जानते है किस प्रकार पक्षी समूह “बटनक्वेल” में नर और मादा अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते है…
हम सभी जानते हैं कि, पक्षी जगत में नर, मादा की अपेक्षा अधिक सुंदर और चटकीले रंगों का होता है और प्रजनन काल के दौरान प्रणय (Courtship) का आगाज़ भी नर ही करता है। नर हमेशा मादा के ऊपर अपना दबदबा (Dominance) बनाये रखता है। वहीँ दूसरी ओर मादा धूसर रंगों की होती है ताकि वह खुद को सफलतापूर्वक छुपाये रखते हुए, अंडो को सेह कर चूज़ों का लालन पालन कर सके। परन्तु पक्षी जगत बहुत ही विविधता भरा है और इसमें कुछ पक्षी ऐसे भी पाए जाते हैं जिनमें उल्टा होता है, यानी इनमें नर की भूमिका मादा और मादा की भूमिका नर निभाता है। इनमें मादा ज्यादा सुंदर एवं चटकीले रंगों की होती हैं तो वहीँ दूसरी ओर नर धूसर रंगों के होते हैं और यही नहीं इनमे प्रणय का आगाज़ भी मादा ही करती है। नर अण्डों को सेते व चूज़ों का लालन पालन करते है तथा मादा इलाके पर राज करती है और नर के ऊपर मादा का दबदबा रहता है। यदि कभी नर घोंसले से दूर चला जाए और यह बात मादा को पता चल जाए तो, नर की खैर नहीं। इस तरह के दिलचस्ब व्यवहार वाले पक्षी हैं “बटनक्वेल”। आइए जानते हैं इनके व्यवहार से जुड़े कुछ और रोचक पहलु।
भारत में कई प्रकार के क्वेल अथवा बटेर मिलते है, यह छोटे और ज़मीन पर रहने वाले पक्षियों का एक समूह है। परन्तु इन कई बटेरो में मात्र तीन बटनक्वेल प्रजातियां हैं। यह तीनो प्रजातियां राजस्थान भी पायी जाती हैं; बार्ड बटनक्वेल, येलो लेग्गड बटनक्वेल और स्माल बटनक्वेल। स्थानीय भाषा में इन्हें बटेर के साथ “लवा” भी कहा जाता है। बटनक्वेल को “हेमीपोड” भी कहा जाता है, जो एक ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है “आधा पैर”। यानी इन पक्षियों के पैरों में अंगूठा नहीं होता है, जिसके कारण अपने जीवन में यह कभी भी पेड़ पर नहीं बैठ सकते हैं और अपना पूरा जीवन ज़मीन पर ही बिताते हैं। बटनक्वेल आकार में अन्य बटेर से छोटे होते हैं। अन्य बटेर वे होते हैं जिनके पैरों में अंगूठा होता है परन्तु यह भी ज़मीन पर ही रहते हैं।
मुख्य पहचान बिंदु:
बार्ड बटनक्वेल: गले पर काले रंग का पैच एवं छाती पर काली सफेद धारियां। इसके पैर और चोंच नीले रंग के होते हैं और अक्सर यह जोड़ों में दिखते हैं पर कभी-कभी अन्य बटेर के झुंड मैं भी दिख जाते हैं। (फोटो: धर्म वीर सिंह जोधा )
येलो लेग्गड बटनक्वेल: निचला भाग बादामी रंग का होता है जिस पर काले धब्बे होते है। इसके पैर और चोंच पीले रंग के होते हैं और यह प्रजाति हमेशा जोड़ों में रहती है और कभी भी अन्य बटेर के साथ एकत्रित नहीं होती। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
स्माल बटनक्वेल: इस पक्षी का शरीर रेतीले-भूरे रंग का होता है। माता के पैर धूसर रंग के होते हैं वही नर के पैर हल्के गुलाबी रंग के होते हैं और यह प्रजाति झुंड नहीं बनाती है। (फोटो: श्री राजू करिआ)
बटनक्वेल में प्रजनन :
बटनक्वेल में प्रजनन काल आने पर कोर्टशिप का आगाज़ मादा ही करती है तथा इस समय पर मादा विशेष प्रकार की आवाज़ भी निकालती है। यह आवाज दूसरी मादाओं को चुनौती देने के लिए की जाती है। मादाओं की इन आवाज्ज़ो की भी एक विशेषता है जिसे वर्ष 1879 , में प्रकाशित ऐ.ओ. ह्यूम की पुस्तक “गेम बर्ड्स ऑफ इंडिया बर्मा एंड सैलन” में कर्नल टिकल (Samuel Tickell) बताते हैं कि, जब मादा 50 से 60 मीटर की दूरी से आवाज करती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह एक 2 मीटर दूर हो और जब वह पास होती है तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि वह 50 से 60 मीटर दूर है। और अपनी इसी खूबी से यह पक्षी माहिर शिकारियों को भी चकमा दे देता है।
मादाएँ विशेष आवाज़ निकाल कर एक-दूसरे को चुनौती देती हैं जिसके बाद मादाओं में संघर्ष होता है और विजेता मादा नर के साथ सहवास करती है। सेत स्मिथ (Seth Smith) अपनी पुस्तक “एवीकल्चरल मैगजीन (Vol 1 1903)” में लिखते हैं कि, कई बार मादा नर को भोजन देकर भी अपनी तरफ लुभाती है। सहवास करने के बाद मादा घोंसला बनाकर अंडे देती है और फिर से एक नए साथी की तलाश में निकल जाती है। वहीँ दूसरी ओर नर अंडों को सहता है और चूजों का पालन पोषण भी करता है। यही चीज बटनक्वेल को दूसरे पक्षियों से अलग और अनूठा बनाती है। इस भूमिका के परिवर्तन और मादा का एक ही प्रजनन काल में अलग-अलग नरों के साथ सहवास करना और अलग-अलग घोंसलो में अंडे देना ही पॉलिएंड्री (polyandry) कहलाता है।
बार्ड बटनक्वेल में जब मादा आवाज करती है तो उसका गला और छाती फूल जाता है जैसा आप इस फोटो में देख सकते हैं। (फोटो: श्री धर्म वीर सिंह जोधा )
बार्ड बटनक्वेल में प्रजनन काल अलग-अलग स्थानों के साथ बदलता है और इसमें मादा dr-r-r-r और hoon-hoon जैसी आवाज़ निकालती है और आवाज़ निकालते समय उसका गला और छाती फूल जाती है। येलो लेग्गड़ बटनक्वेल में प्रजनन मार्च और सितंबर के बीच होता है, इनमें मादा hoot-hoot जैसी आवाज निकालती है। स्माल बटनक्वेल में प्रजनन कॉल जून से सितंबर तक रहता है और इस दौरान मादा गहरी hoon-hoon-hoon जैसी आवाज निकालती है।
घोंसला:
बटनक्वेल अपना घोंसला घास के मैदानों, छोटी सूखी झाड़ियों वाले इलाकों में सीधे ज़मीन पर या फिर हल्के गहरे गड्ढे में बनाते हैं जो की ऊपर से घास में ढका होता है। इनके घोंसले के चारों तरफ भी झाड़ियां होती है ताकि आसानी से कोई उस तक न पहुंच पाए। ह्यूम अपनी पुस्तक “गेम बर्ड्स ऑफ इंडिया बर्मा एंड सैलन” में बताते हैं कि, बटनक्वेल कभी-कभी घोंसला बनाने के लिए गाय या भैंस के खुर से बने गड्ढे का भी इस्तेमाल कर लेते है और मूंझ या सरपट (Saccharum munja) इनकी पसंदीदा घास होती है।
स्माल बटनक्वेल नर अपने चूज़ों के साथ (फोटो: श्री राजू करिआ)
बार्ड बटनक्वेल कई बार अपना घोंसला मानव उपस्थिति वाले इलाकों में भी बना लेती है जिससे यह पता चलता है कि, इन्हें मानव उपस्थिति से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ह्यूम अपनी पुस्तक में बताते हैं कि, एक बार मेरठ में एक मुगल शिकारी ने उन्हें बताया की मादा की अनुपस्थिति में नर घोंसले के आसपास भोजन ढूंढ़ने व खाने लग जाता है परन्तु जैसे ही उसे मादा की आवाज सुनाई पड़ती वह फटाफट घोंसले पर जाकर ऐसे बैठ जाता था जैसे कि कभी वहां से हिला ही न हो। यह वाक्या इनमें मादाओं के दबदबे को दर्शाता है।
येलो लेग्गड बटनक्वेल (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
येलो लेग्गड़ बटनक्वेल का घोंसला स्कूप के आकार का होता है जिसमें घुसने के लिए घास के बीच में से रास्ता होता है। यह एक बार में तीन से चार अंडे देते हैं। सभी बटनक्वेल में नर 12 से 13 दिनों तक अंडों को सहता है। चूज़ों की त्वचा पर पंख अंडे में ही आ जाते हैं जो कि बारीक रोयें जैसे होते हैं और इनके चूजे अंडों से निकलते ही दौड़ लगा सकते हैं। इनका रंग भी इनके आवास के समान होता है और ये अपने आसपास के पर्यावास में ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि एक सरसरी नज़र में तो दिखाई ही न दे। जब इन्हें खतरा महसूस होता है तो चूजे दुबक कर बैठ जाते हैं और यह किसी कंकड़ पत्थर की तरह प्रतीत होते हैं तथा सामने होकर भी सामने नहीं हो जैसे लगते हैं। खतरा टलने के बाद चूजे आवाज करते हैं और इस आवाज को सुनकर पिता इन्हें आसानी से ढूंढ लेता है और यह फिर से एकत्रित हो जाते हैं। इनकी यह खूबियां इन्हें जीवित रहने में मदद करती हैं।
बटनक्वेल, शिकार और कुछ बचाव के तरीके:
वर्ष 1903 में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के “ई.डब्ल्यू . हारपर (E W Harper)” पुस्तक “एवीकल्चरल मैगजीन” में बताते हैं कि, उस समय एक साल में हजारों की तादात में बटनक्वेल और क्वेल कोलकाता के बाजारों में बेचे जाते थे। इन क्वेल को पकड़ने वाले कई सारे पिंजरों में एक-एक बटनक्वेल रखते थे, और जब वह आवाज निकालते तो दूसरे बटनक्वेल इनकी ओर आकर्षित होते। सुबह सूर्योदय से कुछ समय पहले 3-4 शिकारी घास में शोर कर इन सभी बटनक्वेल को जाल की ओर खदेड़ते और साथ ही पिंजरे वाले पक्षियों की आवाज सुनकर बटनक्वेल जाल की ओर बढ़ते जाते और फिर उस में फंस जाते थे। पालतू बटनक्वेल को आहार की तौर पर सादा दाना जैसे कि, बाजरा और पानी दिया जाता था। उस समय बड़ी तादाद में बटनक्वेल पकड़े जाते थे परंतु वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम,1972 के तहत बटनक्वेल के शिकार पर रोक लगा दी गई। आजकल तो क्वेल को मीट और अंडे के लिए पोल्ट्री फॉर्म में पाला जाता है और इससे जंगली बटनक्वेल प्रजातियों का शिकार काफी हद तक कम हो गया है परन्तु आज भी कई जगहों पर स्पीकर से रिकॉर्डेड आवाज निकाल कर बटनक्वेल को आकर्षित करके पकड़ा जाता है।
“ई.डब्ल्यू . हारपर” पुस्तक “एवीकल्चरल मैगजीन” में बताते हैं कि, उस समय एक साल में हजारों की तादात में बटनक्वेल और क्वेल कोलकाता के बाजारों में बेचे जाते थे।
भारत में घास के मैदानों और झाड़ीदार इलाकों को बेकार ज़मीन समझकर तबाह करा जाता है पर असल में यही इलाके क्वेल के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए के लिए आवश्यक हैं। फिलहाल तो आई.यू.सी.एन. सूची के मुताबिक यह खतरे की श्रेणी से बाहर है परंतु इनके आवास खत्म होने के साथ ही यह खतरे की कगार पर पहुंच जाएंगे। इन पक्षियों की और इनके आवासों को सुरक्षा की बहुत जरूरत है क्योंकि यह प्रकृति में बहुत सारे कीटों का नियंत्रण करके मानव समाज को बहुत लाभ पहुंचाते हैं।
बटनक्वेल की इस प्रजाति को पहली बार वर्ष 1789 में, एक जर्मन प्रकृतिविद “जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin)” ने खोजा था।
राजस्थान में बार्ड बटनक्वेल उत्तरी-पश्चिमी रेगिस्तानी इलाके के अलावा सभी जगह पाए जाते हैं तथा इन्हें खेत-खलियान,घास के मैदान और खुले झाड़ीदार इलाकों में रहना पसंद है। भारत के अलावा यह प्रजाति इंडोनेशिया,थाईलैंड,बर्मा और श्रीलंका में भी पायी जाती है।
ऐ ओ हूयूम की पुस्तक “The Game Birds Of India,Burmah& Ceylon ” में प्रकाशित बार्ड बटनक्वेल का चित्र।
इस बटनक्वेल को पहचानने का सबसे विशिष्ट गुण इसके नाम में ही छुपा है और वो है “येलो लेग्गड़” यानी “पीली टाँगे”। अर्थात इस बटनक्वेल की टाँगे पीली होती हैं जिसकी वजह से इसे बाकि बटनक्वेल से अलग पहचाना जा सकता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप दक्षिणी पूर्वी एशिया की स्थानिक प्रजाति है जिसे वर्ष 1843 में, एक अंग्रेज जीव वैज्ञानिक “एडवर्ड ब्लायथ (Edward Blyth)” ने खोजा था। ब्लायथ, कलकत्ता में स्थित एशियाटिक सोसाइटी के संग्रहालय (museum of the Royal Asiatic Society of Bengal) में प्राणी शास्त्र के क्यूरेटर के रूप कार्य करते थे और इस बीच इन्होने पक्षियों की कई नई प्रजातियां खोजी थी।
एवीकल्चरल मैगजीन में प्रकाशित येलो लेग्गड बटनक्वेल का चित्र।
राजस्थान में पाई जाने वाली उप-प्रजाति –Turnix tanki tanki , भारत,पाकिस्तान,नेपाल और अंडमान-निकोबार द्वीप में पाई जाती है। मानसून के दौरान यह प्रजाति दक्षिण से राजस्थान के सूखे इलाकों की तरफ प्रवास करती है जहाँ इसे जून से सितंबर तक देखा जा सकता है। राजस्थान में अभी तक इसे अजमेर,उदयपुर और सवाई माधोपुर में घास के मैदानों में देखा गया है। इसे सूखे छोटी झाड़ियों वाले इलाके पसंद होते हैं |
बटनक्वेल की इस प्रजाति को पहली बार वर्ष 1789 में, एक जर्मन प्रकृतिविद “जोहान फ्रेडरिक गमेलिन (Johann Friedrich Gmelin)” ने खोजा था। यह प्रजाति आकार में तीनों बटनक्वेल में सबसे छोटा होता है। इसकी चाल इंडियन कोरसर जैसी होती है जिसमें यह छोटी-छोटी दौड़ लगाकर चलता है और बीच-बीच में रुक कर आसपास मुआइना करता है और फिर से भागता है।
जॉन गोल्ड की पुस्तक “Birds of Asia” में प्रकाशित स्माल बटनक्वेल का चित्र।
राजस्थान में यह प्रजाति अजमेर, बूंदी और सवाई माधोपुर में देखी गयी है। इन्हे खेत-खलियान, घास के मैदान और छोटी झाड़ियों वाले इलाकों में रहना अधिक पसंद होता है। भारत के अलावा यह मोरक्को,अफ्रीका और इंडोनेशिया तक पाई जाती है। पहले यह स्पेन में भी पाई जाती थी परन्तु अब वहां से विलुप्त हो गई है।
सन्दर्भ:
Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
Birds of Asia a Book by John Gould 1850.
The Avicultural Magazine A Journal by Avicultural Society Volume 1 1903
The Game Birds Of India,Burmah& Ceylon by Hume and Marshall Volume 2 १८७९
वैज्ञानिकों और बाघ प्रेमियों में हमेशा से यह एक चर्चा का विषय रहा है कि, आखिर बाघ का इलाका औसतन कितना बड़ा होता है? इस विषय पर प्रकाश डालते हुए राजस्थान के वन अधिकारियों द्वारा सरिस्का के सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं का एक अध्यन्न कर कई महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया है आइये जानते हैं…
हाल ही में राजस्थान के कुछ वन अधिकारीयों द्वारा बाघों पर एक अध्ययन किया गया है जिसमें अलवर जिले में स्थित “सरिस्का बाघ परियोजना” के बाघ मूवमेंट क्षेत्र (Territory) को मानचित्र पर दर्शाकर तुलना करने का प्रयास किया गया। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य बाघों की गतिविधियों और वितरण सीमा को प्रभावित करने वाले संभावित कारणों को समझना था ताकि बाघों की बढ़ती आबादी के फैलाव और उसके साथ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाओं को कम करने के लिए बेहतर योजनाए भी बनाई जा सके (Bhardwaj et al 2021)।
दअरसल सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है। निगरानी के सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके। नियमित रूप से निगरानी और वैज्ञानिक तरीकों से एकत्रित आंकड़ों की मदद से यहाँ बाघों के स्वभाव एवं पारिस्थितिकी को समझने के लिए विभिन्न प्रकार के शोध भी किये जाते हैं।
सरिस्का अभयारण्य में विभाग द्वारा अधिकतर बाघों को रेडियो कॉलर किया हुआ है तथा इनकी नियमित रूप से निगरानी की जाती है (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
मुख्यत: राजस्थान के अर्ध-शुष्क एवं अरावली पर्वत श्रृंखला का भाग सरिस्का बाघ परियोजना जो कि अलवर जिले में स्थित हैं इसका कुल क्षेत्रफल 1213.31 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ मुख्यरूप से उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन हैं, जिसमें धोक (Anogeissus pendula) सबसे ज्यादा पायी जाने वाली वृक्ष प्रजाति है। इसके अलावा सालार (Boswellia serrata), Lannea coromandelica , कत्था (Acacia catechu), बेर (Zizyphus mauritiana), ढाक (Butea monosperma) और केर (Capparis separia) आदि पाई जाने वाली अन्य प्रजातियां हैं। वन्यजीवों में बाघ यहाँ का प्रमुख जीव है इसके अलावा यहाँ तेंदुआ, जरख, भालू, सियार, चीतल, सांबर, लोमड़ी आदि भी पाए जाते हैं।
सरिस्का में स्थित सूरज कुंड बाउरी (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
वर्ष 1978 में सरिस्का को बाघों की आबादी के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान समझते हुए “बाघ परियोजना (Project Tiger) का हिस्सा बनाया गया था। परन्तु वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा।
सरिस्का में दुबारा बाघों को लाने के लिए, सरिस्का से 240 किलोमीटर दूर राजस्थान के एक और सबसे प्रसिद्ध बाघ अभयारण्य “रणथम्भौर” का चयन किया गया तथा 28 जून 2008 को भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर विमल राज (wing commander Vimal Raj) द्वारा रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में पहली बाघ (ST-1) विस्थापन की प्रक्रिया को Mi-17 हेलीकॉप्टर की मदद से सफल बनाया गया।
उस समय अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।
बाघिन ST9 (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दंश भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और इसके आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय व्यवहार के दबाव में है।
पिछले कुछ वर्षों में यह भी देखा गया है कि, बाघों की बढ़ती आबादी के कारण कुछ शावक अपना क्षेत्र स्थापित करने हेतु अभयारण्य की सीमा को पार कर गाँवों के आसपास चले गए थे ऐसे में बाघों के मानव बस्तियों के आसपास जाने के कारण बाघ-मानवीय संघर्ष की घटनाएं भी हो उतपन्न हो जाती हैं
बाघों की बढ़ती आबादी व इनकी गतिविधियों को देखते हुए, विभाग द्वारा सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं को समझने की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है ताकि यह अनुमान लगाया जा सके की वन क्षेत्र बिना किसी संघर्ष घटनाओं के सफलतापूर्वक कितने बाघों को रख सकता है तथा बढ़ती आबादी के अनुसार उचित उपाय ढूंढे जा सके।
जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
बाघ, पुरे विश्व में बिल्ली परिवार का सबसे बड़ा सदस्य है जो विभिन्न प्रकार के पर्यावासों में रहने के लिए अनुकूल है। इन आवासों में पर्यावरणीय विविधताओं के कारण शिकार की बहुतायत में भी अंतर देखे जाते हैं और इसी कारण बाघों की वितरण सीमा में भी भिन्नता देखी गई है। बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ का अपना एक निर्धारित क्षेत्र (इलाका/Territory) होता है।
वहीँ दूसरी ओर जब हम प्रकाशित सन्दर्भों को देखते हैं तो विभिन्न तरह की बाते सामने आती हैं जैसे कि, जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, आराम, प्रजनन के लिए साथी, रहने के स्थान की तलाश और अन्य कारणों से जुड़ी गतिविधियों के दौरान बाघ इन इलाकों को पार कर दूसरे बाघ के इलाके में चले जाते हैं।
सरिस्का के बाघों की वंशावली:
क्र स
बाघ ID
लिंग
माँ का नाम
जन्म स्थान
वर्तमान स्थिति
इलाके का क्षेत्रफल (वर्ग किमी )
1
ST1
नर
–
रणथम्भौर
मृत
2
ST2
मादा
–
रणथम्भौर
जीवित
19.34
3
ST3
मादा
–
रणथम्भौर
जीवित
172.75
4
ST4
नर
–
रणथम्भौर
मृत
85.4
5
ST5
मादा
–
रणथम्भौर
मृत
51.91
6
ST6
नर
–
रणथम्भौर
जीवित
79.94
7
ST7
मादा
ST2
सरिस्का
जीवित
16.59
8
ST8
मादा
ST2
सरिस्का
जीवित
43.04
9
ST9
मादा
–
रणथम्भौर
जीवित
85.24
10
ST10
मादा
–
रणथम्भौर
जीवित
80.1
11
ST11
नर
ST10
सरिस्का
मृत
57.63
12
ST12
मादा
ST10
सरिस्का
जीवित
50.87
13
ST13
नर
ST2
सरिस्का
जीवित
61.39
14
ST14
मादा
ST2
सरिस्का
जीवित
36.58
15
ST15
नर
ST9
सरिस्का
जीवित
47.67
16
ST16
नर
–
रणथम्भौर
जीवित
–
कई विशेषज्ञों के शोध यह भी बताते हैं कि, नर बाघ का इलाका उसकी ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने से भी काफी ज्यादा बड़ा होता है और ये इसीलिए हैं ताकि बाघ अपने प्रजनन के अवसरों को अधिकतम कर सके। इसी प्रकार के कई तर्क एवं तथ्य संदर्भो में देखने को मिलते हैं।
मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे एक वर्ष (2017 -2018) तक सभी बाघों (उस समय मौजूद कुल 16 बाघों) की गतिविधियों (Movement Pattern) का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों के आधार पर की गई। इसके अलावा सभी बाघों को उनकी उम्र के आधार पर तीन भागों में बांटा गया; शावक (<1.5 वर्ष), उप-वयस्क (1.53 वर्ष) और वयस्क (> 3 वर्ष)। इसके पश्चात सभी बाघों के मूवमेंट क्षेत्रो को मानचित्र पर दर्शाने के साथ तुलना भी की गई।
रेडियो-टेलीमेट्री के महत्त्व को देखते हुए सरिस्का में अब तक नौ बाघ रेडियो कॉलर किये गए हैं जिनमे सात बाघ वे हैं जो रणथम्भोर से लाये गए थे और दो नर बाघ (ST11 और ST13) जो सरिस्का में ही पैदा हुए थे।
ST11 और ST13 के अलावा आज तक सरिस्का में पैदा होने वाले किसी भी बाघ को रेडियो-कॉलर नहीं लगाया गया है क्योंकि ये दोनों बाघ अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान काफी बड़े इलाके और अभयारण्य की सीमा के बाहरी छोर पर घूम रहे थे। ऐसे में इनकी सुरक्षा को देखते हुए इनको रेडियो कॉलर लगाया गया।
इन नौ बाघों के अलावा बाकी सभी बाघों की पगचिन्हों और कैमरा ट्रैप के आधार पर ही निगरानी की जाती है।
अध्ययन द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों की जांच से पता चलता है कि, सरिस्का में बाघिनों की क्षेत्र सीमा न्यूनतम 16.59 किमी² से अधिकतम 172.75 किमी² तक हैं, जिसमें से सबसे छोटा क्षेत्र बाघिन ST7 (16.59 किमी²) का तथा सबसे बड़ा क्षेत्र ST3 (172.75 किमी²) का देखा गया है। अन्य बाघिनों जैसे ST9 का क्षेत्र 85.24 किमी², ST10 (80.10 किमी²), ST5 (51.91 किमी²), ST12 (50.87 किमी²), ST8 (43.04 किमी²), ST14 (36.58 किमी²) और ST2 (19.34 किमी²) तक पाए गए।
पिछले वर्षों में सरिस्का के अलावा अन्य अभयारण्यों में हुए कुछ अध्ययनों की समीक्षा से ज्ञात होता है कि, अमूर बाघों के क्षेत्र अपर्याप्त शिकार और आवास की गुणवत्ता की कमी के कारण बड़े होते हैं वहीँ दूसरी ओर भारतीय उपमहाद्वीप में वयस्क मादाओं के क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध होने के कारण छोटे होते हैं। इस अध्ययन में भी कुछ ऐसा ही देखा गया है जहाँ बाघिन ST7, ST2, ST14, और ST8 के क्षेत्र, शिकार की बहुतायत होने के कारण छोटे (50 किमी² से छोटे) हैं।
परन्तु सरिस्का के बाघों की वंशावली को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो बाघिन ST2 इन सभी बाघिनों (ST7, ST14 और ST8) की माँ है तथा इनके ये क्षेत्र “female philopatry” का परिणाम है जिसमें, ST2 के क्षेत्र में उसकी बेटियों को जगह मिल गई है तथा ST2 का क्षेत्र 181.4 किमी² से कम होकर 19.34 किमी² रह गया है। इस तरह की female philopatry को कई मांसाहारी प्रजातियों में भी देखी गई है, जिसमें उप-वयस्क मादाओं को अक्सर अपनी माँ के क्षेत्र में ही छोटा हिस्सा प्राप्त हो जाता है और नर शावकों को लम्बी दुरी तय कर अन्य स्थान पर जाकर अपना क्षेत्र स्थापित करना पड़ता है।
कई अध्ययन इस व्यवहार के लिए एक ही कारण बताते हैं और वो है बेटियों की प्रजनन सफलता बढ़ाना। हालाँकि ST2 की केवल एक ही बेटी (ST14) ने सफलतापूर्वक दो मादा शावकों जन्म दिया व पाला है।
वहीँ दूसरी ओर अन्य बाघिनों जैसे ST3 (172.75 km²), ST9 (85.25 km²) और ST10 (80.10 km²) के क्षेत्र काफी बड़े थे क्योंकि इनके इलाके सरिस्का में ऐसे स्थान पर हैं जहाँ मानवजनित दबाव अधिक होने के कारण शिकार की मात्रा कम है तथा इसके पीछे एक और कारण प्रतीत होता है कि, अलग वंशावली के होने के कारण, इन बाघिनों को अन्य बाघिनों द्वारा कम शिकार और अपेक्षाकृत अशांत क्षेत्रों में बसने के लिए मजबूर किया गया है।
यदि नर बाघों की क्षेत्र सीमाओं की तुलना की जाए तो, बड़ी उम्र और पहले स्थान घेरने के कारण पहले सरिस्का भेजे गए नर बाघों के इलाके नए पैदा हुए नरों से बड़े हैं। सबसे बड़ा क्षेत्र ST11 (646.04 km²) का देखा गया है। परन्तु यदि वर्ष के सभी महीनों की औसत निकाली जाए तो सबसे बड़ा क्षेत्र ST4 (85.40 km²) का और सबसे छोटा क्षेत्र ST15 (47.67 km²) का दर्ज किया गया है। इसके अलावा अन्य बाघों के इलाके ST6 (79.94 km²), ST13 (61.39 km²) और ST11 (57.63 km²) तक पाए गए।
अध्ययन में यह भी पाया गया कि, वर्ष 2017 में, बाघिन माँ ST9 से अलग होने के शुरुआती महीनों के दौरान ST15 का क्षेत्र अधिकतम (189.5 किमी²) हो गया था, लेकिन सरिस्का के दक्षिणी भाग में बस जाने के बाद इसका क्षेत्र धीरे-धीरे कम हो गया था। इसी प्रकार शुरुआत में ST13 (687.58 वर्ग किमी) का क्षेत्र भी काफी बड़ा था जो की बाद में कम हो गया था।
मार्च 2018 में, नर बाघ ST11 की किसी कारण वश मृत्यु हो गई और शोधकर्ताओं का यह अनुमान था कि, इसके बाद अन्य नरों के क्षेत्रों में वृद्धि होगी परन्तु यह अनुमान गलत साबित हुआ और बाघों की क्षेत्र सीमाओं में गिरावट देखी गई।
बाघों के इलाके पूर्ण रूप से अलग-अलग होते हैं या कहीं-कहीं एक दूसरे में मिलते भी हैं इस प्रश्न को हल करने के लिए सभी बाघों के प्रत्येक माह और पुरे वर्ष के इलाकों को मानचित्र पर दर्शाया गया। जब सभी नर बाघों की प्रत्येक माह की क्षेत्र सीमाओं को देखा गया तो वे पूर्णरूप से अलग-अलग थी। परन्तु, पुरे वर्ष की क्षेत्र सीमाएं कुछ जगहों पर एक-दूसरे से मिल रही थी, जिसमें सबसे अधिक ओवरलैप ST4 व ST11 और ST4 व ST13 के बीच में देखा गया।
ऐसा इसलिए था क्योंकि नर बाघ ST11 और ST13 युवा हैं और उस समय वे अपना क्षेत्र स्थापित करने के लिए अभयारण्य में अधिक से अधिक क्षेत्र में घूम रहे थे। परन्तु ST11 की मृत्यु के बाद यह ओवरलैप कम हो गया।
कई अध्ययन यह भी बताते हैं कि, नर बाघ की मृत्यु के बाद अन्य बाघ उस क्षेत्र को कब्ज़ा कर अपने क्षेत्र को बड़ा कर लेते हैं परन्तु इस अध्ययन में किसी भी बाघ की सीमाओं में बदलाव नहीं देखे गए तथा यह पहले से बसे नर बाघों के गैर-खोजपूर्ण व्यवहार के बारे में संकेत देता है।
रेडियो-टेलीमेट्री एक महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)
अध्ययन में यह भी पाया गया कि, नर बाघों का क्षेत्र कुछ मादाओं के साथ लगभग पूरी तरह से ओवरलैप करता है और कुछ मादाओं के साथ बिलकुल कम। युवा बाघ ST15 के अलावा बाकि सभी नरों के क्षेत्र मादाओं के साथ ओवरलैप करते हैं। अपना क्षेत्र स्थापित करने के दौरान ST11 का संपर्क सभी मादाओं के क्षेत्रों के साथ रहा है। इसके अलावा वर्ष के अलग-अलग महीनों में लगभग सभी बाघों की क्षेत्र सीमाओं में थोड़ी बहुत कमी, विस्तार और विस्थापन भी देखा गया है जिसमें सबसे अधिक मासिक विस्थापन युवा बाघ ST15 के क्षेत्र में (4.23 किमी) देखा गया और एक स्थान पर बस जाने के बाद यह कम हो गया। इसके बाद ST4 (2.04 किमी), ST13 (1.88 किमी), ST6 (1.69 किमी), और न्यूनतम विस्थापन ST11 (1.51 किमी) के क्षेत्र में दर्ज किया गया। परन्तु सभी बाघों की सीमाओं में ये बदलाव सरिस्का जैसे मानव-बहुल पर्यावास में एक ज़ाहिर सी बात है।
इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि, सभी बाघों की क्षेत्र सीमायें (Territories) अलग-अलग तो होती हैं लेकिन विभिन्न कारणों की वजह से यह वर्ष के किसी भी समय में बदल सकती हैं तथा पूर्णरूप से निर्धारित कुछ भी नहीं है। सरिस्का जैसे अभयारण्य में जहाँ मानवजनित दबाव बहुत है बाघों की बढ़ती आबादी के साथ-साथ मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बढ़ सकते हैं और ऐसे में रेडियो-टेलीमेट्री (radio-telemetry) एक बहुत ही महत्वपूर्ण तकनीक है तथा बाघों की निगरानी के लिए इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस तरह की तकनीक का इस्तेमाल कर भविष्य में होने वाले मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम किया जा सकता है तथा बहार निकले वाले बाघों को वापिस से संरक्षित क्षेत्र के अंदर स्थानान्तरण किया जा सकता है।
सन्दर्भ:
Bhardwaj, G.S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A., Gupta, R. & Reddy, G.V. (2021). The spacing pattern of reintroduced tigers in human-dominated Sariska Tiger Reserve, 5(1), 1-14
लेखक:
Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
Dr. Gobind Sagar Bhardwaj (R), IFS is APCCF and Nodal officer (FCA) in Rajasthan. He has done his doctorate on birds of Sitamata WLS. He served in the different ecosystems of the state like Desert, tiger reserves like Ranthambhore and Sariska, and protected areas of south Rajasthan and as a professor in WII India. He is also a commission member of the IUCN SSC Bustard Specialist Group.
व्हाइट-नेप्ड टिट (Parus nuchalis) भारत की एक स्थानिक पक्षी प्रजाति है जिसकी वितरण सीमा बहुत ही छोटी है जो देश के केवल पश्चिमी और दक्षिणी हिस्से में सीमित है। राजस्थान में यह अनेक हिस्सों में मिलती है जिसके बारे में हम इस आलेख द्वारा जानेंगे। वैज्ञानिक साहित्य में उपलब्ध जानकारी बताती हैं कि, यह शुरुआत में सांभर झील के आसपास के क्षेत्र से दर्ज की गई थी (एडम 1873)। परन्तु बाद में, कई शोधकर्ताओं द्वारा इस प्रजाति के वितरण स्थानों और क्षेत्र को दर्ज करने के लिए विस्तृत अध्यन्न किये गए और अब तक यह प्रजाति राजस्थान के 13 जिलों से सूचित की जा चुकी है (शर्मा 2017)।
व्हाइट-नेप्ड टिट (Parus nuchalis) (फोटो: श्री श्याम शर्मा)
जिन जिलों और स्थानों पर यह प्रजाति दर्ज की गई है, उनकी सूची नीचे दी गई है:
क्र.सं.
क्षेत्र
जिला
उपस्थिति का स्थान
सन्दर्भ
1
अरावली पहाड़ियां और आसपास के पहाड़ी क्षेत्र
अजमेर
सेंदडा, आरक्षित वन, किशनगढ़, रावली -टॉडगढ़, नसीराबाद, रामसर के पास, अजमेर, सौंखलिया, ब्यावर पहाड़ी क्षेत्र
www.rdb.or.id;Hussain et al.,1992; Tiwari, 2001; Tiwari et al., 2013
2
चित्तौड़गढ़
बस्सी अभयारण्य , किशन करेरी (तहसील डूंगला)
Tiwari et al., 2013
3
जयपुर
सांभर झील के आसपास, कानोता, नसिया पुराना किला, नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क (जयपुर), खींची वन क्षेत्र (अचरोल के पास), गोदियाना वन ब्लॉक, झालाना अभयारण्य, विश्व वानिकी वृक्ष उद्यान, अमृता देवी वृक्ष उद्यान, दांतला वन खंड
Tiwari et al., 2013 एवं स्वयं प्रेक्षण
4
नागौर
मारोठ, पांचोटा पहाड़ी क्षेत्र, मकराना, सांभर झील क्षेत्र
Adam, 1873; Hussain et al., 1992; Tiwari, 2001; Tiwari et al.,2013
5
पाली
सेंदरा, देसूरी की नाल, मालगढ़ की चौकी, जोभा गाँव, सुमेर, बर
Tehsin et al., 2005; Tiwari et al., 2013
6
राजसमंद
बरवा गाँव (नाथद्वार तहसील), गोरमघाट
Tiwari, 2007 एवं स्वयं प्रेक्षण
7
सीकर
रुलियाना गाँव (बे और दंता गाँव के बीच में)
Sharma, 2004
8
सिरोही
माउंट अबू (देलवारा से अचलगढ़)
Butlar, 1875
9
उदयपुर
सज्जनगढ़ अभयारण्य, जयसमंद अभयारण्य, छावनी के पास वन क्षेत्र, शांति निकेतन कॉलोनी (बेदला-बड़गांव), देवला, जामुनिया की नाल, जंगल सफारी पार्क, माछला मगरा, कलेर आरक्षित वन, नीमच माता, मोती मगरी, थूर मगरा, बेदला के पास का जंगल, चीरवा घाटा, बाघदड़ा नेचर पार्क, उदयसागर वन क्षेत्र, सेगरा वन खंड, बोरडी और देबारी क्षेत्र, कोडियात, बड़ा हवाला गांव, घासा, मेनार, सज्जनगढ़ जैविक उद्यान; कैलाशपुरी, वल्लभनगर (तहसील वल्लभनगर), प्रकृति साधना केंद्र, भीलों-का-बेदला, मादड़ा गाँव, कैलेश्वर महादेव (सुराना गाँव, तहसील गिरवा), झामेश्वर महादेव
Hussain et al.,1992; Tiwari, 2001; Sharma, 2004; Mehra, 2004; Tiwari, 2007; Tiwari, et al., 2013; Sharma & Koli 2014; Sharma 2015 & 2016, एवं स्वयं प्रेक्षण
10
जालोर
सुंडामाता जालोर
Tiwari et al., 2013
11
विंध्य वनों में (अरावली के पूर्व दिशा में)
झालावाड़
झालावाड़
Hussain et al., 1992, Tiwari, 2001
12
थार रेगिस्तानी निवासों में (अरावली के पश्चिमी दिशा में)
बीकानेर
राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय कैंपस, बीकानेर में रोजरी गाँव के पास-( श्री गंगानगर सीमा)
Dookia, 2007
13
जोधपुर
जोधपुर
Hussain et al., 1992
प्रस्तुत सूची से संकेत मिलता है कि, व्हाइट – नेप्ड टिट मुख्य रूप से राजस्थान के अरावली वनों तक ही सीमित है जहां मुख्यरूप से कांटेदार वनस्पतियां पायी जाती हैं। माना जाता है कि, यह कुमठा (Acacia senegal) के वनों में पायी जाती है। अरावली के पूर्व और पश्चिम में इसका वितरण अपेक्षाकृत सीमित है। राजस्थान राज्य में इस प्रजाति की पूरी वितरण सीमा को जानने के लिए आसपास के जिलों के कांटेदार वनों में और अधिक शोध की आवश्यकता है।
व्हाइट-नैप्ड टिट, सालर और कुमठा के पेड़ों पर रहती व घोंसला बनाती है (फोटो: श्री नीरव भट्ट)
IUCN ने वाइट-नेप्ड टाइट को एक संवेदनशील (Vulnerable) प्रजाति के रूप में दर्ज किया है तथा इसके प्राकर्तिक आवास के नष्ट होने के कारण इस प्रजाति के अस्तित्व पर खतरा है। इसे बचाने के लिए कांटेदार वनस्पतियों के संरक्षण के अलावा, मृत पेड़ों के संरक्षण की भी आवश्यकता है। इस प्रजाति के संरक्षण के लिए सालर के पेड़ों (Boswellia serrata) को भी संरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि सज्जनगढ़ वन्यजीव अभयारण्य में हरे-भरे सालार के पेड़ों में मौजूद छिद्रों में व्हाइट – नेप्ड टिट को घोंसला बनाते और रहते हुए देखा जाता है (Sharma & Koli 2014)। इस प्रजाति के संरक्षण के लिए आवश्यक है पुराने वृक्षों और कुमठा के वनों को संरक्षित किया जाए।
सन्दर्भ:
Adam, R.M. 1873: Notes on the birds of Sambhar lake and its vicinity. Stray Feathers 1: 361-404.
Ali, S.& S.D. Ripley 1983 : Handbook of the birds of India and Pakistan. Oxford University Press.
Butler, E.A. 1875: Notes on the avians of Mount Aboo and northern Gujarat. Stray Feathers 3: 337-500.
Dookia, S.2007: First record of Pied Tit Parus nuchalis in Thar desert of Rajasthan. Indian Birds 3(3) : 112-113.
Hussain, S.A., S.A. Akhtar & J.K. Tiwari 1992 : Status and distribution of White-winged Black Tit Parus nuchalis in Kuchchh Gujarat, India. Bird Conservation International, 2 : 115-122.
Mehra, S.P.2004: Sighting of White-naped Tit Parus nuchalis at Udaipur. Newsletter for Ornithologists 5:77.
Sharma, S.K. 2004: New sight records of Pied Tit Parus nuchalis in Rajasthan. JBNHS 100(1):162-163.
Sharma, S.K. 2015: Night roosting on iron poles by the White-naped Tit Parus nuchalis in Udaipur, Rajasthan, India. JBNHS 112(2):100-101.
Sharma, S.K. 2016 : A study on White-naped Tit Parus nuchalis in Sajjangarh Wildlife Sanctuary for conservation of the species. Study report 2016-17. Dy. Conservator of Forests, Wildlife Division, Udaipur .1-65.
10 . Sharma, S.K.2017 : White-naped Tit ( Parus nuchalis) in Rajasthan , with special reference to southern parts of the state. Udaipur Bird Festval 2017-18 Souvenir.
Sharma, S.K. & V.K. Koli 2014 : Population and nesting characteristic of the vulnerable White-naped Tit Parus nuchalis at Sajjangarh Wildlife Sanctuary, Rajasthan, india. Forktail 30: 1-4 .
Tehsin, R.H., S.H. Tehsin & H.Tehsin 2005: Pied Tit Parus nuchalis in Pali district, Rajasthan, India. Indain Birds 1(1):15.
Tiwari, J.K. 2001: Status and distribution of the White-naped Tit Parus nuchalis in Gujarat and Rajasthan. JBNHS 98(1):26-30.
Tiwari, J.K. 2007 : Some observations of sightings and occurrence of Black-winged/ White-naped Tit Parus nuchalis in southern Rajasthan. Newsletter for Bird Watchers 47(5):72-74.
Tiwari, J.K. & A.R. Rahmani 1996: The current status and biology of the White-naped Tit Parus nuchalis in Kutch, Gujarat, India. Forktail 12: 95-102.
Tiwari, J.K., D. Bharjwaj & B.K. Sharma 2013: White-naped Tit Parus nuchalis : A vulnerable species in Rajasthan . In, B.K. Sharma, S. Kulshreshtha & A.R. Rahamani (eds.) Faunal Heritage of Rajasthan, India. Springer New York Heidelberg Dordrecht London. 411-414
दुनियाँ में पक्षी अवलोकन (Bird watching or birding), साँप अवलोकन (Snake watching), वन्यजीव छायाचित्रण (Wildlife Photography), वन भ्रमण (Jungle trekking), जंगल सफारी (Jungle safari), पर्वतारोहण (Mountaineering), ऊँचे स्थानों पर चढाई चढना (Hicking) आदि काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। हाल के वर्षों में लोगों में वनों एवं अन्य प्राकृतिक स्थलों पर किसी प्रजाति विशेष के विशालतम आकार या अत्यधिक आयु वाले या किसी असामान्य बनावट वाले वृक्षों को देखने की रूची पनपने लगी है। लोग वनों में या अपने आस-पास के परिवेश में प्रजाति विशेष के बडे से बडे वृक्षों को ढूढने के प्रयासों से व्यस्त देखने को मिल जाते हैं। वृक्ष अवलोकन या निहारन लोगों की प्रिय रूची बनता जा रहा है। यह उसी तरह लोकप्रिय होने लगा है जैसे देश में जगह- जगह पक्षी निहारन या अवलोकन (Bird watching) लोक प्रिय हो रहा है। विशिष्ठ वृक्षों को ढूँढ -ढूँढ कर देखने की अभिरुची (Hobby) को वृक्ष निहारण या वृक्ष अवलोकन (Tree watching or tree spotting) कहा जाता है। भारत सरकार द्वारा 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर महावृक्ष पुरस्कार देने का सिलसिला प्रारम्भ किया गया है। इस पुरस्कार हेतु प्रतिवर्ष भारत सरकार किन्हीं प्रजाति विशेष की घोषणा करती है तथा उन प्रजातियों के देश के सबसे विशालतम् वृक्षों की जानकारी देने वाली प्रवष्ठियाँ मांगी जाती हैं। एक नियत तिथी के बाद सभी प्रविष्ठियो की जाँच एक विशेषज्ञ कमेटी द्वारा की जाती है तथा प्रजाति विशेष के सबसे बडे वृक्ष की प्रविष्टि का सत्यापन होने पर उस वृक्ष को प्रजाति विशेष की श्रेणी में देश का “महावृक्ष” मानते हुऐ महावृक्ष घोषित कर दिया जाता है। भारत सरकार अभी तक सागवान, देवदार, नीम, यूकेलिप्टस, इमली, चम्पा, शीशम, अंगू, होलोंग, फलदू, बहेडा, आँवला, तून, सेमल, मौलसरी, महुआ, बेंखोर आदि को महावृक्ष घोषित कर चुकी है।
हाँलाकि राजस्थान मे भारत सरकार ने किसी प्रजाति के वृक्ष को महावृक्ष घोषित नहीं किया है लेकिन जगह-जगह विशाल आकार-प्रकार के वृक्ष, झाडिया एवं यहाँ तक की काष्ठ लताएं (Lianas) भी देखने को मिल जाती हैं। इस अध्ययन में इन्हीं विशाल प्रकार के वृक्षों, झाडियों व काष्ठ लताओं की जानकारी दी गई है।
राजस्थान राज्य के विशालतम आकार के विभिन्न प्रजातियों के वृक्षों, झाडियों एवं काष्ठ लताओं की जानकारी नीचे सारणी 1 में प्रस्तुत की गई हैं।
उपरोक्त सारणी में दर्ज वृक्ष, झाडी व काष्ठ लताऐं राजस्थान के संदर्भ में ज्ञात विशाल आकार-प्रकार के विशिष्ठ पौधे हैं। कडेच गाँव के बरगद का फैलाव लगभग 0.2 हैक्टेयर में है। इसी तरह कुण्डेश्वर महादेव पवित्र कुंज (Sacred grove) के बरगद का विस्तार 0.3 हैक्टेयर है जो मादडी गाँव में स्थित राज्य के सबसे बडे बरगद से काफी कम है। मादडी गाँव का बरगद 1.02 हैक्टेयर में फैला हुआ है। दोनों छोटे बरगदों को इसलीए शामिल किया गया है क्योंकि इनका छत्रक अच्छे आकार का है तथा ये दोनों बहुत सुन्दर भी हैं, खास कर कुण्डेश्वर महादेव क्षेत्र का बरगद बहुत ही सुन्दर एवं दर्शनीय है। इस बरगद के आस-पास का पवित्र कुंज साल भर देखने लायक रहता है तथा बडी संख्या में धार्मिक एवं पारिस्थितिक पर्यटन करने वाले लोग यहाँ पहुँचते हैं।
रामकुण्डा मंदिर क्षेत्र मे काँकण गाँव के रास्ते आवरीमाता होकर ‘‘हाला हल्दू” के पास से चलते हुए करूघाटी तक जाने में रामकुण्डा एवं लादन वन खण्डों का जंगल पार करना पडता है। यहाँ पहाडों की ऊँचाई पर राजस्थान राज्य का बाँस (Dendrocalamus strictus) का श्रेष्ठतम् वन विद्यमान है। संभवत इस क्षेत्र में जंगली केले (Ensete superbum) का घनत्व पश्चिमी घाट के वनों के समतुल्य या उसमे कुछ बेहतर है। स्थल गुणवत्ता (Site quality) का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ 24‘ ऊँचाई वाला बाँस दोहन किया जाता है तथा लगभग 873 मी. समुन्द्रतल से ऊँचाई पर भी पहाडों में हल्दू (Adina cordifolia) के वृक्षों की वृद्वी लगभग वैसी ही है जो की पहाडों की तलहटी में है। प्रसिद्व लैण्ड मार्क (Landmark) ‘‘हाला हल्दू’’ नामक हल्दू का वृक्ष इसका उदाहरण है जो इतनी ऊँचाई का पर भी विशाल आकार ग्रहण करने मे सफल रहा है।
सारणी 1: राजस्थान के कुछ विषाल आकार के वृक्ष, झाडियां एवं काष्ठ लताऐं
क्र.स.
स्थिती
जिला
प्रजाति
नाप संबंधित जानकारी (एवं स्वभाव)
सुरक्षा की स्थिती
1
नांदेशमा गाँव, तहसील गोगुन्दा
उदयपुर
पलास (Butea monosperma)
भूमि से निकलते ही दो शाखाओं में विभाजित जिनका वक्ष ऊँचाई घेरा क्रमषः 2.82 एवं 1.19 मीटर (वृक्ष)
सुरक्षित
2
कडेच गाँव, तहसील गोगुन्दा
उदयपुर
बरगद (Ficus benghalensis)
छत्रक फैलाव 50X42 मी., 27 प्रोप जडें(वृक्ष)
सुरक्षित
3
गुलाबबाग (चिडियाघर)
उदयपुर
महोगनी (Swietenia mahagoni)
वक्ष ऊँचाई घेरा 2.50 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
4
गुलाबबाग (बच्चों का पार्क)
उदयपुर
महोगनी (Swietenia mahagoni)
वक्ष ऊँचाई घेरा 5.97 मी., ऊँचाई 15.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
5
गुलाबबाग (बच्चों का पार्क)
उदयपुर
महोगनी (Swietenia mahagoni)
वक्ष ऊँचाई घेरा 7.0 मी, ऊँचाई 15.0 मी.(वृक्ष)
सुरक्षित
6
कंडेश्वर र महादेव, तहसील गिर्वा
उदयपुर
बरगद (Ficus benghalensis)
छत्रक फैलाव 60X60 मी.(वृक्ष)
सुरक्षित
7
भेरू जी कुंज, बरावली गाँव, तहसील गोगुन्दा
उदयपुर
माल कांगणी (Celastrus paniculata)
भूमि तल पर घेरा 0.75 मी., लंबाई 20.0 मी. (काष्ठ लता)
श्री शंकर महाराज का खेत, मदारिया गाँव, करेडा- देवगढ रोड
राजसमन्द
बबूल (Acacia nilotica var. indica)
वक्ष ऊँचाई घेरा 3.90 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
15
काँकल (काकंण) गाँव, तहसील झाडोल
उदयपुर
सेमल (Bombex ceiba)
वक्ष ऊँचाई घेरा 7.50 मी., ऊँचाई 25.0 मी. (वृक्ष)
आंशिक सुरक्षित
16
काँकल (काकंण) गाँव, तहसील झाडोल
उदयपुर
गूलर (Ficus recemosa)
वक्ष ऊँचाई घेरा 8.40 मी., ऊँचाई 21.0 मी. (वृक्ष)
आंशिक सुरक्षित
17
रामकुण्डा वनखण्ड, क.न. 18 तथा लादन क.न. 11
उदयपुर
हल्दू (Adina cordifolia)
वक्ष ऊँचाई घेरा 3.90 मी., ऊँचाई 25.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
18
लादन वनखण्ड मे करूघाटी से पहले पगडण्डी के पास
उदयपुर
पलास (Butea monosperma)
वक्ष ऊँचाई घेरा 4.80 मी., ऊँचाई 20.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
19
दीपेश्वर महादेव प्रतापगढ
प्रतापगढ
कलम (Mitragyna parvifolia)
वक्ष ऊँचाई घेरा 4.20 मी., ऊँचाई 15.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
20
पानगढ पुराना किला, (बिजयपुर रेंज)
चित्तौडगढ
बडी गूगल (Commiphora agalocha)
भूमि तल पर घेरा 1.05 मी., ऊँचाई 5.0 मी. (झाडी)
सुरक्षित
21
पानगढ तालाब की पाल (बिजयपुर रेंज)
चित्तौडगढ
रायण (Manilkara hexandra)
वक्ष ऊँचाई घेरा 5.0 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
22
पानगढ तालाब की पाल (बिजयपुर रेंज)
चित्तौडगढ
इमली (Tamarandus indica)
वक्ष ऊँचाई घेरा 5.60 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
सुरक्षित
23
गाँव भभाण, तह. माँण्डल
भीलवाडा
पीलवान (Cocculus pendulus)
काष्ठ लता, भूमि पर घेरा 0.95 मी. (काष्ठ लता)
आंशिक सुरक्षित
24
गाँव देवली (माँझी)
कोटा
दखणी सहजना (Moringa concanensis)
वक्ष ऊँचाई घेरा 3.14 मी., ऊँचाई 12.0 मी. (वृक्ष)
आंशिक सुरक्षित
25
आल गुवाल एनीकट, बाघ परीयोजना, सरिस्का
अलवर
गूलर (Ficus recemosa)
वक्ष ऊँचाई घेरा 11.67 मी., ऊँचाई 18.0 मी. (वृक्ष)
आंशिक सुरक्षित
26
जूड की बड़ली (रीछेड गाँव के पास तहसील केलवाड़ा)
उदयपुर
बरगद (Ficus benghalensis)
1.4 हैक्टेयर में फैलाव
सुरक्षित
सारणी 1 में दर्ज वृक्ष एवं काष्ठ लताऐं अपनी-अपनी प्रजाति के विशाल आकार प्रकार वाले वृक्ष हैं। ये राज्य की अद्भुत जैविक धरोहर भी हैं जिन्हें हमें जतनपूर्वक संरक्षित करना चाहिये। ये परिस्थितिकी पर्यटन को बढावा देकर स्थनीय जनता हेतु रोजगार के नये अवसर भी स्थापित कर सकते हैं।
विशाल आकार-प्रकार ग्रहण करने के लिए किसी भी पौधे को एक बडी आयु तक जीना पडता है। इस लेख में वर्णित पौधे बहुत बडी आयु तक संरक्षित रहे हैं तभी द्वितियक वृद्धी (Secondary growth) के कारण वे विशाल आकार ग्रहण कर पाये हैं। यह राज्य की एक अद्भुत जैविक विरासत है। हर वन मण्डल, रेंज एवं नाकों को अपने- अपने क्षेत्र में स्थिती इन विरासत वृक्षों की कटाई, आग, व दूसरे नकारात्मक कारकों से सुरक्षा करनी चाहिये। उचित प्रचार- प्रसार द्वारा जन-जन तक इन विरासत वृक्षों, झाडियों व काष्ठ लताओं की जानकारी पहुँचाई जानी चाहिये ताकी परिस्थितिकी पर्यटन को विस्तार दिया जा सके ताकि स्थानीय लोगों को रोजगार के अधिक अवसर मिल सकें।
सीतामाता अभयारण्य में पाए जाने वाला कॉमन ट्री फ्रॉग एक ऐसी मेंढक प्रजाति है जो अन्य मेंढकों की तरह पानी में नहीं बल्कि पेड़ पर रहना ज्यादा पसंद करती है। प्रस्तुत आलेख द्वारा जानिये इसके बारे में…
चितोड़गढ़ और प्रतापगढ़ जिले में स्थित “सीतामाता वन्यजीव अभयारण्य” जैव विविधता के दृष्टिकोण से राजस्थान के सबसे समृद्ध अभयारण्यों में से एक है। इस अभयारण्य का क्षेत्रफल लगभग 422.94 वर्ग किमी है और यह अभयारण्य अरावली, विंध्य और मालवा पठार के संगम पर स्थित है, जो अपने बांस और सागौन वनों के लिए जाना जाता है।
सीतामाता अभयारण्य का पारिस्थितिक तंत्र कई दिलचस्प और दुर्लभ जीवों एवं वनस्पतिक प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करता है। यह उभयचरों (Amphibians) में भी समृद्ध है। राजस्थान में टॉड और मेंढकों की सबसे ज्यादा प्रजातियां यहीं पायी जाती हैं तथा राजस्थान से ज्ञात सभी मेंढक और टॉड प्रजातियां इस अभयारण्य के भीतर और आसपास उपलब्ध हैं। यहाँ से उभयचरों की 13 प्रजातियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से दो प्रजातियाँ – कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus) और पेंटेड कलौला (Painted Kaloula (Kaloula taprobanicus) अभयारण्य के विशेष हैं।
सीतामाता के वनों को छोड़कर, ये दोनों प्रजातियाँ राजस्थान के किसी और अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान में अभी तक नहीं पायी गई हैं। वर्ष ऋतु इन दोनों प्रजातियों को देखने के लिए सबसे अच्छा समय है, विशेष रूप से पहली कुछ वर्षा, जो इन मेंढकों का पता लगाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। जहाँ एक तरफ पेंटेड फ्रॉग राजस्थान का सबसे सुंदर मेंढक है, जिसकी पीठ, हाथ और पैरों पर विशिष्ट काला-भूरा और गहरा लाल रंग होता है, वहीँ दूसरी ओर हल्के भूरे बिलकुल गैर-आकर्षक रंग वाला के कॉमन ट्री फ्रॉग राज्य का सबसे विशिष्ट मेंढक है।
कॉमन ट्री फ्रॉग (Common Tree Frog (Polypedates maculatus)
वंशावली (Genealogy):
दुनिया में विभिन्न प्रकार के आवासों जैसे कि, नम भूमि, जल स्रोत और यहां तक कि झाड़ियां और पेड़ों पर कई मेंढक प्रजातियां व्यापक रूप से पायी जाती हैं। पेड़ और झाड़ियों पर पाए जाने वाले मेंढक Rhacophoridae कुल के होते हैं जिसमें अलग-अलग आकार के मेंढक शामिल हैं। उनका आकार (थूथन से मलद्वार तक लंबाई) 2.0 सेमी से 10.0 सेमी तक होता है। विश्व में Rhacophoridae कुल के मेंढक मुख्य रूप से पूर्वी देशों तक ही सीमित हैं। हालांकि, इस कुल के कई सदस्यों को मेडागास्कर और एक वंश Chiromatis- अफ्रीका से दर्ज किया गया है।
भारत में, Rhacophoridae कुल के छह वंश; Rhacophorus, Polypedates, Phailautus, Chrixalus, Nyctixalus और Theloderma पाए जाते हैं। जबकि राजस्थान में केवल एक वंश-पॉलीपेडटीस (Polypedates) और उसकी भी केवल एक ही प्रजाति Polypedates maculatus पायी जाती है, जो वर्षा ऋतु में सीतामाता अभयारण्य के आसपास, विशेष रूप से इमारतों के पास दिखाई देती है। इनके पिछले पतले और लम्बे पैरों की मदद से, यह प्रजाति लंबी छलांग लगा सकती है हालाँकि यह अच्छी तरह से तैरने में सक्षम हैं, परन्तु फिर भी ये पानी में नहीं रहते हैं।
कॉमन ट्री फ्रॉग (पॉलीपीडेट्स मैक्यूलैटस) एक आर्बोरियल मेंढक है अर्थात यह पेड़ व वनस्पतियों पर रहता है। इसकी हाथ की उंगलियों और पैर की उंगलियों पर चिपचिपा पदार्थ स्त्रावित करने वाली पतली डिस्क होती हैं। चिपचिपी डिस्कों की मदद से, यह मेंढक दीवारों और पेड़ के तनों के ऊर्ध्वाधर सतहों पर चढ़ने की क्षमता रखता है। कॉमन ट्री फ्रॉग की आँखें बड़ी और इनकी पुतलियां क्षैतिज (Horizontal) होती हैं। इस प्रजाति में नर आकार में मादा से छोटे होते हैं। इनके कानों के पर्दे “टाइम्पेनम (Ear-drum)” आंख के व्यास का लगभग तीन-चौथाई होते हैं। इनकी अगली भुजाओं की उँगलियों में झिल्ली होती है, जबकि पैर की उँगलियों में झिल्ली पूरी तरह से विकसित होती है।
इस मेंढक का रंग हल्का ही होता है – इसकी पीठ भूरे-पीले-हरे रंग की होती है जिसपर गहरे रंग के धब्बे होते हैं। जांघ के पास असमान आकार के गोल-गोल पीले धब्बे होते हैं, जो आमतौर पर गहरे भूरे रंग के पैरों से अलग होते हैं। कॉमन ट्री फ्रॉग में कुछ हद तक अपना रंग बदलने की क्षमता होती है, जो इसे प्रकृति द्वारा दिया गया एक सुरक्षात्मक उपाय है जिससे यह परिवेश के अनुसार छलावरण करता है।
विशिष्ठ गुण (Typical features):
कॉमन ट्री फ्रॉग एक प्रायद्वीपीय प्रजाति है, जो नम पर्णपाती जंगलों में रहना पसंद करती है। एक छोटी अवधि को छोड़कर, मानसून की शुरुआत के बाद, से ही यह आमतौर पर पूरे वर्ष इमारतों और उद्यानों में देखा जाता है। मानसून की समाप्ति के बाद जब बाहरी परिस्थितियां शुष्क हो जाती हैं, तो यह मानव घरों में वापस आ जाती है, और आमतौर पर स्नान घरों के अंदर और अन्य सुरक्षित, शुष्क स्थान (यदि उपलब्ध हो तो नम) में छिप जाती है।
दिन के दौरान, ये आमतौर पर पानी से दूर रहते हैं, लेकिन शाम होते ही ये बहार निकलते हैं और सबसे पहले ऐसे स्थानों पर जाते हैं, जहां उन्हें पानी मिलने की संभावना होती है। नम स्थानों में जाने से पहले, ये आकार में छोटे लगते हैं। ये कभी भी सीधे अपने मुंह से पानी नहीं पीते हैं, बल्कि अपनी त्वचा के माध्यम से पानी को अवशोषित करने के लिए काफी समय तक गीले स्थान पर बैठते हैं। पानी में बैठे रहने के बाद इनका आकार बड़ा हो जाता है।
अच्छी तरह से नमी सोखने के बाद, ये भोजन करने के लिए अपनी गतिविधि शुरू करते हैं और पूरी रात सक्रिय रहते हैं। प्रातःकाल होने से पहले ही ये अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाते हैं। आराम करते समय, टांगों को शरीर के नीचे अच्छी तरह से इकट्ठा कर लिया जाता है। दिन के इस समय, एक “सेवानिवृत्त” मेंढक सुस्त हो जाता है और उसे कुदाने और भागने के लिए काफी उकसाने की आवश्यकता होती है।
कई मेंढक प्रजातियों के विपरीत, कॉमन ट्री फ्रॉग नर में प्रजनन काल के दौरान विशेष प्रकार की कॉल करने के लिए एक उप-गूलर (sub-gular) थैली होती है। मानव घरों के अंदर, नर गर्मियों के अंत में बोलना शुरू करते हैं। तक- तक- तक या डोडो-डोडो-डोडो इनकी सामान्य आवाज़ होती है। बरसात के मौसम में ये मानव घरों को छोड़ देते हैं और प्रजनन गतिविधियों के लिए वनस्पति क्षेत्र में चले जाते हैं। और इस समय में झाड़ियों और पेड़ों के पास से नरों की आवाज़ को सुना जा सकता है।
उपयुक्त स्थान (Suitable sites):
अन्य मेंढकों की तरह, इस प्रजाति की मादाएं सीधे पानी में अंडे नहीं देती हैं, बल्कि ये अंडे झागनुमा-घोंसले में रखती हैं, जो की पेड़ों पर, पानी के टैंकों, जल भराव क्षेत्रों, नालों आदि पर रखा जाता है। सफेद रंग का झागनुमा-घोंसला रंग में सफ़ेद और आकार में अर्ध गोलाकार होता है जिसमें अंडे बिखरे हुए होते हैं। यदि नियमित रूप से बारिश नहीं हो रही हो और सूखे की स्थिति बनी रहे तो ये झागनुमा-घोंसला अंडों को पानी की कमी से बचने में मदद करता है। भ्रूण का प्रारंभिक विकास इन झागनुमा-घोंसलों में ही होता है। टैडपोल के उभरने के बाद, वे नीचे मौजूद पानी में कूद जाते हैं और उनका बाकी विकास जलस्रोतों में होता है।
सीतामाता अभयारण्य के बाहरी इलाके में बांसी नामक गांव में इमारतों पर यह कॉमन ट्री फ्रॉग अक्सर देखा जाता है। ये सीतामाता अभयारण्य के दमदमा द्वार पर स्थित वन चौकी के आस-पास भी देखे जाते हैं। सीतामाता के अंदर व सीमा पर स्थित सभी वन चौकियां इस मेंढक को देखने के लिए उपयुक्त स्थान हैं। यह प्रजाति बांसवाड़ा शहर में भी देखी गई है। इस प्रकार राजस्थान में, कॉमन ट्री फ्रॉग की वितरण सीमा बहुत ही सीमित है, इसलिए इसे उचित रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए।
राजस्थान के जंगली मुर्गे (Grey Jungle fowl Gallus sonneratii) पर अग्रवाल (1978,1979), अनाम (2010), अली एवं रिप्ले (1983), ओझा (1998), सहगल (1970), शर्मा (1998, 2007, 2017), तहसीन एवं तहसीन (1990) के अध्ययन का अवलोकन करने पर इस मुर्गे पर अच्छी जानकारी मिलती है लेकिन वितरण संबंधी पूर्ण ज्ञान अनुपलब्ध है। प्रस्तुत लेख में इस प्रजाति के वितरण संबंधी जानकारी को समाहित किया गया है। जंगलीे मुर्गे की राजस्थान के विभिन्न जिलों के भिन्न – भिन्न क्षेत्रों में उपस्थिति को जाँचने हेतु उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य का अध्ययन किया गया एवं सर्वे के द्वारा प्राथमिक तथ्य संग्रहीत किये गये। वितरण संबंधी उपलब्ध सूचनाएं सारणी 1 में प्रदर्शित की गई हैं।
नर ग्रे जंगल फाउल (फोटो: श्री ऋषिराज सिंह देवल)
मादा ग्रे जंगल फाउल (फोटो: श्री ऋषिराज सिंह देवल )
सारिणी – 1: ग्रे जंगल फाउल का राजस्थान में वितरण
क्र.सं.
जिला
स्थान
वर्तमान में उपस्थिति
सन्दर्भ
1
उदयपुर
लादन वन क्षेत्र
उपस्थित
तहसीन एवं तहसीन (1990), शर्मा (2007, 2017)
फुलवारी अभयारण्य, रामकुण्डा, तिनसारा, धरियावद, मानसी वाकल नदी के गुजरात सीमा तक किनारे, तोरना वन खण्ड
उपस्थित
शर्मा (2007, 2017), श्री रजा तहसीन (निजी वर्तालाप 2005)
पई, डोडावली, देवास, कर्नावली, उभेश्वर (उबेश्वर), नाल मोखी, ओगना, साण्डोल की नाल, सूरजबारा (पडावली के पास), खैरवाडा, बेडावल (सलुम्बर के पास), कोडियात, मोरवानिया, पुराना श्रीनाथ (घसियार), कुण्डेश्वर, दडीसा, अगदा, पागा, वनक्षेत्र, जामुडिया (जामुनिया) की नाल, गोगुन्दा (मजार के पास), खैरवाडा, धरियावद
वर्ष 1960 तक उपस्थित, वर्तमान में अनुपस्थित
श्री रजा तहसीन (निजी वर्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
2
उदयपुर, पाली, राजसमंद
कुंभलगढ़ अभयारण्य
उपस्थित
शर्मा (2007, 2017)
3
पाली, राजसमंद, अजमेर
टॉडगढ़ -रावली अभयारण्य (कालीघाटी भीलबेरी व काबरदाता क्षेत्र में अधिक दिखते हैं)
उपस्थित
शर्मा (2007, 2017)़
4
सिरोही
माउन्ट आबू
उपस्थित
सिंह एवं सिंह(1995)
अग्नेश्वर मंदिर (देलवाडा से 2 किमी. पश्चिम में)
उपस्थित
शर्मा (2007, 2017)
रेवदर, नीमाज, रव्वा बड़वज वन क्षेत्र
1961 तक उपस्थित, वर्तमान में नहीं
डॉ . रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
मोरस वन क्षेत्र
1970 तक उपस्थित, अब अनुपस्थित
डॉ . रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005)
5
उदयपुर, चित्तौड़गढ़ एवं प्रतापगढ़
लव-कुश आश्रम, वाल्मिकी आश्रम (सीतामाता अभयारण्य)
उपस्थिति
शर्मा (2007 2017), श्री. पी. सी. जैन उपवन संरक्षक (निजी वार्तालाप 2016), श्री मनोज पराशर उपवन संरक्षक (निजी वार्तालाप 2009)
6
चित्तौडगढ़
बस्सी
1970 तक उपस्थित लेकिन अब अनुपस्थित
ठाकुर विजय सिंह राव (निजी वार्तालाप 2014), मेजर दुर्गा दास (निजी 7वार्तालाप 2016),
सीतामाता अभयारण्य के क्षेत्रों के अलावा अन्य वन क्षेत्र
1970 तक सभी जगह उपस्थित लेकिन अब केवल सीतामाता अभयारण्य में उपस्थित
श्री रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
10
राजसमन्द
कटार, बरवाडा
1970 तक पश्चिमी ढाल के वनों में उपस्थित (पूर्वी ढाल में तत्समय नहीं थे)। वर्तमान में अनुपस्थित
श्री रजा तहसीन (निजी वार्तालाप 2005), शर्मा (2007, 2017)
उपरोक्त सारणी की सूचनाओं से स्पष्ट है कि जंगली मुर्गे का वितरण क्षेत्र 1960 से 2020 तक गत 60 वर्षो में राजस्थान में काफी कम हुआ है (चित्र 1)। यह प्रजाति मुख्यतः दक्षिणी राजस्थान के सघन वनों में ही निवास करती पाई जाती है । शिकार, आवास विनाश, गर्मी की ऋतु में अग्नि घटनाऐं, वनों एवं वनों के पास रहने वालेे लोगों द्वारा अण्डों को उठाने जैसे कारणों से इस मुर्गे की संख्या में कमी आई है। यह प्रजाति भूमि पर अण्डे देती है एवं आग की घटना के कारण अण्डे तथा बहुत छोटे चूजे जो उडने में असमर्थ होते हैं आग की चपेट में आ जाते हैं।
आवास सुरक्षा, शिकार पर प्रभावी अंकुश, अग्नि घटनाओं की प्रभावी रोकथाम, पेयजल व्यवस्था, जन जागरण आदि जैसे उपाय कर इस प्रजाति को संरक्षित किया जा सकता है।
संन्दर्भ:
अग्रवाल, बी. डी. (1978) गजेटियर ऑफ़ इन्डिया, राजस्थान सीकर।
अग्रवाल, बी. डी. (1979) गजेटियर ऑफ़ इन्डिया, राजस्थान उदयपुर।