“जंगल असीम प्रेम के स्रोत हैं। यह सभी को सुरक्षा देते हैं ये उस कुल्हाड़ी को भी लकड़ी का हत्था देते है, जो जंगल को काटने के काम आती है। ” (भगवन बुद्ध)
राजस्थान के करौली जिले की अर्ध-शुष्क विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित “कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य” गहरी घाटियों और चट्टानी पठारों का एक शानदार भूभाग है। शुष्क पर्णपाती धोक वन से आच्छादित इन पठारों को स्थानीय भाषा में “डांग” कहा जाता है। यहाँ की गहरी घाटियां जल की अधिक उपलब्धता के कारण मिश्रित पर्णपाती वनस्पति प्रजातियों और विभिन्न जीव-जंतुओं का घर है जो स्थानीय भाषा में “खोह” कहलायी जाती हैं।
परन्तु सालों से चारकोल, चारे, जलाऊ लकड़ी और अन्य कई चीजों के लिए पेड़ों की कटाई के कारण आज अधिकांश जंगल घास के मैदानों और धोक के पेड़ छोटी झाड़ियों में तब्दील हो गए हैं। हालांकि यह अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध रणथम्भौर टाइगर रिज़र्व के आधे से अधिक हिस्से को बनाता है, लेकिन रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान की तुलना में यह काफी सूखा, बंजर और मानवीय दबाव वाला क्षेत्र है।
कैलादेवी में रहने वाले परिवार (फोटो: डॉ विशाल रसाल)
कैलादेवी अभयारण्य के अंदर लगभग 66 गाँव स्थित हैं जिनमें लगभग 5000 परिवार (कुल 19,179 लोग) और लगभग 1 लाख से अधिक गाय,भैंस, बकरी एवं भेड़े रहती हैं और वे निरंतर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए पूरी तरह से अभयारण्य पर ही निर्भर रहते हैं। हालाँकि अभयारण्य मात्र इन्ही गाँवों की जरूरतों को पूरा नहीं करता बल्कि बारिश के मौसम में यहाँ आसपास के क्षेत्र से लगभग 35,000 से भी अधिक मवेशी चराई के लिए लाये जाते हैं। इसके अलावा 75 से अधिक गांव अभयारण्य के परीक्षेत्र पर स्थित हैं और यहाँ के लोग निरंतर जलाऊ लकड़ी और मवेशियों के लिए चारा लेने के लिए अभयारण्य का उपयोग कर रहे हैं।
इतनी बड़ी मात्रा में मानवीय आवश्यताओं को पूरा करने के बाद भी यह अभयारण्य कई ऐसी सेवाओं का खज़ाना हैं जिसकी हम न तो कल्पना कर सकते हैं और न ही मूल्यांकन। परन्तु एक कोशिश तो की जा सकती है।
इसी क्रम में, हाल ही में रणथम्भौर स्थित वन्यजीव संरक्षण संस्था टाइगर वॉच और रणथंभौर बाघ संरक्षण प्राधिकरण (Ranthambhore tiger conservation authority) द्वारा “कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य द्वारा दी जाने वाली पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का मूल्यांकन” करने के लिए एक अध्ययन करवाया गया, जिसका कार्य मेरे नितृत्व में किया गया।
यह अध्ययन दस लोगों की टीम (4 शोधकर्ता एवं 6 फील्ड कर्मचारी) द्वारा एक साल तक किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों और जांचों का परिणाम है जो अभयारण्य की विभिन्न सेवाओं पर प्रकाश डालता है।
अध्ययन के लिए आंकड़े संग्रहित करती टीम (फोटो: डॉ विशाल रसाल)
अध्ययन द्वारा संगृहीत आंकड़ों के संकलन से पता चलता है कि, प्रतिवर्ष कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य 36,730 करोड़ रुपए की सेवाएं देता है। हालांकि शायद ही कोई पर्यटक इस अभयारण्य का दौरा करता है, परन्तु अगर आप यहां पहुंचते हैं तो आपको विश्वास नहीं होगा कि, इस बंजर खाली प्रतीत होने वाले अभयारण्य से हमें इतनी बड़ी कीमत की सेवाएं मिलती हैं।
आखिर क्या होती हैं पारिस्थितिक तंत्र सेवाएं ?
हमारी प्रकृति में वन और अन्य सभी प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र अविश्वसनीय रूप से मूल्यवान संसाधनों का खज़ाना हैं। ये शुद्ध पानी और हवा का श्रोत होने के साथ-साथ लकड़ी, चारा, दवा आदि के रूप में लाखों लोगों को आजीविका भी प्रदान करते हैं। यदि सरल भाषा में कहा जाए तो ये सभी पारिस्थितिक तंत्र कुदरत के खज़ाने हैं, जिसे हम “प्राकृतिक पूंजी (Natural capital)” कहते हैं और हम जो लाभ प्राप्त करते हैं, उन्हें पारिस्थितिक तंत्र सेवाएँ (Ecosystem Services) कहते हैं।
पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को चार समूहों में वर्गीकृत किया गया है:
1 उत्पाद सेवाएँ (Provisioning services) : इन सेवाओं में सीधे उपयोग किए जाने वाले उत्पाद शामिल हैं जैसे भोजन, लकड़ी, चारा, दवाइयां आदि।
2 विनियमित सेवाएँ (Regulating Services) : इस श्रेणी में ऐसी प्रक्रियाएं शामिल हैं जो पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन को नियंत्रित करती हैं जैसे वनों द्वारा हवा की शुद्धता बनाए रखना, कार्बन स्ववियोजन (Carbon sequestration), नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen fixation), जल चक्र, जल शुद्धिकरण और मिट्टी के कटाव को रोकना आदि।
3 सहायक सेवाएँ (Supporting services) : वन पारिस्थितिक तंत्र के समुचित कार्यों को सही से चलाने के लिए सहायक सेवाएं आवश्यक होती हैं। ये ऐसा कोई उत्पाद प्रदान नहीं करती हैं जो सीधे मनुष्यों को लाभ देते हैं परन्तु पारिस्थितिक तंत्र के अन्य महत्व पहलु जैसे जीन पूल एवं जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये इतनी महत्वपूर्ण हैं कि, सभी पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं में, अकेले सहायक सेवाओं का योगदान लगभग 50% है।
4 सांस्कृतिक सेवाएँ (Cultural services) : इन सेवाओं में वनों से प्राप्त गैर-भौतिक लाभ शामिल हैं जैसे, मनोरंजन, सौंदर्य, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक लाभ आदि। यह मुख्यरूप से पर्यटन ही है जिसमें, अधिकांश प्राकृतिक क्षेत्रों जैसे कि, वन, पहाड़, गुफाएं, सांस्कृतिक और कलात्मक उद्देश्यों के लिए एक स्थान के रूप में उपयोग किए जाते हैं।
प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र और उनकी बहुमूल्य सेवाओं की कीमत का अनुमान लगाना निश्चित ही एक कठिन कार्य है।
पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का इतिहास एवं विषय उत्पत्ति :
1970 के दशक तक शोधकर्ताओं को एक ऐसी विधि की आवश्यकता महसूस होने लगी जिससे प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के लाभों का मूल्यांकन किया जा सके और वनों को काटने के बजाय उनके संरक्षण के लिए ठोस सबूत सामने रखे। इसी आवश्यकता ने, पारिस्थितिक तंत्र की भूमिका को दर्ज करने के उद्देश्य से ‘पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं’ के विचार को जन्म दिया।
हम सभी ने बचपन में कहानी सुनी है जिसमें, एक लालची आदमी सोने सारे अंडे एक साथ पाने के लालच में सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मार डालता है। इसी प्रकार हम मनुष्य भी छोटे फायदों के लिए प्राकृतिक वनों का दोहन कर रहे हैं।
ऐसे में हमें पारिस्थितिक तंत्र सेवा और उनके महत्त्व के दृष्टिकोण का उपयोग करके लोगों को जंगल या किसी अन्य पारिस्थितिक तंत्र के ‘वास्तविक मूल्य’ को समझा सकते हैं।
अब हम सबसे दिलचस्प भाग पर आते हैं। हम पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को मूल्य कैसे प्रदान करते हैं?
कुछ पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं में कई मापने योग्य वस्तुएं शामिल हैं, जैसे जंगली फल, चारा, लकड़ी, प्राकृतिक फाइबर, दवाएं। तो हम उन सेवाओं का एक मूल्य लगा सकते हैं। फिर कुछ सेवाएं ऐसी हैं जैसे स्वच्छ पानी, ऑक्सीजन और परागण जिनका मूल्य लगा पाना कठिन है। इसलिए यहां हम उनके मूल्य का आकलन करने के लिए अप्रत्यक्ष तरीकों का उपयोग करते हैं। जैसे कि, वन द्वारा मिलने वाले मिलने वाले जल की कीमत का आकलन करने के लिए कैलादेवी वन और गैर वन क्षेत्र से जल गुणवत्ता की जांच की गई। जांच में पाया गया कि, वनों से निकलने वाला पानी गैर वन क्षेत्रों की तुलना में बेहतर और शुद्ध था। फिर कुछ ज्ञात सूत्रों का उपयोग करके हमने कैलादेवी अभयारण्य से निकलने वाले पानी की मात्रा की गणना की और नगरपालिका जल विभाग की दरों के अनुसार हमने इस शुद्ध जल सेवा के लिए एक मूल्य ज्ञात किया।
जल गुणवत्ता की जांचने के लिए पानी के सैंपल लेते हुए टीम के सदस्य (फोटो: डॉ विशाल रसाल)
फिर कई ऐसी सेवाएँ भी हैं जिनकी कीमत का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। जैसे कुड़का खोह से सूर्यास्त का मनमोहक दृश्य, खोह के प्राचीन जल में तैरने का आनंद। ये अनुभव वाकई अनमोल हैं। कैलादेवी में लगभग तीन हजार साल पुराने रॉक पेंटिंग हैं। अब बताइये हम इन अमूल्य सांस्कृतिक विरासत पर मूल्य टैग कैसे लगा सकते हैं?
ऐसी सेवाओं का मूल्यांकन करने के लिए हमने “मूल्य+” दृष्टिकोण का प्रयोग किया। यहां ‘+’ अतिरिक्त मूल्यों को दर्शाता है जो रुपए के संदर्भ में अमूल्य हैं। इस अध्ययन में ऐसी सभी अमूल्य पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को सूचीबद्ध किया और उनके लिए कोई मूल्य टैग नहीं लगाया गया।
हम 21 विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का आकलन निम्नानुसार करते हैं
इस विषय को और बेहतर तरीके से समझने के लिए हमें ये समझना होगा कि, पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं को व्यापक रूप से प्रवाह लाभ (Flow benefits) और भंडार लाभ (stock benefits) के रूप में बांटा जाता है। प्रवाह लाभ वे होते हैं जिनका मनुष्यों द्वारा नियमित रूप से शोषण किया जाता है जैसे मछली पकड़ना, चराई और ईंधन की लकड़ी आदि। भंडार लाभ वे लाभ हैं जो एक पारिस्थितिक तंत्र में मौजूद तो होते हैं लेकिन विभिन्न कारणों से उपयोग नहीं किए जाते हैं जैसे कैलादेवी में मौजूद लकड़ी के भंडार का बाजार मूल्य तो बहुत है लेकिन भविष्य में इसका दोहन नहीं किया जा सकता है। सरल भाषा में समझे तो “भंडार लाभ” बैंक में जमा हमारी पूंजी की तरह है और “प्रवाह लाभ” प्रति वर्ष मिलने वाला ब्याज।
गहरी घाटियों को स्थानीय भाषा में खोह कहते हैं (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
अध्ययन में सभी प्रवाह लाभों का कुल 84.41 अरब रुपए प्रति वर्ष मूल्यांकन किया गया है; जिसमें सबसे अधिक मूल्य जीन पूल का 6124.01 मिलियन रुपए प्रति वर्ष पाया गया। इसके बाद भूजल सेवा (823 मिलियन/वर्ष), अपशिष्ट निपटारा (484.43 मिलियन/वर्ष), चारा (415 मिलियन/वर्ष), आवास सेवा (157.44 मिलियन/वर्ष), परागण (121.10 मिलियन/वर्ष), कार्बन स्ववियोजन (86.943 मिलियन/वर्ष), मिट्टी के पोषक तत्व (85.92 मिलियन/वर्ष), जलाऊ लकड़ी (38.08 मिलियन/वर्ष) रही। इसके अलावा अन्य सेवाएं जैसे मिट्टी कटाव का बचाव, संग्रहित जल, मछली, जैविक नियंत्रण, वायु शुद्धिकरण और धार्मिक पर्यटन आदि मिलकर कुल 105.42 मिलियन रुपए प्रति वर्ष रही।
वहीँ दूसरी ओर भंडार लाभों को कुल 36.6 अरब रुपए प्रति वर्ष देखा गया जिसमें मुख्यरूप से कार्बन और लड़की भडार को पाया गया जिनका मूल्य क्रमशः 2.570 और 34.1 मिलियन रुपए प्रति वर्ष था।
और इस प्रकार कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य कुल 36.6 अरब रुपए की पूंजी है जिसपर हमें हर वर्ष 84.41 अरब रुपए का सेवाओं के रूप में ब्याज प्राप्त होता है।
इस अध्ययन में संसाधन उपयोग की स्थिरता और निरंतरता को भी समझा गया और पाया कि, कैलादेवी अभयारण्य में कई पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं का अत्यधिक दोहन किया गया है और वे सेवाएं आज गंभीर खतरे में हैं। जिसका सबसे मुख्य कारण है ईंधन की लकड़ी के लिए वन का कटाव और भारी मात्रा में चराई।
अध्ययन में बाघों को एक सुरक्षित क्षेत्र प्रदान करने, अन्य वन्यजीवों के संरक्षण और मानव-वन्यजीव संघर्षों को कम करने के लिए पर्यटन जैसी कुछ सेवाओं को बढ़ाने के संभावित लाभों की पहचान की है। तथा बाघ पर्यटन को बढ़ावा देकर करौली जिले में स्थानीय लोगों के लिए अतिरिक्त रोजगार और राजस्व उत्पन्न करने की अपार संभावनाएं हैं।
वर्ष ऋतू में कैलादेवी वन्यजीव अभयारण्य (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
मानव समाज कई तरह से प्रकृति द्वारा लाभान्वित और उस पर निर्भर है। पहले समय में वनों को अपार संसाधनों का भण्डार माना जाता था और आर्थिक लाभ के लिए उनका दोहन भी किया जाता था। जैसे उदाहरण के लिए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा को लकड़ी, मसाले, दवाइयाँ और सबसे महत्वपूर्ण हाथियों जैसी वस्तुओं के लिए जंगलों की रक्षा करने के लिए कहा था!
अधिकांश वन वस्तुओं और सेवाओं की पुनःपूर्ति की भी एक सीमित क्षमता होती है। जैसे, यदि एक लकड़हारा लकड़ी के लिए बहुत सारे पेड़ काटता है, तो जंगल में कोई पेड़ नहीं बचेगा। संक्षेप में कहें तो, कोई जंगल नहीं बचेगा। और पेड़ों के साथ-साथ अन्य संबंधित सेवाएं जैसे मिट्टी और जल संरक्षण भी खत्म हो जायेगी। ऐसे में वह लकड़हारा कई लोगों के नुकसान के लिए जिम्मेदार है जो जंगल पर निर्भर हैं जैसे कि, किसान खेती में पानी की आपूर्ति के लिए जंगल पर निर्भर हैं, आदिवासी समुदाय शहद, दवा और अन्य उत्पादों के लिए जंगल पर निर्भर हैं। अंततः लकड़हारे का लालच जंगल को नष्ट करके उसकी नौकरी भी खा जायेगा। यदि बड़े पैमाने पर देखें तो सरकारें भी लालची लकड़हारे के रूप में कार्य कर रही हैं और अल्पकालिक छोटे आर्थिक फायदों जैसे बांध, खदान आदि के लिए जंगलों का व्यापार कर रही हैं।
अभयारण्य में भारतीय भेड़ियों की एक अच्छी आबादी पायी जाती है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
इसीलिए हमें सभी प्राकृतिक संसाधनों का ध्यानपूर्वक उपयोग करना चाइये ताकि प्ररिस्थितक तंत्र की पूंजी समाप्त न हो।
हमें यकीन है कि, इस आलेख और अध्ययन ने आर्थिक दृष्टि से कैलादेवी वन के संरक्षण के पक्ष में एक ठोस सबूत प्रस्तुत किए है। हालांकि, यह पारिस्थितिक तंत्र द्वारा दिए जाने वाले बहुत सारे लाभों में से केवल कुछ लाभों का ही मूल्यांकन है, परन्तु प्रकृति की सभी सेवाओं का मूल्य लगा पाना असंभव है।
इसी के साथ मैं इस आलेख को पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट के एक सुविचार के साथ समाप्त करता हूं !
“A nation that destroys its soils destroys itself. Forests are the lungs of our land, purifying the air and giving fresh strength to our people.”
कैलादेवी अभ्यारण्य वर्षों से विश्व प्रसिद्ध रणथम्भोर टाइगर रिज़र्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है परन्तु सभी ने संरक्षण की दृष्टि से इसे नजरअंदाज किया है, इसी कारण हाल तक यह किसी बाघ का स्थायी हैबिटैट नहीं बन पाया था। मानवीय गतिविधियों के दबाव और कुप्रबंधन से यह भू भाग बाघ विहीन ही रहा है। यहाँ एक ज़माने पहले अच्छी संख्या में बाघ हुआ करते थे। यद्दपि यह अभ्यारण्य आज भी भारतीय भेड़ियों (Indian Gray Wolf) के लिए एक उत्तम पर्यावास है, परन्तु इन्हें बाघ के बराबर हम दर्जा ही नहीं देते, हालाँकि इनकी स्थिति बाघों से भी बदतर है। परन्तु यह एक अलग बहस का मुद्दा है। कालांतर में कभी कभार घूमते फिरते नर बाघ, इस क्षेत्र में कुछ समय के लिए आते जाते रहे है, लेकिन मादा बाघ आते भी कम हैं और वह यहाँ लम्बे समय तक रुककर, इसे अपना आशियाना बना के अपना परिवार भी बसा लेते हैं। यह इस सवेदनशील प्राणी के लिए और भी दुस्कर कार्य है।
बाघ जहाँ मानवीय दबाव से नहीं पनप रहे वहीँ मानव इसलिए दुखी है, क्योंकि इस स्थान में संरक्षण के अत्यंत कड़े कानून लागु है। जिस प्रकार बाघ तनाव में है, उसी प्रकार यहाँ कमोबेश इंसान भी कम मुश्किल में नहीं है, इस दुविधा को कैलादेवी के एक गांव सांकड़ा में आठ गुर्जर भाइयों की जिंदगी में झाँकने से समझा जा सकता हैं, इन आठों में से मात्र एक ही भाई – बद्री गुर्जर की शादी हो पायी है, एवं बद्री के भी आठ लड़के हुए, उनमें से भी मात्र एक बेटे – जगदीश गुर्जर ही की शादी हो पायी है। यानि कुल सोलह व्यक्तियों में से मात्र दो लोगों की ही शादी हो पायी है। इस तरह के मसले कैलादेवी के सभी गाँवो में एक सामान्य बात है, इस क्षेत्र में लड़को की शादियां अत्यंत ही मुश्किल काम है, क्योंकि कैलादेवी के वन प्रबंधन से पैदा हुए माहौल में, यह इलाका अभावग्रस्त और कष्टप्रद होता जा रहा है, जहाँ लोग अपनी लड़कियों की अभ्यारण्य के गाँवो में शादियां ही नहीं कराते है। वहीँ दूसरी तरफ लोगों के संसाधनों के बेतरतीब दोहन के कारण बाघ भी भारी दबाव में है।
निष्कर्ष यह है की यहाँ न तो नर बाघों को आसानी से बाघिनों का साथ मिलता है, न ही लड़कों को आसानी से शादी के लिए लड़कियां मिलती हैं।
सांकड़ा गांव के बद्री के छः कंवारे भाई (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
परन्तु पांच वर्षों से यहाँ एक शुरुआत हुई है, जब कुछ बाघों ने इस कठिन अभ्यारण्य को अपनाया एवं कुछ प्रतिबद्ध लोगों ने उनकी मुश्किलों को आसान किया। इन लोगों में कुछ नए ज़माने के वन अधिकारी एवं वन रक्षक कर्मचारी हैं तो साथ ही इस कार्य में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई टाइगर वाच के टाइगर ट्रैकर टीम के सदस्यों ने ।
लगभग पांच साल (14 अगस्त 2015) पहले टाइगर वॉच का एक टाइगर ट्रैकर बाघ का एक फोटो लेकर आया, असल में यह टाइगर की पीठ के एक थोड़े से हिस्से का फोटो था, क्योंकि बाघ कैमरा ट्रैप के एकदम नजदीक से होकर निकला था। कैलादेवी अभ्यारण्य में बाघ का होना ही एक बड़ी घटना था। परन्तु आधे अधूरे फोटो से भी बाघ की पहचान हो गयी, यह बाघ कुछ समय से रणथम्भोर में से लापता हुए एक ‘सुल्तान’ नामक बाघ की थी। चिंतातुर वन अधिकारी भी आस्वस्त हुए की चलो ‘सुल्तान बाघ’ कैलादेवी में सुरक्षित है।
सुल्तान बाघ की कैलादेवी में आई प्रथम फोटो (फोटो: टाइगर वॉच)
कैलादेवी अभ्यारण्य एक विशाल भूभाग है, जहाँ रणथम्भोर के बाघों को विस्तार के लिए अपार सम्भावनाये हैं। कैलादेवी के पास का करौली सामाजिक वन क्षेत्र भी अत्यंत खूबसूरत एवं तुलनात्मक रूप से ठीक ठाक वन क्षेत्र है। इन दोनों वन क्षेत्रों से भी कहीं अच्छा वन पास के धौलपुर जिले का है। यह तमाम वन अभी तक भी उपेक्षित एवं कुप्रबंधन के शिकार है। लाल सैंडस्टोन के अनियंत्रित खनन एवं हज़ारों की संख्या में पालतू एवं आवारा पशुओं की चराई से बर्बाद हो रहे हैं। यह लाल सैंडस्टोन वही है जिस से लाल किला या दिल्ली की अधिकतर ऐतिहासिक इमारते बनी हैं।
सुल्तान बाघ की रणथम्भोर में अपनी वयस्कता हासिल करने से पहले (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
इन वनों की सुरक्षा से मानो सभी ने वर्षों से पल्लाझाड़ रखा हैं। अब तो लोग कोटा, बूंदी, अलवर एवं राजसमंद के वनों में बाघ स्थापित करने की बात करने लगे हैं, परन्तु करौली एवं धौलपुर को मानो ऐसी फेहरिस्त में डाल दिया है, जिनमें कोई सुधार की गुंजाईश नहीं हैं। जबकि यह वन मध्य प्रदेश के विशाल वनों से जुड़े हुए हैं।
कैलादेवी में मानवीय दखल को कम करने एवं संरक्षण की रणनीति बनाने के लिए मेरे आग्रह पर पहली बार रणथम्भोर के मानद वन्यजीव पालक श्री बालेंदु सिंह ने तत्कालीन वनमंत्री श्रीमती बीना काक को कैलादेवी जाने का सुझाव दिया एवं उन्होंने तय किया की कैलादेवी के लिए एक कंज़र्वेशन प्लान बनाया जाये, जिसमें एक रणनीति के तहत कार्य किया जाये एवं उसमें बसे हुए गाँवो का विस्थापन मुख्य मुद्दा था, परन्तु इतने गाँवो और लोगों को किस तरह विस्थापित किया जाये ? यह एक सबसे बड़ी समस्या थी। इसके लिए टाइगर वॉच द्वारा संकलित डाटा के आधार पर एक प्लान बनाया गया, 3 कोर एरिया बनाये जाने का प्रस्ताव दिया गया। यह प्रस्ताव का मुख्य उदेस्य था, कम से कम लोगों का विस्थापन किया जाये एवं अधिक से अधिक भू भाग को बाघों के लिए उपयोगी बनाया जाये।
कैलादेवी का सांकड़ा गांव जिसे YK साहू ने अपने ड्रोन से फोटोग्राफ किया
कैलादेवी के 66 गाँवो में लगभग 5000 परिवारों में 19,179 लोग रहते है। हालाँकि अभ्यारण्य मात्र इन्ही गाँवों के दबाव में नहीं है बल्कि पशु पालकों के 50 से अधिक अस्थायी कैंप भी लगते हैं जिन्हे स्थानीय भाषा में “खिर्काडी” कहा जाता हैं, इनमें लगभग 35,000 से अधिक भैंस आदि अभ्यारण्य में बारिश के 3 – 4 माह चराई के लिए आते हैं। इनके अलावा 75 से अधिक गांव अभ्यारण्य के परीक्षेत्र पर भी हैं। यह इतना प्रचंड मानवीय दबाव हैं के इसे कम किये बिना बाघों का संवर्धन संभव ही नहीं है। आज लगभग 1 लाख से अधिक गाय,भैंस, बकरी एवं भेड़े कैलादेवी में रहती है एवं इसी तरह लगभग इतने ही और पशुओं का दबाव बाहरी गाँवों से अभ्यारण्य पर बना रहता है। खैर जहाँ रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान में 110 से अधिक जंगली प्राणी प्रत्येक वर्ग किलोमीटर में बाघ के लिए उपलब्ध हैं, वहीँ कैलादेवी में इसके विरुद्ध 110 से अधिक पालतू पशु पर्यवास पर अपना दबाव डाल रहे है। यदि कोई बाघ या बघेरा इन्हे मार दे तो उनके प्रति और अधिक कटुता पैदा होती जाती है। और उनको बदले में जहर देकर मारना एक सामान्य बात रही हैं।
स्वास्थ्य,शिक्षा, मूलभूत एवं आधारभूत संसाधनों से वंचित लोग अभी तक अपंने पारम्परिक व्यवसायों से अपना पालन करते हैं, परन्तु इनकी नई पीढ़ियां नए ज़माने की चकाचोंध में अपने पारम्परिक कार्यों से भी दूर जा रही है एवं इस द्वन्द में है की किस प्रकार वह अपना भविष्य बनाये। यह द्वन्द उन्हें वन्यजीवों के संरक्षण के प्रति और अधिक नकारात्मक बना रहा है। जंगल के नियम कायदे इस नई पीढ़ी को और भी कठोर लगते हैं।
कैलादेवी अभ्यारण्य में रहने वाले लोगों का पारम्परिक कार्य हैं “पशुपालन” (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
संरक्षण एक महंगा काम है, धनाभाव में वन विभाग कैलादेवी में मात्र अपनी उपस्थिति ही रख पाया है, धरातल पर कोई अधिक संरक्षण कार्य सम्पादित नहीं कर पाये। सुझाये गए तीन कोर के पीछे मुख्य आधार दो बिंदु रहे – कम आबादी वाले क्षेत्र का विस्थापन के लिए चयन ताकि कम से कम लोगों को विस्थापित किया जाये एवं अधिक से अधिक भूमि बाघों के लिए बचायी जाये एवं ऐसे भौगोलिक स्थानों का चयन जो प्राकृतिक रूप से स्वयं संरक्षित हो तथा जिन्हे बचाना आसान हो।
इन प्रस्तावित तीन कोर क्षेत्रों का क्षेत्रफल लगभग कुल मिला कर 450 वर्ग किलोमीटर बनता है। यह लगभग रणथम्भोर राष्ट्रीय उद्यान से अधिक बनता है एवं इसके विकसित होने पर इस क्षेत्र में 50 अतिरिक्त बाघ रह सकते हैं।
इस रणनीति पर बनी योजना पर कार्य प्रारम्भ भी हुआ इसे गति मिली जब वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली सरकार राजस्थान में थी। परन्तु अभी और कार्य बाकि हैं। कैलादेवी के संरक्षण के लिए जाने माने बाघ विशेषज्ञ श्री वाल्मीक थापर ने अथक प्रयास किये। मेरे कैलादेवी के भेड़ियों पर किये गए काम से प्रभावित श्री वाल्मीक थापर एवं पुलिस प्रमुख श्री अजित सिंह ने कैलादेवी में कुछ भृमण किये और तय किया की क्यों न हम इस अभ्यारण्य को संसाधनों से संपन्न करें।
वाल्मीक थापर के सुझाव पर रणथम्भोर टाइगर कंज़र्वेशन फाउंडेशन से 5 करोड़ की निधि कैलादेवी के विकास के लिए दी गयी। इस धन से अभ्यारण्य और अधिक सक्षम बना एवं सरकार की इस मनसा को स्थापित किया के अब रणथम्भोर की तर्ज पर यहाँ भी काम होगा ।
नए काबिल अधिकारी लगाए गए इसी क्रम में सबसे बड़े भागीदार बने उस समय के उपवन संरक्षक श्री कपिल चंद्रवाल जिन्होंने पहली बार कैलादेवी को गंभीरता से लिया । कुछ समय पश्च्यात कैलादेवी को एक और नए उपवन संरक्षक मिल गए श्री हेमंत शेखावत, इन्होने अभ्यारण्य के स्टाफ को जिम्मेदार बनाया और टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम को और अधिक सशक्त बनाया और उनको संरक्षण के कार्य के लिए प्रेरित किया। श्री शेखावत वन प्रबंधन में इच्छा रखने वाले काबिल अधिकारी हैं। परन्तु कुछ कुण्ठित अधिकारियों ने श्री हेमंत शेखावत का तबादला बेवजहऐसे स्थान पर किया जहाँ वन्यजीव दूर-दूर तक नहीं हो। एक ऊर्जावान अफसर की इस प्रकार की उपेक्षा वन विभाग की छवि को धूमिल करती है। खैर कैलादेवी को फिर तीसरा कर्मठ उपवन संरक्षक मिला श्री नन्दलाल प्रजापत। यह अतयंत ईमानदार एवं प्रतिबद्ध अफसर रहे।
टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम असल में स्थानीय ग्रामीणों से बनी एक अनोखी टीम है। जिसे “विलेज वाइल्डलाइफ वालंटियर्स” कहा जाता हैं। यह टीम 2013 से कार्यरत हैं जिसे देश भर में सरहा गया हैं। इसके बारे में यहाँ अधिक विस्तार में जाना जा सकता हैं – Wildlife Warriors -The Village Wildlife Volunteers Programme by Ishan Dhar & Meenu Dhakad (https://tigerwatch.net/wp-content/uploads/2019/10/Book-Wildlife-Warriors.pdf)
जहाँ एक तरफ विभाग और स्वतंत्र लोग सक्रीय हुए वहीँ बाघों ने भी अपने प्रयास बढ़ा दिए:
सुल्तान के बाद एक और बाघ कैलादेवी पहुँच गया नाम था तूफान (T80) जिसे भी टाइगर वॉच टीम ने कैलादेवी में आते ही कैमरा ट्रैप में कैद कर लिया, यह प्रथम बार 17 जनवरी 2017 को देखा गया। परन्तु इसके वहां पहुँचते ही उसके दबाव से सुल्तान (T72) अपने क्षेत्र को छोड़ ना जाने कहीं और निकल गया। टाइगर वॉच टीम पुनः गहनता से T72 ढूंढ़ने लगी और एक अनोखी सफता मिली के T72 के साथ एक और बाघिन T92 कैमरा ट्रैप में कैद हो गयी। यह स्थान था, मंडरायल कस्बे के पास निदर का तालाब क्षेत्र में। यह कई वर्षों बाद हुआ, जब कोई मादा कैलादेवी में पायी गयी। T92 एक अल्प वयस्क बाघिन थी जो 2 वर्ष पुरे होते ही, अपनी माँ T11 को छोड़ नए स्थान को ढूंढ़ने निकल गयी। T92 को नाम दिया गया सुंदरी। मेरे पिछले 18 वर्ष के रणथम्भोर अनुभव बताते है, की इतने वर्षों में सात नर बाघ – T47, T07, T89, T38, T72 , T80 & T116 कैलादेवी पहुंचे परन्तु इतने ही वर्षों में मादा बाघ मात्र एक ही गयी और वह थी यही T92।
तूफान टाइगर की रणथम्भोर और कैलादेवी में घूमने वाला बाघ (फोटो: टाइगर वॉच)
बाघों का कुनबा बढ़ने लगा:
लगभग एक वर्ष के पश्च्यात टाइगर वॉच टाइगर ट्रैकिंग टीम के सदस्य बिहारी सिंह के मोबाइल से एक अजीबो गरीब सन्देश मेरे पास आया की एक बाघ गहरी खो (gorge) में दो सियारों के साथ घूम रहा है, और दोनों सियार उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं। यह स्थान मेरे से 140 किलोमीटर दूर था, परन्तु मैंने ऑफिस के मुख्य स्टाफ को अपने साथ ले लिया के चलो आज कुछ खास देखने चलते है। मुझे पता था, के यह सियार नहीं हो सकते, यदपि यह ट्रैकिंग टीम का कोई कोड मैसेज भी नहीं था, परन्तु यह उनका अवांछनीय सावधानी का एक हास्यास्पद नमूना भर था। मेरी समझ में आ चूका था, के यह बाघिन T92 के साथ उसके शावक के अलावा कुछ और नहीं हो सकता । सुचना आने के लगभग 3 घंटे बाद मध्य अप्रैल (14 /04 /2018) के गर्म दिन में दोपहर चार बजे करौली- मंडरायल सड़क के किनारे की एक गहरी खो में बाघिन (T92) बैठी थी, कुछ ही पल बाद वहां दो छोटे (3 -4) माह के शावक उसके पास बैठ के उसका दूध पिने लगे। यह सब नजारा हम 7 लोग 200 मीटर दूर खो के ऊपरी किनारे से देख रहे थे। यह एक बेहद शानदार पल था, जिसके पीछे अनेक लोगों की कड़ी मेहनत थी। मादा सुंदरी (T92) के इन दोनों शावकों का पिता नर सुल्तान (T72) भी अपनी जिम्मेदारी गंभीरता से ले रहा था। उसी दिन अप्रत्यक्ष प्रमाण मिले के सुल्तान T72 ने गाय का शिकार किया था एवं उसे वह लगभग एक किलोमीटर घसीट कर उस तरफ ले आया जहाँ T92 भी उसे आसानी से खा सके।
बाघिन T92 सुंदरी एवं उसके दो शावक की कैलादेवी में ली गई फोटो (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
शावक बड़े होने लगे और दोनों शावक माँ से अलग हो गये एवं इनको नए कोड नाम दिए गए T117 (श्री देवी) एवं T118 (देवी) एवं अचानक से एक और बाघ के रणथम्भोर से कैलादेवी आने की खबर आयी। DFO श्री प्रजापत जी के विशेष आदेश पर टाइगर वॉच की टीम को उसकी मॉनिटरिंग के लिए लगाया गया और कुछ दिनों में टाइगर वॉच के टाइगर ट्रैकिंग टीम के केमरा ट्रैप में इस नए मेहमान की फोटो ट्रैप हुई जिसकी पहचान हुई की बाघ T116 के रूप में, जो रणथम्भोर के कवालजी वन क्षेत्र से निकल कर आया है, और 100 किलोमीटर से अधिक दुरी तय कर यह बाघ धौलपुर पहुँच गया। इस दौरान टाइगर वॉच की ट्रैकिंग टीम ने अपने तय कार्य को छोड़ T116 को धौलपुर आदि क्षेत्र में ढूढ़ने में लगी रही क्योंकि वन विभाग के नव नियुक्त बायोलॉजिस्ट ने मंडरायल को पूरी तरह सँभालने का दावा करने लगा। अनुभवहीन व्यक्ति को नेतृत्व देने का फल अत्यंत कष्ट दायक रहा। अचानक से एक दिन फरवरी 2020 में बाघिन T92 कहीं गायब हो गयी। महीनों की तलाश के बाद तय हुआ की वह नहीं मिलेगी। स्थानीय वाइल्ड लाइफ बायोलॉजिस्ट फिर अपनी अकर्मण्यता को छुपाते हुए, मन बहलाने के लिए बोलने लगा की बाघिन मध्य प्रदेश चली गयी और शायद यही सब को सुनना था, सो महकमा संतोष करके बैठ गया।
घटनाक्रम (Chronology)
14 अगस्त 2015: सुल्तान टाइगर T72 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा टीपन घाटी- कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया।
17 जनवरी 2017: तूफान टाइगर T80 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा टीपन घाटी – कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया।
30 जनवरी 2017: सुंदरी बाघिन T92 प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा निदर की डांग- कैलादेवी में कैमरा ट्रैप कि गयी ।
14 अप्रैल 2018: बाघिन सुंदरी के शावक प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा जाखौदा की खो – कैलादेवी में कैमरा से फोटो लिया गया।
04 जनवरी 2020: बाघ T116 को गिरौनिया खो -धौलपुर में प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा कैमरा ट्रैप किया गया।
09 जनवरी 2021: बाघिन T117 को पहली बार दो शावकों के साथ देखा गया एवं एक सप्ताह में प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा रींछड़ा गिरौनिया -धौलपुर में कैमरा ट्रैप किया गया।
23 जनवरी 2021: बाघिन T118 को पहली बार दो शावकों के साथ प्रथम बार टाइगर वॉच टीम द्वारा घोड़ी खो कैलादेवी में कैमरा ट्रैप किया गया।
उधर धौलपुर में T116 के क्षेत्र में कई गायों के शिकार मिले, तो लगने लगा, यहाँ एक से अधिक बाघ विचरण कर रहे हैं, और यही हुआ इसी वन क्षेत्र में एक बाघिन शावक T117 का विचरण भी मिल गया एवं उसकी फोटो भी कैद हो गयी। अत्यंत शर्मीली बाघिन वर्ष 2020 में धौलपुर में मात्र 18 बार कैमरा ट्रैप में कैद हुई, परन्तु नर T116 इसके बजाय 69 बार कैमरे में कैद हुआ। यानि 4 गुना अधिक बार हम उसके रिकॉर्ड प्राप्त कर पाए। यह हर बार आवश्यक नहीं की वह कैमरे में कैद हो, परन्तु उसके पगमार्क आदि सप्ताह में 3-4 बार मिलना यह सुनिश्चित करता है की बाघ सुरक्षित है। इसी विधि से टाइगर वॉच की टाइगर ट्रैकिंग टीम निरंतर कार्य करती है। कुछ दिनों में बाघिन T117 भी मिल गई एवं इसको ढूंढ़ते हुए तूफान (T80) भी मिल गया। यह दोनों करौली के सामाजिक वानिकी क्षेत्र में मिले।
बाघिन T117 धौलपुर के वन में विचरण (फोटो: टाइगर वॉच)
बाघ T116 का धौलपुर के वन में विचरण (फोटो: टाइगर वॉच)
पहली बार घुमंतू बाघों को बाघिन मिल गई एवं यह नर बाघ इन्ही के क्षेत्र में बस गए। जहाँ तूफान बाघ रणथम्भोर के भदलाव, खण्डार, बालेर, महाराजपुरा एवं नैनियाकि रेंज के 400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को घूमा करता था, वहीँ आज वह मात्र T118 के नजदीक रहने लगा। उधर बाघों के धौलपुर पहुँचते ही पूर्व मुख्यमंत्री महोदया श्रीमती वसुंधरा राजे ने मुझे फ़ोन कर ताकीद किया के “इन बाघों पर कड़ी नजर रखो एवं यदि किसी प्रकार की आवस्यकता हो तो उन्हें सीधे सूचित किया जाये”। बाद में उनके खास सलाहकार रहे वन अधिकारी श्री अरिजीत बनर्जी भी समय-समय पर खोज खबर लेते रहे। इन दोनों की व्यक्तिगत रूचि ने हमें और हमारी टीम को और अधिक सतर्क बना दिया। उनकी बाघों के प्रति गंभीरता अत्यंत प्रभावित करने वाली थी। अचानक से वह दिन आया जिसका इंतजार था, बाघिन T117 एवं T118 दोनों के ही जनवरी 2021 के एक सप्ताह में शावकों की फोटो टाइगर वॉच की ट्रैकिंग टीम के केमरे में दर्ज हो गयी। यह अत्यंत खुशी का पल था, सभी टीम सदस्य खुश और उत्साहित थे की इस बार भी टाइगर वॉच की टीम ने इनको सबसे पहले दर्ज किया। आज मंडरायल-करौली एवं सरमथुरा-धौलपुर में नो बाघ पल रहे है, इन्होने स्वयं यह जगह तलाशी और स्थापित किया के बाघों के लिए इस इलाके में संभावनाएं हैं।
बाघिन T117 एवं उसके दो शावक धौलपुर वन क्षेत्र में (फोटो: टाइगर वॉच)
कैलादेवी में पैदा हुए T118 के शावक एवं स्वयं T118 (फोटो: टाइगर वॉच)
यह टाइगर वॉच की इस टाइगर ट्रैकिंग टीम जिसे विलेज वाइल्ड लाइफ वालंटियर्स के नाम से जाना जाता हैं को श्री योगेश कुमार साहु ने स्थापित किया हैं, एवं उनकी प्रेरणा से 2013 में इस टीम को स्थापित किया गया एवं फिर जाने माने बाघ विषेशज्ञ श्री वाल्मीक थापर ने इसे और अधिक संवर्धित किया। वन्यजीव मंडल के सदस्य श्री जैसल सिंह ने इसे वित्तीय सहायता देकर पोषित किया एवं आगे बढ़ाया। यदपि इसके पीछे अनेकोनेक लोगों ने संसाधनों को जुटाया है। वनविभाग भी कुछ वर्षो से इसे वित्तीय सहायता दे रहा है। यह आज विभाग के एक अंग की तरह कार्य कर रहा है।
कैलादेवी में कार्यरत टाइगर वॉच की टीम एवं लेखक
विभाग के कुछ कुण्ठित अफसर ने इस कार्यक्रम को कमजोर करने एवं इसके टुकड़े कर एक अलग संगठन खड़ा करने का प्रयास भी किया परन्तु उन्हें अधिक सफलता नहीं मिल पाई। आज यह टीम मजबूती से अपने कार्य को सम्पादित कर रही है।
कैलादेवी को वन विभाग ने दो हिस्सों में बांटा था, क्रिटिकल टाइगर हैबिटैट (CTH) एवं बफर। बाघों के मामलों पर नियंत्रण रख ने वाली केंद्रीय संस्था NTCA ने अस्वीकार कर दिया के प्रस्तावित बफर को भी CTH ही बनाओ, क्योंकि यह अभ्यारण्य का हिस्सा है। खैर यह मसला आज तक हल नहीं हुआ। परन्तु बाघों ने यह स्थापित कर दिया के कैलादेवी के CTH से अधिक अच्छा क्षेत्र प्रस्तावित बफर वाला रहा है। यह एक नमूना है विभाग के कागजी प्लान का जो टेबल पर ही बना है। यद्दपि वन विभाग के अनेक वनरक्षक आज सीमा पर प्रहरी की भांति डटे है एवं उन्ही की बदौलत कैलादेवी जैसे विशाल भूखंड संभावनाओं से भरे हैं।
बाघ के लिए अपार सम्भावनाओ की भूमि (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
सुंदरी बाघिन T92 की तलाश के लिए करौली पुलिस के एक नए IPS अफसर – श्री मृदुल कछावा ने कई प्रयास किये भी थे, परन्तु शायद नियति को कुछ ज्यादा मंजूर नहीं था। उन्होंने कुछ शिकारी गिरफ्तार भी किये परन्तु अधिक कुछ स्थापित नहीं हो पाया।
परन्तु उसका बैचेन साथी सुल्तान आज भी अपनी प्रेयसी की तलाश में इधर-उधर घूमता है, और शायद हम सभी को कोसता होगा के हम सब मिलकर एक लक्ष्य के लिए कब कार्य करेंगे और कब स्थानीय लोग बाघों को उनका पूरा हक़ लेने देंगे ?
“कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते हैं , जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।”
प्रकृति में पाये जाने वाले अन्य सभी जीवों की तुलना में कुत्तों को इंसानों का सबसे भरोसेमंद साथी माना जाता है। कुत्तों की उत्पत्ति को मानव उद्विकास की कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रृंखला में एक प्रमुख कड़ी कहा जा सकता है। आनुवंशिक शोध के अनुसार कुत्तों की उत्पत्ति आज से लगभग 15000 से 40000 वर्ष पूर्व यूरोप, मध्य-पूर्व, व पूर्वी एशिया में भेड़ियों की एक से अधिक वंशावलियों से हुई मानी जाती हैं। कुत्ते एवं मानव के इस समानान्तर उद्विकास को सहजीविता का उत्तम उदाहरण कहा जा सकता है। आधुनिक मानव (Homo sapiens) ने अपनी शिकार एवं सुरक्षा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भेड़ियों को पालतू बनाया जिसके बदले भेड़ियों को भी सुरक्षा, आवास, एवं भोजन की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित हुई। तब से लेकर अब तक कुत्तों का इस्तेमाल व्यापक रूप से कई क्षेत्रों में होता आ रहा है , जैसे की शिकार में सहायता से लेकर पशु धन, सम्पदा, व खेतों की सुरक्षा, विस्फोटकों और रसायनों को सूंघने से लेकर बर्फीले स्थानों में परिवहन एवं सबसे महत्वपूर्ण, इंसान का सबसे वफादार दोस्त। कुत्तों व मानव के इस गहरे रिश्ते को अनको कहाँनियों, व फिल्मों के माध्यम से बड़े ही रोमांचित तरीके से दर्शाया गया है । इसी रोमांचित छवि से परे इसी रिश्ते का एक और महत्वपूर्ण पहलू भी है, जिसे सदैव नजरंदाज किया जाता है ।
कुत्तों की अनियंत्रित रूप से बढ़ती संख्या सम्पूर्ण विश्व में जन-स्वास्थ्य की दृष्टि के साथ-साथ वन्य जीवन के लिए भी एक बहुत बड़ा खतरा है । सिडनी विश्व विध्यालय के डॉ टिम एस. डोहरती के एक शोध के अनुसार दुनिया में अब तक कशेरुकी जीवों की 11 प्रजातियों जिसमें पंछी, स्तनधारी, व सरीसृप शामिल है के सम्पूर्ण विलुप्ति करण में कुत्तों का मुख्य योगदान रहा है। इसी के साथ 188 और संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए कुत्तों को सबसे बड़े संभावित खतरे के रूप में देखा जाता है। भारत में डॉ चंद्रिमा होम द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार कुल 80 वन्यजीवों की प्रजातियाँ कुत्तों के हमलों से प्रभावित पायी गयी जिनमें से 30 प्रजातियाँ IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में शामिल है। इसी शोध में कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर दर्ज कुल हमलों के 45% मामलों में पीड़ित प्राणी अंततः मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार राजस्थान में भी डॉ गोबिन्द सागर भारद्वाज व साथियों द्वारा Indian Forester में प्रकाशित एक अन्वेषण के अनुसार सन 2009 से 2016 के बीच थार रेगिस्तान में 3624 चिंकारा, 607 नील गाय, व 645 काले हिरण के विभिन्न कारणों से घायल होने के मामले दर्ज किए गए थे। इन कुल मामलों में 74.28% चिंकारा, 55.68% नील गाय, व 68.68% काले हिरण के घायल होने का कारण कुत्तों द्वारा हमला पाया गया था। दर्ज मामलों के आधार पर इन जीवों की मृत्यु दर बहुत ज्यादा 96.7% पायी गयी।
कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य की एक तस्वीर जिसमे आवारा कुत्तों और भेड़ियों के बीच भोजन को लेकर संघर्ष को देख सकते है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
बढ़ती आबादी के कारण:
एक पारिस्थितिकी तंत्र में किसी भी जीवों की संख्या भोजन की उपलब्धता, परभक्षियों से खतरा, एवं संक्रामक रोगोंके प्रकोप पर निर्भर करती है। कुत्ते मुख्यतः सर्वाहारी होते हैं, एवं भोजन हेतु सीधे तौर पर इंसान द्वारा उपलब्ध खाने, कचरे के ढेर,और मृत जीवों पर आश्रित रहते हैं। इसी कारण कचरा एवं मृत जीवों के प्रबंधन व निस्तारण की कुशल प्रणालियों का अभाव कुत्तों के लिए लंबे समय तक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करता है, परिणामस्वरूप कुत्तों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है।
पिछले कुछ दशकों में कुत्तों की बढ़ती संख्या को एक खास पारिस्थितिकी बदलाव से भी जोड़ के देखा गया है। 1990 के दशक में सर्वप्रथम कैवलादेवी राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर में गिद्धों की आबादी में अचानक से गिरावट दर्ज की गयी थी। गिद्ध प्रकृति के सबसे महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य रूप से मुर्दा खोर (Obligatory scavenger) जीव हैं, जो पर्यावरण में मृत जीवों को खाकर उनके निष्कासन में अहम भूमिका निभाते है। भारत में गिद्धों की तीन मुख्य प्रजातियों (Gyps indicus, Gyps bengalensis, and Gyps tenuirostris) की संख्या में ये गिरावट 95% से भी अधिक देखी गयी थी, जो की सबसे बहुतायत में पाये जाने वाले गिद्ध थे। गिद्धों की संख्या में इतनी भारी गिरावट के कारण मृत जीवों के निष्कासन की दर धीमी हो गयी, परिणाम स्वरूप मृत जीवों की उपलब्धता में एकाएक वृद्धि पायी गयी।
वैकल्पिक मुर्दा खोर (Facultative scavenger) होने के कारण मृत जीवों की इस उपलब्धता का लाभ कुत्तों को हुआ एवं उनकी आबादी में जबरदस्त बढ़त देखी गई। वैकल्पिक मुर्दाखोर वह जीव होते हैं जो मुख्य रूप से भोजन के लिए अन्य चीजों पर निर्भर होते हैं परंतु अवसर मिलने पर मृत जीवों का भी प्रमुखता से सेवन करते हैं। कुत्तों की यही बढ़ती संख्या अब संकटग्रस्त गिद्धों के संरक्षणव आबादी के पुनःस्थापन में सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि कुत्ते अपने उग्र व्यवहार व अधिक संख्या में होने के कारण गिद्धों को मृत जीवों से दूर रखते हैं। दूसरी और भारत के शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों में बड़े शिकारी वन्य जीवों की अनुपस्थिति के कारण कुत्ते सर्वोच्च शिकारी बन चुके हैं जिस कारण इनसे किसी जीव द्वारा परभक्षण का खतरा नहीं है। । मनुष्य द्वारा प्रदत्त भोजन की उपलब्धता, बड़े शिकारी वन्य जीवों का अभाव, एवं प्रबंधन की खामियों के कारण कुत्तों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
वन्य-जीवन पर विपरीत प्रभाव:
कुत्ते दुनिया भर में सबसे व्यापक व बहुतायत में पाये जाने वाले carnivore हैं, जिनकी वैश्विक आबादी लगभग 1 अरब है। इस आबादी में भारत का हिस्सा लगभग 6 करोड़ का माना जाता है। कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर हो रहे हानिकारक प्रभाव को उनके घुमन्तू व्यवहार एवं मानव पर उनकी निर्भरता के आधार पर समझा जा सकता है। इस आधार पर कुत्तों को निम्न भागों में बांटा गया है।
पालतू कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मुख्यतः उनके मालिक द्वारा तय परिसीमन के अन्दर ही होती हैएवं ये भोजन व आवास के लिए पूर्णतः अपने मालिक पर ही निर्भर होते है। सीमित गतिविधियों के कारण ये कुत्ते वन्यजीवों के सबसे कम संपर्क में आते हैं।
शहरी आवारा कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मोहल्लों एवं गलियों तक सीमित रहती है। ये कुत्ते वन्यजीवों के लिए मुख्य खतरा नहीं है परंतु जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से जीव-जनित बीमारियों का सबसे बड़ा स्रोत हैं।
ग्रामीण आवारा कुत्तों,जो की गाँवों व उनके आस-पास के इलाकों में पाये जाते हैं। इसी श्रेणी के कुत्तों की एक बहुत बड़ी आबादी गाँवों व मानव बस्तियों से बहुत दूर तक स्वछंद विचरण करती है एवं वन्य जीवों को बहुत बड़े स्तर पर प्रभावित करती है। विश्व में पायी जाने वाली कुल कुत्तों की आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा इसी श्रेणी में आता है।
स्वछंद विचरण करने वाले कुत्तों की यही आबादी वन्यजीवों के सबसे अधिक संपर्क में आती है, परिणामस्वरूप वन्यजीवों के लिए बहुत बड़ा खतरा प्रस्तुत करती है। अपने क्षेत्रीय व्यवहार से प्रेरित कुत्ते अकसर अपने इलाकों के विस्तारण हेतु इंसानी बस्तियों से दूर संरक्षित और असंरक्षित वन्यजीव क्षेत्रों में घूमते वन्य जीवों को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित करते हैं।
आवारा कुत्ते न सिर्फ वन्य-जीवों को सताते है बल्कि गुट में उनपर हमला कर घायल और कई बार जान से मार भी देते हैं (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
कुत्ते मुख्य परभक्षी:
कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। कुत्तों का ये हानिकारक प्रभाव लगभग सभी छोटी व बड़ी सिम्पेट्रिक प्रजातियों पर देखा जा सकता है। सिम्पेट्रिक प्रजातीयाँ वह प्रजातीयाँ होती हैं जो एक ही आवास में रहकर समान संसाधनों का समान रूप से प्रयोग करती है। उदाहरण के लिए भारतीय-लोमड़ी, मरु-लोमड़ी, सियार, एवं कुत्ते सिम्पेट्रिक प्रजाति है। उसी प्रकार बाघ एवं तेंदुआ भी सिम्पेट्रिक प्रजाति है। सिम्पेट्रिक प्रजातियों से इस संघर्ष का परिणाम अकसर वन्य जीवों की मृत्यु ही होता है। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।
कुत्ते वन्य जीवों का भोजन:
सामान्यतः परभक्षी की भूमिका निभाने वाले कुत्ते कई स्थानों पर बड़े परभक्षियों के भोजन का मुख्य हिस्सा भी हैं। देश के कई स्थानों में मानव बस्तियों के आस-पास पाये जाने वाले तेंदुओं को कुत्तों का बहुतायत में शिकार करते पाया गया हैं। कुत्तों का शिकार करते हुए तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी अक्सर मानव बस्तियों में घुस आते हैं जो की बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष को जन्म देते हैं। इस संघर्ष का परिणाम मानव व वन्य जीवों दोनों के लिए हानिकारक होता हैं।
वन्य जीवों के व्यवहार में परिवर्तन एवं उसका प्रभाव:
कुत्तों न केवल प्रत्यक्ष रूप से शिकार कर वन्यजीवों की संख्या घटाते है परंतु परोक्ष रूप से उनके व्यवहार को भी बदलते है। संसाधन परिपूर्ण आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्या वन्य जीवों के संसाधन उपयोग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। पारिस्थितिकी तंत्र में संसाधनों से तात्पर्य भोजन, पानी, व आश्रय स्थल की उपलब्धता से होता है। ऐसे आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्यावन्य जीवों को निम्न गुणवत्ता वाले संसाधन क्षेत्रों में विचरण करने को मजबूर करती है। इसका परोक्ष रूप से प्रभाव उनके स्वास्थ्य व प्रजनन क्षमता पर पड़ता है जो की अंततः वन्य जीवों की घटती आबादी का कारण बनता है।
कुत्ते संक्रामक बीमारियों के वाहक:
वन्य जीवों व कुत्तों के बीच किसी भी प्रकार का संपर्क, चाहे वह शिकार के तौर पर हो या शिकारी के तौर पर, कुत्तों द्वारा फैलने वाली संक्रामक बीमारियों का खतरा वन्यजीवों के लिए बढ़ाता ही है। अधिकांश मामलों में बीमारियों का यह संक्रमण किसी भी वन्यजीव की सम्पूर्ण आबादी मिटाने के लिए पर्याप्त होता है। कुत्तों में 358 प्रकार के रोग-जनक बैक्टीरिया, कवक, एवं वायरस के रूप में पाये जाते हैं। इनमें से तीन मुख्य वायरस विश्व में कई स्थानोंपर वन्यजीवों की संख्या में गिरावट के उत्तरदायी पाये गए हैं। यह है, रेबीज़ वायरस (RABV), Canine distemper virus (CDV) एवं Canine parvo virus (CPV)। सन 1989 में अफ्रीका के सेरंगेटी के घास के मैदानों में पाये जाने वाले अत्यंत संकटग्रस्त जंगली कुत्तों की कई स्थानीय आबादियों की विलुप्ति का कारण RABV के संक्रमण को पाया गया है। कुछ इसी तरह का प्रभाव 1994 में ईथोपीयन भेड़ियों पर भी देखा गया था। इसी साल सेरंगेटी में ही CDV के प्रकोप से एक हजार से अधिक शेर मारे गए थे जो की वहाँ की कुल शेरों की आबादी का एक तिहाई हिस्सा था।
भारत में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों में बीमारियों के संक्रमण से संबन्धित शोध का अत्यधिक अभाव एवं कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़ों की कमी के कारण इन संक्रामक बीमारियों का वन्य जीवों पर प्रभाव कम ही ज्ञात है। डॉ वानक द्वारा महाराष्ट्र के नानज में किए गए एक शोध में टेस्ट किए गए 93.3% कुत्तों में CPV तथा 90.7% कुत्तों में CDV से संबंधित एंटिबोडीज़ पाये गए। नानज में पायी गई कुछ मृत भारतीय लोमड़ियों में भी CDV का संक्रमण पाया गया था। तत्पश्चात भारतीय लोमड़ी पर की गई रेडियो टेलीमेट्री विधि से किए गए शोध में लोमड़ियों व कुत्तों में बढ़ते संपर्क के आधार पर लोमड़ियों की आबादी में बड़े स्तर पर CDV की संभावना व्यक्त की गई है।
Tiger Watch संस्था के वन्यजीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल की एक जांच के अनुसार रणथम्भोर राष्ट्रीय उध्यान की सीमा के नजदीक भारतीय लोमड़ी का एक परिवार जिसमें नर व मादा के साथ उनके पाँच बच्चे थे की मृत्यु CDV के कारण पायी गयी। डॉ खांडल ने बताया की लोमड़ी के परिवार में मृत्यु से पहले CDV के लक्षण जैसे की आंखों में सूजन, तंत्रिका तंत्र (Nervous system)के ठप्प पड़ जाने के कारण चाल डगमगाना व डर की अनुभूति नहीं होना देखे गए थे।
राजस्थान में कुत्तों का गंभीर प्रभाव:
राजस्थान के परिपेक्ष्य में कुत्तों की समस्या वन्यजीवों के संरक्षण के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसका प्रमुख कारण राज्य में वन्य जीव संरक्षण क्षेत्रों की कम संख्या एवं अधिकांश वन्य जीवों का इन संरक्षित क्षेत्रों से बाहर गौचर, ओरण एवं कृषि भूमि में पाया जाना हैं। डॉ भट्टाचार्जी के एक शोध के अनुसार पश्चिम राजस्थान के इन्हीं असंरक्षित क्षेत्रों में संकटग्रस्त जीव जैसे चिंकारा व काले हिरणों का जनसंख्या घनत्व भारत के कई बड़े-बड़े वन्यजीव संरक्षित क्षेत्रों के बराबर हैं। इन क्षेत्रों में प्रबल मानवीय गतिविधियों के कारण कुत्तों की संख्या बहुत अधिक है जो की इन संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए निरंतर बढ़ता खतरा है। राजस्थान के इन शुष्क क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले बड़े परभक्षी जीवों के अभाव में कुत्ते खाद्य श्रृंखला में सर्वोच्च परभक्षी की भूमिका निभाते हैं।
राज्य के कई कस्बों व शहरों के बाह्य क्षेत्रों में मृत मवेशियों को डालने वाले स्थल भी आवारा कुत्तों की बहुत बड़ी संख्या को भोजन उपलब्ध कराते हैं। ये स्थान वन्यजीव क्षेत्रों के आस-पास ही होते हैं जो की कई प्रवासी व स्थानीय गिद्धों की बड़ी संख्या का भी बसेरा है, परंतु कुत्तों की बढ़ती तादाद अक्सर इन गिद्धो को उपलब्ध भोजन से वंचित रखती हैं। कई किसान इन क्षेत्रों में अपने खेतों की सुरक्षा हेतु बाड़ बनाने में महीन जाली का उपयोग करते हैं जो की कई वन्यजीवों के लिए लगभग अदृश्य होती है। परिणामस्वरूप चिंकारा एवं काले हिरण जैसे सींगो वाले जीव खेत पार करते समय इन जालियों में फंस आवारा कुत्तों का आसान शिकार बन जाते हैं। केवल स्थानीय स्तनधारी ही नहीं अपितु प्रति वर्ष हिमालय पार कर सर्दियों में आने वाली प्रवासी कुर जाएँ भी बड़ी संख्या में कुत्तों का शिकार बनी देखी जा सकती हैं । राजस्थान में कुत्तों का ये भयावह प्रकोप खरगोश जैसी छोटी प्रजाति से लेकर सियार व भेड़ियों जैसे मध्यम व बड़े आकार के शिकारियों पर भी बहुत प्रभावी रूप से देखा जा सकता हैं।
हालांकि तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी कुत्तों का भोजन के रूप में शिकार करते हैं परंतु इन बड़े परभक्षियों के शावक संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले कुत्तों से सुरक्षित नहीं होते तथा मारे जाते हैं।
वर्ष 2017 में कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य के पास कुत्तो के एक गुट ने लेपर्ड के दो छोटे शावकों को मौत के घाट उतार दिया था।(फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
आबादी नियंत्रण व प्रबंधन संबंधी नीतियाँ:
वास्तव में हमारे देश में कुत्तों के प्रबंधन संबंधी नीतियाँ उनकी संख्या कम करने के उद्देश्य से नहीं अपितु उनपर हो रही क्रूरता के निवारण तथा जीव अधिकारों की रक्षा को मद्दे नजर रखते हुए बनाई गयी है। पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अंतर्गत पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम 2001 का उल्लेख किया गया है। इस नियम के अंतर्गत कुत्तों की आबादी नियंत्रण के उपायों को चार चरणों में बताया गया है। ये चरण हैं,उन्हें पकड़ना, नसबंदी करना, टिकाकरण, एवं पुन: उसी आवास में छोड़ देना है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस नियम में कुत्तों को पुन: उसी आवास में छोड़ने की बात पर ज़ोर दिया गया है अर्थात यह नीति गली मोहल्लों से कुत्तों की आबादी हटाने के लिए नहीं परंतु वास्तव में ये आबादी बनाए रखने को प्रेरित करती है। उपरोक्त नियमों में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों पर पड़ रहे खतरनाक प्रभावों से निपटने के लिए किसी प्रकार के उपायों का ना तो उल्लेख है ना ही ये नियम इन प्रभावों को ध्यान में रखते हुए बनाये गये हैं।
कुत्तों की नसबंदी द्वारा जन्म दर नियंत्रण कर इनकी संख्या को कम करने का तरीका लंबे समय से अप्रभावी रहा है। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों की आबादी के प्रभावी नियंत्रण के लिए किसी भी स्थान में कुत्तों की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक निश्चित समय के अंदर (नए प्रजनन काल के शुरू होने से पहले ही) बंध्य करना आवश्यक है। ये तब ही संभव हो सकता हैं जब हमारे पास कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़े, उनके आवासों एवं आबादी को बढ़ाने वाले कारकों के संबंध में अधिक वैज्ञानिक शोध व जानकारी हो जिसका वास्तविकता में बहुत अभाव हैं। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों का प्रभावी नियंत्रण भारत जैसी बड़ी आबादी वाले एक विकासशील देश के लिए बहुत खर्चीला विकल्प है।
कुत्तों की संख्या के नियंत्रण में विफलता के लिए न केवल प्रभावी नीतियों का अभाव बल्कि लोगों का गैर-जिम्मेदाराना रवैया भी एक मुख्य कारण है। हमारा संविधानबेशक आमजन को जीव-मात्र के प्रति करुणा दिखनेव भोजन उपलब्ध करवाने के लिए प्रेरित करता है परंतु इसी के साथ उन्हें उन जानवरों की ज़िम्मेदारी के लिए प्रतिबद्ध भी किया गया है। लोग अकसर कुत्तों को गली मोहल्ले में खाना देते वक़्त भूल जाते है की उन कुत्तों की टिकाकरण व उनके उग्र व्यवहार के कारण हुई जन-हानि की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है।
कुत्तों द्वारा वन्य जीवों व जन-स्वास्थ्य के खतरों कम करने के लिए इनकी संख्या को नियंत्रण करना अति-आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम कचरे का प्रभावी निस्तारण प्रमुख है जिससे उनकी भोजन की उपलब्धता में कमी आएगी जिसका प्रभाव इनकी संख्या पर पड़ेगा। इसके साथ आम-जन को गली मोहल्लों में कुत्तों को भोजन देना भी बंद करना होगा। आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के लिए लोगों व पशु प्रेमियों द्वारा स्वस्थ कुत्तों को अपनाने के लिए जागरूक करना होगा। प्रबंधन की ऐसी नीतियाँ बनानी होगी जिसमें कुत्तों के जीवन स्तर के साथ-साथ उनके जन-स्वास्थ्य एवं वन्य-जीवन पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों के निवारण की समीक्षा भी हो।
कैलादेवी अभ्यारण्य में पायी गयी वेस्टर्न घाट्स में पायी जाने वाली एक वनस्पति जो राज्य के वनस्पतिक जगत में एक नए जीनस को जोड़ती है
रणथम्भौर स्थित टाइगर वॉच संस्था के शोधकर्ताओं ने रणथंभौर बाघ अभयारण्य के कैलादेवी क्षेत्र की जैव विविधता के सर्वेक्षण के दौरान एक दिलचस्प वनस्पति की खोज की जिसका नाम है Elatostema cuneatum तथा राजस्थान राज्य के लिए यह एक नयी वनस्पति है। कैलादेवी अभ्यारण्य में यह पत्थरों पर ऊगा हुआ मिला जहाँ सारे वर्ष पानी गिरने के कारण नमी तथा पत्थरों की ओट के कारण छांव बनी रहती है तथा इसके आसपास Riccia sp और Adiantum sp भी उगी हुई थी। शोधकर्ताओं ने इसके कुछ चित्र लिए तथा इनका व्यापक अवलोकन करने से यह पता चला की इस वनस्पति का नाम Elatostema cuneatum है और शोधपत्रों से ज्ञात हुआ की राजस्थान में अभी तक इसे कभी भी नहीं देखा गया तथा राजस्थान के वनस्पतिक जगत के लिए यह न सिर्फ एक नयी प्रजाति है बल्कि एक नया जीनस भी है। जीनस Elatostema में लगभग ३०० प्रजातियां पायी जाती है जो पूरे उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और ओशिनिया में वितरित है। भारत में यह जीनस गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, तमिल नाडु और सिक्किम में पाया जाता है। कैलादेवी अभ्यारण्य से एकत्रित किये गए इसके नमूनों को RUBL (Herbarium of the Rajasthan university, botany lab) में जमा करवाया गया है।
Elatostema cuneatum, पत्थरों पर उगती है जहाँ सारे वर्ष पानी गिरने के कारण नमी तथा पत्थरों की ओट के कारण छांव बनी रहती है।(फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
Elatostema cuneatum location map
Elatostema cuneatum, 15 सेमी तक लम्बी वार्षिक वनस्पति है जिसका तना त्रिकोणीय होता है तथा इसके सिरों पर बारीक़ रोये होते है। सीधी तने से जुडी (sub-sessile) इसकी पत्तियां उत्तरवर्धी (accrescent), सिरों से कंगूरेदार-दांतेदार और नुकीली होती हैं। यह वनस्पति अगस्त से अक्टूबर में फलती-फूलती है। राजस्थान में इसका पहली बार मिलना अत्यंत रोचक है एवं हमें यह बताता है की राजस्थान में वनस्पतियों पर खोज की संभावना अभी भी बाकि हैI
संदर्भ:
Dhakad, M., Kotiya, A., Khandal, D. and Meena, S.L. 2019. Elatostema (Urticaceae): A new Generic Record to the Flora of Rajasthan, India. Indian Journal of Forestry 42(1): 49-51.