टिड्डी या लोकस्ट: दुनिया का सबसे पुराना प्रवासी कीट

टिड्डी या लोकस्ट: दुनिया का सबसे पुराना प्रवासी कीट



टिड्डी दल का आगमन आम तो बिल्कुल नहीं है, वे एक क्रम का पालन करते हुए आते हैं। पहले, एक काफी छोटा झुंड मानो उन्हें भूमि का सर्वेक्षण करने के लिए भेजा गया हो। और फिर आती है एक ऐसी लहर जिसका सिर्फ एक उद्देश्य – दुनिया से हरियाली खत्म करने का…

कीट दुनिया में मानव जाति की तुलना में काफी पहले से मौजूद रहे हैं। जमीन के नीचे से लेकर पहाड़ी कि चोटी तक सर्वव्यापी कीट मनुष्य के जीवन से बहुत हद जुड़े हुए हैं। कुछ उपयोगी हैं तो कुछ अत्यधिक हानिकारक हैं। इन्हीं हानिकारक कीटों में शामिल हैं रेगीस्तानी टिड्डे (डेजर्ट लोकस्ट) जो मनुष्य के लिए चुनौतियों कि पराकाष्ठा रचते हैं। एफएओ के अनुसार ये दुनिया की दस फीसदी आबादी की ज़िंदगी को प्रभावित करते हैं जिससे इन्हें दुनिया का सबसे खतरनाक कीट भी कहा जाता है। इनसे उत्पन्न चुनौतियाँ नई भी नहीं है, वे आदि काल से मानव जाति के लिए संकट साबित होते रहे हैं।

औसतन हर छह वर्षों में एक बार जरूर आते हैं, और ऐसे आते हैं मानो जैसे मनुष्यों का अंत करके ही जाएंगे। वे घरों पर पूरी तरह छा जाते हैं, खिड़कियों पर झूलते हैं, गुजरती गाड़ियों से टकराते हैं और ऐसे काम करते हैं जैसे कि उन्हें सिर्फ विनाश के ही लिए भेजा गया है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ये अत्यधिक गतिशील झुंड में मॉरीतानिया (Mauritania) से भारत और तुर्कमेनिस्तान से तंजानिया तक एक विशाल क्षेत्र को प्रभावित करते हैं जिसके कारण इन देशों में रहने वाले लोग बुरी तरह से फसलों के नुकसान को झेलते हैं। विश्व बैंक सहित कई विकास एजेंसियों ने प्रभावित देशों को इनके नियंत्रण में सहायता की है, पर स्थिति में कुछ बदलाव नहीं आया है, क्योंकि इनके आने का कोई निश्चित समय नहीं है। ये अनियमित अंतराल पर तो कभी-कभी कई वर्षों के अंतराल के बाद दिखाई देते हैं। इस अनियमितता को टिड्डी गतिविधि की आवधिकता (periodicity) कहा जाता है। जिसके 1812 के बाद से भारत में कम से कम 15 चक्र दर्ज किए गए हैं। पिछले साठ वर्षों में रेगिस्तानी टिड्डे कि दो बड़ी लहरें (1968, 1993) देखने को मिली है और ये लगातार आज भी अनियमित अंतराल पर आते हैं और एक महामारी बनकर उभरते हैं।

वर्ष 2020, मानव जाति के लिए अब तक काफी चुनौतीपूर्ण साबित हुआ है। जहां एक ओर पूरी दुनिया नॉवेल कोरोनोवायरस महामारी से लड़ रही है और इसके प्रसार को रोकने के लिए ज़िंदगियाँ समेट अपने घरों में बंद है, तो वही दूसरी ओर कुछ अफ्रीकी और एशियाई देशों में प्रकृति ने टिड्डियों के झुंड (लोकस्ट स्वॉर्म) के रूप में एक नया खतरा पैदा किया है। ये टिड्डियाँ एक बार फिर अपने विकराल रूप में हमारे सामने हैं और फसलों पर कहर बरपा रहे हैं। इस बार इनके आगमन के अलग-अलग कारण बताए जा रहे हैं, कोई बदलते भूमि स्वरूप को कारण बता रहा, तो कोई रेगिस्तानी क्षेत्रों में बढ़ी हरियाली, वही कुछ ऐसे भी हैं जो पृथ्वी के बढ़ते तापमान को कारण बता रहे हैं। इनके आगमन के बारे में जानने से पहले लोकस्ट से संक्षिप्त में परिचित हो लेते हैं।

लोकस्ट एक्रीडिडे (Acrididae) परिवार से छोटी सींग वाले टिड्डे (short-horned grasshopper) की कुछ प्रजातियों के झुंड बनाने कि अवस्था (स्वार्मिंग फेज) है। लोकस्ट और ग्रासहॉपर की प्रजातियों के बीच कोई टैक्सोनोमिक अंतर नहीं है, ये ग्रासहॉपर कि तरह ही दिखते हैं लेकिन व्यवहार में उनसे बिल्कुल अलग होते हैं। ग्रासहॉपर कृषि भूमि पर पाए जाते हैं जबकि लोकस्ट रेगिस्तानी और शुष्क परिस्थितियों में पाए जाते हैं। ग्रासहॉपर में कोई रूपात्मक बदलाव देखने को नहीं मिलता जबकि लोकस्ट के नब्बे दिनों के जीवनकाल में कई बदलाव देखने को मिलते हैं।

लोकस्ट दुनिया का सबसे पुराना एवं अत्यधिक विनाश क्षमता के कारण ध्यानाकर्षी प्रवासी कीट है। लोकस्ट मुख्यतः ग्रासहॉपर ही होते हैं जो सूखे घास के मैदान और रेगिस्तानी इलाकों में अत्यधिक पाए जाते हैं। आमतौर पर लोग ग्रासहॉपर (long-horned grasshopper) को भी लोकस्ट समझ बैठते हैं क्यूँकि ग्रासहॉपर भी गर्मियों कि अनुकूल परिस्थितियों में प्रजनन कर संख्या बढ़ाते हैं और एक सीमित क्षेत्र में फसलें नष्ट करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ये टिड्डे आमतौर पर एकान्त वासी होते हैं लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में फेनोटाइपिक बदलाव (phenotypic shift) के कारण संख्या बढ़ने पर व्यवहार में कुछ बदलाव (phase change) के साथ ये झुण्ड में रहना (ग्रीगेरियस) और प्रवासी व्यवहार (migratory behaviour) का प्रदर्शन करने लगते हैं। बस इसी आधार पर इनको परिभाषित किया गया है। इस परिवर्तन को तकनीकी भाषा में “घनत्व-निर्भर फेनोटाइपिक प्लास्टिसिटी” (density-dependent phenotypic plasticity) कहा जाता है।

पहली बार बोरिस उवरोव (Boris Uvarov) ने अपरिपक्व टिड्डे (immature hopper) के झुंड में रहने वाले हॉपर के रूप में विकसित होने को फेज पॉलीमोरफिसम बताते हुए इनके दो चरणों (phases) कि व्याख्या की, पहला सॉलिटेरिया (solitaria) और दूसरा ग्रेगारिया (gregaria)। इन्हें वैधानिक (statary) और प्रवासी रूप (morphs) के रूप में भी जाना जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

एकान्तवासी टिड्डे शुष्क मौसम के दौरान सीमित क्षेत्र में बचे पेड़-पौधों के कारण एक साथ रहने के लिए मजबूर होते हैं। पीछे के पैरो की बढ़ती स्पर्श उत्तेजना से सेरोटोनिन के स्तर में वृद्धि होती है जो कि टिड्डे का रंग बदलने, अधिक खाने, और आसानी से प्रजनन करने का कारण बनता है। टिड्डियों का प्रजनन रेगीस्तानी इलाकों में होता है और अक्सर वनों, कृषि क्षेत्रों और देहाती आजीविका के साथ मेल खाता है। टिड्डियों के लिए कूल तीन प्रजनन के मौसम होते हैं (i) विन्टर ब्रीडिंग [नवंबर से दिसंबर], (ii) स्प्रिंग ब्रीडिंग [जनवरी से जून] और (iii) समर ब्रीडिंग [जुलाई से अक्टूबर]। भारत में टिड्डी प्रजनन का केवल एक मौसम, समर ब्रीडिंग, देखने को मिलता है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में स्प्रिंग और समर ब्रीडिंग दोनों हैं।

टिड्डियों का जीवन चक्र तीन अलग-अलग चरण होते हैं, अंडा, हॉपर और वयस्क। टिड्डियाँ नम रेतीली मिट्टी में 10 सेन्टमीटर कि गहराई पर अंडे देती हैं। ग्रेगेरीअस मादाएँ आमतौर पर 2-3 बीजकोष (pods) में अंडे देती हैं जिसके एक पॉड में 60-80 अंडे होते हैं। सॉलिटेरियस मादा ज्यादातर 3-4 बीजकोष में औसतन 150-200 अंडे देती है। अंडों के विकास की दर मिट्टी की नमी और तापमान पर निर्भर करता है। 15°C से नीचे कोई विकास नहीं होता है। ऊष्मायन अवधि (incubation period) इष्टतम तापमान (Optimum temperature) 32-35 डिग्री सेल्सियस के बीच 10-12 दिन का होता है।

दुनिया भर में ग्रासहॉपर कि लगभग 28500 प्रजातियाँ हैं जिनमें से मात्र 500 ऐग्रिकल्चरल पेस्ट के रूप में मौजूद है और केवल 20 ही ऐसे हैं जो लोकस्ट बनने कि क्षमता रखते हैं। भारत में मुख्य तौर से चार प्रजातियां, रेगिस्तानी टिड्डा या डेसर्ट लोकस्ट (Schistocerca gregaria), अफ्रीकी प्रव्राजक टिड्डा या अफ्रीकन माइग्रटोरी लोकस्ट (Locusta migratoria), बम्बई टिड्डा या बॉम्बे लोकस्ट (Patanga succincta) और वृक्षीय टिड्डा या ट्री लोकस्ट (Anacridium spp.) सक्रिय रहती हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ऊष्मायन पूरा होने के बाद अंडे हैच होते हैं और निम्फ (युवा) बाहर आते हैं जिन्हें “हॉपर” कहा जाता है। ग्रीगेरियस चरण में 5 इंस्टार और सॉलीटेरियस आबादी में 5-6 इंस्टार होते हैं। प्रत्येक इंस्टार में एक अलग वृद्धि और विशेष रंग का परिवर्तन होता है। हॉपर का विकास दर तापमान पर निर्भर करता है। जहां 37°C के औसत तापमान पर 22 दिन लगते हैं तो वही 22°C के औसत तापमान पर 70 दिनों तक कि देरी हो सकती है।

पाँचवी इन्स्टार अवस्था के बाद हॉप्पर वयस्क हो जाते है। इस परिवर्तन को ‘फलेजिन्ग’ कहा जाता है और युवा वयस्क को ‘फलेजलिङ्ग’ या ‘अपरिपक्व वयस्क’ कहा जाता है।  यौन परिपक्वता की अवधि भिन्न होती है। उपयुक्त स्थिति में वयस्क 3 सप्ताह में परिपक्व हो सकता है और ठंढे और / या सूखे कि स्थिति में 8 महीने का समय लग सकता है। इस चरण के दौरान वयस्क अनुकूल प्रजनन स्थिति की खोज के लिए उड़ान भरते हैं और हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर सकते हैं। इस दौरान अगर किसी भी समय अनुकूल परिस्थितियाँ मिले तो वे ग्रेगेरीअस हो सकते हैं।

युवा अवयस्क टिड्डे हैचिंग के समय एकान्तवासी होते है और अपने परिवेश के साथ फिट होने के लिए हरे और भूरे रंग के होते हैं। जब भोजन बहुतायत में होता है तो डेसर्ट लोकस्ट प्रजनन कर संख्या बढ़ाते हैं और “ग्रेगेरीअस अवस्था” प्राप्त करते हैं। युवा अपरिपक्व वयस्क रंग में गुलाबी होते हैं जबकि पुराने वयस्क ठंड की स्थिति में गहरे लाल या भूरे रंग के हो जाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

जैसे-जैसे वे बड़े और सघन होते जाते हैं वे एक समूह के रूप में कार्य करते हुए व्यावहारिक बदलाव के साथ उड़ने वाला झुंड बनाते हैं जिसे स्वॉर्म कहते हैं। टिड्डे के झुंड के रूप में परिवर्तन चार घंटे की अवधि में प्रति मिनट कई संपर्कों से प्रेरित होता है। हजारों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले एक बड़े झुंड में अरबों टिड्डे हो सकते हैं, जिनकी आबादी लगभग 80 मिलियन प्रति वर्ग किलोमीटर होती है। इस बिंदु पर टिड्डे पूरी तरह से परिपक्व और वयस्क होते हैं। परिपक्वता पर वयस्क चमकीले पीले हो जाते हैं। नर मादा से पहले परिपक्व होते हैं। टिड्डों के व्यवहार और शारीरिक लक्षणों में परिवर्तन प्रतिवर्ती होते हैं जिससे अंत में अपने मूल रूप में बदल सकते हैं या अपनी संतानों को पारित कर सकते हैं।

लगभग तीन महीने के प्रजनन चक्र के बाद टिड्डे एक अंडे से वयस्क होते हैं और संख्या में 20 गुना वृद्धि ला सकते हैं। यह छह महीने के बाद 400 गुना और नौ महीने के बाद 8,000 तक बढ़ सकता है। ये हजारों लाखों के झुण्ड में आकर पेड़ों, पौधों या फसलों के पत्ते, फूल, फल, बीज, छाल और फुनगियाँ सभी खा जाते हैं। ये इतनी संख्या में पेड़ों पर बैठते हैं कि उनके भार से पेड़ टूट तक सकता है। एक टिड्डा अपने वज़न के बराबर भोजन चट करता है यानी कम से कम दो ग्राम। उड़ते बैंड के टिड्डे भोजन कि कमी के दौरान एक-दूसरों को काटते हुए नरभक्षी क्रिया को भी दर्शाते हैं। रेगिस्तानी टिड्डियों में माइग्रैशन उनकी इस नरभक्षी क्रिया से प्रभावित होता है। सेपीदेह बज़ाज़ी  द्वारा किये शोध से पता चलता है कि टिड्डे के झुंड इसलिए बनते हैं क्योंकि वे अपने नरभक्षी पड़ोसी से खुद को बचाने के लिए एक कदम आगे रहना पसंद करते हैं।

टिड्डियों के स्वॉर्म के रूप में आगमन के लिए पूरी तरह से किसी एक कारण को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इनके आगमन के पीछे एक प्राकृतिक क्रम है जिसका ये पालन करते हैं। हां, लैंड यूज पैटर्न में बदलाव, बढ़ते तापमान और हरियाली आदि महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसी प्राकृतिक क्रम में एक निश्चित काल पर। जैसे कि अंडे हैच होने के लिए उपयुक्त तापमान और नमी कि जरूरत, निम्फ्स को वयस्क होने के लिए भोजन के तौर पर हरियाली आदि कि जरूरत। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

टिड्डी दल के आगमन का जैविक सिद्धांत डॉ एस प्रधान द्वारा वर्ष 1967 में दिया गया था, जो उस समय भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में एंटोमोलॉजी के प्रमुख थे। सिद्धांत के अनुसार टिड्डे अर्ध रेगिस्तानी इलाकों में प्रजनन करते हैं जहाँ 15 सेंटीमीटर की गहराई तक अंडे देने के लिए रेतीली मिट्टी उपयुक्त होती है। टिड्डे इन क्षेत्रों के भीषण वातावरण को सहने में सक्षम होते है, जबकि उनके शिकारी, जैसे कि छिपकली, सांप, पक्षी, छछूंदर, हेजहॉग, मोल्स आदि को रेगिस्तान और अर्ध रेगिस्तान की भीषण स्थितियों का सामना करने में मुश्किल आती है और इसलिए वे धीरे-धीरे भीषण क्षेत्रों कि परिधि पर अधिक सहिष्णु क्षेत्र कि ओर चले जाते हैं।

लेकिन रेगिस्तानी इलाकों में एक या दो दशक में एक बार पर्याप्त वर्षा होती है, जिससे सेज (sedge) घास और अन्य खरपतवारों का विकास होता है और टिड्डों को अपनी पूर्ण जैविक क्षमता के बराबर भोजन मिलता है। शिकारी जीव जो भीषण परिस्थितियों के कारण इनके प्रजनन क्षेत्र से बाहर परिधि कि तरफ चले गए थे, स्थिति सामान्य होने पर टिड्डियों कि आबादी को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त तेजी लौट नहीं पाते। इनकी आबादी शिकारियों की अनुपस्थिति में बहुत तेजी से बढ़ती है। प्राकृतिक दुश्मनों द्वारा अनियंत्रित, टिड्डी एकान्त चरण से प्रवासी चरण की ओर बढ़ती है और बड़े स्वॉर्म में विकसित होती है और अंत में प्रजनन के क्षेत्रों से बाहर निकलती है, जिससे भारी विनाश होता है। लोकस्ट स्वॉर्म के मरुस्थलीय क्षेत्रों से बाहर निकलने के बाद कुछ वयस्क और निम्फ की बिखरी हुई आबादी जो पीछे रह जाती है, सहिष्णु पर्यावरणीय परिस्थितियों के दूसरे चरण के आगमन तक एकान्तवासी चरण के रूप में मॉरिटानिया और भारत के बीच रेगिस्तान में हमेशा मौजूद रहते हैं।

ग्रासहॉपर दुनिया भर के चरागाह पारिस्थितिक तंत्र के प्रमुख घटक हैं और ट्रॉफिक गतिशीलता और पोषक तत्वों के साइक्लिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन जब अच्छी बारिश के कारण हरे-भरे घास के मैदान विकसित होते हैं तो ये रेगिस्तानी टिड्डे एक या दो महीने के भीतर तेजी से संख्या बढ़ा इकट्ठे होते हैं और एक भयानक झुंड का रूप ले लेते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

समय पर नियंत्रित नहीं किये जाने पर पंखहीन हॉपरों के छोटे समूह या बैंड पंखों वाले वयस्क टिड्डे के छोटे समूह या स्वॉर्म का निर्माण कर सकते हैं जिसे एक विस्फोट (OUTBREAK) कहा जाता है और यह आमतौर पर किसी देश के एक हिस्से में लगभग 5,000 वर्ग किमी तक होता है। यदि एक विस्फोट या समसामयिक कई विस्फोटों को नियंत्रित नहीं किया जाता है और आसपास के क्षेत्रों में व्यापक या असामान्य रूप से भारी बारिश होती है, तो प्रजनन के कई सिलसिलेवार मौसम बन सकते हैं जो आगे चलकर हॉपर बैंड और वयस्क झुंड के गठन का कारण बनते हैं। इसे अभ्युत्थान (UPSURGE) कहा जाता है और आम तौर पर पूरे क्षेत्र को प्रभावित करता है।

यदि एक अभ्युत्थान को नियंत्रित नहीं किया जाता है और पारिस्थितिक स्थिति प्रजनन के लिए अनुकूल रहती है तो टिड्डे की आबादी संख्या और आकार में वृद्धि जारी रखती है जो एक महामारी (PLAGUE) के रूप में विकसित हो सकता है। महामारी के समय अधिकांश संक्रमण बैंड और स्वार्म्स के रूप में होते हैं। जब दो या दो से अधिक क्षेत्र एक साथ प्रभावित होते हैं तो एक बड़ी महामारी होती है।

टिड्डी विस्फोट सामान्य है और आमतौर पर होते रहते हैं, इनमें से कुछ ही विस्फोट ऐसे हैं जो अभ्युत्थान का रूप लेते हैं और इसी तरह कुछ अभ्युत्थान महामारी का रूप। आखिरी महामारी को 1987-89 में तथा आखिरी बड़ा अभ्युत्थान 2003-05 में देखा गया था। अभ्युत्थान और महामारी किसी एक रात में नहीं उभरते, इन्हे विकसित होने में कई महीनों से लेकर एक या दो वर्ष का समय भी लग सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वैश्विक स्तर पर लोकस्ट कि निगरानी संयुक्त राष्ट्र के फूड एण्ड ऐग्रिकल्चर ऑर्गेनाइजेसन (FAO) का लोकस्ट वॉच विभाग करता है जिसके मुताबिक वर्तमान टिड्डियों के आतंक की कहानी साल 2018 में अरबी प्रायद्वीप पर आए चक्रवाती तूफानों और भारी बारिश के साथ शुरू हुई थी। मई के तूफान से ही इतना पानी हो गया कि अगले छह महीनों के लिए रेगिस्तान में हरियाली उपजी जिस पर टिड्डियों की दो पीढ़ियां जीवन गुज़ार सकती थीं। इसके बाद अक्टूबर के तूफान के कारण टिड्डियों को प्रजनन और पनपने के लिए और कुछ महीनों का आधार मिल गया जहां इनकी तीन पीढ़ियाँ पली। यहां से ये खतरनाक हुईं और साल 2019 से अफ्रीका को निशाना बनाया। चक्रवातों के चलते ओमान और यमन जैसे दूरदराज के एकदम अविकसित इलाकों में टिड्डियों ने अपनी आबादी बढ़ाई।

एफएओ के लोकस्ट विशेषज्ञ कीथ क्रेसमैन के मुताबिक मानव संसाधन और उपग्रहों के माध्यम से संस्था टिड्डियों के दलों के संकट को लेकर निगरानी रखती है, लेकिन इस मामले में नाकाम साबित हुई। मॉनिटरिंग नेटवर्क ध्वस्त हो गया। क्रेसमैन के मुताबिक किसी को नहीं पता था कि धरती के इस दूरस्थ इलाके में तब क्या हो रहा था। इस इलाके में कुछ नहीं है, सड़कें नहीं हैं, कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है, फेसबुक नहीं, कुछ भी नहीं है। कुछ है तो रेत के बड़े बड़े टीले हैं, जो स्काईस्क्रेपरों से कम नहीं हैं।

जब टिड्डियों के दल झुंड में रहने की प्रवृत्ति विकसित कर लेते हैं, तब ये मुख्य रूप से कार्बोहाइड्रेट वाले भोजन पर निर्भर करने लगते हैं। जिस मिट्टी से लगातार फसलें ली जा चुकी हैं और जो ज़रूरत से ज़्यादा चराई जा चुकी है, उसमें से नाइट्रोजन गायब हो चुकी है। इसकी वजह से प्रोटीन तो मिट्टी में है नहीं इसलिए कार्बोहाइड्रेट बहुलता वाली घासें पैदा होती हैं। विशेषज्ञों ने दक्षिण अमेरिकी टिड्डियों पर किए अध्ययन में यह पाया है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

साल 2018 के आखिर में जब ओमान में लोगों ने टिड्डियों के दलों को देखा तब कहीं जाकर क्रेसमैन की संस्था तक खबर पहुंची और अलर्ट कि स्थिति बनी। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। यहां से टिड्डियों के दल यमन और ईरान तक पहुंच चुके थे और ओमान से लगातार निकलते हुए सामने आ रहे थे। युद्धग्रस्त रहे यमन के पास टिड्डियों के हमले से लड़ने के लिए फोर्स न होने का संकट था। यमन में इन स्थितियों के दौरान भारी बारिश हुई और टिड्डियों के दलों को प्रजनन के साथ ही और पनपने का अनुकूल वातावरण मिल गया। पिछले (2019) के बसंत और गर्मियों के मौसम में टिड्डियों की आपदा यहां से सोमालिया पहुंची और उसके बाद इथोपिया और केन्या में कहर टूटा। बीते मार्च अप्रैल में पूर्वी अफ्रीका में भारी बारिश हुई, जो फिर टिड्डियों के लिए वरदान साबित हुई। पिछले चालीस वर्षों में, रेगिस्तानी टिड्डे का निवारक रणनीति (preventive strategy) से नियंत्रण प्रभावी साबित हुआ है लेकिन टिड्डियों के विनाशकारी आवृत्ति और अवधि में कमी आने से लापरवाही और संगठनात्मक समस्याओं के कारण टिड्डियों का झुंड एक बार फिर गंभीर समस्या बनकर उभरा है।

हमले के समय टिड्डियों का सामना करना बहुत मुश्किल है क्योंकि ये बहुत बड़े इलाके में फैली होती हैं। टिड्डियों से निपटने में प्रारंभिक हस्तक्षेप ही स्वॉर्म को रोकने का एकमात्र सफल उपाय है। दुनिया भर के कई संगठन टिड्डियों से खतरे की निगरानी करते हैं। वे निकट भविष्य में टिड्डियों से पीड़ित होने की संभावना वाले क्षेत्रों का पूर्वानुमान प्रदान करते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

एफएओ की डेजर्ट लोकस्ट इनफार्मेशन सर्विस (DLIS) रोम, इटली से मौसम, पारिस्थितिक स्थितियों और टिड्डियों की स्थिति की दैनिक निगरानी करती है। DLIS प्रभावित देशों में राष्ट्रीय टीमों द्वारा किए गए सर्वेक्षण और नियंत्रण कार्यों के परिणाम प्राप्त करता है और इस जानकारी को उपग्रह डेटा, जैसे कि MODIS, वर्षा के अनुमान और मौसमी तापमान और वर्षा की भविष्यवाणी आदि के साथ जोड़कर वर्तमान स्थिति का आकलन कर अगले छह सप्ताह में होने वाले प्रजनन और प्रवास कि सूचनाओं का अनुमान लगता है।

भारत में वनस्‍पति संरक्षण, संगरोध एवं संग्रह निदेशालय (DPPQ&S) द्वारा गठित टिड्डी चेतावनी संगठन (Locust Warning Organisation) विभाग को अनुसूचित रेगिस्तानी क्षेत्रों (Scheduled Desert Area) विशेष रूप से राजस्थाान और गुजरात राज्यों में रेगिस्तानी टिड्डी पर निगरानी, सर्वेक्षण और नियंत्रण का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। LWO, DLIS द्वारा जारी मासिक टिड्डी बुलेटिन के माध्यम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा टिड्डी की स्थिति की अद्यतन जानकारी रखता है। कृषि कार्यकर्ताओं द्वारा खेतों से टिड्डियों कि स्थिति के सर्वेक्षण कर आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। फिर उन्हें LWO के मंडल कार्यालयों, क्षेत्रीय मुख्यालय, जोधपुर और केन्द्रींय मुख्यालय, फरीदाबाद भेजा जाता है जहां पर उनका परस्पर मिलान करके संकलित किया जाता है और टिड्डी के प्रकोप और आक्रमण की संभावना के अनुसार पूर्व चेतावनी के लिए विश्लेषण किया जाता है। टिड्डी की स्थिति से राजस्थान और गुजरात की राज्य सरकारों को अवगत कराया जाता है और उन्हें परामर्श दिया जाता है कि वे अपने कार्यकर्ताओं को तैयार रखें। टिड्डी सर्वेक्षण के आंकड़ों को शीघ्रता से भेजने, उनका विश्लेषण करने के लिए e-locust2 / e-locust3 और RAMSES जैसे नवीन साफ्टवेयर का उपयोग किया जाता है।

ऐतिहासिक तौर पर लोग फसलों को टिड्डियों से बचाने अक्षम थे, हालांकि, आज हमारे पास पूर्वजों की तुलना में टिड्डियों से लड़ने के लिए गहन ज्ञान और प्रौद्योगिकी का फायदा है लेकिन फिर भी प्रभावित क्षेत्रों के अधिक फैलाव (16-30 मिलियन किमी), सीमित संसाधन, अविकसित बुनियादी ढाँचा और उन क्षेत्रों की पारगम्यता, आदि के कारण टिड्डियों को नियंत्रित या रोक पाना मुश्किल हो जाता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्तमान में, रेगिस्तानी टिड्डी के संक्रमण को नियंत्रित करने की प्राथमिक विधि ऑर्गनोफॉस्फेट केमिकल्स (हर्बिसाइड और कीटनाशक में प्रमुख घटक) कि छोटी-छोटी गाढ़ी खुराकें हैं। जिनको वाहन पर लगे या फिर हवाई स्प्रेयरस से अति कम मात्रा में (ULV) छिड़क कर किया जाता है। कीटनाशक को टिड्डे सीधे या परोक्ष रूप से पौधे पर चलने से अथवा उनके अवशेषों को खाने पर अधिग्रहित कर लेते हैं। ये नियंत्रण पूरी तरह सरकारी एजेंसियों द्वारा किया जाता है। भारत के अनुसूचित रेगिस्तानी क्षेत्रों में प्रयोग के लिए DPPQ&S ने 4 कीटनाशक कि मंजूरी दी है। फसलों, बबूल, खैर और अन्य पेड़ों पर रेगिस्तानी टिड्डे के नियंत्रण के लिए 11 कीटनाशकों को मंजूरी दी है।

टिड्डियों के रोकथाम के लिए फन्जाइ, बैक्टीरीया, और नीम के रस से बने जैविक कीटनाशकों का उपयोग भी किया जाता है। कई जैविक कीटनाशकों की प्रभावशीलता पारंपरिक रासायनिक कीटनाशकों के बराबर है लेकिन सामान्य रूप से इनके इस्तेमाल से कीटों को मारने में अधिक समय लगता है। इनके रोकथाम के लिए प्रभावित क्षेत्रों में किसानों ने ऐसी फसलों को उगाना शुरू कर दिया है जिन्हें लोकस्ट स्वॉर्म के मौसम से पहले काटा जा सके। इसके अतिरिक्त, सेरोटोनिन के निषेध से लोकस्ट कि संख्या को प्रयोगशालाओं में नियंत्रित करने में सफलता मिली है, लेकिन इस तकनीक का फील्ड टेस्ट अभी बाकी है।

रेगिस्तानी टिड्डियों के शिकारी ततैया और मक्खियाँ (wasp and flies), परजीवी ततैया (parasitoid wasps), शिकारी बीटल लार्वा, पक्षी और सरीसृप आदि प्राकृतिक दुश्मन होते हैं। हाल ही में डॉ धर्मेन्द्र खांडल ने सवाई माधोपुर में जकोबीन कुक्कू, मोरनी को इनका शिकार करते देखा है। लेकिन इन शिकारियों कि सिमा है कि ये एकान्त आबादी को नियंत्रण में रखने में प्रभावी हो सकते हैं। स्वॉर्म और हॉपर बैंड में टिड्डों की भारी संख्या होने के कारण उनके खिलाफ इनका प्रभाव सीमित है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल) 

हालांकि टिड्डे के हमले को समाप्त करना लगभग असंभव है, लेकिन स्वॉर्मस पर आक्रमण करके, अंडे कि एक बड़ी संख्या को नष्ट कर इनकी गंभीरता को कम किया जा सकता है। वर्तमान ‘प्लेग’ को नियंत्रित करने के लिए प्रभावित देशों में कड़े प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन आखिरकार ये कैसे समाप्त होंगे यह कह पान मुश्किल है। फिलहाल मानसून ही इनके स्वॉर्म को कुछ हद तक नियंत्रित कर पाएगा।

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चौसिंगा – विश्व का एकमात्र चार सींगो वाला ऐन्टीलोप

चौसिंगा – विश्व का एकमात्र चार सींगो वाला ऐन्टीलोप

एशिया के सबसे छोटे बोविड्स में से एक फोर हॉर्नड ऐन्टीलोप अपनी असामान्य चार सींगो के कारण जहाँ एक ओर लोकप्रिय रहे तो वहीं दूसरी ओर ये इनके संकटग्रस्त होने के कारण भी बने।

चौसिंगाया Four-horned Antelope (Tetracerus quadricornis), वर्तमान में, वनों में पाए जाने वाला एकमात्र चार सींगो वाला स्तनपायी जीव है जो मूल रूप से भारतीय प्रायद्वीप का स्थानिक जीव (endemic) के रूप में पाया जाता है। इसको राजस्थान कि स्थानीय भाषा में भेडल या गुटेर भी कहा जाता है। वर्ष 2016 में किए गए चौसिंगा के वैश्विक मूल्यांकन के अनुसार वनों में इसकी आबादी लगातार घटने और संकटग्रस्त होने कि वजह से IUCN ने इसे असुरक्षित (Vulnerable या VU) श्रेणी में वर्गीकृत किया हुआ है। चौसिंगा को अगर राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो येअत्यंत ही दुर्लभ जीव है जो यहाँ विलुप्त होने कि कगार पर है। मुख्यतः यह राजस्थान के पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में पाया जाता है। इसकी दुर्लभता कि पुष्टि इस बात से कि जा सकती है कि यहाँ ये अपने मौजूदा पर्यावास में भी वर्षों तक नजर नहीं आता, हाल ही में भैंसरोडगढ़ के वन्यजीव अभयारण्य बनने के 37 साल बाद पहली बार नजर आया।

IUCN ने वर्ष 2001 में मृगों (Antelopes) कि स्थिति और कार्य योजना बनाने के लिए एक वैश्विक सर्वेक्षण करवाया जिसके अंतर्गत भारतीय प्रायद्वीप पर चौसिंगा सर्वेक्षण डॉ असद आर रहमानी कि अगवाई में हुआ। इस सर्वेक्षण के अनुसार राजस्थान के 8 संरक्षित क्षेत्रों (राओली टोडगढ़, रणथंभोर, सरिस्का, दरा, जयसमंद, कुम्भलगढ़, फुलवारी, और सीतामाता) में चौसिंगा कि मौजूदगी दर्ज कि गई है। हालांकि डॉ रहमानी द्वारा सर्वेक्षण से रणथंभोर में चौसिंगा कि उपस्थिति दर्ज करने कि घटना को त्रुटिपूर्ण मानते हुए यहाँ वर्षों से बाघ संरक्षण के लिए काम कर रहे डॉ धर्मेन्द्र खांडल बताते हैं कि वर्तमान समय में चौसिंगा यहाँ कभी नहीं देखा गया है। राजस्थान कि जैव-विविधता के विशेषज्ञ डॉ सतीश शर्माके अनुसार चौसिंगा कि उपस्थिति जालोर, पाली, उदयपुर, अजमेर, धौलपुर, और चित्तौड़गढ़ में भी है। कोटा, झालावाड़ में भी इनकी उपस्थिति के संकेत अक्सर मिलते रहते हैं। कुछ वर्षों पहले वन्यजीव गणना के दौरान कोलीपूरा से गिरधरपूरा के जंगल में ये देखे गए थे। वर्षों से वन्यजीवों कि फोटोग्राफी कर रहे अब्दुल हानिफ जैदीसाब बताते हैं कि 5-7 वर्ष पूर्व (2013-14) दरा के पास एक मादा चौसिंगा को सड़क दुर्घटना में मृत पाया गया था।

The Book of Antelopes (1894) में प्रकाशित चौसिंगा का चित्रण

चौसिंगा भारतीय प्रायद्वीप पर व्यापक रूप से वितरित है, विश्व कि 95% आबादी भारत और शेष 5% नेपाल में पाई जाती है। भारत में हिमालय की तलहटी से लेकर दक्कन के पठार तक विस्तृत हैं। इनका वितरण ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में खुले, सूखे, पर्णपाती जंगलों में होता है। ये मृग घास आवरण या झाड़-झंखाड़ वाले जंगलों और निकटवर्ती जलाशयों में निवास करते हैं और मानवीय आबादी वाले क्षेत्रों से दूर रहने की कोशिश करते हैं।

चौसिंगा टेट्रिसस जीनस का एकमात्र सदस्य है। इसका का वर्णन पहली बार 1816 में फ्रांसीसी प्राणी शास्त्री हेनरी मैरी डुक्रोटेडेब्लेनविले ने किया था। चौसिंगा को ट्राइब बोसलाफिनी (Boselaphini) में रखा गया है, जिसमें चौसिंगा के अलावा मात्र नीलगाय (Boselaphus tragocamelus) को रखा गया है। वैसे तो ट्राइब बोसलाफिनी के सदस्यों में सामने की तरफ एक कील के साथ सींग होते हैं और अन्य मृग समूहों में पाए जाने वाले छल्ले की कमी है, लेकिन डॉ सतीश शर्मा के अनुसार चौसिंगा में हल्के छल्ले पाए जाते है। कॉलिन ग्रॉवस (2003) ने चौसिंगा को उनके खाल के रंग और विस्तार के अनुसार 3 उप-प्रजातियों में विभाजित किया है:

  • T. q. iodes (Hodgson, 1847): गंगा के उत्तर से नेपाल तक वितरित।
  • T. q. quadricornis (de Blainville, 1816): मुख्यतः भारतीय प्रायद्वीप पर वितरित।
  • T. q. subquadricornutus (Elliot, 1839) पश्चिमी घाट और दक्षिणी भारत में वितरित।

चौसिंगा, बोविडा परिवार (Bovidae) का एक जुगाली करने वाला (ruminant) एक छोटा और पतला गोकुलीय प्राणी (ungulate) है जिसके शरीर की लंबाई 1 मीटर और पूंछ की लंबाई 10-15 सेमी तक होती है। इसका वजन 15-25 किलो होता है। इनके चार सींग होते हैं जो इन्हें अन्य Bovids, जिनके दो सींग होते हैं, से अलग करते हैं। सींग दो के जोड़ों में केवल नर पर ही पाए जाते हैं, मादा सींग रहित होती हैं। सींगों का एक जोड़ा सीधा और कानों के बीच 2.5-4 सेंटीमीटर तक लंबा होता है। दूसरे थोड़े घुमावदार पीछे माथे पर स्थित होते हैं जिनकी माप 8-10 सेंटीमीटर कि होती है। इनका कोट पीले-भूरे से लाल रंग का होता है। शरीर का निचला हिस्सा और पैरो के अंदरूनी हिस्से सफेद होते हैं। चेहरे की विशेषताओं में थूथन पर और कान के पीछे काले निशान शामिल हैं। पैरो कि बाहरी सतह पर एक काली धारी होती है।

चौसिंगा नर (फोटो: श्री ऋषिराज देवल)

यह एक शर्मीला और दिनचर जीव है जो दिन के दौरान सक्रिय रहते हैं और स्वयं को मनुष्य से दूर रखकर छुपे रहते है। सामान्यतः स्वभाव से यह एकांत वासी होते हैं लेकिन 3 से 5 जानवरों के ढीले समूह भी बना सकते हैं। इन समूहों में कभी-कभी किशोरियों (calves) के साथ एक या अधिक वयस्क होते हैं। नर (buck) और मादा (doe)  केवल मिलन के मौसम में बातचीत करते हैं। भयभीत होने पर, वे स्तब्ध हो जाते हैं और घबराहट में छलांग लगा कर या पूरे वेग से दौड़कर खतरे से दूर चले जाते हैं। शिकारी जीवों से बचने के लिए वे अक्सर ऊंची घास में छिप जाते हैं। आम तौर पर दूसरों को सचेत करने के लिए अलार्म कॉल का उपयोग नहीं करते हैं क्योंकि वे शिकारियों के ध्यान से बचने की कोशिश करते हैं। हालांकि, चरम मामलों में, इन कॉल का उपयोग शिकारियों को यह चेतावनी देने के लिए उपयोग करते हैं कि इन्होंने शिकारी को देख लिया है और वे इनके पीछे न आयें। वयस्क चौसिंगा द्वारा अपने क्षेत्र चिह्नित करने लिए ग्रंथियों के स्राव के साथ कई जगहों पर मल त्याग करते है।वे कई निश्चित स्थानों पर नियमित रूप से मल त्याग कर ढेर बनते हैं। अक्सर इनके मल का ढेर और पेलेट ड्रॉपिंगबार किंग डीयर से भ्रमित किया जा सकता है, लेकिन चौसिंगा के पेलेट लंबे और बड़े होते हैं। ये जानवर विनम्र प्रदर्शन जैसे कि शरीर सिकुडाना, सर झुकना, कान पीछे खींचना आदि की मदद से भी संवाद करते हैं। यह मुख्य रूप से घास, शाक, छोटी झाड़ियाँ, पत्ते, फूल और फल खाते हैं और बार-बार पानी पीते है।

चौसिंगा बारिश के मौसम, जुलाई से सितंबर के बीच संभोग करते हैं। मादाएँ 8 महीने कि गर्भधारण अवधि के बाद एक या दो बछड़ों को जन्म देती है। बछड़े पूरी तरह से विकसित पैदा होते हैं जिनका वजन 0.7 से 1.1 किलोग्राम तक होता है। बछड़ों को जन्म के पहले कुछ हफ्तों के तक छुपा कर रखा जाता है, ये लगभग एक साल तक अपनी मां के साथ रहते हैं।

बाघ, तेंदुए और जंगली कुत्ते इसके प्रमुख प्राकृतिक शिकारी है। इनकी संख्या काम होने के मुख्य कारण हैं गैर-कानूनी शिकार, फैलते हुए खेत और सिमटते हुए प्राकृतिक आवास। वन क्षेत्र घटने और घास के मैदानों के बदलते स्वरूप के कारण चौसिंगा हिरनों के लिए प्राकृतिक आवास का संकट पैदा हो रहा है। इस कारण चौसिंगा जब जंगल के बाहर निकलते हैं तो शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं। शिकार के कारण इनकी आबादी लगातार घट रहीहै। इसके अलावा, इन मृगों की असामान्य चार सींग वाली खोपड़ी और सींग ट्रॉफी हंटर्स के लोकप्रिय लक्ष्य रहते हैं। वर्ष 2001 में इनकी तादाद दस हजार के आस-पास गिनी गयी थी, जो कालान्तर में ओर गिरी है और वर्तमान में 6000 से भी कम अनुमानित है।

संरक्षण के प्रयास:

राजस्थान सरकार ने चौसिंगा को चित्तौडगढ़ जिले का वन्यजीव पशु घोषित करने के साथ ही इसके प्रजनन संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए सीतामाता सेंचुरी के 225 हैक्टेयर क्षेत्र को इस प्रजाति के लिए रिजर्व कर प्रोजेक्ट शुरू किया। चित्तौडगढ़ जिले की पहचान को चौसिंगा से जोड़ कर सरकारी दस्तावेज में मस्कर यानी शुभंकर या प्रतीक चिन्ह के रूप में चौसिंगा की तस्वीर के उपयोग के निर्देश दिए। जिले कावन्य पशु घोषित होने से लोग इसके बारे में अधिक जानने लगे जिससे इनके संरक्षण में जागरूकता बढ़ने कि उम्मीद है।

वर्ष 2011 में सीतामाता अभयारण्य में चौसिंगा कि संख्या मात्र 100 तक सिमटने के कारण और लगातार संरक्षण प्रयासों के बावजूद इनकी संख्या में वृद्धि नहीं होने से चिंतित राजस्थान वानिकी एवं जैव विविधता परियोजना के अंतर्गत सीतामाता में प्लान बनाया गया जो 2014 से क्रियान्वित किया गया। योजना के तहत अभयारण्य में 125-135 हेक्टेयर के दो क्लोजर रानीगढ़ और आंबारेड़ी में बनाए गए और चारा-पानी कि व्यवस्था कि गई। अभयारण्य के आरामपुरा वन नाके के आसपास 25 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस प्रोजेक्ट में वाटरहोल, ग्रास लैंड बनाए गए। वहीं इन वाटरहोल को भरने के लिए पानी की टंकियां बनाई गई। इन प्रोजेक्ट के पूरे होने से वन्यजीवों के लिए आने वाली गर्मी के दिनों के पैदा होने वाले पानी और शाकाहारी जीवों के लिए घास के संकट से निजात मिली।

इसके अलावा राजस्थान अन्य हिस्सों में भी लुप्त हो रहे चौसिंगा के संरक्षण व संवर्धन के लिए वन विभाग ने साल 2015 में चौसिंगा संरक्षण प्रोजेक्ट के तहत काम किया, जिसमें कुम्भलगढ़ अभयारण्य क्षेत्र में करीब 200 हेक्टेयर भूमि आरक्षित करना शामिल है। यहाँ बचे हुए चौसिंगा को एक साथ रखकर उनके लिए भोजन-पानी सहित उनके बेहतर जीवन के लिए जरूरी सुविधाएँ करवाई गई। 1.30 करोड़ के इस प्रोजेक्ट का मकसद लुप्त हो रही प्रजाति को बचाने का था, लेकिन दुर्भाग्यवश इसके विपरीत नतीजे सामने आने लगे। चौसिंगा क्लोजर के तारबंदी में अक्सर फसकर घायल हो जाते और कई ऐसी भी घटनाएँ सामने आई जिसमें आवारा कुत्ते क्लोजर में प्रवेश कर चौसिंगा का शिकार करते पाए गए।

वनों से इन शाकाहारी जीवों का विलुप्त होना हमारे विविध पारिस्थितिक तंत्रों में एक ‘खाली परिदृश्य’ को बढ़ा रहा है। जिसका समाधान स्थानीय लोगों को संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधनमें शामिल करने और उनको लाभान्वित करने में है। राज्य सरकार द्वारा चौसिंगा संरक्षण के लिए कई प्रयास किए जाने के बावजूद इनकी संख्या और स्थिति जस की तस ही नजर आ रही है। कारण है अनियोजित कार्य प्रणाली और कुछ मूर्खतापूर्ण बेतुके कदम। चौसिंगा जैसे दौड़ने और छलांग लगाने वाले जीव को चैनल वायर फेन्सिंग से क्लोजर बना कर रखना स्वयं में ही इनको क्षति पहुँचाने के सिवा कुछ नहीं है और इन फेन्सेस को जल्द से जल्द हटाने कि जरूरत है। जरूरत है इनके पर्यावास विकसित करने कि, संरक्षित क्षेत्रों में हो रहे वनों कि कमी और घास के मैदानों के बदलते स्वरूप को रोकने कि, स्थानीय समुदाय की संरक्षित क्षेत्रों में भागीदारी बढ़ाने कि अन्यथा विश्व के एकमात्र चार सिंगोवाले मृगको राजस्थान के परिदृश्य से लुप्त होने से नहीं रोका जा सकेगा।

 

सन्दर्भ:
  1. IUCN SSC Antelope Specialist Group. 2017. Tetracerus quadricornis. The IUCN Red List of Threatened Species 2017: e.T21661A50195368.http://dx.doi.org/10.2305/IUCN.UK.2017-2.RLTS.T21661A50195368.en
  2. Mallon, D.P. and Kingswood, S.C. (compilers). (2001). Part 4: North Africa, the Middle East, and Asia.Global Survey and Regional Action Plans. SSC Antelope Specialist Group.IUCN, Gland, Switzerland andCambridge, UK.viii + 260pp.
  3. Leslie,David M., Jr. and Sharma, Koustubh. (2009). Tetracerus quadricornis (Artiodactyla:Bovidae) Mammalian Species, Issue 843, 25 September 2009, Pages 1-11. https://doi.org/10.1644/843.1
  4. Cover image courtesy: Mr. Rishiraj Deval
इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर

भारत का स्थानिक, इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर एक दुर्लभ वृक्षीय पक्षी जो राजस्थान के शुष्क व् खुले जंगलों में खेजड़ी के पेड़ों पर गिलहरी की तरह फुदकते हुए पेड़ के तने से कीटों का सफाया करता है।

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर, एक छोटा पेसेराइन पक्षी जो राजस्थान के शुष्क खुले जंगलों में खेजड़ी व् रोहिड़े के पेड़ों पर नियमित रूप से  देखा जाता है। यह एक वृक्षीय पक्षी है जिसका रंग भूरे, काले व् सफेद रंग की धारियों और धब्बों का जटिल मिश्रण होता है जिसके कारण इसको एक सरसरी नज़र में देख पाना एक जटिल कार्य है। इसका वैज्ञानिक नाम “Salpornis spilonota” है। इसे पक्षी जगत के Certhiidae परिवार में ट्रिक्रीपर्स के साथ रखा गया है तथा यह सबफॅमिली सेलपोरनिथिनी (Salpornithinae) का सदस्य है। यह मुख्यरूप से उत्तरी और मध्य प्रायद्वीपीय भारत के शुष्क झाड़ियों और खुले पर्णपाती जंगलों में पाया जाता है और यह कहीं भी प्रवास नहीं करते है। इनका ट्रिक्रीपर्स के साथ समावेश निश्चित नहीं है तथा कुछ अध्ययन इन्हे नटहेचर से अधिक निकट पाते हैं। इनके पास ट्रिक्रीपर्स की तरह पूँछ में एक कड़ा पंख नहीं होता है तथा पेड़ पर लंबवत चढ़ने में यह अपनी पूँछ का इस्तेमाल नहीं करते हैं।

विवरण- इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर, एक पेसेराइन पक्षी है और कभी-कभी इन्हे पर्चिंग बर्ड या सॉन्गबर्ड के रूप में जाना जाता है। यह चित्तीदार काले-सफ़ेद रंग का होता है, जो इसे पेड़ के तने पर छलावरण में मदद करता है। इसका वजन 16 ग्राम तक होता है, जो समान लंबाई (15 सेमी तक) के ट्रेक्रीपर्स से लगभग दोगुना होता है। अन्य पेसेराइन पक्षियों की तरह इनके पैर की उंगलियों (तीन आगे की तरफ और एक पीछे की तरफ) की व्यवस्था अन्य पक्षियों से अलग होती है, जो इसको पेड़ पर बैठने में मदद करती है। इसके पैरों का आकार भी कुछ अलग होता है जिसमे टार्सस छोटा तथा पीछे वाला पंजा पीछे की ऊँगली से काफी छोटा होता है। इसकी चोंच सिर की तुलना में थोड़ी सी लम्बी तथा पतली, नुकीली व् निचे की ओर झुकी हुई होती है, जिसका उपयोग यह छाल से कीड़े निकालने के लिए करता है। इसके पास ट्रिक्रीपर्स की तरह पूँछ में एक कड़ा पंख नहीं होता है जिसका प्रयोग ट्रिक्रीपर्स पेड़ पर लंबवत चढ़ने के दौरान करते हैं। इसकी आँखों के ऊपर सफ़ेद रंग की भौहें और नीचे गहरे रंग की पट्टी होती है। गाला सफ़ेद रंग का होता है। इसके पंख लम्बे व् सिरे से नुकीले होते है तथा प्राथमिक पंख कम विकसित होते है। पूंछ में बारह पंख होते हैं औरआकार में चौकोर होती है। इसमें नर व् मादा एक से ही दिखते है तथा जुवेनाइल रंग-रूप में वयस्क जैसे ही होते है।

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर पेड़ों की छाल से कीटों का सफाया करते है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण- यह कोई आम प्रजाति नहीं है, परन्तु फिर भी यह राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य भारत, उड़ीसा, उत्तरी आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में पृथक रूप से देखने को मिलती है। राजस्थान में इसे ताल छापर वन्यजीव अभ्यारण्य में देखा जाता है जहाँ यह मुख्यरूप से खेजड़ी और रोहिड़े के पेड़ों पर पायी जाती है।

राजस्थान में यह मुख्यरूप से खेजड़ी और रोहिड़े के पेड़ों पर पायी जाती है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

प्रजनन – ब्रिटिश पक्षी विशेषज्ञ Edward Charles Stuart Baker अपनी पुस्तक The Fauna of British India में लिखते हैं की इसका प्रजनन काल फरवरी से मई तक होता है जिसमे यह एक क्षैतिज शाखा और ऊर्ध्वाधर तने के कोने पर छोटी जड़ों और डंठलों से एक कटोरे के आकार का घोंसला बनाते हैं। यह अपने घोंसले की सतह को पत्तियों, लाइकन और मकड़ी के जाले से कोमल बनाते है तथा घोंसले की बाहरी सतह को लाइकन, मकड़ी के अंडे के खोल और कैटरपिलर मलमूत्र से सजाते हैं। घोंसले की सतह भले ही कोमल व् नरम हो लेकिन मजबूत होती हैं। कई बार इसका घोंसला किसी गाँठ या अन्य उभार के पास भी होता है जिसके कारण उसे देख पाना मुश्किल होता है। ऐ ओ हयूम (A. O. Hume) अपनी पुस्तक “The nests and eggs of Indian birds” में लिखते है की ” मैंने अपने जीवन में ऐसा घोंसला कभी नहीं देखा” जो एक तरफ से जुड़ा हो और बाकि तीन तरफ से बिना किसी सहारे के पेड़ पर स्थायी रहे तथा पूरी तरह से पत्ती-डंठल, पत्तियों के छोटे टुकड़े, छाल, कैटरपिलर के गोबर से बने होने के बावजूद भी बिलकुल मजबूत, नरम व् लचीला हो।

व्यवहार एवं परिस्थितिकी- यह पक्षी अकेले या अन्य प्रजातियों के झुण्ड के साथ पेड़ों की छाल से कीड़े व् मकड़ियों को निकाल कर खाते हुए पाया जाता है। अक्सर यह वृक्ष के आधार से शुरू कर छोटे कीटों को खाते हुए धीरे-धीरे ऊपर बढ़ता है तथा जब यह वृक्ष के ऊपर पहुंच जाता है तो उड़ कर किसी अन्य वृक्ष के आधार से फिर से अपनी खोज शुरू कर देता है। अन्य वृक्ष के आधार के लिए नीचे उड़ान भरते समय यह एक बटेर की तरह प्रतीत होता है। ये जिस तरह से पेड़ के तने पर ऊपर और नीचे काम करते हैं, नटहैचर से मिलते-जुलते लगते हैं परन्तु यह ट्रिक्रीपर्स की तरह तने पर गोल-गोल चक्कर नहीं लगाते हैं। इसकी आवाज बढ़ते हुए टुई-टुई के कर्म में होती है और गीत सीटी की आवाज की तरह सनबर्ड जैसा होता है।

इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर छोटे कीट के शिकार के साथ (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इतिहास –  इंडियन स्पॉटेड-क्रीपर को सबसे पहली बार मेजर जेम्स फ्रैंकलिन (James Franklin) ने सन 1831 में लैटिन भाषा में संक्षिप्त विवरण देते हुए, पूँछ में कठोर पंख की अनुपस्थिति के कारण जीनस Certhia में रखा और द्विपदनाम पद्धति के अनुसार “Certhia spilonota” नाम दिया। फ्रैंकलिन एक ब्रिटिश सैनिक होने के साथ-साथ भूविज्ञान के अधिकारी भी थे। इन्होने केंद्रीय प्रांतों (विंध्य हिल्स) का सर्वेक्षण किया और एशियाई सोसाइटी के लिए पक्षियों को एकत्रित किया और उनके चित्र भी बनाये। ये सभी पक्षियों के नमूने लंदन की जूलॉजिकल सोसायटी में भेजे गए, लेकिन उनके चित्रों को कलकत्ता में एशियाई सोसाइटी में वापस आने के लिए निर्धारित कर दिए गए।

कुछ वर्षों बाद सन 1847 ब्रिटिश संग्रहालय के पक्षीविज्ञान विभाग के प्रमुख जॉर्ज रॉबर्ट ग्रे (George Robert Gray) ने एक नया जीनस Salpornis बनाया और इस प्रजाति को “Salpornis spilonota” के रूप में इस जीनस में रख दिया। जब अफ्रीका में ऐसी ही प्रजाति और पाई गईं, तो उन्हें भारतीय प्रजाति की उप-प्रजाति के रूप में जोड़ दिया गया। फिर सन 1862 में पक्षी विशेषज्ञ TC Jerdon ने भारतीय पक्षियों पर लिखी पुस्तक में इस पक्षी का विस्तार से विवरण दिया। Jerdon अपनी पुस्तक में बताते है की यह पक्षी विवरणकर्ता फ्रेंकलिन और होड्गसन को प्राप्त होने के बाद से कहीं किसी और को कभी नहीं मिला यहाँ तक की पक्षी विशेषज्ञ Blyth और Jerdon को भी नहीं मिला।

कुछ वर्षों बाद सन 1867 में एक अंग्रेजी भूविज्ञानी और प्रकृतिवादी विलियम थॉमस ब्लैनफोर्ड (W. T. Blanford.), The Ibis (ब्रिटिश ऑर्निथोलॉजिस्ट्स यूनियन की वैज्ञानिक पत्रिका) के संपादक को पत्र में लिखते है की उन्होंने लम्बे समय से खो चुके “Salpornis spilonota” की फिर से खोज कर ली है और उनको यह नागपुर और गोदावरी नदी के आसपास के जंगलों में मिला है।

सन 1873 में R. P. LeMesurier, Stray Feathers (भारतीय पक्षी विज्ञान की पत्रिका) के संपादक A. O. Hume को पत्र में लिखते है की उन्होंने जबलपुर, मध्य प्रांतीय क्षेत्र में चाबुक से एक स्पॉटेड क्रीपर “Salpornis spilonota” मारा है। वह पक्षी एक बड़े पीपल के पेड़ के तने पर गिलहरी की तरह फुदक रहा था।

Bulletin of British Ornithologist’s Club के वर्ष 1926 के संकरण में कर्नल और श्रीमती मीनर्ट्ज़घेन ने भारत से कुछ नयी पक्षी प्रजातियों का विवरण भेजा। जिसमे उन्होंने स्पॉटेड-क्रीपर की एक नयी उपप्रजाति Salpornis spilonotus rajputana का विवरण दिया, जिसको उन्होंने अजमेर व् सांभर झील के आसपास देखा था। वे बताते है की इस पक्षी का रंग थोड़ा हल्का और काळा-सफ़ेद निशाँ थोड़े कम होते है। परन्तु आजतक अन्य किसी भी शोध व् अध्यन्न ने ऐसी किसी भी उपप्रजाति का जिक्र नहीं किया है।

राजस्थान के ताल छापर वन्यजीव अभ्यारण्य में अक्सर पक्षिविध्द केवल इसी एक पक्षी को देखने आते है, इस बार आप भी प्रयास करो इसे देख पाओ I  

सन्दर्भ:
  • Baker, E.C.S. (1922). “The Fauna of British India, including Ceylon and Burma. Birds. Volume 1”. v.1 (2nd ed.). London: Taylor and Francis: 439.
  • Franklin, James (1831). “[Catalogue of birds]”. Proceedings of the Committee of Science and Correspondence of the Zoological Society of London. Printed for the Society by Richard Taylor. pt.1-2 (1830-1832): 114–125.
  • Blanford, W.T. (1867). “[Letters]”. Ibis. 2. 3 (4): 461–464. doi:10.1111/j.1474-919x.1867.tb06444.x.
  • Hume, Allan O. (1889). The nests and eggs of Indian birds. Volume 1 (2nd ed.). London: R.H. Porter. pp. 220–221.
  • Jerdon, TC (1862). Birds of India. Vol 1. George Wyman & Co. p. 378.
  • Blanford, William T. (1869). “Ornithological notes, chiefly on some birds of Central, Western and Southern India”. The Journal of the Asiatic Society of Bengal. Bishop’s College Press. v.38 (1869): 164–191.
  • LeMesurier, R.P. (1874). “[Letters to the Editor]”. Stray Feathers. 2: 335.
स्मूद कोटेड ओटर– उपेक्षित लुप्तप्राय जलमानुष

स्मूद कोटेड ओटर– उपेक्षित लुप्तप्राय जलमानुष

स्वस्थ नदी तंत्र के सूचक ऊदबिलाव जलीय खाद्य श्रृंखला में अहम भूमिका निभाते हैं जिसको पहचानते हुए इनके प्रति जागरूकता और संरक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए भारतीय डाक सेवा ने अपने नियत डाक टिकट के नौवें संस्करण में 20 जुलाई 2002 को एक डाक टिकट जारी किया था।

स्मूद कोटेड ओटर, एशिया में पाए जाने वाला सबसे बड़ा ऊदबिलाव है जो इराक में एक सीमित क्षेत्र के साथ भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण-पूर्व एशिया के अधिकांश हिस्सों में पाए जाते हैं। इन देशों में ये व्यापक रूप से वितरित तो है लेकिन दुर्भाग्यवश किसी भी क्षेत्र में बहुल तादाद में नहीं पाए जाते। ये प्रायः नदी के स्वच्छ जल में निवास करते हैं, झीलें,आर्द्रभूमि और मौसमी दलदल इनके अन्य पर्यावास में शामिल हैं। चंबल नदी भारत की सबसे साफ बारहमासी नदियों में से एक जो मध्य प्रदेश और राजस्थान कि सीमा बनती है, ऊदबिलाव कि एक सीमित आबादी कि शरणस्थली है। राजस्थान में स्मूद कोटेड ओटर कि उपस्थिति रावतभाटा, केशोराय पाटन, धौलपुर और सवाई माधोपुर के पाली घाट क्षेत्र में दर्ज कि गई है। अस्थाई तौर पर रणथंभौर नेशनल पार्क में 2019 में पहली बार ओटर पूरे परिवार के साथ झालरामें छोटी छतरी के पीछे वन विभाग के अधिकारियों द्वारा देखे गए थे जो कि संभवतः चम्बल नदी में बाढ़ कि वजह से नदी के ऊपरी क्षेत्र में आ गए थे। अक्सर ये किसी भी उपयुक्त आवास में रहने में सक्षम हैं, लेकिन अन्य ऊदबिलाव प्रजातियों कि मौजूदगी में ये छोटी नदियों और नहरों कि अपेक्षा बड़ी नदियों के बीच में रहना पसंद करते हैं। ये भूमि पर खुले क्षेत्रों में बहुत कम समय बिताते हैं और अधिकतर समय पानी में ही व्यतीत करना पसंद करते हैं।कुछ वर्ष पहले तक ये केवलादेव नेशनल पार्क, भरतपुर और प्रतापगढ़ में भी पाए जाते थे लेकिन अन्य संरक्षित प्रजातियों कि तरह इनके संरक्षण को प्राथमिकता या उचित महत्तव न मिलने के कारण ये आज कुछ सीमित पर्यावासों में अपने अस्तित्व पर खतरा लिए जूझ रहे हैं।

स्मूद कोटेड ओटर एक मांसाहारी अर्द्ध जलीय स्तनपायी प्राणी है जो नदी के एक लंबे खंड को कवर करते हैं और अक्सर नदी के किनारों के उन हिस्सों में अपनी छोटी सी मांद (den, holt या couch भी कहते हैं) बनाकर रहते हैं जो पूरी तरह से अन्य जीवों कि पहुँच से दूर हो। इनके बड़े सुगठित तरीके से निर्मित छोटे मख़मली फर होने के कारण इन्हें स्मूद कोटेड ओटर कहा जाता है। इनको स्थानीय भाषा में जलमानुष, पानी का कुत्ता, उदबिलाव, आदि नामों से जाना जाता है। चम्बल क्षेत्र मेंअक्सर इन्हें जल मानस्या नाम से संबोधित किया जाता है। इनका वैज्ञानिक नाम एक फ्रांसीसी प्रकृतिवादी ए टि एन जियोफ़रॉय सेंट-हिलैरे द्वारा सन 1826 में सुमात्रा सेएकत्र एक भूरे रंग के ओटर के लिए Lutra perspicillata दिया गया था। 1865 में जॉन एडवर्ड ग्रे ने इन्हें Lutrogale जीनस में रखा। लुटरोगेल जीनस में तीन प्रजातियाँ पहचानी गई थी लेकिन वर्तमान में इस जीनस में सिर्फ स्मूद कोटेड ओटर (Lutrogale perspicillata) ही एकमात्र जीवित प्रजाति है। स्मूद कोटेड ओटर कि तीन उप-प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। पहली भारतीय प्रायद्वीप से दक्षिण-पूर्वी एशिया में पाए जाने वाले हल्के भूरे फ़र के ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata), दूसरे पाकिस्तान के सिंध और पंजाब क्षेत्र में पाए जाने वाले हल्की पीली खाल वाले ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata sindica), और तीसरे इराक के टिग्रिस नदी के क्षेत्र में पाए जाने वाले गहरे भूरे रंग कि खाल वाले ऊदबिलाव (Lutrogale perspicillata maxwelli)

ऊदबिलाव का आकार तीन से पांच फुट तक होता है और यह लम्बे और पतले शरीर वाले होते हैं। इनके सिर गोल, रोम रहित नाक, पूँछ चपटी होती है। इनकी आँखें छोटी, मूँछें घनी और कान छोटे तथा गोलाकार होते हैं। इनकी टांगे छोटी व मजबूत होती है जिनमें मजबूत पंजे और जालीदार अंगुलियाँ होती है। इनके पैर छोटे होने के कारण ये अधिक ऊंचे नहीं होते है। इनका वजन दस से तीस किलोग्राम तक हो सकता है, फिर भी ये बहुत फुर्तीले होते हैं। अक्सर अपने शिकार के पीछे पानी में बहुत तेजी से तैरते हुए तली तक पहुंच जाते हैं। ये पानी में इस प्रकार तैरते हैं, जैसे कोई रिवर राफ्टिंग कर रहा हो। इनके असामान्य रूप से छोटे और चिकने फर इन्हें ऊष्मा प्रदान कर ठंड से बचाव करते हैं; इनका फर पीछे की ओर गहरे लाल-भूरे रंग का हो सकता है, जबकि नीचे का भाग हल्के भूरे रंग का होता है।

परिवार समूह (romp) मे विचरण करते ऊदबिलाव (फोटो: डॉ. कृष्णेन्द्र सिंह नामा)

स्मूद कोटेड ओटर समूह में रहने वाले जीव हैं जो तीन-चार संतानों के साथ एक जोड़े का छोटा परिवार समूह (romp) बनाकर रहते हैं। इनके एक समूह में 4 से 11 ऊदबिलाव हो सकते हैं। समूह के नर ऊदबिलाव को dogs / boars कहा जाता है, मादा को bitches या sows कहा जाता है, और उनकी संतानों को pups कहा जाता है। ऊदबिलाव का संचय (copulation) पानी में होता है जो एक मिनट से भी कम समय तक रहता है।जिन क्षेत्रों में खाद्य आपूर्ति पर्याप्त है, वे पूरे वर्ष प्रजनन करते हैं; लेकिन जहां ऊदबिलाव पर्याप्त जल के लिए मानसून पर निर्भर हैं वहाँ प्रजनन अक्टूबर और फरवरी के बीच होता है। मादा ऊदबिलाव (bitches) कि गर्भावधि 60-63 दिनों कि होती है जिसके बाद ये एक बार में 4-5 पिल्ले पैदा करते हैं। मादाएँ अपने बच्चे को पानी के पास एक बिल में जन्म देती हैं और उनकी परवरिश करती हैं। जन्म के समय पिल्ले अंधे और असहाय होते हैं और इनकी आँखें 10 दिनों के बाद खुलती हैं। पिल्लों को लगभग तीन से पांच महीने तक भोजन समूह के वयस्कों द्वारा उपलब्ध करवाया जाता है। वे लगभग एक वर्ष की उम्र में वयस्क आकार तक पहुंचते हैंऔर दो या तीन साल में यौन परिपक्वता प्राप्त करते हैं।

ऊदबिलाव एक मछली के शिकार के साथ (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव, मगरमच्छ और फिशईगल के साथ जलीय खाद्य श्रृंखला में सबसे ऊपर हैं। ऊदबिलाव के लिए नदी में पाई जाने वाली बड़ी मछलियाँ, कैट्फिश, आदि पसंदीदा भोजन है। रावतभाटा के आस-पास के गांवों में मछली पालन के उद्देश्य से लायी गई मछलियों की एक विदेशी प्रजाति तिलापिया (Tilapia) संयोगवश चम्बल के नदी तंत्र में शामिल हो गयी और यहाँ की स्थानीय प्रजातियां के लिए संकट बन गई। जहाँ एक ओर तिलापिया के कारण मछलियों कि स्थानीय प्रजातियाँ संकट में है वही दूसरी ओर इस क्षेत्र में यह ऊदबिलाव का प्रमुख आहार भी है। मछलियों के अलावा ये चूहे, सांप, उभयचर और कीड़े आदि का शिकार भी करते हैं जो कि इनके आहार का एक छोटा सा हिस्सा बनाते हैं। ये अकेले या समूह में घेरा डालकर मछलियों का शिकार करते हैं।

चट्टानों और वनस्पतियों पर अपने पूरे समूह के साथ पेशाब और मल (spraint) करके अपने क्षेत्र को चिह्नित करते ऊदबिलाव (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव रेतीले रिवर बैंक पर आराम करते हैं और पेड़ों की जड़ों के नीचे या बोल्डर के बीच एक छोटी सी मांद बनाकर रहते हैं जिनमें अनेक निकास होते हैं। कोटा से रावतभाटा के बीच चम्बल नदी में ऊदबिलावों की स्वस्थ प्रजनन आबादी सुबह और शाम के घंटों में सक्रिय रूप से देखी जा सकती है। आमतौर पर ये दिन के दौरान, दोपहर में थोड़े आराम के साथ, सक्रिय रहते हैं। समूह में जब ये नदी में बार-बार गोता लगा बाहर निकलते हैं तो अक्सर उनके मुंह में एक मछली होती है इस दौरान उनकी धनुषाकार पीठ एक छोटी डॉल्फ़िन जैसा प्रभाव पैदा करती है जिसे देखना एक अलग रोमांच पैदा करता है। ऊदबिलाव चट्टानों और वनस्पतियों पर अपने पूरे समूह के साथ पेशाब और मल (spraint) करके अपने क्षेत्र को चिह्नित कर घुसपैठियों को दूर रखते हैं। झुण्ड में मस्ती करने वाले जानवर होने के नाते, वे लगातार एक-दूसरे के साथ ऊँची-ऊँची चीखो के माध्यम से संवाद करते रहते हैं। समूह में कई बार इन्हें अन्य जीवों को चंचलता पूर्वक पीछा करते देखा गया है। कोटा के वन्यजीव फोटोग्राफर बनवारी यदुवंशी बताते हैं कि रावतभाटा में ऊदबिलावों द्वारा कुत्तों के समूह का पीछा और इसके प्रतिकूल कुत्तों द्वारा ऊदबिलाव का चंचलता पूर्वक पीछा करना अक्सर देखा जा सकता है। कई बार इन्हें मगरमच्छों को परेशान करते भी देखा गया है।

रावतभाटा मे अक्सर कुत्तों के साथ चंचलतापूर्वक संघर्ष करते देखे जाते ऊदबिलाव (फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

ऊदबिलाव मानवीय हस्तक्षेप पसंद नहीं करते, अक्सर मनुष्यों से शर्माते हैं और मानवीय गतिविधि होने पर दूर चले जाते हैं। लेकिन ऊदबिलाव द्वारा समझदारी दिखाने के बावजूद मनुष्य उनके जीवन में वर्षों से हस्तक्षेप कर उनके आशियाने उजाड़ रहा है। मानवीय हस्तक्षेप के कारण ही आज दुनिया भर से ऊदबिलाव के 13 प्रजातियों में से 7 संकटग्रस्त हैं, जिनमें से तीन भारत में पाए जाते हैं। स्मूद कोटेड ओटर के अलावा दो और प्रजातियां, यूरेशियन ओटर, एशियन स्मॉल क्लाव्ड ओटर, हमारे देश में मौजूद है।

भारत में पाए जाने वाले ऊदबिलाव की तीनों प्रजातियाँ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम से सुरक्षित हैं। स्मूथ कोटेड ओटर को इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) द्वारा ‘Vulnerable’के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-II के तहत संरक्षित है। लेकिन फिर भी ये अपनी घरेलू सीमा – दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया – में सुरक्षित नहीं हैं, और इनकी संख्या उन मुद्दों के कारण कम हो रही है जिनसे सभी लोग परिचित हैं, शिकार। इनका शिकार भी उन्हीं लोगों द्वारा किया जाता है जो बाघों और तेंदुओं को फँसाते हैं, मारते हैं, और विदेशों में बेचते हैं।

2014 में IOSF (International Otter Survival Fund) द्वारा ऊदबिलाव के गैर-कानूनी व्यापार पर जारी एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर भारत से जब्त किए गए जंगली जानवरों के खाल में से लगभग 20-30% खाल ऊदबिलाव के होते हैं। ऊदबिलाव के खाल (pelts) कि तस्करी तिब्बत और चीन के अवैध फर बाजारों के लिए कि जाती है। ओटरफर को इसकी शानदार मोटाई (650,000 बाल प्रति वर्ग इंच) की वजह से उच्च गुणवत्ता का माना जाता है और इसका उपयोग कोट, जैकेट, स्कार्फ और हैंडबैग बनाने के लिए किया जाता है। यह अनुमान है दुनिया की 50% ओटर स्किन भारत में उत्पन्न होती हैं, जो पूरी तरह से अवैध है। वास्तव में चीन ने आखिरी बार 1993 वैध तरीके से ऊदबिलावों के खाल का आयात किया था। हालांकि, पाकिस्तान, तुर्की और अफगानिस्तान से प्राप्त खाल भी बहुत मूल्यवान हैं लेकिन यह कहा जाता है कि सबसे अच्छा जल रोधक ओटर खाल भारत और पाकिस्तान से प्राप्त होता है। वर्तमान के व्यापक ऑनलाइन व्यापार ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है।

मछली के जाल मे फंसा ऊदबिलाव(फोटो: श्री बनवारी यदुवंशी)

खाल के अलावा ऊदबिलाव के शरीर के अंगों के “पारंपरिक” चिकित्सा में इस्तेमाल होने की भी खबरें हैं, ओटर जननांगों, खोपड़ी और अन्य शरीर के अंगों को पीसकर पारंपरिक दवाओं के घटक के रूप में उपयोग किया जाता है। ओटर के वसा से निकाले गए ऑटर ऑयल भी परंपरिक दवाओं के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

ऊदबिलाव के आवास की हानि भी एक गंभीर समस्या है, इनके आवास को मनुष्य अपने तरीके से उपयोग, बस्तियां बसाने, कृषि और जल-विधयुत परियोजनाओं के लिए परिवर्तित कर नुकसान पहुँचा चुका है। भूमि उपयोग परिवर्तन के साथ ही नदी तंत्र को क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन और ऑर्गनो फॉस्फेट जैसे कीटनाशकों द्वारा प्रदूषित किया जा रहा जिससे कि ऊदबिलाव के आधार शिकार कम होते जा रहे हैं। इसके अलावा बंगाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान के कई क्षेत्रों में ऊदबिलाव का उपयोग मछलियों को पकड़ने के लिए भी किया जाता है। मछुवारे ऊदबिलावों को रस्सी से बांध कर नाव के दोनों किनारों से नदी में नीचे तक भेजते है जिसकी वजह से मछलियाँ ऊपर कि तरफ उनके द्वारा बिछाए गए जाल में आकार फंस जाती है।

राजस्थान में चंबल किनारे, सर्दियों में जब ऊदबिलाव बच्चे पालने के दौरान सबसे ज्यादा असहाय होते हैं। इस मौसम के दौरान, वे मनुष्यों द्वारा फसलों की कटाई और नदी के चट्टानी हिस्सों के साथ लकड़ी हटाने से परेशान रहते हैं और विशेष रूप से जलीय कृषि स्थलों पर ऊदबिलाव अंधाधुंध मारे जाते हैं।

नियत डाक टिकट के नौवें संस्करण मे जारी डाक टिकट

ऊदबिलाव नदी तंत्र के अच्छे पारिस्थितिक स्वास्थ्य के संकेतक हैं जिनके लुप्त होने के पर्यावरण पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो सकता है। हाल ही में (2018) कर्नाटक सरकार ने तुंगभद्रा नदी के 34 किमी. क्षेत्र को देश का पहला ओटर रिजर्व घोषित कर देश में ओटर संरक्षण की शुरुआत की है। दुर्भाग्यवश, विडंबना यह है कि ऊदबिलाव के लुप्तप्राय और अत्यधिक संरक्षित होने के वावजूद इनके वास्तविक सुरक्षा के लिए ना ही कोई नीति है और ना ही कोई कार्यक्रम है।

 

References:

  1. Hussain, Syed Ainul. (1993). Aspects of the ecology of smooth coated Indian otter Lutra perspicillata, in National Chambal Sanctuary.Shodhganga: a reservoir of Indian theses @ INFLIBNET.http://hdl.handle.net/10603/58828
  2. Chackaravarthy, SD, Kamalakannan, B and Lakshminarayanan, N (2019). The Necessity of Monitoring and Conservation of Smooth-Coated Otters (Lutrogale perspicillata) in Non-Perennial Rivers of South India. IUCN Otter Spec. Group Bull. 36 (2):83 – 87. https://www.iucnosgbull.org/Volume36/Chakaravarthy_et_al_2019.html
  3. IOSF, (2014). A Report by The International Otter Survival Fund. https://www.otter.org/Public/AboutOtters_OtterSpecies.aspx?speciesID=11
  4. Nawab, A. (2013). Conservation Prospects of Smooth-coated Otter Lutrogale perspicillata (Geoffroy Saint-Hilaire, 1826) in Rajasthan. Springer Link. https://link.springer.com/chapter/10.1007%2F978-3-319-01345-9_13
घास के मैदान और शानदार बस्टर्ड प्रजातियां

घास के मैदान और शानदार बस्टर्ड प्रजातियां

भारत में मूलरूप से तीन स्थानिक (Endemic) बस्टर्ड प्रजातियां; गोडावण, खड़मोर और बंगाल फ्लोरिकन, पायी जाती हैं तथा मैकक्वीनस बस्टर्ड पश्चिमी भारत में सर्दियों का मेहमान है, परन्तु घास के मैदानों के बदलते स्वरुप के कारण यह सभी संकटग्रस्त है। वहीँ इनके आवास को बंजर भूमि समझ कर उनके संरक्षण के लिए राष्ट्रिय स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे है। राजस्थान इनमें से तीन बस्टर्ड प्रजातियों के लिए महत्वपूर्ण स्थान है

आज भी मुझे अगस्त 2006 का वह दिन याद है, जब एक उत्सुक पक्षी विशेषज्ञ मेरे दफ्तर में पहुंचा और बड़े ही उत्साह से उसने मुझे प्रतापगढ़ से 15 किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव करियाबाद में “खड़मोर” (लेसर फ्लोरिकन) के आगमन की खबर दी। प्रतापगढ़, राजस्थान के दक्षिणी भाग में स्थित एक छोटा शहर और जिला मुख्यालय है। भूगर्भिक रूप से यह मालवा पठार का हिस्सा है और इसके अवनत परिदृश्य के कारण काफी दर्शनीय है। क्योंकि मैं उस क्षेत्र में प्रभागीय वन अधिकारी के रूप में नियुक्त हुआ था, इसलिए मुझे विशेष रूप से बरसात के दौरान करियाबाद और रत्नीखेरी क्षेत्रों में लेसर फ्लोरिकन के देखे जाने के बारे में बताया जाता था।

मानसून की शुरुआत के बाद से ही, मैं इस खबर का बेसब्री से इंतजार कर रहा था और तुरंत मैं इस रहस्य्मयी बस्टर्ड को देखने के लिए करियाबाद इलाके की सैर के लिए रवाना हो गया। मैं बड़ी ही उत्सुकता से हरे-भरे घास के मैदान की आशा कर रहा था, जो मेरे किताबी ज्ञान के कारण एक सैद्धांतिक फ्लोरिकन निवास स्थान के रूप में मेरी कल्पना में था; इसके बजाय मुझे चरागाह व्फसलों के खेतों के बीच में स्थित घास के मैदानों के खण्डों में प्रवेश कराया गया। बीट ऑफिसर शामू पहले से ही वहां मौजूद था और उसने मुझे बताया कि उसने अभी-अभी फ्लोरिकन की आवाज सुनी थी। हवा में उड़ते हुए पक्षी की आवाज़ को सुनने के लिए हम चुपचाप खड़े हो गए।

बस कुछ ही मिनटों में शामू चिल्लाया, “वहाँ से आ रहा है।” मुझे तब एहसास हुआ कि यह वही आवाज़ थी जिसे मैंने पहले गलती से एक मेंढक की आवाज समझा था और यह पहली बारी थी जब मैंने लेसर फ्लोरिकन की आवाज़ सुनी। एक मिनट बाद शामू फिर चिल्लाया, “हुकुम, वो रहा।” मैंने उस तरफ अपनी दृष्टि डाली और पूछा, “कहाँ?” “हुकुम, अभी कूदेगा”, शामू ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया। तभी, अचानक, उसने बड़ी-बड़ी घासों से ऊपर उठते हुए अपनी छलांग लगाने की कला का प्रदर्शन किया- ये देख मेरा दिल मानो उत्साह से एक बार धड़कना ही भूल गया हो। मैं एक घंटे के लिए उसके छलांग लगाने के व्यवहार को देखकर रोमांचित हो गया और अपने कैमरे के साथ एक जगह पर बैठ गया। एक उछलते-कूदते फ्लोरिकन को देखना, मेरे जीवन के सबसे मंत्रमुग्ध कर देने वाले क्षणों में से एक था जो की मेरे लिए, जंगल में एक बाघ को देखने से भी ज्यादा सम्मोहक था।

छलांग लगाते लेसर फ्लोरिकन (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

भारतीय उपमहाद्वीप के स्थानिक, लेसर फ्लोरिकन (Sypheotides indica), एक लुप्तप्राय प्रजाति है जो मुख्यरूप से मानसून के मौसम के दौरान उत्तरी-पश्चिमी भारत में देखी जाती है, जहां यह मानसून के दौरान प्रजनन करती है। स्थानीय रूप से “खड़मोर” कहलाये जाने वाला, लेसर फ्लोरिकन या “लीख”, भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाने वाले बस्टर्ड (Family Otididae, Order Gruiformes) की छह प्रजातियों में से एक है। यह सभी बस्टर्ड में सबसे छोटा होता है तथा इसका वज़न मुश्किल से 510 से 740 ग्राम होता है। घास के मैदान इसका प्राथमिक प्रजनन स्थान है जहाँ इसे प्रजनन के समय में पर्याप्त ढकाव उपलब्ध होता है। जार्डन और शंकरन अपने लेख में लिखते है की लेसर फ्लोरिकन प्रजनन काल के दौरान, पूर्वी राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी मध्य प्रदेश के उन क्षेत्रों में इकट्ठा होते है जहाँ अच्छी वर्षा होती है। किसी विशेष क्षेत्र में इसका आगमन और प्रजनन सफलता पूरी तरह से बारिश की मात्रा और वितरण पर निर्भर करता है, जो कि इसके पूरे प्रजनन क्षेत्र में अनिश्चित है।

नर लेसर फ्लोरिकन की छलांग, इस बस्टर्ड की विशिष्ट विशेषता है। नरों द्वारा लगाए जाने वाली छलांग उनके प्रजनन काल के आगमन का संकेत देती है। नर एक चयनित स्थान पर खड़े होकर, चारों ओर देखता है और 1.5 से 2 मीटर की ऊंचाई तक कूदता है। एक नर लेसर फ्लोरिकन एक दिन में कम से कम 600 बार तक छलांग लगा सकता है। नरों द्वारा यह प्रदर्शन अन्य नरों को उसके क्षेत्र में घुसने से रोकने तथा संभोग के लिए मादाओं को बुलाने में मदद करता है। कूदते समय, यह एक मेंढक जैसी क्रॉकिंग कॉल भी करता है, जो 300 से 500 मीटर की दूरी सुनाई देती है और हवा का एक झोंका इस ध्वनि को एक किलोमीटर से भी अधिक दुरी तक लेजा सकता है।

मैंने इस लुप्तप्राय प्रजाति पर नज़र रखने के लिए हर मानसून में करियाबाद के घास के मैदानों और प्रतापगढ़ के हर अन्य क्षेत्रों की अपनी यात्रा जारी रखी। परन्तु हर गुजरते साल के साथ ये घास के मैदान फसल के खेतों के दबाव से सिकुड़ रहे थे, जिसके कारण फ्लोरिकन की उपस्थिति व् उनका दिखना कम हो रहा था। एक ही स्थान पर आबादी की घटती प्रवृत्ति ने मुझे पश्चिमी भारत में इसकी संपूर्ण वितरण रेंज में एक सर्वेक्षण करने के लिए मजबूर किया, जिसके परिणाम स्वरूप 2010 से 2012 तक अगस्त और सितंबर के महीनों में कुल तीन क्षेत्र सर्वेक्षण कि ये गए। वर्तमान में, पक्षियों और वन्यजीव प्रेमियों के लिए बहुत कम ऐसी जगहे है जहाँ मानसून के दौरान इस पक्षी को देखा जा सकता है, हालांकि कभी-कभी कई अन्य क्षेत्रों से भी फ्लोरिकन के देखे जाने की रिपोर्टें मिलती हैं।

किसी समय पर पूरे देश में वितरित होने वाला लेसर फ्लोरिकन, आज केवल कुछ ही क्षेत्रों जैसे राजस्थान के सोनखलिया, शाहपुरा, करियाबाद; पूर्वी मध्य प्रदेश में सैलाना, सरदारपुरा अभ्यारण्य और पेटलाबाद ग्रासलैंड; रामपुरिया ग्रासलैंड, वेलावदार राष्ट्रिय उद्यान, कच्छ के छोटा रण और गुजरात में भुज के नालिया ग्रासलैंड में देखा जाता है। इन घास के मैदानों में सर्वेक्षणों से पश्चिमी भारत में लेसर फ्लोरिकन की उपस्थिति का भी पता चला है। इसके अलावा, महाराष्ट्र के अकोला क्षेत्र से भी फ्लोरिकन की सूचना मिली है।

राजस्थान के अजमेर जिले के नसीराबाद शहर के पास स्थित सोनखलिया क्षेत्र, लेसर फ्लोरिकन की संख्या में वृद्धि और अच्छे से दिखने के कारण, तेजी से पक्षी और वन्यजीव प्रेमियों के लिए एक पसंदीदा स्थान के रूप में उभर रहा है। लगभग 400 वर्गकिमी के क्षेत्र के साथ, सोनखलिया लगभग 300 प्रवासी फ्लोरिकन के लिए एक आकर्षक स्थान बन गया है तथा वर्ष 2014 में, इस क्षेत्र से लगभग 80 नर फ्लोरिकन की उपस्थिति दर्ज की गई थी। इस क्षेत्र में वर्ष प्रतिवर्ष पर्यटकों की संख्या कई गुना बढ़ती जा रही है – 2011 में 20 बर्डर्स से शुरू होकर, यह संख्या 2014 के मानसून के दौरान लगभग 150 बर्डर्स तक बढ़ गई है। कृषि क्षेत्रों से घिरे हुए ये घास के मैदान, दुनिया में लेसर फ्लोरिकन की सबसे बड़ी आबादी का आवास स्थान है। अपने गैर-संरक्षित क्षेत्र की स्थिति के कारण और घना वन क्षेत्र नहीं होने के कारण, इस कूदते –फाँदते सुन्दर पक्षी को देखने के लिए बर्डर्स का मनपसंद गंतव्य हैं। वन विभाग के राजेंद्र सिंह और गोगा कुम्हार इस क्षेत्र के असली नायक हैं जो इस परिवेश में इस पक्षी की निगरानी और सुरक्षा का कार्य कर रहे हैं।

घास के मैदानों में लेसर फ्लोरिकन (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

हालांकि प्रतापगढ़ का करियाबाद-बोरी इलाका भी स्थानीय रूप से लेसर फ्लोरिकन के दर्शन के लिए जाना जाता था, परन्तु घास के मैदानों के कृषि क्षेत्रों में तेजी से रूपांतरण के परिणाम स्वरूप यह पक्षी स्थानीय रूप से विलुप्त हो गया है। मालवा क्षेत्र के सैलाना, सरदारपुरा, पेटलाबाद और पमपुरिया घास के मैदानों से अभी भी फ्लोरिकन की उपस्थिति की खबरें आती रहती हैं। पिछले कुछ वर्षों में तेजी से भूमि रूपांतरण और बदलते कृषि स्वरुप के बाद, नालिया घास के मैदानों में फ्लोरिकन के दिखने में अचानक से कमी आई है। हालांकि वेलावादर में फ्लोरिकन की आबादी ध्यान देने योग्य है क्योंकि कम से कम 100 फ्लोरिकन की आबादी का समर्थन करने वाला यह लेसर फ्लोरिकन के लिए एकमात्र शेष प्राकृतिक परिवेश है।

पश्चिमी भारत, दो अन्य बस्टर्ड, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (GIB) और मैकक्वीनस बस्टर्ड के लिए भी जाना जाता है। स्थानीय रूप से गोडावन, जिसे ग्रेट इंडियन बस्टर्ड कहा जाता है, राजस्थान का राज्य पक्षी भी है। लगभग 50-150 पक्षियों की विश्वव्यापी घटती आबादी के कारण, यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त पक्षी है जो थार, नालिया (गुजरात) और नानज (महाराष्ट्र) के घास के मैदान में जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। आज थार मरुस्थल के कुछ छोटे-छोटे भाग गोडावन का एक मात्र निवास स्थान हैं जो वर्तमान में इसकी सबसे बड़ी प्रजनन आबादी का समर्थन करता हैं। इसके वितरण रेंज में तेजी से गिरावट ने दुनिया भर में वन्यजीव विशेषज्ञों, प्रबंधकों, पक्षी विज्ञानियों और पक्षी प्रेमियों को चिंतित कर दिया है, हालांकि स्वस्थानी संरक्षण रणनीतियों (in-situ conservation strategies) को विभिन्न राज्यों ने अपनाया और संरक्षण वादियों की याचनाओं द्वारा कुछ घास के मैदानों को 1980 के दशक की शुरुआत में संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में भी शामिल किया गया।

दुर्भाग्य से, ये सभी उपाय गोडावण की आनुवंशिक रूप से वर्धनक्षम (Viable) और जनसांख्यिकी (Demography) रूप से स्थिर आबादी को बनाए रखने में विफल हे। अब बची हुई यह छोटी सी आबादी भी आनुवांशिक, पर्यावरणीय और जनसांख्यिकीय कारकों के कारण विलुप्त होने की कगार पर है। शिकार, घास के मैदानों का रूपांतरण, प्रजनन । जैसलमेर से लगभग 55 किमी दूर, डेजर्ट नेशनल पार्क इस खूबसूरत पक्षी के लिए एक प्राकृतिक आवास है जहाँ सुदाश्री व् सम  क्षेत्र में इसको देखा जा सकता है, इसके आलावा यह कभी-कभी राष्ट्रीय उद्यान के बाहर सल्खान और रामदेवरा के पास भी देखा जा सकता है।

एक शीतकालीन प्रवासी; मैकक्वीनस बस्टर्ड, गोडावण के निवास स्थान में पाया जाता है। यह एक सुंदर और बहुत ही शर्मीला पक्षी है इसीलिए इस पक्षी को देखने के लिए धैर्य और तेज दृष्टि की आवश्यकता होती है। अभी भी पाकिस्तान सहित कई देशों में इस का शिकार किया जाता है, यह व्यापक रूप से कई लोगों द्वारा गेम बर्ड के रूप में शिकार किया जाता था, विशेषरूप से अरब के शेखों ने, इसका 1970 के दशक के अंत तक जैसलमेर में लगातार शिकार किया।

शीतकालीन प्रवासी मैकक्वीनस बस्टर्ड (फोटो: जी.एस. भरद्वाज)

इन तीन बस्टर्ड्स के अलावा एक और बस्टर्ड, बंगाल फ्लोरिकन है जो ज्यादातर शुष्क और अर्ध-घास के मैदानों में रहते हैं तथा भारत के तराई क्षेत्रों में पाए जाते है। उत्तर प्रदेश में लग्गा-बग्गा घास के मैदान पीलीभीत और दुधवा टाइगर रिजर्व, असम में मानस टाइगर रिजर्व और काजीरंगा घास के मैदान, इस पक्षी के आवास स्थान हैं। लेसर फ्लोरिकन की तरह, यह भी अपने शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। परन्तु इसमें एक अंतर है, जहाँ लेसर फ्लोरिकन लंबवत छलांग लगता है वहीँ बंगाल फ्लोरिकन संभोग प्रदर्शन में 3-4 मीटर ऊंची उड़ान भरता है फिर थोड़ा नीचे होते हुए दुबारा ऊपर उठता है। निचे उतरते समय इसकी गर्दन पेट के पास तक घूमी रहती है। इसकी यह उड़ान चिक-चिक-चिक की कॉल और पंखों की तेज आवाज के साथ होती है।

विश्व में बस्टर्ड की कुल 24 प्रजातियां है, तथा जिनमे से तीन प्रजातियां मुख्यरूप से भारतीय ग्रासलैंड में पायी जाती हैं – ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, लेसर फ्लोरिकन और बंगाल फ्लोरिकन। 30 से अधिक देशों में पाए जाने वाला “मैकक्वीनस बस्टर्ड”, सर्दियों के दौरान पश्चिमी भारत में आते है। भारत से इन बस्टर्ड का गायब होना दुनिया के नक्शे से इनके विलुप्त होने का संकेत देगा। ग्रासलैंड प्रजातियों के रूप में, बस्टर्ड्स की उपस्थिति घास के मैदानों के संतुलित पारिस्थितिक तंत्र का संकेत देती है, जो दुर्भाग्य से, अक्सर नज़र अंदाज किये जाते है और यहां तक इनकों एक बंजर भूमि भी माना जाता है। इसके विपरीत, ये घास के मैदान न केवल कुछ वन्यजीव प्रजातियों के लिए घर हैं, बल्कि वे स्थानीय समुदायों की अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्योंकि यह ग्रासलैंड्स पशुधन की चराई के लिए चारा उपलब्ध करवाते हैं। विश्व की कुल पशुधन आबादी का लगभग 15-20 प्रतिशत भाग भारत में रहता है और कोई भी घास के मैदानों पर इनकी निर्भरता का अंदाजा लगा सकता है।

वैज्ञानिक तरीकों से ग्रासलैंड प्रबंधन की कमी, निवास स्थान के लगातार घटने, घास के मैदानों पर वृक्षारोपण गतिविधियाँ, बदलते लैंडयुस पैटर्न, कीटनाशक, आवारा कुत्ते- बिल्लियों द्वारा घोंसलों का नष्ट करना, आक्रामक वनस्पतिक प्रजातियाँ, अंधाधुंध विकास गतिविधियाँ, वन्यजीव संरक्षित क्षेत्र में अपर्याप्त कवरेज और लोगो में ज्ञान की कमी, लेसर फ्लोरिकन जैसी प्रजातियों के लिए बड़े खतरे हैं। संभावित घास के मैदानों में चराई और आक्रामक वनस्पतिक प्रजातियों से निपटने के अलावा, बस्टर्ड्स के प्रजनन स्थानों को कुत्तों, बिल्लियों और कौवे जैसे अन्य शिकारियों से बचाने की सख्त जरूरत है। इसके अलावा, बस्टर्ड प्रजातियों पर शोध और निगरानी के साथ-साथ सार्वजनिक जागरूकता और संवेदीकरण जैसे कार्यक्रम भी शुरू किये जाने चाहिए।

वर्तमान में, ग्रासलैंड प्रबंधन की एक राष्ट्रीय नीति की तत्काल आवश्यकता है जो कि ग्रासलैंड पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा प्रदान की गई पारिस्थितिक सेवाओं की सराहना करे। मौजूदा संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क में और अधिक बस्टर्ड निवास स्थानों को शामिल करना और स्थानीय समुदायों को इसकी निगरानी व् संरक्षण  कार्यों में साथी बनाना इसके संरक्षण में एक बड़ी सफलता हो सकती है। बस्टर्ड को बचाने के लिए किए गए हर प्रयास से हमारे ग्रासलैंड और उससे जुड़े कई अन्य जींवों को बचाया जा सकता है, क्योंकि यदि बाघ वन पारिस्थितिकी तंत्र की नब्ज है, तो बस्टर्ड घास के मैदान के पारिस्थितिकी तंत्र की नब्ज है।

(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद मीनू धाकड़ द्वारा)

राजस्थान की प्रथम कैमरा ट्रैप फोटो

राजस्थान की प्रथम कैमरा ट्रैप फोटो

क्या आपने कभी सोचा है आजादी से पूर्व में राजस्थान में कैमरा ट्रैप फोटो लिया गया था ? आइये जानिए कैमरा ट्रैप के इतिहास एवं उससे जुड़े कुछ रोचक तथ्यो के बारे में…

वन्यजींवों के संरक्षण में वन्यजींवों की संख्या का अनुमान लगाना एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है। भारत में वर्ष 2006 के बाद से बाघ अभयारण्य में बाघों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए कैमरा ट्रैप का उपयोग होने लगा।  आज कैमरा ट्रैप के उपयोग से संख्या का अनुमान अधिक सटीक और बिना इंसानी दखल के होने लगा है। कैमरा ट्रैप के इस्तेमाल से न केवल वन्यजींवों की संख्या का अनुमान बल्कि इससे उनके संरक्षण के लिए कई महत्वपूर्ण जानकारियां जैसे जंगल में शिकारियों व् अवैध कटाई के परिणाम भी प्राप्त किये जाते है।

वर्तमान में प्रयोग में लिया जाने वाला कैमरा ट्रैप दूर से काम करने वाली मोशन सेंसर बीम तकनीक पर आधारित है, इन अत्याधुनिक उपकरण में से निकलने वाली इंफ़्रारेड बीम के सामने यदि कोई भी गतिविधि होती है तो तस्वीर कैद हो जाती है। परन्तु पहली बार जब कैमरा ट्रैप के अविष्कार कर्ता जॉर्ज शिरस-III  ने सन 1890 में इसका उपयोग किया तब वह एक ट्रिप वायर और एक फ़्लैश लाइट का इस्तेमाल करके बनाया गया था।  इनसे लिए गए फोटो 1906 में नेशनल जियोग्राफिक मैगज़ीन में प्रकाशित हुए थे। भारत में ऍफ़ डब्लू  चैंपियन ने 1926 में राजाजी नेशनल पार्क में टाइगर की कैमरा ट्रैप से पहली पिक्चर लेने में सफलता प्राप्त की। ऍफ़ डब्लू चैंपियन, प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट के दोस्त एवं संरक्षक थे और उन्होने ही जिम कॉर्बेट को बन्दुक की जगह कैमरा पकड़ने की सलाह दी थी। जिसके बाद जिम कॉर्बेट एक वन्यजीव प्रेमी के रूप में प्रसिद्ध हुए।

आधुनिक कैमरा ट्रैप लगाते हुए एक स्वयंसेवक

परन्तु क्या आप जानते है?  राजस्थान में संयोजित तरह से आधुनिक कैमरा ट्रैप का इस्तेमाल डॉ जी वी रेड्डी के दिशा निर्देशन में  रणथम्भोरे रास्ट्रीय उद्यान  में सन 1999 में किया गया था। उन्होने पहली बार डॉ उल्हास कारंथ के सहयोग से बाघों की संख्या का अनुमान लगाने का प्रयास किया। परन्तु इतिहास के अनछुए पन्नो में प्रमाण मिलते है की राजस्थान में सबसे पहले कैमरा ट्रैप का इस्तेमाल चितोड़गढ़ में किया गया था। आज़ादी से पहले देश में ब्रिटिश लोगो को खुश रखने के लिए यहाँ के राजा-महाराजा, वन्यजीवों के शिकार के लिए विशेष आयोजन किया करते थे। परन्तु इन्ही दिनों की एक विशेष फोटो अनायाश ध्यान आकर्षित करती है। वर्ष 1944 में चित्तोड़ में एक तालाब पर आने वाले बाघ की फोटो लेने में जब सफलता हासिल नहीं हुई तो यहाँ सबसे पहले कैमरा ट्रैप का इस्तेमाल करके टाइगर का चित्र लिया गया। जिसका साक्षी  बीकानेर का लक्ष्मी  विल्लास होटल हे, जहाँ यह फोटो आज भी लगी हुई है और यदि ध्यान से देखा जाये तो टाइगर के पीछे के पैर के पास एक खींची हुई रस्सी या तार देखी जा सकती है जो दाये और बाये दोनों हिस्सों में दिखाई देती है।

यह वह दुर्लभ फोटो है जिसे राजस्थान की प्रथम कैमरा ट्रैप फोटो माना जा सकता है

कैमरा ट्रैप फोटो के निचे लिखा विवरण

आजकल कैमरा ट्रैप अत्याधुनिक डिजीटल कार्ड तथा बैटरी द्वारा संचालित फोटो एवं वीडियो दोनों बनाने में सक्षम होते  हैI उस दौर में  कैमरा ट्रैप में प्लेट एवं कालांतर में रील का उपयोग किया जाता था और फोटो को लैब में प्रोसेस होने के बाद ही देखा जा सकता था।

आज डिजिटल कार्ड की बदौलत पलभर में जंगल के अंदर ही मोबाइल में फोटो देखी व् तुरंत साझा की जा सकती है।

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