Rudyard Kipling and Human-Tiger Conflict in Bundi

Rudyard Kipling and Human-Tiger Conflict in Bundi

According to most experts, it is becoming increasingly evident that human-wildlife conflict is on the rise. Almost every other day,  shocking videos and photographs of tiger attacks proliferate all over the media. There seems to be an overall consensus over the fact that conflict between humans and wildlife is increasing rapidly. However, no one ever bothers to ask that while the numbers of tigers and leopards have come down from the lakhs to the thousands, and with current populations only a meagre 5-10% of their erstwhile numbers, why is there an elevation in human-wildlife conflict? Some answer that given the exponential rise in the population of humans, perhaps the tiger’s prey base has also reduced, hence an increase in attacks. Well, let’s see what historical records have to tell us.

Rudyard Kipling, by John Collier, ca.1891. Despite changing times and outlooks, Kipling is still synonymous with the Indian jungle as a result of the popularity of The Jungle Book, adaptations of which continue to be immortalized in film.

One of the more unique historical records of human-wildlife conflict, was found in the town of Bundi in Rajasthan, and it  was written by none other than the celebrated Victorian era British author and poet, Rudyard Kipling. Kipling was in fact, born in India. He also received the Nobel Prize for Literature at the relatively young age of 41, and is still the youngest individual to have ever won the prize. Most are familiar with his collection of fictional stories titled “The Jungle Book” , centered around a protagonist named Mowgli, and his interactions with different kinds of anthropomorphic wildlife in the central Indian jungle.

Kipling described his observations of the number of victims of tiger attacks recorded in a Bundi dispensary, all the while sparing the reader none of his trademark wit. He wrote that between 1887 -1889, he travelled through many parts of India, including Rajasthan, and whilst walking down a street in Bundi one afternoon, someone suddenly called out to him in “rusty” English, “Come, and see my dispensary”.

Bundi in the present. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

This came as a bit of a shock to Kipling, for at the time, the only people said to be conversant in English in the whole town were two teachers at a local school. The unprecedented third, was a local doctor who had studied 20 years previously at the Lahore Medical College, and ran a charitable dispensary. However, the good doctor’s proficiency in English was not that of a first language speaker. The doctor proceeded to describe the different kinds of patients that visited him, and how his 16 bed dispensary functioned. According to Kipling, there was a crowd of some 25 -30 people, and he approved of the dispensary. The dispensary’s patient records were also written in English, where none of the ailments were spelled correctly (“Asthama, Numonia, Skindiseas, Dabalaty”), but also contained figures under a rather curious heading, “Loin-bite”. When Kipling asked the doctor what he meant by this, the latter responded in Hindi, “Sher se mara” (Kipling was fluent in Hindi, it was believed to be his first language). Following which Kipling humorously commented, ” it was ‘lion bite’ or tiger, if you insist upon zoological accuracy”. Both tigers, and leopards could have been behind the attacks, the chances of a lion being very slim for obvious reasons. According to Kipling, tigers used to injure approximately 3-4 people in Bundi every week. Today, this figure dwarfs the current figure for the entire state of Rajasthan, and bear in mind, this was just a small town.

It appears that as a consequence of the easy availability of cameras, and smartphones, an increasing number of videos and photographs of cases of human-wildlife conflict are rapidly proliferating in the media. Where there are humans and wildlife, conflict is inevitable,  to learn the art of living with it is necessary. Indians, it must be said, know this art relatively well.

Today the jungles of Bundi have become tigerless, but the government is now paying attention to the area, and seeks to prepare it for the tiger’s return. With the unprecedented success of the adjacent Ranthambore Tiger Reserve, the residents of Bundi have also become aware of the benefits of tourism revenue, and eagerly await new tigers.

References:

  • Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
Authors:

Dr. Dharmendra Khandal (L) has worked as a conservation biologist with Tiger Watch – a non-profit organisation based in Ranthambhore, for the last 16 years. He spearheads all anti-poaching, community-based conservation and exploration interventions for the organisation.

Mr. Ishan Dhar (R) is a researcher of political science in a think tank. He has been associated with Tiger Watch’s conservation interventions in his capacity as a member of the board of directors.

 

Cover photo caption & credit: Human-wildlife conflict is as old as mankind itself. A revealing cave painting from Bundi. (Photo: Dr. Dharmendra Khandal)

हिंदी में पढ़िए

 

सरिस्का की समग्र सफलता का रास्ता और कितना लम्बा?

सरिस्का की समग्र सफलता का रास्ता और कितना लम्बा?

क्या सरिस्का में बाघों की संख्या में हुई वृद्धि इसकी समग्र सफलता का एक पैमाना हो सकती है ? या फिर अभी भी सरिस्का को एक सतत पारिस्थितिक तंत्र बनने के लिए काफी लम्बा सफर तय करना है ?

हाल ही में सरिस्का बाघ अभयारण्य में कई बाघिनों के शावकों के जन्म के कारण वन्यजीव प्रेमियों और संरक्षकों में ख़ुशी की एक लहर है क्योंकि, बाघों की एक छोटी आबादी को रणथम्भौर से सरिस्का लाये जानें के लगभग एक दशक के बाद ये वृद्धि देखने को मिली है। पिछले पांच वर्षों में बाघों की प्रजनन दर में लगातार वृद्धि देखी गई है, जो दर्शाती है कि, बाघों और उनके शावकों के लिए सरिस्का का पर्यावरण अनुकूल होता जा रहा है। लेकिन इस सफलता पर अभी भी कई सवाल मंडरा रहे हैं जैसे कि, क्या बाघों की ये बढ़ती आबादी वहां लाये गए बाघों के सफल विस्थापन का एक पैमाना हो सकती है?

क्योंकि यह वृद्धि अकेले इस कार्यक्रम की स्थिरता को तय करने के लिए निर्णायक नहीं हो सकती है। इसी क्रम में भरद्वाज एवं साथियों द्वारा, सरिस्का में बाघों द्वारा किये गए शिकारों के पैटर्न के अध्ययन से मालूम होता है कि, अभी सरिस्का को एक आत्मनिर्भर पारिस्थितिक तंत्र बनने के लिए काफी लम्बा रास्ता तय करना है (Bhardwaj et al 2020)।

बाघ जैसे शिकारी के जीवित रहने का सीधा संबंध उसके आवास, अन्य प्रतियोगी प्रजातियों की उपस्थिति और उसके आहार की गुणवत्ता एवं मात्रा से होता है और यदि आवास में पर्याप्त मात्रा में शिकार उपलब्ध न हो खासतौर से बड़ी शाकाहारी प्रजातियां तो बाघों का जीवित रहना और प्रजनन कर पाना नामुमकिन हो जाएगा। इसीलिए, आहार के प्रकार और मात्रा की जानकारी हमेशा से बाघ और तेंदुए जैसे माँसाहारी जीवों की पारिस्थितिकी के अध्ययन के बुनियादी चरणों में से एक रहा है तथा इससे ही एक पारिस्थितिक वैज्ञानिक को शिकारी एवं आहार प्रजाति के सम्बन्ध समझने में मदद मिलती है।

वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से सरिस्का टाइगर रिज़र्व में बाघों का विस्थापन किया गया और सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

आज सरिस्का में कई बाघों को रेडियो कॉलर लगाया हुआ है क्योंकि, वर्ष 2004 में, अवैध शिकार के चलते सरिस्का में बाघों की पूरी तरह आबादी ख़त्म सी हो गयी थी उसके बाद 2008 में राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority (NTCA) द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सरिस्का में वापस से बाघों को लाया जाएगा। उस निर्णय के चलते अलग-अलग चरणों में रणथम्भौर से कुल 5 बाघ (2 नर व 3 मादाएं) सरिस्का लाए गए थे। बाघों की इस छोटी आबादी को सरिस्का लाने का केवल एक यही उद्देश्य था, इनका प्रजनन करवा कर सरिस्का में फिर से बाघों की आबादी को बढ़ाना और यह निर्णय काफी हद्द तक सही भी साबित हुआ क्योंकि आज सरिस्का में कुल 21 बाघ हैं।

इन सभी बाघों की रेडियो कॉलर और कैमरा ट्रैप की सहायता से निगरानी की जाती है जिससे बाघों के इलाकों के क्षेत्रफल, उनके विचरण स्थान एवं पैटर्न और आपसी व्यवहार से सम्बंधित कई आकड़े प्राप्त होते हैं। तथा इन सभी आंकड़ों को सुरक्षित ढंग से समय-समय पर विश्लेषण किया जाता है ताकि बदलती परिस्थितियों के साथ नीतियों में भी उचित बदलाव किये जा सके।

रेडियो कॉलर की सहायता से मानव-मांसाहारी संघर्षों और आहार पैटर्न को भी समझा जा सकता है। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

हालांकि बाघों की आहार पैटर्न का अनुमान मल विश्लेषण और शिकार से लगाया जा सकता है, परन्तु यह अध्यन पूरी तरह से बाघों द्वारा किये गए शिकारों पर आधारित है। इस अध्ययन में, जून 2016 से नवंबर 2018 तक, मुख्य रूप से बाघों की मॉनिटरिंग टीमों और बीट गार्ड द्वारा सरिस्का में बाघों और तेंदुए द्वारा किये गए शिकारों की विविधता और अन्य आंकड़ों का विश्लेषण कर बाघों के आहार पैटर्न और अभयारण्य में मवेशियों की उपस्थिति के रूप में मानवजनित दबाव का पता लगाया गया है।

क्योंकि आज सरिस्का में बाघों की आबादी निरंतर बढ़ तो रही है परन्तु अभयारण्य गंभीर रूप से मानवीय दबाव भी झेल रहा है क्योंकि सरिस्का के अंदर और आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं जिनमें से 26 गाँव (पहले 29 , तीन गाँवों के स्थानांतरण हो गया) क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट (कोर क्षेत्र/Core Area) में हैं, और बाकी 146 गाँव वन क्षेत्र की सीमा से सटे व नज़दीक हैं इन 175 गाँवों में लगभग 14254 परिवार (2254 परिवार कोर क्षेत्र में और 12000 परिवार बाहरी सीमा) रहते हैं। मानव आबादी के साथ-साथ यहाँ भैंस, गाय, बकरी और भेड़ सहित कुल 30000 मवेशी (10000 अंदर और 20000 बाहरी सीमा पर) रहते हैं और इस प्रकार यह क्षेत्र गंभीर रूप से मानवीय दबाव में है।

सरिस्का के अंदर और आसपास कुल 175 गाँव स्थित हैं। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

इसी कर्म में, मौजूदा अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पुरे ढाई वर्ष (जून 2016 से नवंबर 2018) तक सभी 11 बाघों (उस समय मौजूद 11 वयस्क, 5 उप-व्यस्क और 1 शावक) की गतिविधियों (Movement Pattern), शिकार विविधता और स्थानों का अवलोकन किया। जिसमें स्थानांतरित किये गए रेडियो कॉलर्ड बाघों की निगरानी को प्राथमिकता दी गई तथा अन्य बाघों की निगरानी उनके पगचिन्हों और कैमरा ट्रैपिंग के आधार पर की गई।

बाघों की निगरानी करने के लिए कई समूह कार्यरत है। प्रत्येक समूह में दो व्यक्ति होते हैं, एक वन रक्षक और दूसरा स्थानीय ग्रामीण है जिसे रेडियो कॉलर, जी पी एस और पगमार्क द्वारा बाघों की निगरानी में प्रशिक्षित किया गया है। इन निगरानी दलों द्वारा बाघों की गतिविधि का स्थान व पैटर्न और शिकार की प्रजाति की जानकारी दर्ज की जाती और कण्ट्रोल रूम में भेजी जाती थी। शिकार की बहुतायत जानने के लिए लाइन ट्रांससेक्ट विधि का इस्तेमाल किया गया।

मांसाहारी जीवों की बदलती पारिस्थितिकी:

इस अध्ययन में बाघों और तेंदुओं द्वारा कुल 737 शिकार दर्ज किये गए, जिसमें से 500 (67.84 %) शिकार बाघों द्वारा और 227 (30.80 %) शिकार तेंदुओं द्वारा किये गए थे। बाकि 10 शिकारों की पहचान स्पष्ट नहीं हो पायी क्योंकि अधिकतम भाग खाया जा चूका था। शिकारों के सभी आंकड़ों के विश्लेषण के दौरान इनके आहार संबंधी प्राथमिकताओं में भारी परिवर्तन देखे गए हैं। क्योंकि, यदि शिकारों की विविधता को देखे तो, दर्ज किये गए सभी (n=737) शिकारों में से सबसे अधिक संख्या भैस 330 (44.48%) और उसके बाद गाय 163 (22.12%) की पायी गई। इसके अलावा सांभर 85 (11.53%), बकरी 81 (10.99%), चीतल 27 (3.66%), नीलगाय 18 (2.44%) और अज्ञात शिकार 11 (1.49%) रहे। इन सभी आंकड़ों में से यदि हम सिर्फ मवेशियों (भैंस, गाय, बकरी, भेड़, ऊंट और गधे) के शिकारों को देखे तो कुल 581 (78.83%) शिकार मवेशियों के थे।

बाघों द्वारा किये गए शिकार मुख्यरूप से मानव दबाव से रहित क्षेत्रों (Undisturbed areas) में देखे गए। कुल 500 शिकारों में से 77% मवेशी (livestock) थे जिसमें विशेषरूप से भैस (58%) शामिल थी तथा वन्यजीव शिकारों में सांभर (13.6%), चीतल (3.6%), नीलगाय (2.4%) और जंगली सुअर (1%) थे।

पशुपालन, सरिस्का के आसपास रहने वाले इन गांव वालों का मुख्या व्यवसाय है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)

वैज्ञानिकों द्वारा यह माना जाता है कि, बाघ अपने शिकार को अवसरवादी रूप से मारता है यानी आसानी से मिलने वाले शिकार को पहले मारा जाएगा। ऐसे में सरिस्का जैसे क्षेत्र में मानवजनित दबाव (Anthropogenic disturbance) का हिसाब लगाने के लिए, मवेशी शिकारों (Livestock prey) के साथ वन्यजीव शिकारों (Natural Prey) के अनुपात को “अप्रत्यक्ष सूचक (Indirect index)” माना जा सकता है। ऐसे में सभी बाघों के लिए यह अनुपात 3.34 देखा गया क्योंकि, बाघों ने कुल 385 मवेशियों का शिकार किया जबकि वन्यजीव शिकार केवल 115 ही मारे गए और यह अनुपात रिज़र्व में मवेशियों की बहुतायत को दर्शाता है जो रिज़र्व के लिए अच्छा नहीं है।

यह अनुपात सबसे अधिक ST6 (17) और सबसे कम ST5 (0.8) एवं ST8 (1) के लिए पाया गया और इसका कारण यह है कि, दोनों बाघों के इलाके में वन्यजीव आहार का घनत्व अच्छा देखा गया है।

Sankar et al. द्वारा वर्ष 2010 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया की सरिस्का में सांभर बाघों द्वारा खाये जाने वाला सबसे प्रमुख शिकार है और लगभग 45.2% शिकार सांभर के ही पाए गए तथा मवेशी (भैस और गाय) केवल 10.4% ही। इसके बाद एक अन्य अध्ययन में, सबसे अधिक सांभर (41.7%) और मवेशी (19.4%) दर्ज किया गया (Mondal et al 2012)। इसी तरह रणथम्भौर, जो आवास और वन प्रकार में सरिस्का जैसा ही है में देखा गया कि, बाघों द्वारा सबसे अधिक शिकार (54.54%) सांभर के ही किए जाते हैं और मवेशियों के 12.5%।

इस प्रकार सरिस्का में बाघों के आहार में मवेशी 10.4% (2010) से बढ़कर 19.4% (2012) हो गए। परन्तु इस अध्ययन में यह संख्या 77% पायी गई और बाघों द्वारा मवेशियों के शिकार में वृद्धि की यह खतरनाक दर स्पष्ट रूप से सरिस्का में चराई की तीव्रता में कई गुना वृद्धि का संकेत देती है।

लगातार बढ़ते अलवर शहर के प्रशिद्ध मिल्क केक व्यवसाय के कारण पिछले कुछ वर्षों में पशुपालन और भी बढ़ गया है तथा मवेशियों की इस बढ़ती हुई आबादी के कारण सरिस्का में अवैध चराई और मानवीय दबाव कई गुना बढ़ गया है। (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

सरिस्का में बाघ के बाद तेंदुआ बड़ी बिल्ली प्रजाति है तथा इसके द्वारा भी विभिन्न जीवों के शिकार किये जाते हैं। इसी कर्म में अध्ययन के दौरान तेंदुओं द्वारा कुल 227 शिकार किए गए जिनमें सबसे अधिक बकरियां (33.8%) थी और इसके अलावा गाय (31.1%), भैंस (16.7%), सांभर (7%), चीतल (3.9%) आदि थे तथा ज़्यादातर (76%) शिकार मानवीय बस्तियों के पास मानवजनित दबाव क्षेत्र में थे। साथ ही यह भी देखा गया है कि, सभी शिकारों में से एक बड़ा भाग 84.2% मवेशी शिकार थे।

तेंदुए द्वारा सबसे अधिक यानी 77 बार बकरियों का शिकार किया गया। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि, सिर्फ इतनी ही बकरियां मारी गई है बल्कि यह सिर्फ घटनाओं की संख्या है। दरअसल इन 77 घटनाओं में कुल 169 बकरियों का शिकार किया गया है और हर घटना में लगभग 1-12 बकरियां मारी गई थी। तथा भैसों के कुल 37 शिकारों में से 28 तो बछड़े ही थे यानी तेंदुए द्वारा व्यस्क भैसों का शिकार बहुत कम हुआ है।

इस अध्ययन में देखा गया कि, सरिस्का में तेंदुए द्वारा किये गए अधिकाँश शिकार मानव बस्तियों के पास देखे गए जबकि बाघ ने आबादित क्षेत्र से दूर शिकार किये थे। और ये दोनों ही क्षेत्र अलग-अलग होने के कारण इनमें संघर्ष स्थिति नहीं देखी गई। हालांकि बाघ और तेंदुए के देखे गए आहार में बड़े पैमाने पर मवेशी शामिल हैं, परन्तु जहाँ एक ओर बाघ बड़े से मध्यम आकार के पशु (भैंस>गाय>बकरी) पसंद करता है वहीँ दूसरी ओर तेंदुए को छोटे से मध्यम आकार के पशु (बकरी>गाय>भैंस) अधिक पसंद है।

सरिस्का बाघ अभयारण्य (फोटो: श्री भुवनेश सुथार)

बाघ एक अकेला रहने वाला जीव है साथ ही प्रत्येक बाघ को जीवित रहने के लिए आवश्यक भोजन, प्रजनन के लिए साथी और रहने का स्थान बहुत आवश्यक होता है। परन्तु, मानव प्रधान (human dominated) पर्यावास में जहां मवेशियों की उपलब्धता प्राकृतिक शिकार से अधिक होती है, तथा ऐसे में मानवीय दबाव वाले ये क्षेत्र बाघों के लिए कुछ हद्द तक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। बाघ जैसे बड़े शिकारियों के लिए भी, जंगल में शिकार करना कोई आसान काम नहीं है और आम तौर पर दस प्रयासों में से एक बार सफलता मिलती है। बाघ अपनी ऊर्जा बनाये रखने के लिए बड़े जानवरों का शिकार करना अधिक पसंद करते हैं। यदि वन क्षेत्र में मानवीय दबाव न हो तो सांभर बाघ का पसंदीदा शिकार होता है लेकिन सरिस्का जैसे मानव-प्रधान क्षेत्र में जहाँ मवेशियों की संख्या अधिक है, बाघ शिकार करने में आसानी होने के कारण मवेशियों का शिकार करना अधिक पसंद करता है।

इस प्रकार, बाघों द्वारा मवेशियों का अधिक शिकार यह दर्शाता है कि, रिजर्व में मवेशियों की संख्या अधिक है जिन्हें अन्य शिकार की तुलना में मारना कहीं अधिक आसान है।

पशुपालन को सरिस्का के आसपास रहने वाले स्थानीय समुदायों में प्राथमिक व्यवसाय के रूप में देखा गया है ऐसे में लगातार बढ़ते अलवर शहर के प्रशिद्ध मिल्क केक व्यवसाय के कारण पिछले कुछ वर्षों में पशुपालन और भी बढ़ गया है। मवेशियों की इस बढ़ती हुई आबादी के कारण सरिस्का में अवैध चराई और मानवीय दबाव कई गुना बढ़ गया है।

एक वन पारिस्थितिक तंत्र की खाद्य श्रृंखला (food chain) में बाघ सभी माँसाहारी जीवों के ऊपर रहता है तथा उसकी आहार की आदतें प्राकृतिक आवास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उनकी सामाजिक संरचना, व्यवहार और शिकार प्रजातियों के घनत्व को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ऑडिट-माइंडेड सरकार रिज़र्व से गाँवों को विस्थापित कर मानवीय दबाव को कम किए बिना बाघों की आबादी को बढ़ाना चाहती है। परन्तु बाघों की बढ़ती आबादी से और कुछ नहीं सिर्फ मानव-बाघ संघर्ष की घटनाएं बढ़ेंगी जिससे स्थानीय समुदायों का बाघ संरक्षण में समर्थन कम हो सकता है तथा बाघ संरक्षण व्यवस्था में मुश्किलें भी कड़ी हो सकती है।

सरिस्का में बाघों और उनके आवास को संरक्षित करने के लिए कानून को और सख्ती से लागू कर अवैध चराई पर रोक लगाने की आवश्यकता है। (फोटो: श्री हिमांशु शर्मा)

सरिस्का में वन विभाग के फ्रंटलाइन स्टाफ की बेहद कमी हैं और जो हैं उनमें भी प्रेरणा और प्रतिबद्धता की कमी है जो पिछले एक दशक के दौरान वन अपराध/वन्यजीव मामलों के पंजीकरण में गिरावट की प्रवृत्ति से स्पष्ट है और इन्हीं सबके चलते रिजर्व में मानवजनित दबाव मुख्यरूप से अवैध चराई बहुत अधिक बढ़ गई है।

सरिस्का के कोर और बफर क्षेत्र दोनों में बाघ और तेंदुए द्वारा मवेशियों के बढ़ते शिकार यदि यु ही चलते रहे तो शायद स्थानीय समुदायों में इनकी उपस्थिति के प्रति असहिष्णुता बढ़ सकती है। हालांकि रिज़र्व से गांवों के स्वैच्छिक विस्थापन की प्रक्रिया जारी है, लेकिन पिछले एक दशक से देखी गई बेहद धीमी गति ने आवास को और खराब स्थिति में ला दिया है। तथा अध्ययन के शोधकर्ताओं के सुझाव है कि, सरिस्का में कानून को और सख्ती से लागू कर अवैध चराई पर रोक लगाई जानी चाइये ताकि हानि कि गति को रोका जा सके।

References:

  • Mondal, K., Gupta, S. , Bhattacharjee, S., Qureshi, Q. and K. Sankar. (2012). Prey selection, food habits and dietary overlap between leopard Panthera pardus (Mammalia: Carnivora) and re-introduced tiger Panthera tigris (Mammalia: Carnivora) in a semi-arid forest of Sariska Tiger Reserve, Western India, Italian Journal of Zoology, 79:4, 607-616.
  • Sankar, K., Qureshi, Q., Nigam, P., Malik, PK., Sinha, PR., Mehrotra, RN., Gopal, R., Bhattacharjee, S., Mondal, K. and S. Gupta. 2010. Monitoring of reintroduced tigers in Sariska Tiger Reserve, Western India: Preliminary findings on home range, prey selection and food habits. J. Trop. Conserv. Sci., 3(3): 301-318
  • Bhardwaj, G. S., Selvi, G., Agasti, S., Kari, B., Singh, H., Kumar, A. and Reddy G.V. 2020. Study on kill pattern of re-introduced tigers, demonstrating increased livestock preference in human dominated Sariska tiger reserve, India. SCIREA Journal of Biology. 5(2): 20-39

 

Cover Photo Credit: Mr. Buvnesh Suthar

THE UNTAMED: RANTHAMBHORE | JHALANA

THE UNTAMED: RANTHAMBHORE | JHALANA

यह पुस्तक अभिक्रम शेखावत के 4 सालों के रणथम्भौर नेशनल पार्क व झालाना लेपर्ड पार्क के वन्यजीव फोटोग्राफी के अनुभव को साझा करती है | यह किताब इनके द्वारा लॉकडाउन समय के दौरान लिखी गयी व् 5 माह के अथक प्रयास के बाद बाजार में उपलब्ध है| इस किताब में रणथम्भौर के सभी वन्यजीवों का विस्तृत विवरण फोटोग्राफी के माध्यम से समझाने का प्रयास किया गया है व झालाना के सभी लेपर्ड का विस्तृत विवरण किया गया है |

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

इस पुस्तक में टाइगर व लेपर्ड के व्यवहार व प्रततरूप को भी समायोजित किया गया है यह किताब झालाना व रणथम्भौर के वन्य जीवन के बारे में जानने व रुचि रखने वालों के लिए एक अच्छा दस्तावेज रहेगा|

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

अभिक्रम शेखावत, 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र हैं जिनकी शिक्षा जेपीआईएस(जयश्री पेरीवाल इंटरनेशनल स्कूल) जयपुर, में पढ़ने वाले छात्र हैं व 17 वर्षीय वन्यजीव फोटोग्राफर भी है |
वह 4 वर्ष की उम्र से ही वन्यजीवों के लिए उत्साहहत रहे हैं उन्हें प्रकृतत से ववशेर्षत रणथम्भौर नेशनल पाकक के वन्यजीवों से बहुत लगाव हो गया | समय के साथ-साथ फोटोग्राफी के प्रति उनका जूनून व्प्र उत्सुकता बढ़ती गयी और उन्होंने फोटोग्राफी प्रतियोगिताओ में भाग लेना शुरू कर दियाI

Mr. Abhikram Shekhawat

उन्होंने “Junior Photographer of the year’ Nature’s Best Photography Asia 2020 से व Second Runner up Young Photographer श्रेणी में Nature In Focus Photography Awards 2020 से जीता है| इन्हें वन्य जीवों के साथ लगाव शुरू से ही रहा। इसकी शुरुआत रणथम्भौर की पहली यात्रा से हुई जब यह 3 वर्ष के थे| जब उन्होंने पहली बार एक टाइगर को बहुत ही कम दूरी से देखा तो यह नजारा देखकर आश्चर्यचकित रह गए| यह रणथम्भौर अभ्यारण्य की मछली (बाघिन) थी उस पल ने इन पर वन्यजीवों के प्रति उत्साह को और जागृत कर दिया| वह हर वर्ष वन्यजीवों व प्रकृति के प्रति अपनी जानने की जिज्ञासा को शांत करने के लिए झालाना व रणथम्भौर जाने लगे।

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

जब अभिक्रम 13 वर्ष के थे तो उनके रिश्तेदार ने उन्हें झालाना की सफारी करवाई। जो की इनके लिए एक उपहार थी। वहा पर इन्होंने चार लेपर्ड को देखा व वन्यजीव फोटोग्राफी का आनंद लिया वह कुछ चुनिंदा तस्वीरों को अपने फोटो संग्रहालय के लिए संगृहीत किया। अभिक्रम ने और अधिक समय रणथम्भौर व झालाना अभ्यारण्य में बिताना शुरू किया। वन्यजीवों की फोटोग्राफी करते समय कई बार कई जगहों पर बहुत ही धैर्य पूर्वक समय व्यतीत करना पड़ता था फोटोग्राफी के दौरान टाइगर्स व लेपर्ड्स की प्रजातियों का उनके व्यवहार के बारे में उन्होंने अध्ययन किया है रणथम्भौर के टाइगर्स ने इन्हें हमेशा रोमांचित किया। इन्हें टाइगर्स की पौराणणक वंशावली और उनके व्यवहार के तरीकों के बारे में नजदीक से देखने में अपने कैमरे में कैद करने का अविस्मरणीय मौका मिला। इन्होंने झालाना के लेपर्ड्स के बारे में भी विस्तृत अध्ययन किया।

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

PC: Mr. Abhikram Shekhawat

“The Untamed” नामक बुक में इन्होंने वन्यजीवों विशेषकर टाइगर व लेपर्ड्स को फोटोग्राफी व लिखित वर्णन के माध्यम से उनके व्यवहार को दिखाने का प्रयास किया है।

 

 

एक दिव्यांग शावक बघेरा: जिसने कभी हार न मानी

एक दिव्यांग शावक बघेरा: जिसने कभी हार न मानी

हम सब मानते है की, शारीरिक दुर्बलता शिकारी जीवों के लिये उनकी जान की दुश्मन होती है। खासकर एक बडी बिल्ली यदि शारीरिक रूप से विकलांग हो जाए तो उसका जीवित रहना आखिर कब तक संभव होगा?

यदि तेंदुए और बाघ शावक अपनी छोटी उम्र में कमजोर अथवा दिव्यांग हो तो माँ उनको बेहाल ही छोड देती है, जिसके बाद ऐसे शावकों की मौत हो जाती है अथवा कभी कभी तो माँ खुद उनको मार के खा जाती है।  अधिकतर वन्यजीव विशेषज्ञ एक वाक्य  ‘‘सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट‘‘ में सारी कहानी को ख़तम कर देते है।

यह वाक्य एक बघेरे के शावक का है जिसने सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट वाली अवधारणा को गलत साबित कर दिया साथ ही एक मां को प्रकृति के तय  नियमों से लडते देखा।

आप बखूबी वाकिफ होंगे राजस्थान में स्थित जवाई लेपर्ड कन्जर्वेशन रिजर्व के बारे में, वहां एक लोकप्रिय मादा तेन्दुआ ‘‘नीलम‘‘ रहती है। वर्ष 2019 में नीलम ने तीन शावकों को जन्म दिया था। जिसमें से एक की मौत हो गई थी और अब अपने दो बचे हुए शावकों की परवरिश में नीलम जुट गई। पहली बार इस परिवार को तब देखा गया जब शावकों की उम्र करीब 2 माह थी। जिनमें से एक नर व एक मादा शावक थे। मादा शावक के अगले पंजे में कुछ कमजोरी रहने से वह सही ढंग से न तो चल पाती थी और न ही दौड पाती थी।

2 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)

5 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)

झाड़ियों के बीच छुप कर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)

इस दिव्यांग शावक को देखते ही कईं सवाल उमडने लगते थे ।  नर शावक अक्सर उछलकूद करता और खेलता हुआ दिखता रहता था लेकिन लंगडी नर शावक की तरह न तो ज्यादा उछल कूद करती थी और न ही उसकी तरह दौडती थी। उसके आगे वाले एक पैर की दुर्बलता उसे चाहकर भी ऐसा कर पाने की हिम्मत नहीं देती थी। इस कमजोर मादा  शावक ने अपनी जिजीविषा को बलवती रखा और अपनी बहादुर मां की परवरिश में धीरे धीरे अपनी युवावस्था की ओर बढने लगी ।

उसने समय के साथ छद्मावरण की कला में महारत हासिल कर ली और घात लगाकर शिकार करने की खूबी में पारंगत हो गई। एक वर्ष और कुछ महिनों की उम्र की होने तक इस दिव्यांग शावक को लगातार देखा गया। जिस छोटी उम्र में अपनी मां के शिकार पर निर्भर थी आज वही एक युवा तेंदुआ बन गई थी। अब वह अपनी मां नीलम से जुदा हो चुकी थी और एक नया इलाका हासिल कर लिया था। काफी खूबसूरत आंखों वाली इस मादा ने अपनी कमजोरी पर मनो विजय हासिल काली हो और प्रकृति के तमाम नियमों को चुनौती दे दी थी। अंतिम बार वह फरवरी 2020 में देखी गयी थी, और अब वह पहले से ज्यादा मजबूत दिख रही थी और आत्मविश्वास के साथ चट्टान पर लंगडाते हुए चलकर अपने वर्चस्व को स्थापित कर रही थी ।

माँ से अलग होने के पश्चात अकेले रहने का अभ्यास करती दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)

अपनी पूर्ण युवावस्था में गुफा के बाहर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)

पूर्ण व्यस्क अवस्था में दूर पहाड़ की चोटी पर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)