मनुष्यों द्वारा मुख्यतः खेती और वनों के लिए भूमि उपयोग से भूमि का परिदृश्य बदल रहा है। आज, समस्त भूमि का एक तिहाई हिस्सा अपना मूल स्वरूप या तो खो चुका है या खोना जारी है, जिसके परिणामस्वरूप जैव विविधता को नुकसान पहुंचा है और कार्बन भंडारण जैसी आवश्यक पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को भी क्षति पहुंची है।
संरक्षित क्षेत्र इस समस्या का एक समाधान हो सकते हैं। यदि प्रभावी ढंग से प्रबंधित और निष्पक्ष रूप से शासित किया जाए, तो ऐसे क्षेत्र प्रकृति और सांस्कृतिक संसाधनों की रक्षा कर सकते हैं, स्थायी आजीविका प्रदान कर सकते हैं और इस प्रकार सतत विकास का समर्थन कर सकते हैं।
संरक्षित क्षेत्र एक स्पष्ट रूप से परिभाषित भौगोलिक स्थान है, जिसे पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ प्रकृति के संरक्षण हेतु कानूनी या अन्य प्रभावी माध्यमों से प्रबंधित किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों में मानव दखल कम से कम एवं प्राकृतिक संसाधनों का दोहन सीमित या नियंत्रित होता है।
संरक्षित क्षेत्रों की व्यापक रूप से स्वीकृत परिभाषा इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) द्वारा संरक्षित क्षेत्रों के वर्गीकरण दिशानिर्देशों में प्रदान की गई है। जिसके अनुसार “संरक्षित क्षेत्र कानूनी या अन्य प्रभावी साधनों के माध्यम से मान्यता प्राप्त एक स्पष्ट रूप से परिभाषित भौगोलिक स्थान होता है जो प्रकृति के दीर्घकालिक संरक्षण के साथ पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं और सांस्कृतिक मूल्यों को संरक्षित करने के लिए समर्पित और प्रबंधित है”
सुरक्षा के अलग-अलग स्तर, देश के कानूनों या अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के नियमों के आधार पर संरक्षित क्षेत्र कई प्रकार के होते हैं।
भारत के संरक्षित क्षेत्रों में वन्यजीव अभयारण्य, राष्ट्रीय उपवन, कंजर्वेशन / कम्यूनिटी रिजर्व और टाइगर रिजर्व शामिल हैं। आरक्षित वन इसमें शामिल नहीं हैं।
वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की धारा 2 (24A) में संरक्षित क्षेत्रों (PA) को परिभाषित किया गया है। धारा के अनुसार “संरक्षित क्षेत्र” का अर्थ है राष्ट्रीय उपवन, अभयारण्य, संरक्षण / सामुदायिक अभयारण्य। इन्हें “संरक्षित क्षेत्र” नामक अध्याय IV के तहत अधिसूचित किया गया है।
टाइगर रिजर्व को “राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण” (NTCA) नामक अध्याय IV B के तहत अधिसूचित किया गया है।
राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के क्षेत्रों को शामिल करके टाइगर रिज़र्व का गठन किया जाता है। यह धारा 38 V (4) (i) द्वारा अनिवार्य है। चूंकि, टाइगर रिजर्व के सभी अधिसूचित कोर या क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट या तो अभयारण्य हैं या बाघों की आबादी वाले राष्ट्रीय उपवन हैं इसलिए इन्हें भी PA माना जाता है। यहाँ आपको बात दें कि धारा 38 V (4) (ii) के अनुसार टाइगर रिजर्व में अधिसूचित बफ़र या परिधीय क्षेत्रों को संरक्षण की कमतर आवश्यकता होती है इसलिए इन्हें PA कि श्रेणी से बाहर रखा गया है। इनमें पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ESZ) भी शामिल हैं जो PA को घेरते हैं।
राजस्थान के संरक्षित क्षेत्रों को दर्शाता मानचित्र (सौ. प्रवीण )
वन्यजीव अभयारण्य
राज्य सरकार अधिसूचना जारी कर किसी आरक्षित वन में शामिल किसी क्षेत्र से अलग किसी क्षेत्र या राज्यक्षेत्रीय जल खंड को अभयारण्य घोषित कर सकती है यदि वह समझती है कि ऐसा क्षेत्र वन्य जीव या उसके पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन या विकास के प्रयोजन के लिए पर्याप्त रूप से पारिस्थितिक, प्राणी-जात, वनस्पति-जात, भू-आकृति विज्ञान-जात, प्रकृति या प्राणी विज्ञान-जात महत्तव का है। अधिसूचना में यथासंभव निकटतम रूप से ऐसे क्षेत्र की स्थिति और सीमाएँ निर्धारित की जाएंगी।
फुलवारी की नाल अभयारण्य में मौजूद बरगद के जंगल (फ़ोटो: प्रवीण)
राष्ट्रीय उपवन
जब कभी राज्य सरकार को यह प्रतीत होता है कि कोई क्षेत्र जो किसी अभयारण्य के भीतर हो या नहीं, अपने पारिस्थितिक, प्राणी-जात, वनस्पति-जात, भू-आकृति विज्ञान जात या प्राणी विज्ञान-जात महत्तव के कारण उसमें वन्य जीवों के और उसके पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन या विकास के प्रयोजन के लिए राष्ट्रीय उपवन के रूप में गठित किया जाना आवश्यक है, तो वह अधिसूचना द्वारा ऐसे क्षेत्र को राष्ट्रीय उपवन के रूप में गठित कर सकती है। राष्ट्रीय उपवन के अंदर किसी भी मानवीय गतिविधि की अनुमति नहीं होती सिवाय राज्य के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक द्वारा अध्याय 4 में दी गई शर्तों के तहत स्वीकृत गतिविधियों के।
आमतौर पर लोग यहाँ तक की वन विभाग भी राष्ट्रीय उपवन को राष्ट्रीय उद्यान कहकर संबोधित करते हैं, परंतु वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के अनुसार इस वर्ग के क्षेत्रों को राष्ट्रीय उपवन कहना उचित होगा।
कंजर्वेशन / कम्यूनिटी रिजर्व
संरक्षित क्षेत्रों को चिह्नित करने वाले शब्द हैं जो आम तौर पर स्थापित राष्ट्रीय उद्यानों, वन्यजीव अभयारण्यों और आरक्षित और संरक्षित जंगलों के बीच बफर जोन के रूप में कार्य करते हैं। ऐसे क्षेत्र यदि निर्जन और पूरी तरह से भारत सरकार के स्वामित्व में हों, लेकिन समुदायों और सामुदायिक क्षेत्रों द्वारा निर्वाह के लिए उपयोग किये जाते हों या भूमि के छोटे हिस्से का निजी स्वामित्व होने कि स्थिति में संरक्षण क्षेत्रों के रूप में नामित किया जा सकता है।
संरक्षित क्षेत्रों में इन श्रेणियों को पहली बार 2002 के वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम में पेश किया गया था। भूमि के निजी स्वामित्व और भूमि उपयोग के कारण मौजूदा या प्रस्तावित संरक्षित क्षेत्रों में कम सुरक्षा के कारण इन श्रेणियों को जोड़ा गया था।
जोड़ बीड गधवाला कंजर्वेशन रिजर्व, बीकानेर (फोटो: डॉ. दाऊ लाल बोहरा)
राजस्थान में संरक्षित क्षेत्रों कि स्थिति:
राजस्थान के संरक्षित क्षेत्रों के बारे में यहाँ के लोगों को कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मालूम पड़ती। अक्सर यहाँ लोगों द्वारा अलग-अलग जानकारियाँ उपलब्ध कराई जाती है। यहाँ तक कि भिन्न सरकारी संस्थाओं द्वारा भी अलग – अलग जानकारी उपलब्ध कराई जाती है। WII-ENVIS के वेब पोर्टल के अनुसार राजस्थान में 4 राष्ट्रीय उपवन और 25 वन्यजीव अभयारण्य हैं। राजस्थान सरकार के एनवायरनमेंट पोर्टल के अनुसार यहाँ 3 राष्ट्रीय उपवन और 26 अभयारण्य हैं।
वन विभाग की वेबसाईट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार राजस्थान में तीन राष्ट्रीय उपवन, 26 वन्यजीव अभयारण्य, 21 कंजर्वेशन रिजर्व, और 4 टाइगर रिजर्व हैं। यहाँ अभी तक एक भी कम्यूनिटी रिजर्व घोषित नहीं किया गया है, लेकिन इस संबंध में सरकार के प्रयास जारी हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि डेसर्ट नैशनल पार्क और सरिस्का नैशनल पार्क को राजस्थान सरकार कि अधिसूचना के अनुसार राष्ट्रीय उपवन घोषित किया गया है लेकिन वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि अधिसूचना के अनुसार ये अभयारण्य ही हैं जिनके नाम में नैशनल पार्क शब्द जोड़ा गया है, और राजस्थान में सिर्फ राष्ट्रीय उपवन ही हैं।
क्रम. सं.
संरक्षित क्षेत्र
संख्या
क्षेत्रफल (वर्ग किमी)
कवरेज % (राज्य में)
1
राष्ट्रीय उपवन
3
510.31
0.15
2
वन्यजीव अभयारण्य
26
9015.78
2.63
3
कंजर्वेशन रिजर्व
21
1155.97
0.38
4
टाइगर रिजर्व
4
4886.54
1.42
योग
54
15568.6*
4.58
* योग, संरक्षित क्षेत्रों के एरिया के ओवरलैप को छोड़कर
भैंसरोडगढ़ अभयारण्य का एक दृश्य (फोटो: प्रवीण)
राजस्थान के संरक्षित क्षेत्रों की सूची (जुलाई, 2023)
अंजू, एक वन रक्षक की बेटी जिसे पूरा सिरोही जिला रेस्क्यू क्वीन के नाम से जानता है और जिसने अपनी सकारात्मक सोच और परिश्रम से जिले के कई थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों की जान बचाई…
सिरोही जिले में वन विभाग में वनरक्षक के पद पर कार्यरत अंजू चौहान आज वन,वनस्पति व वन्यजीवों के लिए सजगतापूर्वक कार्य कर रही हैं। एक महिला होकर वन्य क्षेत्र में वन्यजीवों के संरक्षण और मुश्किलों में फसे जीवों का रेस्क्यू करने के कारण आज वह केवल नारी समाज ही नही बल्कि वह पुरुषों के लिए भी प्रेरणा का केंद्र बनी हुई हैं। आमजन को वन, वनस्पति एवं वन्यजीवों के महत्व के बारे में समझाना, विद्यालयों में जाकर बालक बालिकाओं में जागरूकता लाना आदि इनकी कार्यशैली का प्रमुख रूप से हिस्सा रही है। ये अपने अनुभव को साथियों में बांटना व उनसे अनुभव को प्राप्त करने को बेहतर समझती हैं क्योंकि अपने कार्य क्षेत्र में विचारों की सहमति व अनुभव एक मजबूत जड़ के रूप में विराजमान हैं।
अंजू चौहान का जन्म 19 मई 1985 को सिरोही जिले के पिंडवाड़ा कस्बे के एक किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री अचलाराम मेघवाल वर्तमान में सहायक वनपाल नाका इंचार्ज मोरस के पद पर कार्यरत हैं। ये चार भाई बहनों में सबसे बड़ी थी। इनकी प्रारंभिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा पिंडवाड़ा से हुई और इन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई राजकीय महाविद्यालय सिरोही से की। स्नातक के दौरान वर्ष 2004 में ही इनकी श्री भूराराम परिहार जो वर्तमान में राजस्थान पुलिस में सिपाही के पद पर कार्यरत हैं के साथ शादी हो गयी। परन्तु अंजू ने अपनी पढ़ाई जारी रखी तथा पिंडवाड़ा क्षेत्र में महाविद्यालय में प्रथम आने वाली ये मेघवाल समाज की एकमात्र व प्रथम लड़की थी। बाद में इनको महाविद्यालय द्वारा सम्मानित भी किया गया और स्नातकोत्तर की पढ़ाई के बाद इन्होंने बीएड किया और शिक्षक बनने के लिए प्रतियोगी परीक्षा के लिए तैयारी शुरू की। अंजू हमेशा से ही अपने पिताजी को देख कर प्रेरित होती थी और उनको भी खाखी वर्दी वाली नौकरी ही करनी थी परन्तु अपनी शादी के बाद अंजू पारिवारिक परिस्थितियों में व्यस्त हो गयी। कुछ वर्षों बाद अंजू के मन में फिर से आगे पढ़ने व नौकरी करने की चाह जाएगी और इसमें उनके पति ने उनका बहुत साथ दिया तथा अंजू को समझाया भी की अपने बचपन के सपने “वर्दी वाली नौकरी” को सच करों। अंजू ने 2016 में वनरक्षक भर्ती परीक्षा पास की और 2 मई 2016 को वन विभाग नर्सरी सिरोही में इनको नियुक्ति मिल गई। वन विभाग में वनरक्षक के पद पर नियुक्ति मिलने के बाद वन व वन्यजीवों के प्रति कार्य करने के लिए इनके हौसले व जुनून बढ़ते चले गए और वर्तमान में अंजू चौधरी नाका व रेंज पिंडवाड़ा (सिरोही) में कार्यरत हैं।
आज अंजू दो बच्चों की माँ है जिनकी उम्र 15 व 14 साल हैं और अपने परिवार की देखरेख के साथ-साथ अंजू अपने कार्य क्षेत्र में भी कुशलतापूर्वक कार्य कर रही हैं।
गरासिया समुदाय की महिलाओं को मूलभूत सामग्रियों का वितरण करती अंजू चौहान।
शुरुआत में जब अंजू की सिरोही नर्सरी में ड्यूटी लगी वहाँ सांपो की अधिकता थी, इधर-उधर कार्य के लिए आते-जाते सांप देखने को मिल जाते थे और कभी कभार पौधों में सांप आ जाता था तो सब डरते थे। उसको पकड़ने के लिए बाहर से किसी व्यक्ति को बुलाना पड़ता था। रोज़ -रोज़ ऐसी गतिविधि देख कर धीरे-धीरे अंजू ने खुद से ही साहस जुटाना शुरू किया और सांपो का रेस्क्यू करना शुरू किया। इससे पहले इन्होने रेस्क्यू देखे थे लेकिन मन में हिम्मत नहीं हो पाती थी लेकिन आज अंजू इस कार्य को सफलतापूर्वक करती हैं।
अभी कुछ दिनों पहले ही एक सुखि हौद में एक कोबरा घुस गया था और लोगों ने उसे देखा तो वह पिछले 10 दिन से परेशान था बाहर आने के लिए रास्ता ढूंढ रहा था, जैसे ही अंजू को सूचना मिली वह वहाँ पहुँची और नीचे उतरकर उसका रेस्क्यू किया और उसे जंगल में छोड़ दिया।
आज अंजू पुरे प्रोटोकॉल के साथ साँपों का रेस्क्यू करती हैं।
पहले तो अंजू सिर्फ रेस्क्यू ही किया करती थी परन्तु साँपों की सही पहचान बहुत ही जरुरी है। एक बार अंजू ने रसल वाइपर जो की अत्यंत जेह्रीला सांप होता है को अजगर का बच्चा समझ लिया था और उसको पकड़ने की कोशिश की, परन्तु उसकी पूँछ पर हाथ लगाते ही अंजू को वह अलग लगा और उन्होंने उसे पुरे ध्यान से रेस्क्यू किया। रेस्क्यू के बाद अंजू ने साँपों के बारे में जान ने वाले एक व्यक्ति से सलाह ली और जाना की वह सांप रसल वाइपर था और जो की बहुत ही जेह्रीला होता है एवं इसके काटने से जल्दी मौत हो जाती है। इस घटना के बाद से ही अंजू को लगा की उनको साँपों की पहचान के बारे में भी सीखना चाहिए तथा धीरे-धीरे अंजू ने जानकारी जुटाना शुरू किया व साँपों की पहचान भी करने लगी।
पिछले पांच वर्षों में अंजू लगभग 2000 साँपों को रेस्क्यू कर चुकी हैं इसके अलावा गोह, नीलगाय व मगरमछ जैसे अन्य जीवों का रेस्क्यू भी करती हैं। हर रोज इन्हें सिरोही जिले के कई गाँवों में रेस्क्यू के लिए बुलाया जाता है जिसके कारण इन्हें आमजन भी भलीभाति जानते हैं तथा सिरोही में इन्हें “रेस्क्यू क्वीन (Rescue Queen)” के नाम से जाना जाता है।
रेस्क्यू करना कोई आसान कार्य नहीं है क्योंकि हर बार सांप की प्रजाति, उसका व्यवहार और परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं और हर रेस्क्यू अपने आप में एक नई चुनौती होता है। एक बार अंजू को एक बार रात के समय अंजू को सूचना मिली की एक कमरे में कोबरा अंदर घुस गया और उस कमरे अंदर तीन बच्चे थे। अंजू वहां पर पहुची तो परिवार वाले घबरा रहे थे तथा बच्चों को बाहर नही निकाल पा रहे थे क्योंकि वो खुद भी डरे हुए थे। अंजू, हिम्मत के साथ एक टॉर्च लेकर कमरे में गई और कमरे की लाइट को जलाया, लाइट जलते ही कोबरा रसोई में घुस गया। अंजू ने सबसे पहले बच्चो को निकाला फिर रसोई में जाकर सांप को रेस्क्यू किया और उसको एक बैग में डालकर ऊपर से रस्सी से बांधकर जंगल मे ले जा कर छोड़ दिया। अंजू बताती हैं की “यह एक ऐसा रेस्क्यू था जब मुझे खुद भी लगा की तीन बच्चों की जान की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है परन्तु मैं जितने शांत दिमाग से कार्य करुँगी वही सही होगा”।
हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज (HOFF) डॉ. GV Reddy प्रे बेस डाटा के बारे में समझते हुए।
सांप रेस्क्यू के बारे में अंजू को उच्च अधिकारियों द्वारा ट्रेनिग भी दी गई है। ट्रेनिंग के बाद इनको लगा कि क्यों न एक टीम गठित हो जिसमें और लड़कियों को भी साँपों का रेस्क्यू सिखाया जाए, तो अंजू ने अपने साथियों को भी इसके बारे में अवगत कराया। जिसके बाद अंजू के पास चार महिलाओं के कॉल आए तथा अंजू ने अपना अनुभव उनके साथ साझा किया व उनको प्रेरित किया। आज वो महिलायें पूर्ण सुरक्षा के साथ सफलतापूर्वक स्नेक रेस्क्यू कर लेती हैं और यह अंजू के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक हैं कि आज यह पांच महिलायें पूरे राजस्थान में स्नेक रेस्क्यू वुमन के नाम से जानी जाती हैं।
वाइल्डलाइफ रेस्क्यू ट्रेनिंग के दौरान स्नेक रेस्क्यू वुमन की टीम।
साँपों के साथ-साथ अंजू कई अन्य प्रकार के वन्यजीवों का रेस्क्यू भी कर चुकी हैं। एक बार एक नीलगाय का बच्चा साधारण गायों के साथ चर रहा था और शाम को उन्ही गायों के साथ गाँव में चला गया और वह जाकर रास्ता भूल गया। गाँव के लोगो ने उसे हिरन समझ कर उसको पकड़ने कि कोशिश कि और उसके पीछे भागने लग गए। परिस्थिति ऐसी थी कि भरी सड़क पर नीलगाय का बच्चा भाग रहा है और उसके पीछे ग्रामीण लोग। तभी कुछ लोगों ने अंजू को फ़ोन कर के रेस्क्यू के लिए बुलाया। जब अंजू मौके पर पहुंची तब तक वह बच्चा एक घर में घुस गया था। उस घर के सभी लोग घर के बाहर खड़े हुए थे और नीलगाय का बच्चा एक कमरे में दौड़-दौड़ कर तोड़-फोड़ मचा रहा था। अंजू ने घर के अंदर जाकर हालात का जायजा लिया और अपनी टीम के साथ नीलगाय के बच्चे को रेस्क्यू किया। ऐसे ही एक बार रिलीज करने जाते समय एक मगरमच्छ का मुँह खुल गया था, और उसे कोई भी बाँध नहीं पा रहा था, उस परस्थिति में रात को दो बजे अंजू को बुलाया गया और फिर उन्होंने जाकर मगरमछ का मुँह बाँधा और उसको सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया। एक बार अंजू ने तालाब के पास के पेलिकन को लड़खड़ाते हुए देखा, पास में जाकर पता किया तो किसी कुत्ते ने उसके पैर को जख्मी कर दिया था और वह पक्षी चल नही पा रहा था। ऐसे में अंजू ने उसको रेस्क्यू किया। ऐसे ही एक बार आइबिस पक्षी के पैर में कोई धागा फंस गया था तो उसको भी रेस्क्यू कर के सुरक्षित स्थान पर छोड़ा।
अंजू के इस कार्य को देखते हुए उन्हें हेड ऑफ़ फारेस्ट फोर्सेज (HOFF) डॉ. GV Reddy द्वारा 15 अगस्त को राज्य स्तर पर सम्मानित भी किया गया है।
अंजू बताती हैं कि “मैंने फील्ड कार्य को आसान करने के लिए वाहन चलाना सीखा हैं और अब रेस्क्यू किट गाड़ी में रखती हूं जैसे ही सूचना मिलती हैं, मैं पूर्ण उपकरण के साथ वहां पहुँच जाती हूं और घायल वन्यजीव को उनके अनुकूल आवास में छोड़ देती हूं, उसके साथ उनकी देखभाल व ज्यादा घायल होने पर सम्बन्धित स्टाफ से सलाह व मदद भी लेती हूं”।
जीवन में मुश्किलें तो हैं परन्तु अंजू हिम्मत के साथ हर परिस्थिति का सामना करती हैं। अंजू के बड़े बेटे को थैलीसीमिया नामक बीमारी हैं। थैलेसीमिया, एक तरह का रक्त विकार है इसमें बच्चे के शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन सही तरीके से नहीं हो पाता है और इन कोशिकाओं की आयु भी बहुत कम हो जाती है। इस कारण इन बच्चों को हर 21 दिन बाद कम से कम एक यूनिट खून की जरूरत होती है। जब अंजू का बेटा चार वर्ष का था धीरे-धीरे उसकी तबियत ख़राब रहने लगी तथा उसका विकास भी अन्य बच्चों जैसे नहीं हो पा रहा था और सभी प्रकार की जांच करवाने के बाद अंजू को मालूम हुआ की उनका बेटा इस बीमारी से ग्रस्त है। उस समय सिरोही में इस बीमारी की न तो जानकारी थी न इलाज था और न ही इसको जानने के लिए जागरूकता थी, ऐसे में अंजू ने सोचा की “मेरे बच्चे के अलावा इस बीमारी से पीड़ित कई और भी बच्चे होंगे जो इलाज के लिए बाहर जाते होंगे”। फिर इन्होने ऐसे बच्चे ढूंढने शुरू किए और सिरोही जिले में करीब 7-8 ऐसे बच्चे मिले जो इस बीमारी से पीड़ित थे। तब फिर अंजू ने सोचा कि क्यूँ न वो जिले में ही कुछ ऐसी व्यवस्था शुरू करें जिससे इन बच्चों को इलाज के लिए बाहर न भटकना पड़े। अंजू ने प्रयास भी किया और इस बीमारी को लेकर वो कई बार उस वक्त के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से भी मिली और इन सभी बच्चों को उन्होंने बीपीएल में सम्मिलित करवाया ताकि उनकों मुफ्त में इलाज मिल सके परन्तु सिरोही जिले में अभी तक इसका इलाज नहीं है। इस परिस्थिति में आबूरोड में संकल्प इंडिया फाउंडेशन द्वारा अंजू ने एक सेंटर स्थापित करवाया है जिसमें ये अपनी मासिक तनख्वाह का कुछ भाग अनुदान करती हैं। प्रत्येक 2 माह में आसपास रक्त दान शिविर लगवाकर ये थैलीसीमिया से पीड़ित बच्चों के लिए रक्त की व्यवस्था करवाते हैं। वर्तमान में सिरोही में ऐसे 35 बच्चे हैं जो इस बीमारी से पीड़ित है तथा इन सभी बच्चों को 50 यूनिट ब्लड की जरूरत होती हैं। और सबसे ख़ुशी कि बात यह है कि अंजू और उनकी टीम के द्वारा इतना रक्त एकत्रित किया जाता है कि आजतक किसी भी बच्चे को यहां से निराश होकर नही लौटना पड़ा हैं। रक्त दान शिविर में आसपास के लोग बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और अंजू खुद भी रक्तदान करती हैं तथा यहाँ के लोग उन्हें प्यार से “ब्लड क्वीन व मदर टेरेसा” के नाम से पुकारते हैं। इन सब के बाद अंजू ने अपना “देहदान” भी किया हुआ है यानि उनके गुजरने के बाद उनके शरीर के जो भी अंग किसी जरूरतमंद के काम आये उनको दान कर रखा हैं।
वन विभाग द्वारा आयोजित जैव-विविधता शिविर में ग्रामीण लोगों को पेड़-पौधों की महत्वता के बार में समझाती हुई अंजू।
अंजू बताती हैं कि “सामान्य रूप से हमारी दिनचर्या सुबह से शाम तक घने जंगलों में घूमना,पेड़ पौधों की अवैध कटाई की निगरानी करना,जीव जंतुओं की देखभाल व समय-समय पर गश्त करना आदि मुख्य रूप से हैं”। एक बार गश्त के दौरान अंजू को ट्रैक्टर-ट्रॉली के टायर के निशान जंगल की ओर जाते मिले, तो वह वहीँ रुकी और ट्रैक्टर -ट्रॉली के वापस आने का इंतजार करने लगी और जैसे ही पत्थरों से भरा ट्रैक्टर वापस आ रहा था, अंजू ने साहस दिखाते हुए उसको रुकवाकर ट्रैक्टर में से चाबी निकाल ली व फोटोग्राफ ले लिया ट्रैक्टर ट्रॉली के साथ दो पुरुष थे। अंजू ने तुरन्त नजदीकी नाका इंचार्ज को पूरी व्यवस्था के साथ बुलाया व उन ट्रैक्टर वालों पर कानूनी कार्यवाही करवाई करी। उसके बाद उनके हितैषी नेता व जनप्रतिनिधियों के कॉल भी आते हैं लेकिन अंजू व उनकी टीम का मकसद यही हैं कि जो गलत है वो चाहे कितना ही राजनीतिक या प्रशासनिक दबाब बनाये ये डरते नहीं हैं। और जब ईमानदारी से किसी कार्य मे शामिल हैं सिफारिश कर्ता कोई भी हो वो कोई मायने नही रखता, ऐसा अंजू खुद मानती हैं। कभी कभार गांवों की महिलाएं भी जंगल में ईंधन के लिए लकड़ी लेने आ जाती हैं। आजकल ये बहुत कम हैं क्योंकि प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन मिलने के बाद से अवैध कटाई बहुत कम होती हैं। परन्तु अगर कोई आ भी जाती है तो ये उनको वनों के महत्व के बारे में समझाते हैं तथा इनकों न काटने कि सलाह देते हैं।
सिरोही में कुछ संस्थाए कार्य करती हैं जैसे पीपुल्स फ़ॉर एनिमल्स (Peoples For Animals) और जैन समाज का भी एक केंद्र है जो जागरूकता के छोटे-छोटे कार्यक्रम करते रहते हैं और अंजू इन कार्यक्रमों में जाकर न सिर्फ हिस्सा लेती हैं बल्कि सहयोग भी करती हैं। अंजू बताती है कि, पिंडवाड़ा व उसके आसपास के क्षेत्र में 90% भूभाग पर आदिवासी जनजाति “गरासिया समूह” के लोग जंगलों के अंदर ही निवास करते हैं यह लोग धरती को माता की तरह पूजते हैं, ये प्रकर्ति की सुरक्षा करते हैं। इस आदिवासी समूह में एनजीओ के माध्यम से समय-समय मूलभूत सामग्रियों जैसे गर्म कपडे व पाठन सामग्री का वितरण किया जाता हैं। और अंजू खुद भी यही कोशिश करती हैं कि अधिक से अधिक आदिवासी समुदाय के लोगों को फायदा मिले क्योंकि सुरक्षा में सर्वाधिक सहयोग हमें स्थानीय लोगों से ही है जैसे जंगल मे आग की घटना हो जाती हैं तो अकेला आदमी आग नही बुझा सकता तो और भी ऐसी गतिविधि हैं जिनमें ये स्थानीय लोग वन कर्मियों का सहयोग करते हैं।
अंजू समझती हैं कि सार्वजनिक सहकारिता और वन संरक्षण के लिए जागरूकता बहुत आवश्यक है। वन संरक्षण के लिए हम जरूरी कदम उठा सकते हैं जैसे कि बरसात के मौसम में सामुदायिक वानिकी के माध्यम से पौधों को बढ़ावा देना, जंगलों के रोपण और जंगलों के संरक्षण के लिए प्रचार और जागरूकता कार्यक्रम द्वारा वन क्षेत्र में वृद्धि करना। सरकार को गांवों में वन सुरक्षा समितियाँ बनाने, जागरूकता फैलाने और वनों की कटाई को रोकने के लिए काम करना चाहिए। प्रदूषण से लोगों को बचाने के लिए लोगों को जंगलों के संरक्षण के साथ अधिक से अधिक पेड़ लगाने की जरूरत है। अगर इसे ध्यान में नहीं रखा गया तो हम सभी के लिए शुद्ध हवा और पानी प्राप्त करना मुश्किल होगा।
अलग-अलग नेशनल पार्क और वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरीज अलग-अलग प्रजाति का संरक्षण कर रही हैं। इंसान को समझना होगा कि मानव जीवन तभी तक बच सकता है जब तक जल, जंगल और जानवर बचेंगे। प्रकृति से छेड़-छाड़ मानव को विनाश की ओर ले जा रहा है। इसलिये प्रकृति से छेड़-छाड़ करना बंद करना होगा और पर्यावरण प्रेमी बनकर उसका संरक्षण करना होगा। इंसान जानवर को महज जानवर न समझे, बल्कि अपना वजूद बनाए रखने का सहारा समझे।
आज अंजू एवं वन्यजींवों के संरक्षण के कार्य के साथ-साथ थैलेसीमिया से ग्रस्त बच्चों के लिए भी कार्य कर रही हैं साथ ही अपने परिवार का भी भलीभांति ख्याल रख रही हैं। हम उनके इस कार्य की सराहना करते हैं और उनको भविष्य में और अच्छा कार्य करने के लिए शुभकामनाएं देते हैं।
Shivprakash Gurjar (L) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.
Meenu Dhakad (R) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
यह चित्र कथा है “ग्रे मोंगूज़ (Grey Mongoose Herpestes edwardsii)” और “गोह (Monitor Lizard Varanus bengalensis)” के एक दुर्लभ संघर्ष की।
कई बार नेवले और सांप के बीच में लड़ाई देखी जाती है, जिसका अंत सांप के जख्मी होने या मर जाने के बाद ही होता है। नेवला, सांप को हमेशा उसके फन की तरफ से दबोचता है ताकि सांप उस पर अपना जहर ना उगल सके। परन्तु अगर कभी दो नेवले साथ हो तो फन और पूँछ दोनों ओर बारी-बारी से हमला करते हैं। इस परिस्थिति में सांप बहुत जल्दी थक जाता है और जख्मी होकर अपनी जान गवा बैठता है।
लेकिन नेवले को बड़े विषैले साँपों के अलावा गोह का शिकार करते हुए भी देखा गया है।
नेवला बड़ी ही फुर्ती से अपने से बड़े आकार की गोह को इधर-उधर काटते हुए जख्मी करने लगता है। वहीं दूसरी और गोह अपनी पूँछ को अगल बगल हिला कर खुद को बचाने की कोशिश करती है।
परन्तु सारी कोशिशों के बाद भी नेवला गोह के मुँह और नाक को बुरी तरह से जख्मी कर उसे मार देता है।
यह मार्मिक आलेख ऑसप्रे प्रजाति के पक्षी पर हुई शोध से सम्बंधित है, इस अध्ययन ने जहाँ कई सवालों के जवाब दिए हैं, वहीँ कई नए सवाल हमारे सामने खड़े कर दिए हैं।
हसीना एक मच्छीमार शिकारी पक्षी है, जो सुदूर रूस के साइबेरिया प्रान्त में रहती है, यह ऑसप्रे Osprey (Pandion haliaetus) प्रजाति के शिकारी पक्षी की एक मादा है। असल में रूस में इसका नाम है, उसीना है, जिसे भारत में हसीना नाम दे दिया गया है। भारत से इस ऑसप्रे का एक गहरा नाता है, यह हर बार जब साइबेरिया में सर्दी अधिक बढ़ जाती है, और पानी के तालाब और नदियों में बर्फ जम जाती है, इनको मछलिया मिलना अत्यंत मुश्किल हो जाता है, क्योंकि यह आकाश से पानी में नजर रखते हुए नदी अिध पर उड़ते है और एक गोता लगाते हुए और तैरती हुई मछली को अपने मजबूत पंजो से पकड़ कर ले उड़ते हैं। अपने घर को छोड़ लगभग 5000 कम उड़कर भारत में प्रवास पर आते है।
राजस्थान के भिंडर नामक कस्बे में हसीना (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वर्ष 2019 में, कुछ पक्षीविदो ने रूस स्थित सयानो-शुशेन्स्की स्टेट नेचर रिज़र्व में रहने वाले एक ऑसप्रे के एक जोड़े पर सैटलाइट टैगस लगाए। इसमें एक थी उसीना जिसे हम हसीना के नाम से जानते है, दूसरा नर ऑसप्रे था शेर्जिक। इसका टैगिंग का मकसद यह था के रूस के अल्ताई-सायन नामक क्षेत्र में किस वजह से ऑसप्रे की संख्या में निरंतर गिरावट हो रही है। जबकि यह रूस का एक दुरस्त एवं मानवीय दबावों से दूर वन क्षेत्र है। फिर ऐसे क्या कारन है की इनकी संख्या में गिरावट आरही है।
नर ऑसप्रे “शेर्जिक” को टैगिंग करते विशेषज्ञ।
यह टैगिंग का कार्यक्रम रूस के प्रमुख पक्षीविद डॉ मिरोस्लाव बाबुश्किन, डॉ इगोर कार्याकिं, एलविरा निकोलेंको, एलेना शिकलोवा , उरमस सेल्लीस एवं गुन्नार सेइन ने सम्पादित किया था। इस कार्यक्रम को वित्तीय सहारा जान करनेर नामक एक उदार व्यक्ति ने दिया।
मादा ऑसप्रे हसीना।
मादा ऑसप्रे हसीना ने अपनी यात्रा 14 सितम्बर 2019 को शुरू किया वहीँ नर ऑसप्रे लगभग 2 सप्ताह बाद 28 सितम्बर 2019 को भारत की ओर अपनी उड़ान भरता है। सैटलाइट से प्राप्त हुए डाटा के अनुसार यह पक्षी प्रतिदिन 300 से 400 किलोमीटर उड़कर 15 -16 दिनों में 3500 किलोमीटर (मादा) – 5000 किलोमीटर (नर) यात्रा कर भारत आ गए।
हसीना और शेर्जिक द्वारा तय की गयी दुरी।
नर ऑसप्रे शेर्जिक भारत के दक्षिण हिस्से कर्नाटक चला गया परन्तु मादा ऑसप्रे हसीना राजस्थान के भिंडर नामक कस्बे में ही ठहर गयी। भिंडर दक्षिण राजस्थान का एक छोटा सा क़स्बा है। यहाँ तीन बड़े नालों को रोक कर, उन्हें लम्बे तालाबों में तब्दील कर दिया गया है। यह तालाब कस्बे के एक दम नजदीक है एवं मादा ऑसप्रे हसीना इन तीनो तालाबों में पुरे दिन कई बार विचरण करती है।
दुर्भाग्यवश नर शेर्जिक कर्नाटक राज्य के इलकल कस्बे के पास एक बिजली के टॉवर के नजदीक जाकर गायब हो गया और वहां से उसकी उपस्थिति के संकेत मिलने बंद हो गये। रूस से डॉ. इगोर कार्याकिं एवं एलविरा निकोलेंको दोनों भारत आये एवं उस स्थान पर पहुंचे जहाँ से शेर्जिक के अंतिम संकेत मिले थे। परन्तु उन्हें उस बिजली के टॉवर के पास नर ऑसप्रे शेर्जिक के पंखो के कुछ अवशेष ही मिले, इसके अलावा शायद बाकि हिस्सा कोई प्राणी वहां से उठा करउसे खाने के लिए ले गया। यह एक अत्यंत दुखद अंत था एक साथी नर ऑसप्रे का एवं साथ ही यह जवाब था इस रिसर्च का की ऑसप्रे की संख्या में गिरावट क्यों आ रही है।
नर ऑसप्रे शेर्जिक कर्नाटक राज्य के इलकल कस्बे के पास एक बिजली के टॉवर के नजदीक जाकर गायब हो गया।
हसीना का हाल जानने के लिए मैं श्री नीरव भट्ट के सुझाव पर नवंबर 2019 में भिंडर कस्बे में गया एवं हसीना को देखा। श्री भट्ट गुजरात राज्य के एक जाने माने पक्षीविद हैं जिनकी शोध का मुख्य विषय शिकारी पक्षी हैं। उस सुबह मादा ऑसप्रे हसीना एक गर्ल्स स्कूल के पास स्थित तालाब में लगे बिजली के खम्बे पर बैठी थी। कुछ फोटोग्राफ लेने के बाद में खुस था की हसीना सुरक्षित है। लेकिन उस समय, वह अनजान थी की उसका साथी शेर्जिक अब इस दुनिया में नहीं रहा है। मैं हसीना की जीविषा पर अचंभित था और एक विचार मेरे मन में आया की लेकिन सर्दी का पूरा मौसम बिता कर हसीना भारत से जब पुनः रूस जाएगी, परन्तु इस बार उसके लिए शेर्जिक का इंतजार ही रहेगा। इसी तरह ना जाने कितने ऑसप्रे भारत हज़ारों किलोमीटर दूर भारत कितनी आशाओं के साथ आते जाते हैं और यदि हम इनके आवासों को सुरक्षित नहीं बना पाए तो यह इन परिंदो का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।
राजस्थान के भिंडर नामक कस्बे में हसीना (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
हसीना 22 अप्रैल 2020 की शाम को पुनः रूस स्थित सयानो-शुशेन्स्की स्टेट नेचर रिज़र्व पहुँच गयी। इस तरह हसीना 222 दिन तक ब्रीडिंग क्षेत्र से दूर रही। ध्यान देने वाली बात यह है की, हसीना ने रूस के ब्रीडिंग क्षेत्र में मात्र 143 दिन गुजारे एवं इस से दूर 222 दिन। साथ ही यदि हसीना ने मानो 30 दिन आने और जाने में गुजारे तो राजस्थान के भिंडर में 192 दिन गुजारे है। रूस से लगभग 2 महीने भारत में अधिक रहना शायद यह तय करता है, की वह रूस के लिए एक प्रवासी पक्षी है ओर हमारे लिए एक स्थानीय पक्षी जो मात्र ब्रीडिंग के लिए रूस जाता है। इसलिए हसीना हमारी है।
रूस में हसीना का ब्रीडिंग क्षेत्र।
रूस में हसीना का घोंसला।
खैर इस बार हसीना फिर भिंडर कस्बे में है, और उन्ही तालाबों में फिर विचरण कर रही है, परन्तु न जाने कब तक हम इन तालाबों को सुरक्षित रख पाएंगे। और चूँकि हसीना हमारी है, इसलिए हमें इसकी सुरक्षा के लिए और अधिक प्रयास करने होंगे और इन परिंदो की जिम्मेद्दारी लेनी होगी।
राजाराम, एक ऐसे वन रक्षक जिन्हे वन में पाए जाने वाली जैव-विविधता में घनिष्ट रुचि है जिसके चलते ये विभिन्न पक्षियों पर अध्यन कर चुके हैं तथा स्कूली छात्रों को वन्यजीवों के महत्त्व और संरक्षण के लिए जागरूक व प्रेरित भी करते हैं…
एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे राजाराम मीणा वनरक्षक (फोरेस्ट गार्ड) में भर्ती होकर प्रकृति एवं वन्यजीवों के प्रति आज सजगतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। कई प्रकार की वन सम्पदा की जानकारी जुटाना, पक्षियों के अध्ययन में गहन अभिरुचि लेना व वन संरक्षण में निष्ठा पूर्वक गतिशील रहना इनकी कार्यशैली को दर्शाता है। अपने कार्य के प्रति अच्छी सोच,अच्छे विचार व एक जुनून उनके व्यक्तित्व से झलकता है। साधारणतया किसान परिवार से होने के नाते उनको सरकारी सेवा में आने से पहले वन्य जीव व वन संपदा के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। लेकिन वनों के प्रति मन में कुछ अभिलाषाए छिपी हुई थी तथा उन को उजागर करने के लिए इन्हें मनपसंद कार्यक्षेत्र मिल ही गया।
वर्तमान में 31 वर्षीय, राजाराम का जन्म 10 अक्टूबर 1989 को जयपुर जिले की जमवारामगढ़ तहसील के रामनगर गांव में हुआ तथा इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई व स्नातक तक की पढ़ाई इन्होंने मीनेष महाविद्यालय जमवारामगढ़ से की है। इन्हें हमेशा से ही खेलकूद प्रतियोगिताओ क्रिकेट व बेडमिंटन में अधिक रुचि है। हमेशा से ही इनके परिवार वाले और राजाराम खुद भी चाहते थे की वे लोको पायलट बने। परन्तु अपनी स्नातक की पढ़ाई के अंतिम चरण में इन्होने वनरक्षक की परीक्षा दी जिसमें ये उतरिन हो गए तथा 30 मार्च 2011 को पहली बार नाहरगढ़ जैविक उधान जयपुर में वनरक्षक के पद पर नियुक्त हुए। इनकी इस कामयाबी पर घरवाले व सहपाठी मित्र भी खुश हुए परन्तु सबका यह भी कहना था की फिलहाल जो मिला है उसे ही कीजिए वन सेवा के दौरान पढाई भी करते रहना किस्मत में होगा तो लोको पायलट भी बन जाओगे वन्यप्रेमी महत्वाकांक्षी राजाराम वन सेवा में शामिल हो गए तथा वन व वन्यजीवों को जानना समझना शुरू कर दिया। एक वर्ष बाद में घरवालों ने इनपर लोको पायलट की परीक्षा देने के लिए दबाव बनाया और घरवालों की बात मानते हुए राजाराम ने परीक्षा भी दी जिसमें वो पास हो गए, परन्तु अब तक इनका मन वन्यजीवों के साथ जुड़ चूका था। जिसके चलते उन्होंने बिना तैयारी किये इंटरव्यू दिया और जान बूझकर फेल हो गए, ताकि वे वन्यजीव सेवा से ही जुड़े रहे। राजाराम बताते हैं कि “जब मैं वनरक्षक बना था मुझे जंगल के पेड़-पौधों और जीवों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी परन्तु सेवा में आने के बाद मैंने हमेशा नई चीजे सीखने कि चाह रखी और घरवालों के कहने पर भी कभी पीछे मुड़कर नही देखा। राजाराम अपने पुरे मन से वन सम्पदा व वन्यजीवों की सेवा में समर्पित हो गए और 8 साल की सेवा के बाद इनको सहायक वनपाल के पद पर पदोन्नति मिली। वर्तमान में राजाराम मीणा लेपर्ड सफारी पार्क झालाना, रेंज जयपुर प्रादेशिक में सहायक वनपाल के पद पर कार्यरत हैं।
अपने पिताजी के साथ उनकी नर्सरी में हाथ बटाते हुए राजाराम
शुरु से ही इनको पक्षियों में गहन रुचि रही है जिसमें उनकी विशेषताओं को समझना, आवाज पहचानना व अधिकांश पक्षियों के नाम से परिचित होना मुख्य है। परन्तु शुरुआत में इनको पक्षियों के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं थी, पर फिर जब ये वन अधिकारीयों के साथ जंगल में कार्य के लिए जाते थे तो इनके बीच अधिकतर पक्षियों के बारे में जिक्र होता था। राजाराम बताते हैं कि “साथ मे जो वनपाल या कोई भी वरिष्ठ साथी मेरे से चिड़िया के बारे में चर्चा करते थे, वो किसी भी चिड़िया को मुझे दिखाकर एक बार उसका नाम बताते थे। फिर बाद में आगे जाकर उसी चिड़िया का नाम पूछ लेते थे तो मुझे भी भय रहता था कि नाम नही आया तो मुझे ये डांटेंगे उसी डर की वजह से मैं 20 – 25 चिड़ियाओं को नाम से पहचानने लगा और धीरे-धीरे रुचि बढ़ती चली गई। बाद में कभी कोई नई चिड़िया दिखती तो मैं वनपाल व साथियों से उनके बारे में पूछता था।” आज राजाराम की एक अलग ही पहचान है क्योंकि ये एक ऐसे वनरक्षक हैं जिनको पक्षियों के बारे काफी अच्छी जानकारी है तथा इन्हें पक्षियों की 300 से ज्यादा प्रजातियों की पहचान व उनकी विशेषताओं के बारे में जानकारी है।
पक्षियों में इसी रूचि के चलते राजाराम पिछले दो वर्षों से “इंडियन ईगल आउल” के एक जोड़े को देख रहे हैं तथा उनके प्रजनन विज्ञान (Breeding Biology) को समझ रहे हैं।
इंडियन ईगल आउल (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
पहले झालाना में पत्थर की खाने हुआ करती थी परन्तु वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के बाद वे खाने बंद हो गयी तथा वहां प्रोसोपिस उग गया। राजाराम जब वहां पहली बार गए तो उनको लगा की यह एक अलग स्थान है तथा वहां कुछ चिड़ियाएं देखी जाए और तभी उनको इंडियन ईगल आउल देखने को मिले। उन्होंने यह बात अधिकारियों के अलावा किसी और को नहीं बताई ताकि अन्य लोग वहां जाकर आउल को परेशान न करें। शुरूआती दिनों में तो सिर्फ एक ही आउल दिखता था पर कुछ दिन बाद एक जोड़ा दिखने लगा फिर एक दिन राजाराम ने आउल के चूज़े देखे और उनको बहुत ख़ुशी मिली उनको परेशानी न हो इसलिए उनकी महत्वता को समझते हुए राजाराम कभी भी उनके करीब नहीं गए और हमेशा दूरबीन से देख कर आनंद लेते थे। राजाराम यह भी बताते हैं की हर वर्ष ये जोड़ा चार अंडे देता है परन्तु चारों बच्चे जिन्दा नहीं रहते है जैसे की पिछले वर्ष दो तथा इस वर्ष तीन बच्चे ही जीवित रहे। तथा इनका व्यवहार काफी रोचक होता है क्योंकि मादा हमेशा चूजों के आसपास रहती है और यदि कभी वो ज्यादा दूर चली जाए तो नर एक विशेष प्रकार की आवाज करता है और यदि चूज़े उस तक नहीं पहुंच पाते हैं तो खुद उनके पास आ जाता है।
इसके अलावा इन्होने नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क पार्क में दिखने वाली बहुत ही दुर्लभ चिड़िया “वाइट नपेड़ टिट” के क्षेत्र को जीपीएस (GPS) से चिन्हित किया तथा जिस क्षेत्र में चिड़िया पायी जाती है उस क्षेत्र के सभी पेड़ों के बारे में जानकारी एकत्रित कर वाइट नपेड़ टिट के आवास को समझा।
इन सबके अलावा “चेस्ट नट टेल्ड स्टर्लिंग” को जयपुर में सबसे पहले इन्ही ने देखा व दस्तावेज किया है।
जैव-विविधता को समझने के अलावा राजाराम जंगल में अवैध कटाई व पशु चरवाहों को रोकने की भी कोशिश करते हैं और ऐसा करते समय कई बार ग्रामीण लोगों के साथ मुठभेड़ भी हो जाती है। ऐसी ही एक घटना हुई थी नवम्बर 2011 में जब शाम के समय कुछ ग्रामीण लोग जंगल से लकड़ी काट रहे थे। इसकी सुचना मिलते ही राजाराम व उनके साथी ग्रामीण लोगो को रोकने के लिए घटना स्थल पर पहुंचे। वहां उस समय कुल 7 लोग थे (5 पुरुष और 2 महिलायें)। वन विभाग कर्मियों को देख कर ग्रामीण लोगों ने फ़ोन करके अपने अन्य साथियों को भी बुला लिया तथा राजाराम व उनके साथी के साथ लाठियों से मारपीट करने लगे। जैसे ही विभाग के अन्य कर्मी वहां पहुंचे लोग भाग गए, परन्तु 3 आदमी सफलता पूर्वक पकडे गए। पकडे हुए लोगों पर जंगल कि अवैध कटाई व विभाग के कर्मचारियों के साथ मारपीट का केस हुआ तथा उन्हें जेल भी हुई। जब पुलिस केस चल रहा था उस दौरान ग्रामीण लोगों ने राजाराम को डराने, धमकाने और केस लेने के लिए दबाव भी बनाया, परन्तु राजाराम निडर होकर डटे रहे। राजाराम बताते हैं कि “जब मैं कोर्ट में ब्यान देने गया था तब एक मुजरिम ने वहीँ मुझे कहा कि मेरे सिर पर बहुत केस हैं एक और सही, तू बस अपना ध्यान रखना”। इन सभी धमकियों के बाद भी राजाराम के मन में केवल एक ही बात थी कि वो सही हैं वनसेवा के प्रति ऐसी नकारात्मक बाते उनके मंसूबो को कमजोर नही कर सकती। इस पूरी घटना के दौरान उनके अधिकारियों व साथियों ने उनका पूरा साथ दिया व उनका हौसला बढ़ाया। इस घटना के बाद अवैध कटाई व पशु चरवाहों के मन में एक डर की भावना उतपन्न हुई और ग्रामीण भी वनों के महत्व को समझने लगे।
झालाना लेपर्ड रिज़र्व लेपर्ड का प्राकृतिक आवास है और लेपर्ड की अधिक संख्या एवं अन्य वनजीवों की उपलब्धता की वजह से झालाना लेपर्ड रिज़र्व वन्यजीव प्रेमियों और पर्यटकों में बहुत लोकप्रिय है। (फोटो: श्री सुरेंद्र सिंह चौहान)
परन्तु अगर ध्यान से समझा जाए तो जंगल का संरक्षण सिर्फ वन-विभाग के हाथों में नहीं है बल्कि यह जंगल के आसपास रह रहे ग्रामीण लोगों कि भी जिम्मेदारी है। यदि ग्रामीण लोग विभाग से नाराज रहेंगे तो संरक्षण में काफी मुश्किलें आएगी तथा ग्रामीणों को साथ लेकर चलना भी जरुरी है। इसी बात को समझते हुए नाराज हुए ग्रामीण लोगों को मनाने कि कोशिश कि गयी। जैसे वर्ष 2013-14 में बायोलॉजिकल पार्क में प्रोसोपिस हटाने का काम चला था जिसमें नाराज हुए ग्रामीणों को बुला कर प्रोसोपिस की लकड़ी ले जाने दी। तथा उनको समझाया गया की धोक का पेड़ कई वर्षों में बड़ा होता है और आप लोग इसे कुछ घंटों में जला देते हो और आगे से इसको नहीं काटें व् जंगल की महत्वता को समझते हुए वृक्षों का ध्यान रखें।
राजस्थान के अन्य संरक्षित क्षेत्रों की तुलना में झालाना में एक अलग व अनोखी परेशानी है और वो है “पतंग के मांझे”। प्रति वर्ष जयपुर में मकर सक्रांति के दिन सभी लोग सिर्फ एक दिन के आनंद के लिए पतंग उड़ाते हैं और उस पतंग के मांझे से पक्षियों के घायल होने की चिंता भी नहीं करते हैं। मकर सक्रांति के बाद पुरे जंगल में मांझों का एक जाल सा बिछ जाता है तथा राजाराम व उनके साथी पुरे जंगल में घूम-घूम कर पेड़ों पर से मांझा उतारते हैं क्योंकि इन मांझों में फस कर पक्षियों को चोट लग जाती है।
आजा राजाराम 300 से अधिक पक्षी प्रजातियों की पहचान व उनकी विशेषताओं के बारे में जानकारी रखते हैं।
आज चिड़ियों के बारे में ज्ञान होने के कारण राजाराम को कई अधिकारी जानते हैं। परन्तु चिड़ियों के अलावा इन्हें अन्य जीवों में भी रुचि है तथा इन्होने उनके लिए भी कार्य किया है। जैसे इन्होने वर्ष 2015 में वन्यजीव गणना के दौरान दुनिया की सबसे छोटी बिल्ली “रस्टी स्पॉटेड कैट” की फोटो ली तथा यह जयपुर का सबसे पहला रिकॉर्ड था। राजाराम, 30 तितलियों की प्रजातियाँ भी पहचानते हैं और इन्होने “पयोनीर और वाइट ऑरेंज टिप तितली” की मैटिंग भी देखि व सूचित की है। समय के साथ-साथ इन्होने सांपो के बारे में भी सीखा और आज सांप रेस्क्यू भी कर लेते हैं। यह बहुत सारे वृक्षों को भी पहचानते हैं तथा एक बार सफ़ेद पलाश को देखने के लिए इन्होने गर्मियों में नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क, आमेर, कूकस और जमवा रामगढ का पूरा जंगल छान मारा और सारे पहाड़ घूमे। सफ़ेद पलाश तो नहीं मिल पाया परन्तु कई नई चिड़ियाँ, अन्य पेड़ और घोसलें देखने व जानने को मिले।
जैव-विविधता के इनके ज्ञान व समझ के चलते अब विभाग इन्हें आसपास के विद्यालयों में भेजता है ताकि ये छात्रों को वन्यजीव संरक्षण के लिए प्रेरित करें। वर्ष 2019 के वन्यजीव सप्ताह में इन्होने झालाना के आसपास 15 स्कूलों में जाकर वन्यजीवों, पर्यावरण और लेपर्ड के बार में बच्चों को जागरूक किया तथा उनको वनों की महत्वता के बार में भी समझाया। साथ ही बच्चों को पतंग के मांझों से होने वाले नुक्सान के बार में भी बताया।
वन्यजीवों के प्रति राजाराम का व्यवहार व ह्रदय बहुत ही कोमल है ये किसी भी जीव को दुःख में नहीं देख सकते हैं तथा इसी व्यवहार के चलते जब ये बायोलॉजिकल पार्क में थे तब जो भी प्लास्टिक व कांच की बोतल, टूटे कांच के टुकड़े इनको मिल जाते थे उसको ये एक बोरी में भर कर बाहर ले आते थे। ताकि किसी जानवर के पैर में चोट न लग जाए।
राजाराम समझते हैं कि, सभी फारेस्ट कर्मचारियों को जंगल के पेड़ों, वन्यजीवों और चिड़ियाँ के बारे में पता होना चाइये। इस से नई चीजे देखने को मिलेगी क्योंकि जंगल में सबसे ज्यादा फारेस्ट का आदमी ही रहता है। नई खोज करने से और प्रेरणा मिलती है की इस जंगल को बचाना है तथा नई प्रजाति के बारे में जान ने को भी मिलता है। इनका मान ना है कि, चिड़िया के संरक्षण के लिए सामान्य लोगों में मानवीय संवेदना की बहुत जरूरत है इसके संरक्षण के लिए मिट्टी के बर्तन दाना पानी व लकड़ी का घोंसला बनाकर आसपास के वृक्षों में टांग दे और गांव में घरो के आसपास झाड़ीनुमा वृक्षों का रोपण करें और साथी सदस्यों को वन्यजीवों के संरक्षण के लिए प्रेरित करना चाहिए।
प्रस्तावित कर्ता: श्री सुदर्शन शर्मा, उप वन सरंक्षक सरिस्का बाघ परियोजना सरिस्का
लेखक:
Meenu Dhakad (L) has worked with Tiger Watch as a conservation biologist after completing her Master’s degree in the conservation of biodiversity. She is passionately involved with conservation education, research, and community in the Ranthambhore to conserve wildlife. She has been part of various research projects of Rajasthan Forest Department.
Shivprakash Gurjar (R) is a Post Graduate in Sociology, he has an interest in wildlife conservation and use to write about various conservation issues.