriceps) एक मध्यम आकार का पक्षी है जो पक्षी जगत के Alaudidae परिवार का सदस्य है। इसे कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे की ब्लैक क्राउंड फिंच लार्क, व्हाइट-क्रस्टेड फिंच-लार्क, व्हाइट-क्रस्टेड स्पैरो-लार्क, और व्हाइट-फ्रंटेड स्पैरो-लार्क। वर्ष 1839 में अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ “John Gould” ने इसे द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार Eremopterix nigriceps नाम दिया था। Gould, एक बहुत ही नामी पक्षी चित्रकार भी थे, उन्होंने पक्षियों पर कई मोनोग्राफ प्रकाशित किए, जो प्लेटों द्वारा चित्रित किए गए थे।

बहुत ही व्यापकरूप से वितरित होने की कारण अलग-अलग भौगिलिक स्थितियों में इसके रंग-रूप में थोड़े-बहुत अंतर मिलते हैं और इन्ही अंतरों के आधार पर कुछ वैज्ञानिको ने समय-समय पर इसकी कुछ उप-प्रजातियां घोषित की हैं। इनमे से ईस्टर्न ब्लैक क्राउंड स्पैरो लार्क (E. n. melanauchen), भारत में पायी जाने वाली उप-प्रजाति है, जिसे एक जर्मन पक्षी विशेषज्ञ Jean Louis Cabanis ने वर्ष 1851 में रिपोर्ट किया तथा यह पूर्वी सूडान से सोमालिया, अरब, दक्षिणी इराक, ईरान, पाकिस्तान और भारत तक पायी जाती है।

निरूपण (Description):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क में नर और मादा रंग-रूप में एक दूसरे से बिलकुल भिन्न होते है जहाँ वयस्क नरों में मुख्यरूप से एक पाइड हेड पैटर्न होता है जिसमें काले सिर पर सफ़ेद माथा तथा गालों पर सफ़ेद पैच होता है। इसका पृष्ठ भाग ग्रे-भूरे तथा अधर भाग व् अंडरविंग्स काले रंग के होते हैं, जो छाती की किनारों पर एक सफेद पैच के साथ बिलकुल विपरीत होते हैं। इसकी काली पूँछ के सिरे भूरे रंग के होते है तथा पूँछ के बीच वाले पंख ग्रे रंग के होते हैं। वहीँ दूसरी और मादा में पृष्ठ भाग पीले-भूरे मटमैले रंग के होते हैं सिर पर हल्की धारियां (streaking), आँख के पास व् गर्दन के बगल में सफ़ेद पैच होता हैं। मादा के पृष्ठ भाग हल्के-पीले भूरे रंग के होते हैं और सिर पर हल्की लकीरे (streakings) होती हैं। इनकी आंख के चारों ओर और गर्दन के पास एक सफ़ेद पैच होता है तथा इसके अधर भाग सफ़ेद व् छाती के पास एक हल्के भूरे रंग की पट्टी होती है। इसके किशोर कुछ हद्द तक मादा जैसे दीखते हैं परन्तु किशोरों के सिर के पंखों के सिरे हल्के-भूरे रंग के होते हैं। नर की आवाज काफी परिवर्तनशील होती है, जिसमें आम तौर पर सरल, मीठे नोटों की एक छोटी श्रृंखला होती है, जो या तो उड़ान के दौरान या एक झाड़ी में या एक चट्टान पर बैठ कर निकाली जाती है।

कई बार इस पक्षी को लगभग इसके जैसे दिखने वाला ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क समझ लिया जाता है, जो भारत और पाकिस्तान के शुष्क क्षेत्रों में इस प्रजाति की वितरण सीमा के साथ आंशिक रूप से परस्पर पायी जाती है। परन्तु ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क का माथा ज्यादा भूरा होता है तथा आँखों के पास काली पट्टी थोड़ी पतली होती है जो मुख्यतः भौहे जैसी लगती है। मादा भूरे रंग की होती है और घरेलू गौरैया के समान होती है।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, मादा के पृष्ठ भाग हल्के-पीले भूरे रंग के होते हैं तथा आंख के चारों ओर और गर्दन के पास एक सफ़ेद पैच होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क, मादा भूरे-भूरे रंग की होती है और गौरैया के समान प्रतीत होती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, उत्तरी-पूर्वी अफ्रीका में, उत्तरी-अफ्रीका के साहेल से अरब प्रायद्वीप, पकिस्तान और भारत में वितरित हैं। भारत में यह थार-रेगिस्तान में पायी जाती है। यह बिखरी हुई छोटी घासों, झाड़ियों व् अन्य वनस्पतियों वाले शुष्क व् अर्ध-शुष्क मैदानों में पायी जाती है, तथा कई बार इसे नमक की खेती वाले इलाकों में भी देखा गया है।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क का वितरण क्षेत्र (Source: Grimett et al 2014 and Birdlife.org)

व्यवहार एवं परिस्थितिकी (Behaviour & Ecology):

शुष्क प्रदेश में पाए जाने वाला यह पक्षी अपने पर्यावास के अनुसार अपने जल संतुलन को बहुत ही अच्छे से संचालित करता है, जैसे की दोपहर की गर्मी में छाया में रहकर पानी के नुकसान को कम करते हैं तथा कई बार बड़ी छिपकलियों के बिलों के अंदर आश्रय लेते भी इसको देखा गया है। यह अपने शरीर के तापमान को संचालित करने के लिए अपनी टांगों को निचे लटका कर उड़ान भरते है ताकि इनके अधर भाग पर सीधे हवा लगे तथा कई बार यह हवा के सामने वाले स्थान पर भी बैठ जाते हैं। प्रजनन काल के मौसम के अलावा, बाकी सरे समय में यह 50 पक्षियों तक के झुंड बना सकते हैं जो एक साथ रहते हैं परन्तु कई हजार के बड़े झुंड भी रिकॉर्ड किए गए हैं।

प्रजनन (Breeding):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, के प्रजनन काल में नर एक बहुत ही ख़ास हवाई उड़ान का प्रदर्शन करता है, जिसमे नर गोल-गोल चक्कर लगते हुए साथ ही आवाज करते हुए तेजी से ऊपर जाता है और फिर छोटी पत्नियों वाली उड़ान की एक श्रृंखला धीरे-धीरे निचे गिरता है। कभी-कभी नर और मादा दोनों साथ में उड़ान का प्रदर्शन करते है जिसमें नर धीरे घूमते हुए मादा का पीछा करता है। वे आमतौर पर गर्मियों के महीनों के दौरान प्रजनन करते हैं, और अक्सर बारिश से इनका प्रजनन शुरू होता है तथा लगभग जब भी परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, इनका प्रजनन शुरू होता हैं। इनके घोंसले आकार में छोटे, कम गहरे और पौधे व् अन्य सामग्री के साथ पंक्तिबद्ध होता है, तथा उसके मुँह की किनार पर छोटे पत्थर व् मिटटी के छोटे ढेले रखे होते हैं। घोंसला आमतौर पर एक झाड़ी या घास के नीचे स्थित होता है ताकि उसे कुछ छाया प्रदान की जा सके। नर व् मादा दोनों लगभग 11 से 12 दिनों के लिए, 2 से 3 अंडे के क्लच को सेते हैं।

आहार व्यवहार (Feeding habits):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, एक बीज कहानी वाला पक्षी है, लेकिन यह कीटों और अन्य अकशेरुकी जीवों को भी खा लेता है। घोंसले में रहने वाले छोटे किशोरों को मुख्यरूप से कीड़े ही खिलाये जाते है। राजस्थान जैसे गर्म व् शुष्क वातावरण में यह पक्षी सुबह और शाम के समय में ही भोजन का शिकार करते हैं, जहाँ आमतौर पर इन्हे जमीन पर शिकार मिल जाते हैं तथा कई बार उड़ने वाले कीड़ों को यह हवा में उड़ कर भी पकड़ लेते हैं।

बस तो फिर थार में जाने से पहले अपनी दूरबीनों को तैयार कर लीजिये और इस छोटे फुर्तीले पक्षी को देखने के लिए सतर्क रहिये…

सन्दर्भ:
  • Cover Image Picture Courtesy Dr. Dharmendra Khandal.
  • Gould, J. 1839. Part 3 Birds. In: The Zoology of the voyage of H.M.S. Beagle, under the command of Captain Fitzroy, R.N., during the years 1832-1836. Edited and superintended by Charles Darwin. Smith, Elder & Co. London. 1841. 156 pp., 50 tt.
  • Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
  • http://datazone.birdlife.org/species/factsheet/ashy-crowned-sparrow-lark-eremopterix-griseus

 

 

राजस्थान में खोजी गयी एक नयी वनस्पति: Elatostema cuneatum

राजस्थान में खोजी गयी एक नयी वनस्पति: Elatostema cuneatum

कैलादेवी अभ्यारण्य में पायी गयी वेस्टर्न घाट्स में पायी जाने वाली एक वनस्पति जो राज्य के वनस्पतिक जगत में एक नए जीनस को जोड़ती है

रणथम्भौर स्थित टाइगर वॉच संस्था के शोधकर्ताओं ने रणथंभौर बाघ अभयारण्य के कैलादेवी क्षेत्र की जैव विविधता के सर्वेक्षण के दौरान एक दिलचस्प वनस्पति की खोज की जिसका नाम है Elatostema cuneatum तथा राजस्थान राज्य के लिए यह एक नयी वनस्पति है। कैलादेवी अभ्यारण्य में यह पत्थरों पर ऊगा हुआ मिला जहाँ सारे वर्ष पानी गिरने के कारण नमी तथा पत्थरों की ओट के कारण छांव बनी रहती है तथा इसके आसपास Riccia sp और Adiantum sp भी उगी हुई थी। शोधकर्ताओं ने इसके कुछ चित्र लिए तथा इनका व्यापक अवलोकन करने से यह पता चला की इस वनस्पति का नाम Elatostema cuneatum है और शोधपत्रों से ज्ञात हुआ की राजस्थान में अभी तक इसे कभी भी नहीं देखा गया तथा राजस्थान के वनस्पतिक जगत के लिए यह न सिर्फ एक नयी प्रजाति है बल्कि एक नया जीनस भी है। जीनस Elatostema में लगभग ३०० प्रजातियां पायी जाती है जो पूरे उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और ओशिनिया में वितरित है। भारत में यह जीनस गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, तमिल नाडु और सिक्किम में पाया जाता है। कैलादेवी अभ्यारण्य से एकत्रित किये गए इसके नमूनों को RUBL (Herbarium of the Rajasthan university, botany lab) में जमा करवाया गया है।

Elatostema cuneatum, पत्थरों पर उगती है जहाँ सारे वर्ष पानी गिरने के कारण नमी तथा पत्थरों की ओट के कारण छांव बनी रहती है।(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

Elatostema cuneatum location map

 

Elatostema cuneatum, 15 सेमी तक लम्बी वार्षिक वनस्पति है जिसका तना त्रिकोणीय होता है तथा इसके सिरों पर बारीक़ रोये होते है। सीधी तने से जुडी (sub-sessile) इसकी पत्तियां उत्‍तरवर्धी (accrescent), सिरों से कंगूरेदार-दांतेदार और नुकीली होती हैं। यह वनस्पति अगस्त से अक्टूबर में फलती-फूलती है। राजस्थान में इसका पहली बार मिलना अत्यंत रोचक है एवं हमें यह बताता है की राजस्थान में वनस्पतियों पर खोज की संभावना अभी भी बाकि हैI

संदर्भ:

Dhakad, M., Kotiya, A., Khandal, D. and Meena, S.L. 2019. Elatostema (Urticaceae): A new Generic Record to the Flora of Rajasthan, India. Indian Journal of Forestry 42(1): 49-51.

 

 

 

 

तीज : लाल रंग का सूंदर रहस्यमय जीव

तीज : लाल रंग का सूंदर रहस्यमय जीव

“मानसून की कुछ बौछारो के साथ क्या यह लाल रंग का कीडेनुमा जीव भी बरसता है?”

मानसून की कुछ बौछारो के साथ क्या यह लाल रंग का कीडेनुमा जीव भी बरसता है? मेरे स्कूल के दिनों में लगभग हम सभी के मन में यह प्रश्न रहता था, न जाने क्यों यह सुन्दर सा जीव बारिश के पहले कभी नहीं दिखता और ना ही बाद में।

राजस्थान के अधिकांश हिस्से में इन्हे तीज के नाम से जाना जाता है और भारत के अन्य स्थानों पर इनको अनेक नामो से जाना जाता है जैसे बीरबहूटी या सावन की बुढ़िया आदि। यह सूंदर गहरे लाल रंग का दिखने वाला जीव मखमल जैसा दिखता है, अतः इसे अंग्रेजी में रेड वेलवेट माइट (Red Velvet  mite) कहते है। भारत में मिलने वाली प्रजाति को Trombidium grandissimum कहा जाता है।

रेड वेलवेट माइट छोटे कीड़ो एवं उनके अंडो आदि को अपना भोजन बनाते है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

 

धुप व् गर्मी बढ़ने पर यह मिटटी में छुप जाते हैं (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

असल में है ट्रॉम्बिडियम नामक यह जीव, कीटक समाज से नहीं बल्कि एक माइट के रूप में वर्गीकृत किया गया है, यानि  खून  चूसने  वाले  चींचड़े  के ये अधिक नजदीक है। इनके शरीर के मात्र दो हिस्से होते है, जो यह प्रमाणित करता है की यह कीटक नहीं है क्योंकि किटक के शरीर के तीन हिस्से होते है। यह एक अरकनिडा वर्ग का जीव है, जो छोटे कीड़ो एवं उनके अंडो आदि को अपना भोजन बनाते है। इनके छोटे लार्वे – टिड्डो एवं मकड़ियों आदि पर परजीवी के तौर पर मिलते है। लार्वे से जब यह बड़ा होकर निम्फ अवस्था में आता है, एवं अपने वयस्क के सामान लगने लगता है। अचानक से बारिश के समय यह अधिक विचरण करने लगता है एवं अधिक दिखाई लगने लगता है, हम सब इस कयास में लग जाते है के यह वर्षा के साथ बरसे है, परन्तु असल में अनुकूल मौसम के कारण यह जमीन से निकल कर विचरण करते नजर आते है। अक्सर धुप बढ़ने पर भी यह मिटटी को खोद कर उसमें छिप जाते है।  इसके शरीर पर मुलायम लाल रंग के बाल नुमा रोये मखमली आभास देता है I यह जमीन में छिपाने  के बाद भी इसके बालो से मिटटी चिपकती नहीं है।

इनके शरीर पर बहुत ही महीन फर होने के कारण ये मखमली देखते हैं तथा इसीलिए इनका नाम रेड वेलवेट माइट होता है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

 

रेड वेलवेट माइट, सैंकड़ों की तादाद में गीली मिटटी में अंडे देते है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इन जीवो को यूनानी एवं होम्योपैथिक चिकित्षा पद्धतियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कुछ स्थानीय लोग इनका इस्तेमाल योन संवर्धक दवा के तोर पर भी करता है। भारत में कुछ लोग इसका व्यापार भी करते है। आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं ओड़िसा के कुछ हिस्सों में इसका निरंतर व्यापार होता है। यद्दपि यह एक किसान का मित्र है एवं विभिन्न किटको की संख्या को नियंत्रित करता है।

व्यस्क रेड वेलवेट माइट (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

 

 

 

 

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन: राजस्थान में वर्षा ऋतू का मेहमान

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन: राजस्थान में वर्षा ऋतू का मेहमान

“बड़ी तादाद और विस्तृत क्षेत्र में पाए जाने वाले मानसून मार्ग प्रवासी पक्षी, रूफस-टेल्ड स्क्रब-रॉबिन अपनी सुंदरता के रंग बिखेरने जल्द ही अगस्त में भारत आने वाला हैं, तो तैयार हो जाइये जल्द ही इसे देखने के लिए”

राजस्थान में विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षी आते हैं कुछ सर्दियों में अत्यधिक ठण्ड से बचने के लिए तो कुछ वर्षा ऋतू में प्रजनन के लिए यहाँ आते हैं। परन्तु कुछ पक्षी ऐसे भी हैं जो यहाँ से गुजरने वाले पर्यटक होते हैं जो लम्बी दुरी तय करने के दौरान बीच में किसी एक स्थान पर कुछ दिन के लिए रुक जाते हैं। ऐसा ही एक पर्यटक पक्षी जिसका नाम “रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन” जल्द ही (अगस्त) में राजस्थान में आने वाला है तथा इसे दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान यानि थार-मरुस्थल और रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) व इसके आसपास के इलाकों में देखा जा सकता है। रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन, खुले-खुले पेड़ों और झाड़ियों वाले शुष्क प्रदेश में मिलने वाला एक कीटभक्षी पक्षी है जो अपनी लंबी, गहरे भूरे रंग की पूंछ द्वारा पहचाना जाता हैं, जिसे वह अक्सर ऊपर-नीचे हिलाता और फैलाता है।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन, पृथक पेड़ों और झाड़ियों वाले शुष्क प्रदेश में मिलने वाला एक कीटभक्षी पक्षी है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्गिकी एवं नाम उत्‍पत्ति (Taxonomy & Etymology):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन (Cercotrichas galactotes) एक मध्यम आकार का पक्षी है जो पक्षी जगत के Muscicapidae परिवार का सदस्य है। इसे रूफस स्क्रब रॉबिन, रूफस बुशचैट, रूफस बुश रॉबिन और रूफस वॉबलर नाम से भी जाना जाता है। वर्ष 1820 में Coenraad Jacob Temminck ने रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन को द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार Cercotrichas galactotes नाम दिया। Temminck एक डच जीव वैज्ञानिक और संग्रहालय निदेशक थे। इसका वैज्ञानिक नाम “Cercotrichas galactotes” एक ग्रीक भाषा का नाम है, जिसमें Cercotrichas ग्रीक भाषा के शब्द kerkos से लिया गया है जिसका अर्थ “पूँछ” होता है, तथा “galactotes” ग्रीक भाषा के शब्द “gala” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है दूध जैसा।

जर्मन वैज्ञानिक Johann Friedrich Naumann जिन्हे यूरोप में वैज्ञानिक पक्षी विज्ञान के संस्थापक के रूप में जाना जाता है द्वारा बनाया गया चित्र।

निरूपण (Description):

इस रॉबिन में वयस्क नर और मादा एक जैसे ही दिखते हैं और सिर से पूँछ तक यह लगभग 6 इंच (150 मिमी) लंबे होते हैं तथा इनके पैर शरीर की अपेक्षा लम्बे होते हैं। इसके शरीर का ऊपरी भाग (पृष्ठ भाग) ललाई लिए भूरे रंग (चेस्टनट) का होता है। इसकी नाक से होते हुए आँख के पीछे तक एक हल्की घुमावदार क्रीम-सफ़ेद रंग की लकीर और आँख के पास एक गहरे भूरे रंग की लकीर होती है, तथा आँख का निचला हिस्सा सफेद रंग का होता है। आंख और चोंच दोनों ही भूरे रंग के होते हैं लेकिन चोंच का निचला हिस्सा ग्रे रंग का होती है। पूँछ के ठीक ऊपर का शरीर (Rump) और अप्परटेल कोवेर्ट्स बादामी रंग के होते हैं। शरीर का निचला भाग (अधर भाग) भूरे-सफेद रंग का होता है, परन्तु ठोड़ी, पेट और अंडर टेल कोवेर्ट्स अन्य भागों की तुलना में हल्के रंग के होते हैं।

इसके पंख गहरे भूरे रंग के होते हैं, जो सिरों से हल्के बादामी रंग और पीछे के किनारे ब्राउन होते हैं और सेकेंडरिस के सिरे सफ़ेद होते हैं। इसकी पूँछ के बीच वाले पंख (केंद्रीय) पंख चटक चेस्टनट रंग के होते हैं जिनके सिरों पर छोटी-सकड़ी काली पट्टी होती हैं तथा पूँछ के बाकि पंख चेस्टनट रंग के साथ सिरों से सफ़ेद रंग के होते हैं।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन को अक्सर खुले इलाको में जमीन पर घुमते हुए देखा जा सकता हैं और अपनी पूँछ को ऊपर-निचे हिलाता हैं फैलता है (फोटो: श्री नीरव भट)

इनके किशोर दिखने में लगभग वयस्क जैसे ही होते हैं लेकिन आमतौर पर इनके शरीर का रंग रेतीला-भूरा होता हैं। शरद ऋतु में यह मॉल्टिंग (अपनी पूँछ के पंख गिरा देते हैं) करते हैं तथा इससे कुछ दिन पहले ही इनकी पूंछ के पंखों के सफेद सिरे कम या बिलकुल गायब हो जाते हैं।

इसकी आवाज कुछ हद तक लार्क जैसी होती हैं, कभी-कभी स्पष्ट और तेज तो कभी हल्की। यह एक ऊँचे स्थान पर पेड़ के शीर्ष पर बैठकर आवाज करता है तथा ऐसा कहा जाता है कि, इसका गीत निराश व् उदास स्वर वाला होता है।

इसकी आवाज कुछ हद तक लार्क जैसी होती हैं, कभी-कभी स्पष्ट और तेज तो कभी हल्की। (फोटो: श्री नीरव भट)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

इसकी प्रजनन रेंज पुर्तगाल, दक्षिणी स्पेन और बाल्कन प्रायद्वीप से लेकर मध्यपूर्व से इराक, कजाकिस्तान और पाकिस्तान तक फैली हुई है तथा यह एक आंशिक प्रवासी पक्षी है जिसकी दक्षिण की ओर जाने वाली आबादी भारत से होकर गुजरती हैं। यह उत्तरी यूरोप के लिए एक असामान्य पर्यटक है। सर्दियों का समय यह उत्तरी अफ्रीका और पूर्व में भारत में बिताते हैं। यह निचले तलहटी वाले खुले शुष्क इलाकों जिनमे घनी झाड़ियां पायी जाती हैं में पाए जाते हैं तथा कई बार यह पार्को और बागों में भी पाया जा सकता है।

यह पक्षी बहुत ही व्यापक रूप से वितरित है और भौगोलिक स्थितियों व मौसम के कारण इसके रंग-रूप में हल्के-फुल्के अंतर भी मिलते हैं, तथा इन्हीं अंतरों के आधार पर विभिन्न वैज्ञानिको ने इसकी पांच उप-प्रजातियां बनायीं हैं; Cercotrichas galactotes familiaris, Cercotrichas galactotes galactotes, Cercotrichas galactotes hamertoni, Cercotrichas galactotes minor and Cercotrichas galactotes syriaca. ऐसा माना जाता है कि, भारत में C. g. familiaris उप-प्रजाति पायी जाती है, यह दक्षिणी-पूर्वी प्रवासी है जो की अगस्त और सितंबर के महीने में राजस्थान, गुजरात, पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में देखने को मिलती है। राजस्थान में इस प्रजाति को थार-मरुस्थल; जैसलमेर और सवाई माधोपुर में देखा जाता है।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन वितरण दर्शाता मानचित्र (Source: Grimett et al 2014)

व्यवहार एवं परिस्थितिकी (Behaviour & Ecology):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन घनी वनस्पति वाले पर्यावास और खुले स्थानों पर भी पाए जाते हैं। खुले इलाको में इन्हे अक्सर जमीन पर घुमते हुए देखा जा सकता हैं और अपनी पूँछ को फैला कर ऊपर-नीचे हिलाता है। यह मुख्य रूप से बीटल्स, टिड्डों, तितलियों व पतंगों के लार्वा, छोटे कीटों और केंचुओ को खाते हैं, तथा अपने भोजन को खोजने के लिए यह नीचे पड़ी हुई पत्तियों को उलट-पलट करते हैं। अक्सर नर रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन एक असामान्य उड़ान का प्रदर्शन करते हैं जिसमें ये अपने पंखों को ऊपर किये हुए एकदम से नीचे की और जाते हैं और साथ ही आवाज करते हैं।

यह एक ऊँचे स्थान पर पेड़ के शीर्ष पर बैठकर आवाज करता हैं तथा ऐसा कहा जाता हैं की इसका गीत निराश व् उदास स्वर वाला होता है। (फोटो: श्री नीरव भट)

संरक्षण स्थिति (Conservation status):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन की एक व्यापक रूप से वितरित पक्षी है, जिसका अनुमानित विस्तार 4.3 मिलियन वर्ग किलोमीटर (1.66 मिलियन वर्ग मील) है, और एक बड़ी आबादी (96 से 288 हजार), यूरोप में उपस्थित है। इन सब आकड़ों के साथ इनकी आबादी स्थिर भी है तथा इसीलिए IUCN रेड लिस्ट में इसको लिस्ट कंसर्न श्रेणी में रखा गया है।

तो बस यदि आप भी राजस्थान, गुजरात व दिल्ली में रहते हैं तो आने वाले हफ़्तों में इस बरसाती मेहमान को देखने के प्रयास करें और इसके सुंदरता का आनंद ले।

सन्दर्भ:
  • Sharma, N. 2017. First record of Rufous-tailed Scrub Robin Cercotrichas galactotes (Aves:Passeriformes: Muscicapidae) from Jammu & Kashmir, India. Journal of Threatened taxa. 9(9):10726-10728.
  • http://orientalbirdimages.org/search.php?Bird_ID=2562&Bird_Image_ID=108219
  • https://timesofindia.indiatimes.com/city/gurgaon/birders-cheer-sighting-of-rare-rufous-tailed-scrub-robin/articleshow/65554990.cms
  • Naumann. F. Naturgeschichte Der Vogel, Mitteleuropas. Herausgegeben von Dr. Carl R. Hennicke in Gera. II. Band.
    (Grasmücken, Timalien, Meisen und Baumläufer.). LITHOGRAPHIE, DRUCK UND VERLAG VON. FR. EUGEN KÖHLER.
राजस्थान में मिला एक नया मेंढक : Uperodon globulosus (इंडियन बलून फ्रॉग )

राजस्थान में मिला एक नया मेंढक : Uperodon globulosus (इंडियन बलून फ्रॉग )

“राजस्थान के चित्तौरगढ़ जिले की एक पिता पुत्र की जोड़ी ने अपनी सुबह की सैर के दौरान खोजी एक नयी मेंढक प्रजाति।”

राजस्थान के बेंगु (चित्तौरगढ़ जिले ) कस्बे में 21  जुलाई 2020 को राज्य के लिए एक नए मेंढक को देखा गया। यह मेंढक Uperodon globulosus है इसे सामान्य भाषा में “इंडियन बलून फ्रॉग” भी कहा जाता है क्योंकि यह अपना शरीर एक गुब्बारे की भांति फुला लेता है।  राजस्थान में इस मेंढक की खोज एक पिता पुत्र की जोड़ी ने की है- श्री राजू सोनी एवं उनके 12 वर्षीय पुत्र श्री दीपतांशु सोनी जब सुबह की सैर के लिए जा रहे थे तो उन्हें यह मेंढक रास्ते पर मिला, उस स्थान के पास लैंटाना की घनी झाड़ियां है एवं मूंगफली एवं मक्के के खेत है।  श्री सोनी ने  मोबाइल के सामान्य कैमरे से इसके कुछ चित्र लिए। जिनके माध्यम से प्रसिद्द जीव विषेशज्ञ श्री सतीश शर्मा ने इस मेंढक की पहचान की।  राजस्थान में इसी Uperodon जीनस के दो अन्य  मेंढक भी मिलते है –Uperodon systoma एवं Uperodon taprobanicus।  श्री राजू सोनी सरकारी अस्पताल में नर्स के पद पर कार्यरत है। टाइगर वॉच के श्री धर्मेंद्र खांडल मानते है की यह यद्पि  Uperodon globulosus प्रतीत होता है  परन्तु एक पूर्णतया नवीन प्रजाति भी हो सकती है, अतः इस पर गंभीता से शोध की आवश्यकता है।

Uperodon globulosus “इंडियन बलून फ्रॉग” (फोटो: श्री राजू सोनी)

Uperodon globulosus location map

 

Uperodon globulosus का पर्यावास जहाँ यह पाया गया (फोटो: श्री राजू सोनी)

इस मेंढक Uperodon globulosus की खोज एक जर्मन वैज्ञानिक Albert Günther ने 1864 में की थी। यह एक भूरे रंग का गठीले शरीर का  मेंढक है जो 3  इंच तक के आकार का होता है। शुष्क राज्य राजस्थान में मेंढ़को में अब तक मिली यह 14 वे नंबर की प्रजाति है I राजस्थान में इसका पहली बार मिलना अत्यंत रोचक है एवं हमें यह बताता है की राजस्थान में मेंढको पर खोज की संभावना अभी भी बाकि हैI

श्री राजू सोनी चित्तौरगढ़ के सरकारी अस्पताल में नर्स के पद पर कार्यरत है तथा वन्यजीवों की फोटोग्राफी के साथ-साथ उनके संरक्षण में रूचि रखते है।
श्री दीपतांशु सोनी अपने पिता के साथ खोजयात्राओं में जाते हैं तथा वनजीवों में रूचि रखते हैं।