पारिस्थितिक तंत्र ने बदला पंछी का रंग : ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क एवं ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क

पारिस्थितिक तंत्र ने बदला पंछी का रंग : ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क एवं ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क

जाने वो कौनसे कारण है की लार्क की एक प्रजाति ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क जहाँ मिलना बंद होती है वहां दूसरी ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क शुरू होती है। यह पारिस्थितिक कारण जानना और इनके पर्यावास में आये बदलाव का अध्ययन करना अत्यंत रोचक होगा

लार्क, पेसेराइन पक्षियों का वह समूह है जो लगभग सभी देशों में पाया जाता है। भारत में भी लार्क की कई प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमे से सबसे व्यापक लगभग पूरे भारत में पायी जाने वाली प्रजाति है ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क। यह प्रजाति 1000 मीटर की ऊंचाई से नीचे के क्षेत्रों तक ही सीमित है और यह हिमालय के दक्षिण से श्रीलंका तक और पश्चिम में सिंधु नदी प्रणाली तक और पूर्व में असम तक पाई जाती है। जहाँ यह छोटी झाड़ियों, बंजर भूमि, नदियों के किनारे रेत में पायी जाती है, तथा यह हमेशा नर-मादा की जोड़ी में देखने को मिलती है। परन्तु यह प्रजाति राजस्थान के थार रेगिस्तान में नहीं पायी जाती है, और राजस्थान के इसी भाग में लार्क की एक अन्य प्रजाति मिलती है जिसे कहते है ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क जो अक्सर थार-रेगिस्तान में जमीन पर बैठे हुए दिखाई देते हैं। यह दो प्रजातियां आंशिक रूप से राजस्थान के कुछ इलाकों में परस्पर पायी जाती हैं, हालांकि ये एक साथ कभी भी नहीं देखी जाती।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क में वयस्क नरों में मुख्यरूप से एक पाइड हेड पैटर्न होता है जिसमें काले सिर पर सफ़ेद माथा तथा गालों पर सफ़ेद पैच होता है। (फोटो: श्री. नीरव भट्ट)

ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क का माथा ज्यादा भूरा होता है तथा आँखों के पास काली पट्टी थोड़ी पतली होती है जो मुख्यतः भौहे जैसी लगती है। (फोटो: श्री. नीरव भट्ट)

वर्गिकी एवं व्युत्पत्ति-विषयक (Taxonomy & Etymology):

ब्लैक क्राउंड स्पैरो लार्क (Eremopterix nigriceps) एक मध्यम आकार का पक्षी है जो पक्षी जगत के Alaudidae परिवार का सदस्य है। इसे कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे की ब्लैक क्राउंड फिंच लार्क, व्हाइट-क्रस्टेड फिंच-लार्क, व्हाइट-क्रस्टेड स्पैरो-लार्क, और व्हाइट-फ्रंटेड स्पैरो-लार्क। वर्ष 1839 में अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ “John Gould” ने इसे द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार Eremopterix nigriceps नाम दिया था। Gould, एक बहुत ही नामी पक्षी चित्रकार भी थे, उन्होंने पक्षियों पर कई मोनोग्राफ प्रकाशित किए, जो प्लेटों द्वारा चित्रित किए गए थे।

बहुत ही व्यापकरूप से वितरित होने की कारण अलग-अलग भौगिलिक स्थितियों में इसके रंग-रूप में थोड़े-बहुत अंतर मिलते हैं और इन्ही अंतरों के आधार पर कुछ वैज्ञानिको ने समय-समय पर इसकी कुछ उप-प्रजातियां घोषित की हैं। इनमे से ईस्टर्न ब्लैक क्राउंड स्पैरो लार्क (E. n. melanauchen), भारत में पायी जाने वाली उप-प्रजाति है, जिसे एक जर्मन पक्षी विशेषज्ञ Jean Louis Cabanis ने वर्ष 1851 में रिपोर्ट किया तथा यह पूर्वी सूडान से सोमालिया, अरब, दक्षिणी इराक, ईरान, पाकिस्तान और भारत तक पायी जाती है।

निरूपण (Description):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क में नर और मादा रंग-रूप में एक दूसरे से बिलकुल भिन्न होते है जहाँ वयस्क नरों में मुख्यरूप से एक पाइड हेड पैटर्न होता है जिसमें काले सिर पर सफ़ेद माथा तथा गालों पर सफ़ेद पैच होता है। इसका पृष्ठ भाग ग्रे-भूरे तथा अधर भाग व् अंडरविंग्स काले रंग के होते हैं, जो छाती की किनारों पर एक सफेद पैच के साथ बिलकुल विपरीत होते हैं। इसकी काली पूँछ के सिरे भूरे रंग के होते है तथा पूँछ के बीच वाले पंख ग्रे रंग के होते हैं। वहीँ दूसरी और मादा में पृष्ठ भाग पीले-भूरे मटमैले रंग के होते हैं सिर पर हल्की धारियां (streaking), आँख के पास व् गर्दन के बगल में सफ़ेद पैच होता हैं। मादा के पृष्ठ भाग हल्के-पीले भूरे रंग के होते हैं और सिर पर हल्की लकीरे (streakings) होती हैं। इनकी आंख के चारों ओर और गर्दन के पास एक सफ़ेद पैच होता है तथा इसके अधर भाग सफ़ेद व् छाती के पास एक हल्के भूरे रंग की पट्टी होती है। इसके किशोर कुछ हद्द तक मादा जैसे दीखते हैं परन्तु किशोरों के सिर के पंखों के सिरे हल्के-भूरे रंग के होते हैं। नर की आवाज काफी परिवर्तनशील होती है, जिसमें आम तौर पर सरल, मीठे नोटों की एक छोटी श्रृंखला होती है, जो या तो उड़ान के दौरान या एक झाड़ी में या एक चट्टान पर बैठ कर निकाली जाती है।

कई बार इस पक्षी को लगभग इसके जैसे दिखने वाला ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क समझ लिया जाता है, जो भारत और पाकिस्तान के शुष्क क्षेत्रों में इस प्रजाति की वितरण सीमा के साथ आंशिक रूप से परस्पर पायी जाती है। परन्तु ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क का माथा ज्यादा भूरा होता है तथा आँखों के पास काली पट्टी थोड़ी पतली होती है जो मुख्यतः भौहे जैसी लगती है। मादा भूरे रंग की होती है और घरेलू गौरैया के समान होती है।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, मादा के पृष्ठ भाग हल्के-पीले भूरे रंग के होते हैं तथा आंख के चारों ओर और गर्दन के पास एक सफ़ेद पैच होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क, मादा भूरे-भूरे रंग की होती है और गौरैया के समान प्रतीत होती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, उत्तरी-पूर्वी अफ्रीका में, उत्तरी-अफ्रीका के साहेल से अरब प्रायद्वीप, पकिस्तान और भारत में वितरित हैं। भारत में यह थार-रेगिस्तान में पायी जाती है। यह बिखरी हुई छोटी घासों, झाड़ियों व् अन्य वनस्पतियों वाले शुष्क व् अर्ध-शुष्क मैदानों में पायी जाती है, तथा कई बार इसे नमक की खेती वाले इलाकों में भी देखा गया है।

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क का वितरण क्षेत्र (Source: Grimett et al 2014 and Birdlife.org)

व्यवहार एवं परिस्थितिकी (Behaviour & Ecology):

शुष्क प्रदेश में पाए जाने वाला यह पक्षी अपने पर्यावास के अनुसार अपने जल संतुलन को बहुत ही अच्छे से संचालित करता है, जैसे की दोपहर की गर्मी में छाया में रहकर पानी के नुकसान को कम करते हैं तथा कई बार बड़ी छिपकलियों के बिलों के अंदर आश्रय लेते भी इसको देखा गया है। यह अपने शरीर के तापमान को संचालित करने के लिए अपनी टांगों को निचे लटका कर उड़ान भरते है ताकि इनके अधर भाग पर सीधे हवा लगे तथा कई बार यह हवा के सामने वाले स्थान पर भी बैठ जाते हैं। प्रजनन काल के मौसम के अलावा, बाकी सरे समय में यह 50 पक्षियों तक के झुंड बना सकते हैं जो एक साथ रहते हैं परन्तु कई हजार के बड़े झुंड भी रिकॉर्ड किए गए हैं।

प्रजनन (Breeding):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, के प्रजनन काल में नर एक बहुत ही ख़ास हवाई उड़ान का प्रदर्शन करता है, जिसमे नर गोल-गोल चक्कर लगते हुए साथ ही आवाज करते हुए तेजी से ऊपर जाता है और फिर छोटी पत्नियों वाली उड़ान की एक श्रृंखला धीरे-धीरे निचे गिरता है। कभी-कभी नर और मादा दोनों साथ में उड़ान का प्रदर्शन करते है जिसमें नर धीरे घूमते हुए मादा का पीछा करता है। वे आमतौर पर गर्मियों के महीनों के दौरान प्रजनन करते हैं, और अक्सर बारिश से इनका प्रजनन शुरू होता है तथा लगभग जब भी परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, इनका प्रजनन शुरू होता हैं। इनके घोंसले आकार में छोटे, कम गहरे और पौधे व् अन्य सामग्री के साथ पंक्तिबद्ध होता है, तथा उसके मुँह की किनार पर छोटे पत्थर व् मिटटी के छोटे ढेले रखे होते हैं। घोंसला आमतौर पर एक झाड़ी या घास के नीचे स्थित होता है ताकि उसे कुछ छाया प्रदान की जा सके। नर व् मादा दोनों लगभग 11 से 12 दिनों के लिए, 2 से 3 अंडे के क्लच को सेते हैं।

आहार व्यवहार (Feeding habits):

ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, एक बीज कहानी वाला पक्षी है, लेकिन यह कीटों और अन्य अकशेरुकी जीवों को भी खा लेता है। घोंसले में रहने वाले छोटे किशोरों को मुख्यरूप से कीड़े ही खिलाये जाते है। राजस्थान जैसे गर्म व् शुष्क वातावरण में यह पक्षी सुबह और शाम के समय में ही भोजन का शिकार करते हैं, जहाँ आमतौर पर इन्हे जमीन पर शिकार मिल जाते हैं तथा कई बार उड़ने वाले कीड़ों को यह हवा में उड़ कर भी पकड़ लेते हैं।

बस तो फिर थार में जाने से पहले अपनी दूरबीनों को तैयार कर लीजिये और इस छोटे फुर्तीले पक्षी को देखने के लिए सतर्क रहिये…

सन्दर्भ:
  • Cover Image Picture Courtesy Dr. Dharmendra Khandal.
  • Gould, J. 1839. Part 3 Birds. In: The Zoology of the voyage of H.M.S. Beagle, under the command of Captain Fitzroy, R.N., during the years 1832-1836. Edited and superintended by Charles Darwin. Smith, Elder & Co. London. 1841. 156 pp., 50 tt.
  • Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.
  • http://datazone.birdlife.org/species/factsheet/ashy-crowned-sparrow-lark-eremopterix-griseus

 

 

तीज : लाल रंग का सूंदर रहस्यमय जीव

तीज : लाल रंग का सूंदर रहस्यमय जीव

“मानसून की कुछ बौछारो के साथ क्या यह लाल रंग का कीडेनुमा जीव भी बरसता है?”

मानसून की कुछ बौछारो के साथ क्या यह लाल रंग का कीडेनुमा जीव भी बरसता है? मेरे स्कूल के दिनों में लगभग हम सभी के मन में यह प्रश्न रहता था, न जाने क्यों यह सुन्दर सा जीव बारिश के पहले कभी नहीं दिखता और ना ही बाद में।

राजस्थान के अधिकांश हिस्से में इन्हे तीज के नाम से जाना जाता है और भारत के अन्य स्थानों पर इनको अनेक नामो से जाना जाता है जैसे बीरबहूटी या सावन की बुढ़िया आदि। यह सूंदर गहरे लाल रंग का दिखने वाला जीव मखमल जैसा दिखता है, अतः इसे अंग्रेजी में रेड वेलवेट माइट (Red Velvet  mite) कहते है। भारत में मिलने वाली प्रजाति को Trombidium grandissimum कहा जाता है।

रेड वेलवेट माइट छोटे कीड़ो एवं उनके अंडो आदि को अपना भोजन बनाते है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

 

धुप व् गर्मी बढ़ने पर यह मिटटी में छुप जाते हैं (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

असल में है ट्रॉम्बिडियम नामक यह जीव, कीटक समाज से नहीं बल्कि एक माइट के रूप में वर्गीकृत किया गया है, यानि  खून  चूसने  वाले  चींचड़े  के ये अधिक नजदीक है। इनके शरीर के मात्र दो हिस्से होते है, जो यह प्रमाणित करता है की यह कीटक नहीं है क्योंकि किटक के शरीर के तीन हिस्से होते है। यह एक अरकनिडा वर्ग का जीव है, जो छोटे कीड़ो एवं उनके अंडो आदि को अपना भोजन बनाते है। इनके छोटे लार्वे – टिड्डो एवं मकड़ियों आदि पर परजीवी के तौर पर मिलते है। लार्वे से जब यह बड़ा होकर निम्फ अवस्था में आता है, एवं अपने वयस्क के सामान लगने लगता है। अचानक से बारिश के समय यह अधिक विचरण करने लगता है एवं अधिक दिखाई लगने लगता है, हम सब इस कयास में लग जाते है के यह वर्षा के साथ बरसे है, परन्तु असल में अनुकूल मौसम के कारण यह जमीन से निकल कर विचरण करते नजर आते है। अक्सर धुप बढ़ने पर भी यह मिटटी को खोद कर उसमें छिप जाते है।  इसके शरीर पर मुलायम लाल रंग के बाल नुमा रोये मखमली आभास देता है I यह जमीन में छिपाने  के बाद भी इसके बालो से मिटटी चिपकती नहीं है।

इनके शरीर पर बहुत ही महीन फर होने के कारण ये मखमली देखते हैं तथा इसीलिए इनका नाम रेड वेलवेट माइट होता है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

 

रेड वेलवेट माइट, सैंकड़ों की तादाद में गीली मिटटी में अंडे देते है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इन जीवो को यूनानी एवं होम्योपैथिक चिकित्षा पद्धतियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कुछ स्थानीय लोग इनका इस्तेमाल योन संवर्धक दवा के तोर पर भी करता है। भारत में कुछ लोग इसका व्यापार भी करते है। आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं ओड़िसा के कुछ हिस्सों में इसका निरंतर व्यापार होता है। यद्दपि यह एक किसान का मित्र है एवं विभिन्न किटको की संख्या को नियंत्रित करता है।

व्यस्क रेड वेलवेट माइट (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

 

 

 

 

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन: राजस्थान में वर्षा ऋतू का मेहमान

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन: राजस्थान में वर्षा ऋतू का मेहमान

“बड़ी तादाद और विस्तृत क्षेत्र में पाए जाने वाले मानसून मार्ग प्रवासी पक्षी, रूफस-टेल्ड स्क्रब-रॉबिन अपनी सुंदरता के रंग बिखेरने जल्द ही अगस्त में भारत आने वाला हैं, तो तैयार हो जाइये जल्द ही इसे देखने के लिए”

राजस्थान में विभिन्न प्रकार के प्रवासी पक्षी आते हैं कुछ सर्दियों में अत्यधिक ठण्ड से बचने के लिए तो कुछ वर्षा ऋतू में प्रजनन के लिए यहाँ आते हैं। परन्तु कुछ पक्षी ऐसे भी हैं जो यहाँ से गुजरने वाले पर्यटक होते हैं जो लम्बी दुरी तय करने के दौरान बीच में किसी एक स्थान पर कुछ दिन के लिए रुक जाते हैं। ऐसा ही एक पर्यटक पक्षी जिसका नाम “रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन” जल्द ही (अगस्त) में राजस्थान में आने वाला है तथा इसे दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान यानि थार-मरुस्थल और रणथम्भौर (सवाई माधोपुर) व इसके आसपास के इलाकों में देखा जा सकता है। रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन, खुले-खुले पेड़ों और झाड़ियों वाले शुष्क प्रदेश में मिलने वाला एक कीटभक्षी पक्षी है जो अपनी लंबी, गहरे भूरे रंग की पूंछ द्वारा पहचाना जाता हैं, जिसे वह अक्सर ऊपर-नीचे हिलाता और फैलाता है।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन, पृथक पेड़ों और झाड़ियों वाले शुष्क प्रदेश में मिलने वाला एक कीटभक्षी पक्षी है (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्गिकी एवं नाम उत्‍पत्ति (Taxonomy & Etymology):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन (Cercotrichas galactotes) एक मध्यम आकार का पक्षी है जो पक्षी जगत के Muscicapidae परिवार का सदस्य है। इसे रूफस स्क्रब रॉबिन, रूफस बुशचैट, रूफस बुश रॉबिन और रूफस वॉबलर नाम से भी जाना जाता है। वर्ष 1820 में Coenraad Jacob Temminck ने रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन को द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार Cercotrichas galactotes नाम दिया। Temminck एक डच जीव वैज्ञानिक और संग्रहालय निदेशक थे। इसका वैज्ञानिक नाम “Cercotrichas galactotes” एक ग्रीक भाषा का नाम है, जिसमें Cercotrichas ग्रीक भाषा के शब्द kerkos से लिया गया है जिसका अर्थ “पूँछ” होता है, तथा “galactotes” ग्रीक भाषा के शब्द “gala” से लिया गया है जिसका अर्थ होता है दूध जैसा।

जर्मन वैज्ञानिक Johann Friedrich Naumann जिन्हे यूरोप में वैज्ञानिक पक्षी विज्ञान के संस्थापक के रूप में जाना जाता है द्वारा बनाया गया चित्र।

निरूपण (Description):

इस रॉबिन में वयस्क नर और मादा एक जैसे ही दिखते हैं और सिर से पूँछ तक यह लगभग 6 इंच (150 मिमी) लंबे होते हैं तथा इनके पैर शरीर की अपेक्षा लम्बे होते हैं। इसके शरीर का ऊपरी भाग (पृष्ठ भाग) ललाई लिए भूरे रंग (चेस्टनट) का होता है। इसकी नाक से होते हुए आँख के पीछे तक एक हल्की घुमावदार क्रीम-सफ़ेद रंग की लकीर और आँख के पास एक गहरे भूरे रंग की लकीर होती है, तथा आँख का निचला हिस्सा सफेद रंग का होता है। आंख और चोंच दोनों ही भूरे रंग के होते हैं लेकिन चोंच का निचला हिस्सा ग्रे रंग का होती है। पूँछ के ठीक ऊपर का शरीर (Rump) और अप्परटेल कोवेर्ट्स बादामी रंग के होते हैं। शरीर का निचला भाग (अधर भाग) भूरे-सफेद रंग का होता है, परन्तु ठोड़ी, पेट और अंडर टेल कोवेर्ट्स अन्य भागों की तुलना में हल्के रंग के होते हैं।

इसके पंख गहरे भूरे रंग के होते हैं, जो सिरों से हल्के बादामी रंग और पीछे के किनारे ब्राउन होते हैं और सेकेंडरिस के सिरे सफ़ेद होते हैं। इसकी पूँछ के बीच वाले पंख (केंद्रीय) पंख चटक चेस्टनट रंग के होते हैं जिनके सिरों पर छोटी-सकड़ी काली पट्टी होती हैं तथा पूँछ के बाकि पंख चेस्टनट रंग के साथ सिरों से सफ़ेद रंग के होते हैं।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन को अक्सर खुले इलाको में जमीन पर घुमते हुए देखा जा सकता हैं और अपनी पूँछ को ऊपर-निचे हिलाता हैं फैलता है (फोटो: श्री नीरव भट)

इनके किशोर दिखने में लगभग वयस्क जैसे ही होते हैं लेकिन आमतौर पर इनके शरीर का रंग रेतीला-भूरा होता हैं। शरद ऋतु में यह मॉल्टिंग (अपनी पूँछ के पंख गिरा देते हैं) करते हैं तथा इससे कुछ दिन पहले ही इनकी पूंछ के पंखों के सफेद सिरे कम या बिलकुल गायब हो जाते हैं।

इसकी आवाज कुछ हद तक लार्क जैसी होती हैं, कभी-कभी स्पष्ट और तेज तो कभी हल्की। यह एक ऊँचे स्थान पर पेड़ के शीर्ष पर बैठकर आवाज करता है तथा ऐसा कहा जाता है कि, इसका गीत निराश व् उदास स्वर वाला होता है।

इसकी आवाज कुछ हद तक लार्क जैसी होती हैं, कभी-कभी स्पष्ट और तेज तो कभी हल्की। (फोटो: श्री नीरव भट)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

इसकी प्रजनन रेंज पुर्तगाल, दक्षिणी स्पेन और बाल्कन प्रायद्वीप से लेकर मध्यपूर्व से इराक, कजाकिस्तान और पाकिस्तान तक फैली हुई है तथा यह एक आंशिक प्रवासी पक्षी है जिसकी दक्षिण की ओर जाने वाली आबादी भारत से होकर गुजरती हैं। यह उत्तरी यूरोप के लिए एक असामान्य पर्यटक है। सर्दियों का समय यह उत्तरी अफ्रीका और पूर्व में भारत में बिताते हैं। यह निचले तलहटी वाले खुले शुष्क इलाकों जिनमे घनी झाड़ियां पायी जाती हैं में पाए जाते हैं तथा कई बार यह पार्को और बागों में भी पाया जा सकता है।

यह पक्षी बहुत ही व्यापक रूप से वितरित है और भौगोलिक स्थितियों व मौसम के कारण इसके रंग-रूप में हल्के-फुल्के अंतर भी मिलते हैं, तथा इन्हीं अंतरों के आधार पर विभिन्न वैज्ञानिको ने इसकी पांच उप-प्रजातियां बनायीं हैं; Cercotrichas galactotes familiaris, Cercotrichas galactotes galactotes, Cercotrichas galactotes hamertoni, Cercotrichas galactotes minor and Cercotrichas galactotes syriaca. ऐसा माना जाता है कि, भारत में C. g. familiaris उप-प्रजाति पायी जाती है, यह दक्षिणी-पूर्वी प्रवासी है जो की अगस्त और सितंबर के महीने में राजस्थान, गुजरात, पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में देखने को मिलती है। राजस्थान में इस प्रजाति को थार-मरुस्थल; जैसलमेर और सवाई माधोपुर में देखा जाता है।

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन वितरण दर्शाता मानचित्र (Source: Grimett et al 2014)

व्यवहार एवं परिस्थितिकी (Behaviour & Ecology):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन घनी वनस्पति वाले पर्यावास और खुले स्थानों पर भी पाए जाते हैं। खुले इलाको में इन्हे अक्सर जमीन पर घुमते हुए देखा जा सकता हैं और अपनी पूँछ को फैला कर ऊपर-नीचे हिलाता है। यह मुख्य रूप से बीटल्स, टिड्डों, तितलियों व पतंगों के लार्वा, छोटे कीटों और केंचुओ को खाते हैं, तथा अपने भोजन को खोजने के लिए यह नीचे पड़ी हुई पत्तियों को उलट-पलट करते हैं। अक्सर नर रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन एक असामान्य उड़ान का प्रदर्शन करते हैं जिसमें ये अपने पंखों को ऊपर किये हुए एकदम से नीचे की और जाते हैं और साथ ही आवाज करते हैं।

यह एक ऊँचे स्थान पर पेड़ के शीर्ष पर बैठकर आवाज करता हैं तथा ऐसा कहा जाता हैं की इसका गीत निराश व् उदास स्वर वाला होता है। (फोटो: श्री नीरव भट)

संरक्षण स्थिति (Conservation status):

रूफस-टेल्ड स्क्रब रॉबिन की एक व्यापक रूप से वितरित पक्षी है, जिसका अनुमानित विस्तार 4.3 मिलियन वर्ग किलोमीटर (1.66 मिलियन वर्ग मील) है, और एक बड़ी आबादी (96 से 288 हजार), यूरोप में उपस्थित है। इन सब आकड़ों के साथ इनकी आबादी स्थिर भी है तथा इसीलिए IUCN रेड लिस्ट में इसको लिस्ट कंसर्न श्रेणी में रखा गया है।

तो बस यदि आप भी राजस्थान, गुजरात व दिल्ली में रहते हैं तो आने वाले हफ़्तों में इस बरसाती मेहमान को देखने के प्रयास करें और इसके सुंदरता का आनंद ले।

सन्दर्भ:
  • Sharma, N. 2017. First record of Rufous-tailed Scrub Robin Cercotrichas galactotes (Aves:Passeriformes: Muscicapidae) from Jammu & Kashmir, India. Journal of Threatened taxa. 9(9):10726-10728.
  • http://orientalbirdimages.org/search.php?Bird_ID=2562&Bird_Image_ID=108219
  • https://timesofindia.indiatimes.com/city/gurgaon/birders-cheer-sighting-of-rare-rufous-tailed-scrub-robin/articleshow/65554990.cms
  • Naumann. F. Naturgeschichte Der Vogel, Mitteleuropas. Herausgegeben von Dr. Carl R. Hennicke in Gera. II. Band.
    (Grasmücken, Timalien, Meisen und Baumläufer.). LITHOGRAPHIE, DRUCK UND VERLAG VON. FR. EUGEN KÖHLER.
राजस्थान में मिला एक नया मेंढक : Uperodon globulosus (इंडियन बलून फ्रॉग )

राजस्थान में मिला एक नया मेंढक : Uperodon globulosus (इंडियन बलून फ्रॉग )

“राजस्थान के चित्तौरगढ़ जिले की एक पिता पुत्र की जोड़ी ने अपनी सुबह की सैर के दौरान खोजी एक नयी मेंढक प्रजाति।”

राजस्थान के बेंगु (चित्तौरगढ़ जिले ) कस्बे में 21  जुलाई 2020 को राज्य के लिए एक नए मेंढक को देखा गया। यह मेंढक Uperodon globulosus है इसे सामान्य भाषा में “इंडियन बलून फ्रॉग” भी कहा जाता है क्योंकि यह अपना शरीर एक गुब्बारे की भांति फुला लेता है।  राजस्थान में इस मेंढक की खोज एक पिता पुत्र की जोड़ी ने की है- श्री राजू सोनी एवं उनके 12 वर्षीय पुत्र श्री दीपतांशु सोनी जब सुबह की सैर के लिए जा रहे थे तो उन्हें यह मेंढक रास्ते पर मिला, उस स्थान के पास लैंटाना की घनी झाड़ियां है एवं मूंगफली एवं मक्के के खेत है।  श्री सोनी ने  मोबाइल के सामान्य कैमरे से इसके कुछ चित्र लिए। जिनके माध्यम से प्रसिद्द जीव विषेशज्ञ श्री सतीश शर्मा ने इस मेंढक की पहचान की।  राजस्थान में इसी Uperodon जीनस के दो अन्य  मेंढक भी मिलते है –Uperodon systoma एवं Uperodon taprobanicus।  श्री राजू सोनी सरकारी अस्पताल में नर्स के पद पर कार्यरत है। टाइगर वॉच के श्री धर्मेंद्र खांडल मानते है की यह यद्पि  Uperodon globulosus प्रतीत होता है  परन्तु एक पूर्णतया नवीन प्रजाति भी हो सकती है, अतः इस पर गंभीता से शोध की आवश्यकता है।

Uperodon globulosus “इंडियन बलून फ्रॉग” (फोटो: श्री राजू सोनी)

Uperodon globulosus location map

 

Uperodon globulosus का पर्यावास जहाँ यह पाया गया (फोटो: श्री राजू सोनी)

इस मेंढक Uperodon globulosus की खोज एक जर्मन वैज्ञानिक Albert Günther ने 1864 में की थी। यह एक भूरे रंग का गठीले शरीर का  मेंढक है जो 3  इंच तक के आकार का होता है। शुष्क राज्य राजस्थान में मेंढ़को में अब तक मिली यह 14 वे नंबर की प्रजाति है I राजस्थान में इसका पहली बार मिलना अत्यंत रोचक है एवं हमें यह बताता है की राजस्थान में मेंढको पर खोज की संभावना अभी भी बाकि हैI

श्री राजू सोनी चित्तौरगढ़ के सरकारी अस्पताल में नर्स के पद पर कार्यरत है तथा वन्यजीवों की फोटोग्राफी के साथ-साथ उनके संरक्षण में रूचि रखते है।
श्री दीपतांशु सोनी अपने पिता के साथ खोजयात्राओं में जाते हैं तथा वनजीवों में रूचि रखते हैं।

 

घड़ियालों के नए आवास की खोज

घड़ियालों के नए आवास की खोज

“टाइगर वॉच द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण में, पार्वती नदी में घड़ियालों की एक आबादी की खोज के साथ ही यह पुष्टि की गयी है की पार्वती नदी घड़ियालों के लिए एक नया उपयुक्त आवास है।”

घड़ियाल, जो कभी गंगा की सभी सहायक नदियों में पाए जाते थे, समय के साथ मानवीय हस्तक्षेपों और लगातार बढ़ते जल प्रदुषण के कारण गंगा से विलुप्त हो गए, तथा आज यह केवल चम्बल तक ही सिमित है। वर्तमान में चम्बल नदी में 600 व्यस्क घड़ियाल ही मौजूद है तथा यह अपने आवास के केवल 2 प्रतिशत भाग में ही सिमित हैं, जबकि सन् 1940 में घड़ियाल कि आबादी 5000-10000 थी। पृथ्वी पर जीवित मगरमच्छों में से सबसे लम्बे मगरमच्छ “घड़ियाल” केवल भारतीय उपमहाद्वीप पर  ही पाए जाते है। एक समय था जब घड़ियाल भारतीय उपमहाद्वीप कि लगभग सभी नदियों में पाये जाते थे परंतु आज यह केवल चम्बल नदी में ही मिलते हैं। सन् 1974 में इनकी आबादी में 98 प्रतिशत गिरावट देखते हुए वैज्ञानिकों द्वारा इसे विलुप्तता के करीब माना जाने लगा तथा IUCN कि लाल सूची (red list) में इनको घोर-संकटग्रस्त (Critically Endangered) श्रेणी में शामिल किया गया। स्थिति को देखते हुए सरकार व वैज्ञानिकों ने एक साथ इसके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाये और घड़ियालों के फलने-फूलने के लिए विशेष स्थान उपलब्ध कराने हेतु नए अभयारण्यों की स्थापना की गई। राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य (NCS) भारत का पहला और एकमात्र संरक्षित क्षेत्र हैं जो तीन राज्यों में फैला हुआ है तथा मुख्यरूप से मगरमच्छ प्रजाति के संरक्षण के लिए बनाया गया है। आज, चंबल अभयारण्य में गंभीर रूप से लुप्तप्राय घड़ियाल (Gavialis gangeticus) की सबसे बड़ी और विकासक्षम प्रजनन आबादी पायी जाती है। चम्बल नदी की तीन मुख्य सहायक नदियाँ हैं; पार्वती, कालीसिंध व बनास नदी, तथा पार्वती-चम्बल संगम से लेकर 60 किमी तक पार्वती नदी संरक्षित क्षेत्र में शामिल है, परन्तु अन्य दो नदियाँ NCS के बाहर हैं। प्रतिवर्ष चम्बल नदी में घड़ियालों की आबादी के लिए सर्वेक्षण किये जाते हैं तथा हर प्रकार की गतिविधि पर नज़र रखी जाती है, परन्तु इसकी सहायक नदियों में इनकी मौजूदगी व स्थिति का कोई दस्तावेजीकरण नहीं है।

घड़ियाल, को कभी-कभी गेवियल भी कहा जाता है, यह एक प्रकार के एशियाई मगरमच्छ होते हैं जो स्वच्छ प्रदुषण रहित नदियों में रहते हैं, तथा अपने लंबे, पतले, सकड़े जबड़े के द्वारा पहचाना जाता हैं। यह भूमि के लिए अच्छी तरह से अनुकूल नहीं हैं, और इसलिए ये आमतौर पर केवल धूप सेकने और घोंसले तक जाने के लिए ही पानी से बहार निकलते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिकों और प्रकृतिवादियों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात यह है की हाल ही में हुए एक अध्ययन से घड़ियालों की एक बड़ी आबादी की उपस्थिति पार्वती व बनास नदी तथा इनके प्रजनन की पुष्टि पार्वती नदी से की गई है। यह अध्ययन रणथम्भौर स्थित टाइगर वॉच संस्था द्वारा रणथम्भौर के भूतपूर्व फील्ड डायरेक्टर श्री वाई.के साहू के दिशा निर्देशों में वर्ष 2015 से 2017 तक किया गया तथा इसकी रिपोर्ट 17 जनवरी को आईयूसीएन पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस अध्ययन के लिए प्रेरणा तब मिली जब वर्ष 2014 में एक घड़ियाल को रणथम्भौर वन विभाग द्वारा बनास नदी से बचाया गया था। इस अध्ययन के अंतर्गत वर्ष 2015 से 2017 तक प्रतिवर्ष सभी तीन सहायक नदियों पर सर्वेक्षण किये गए, ताकि घड़ियाल व मगरमच्छों की उपस्थिति के लिए प्रत्येक सहायक नदी की क्षमता का आकलन किया जा सके। वर्ष 2015 व 2016 में फरवरी माह में सर्वेक्षण किए गए तथा वर्ष 2017 में प्रजनन आबादी की मौजूदगी जानने के लिए जून माह में भी सर्वेक्षण किए गए। प्रत्येक सहायक नदी के बहाव क्षेत्र (पार्वती 67 किमी, काली सिंध 24 किमी, बनास 53 किमी) का सर्वेक्षण किया गया, तथा नदी के किनारे पर सभी प्रकार की मानवीय गतिविधियों को भी दर्ज किया गया।

इस अध्ययन द्वारा यह पता चला की पार्वती नदी में घड़ियालों की एक अच्छी आबादी और बनास नदी में कुछ पृथक घड़ियाल उपस्थिति है, जबकि कालीसिंध नदी में केवल मगर ही पाए जाते हैं।

घड़ियाल अन्य मगरमच्छों की तरह शिकार नहीं करते हैं- इनके थूथन (snout) में संवेदी कोशिकाएँ होती हैं जो पानी में होने वाले कंपन को पता लगाने में मदद करती हैं। यह पानी के अंदर अपने मुँह को खोल कर धीरे-धीरे मछली के पास जाते हैं और दुरी शून्य होने पर फुर्ती से मछली को जबड़े में पकड़ लेते हैं, जिसमे सौ से अधिक दांतों के साथ पंक्तिबद्ध होते हैं। जहाँ वयस्क मछली खाते हैं, तो वहीँ इनके छोटे बच्चे कीड़े, क्रस्टेशियन और मेंढक खाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

पार्वती नदी का सर्वेक्षण:

पार्वती नदी में वर्ष 2015 में 14 और 2016 में 29 वयस्क घड़ियाल दर्ज किये गए, तथा सर्वेक्षण के दौरान एक नर घड़ियाल भी पाया गया, जिसके कारण वर्ष 2017 में सर्वेक्षण प्रजनन के समय यानी जून माह में किया और इस वर्ष कुल 48 वयस्क और 203 घड़ियाल के छोटे बच्चे पाए गए। पार्वती नदी (~ लंबाई में 159 किमी) मध्य प्रदेश में विंध्य पहाड़ियों की उत्तरी ढलानों से निकलती है और यह बारां जिले के चतरपुरा गाँव के पास से राजस्थान में प्रवेश करती है, जहाँ यह मध्य प्रदेश और राजस्थान के बीच 18 किलोमीटर की सीमा बनाती है। फिर बहती हुए यह नदी कोटा जिले के पाली गांव के पास चम्बल नदी में मिल जाती है। यह एक सतत बहने वाली नदी है जिसके किनारे रेत, चट्टानों और शिलाखंडों से युक्त होने के कारण अपने आप में ही एक अद्वितीय पारिस्थितिक तंत्र है।

पार्वती नदी में घड़ियालों का वितरण दर्शाता मानचित्र

बनास नदी का सर्वेक्षण:

अध्ययन के दौरान बनास नदी में वर्ष 2015 में 1 और 2016 में केवल 5 घड़ियाल ही पाए गए। यह घड़ियाल के कोई स्थायी आबादी नहीं थे, बल्कि वर्षा ऋतु में नदी में पानी बढ़ जाने की वजह से चम्बल नदी से बह कर इधर आ जाते हैं और नदी में पानी कम हो जाने के समय ये कुछ छोटे इलाके जहाँ पानी हो वही मुख्य आबादी से दूर पृथक रह जाते है। बनास नदी (~ 512 किमी) की उत्पत्ति राजसमंद जिले के कुंभलगढ़ से लगभग 5 किलोमीटर दूर अरावली की खमनोर पहाड़ियों से होती है। यह राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र से उत्तर-पूर्व की ओर बहती है, और सवाई माधोपुर जिले के रामेश्वर गाँव के पास चम्बल में मिल जाती है। इस नदी पर वर्ष 1999 में बीसलपुर बांध के निर्माण के बाद यह सूख गई तथा यह केवल तब ही बहती है जब वर्षा ऋतु में बाँध से अधिशेष पानी निकाला जाता है, और अन्य समय इसके कुछ गहरे कुंडों में ही पानी बचता है, तथा इन कुंडों का आपस में बहुत कम या कोई प्रवाह नहीं होता है।

बनास नदी में घड़ियालों का वितरण दर्शाता मानचित्र

कालीसिंध नदी का सर्वेक्षण:

अध्ययन के दौरान इस नदी में कोई घड़ियाल नहीं मिला परन्तु इस नदी में मगरों की उपस्थिति पायी गयी। काली सिंध नदी (~ 145 किमी) मध्य प्रदेश के बागली (जिला देवास) से निकलती है और अहु, निवाज और परवन इसकी सहायक छोटी नदियां हैं। यह नदी राजस्थान में प्रवेश कर बारां और झालावाड़ जिलों से होकर उत्तर की ओर बहती है तथा कोटा जिले के निचले हिस्से में चम्बल में मिल जाती है। इस नदी के किनारे मुख्यरूप से सूखे, मोटी रेत, कंकड़-पत्थर और चट्टानों से भरे हुए हैं, परिणाम स्वरूप इसके किनारे कठोर, चट्टानी और बंजर हैं।

पार्वती नदी का 60 किमी का हिस्सा राष्ट्रीय चम्बल घड़ियाल अभयारण्य के अंतर्गत संरक्षित है। पहले, इस हिस्से का घड़ियालों द्वारा इस्तेमाल किये जाने के कोई रेकॉर्ड नहीं थे, परन्तु इस अध्ययन ने दृढ़ता से यह स्थापित किया है की पार्वती नदी का यह संरक्षित खंड चम्बल घड़ियाल अभयारण्य के भीतर घड़ियाल आवास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि घड़ियालों की एक आबादी इस हिस्से का घोंसले बनाने, प्रजनन, छोटे घड़ियालों के लिए उत्तम पर्यावास है। इसके विपरीत, सर्वेक्षण की गई अन्य दो नदियाँ बनास और कालीसिंध घड़ियाल के आवास के लिए बिलकुल भी उपयुक्त नहीं हैं। जहाँ एक तरफ बनास नदी पर बने बीसलपुर बाँध के कारण नदी कुछ छोटे गहरे खंडित कुंडों में बदल दिया है, और नदी केवल मानसून के दौरान बहती है जब बांध के द्वार खुले होते हैं। इस दौरान कभी-कभी, कुछ घड़ियाल चम्बल से बहकर इधर आ जाते है और पानी का स्तर कम होने पर इन्हींखंडों में फँसकर रह जाते हैं। वही दूसरी ओर कालीसिंध नदी मुख्यतः चट्टानी हैं, जिसमें रेतीले क्षेत्र बहुत ही कम हैं। चम्बल अभयारण्य की सीमा के बहार होने और किसी भी प्रकार का संरक्षण नहीं होने के कारण इस नदी के आसपास मानवीय हस्तक्षेप व् दबाव बहुत अधिक है।

घड़ियाल, ग्रीष्म ऋतू के शुष्क मौसम के दौरान अपने घोंसले बनाते व् प्रजनन करते हैं, और मादाएं धीमे बहाव वाले किनारे पर रेत में अंडे देती हैं। लगभग 70 दिनों के बाद बच्चे अण्डों से बाहर आते हैं, और यह अपनी मां के साथ कई हफ्तों या महीनों तक रहते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

मौसमी रूप से कम पानी की अवधि के दौरान, पार्वती और काली सिंध नदियाँ चंबल के लिए पानी का प्राथमिक स्रोत हैं। तीन बड़े बाँध (गांधी सागर, जवाहर सागर, और राणा प्रताप सागर) और कोटा बैराज ने चम्बल की मुख्यधारा में पानी के बहाव को गंभीर रूप से सीमित कर दिया है, जिसके कारण शुष्क मौसम के दौरान जल निर्वहन लगभग शून्य होता है। इस प्रकार पार्वती नदी न सिर्फ चम्बल के लिए प्रमुख जल स्रोत के रूप में अपनी भूमिका निभाती है बल्कि पार्वती नदी के निचले हिस्से घड़ियाल के लिए उपयुक्त अन्य आवास भी प्रदान करती हैं।

घड़ियाल पर्याप्त रेत के साथ स्वच्छ व् तेजी से बहने वाली नदियों को पसंद करते हैं, और उसमें भी विशेष रूप से गहरे पानी वाले स्थान इन्हें ज्यादा पसंद होता है। हाल ही में हुए कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि घड़ियाल मौसमी लम्बी दूरी की यात्रा भी करते हैं, जहाँ यह मानसून में अच्छा भोजन उपलब्ध करवाने वाले प्रमुख संगमों के आसपास रहते हैं तो वहीं मानसून के बाद, सर्दियों, और मानसून के पहले यह अपने प्रजनन व् घोंसला बनाने वाले स्थानों पर चले जाते हैं। मादा घड़ियाल विशेष रूप से रेतीले हिस्सों पर स्थित उपनिवेशों में घोंसला बनाना पसंद करते हैं जो गहरे पानी से सटे हुए हो तथा वहां रेत की मात्रा भी ज्यादा हो। यह भी देखा गया है की घड़ियालों का पसंदीदा क्षेत्र दशकों तक एक ही रहता है परन्तु नदी की स्थानीय स्थलाकृतियों में आने वाले बदलाव के आधार पर यह थोड़ा बहुत बदलते भी रहते हैं। लोगों द्वारा पारंपरिक नदी गतिविधियां घड़ियाल को नदी के आस-पास के आवासों का उपयोग करने से नहीं रोकती हैं, लेकिन घड़ियाल आमतौर पर उन क्षेत्रों में रहने से अक्सर बचते है जहाँ रेत खनन और मछली पकड़ने का कार्य किया जाता है। नदियों में जुड़ाव होना भी बहुत ही आवश्यक है क्योंकि यह घड़ियाल को प्रजनन और घोंसले बनाने के लिए अपनी जगह बदलने के लिए सक्षम बनाता है।

यह अध्ययन न केवल चम्बल अभयारण्य के अपस्ट्रीम खंडों के उपयुक्त घड़ियाल आवास और महत्वपूर्ण जल स्रोत के रूप में महत्व पर प्रकाश डालता है, बल्कि पार्वती सर्वेक्षणों से प्रजनन, वयस्कों और घड़ियालों के घोंसलों की पुष्टि भी करता हैं। परन्तु अध्ययन में इन नदियों के आसपास कई मानवीय गतिविधियां जैसे जल प्रदूषण, मछली पकड़ना, नदी के पानी की निकासी, रेत खनन आदि दर्ज की गई जो इन घड़ियालों और मगरों के अस्तित्व को खतरे में डालती हैं। नदियों में पानी कम होने, मछलियों के कम होने के कारण और कई बार मछलियों के जाल में फंस जाने के कारण भी इनकी संख्या कम हो गई है। इन गतिविधियों के साथ-साथ कई बार मानव-घड़ियाल संघर्ष भी इनके लिए बड़ा खतरा बनजाता है, ऐसा वर्ष 2016 में बनास नदी के पास हुआ था जब कुछ लोगों ने एक नर घड़ियाल की दोनों आँखें फोड़ दी और उसके मुंह के ऊपर वाला जबड़ा भी तोड़ दिया।

आज हम देखे तो सभी मानवीय गतिविधियां (जल प्रदूषण, मछली पकड़ना, नदी के पानी की निकासी, रेत खनन आदि) अभ्यारण्य के पुरे पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर घड़ियालों तथा अन्य जीवों के अस्तित्व को एक बड़े खतरे में डालती  हैं और इसीलिए वर्तमान में आवश्यकता है स्थानीय लोगों को जागरूक किया जाए तथा अभ्यारण्य के आसपास अवैध मानवीय गतिविधियों को नियंत्रित किया जाये।

सन्दर्भ:
  • Khandal, D., Sahu, Y.K., Dhakad, M., Shukla, A., Katdare, S. and Lang, J.W. 2017. Gharial and mugger in upstream tributaries of the Chambal river, North India. Crocodile Specialist Group Newsletter 36(4): 11.16

 

पंजाब रेवेन

पंजाब रेवेन

“रेवेन, कर्ण कर्कश ध्वनि वाला विस्मयकरक पक्षी है, जिसमे इतनी विवधता पायी जाती है कि इस पर एक ‘कागशास्त्र’ कि रचना भी कि गई”

राजस्थान में एक कौआ मिलता है जिसे “पंजाब रेवेन” के नाम से जाना जाता है तथा स्थानीय भाषा में इसे “डोड कौआ” भी कहा जाता है क्योंकि यह आकार में सामान्य कौए से लगभग डेढ़ गुना बड़ा होता है। इस कौए को प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ “ऐ ओ ह्यूम (A O Hume)” ने पंजाब, उत्तरी-पश्चिमी भारत और सिंध से ढूंढा तथा इसका विवरण भी दिया। इस रेवेन की सबसे रोचक बात यह है की इसे देखने पर ये सामान्य कौए जैसा ही लगता है, परन्तु यदि ध्यान से देखा जाये तो आभास होता है की ये कौआ एकदम से इतना काला और बड़ा क्यों लग रहा है। कुछ संस्कृतियों में रेवेन को बुरे समय का संकेत माना जाता है तो कुछ में इसे अच्छा भी समझा जाता है, परन्तु वास्तव में रेवेन एक उल्लेखनीय पक्षी हैं, क्योंकि यह फॉलकन जैसे शिकारी पक्षी के समान एक उत्कृष्ट हवाबाज है। यह प्रजनन काल में अपने हवाई कौशल का प्रदर्शन भी करता है। वहीँ दूसरी ओर यह मृत जानवरों को खाकर हमारे पर्यावरण की सफाई और अन्य पक्षियों की तरह फल खाकर बीज प्रकीर्णन में भी मदद करते हैं।

पंजाब रेवेन आकार में सामान्य कौए से लगभग डेढ़ गुना बड़ा तथा इसके पूरे शरीर का रंग अधिक काला होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वर्गिकी एवं व्युत्पत्ति-विषयक (Taxonomy & Etymology):

सामान्य रेवेन (Common Raven) की आठ उप- प्रजातियों में से एक,पंजाब रेवेन एक बड़े आकार का काला पेसेराइन पक्षी है। सामान्य रेवेन, पूरे उत्तरी गोलार्ध में बहुत ही व्यापक रूप से वितरित है तथा रंग-रूप के आधार पर इसकी कुल आठ उप-प्रजातियां पायी जाती है। हालांकि हाल ही में हुए कुछ शोध ने विभिन्न क्षेत्रों से आबादियों के बीच महत्वपूर्ण आनुवंशिक अंतर भी पाए है। सामान्य रेवेन, उन कई प्रजातियों में से एक है जिन्हे मूलरूप से “लिनिअस (Carolus Linnæus)” द्वारा अपने 18 वीं शताब्दी के काम, सिस्टेमा नेचुरे (Systema Naturae) में वर्णित किया गया था, और यह अभी भी अपने मूल नाम करवउस्कोरस से जाना जाता है। इसके जीनस का नाम Corvus “रेवेन” के लिए लैटिन शब्द से लिया गया है और इसकी प्रजाति का नाम corax ग्रीक भाषा के शब्द “κόραξ” का लैटिन रूप है जिसका अर्थ है “रेवेन” या “कौवा”।

पंजाब रेवेन, C. c. subcorax, पक्षी जगत के Corvidae कुल का सदस्य है। पाकिस्तान के सिंध जिले और उत्तर-पश्चिमी भारत के आसपास के क्षेत्रों तक सीमित आबादी को मुख्यरूप से पंजाब रेवेन के रूप में जाना जाता है। कभी-कभी इसे C. c. laurencei नाम से भी जाना जाता है, यह नाम 1873 में “Father of Indian Ornithology” ऐ ओ ह्यूम (A O Hume) द्वारा सिंध में पायी जाने वाली आबादी को दिया गया था। स्थानीय भाषाओ में इसे कई अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे राजस्थान में “डोड काक”, पंजाब में “डोडव काक” और ऊपरी सिंध में इसे “टाकणी” कहते है, टाकर का अर्थ एक ऊँची चट्टान होता हैं।

निरूपण (Description):

यह रेवेन की सभी अन्य उप-प्रजातियों से आकार में बड़ा होता है, परन्तु इसके गले के पंख (hackles) अपेक्षाकृत थोड़े छोटे होते हैं। इसका पूरा शरीर काले रंग का होता है, जिस पर एक गहरे नीले-बैगनी रंग की चमक प्रतीत होती है परन्तु इसकी गर्दन और छाती गहरे भूरे रंग की होती हैं। इसमें नर व् मादा रंग-रूप में एक से ही होते है परन्तु नर आकार में मादा से बड़ा होता है। 1.5 से 2 किलो वजन होने के कारण यह पक्षी जगत का सबसे भारी पेसेराइन पक्षी है और इसका वजन अधिक होने के बावजूद भी ये, उड़ान के समय फुर्तीले होते हैं। इसके बड़े आकार के अलावा, यह अपने रिश्तेदार “सामान्य कौवे” से कई वजहों से अलग होता हैं, जैसे की इसके शरीर का आकार 55-65 सेमी, पखों का विस्तार 115-150 सेमी तथा चोंच बड़ी, मोटी व काली होती है, गले के आसपास और चोंच के ऊपर झबरे पंख तथा पूंछ एक पत्ती के आकार की होती है। एक उड़ते हुए रेवेन को उसकी पूंछ के आकार, बड़े पंख और अधिक स्थिरता से उड़ने की शैली के कारण कौवे से अलग किया जाता है। वहीँ दूसरी ओर सामान्य कौए के शरीर का रंग ग्रे, आकार 40-45 सेमी, पखों का विस्तार 75-85 सेमी तथा चोंच थोड़ी पतली होती है।

अंग्रेजी प्रकृतिवादी “Eugene W. Oates” द्वारा बनाया गया तथा उनकी पुस्तक “The Fauna of British India” में प्रकाशित चित्र, जो पंजाब रेवेन व् अन्य रेवेन के गले के पंखों में अंदर दर्शाता है।

आकार व् रंग-रूप को देखते हुए, पंजाब रेवेन और सामान्य कौए में आसानी से अंतर कर उन्हें पहचाना जा सकता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

वितरण व आवास (Distribution & Habitat):

भारत में, पंजाब, बीकानेर, जोधपुर, जयपुर के उत्तरी भाग और सांभर झील तक पंजाब रेवेन का वितरण एक आम पक्षी के रूप में है तथा जमुना नदी के पूर्वी इलाको में कम देखने को मिलता है। दक्षिणी और पश्चिमी सिंध के कई हिस्सों की जलवायु व्पर्यावास पंजाब जैसी होने के बावजूद भी रेवेन सिर्फ प्रजनन के लिए ही आते हैं और एक स्थायी निवास बनाने में विफल रहते हैं जबकि निचले पंजाब में यह एक स्थायी निवासी है ।.K.Eates के अनुसार सिंध के ऊपरी इलाको में पाए जाने वाले रेवेन मुख्यतः प्रवासी होते है जो सितंबर और अक्टूबर माह में प्रजनन के लिए यहाँ आते है तथा मई में वापस चले जाते हैं। दक्षिण में इसे सांभर झील तक प्रजनन करते देखा गया है। भारत के अलावा यह बलूचिस्तान, दक्षिणी पर्शिया, मेसोपोटामिया, दक्षिणी एशिया और फिलिस्तीन में भी पाया जाता है। पंजाब रेवेन मुख्यरूप से वन प्रदेशों वाला पक्षी है परन्तु कभी-कभी इसे वनों से सटे मानव रिहाइश इलाकों के पास भी देखा जाता है।

भारत में पंजाब रेवेन का वितरण दर्शाता मानचित्र (Source: Birdlife.org and Grimmett 2014)

प्रजनन (Breeding):

रेवेन किशोर लगभग दो या तीन वर्ष की आयु के बाद अपने साथी जोड़े बना लेते है। युवा अवस्था में ये अक्सर झुण्ड में रहते है परन्तु एक बार जोड़ी बन जाये, तो ये पूरे जीवन साथ रहते व घोंसला बनाते हैं। एक साथी ढूंढने के लिए हवा में कलाबाजियां लगाना, बुद्धिमत्ता और भोजन प्रदान करने की क्षमता का प्रदर्शन करना प्रमुख व्यवहार हैं। एक जोड़ा आमतौर पर एक ही स्थान पर घोंसला बनाता है। इससे पहले कि वे घोंसले का निर्माण और प्रजनन शुरू करें प्रत्येक जोड़ी के पास अपने स्वयं का एक क्षेत्र होना चाहिए, और इस प्रकार यह एक क्षेत्र और उसके खाद्य संसाधनों का बचाव करते है भले ही उसके लिए आक्रामक ही क्यों न होना पड़े। इनके इलाके का क्षेत्रफल खाद्य संसाधनों के घनत्व के अनुसार भिन्न-भिन्न होता हैं। इनका घोंसला पेड़ों की छोटी टहनियों से बना एक गहरा कटोरा होता है, जिसका अंदरूनी हिस्सा पेड़ की छोटी जड़ों, छाल और हिरण के फर से पंक्तिबद्ध होता है। पक्षी विशेषज्ञ “ह्यूम” (A O Hume) अपनी पुस्तक “Nest & Eggs of Indian Birds” में बताते हैं की पंजाब रेवेन अपना घोंसला एक ऊँचे पेड़ पर बनाते हैं और हर दो घोंसलों के बीच लगभग सौ गज की दुरी तो होती ही है। यदि पक्षी घोंसले का निर्माण व मरम्मत जल्दी शुरू कर देते हैं, तो वे अक्सर बहुत धीमी गति से कार्य करते है। लेकिन अगर काम की शुरुआत देर से की जाती है तो लगभग एक हफ्ते में ही ये सारा काम पूरा कर लेते है। कुछ घोंसले उत्तराधिकार में कई वर्षों तक कब्जे में रहते हैं, और तब तक नहीं छोड़े जाते है जब तक वे पूरी तरह से नष्ट न हो जाये। कई बार ये अपना घोंसला ऊँची चट्टानों पर भी बनाते है, श्रीओस्मास्टन (Mr. Osmastan) कहते हैं कि रावल पिंडी के पास पंजाब रेवेन लगभग हमेशा एक चट्टान पर घोंसला बनाते थे। मादा दिसंबर से फरवरी माह के बीच में एक बार में 3 से 7 हल्के पीले नीले-हरे, भूरे धब्बे वाले अंडे देती है।

किशोरावस्था के बाद नर व् मादा पंजाब रेवेन प्रजनन के लिए जोड़ी बनाते हैं तथा प्रत्येक जोड़ी पूरे जीवनभर साथ रहती हैं। सामान्य कौए और पंजाब रेवेन में यह भी एक मुख्य अंतर है, क्योंकि जहाँ कौए अक्सर झुण्ड में देखे जाते हैं वहीँ पंजाब रेवेन हमेशा जोड़ी में दिखाई देते है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)

इसके आकार, सतर्कता और रक्षात्मक क्षमताओं के कारण, इसके कुछ प्राकृतिक शिकारी भी हैं। इसके अंडों के शिकारियों में उल्लू, मार्टिन्स और कभी-कभी ईगल शामिल हैं। रेवेन अपने बच्चों का बचाव करने में काफी जिम्मेदार होते हैं और आमतौर पर कथित शिकारियों पर हमलाकर उनको दूर करने में सफल होते हैं। ह्यूम बताते हैं की जब उनको पहली बार इस पक्षी का घोंसला मिला तो वह एक कीकर के पेड़ पर लगभग 20 फ़ीट की ऊंचाई पर था और उसमे पांच अंडे थे। उन अंडो को निकालने पर रेवेन ने बहुत ही आपत्ति जताई और पेड़ पर चढ़ने वाले आदमी के सिर पर हमला भी किया। हमारे द्वारा अंडे गायब कर देने के बाद दोनों पक्षी पेड़ पर बैठ गए और बड़े ही मनोरंजक तरीके से एक दूसरे की तरफ देखते हुए अपना सिर हिलाने लगे। फिर वो आसपास के हर पेड़ व् उनके खोखलों में झांक कर यह सुनिश्चित करने लगे की अंडे वास्तव में चले गए हैं।

आहार व्यवहार (Feeding habits):

पंजाब रेवेन, सर्वाहारी होने के कारण एक प्रजाति के रूप में ये हमेशा से ही सफल रहे है क्यूंकि ये पोषण के स्रोत खोजने में बेहद बहुमुखी और अवसरवादी है, तथा इनका आहार स्थान और मौसम के साथ व्यापक रूप से भिन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ स्थानों पर ये मुख्यरूप से मरे हुए जानवरों, कीड़ों और बीटल्स को खाते है। खेती-बाड़ी वाले इलाके के पास ये अनाज व फलों पर निर्भर रहते हैं। ये छोटे अकशेरूकीय, उभयचर, सरीसृप, छोटे पक्षियों और उनके अंडो का शिकार भी करते हैं। रेवेन जानवरों के मल, और मानव खाद्य अपशिष्ट के अवांछित भागों का भी भोजन की तरह उपभोग करते हैं। यदि इनके पास अधिक शेष भोजन हो तो ये खाद्य पदार्थों को संग्रहीत भी करते हैं।

बुद्धिमत्ता (Intelligence):

रेवेन को हमेशा से ही सभी पक्षियों से ज्यादा बुद्धिमान माना गया है। ये अन्य पक्षियों की आवाज की नक़ल कर सकते है। शिशु रेवेन का व्यवहार बहुत ही चंचल व् अलग-अलग चीजों से खेलने वाला होता है, जैसे ये हवा में तेज-तेज उड़कर एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश तो कभी कलाबाजियां खाते है और कभी पेड़ की छोटी डंडिया तोड़ कर भी खेलते है। इनमे आगे की योजना बनाने, बुनियादी साधनों को समझने और उन्हें अपनी पसंद का कुछ प्राप्त करने के लिए नियोजित करने की क्षमता भी रखते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि वे ग्रह के सबसे चतुर पक्षी हैं; तो वहीँ दूसरों का तर्क है कि इनकी दिमागी क्षमता ऐप (Ape) से भी ज्यादा है।

पुराणशास्र (Mythology):

रेवेन हजारों वर्षों से मनुष्यों के साथ रहे हैं और कुछ क्षेत्रों में इतने अधिक हैं कि लोगों ने उन्हें कीटों के रूप में माना है। सदियों से, यह पौराणिक कथाओं, लोक कथाओं, कला और साहित्य का विषय रहा है। दुनियाभर के कई समुदायों में रेवेन को लेकर कहानियां हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इनमे से कई नकारात्मक ही है। हिन्दू पौराणिक कथाओं में, रेवेन लोकप्रिय लेकिन अशुभ देवता शनि का वाहन है। कई समुदायों में रेवेन व् कौए को जीवन और मृत्यु के बीच ‘मध्यस्थ जानवर’ माना जाता हैं। जहाँ कुछ समुदायों में इन्हे अशुभ माना गया है वहीँ कुछ देखो में इसे जीत का प्रतिक मानते हुए इसकी मोहर सैनिको की पोशाक पर बनी रहती थी। पूर्वी एशिया में इनको किस्मत से जोड़ा जाता है तो अपने यहाँ मुंडेर पर बैठकर काँव-काँव करने वाले कौवे को संदेश-वाहक भी माना जाता है।

परन्तु इन सभी पौराणिक कथाओ से अलग हट कर हम रेवेन को देखे तो ये भी अन्य पक्षियों की तरह हमारे पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है जो मृत जानवरों को खाकर पर्यावरण को साफ़ सुथरा रखते है।

सन्दर्भ:
  • Baker, E.C.S. 1922. The fauna of British India, including Ceylon and Burma. Birds- Vol. 1. 2nd London
  • Cover Image Picture Courtesy Dr. Dharmendra Khandal.
  • Gould, J. 1873. The Birds of Great Britain. Vol. 3. London.
  • Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent. Digital edition.
  • https://round.glass/sustain/wild-vault/ravens-intelligence/
  • Hume, A.O. 1889. The Nests and Eggs of Indian Birds. Vol. 1. 2nd London.
  • Oates, E.W. 1889. The fauna of British India, including Ceylon and Burma. Birds- Vol. 1. London.