यदि तेंदुए और बाघ शावक अपनी छोटी उम्र में कमजोर अथवा दिव्यांग हो तो माँ उनको बेहाल ही छोड देती है, जिसके बाद ऐसे शावकों की मौत हो जाती है अथवा कभी कभी तो माँ खुद उनको मार के खा जाती है। अधिकतर वन्यजीव विशेषज्ञ एक वाक्य ‘‘सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट‘‘ में सारी कहानी को ख़तम कर देते है।
यह वाक्य एक बघेरे के शावक का है जिसने सर्वाईवल ओफ फिटेस्ट वाली अवधारणा को गलत साबित कर दिया साथ ही एक मां को प्रकृति के तय नियमों से लडते देखा।
आप बखूबी वाकिफ होंगे राजस्थान में स्थित जवाई लेपर्ड कन्जर्वेशन रिजर्व के बारे में, वहां एक लोकप्रिय मादा तेन्दुआ ‘‘नीलम‘‘ रहती है। वर्ष 2019 में नीलम ने तीन शावकों को जन्म दिया था। जिसमें से एक की मौत हो गई थी और अब अपने दो बचे हुए शावकों की परवरिश में नीलम जुट गई। पहली बार इस परिवार को तब देखा गया जब शावकों की उम्र करीब 2 माह थी। जिनमें से एक नर व एक मादा शावक थे। मादा शावक के अगले पंजे में कुछ कमजोरी रहने से वह सही ढंग से न तो चल पाती थी और न ही दौड पाती थी।
2 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
5 माह की उम्र में दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
झाड़ियों के बीच छुप कर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
इस दिव्यांग शावक को देखते ही कईं सवाल उमडने लगते थे । नर शावक अक्सर उछलकूद करता और खेलता हुआ दिखता रहता था लेकिन लंगडी नर शावक की तरह न तो ज्यादा उछल कूद करती थी और न ही उसकी तरह दौडती थी। उसके आगे वाले एक पैर की दुर्बलता उसे चाहकर भी ऐसा कर पाने की हिम्मत नहीं देती थी। इस कमजोर मादा शावक ने अपनी जिजीविषा को बलवती रखा और अपनी बहादुर मां की परवरिश में धीरे धीरे अपनी युवावस्था की ओर बढने लगी ।
उसने समय के साथ छद्मावरण की कला में महारत हासिल कर ली और घात लगाकर शिकार करने की खूबी में पारंगत हो गई। एक वर्ष और कुछ महिनों की उम्र की होने तक इस दिव्यांग शावक को लगातार देखा गया। जिस छोटी उम्र में अपनी मां के शिकार पर निर्भर थी आज वही एक युवा तेंदुआ बन गई थी। अब वह अपनी मां नीलम से जुदा हो चुकी थी और एक नया इलाका हासिल कर लिया था। काफी खूबसूरत आंखों वाली इस मादा ने अपनी कमजोरी पर मनो विजय हासिल काली हो और प्रकृति के तमाम नियमों को चुनौती दे दी थी। अंतिम बार वह फरवरी 2020 में देखी गयी थी, और अब वह पहले से ज्यादा मजबूत दिख रही थी और आत्मविश्वास के साथ चट्टान पर लंगडाते हुए चलकर अपने वर्चस्व को स्थापित कर रही थी ।
माँ से अलग होने के पश्चात अकेले रहने का अभ्यास करती दिव्यांग शावक (फोटो: श्री धीरज माली)
अपनी पूर्ण युवावस्था में गुफा के बाहर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
पूर्ण व्यस्क अवस्था में दूर पहाड़ की चोटी पर बैठी दिव्यांग (फोटो: श्री धीरज माली)
थार के रेगिस्तान में एक रहस्यमय सांप सोये हुए लोगों को बिना डसे ही मारने के लिए जाना जाता है। पीवणा कि डरावनी कहानियां सदियों से इन रेतीले इलाकों में सुनी और सुनाई जाती रही हैं। मैं और मेरे साथी इस डर के पीछे के रहस्य को खोजने के लिए इस मिथक का पीछा करते हैं…
राजस्थान के रेतीले इलाकों में ऐसा माना जाता है कि एक रहस्यमयी सांप सोये हुए लोगों के नींद में ही प्राण चूस लेता है, हमने मिथक के रहस्य को जानने के लिए एक खोज कि …
उस सुबह, उनकी संकुचित आंखों और माथे पर गहरी शिकन थी, सुबह की हल्की धुप में उनकी सोने की भारी बालियां पसीने से लथपथ हो चमक रही थी, तभी हुकुम नीचे आये, उनकी उत्तेजना ने सारी बेचैनी को दूर कर दिया। इससे पहले उन्होंने कभी सांपों को जिंदा पकड़ने के बारे में नहीं सोचा था।
“कोली” राजस्थान के इस भाग में सांप पकड़ने वाला पारंपरिक समुदाय हैं, लेकिन ये अपने जीवनयापन के लिए कभी किसी जीवित सांप को नहीं पालते। रेगिस्तानी इलाकों में जहाँ सांपों को किसी शैतान से कम नहीं माना जाता, वहाँ कोली समुदाय के लोग केवल मरे हुए साँपों (विषैले या गैर-विषैले) को दिखा कर अपनी आजीविका कमाने में कुशल होते हैं। लेकिन आज सुबह, उनका वृतान्त रूप कुछ अलग ही था। अचानक एक सावधानी से खोदे जा रहे चूहे के बिल के चारों ओर जमा भीड़ चीखने और शोर मचाने लगी। लोगों ने मेरे लिए रास्ता बनाते हुए जगह खाली कि और मैंने बिल के सामने झुकते हुए देखा तो पाया कि उसमे से एक कांटेदार गुलाबी जीभ निकलकर हमारे पैरों कि तरफ आ रही थी, और जैसे ही फावड़े से एक और बार खोदा गया तो एक चमकदार लाल सर उजागर हुआ। तुरंत ही उस सांप को पहचानते हुए मानो मेरा दिल ही बैठ गया हो, लेकिन कोली लोग उन्मादा थे और लगातार बोल रहे थे “पकड़ लो! इससे पहले कि वह हमला करे, पकड़ लो पीवणा को“। जब उस शानदार 4 फीट लंबे सांप मैंने उँगलियों के बीच जकड़ा तो मुझे आभास हुआ कि मेरी खोज मुझे विफलता कि ओर ले जा रही।
राजस्थान के थार रेगिस्तान में रहने वाले सामुदायिक लोग (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
मैंने पहली बार वर्ष 2002 में भारत के दो परमाणु परीक्षणों के स्थल पोखरण में राजमार्ग पर स्थित एक ढाबे पर पीवणा के बारे में सुना था। कुछ स्थानीय लोग सांपों पर चर्चा कर रहे थे और मैंने लगभग उस पंद्रह मिनट में जो जानकारी पाई उससे यह बेहद विचित्र लगा खासकर तब जब हम नए भारत, परमाणु शक्ति क्षेत्र मे बैठे हों। वह जानकारी यह थी की, राजस्थान के रेगिस्तानों में, पीवणा नामक एक सांप सोते हुए लोगों कि सांसें चूस कर मौत की नींद सुला देता है। यह रात में हमला करता है और पीड़ितों को उनकी सांस के माध्यम से विषक्त कर देता है।
मैंने 2008 में फिर से वही कहानी सुनी, इस बार एक युवा क्षेत्र जीवविज्ञानी से। डॉ धर्मेंद्र खांडल 2007 में थार से गुजर रहे थे जब उन्हें मिथ के बारे में पता चला और उन्होंने बताया की कई मौतों के लिए अभी भी पीवणा को ही दोषी ठहराया जाता है। इस बार यह बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया की विज्ञान निश्चित रूप से एक “सांस चूसने वाले” सांप की व्याख्या नहीं कर सकता है, लेकिन जाहिर सी बात है की कोई चीज़ तो जरूर थी जो रात में दर्जनों लोगों को मार रही थी। क्या यह सांप था? या यह कुछ और था? मालूम नहीं।
इंटरनेट पर बहुत खोज-भीन करने के बाद भी बहुत कम जानकारी हाथ लगी। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में, भारत की सीमाओं से परे भी पीवणा के बारे में मिथक स्पष्ट रूप से प्रचलित था, और यहाँ इस सांप को “फुकणी” (जो फूंख मारता है) भी कहा जाता था।
कुछ वेबसाइटों ने पीवणा या फ़ुकणी की पहचान सिंध क्रेट (Bungarus sindanus) के रूप में की है, जिसके देखे जाने की बहुत ही कम रिपोर्ट सामने आती है तथा इसे भारत में पाए जाने वाले चार विषैले साँपों; कोबरा, रसेल वाइपर, सॉ-स्केल वाइपर और कॉमन क्रेट से लगभग “10 -15 गुना अधिक विषैला” माना जाता है। एक ओर सिंध क्रेट का पर्यावास थार रेगिस्तान के उन्ही इलाकों के पास था जहाँ यह पीवणा या फुकणी से जुड़े मिथक प्रचलित थे।
वहीँ दूसरी तरफ हम देखें तो भारत में कहीं भी सिंध क्रेट का कोई संरक्षित नमूना नहीं था। सिंध क्रेट की पहचान का सुराग केवल एक ही आधिकारिक स्रोत, शर्मन ए मिंटन जूनियर द्वारा रचित A Contribution to the Herpetology of West Pakistan (1966) में मिला, जहां उन्होंने एक ऐसे करैत की व्याख्या की जिसके मध्य-शरीर शल्कों कि गिनती 17 (सामान्य 15 के बजाय) होते हैं। मिंटन ने यह भी उल्लेख किया कि “पीवणा” सिंध क्रेट का एक स्थानीय नाम है। लेकिन सिंध क्रेट के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी जिससे यह पता चले कि यह पीड़ितों को साँस चूसकर या फूंककर लोगों को मार सकता है।
पीवणा से बचने के लिए कई ग्रामीण पूरी रात रखवाली करते है और बच्चों को लहसुन और प्याज वाला दूध पिलाया जाता है ताकि पीवणा को दूर रखा जा सके। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
सितम्बर माह में थार रेगिस्तान में तीन महीने के “साँपों के मौसम” की शुरुआत के साथ ही मेरे इस निराशाजनक शोध की समाप्ति हुई। रास्ते में डॉ. धर्मेंद्र खांडल और उनकी कीमती एंटी-वेनम सीरम किट के साथ मैं जुड़ा और हम ग्राउंड जीरो की ओर चल पड़े।
हमारा पहला पड़ाव था जयपुर, जहां हम विष्णु दत्त शर्मा से मिले, जो राजस्थान के प्रधान मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक के रूप में सेवानिवृत्त हो चुके थे। हमारी तरह, शर्मा ने भी पीवणा के बारे में सुना था और उन्होंने पुष्टि की कि मिथक की भौगोलिक पहुंच रेत के टीलों के विस्तार के साथ हुई है। शर्मा के कहने पर, हमने जोधपुर में जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI) के रेगिस्तान मुख्यालय जो हमसे 300 किलोमीटर दूर था की ओर बढ़ना शुरू किया।
समय पाते हम रास्ते में बर्र शहर से कुछ किलोमीटर दूर तिरंगा ढाबा में रात के खाने के लिए रुक गए। जब हम वहां बैठकर साँपों की बात कर रहे थे तभी ढाबे का मालिक, राजू अपना काउंटर छोड़ कर हमारे पास आ गया और बड़े ही रहस्यमय तरीके से बताने लगा की “हमारे इस ढाबे में एक नाग (कोबरा) वर्षों से रह रहा है, लेकिन उसने कभी भी किसी पर हमला नहीं किया है।”
हमने पूछा “लेकिन अगर किसी को काट लिया, तो क्या होगा ?” मालिक बोलता “तो क्या, केसरिया कवरजी का मंदिर ज्यादा दूर नहीं है। आपको बस मंदिर से मंत्रित धागा सर्पदंश पीड़ित व्यक्ति के बांधना होगा।” तभी हमने उससे पूछा “पीवणा के बारे में क्या?” उसने बताया “यहाँ पीवणा के मामले नहीं मिलते हैं। लेकिन अगर मिलते भी तो केसरिया कवरजी उसको भी ठीक कर देते।”
भोजन गर्म और मसालेदार था, और केसरिया कवरजी तिरंगा ढाबा पर देख रहे थे, निवासी कोबरा कहीं नहीं था, हमने भोजन किया और आगे बढ़े।
ZSI के डेजर्ट रीजनल सेंटर की निदेशक डॉ. पदमा बोहरा ने यह स्वीकारने से पहले कि उनको “स्थानीय सांपों” के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं थी, इस बात का खंडन कर दिया कि पीवणा “ग्रामीणों द्वारा वाइपर सांप को दिया जाने वाला स्थानीय नाम है” फिर, उन्होंने पूर्व-निदेशक “डॉ. नरेंद्र सिंह राठौर” से हमारा संपर्क करवाया।
अब सेवानिवृत्त, डॉ. राठौर ने तब ZSI परिसर का विकास किया था और वे एक आत्मविश्वास से भरे व्यक्ति थे। उन्होंने कहा “ओह, हाँ, यह सिंध क्रेट है और क्या तुम्हें पता है, शर्मा-जी ने सिंध क्रेट को पीवणा बताया था…”
शर्मा जी, दिवंगत आर सी शर्मा, ZSI के एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे जिन्होंने वर्ष 2003 में सांपों पर एक किताब लिखी थी। मिंटन के अवलोकन के बाद, शर्मा जी की बातों ने सिंध क्रेट के मामले को और मजबूत कर दिया। लेकिन क्या डॉ. राठौर संभवतः पीवणा द्वारा लोगों कि हत्या करने की विधि समझा सकते हैं?
डॉ. राठौर बताते की “मच्छरों की तरह, सिंध क्रेट भी सोये हुए लोगों के पास कार्बन-डाइऑक्साइड के घनत्व का पीछा करते हुए पहुंचता है, जो मनुष्यों की नाक के पास अधिक होता है”।
हमने पूछा “क्या इस सिद्धांत का कोई वैज्ञानिक प्रमाण है?” मुझे पक्का नहीं पता, लेकिन क्यूँकि शर्मा-जी ने यह कहा था …” यह कहते हुए डॉ. राठौर कहीं खो जाते है। और यह बात सुनकर मुझे संकोच हुआ, और मैंने पूछ ही लिया कि “क्या डॉ. राठौर ने वास्तव में कभी सिंध क्रेट देखा भी है”
“मैंने? उम्म… सिंध क्रेट… निश्चित रूप से देखा है, हमारे पास ZSI संग्रहालय में एक नमूना संरक्षित है । आओ, मैं तुम्हें भी दिखाता हूँ” डॉ. राठौर बोले।
मन में अच्छे की आशा करते हुए हम डॉ राठौर के साथ संग्रहालय गए, वहाँ हमने एक बहुत पुराना, रंग उड़ा हुआ “कॉमन क्रेट” का लेबल लगा हुआ नमूना पाया। डॉ. राठौर एक पल के लिए शांत रहे और तुरंत बोले “आह, गलत लेबलिंग! बेशक, मैं उन्हें लेबल बदलने के लिए कहूंगा…”
और जब डॉ. खांडल ने यह निर्धारित करने के लिए की यह सांप सिंध क्रेट ही है या कुछ और, सांप के नमूने को जार से बाहर निकालने और उसके स्केल्स की गिनती का सुझाव दिया, तो डॉ. राठौर ने जल्दी से जार वापस रख दिया और संग्रहालय से बाहर कि ओर का रास्ता निर्देशित किया।
डॉक्टर राठोड के द्वारा पीवणा के सम्बन्ध में जानकारी साझा करे हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
पोखरण, बहुत सारे प्रतिबंधित क्षेत्रों के साथ अभी भी सेना के एक केंद्र के समान ही था, परिणास्वरूप दिन के किसी भी समय, लोग महसूस कर सकते थे कि वे भारतीय सेना की सक्त निगरानी में थे। ऐसे में डॉ. खांडल कि सांप पकड़ने की छड़ी, जिसपर ‘मेड इन पाकिस्तान‘ का लेबल लगा हुआ था, से कोई मदद कि उम्मीद ना थी।
सेना के अधिकारियों कि संदिग्ध नज़रों को चकमा देते हुए हमने सुभाष उज्जवल की तलाश की जो कि डॉ. खांडल को सोशल नेटवर्किंग साइट के माध्यम से जानते थे। स्कुल शिक्षक उज्जवल बताते की “जब हम बच्चे थे, पोखरन में भी पीवणा का एक बड़ा डर था। बच्चों को रात में लहसुन और प्याज के साथ दूध पिलाया जाता था, ताकि पीवणा को दूर रखा जा सके। यदि आप पश्चिम की यात्रा करते हैं, तो आपको पीवणा मिलेगा … ग्रामीण लोग अब भी पूरी रात डर में बैठे रहते हैं … आप जानते हैं, मैं हमेशा से ही पीवणा पर एक फिल्म बनाना चाहता था। क्या यह एक बेहद डरावना विषय नहीं है?”
सांप की डरावनी फिल्म बनाने के लिए हमने उज्जवल के उत्साह को बढ़ावा नहीं दिया तो उज्जवल ने साँपों की धार्मिक पौराणिक कथाओं की ओर रुख किया और हमे एक कहानी सुनाई…
लगभग 1200 साल पहले, एक निःसंतान चरवाहा ममराव, चौतन के पास चलकाना गाँव में रहता था। बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाजमाता मंदिर कि सात साल की तीर्थयात्रा से प्रसन्न देवी ने उसे बताया कि वे, उसकी बेटी के रूप में उसके घर आएंगी। ममराव की सात बेटियाँ हुईं – आवरा, अछि, छेछी, गेहली, दूली, रूपा और लंगडी – और मेहरोक नामक एक पुत्र भी। हालांकि, किसी को भी यह पता नहीं चला कि लड़कियां कोई साधारण इंसान नहीं थीं।हर चरने के मौसम में, ममराव अपने मवेशियों को बाड़मेर के अन्य चरवाहों के साथ सिंध ले जाया करता था, लेकिन जैसे-जैसे साल गुजरे, मेहरोक ने अपने जिम्मेदारियों को निभाने का फैसला किया। अपने बूढ़े पिता ममराव को समझाने के लिए सभी बेटियों ने अपने छोटे भाई का साथ देने और उसकी देखभाल करने का वादा किया। अपने पिता की देख-रेख से मुक्त होकर, भाई-बहनों ने सिंध कि ओर रास्ते पर चलना शुरू कर दिया और जल्द ही भटक कर, एक क्रूर राजा सुमराह द्वारा शासित नाननगंज राज्य में पहुंच गए। जाहिर है, जिस दिन सुमराह ने मेहरोक की खूबसूरत बहनों को देखा, उसने उन सभी को पाने की चाहत रखी और अपने सैनिकों को उनपर निगरानी रखने के लिए भेज दिया। लेकिन सभी बहनों ने पहली बार अपनी दैवीय शक्तियों का इस्तेमाल किया और साँपों का रूप धारण कर लिया। हर बार जब वे नदी में स्नान करने या जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने के लिए निकलती, तो वे सांप बन जाती। लेकिन मेहरोक राजा कि तुलना में सांपों से ज्यादा डरता था। वह सदैव अपनी बहनों को घर के अंदर रहने और उनके मानव रूप में ही रहने को बोलता था।
एक दिन, जैसे ही बहनें अपने भाई की मूर्खतापूर्ण आशंकाओं पर हँसते हुए घर से निकालने लगीं, मेहरोक को गुस्सा आ गया और वह बोला “जाओ! मैं जानता हूँ कि आप सभी राजा के आदमियों के साथ रहना चाहती हैं! आपको लगता है कि मुझे समझ नहीं आ रहा है? आप सभी उस राजा द्वारा चुने जाने की उम्मीद से बाहर जाती हो। बड़ी बहन आवरा, जो अब तक उसे शांत करने की कोशिश कर रही थी, को गुस्सा आ जाता है। “तुम हमसे लड़ते हो, तुम साँप से बहुत डरते हो,” उसने कहा और मेहरोक को श्राप दे दिया कि एक पीवणा द्वारा उस पर हमला होगा। अगले ही पल, आवरा और उसकी बहनें पश्चाताप करने लगी, लेकिन देवी होने के नाते, अभिशाप पूर्ववत नहीं हो सका और जल्द ही, एक पीवणा ने देर रात मेहरोक को विषक्त कर दिया और सूरज की पहली किरण के छूते ही वह मर जाता। लेकिन बहनों ने उसे एक काले कम्बल से ढँक दिया ताकि धूप उस तक न पहुँचे। और जब वे कुछ और समय पाने में सफल हो गई, तो बहनो ने अपनी सभी शक्तियों का आहवाहन कर अपने भाई को ठीक किया। सभी सात बहनों को उनकी दिव्यता के पदानुक्रम में पदोन्नत किया गया, जबकि सबसे बड़ी बहन आवरा को जैसलमेर के पास तनोट में अपना मंदिर मिला और सभी बहनें पूरे क्षेत्र में सातमाता पट (सात देवी) के रूप में मुख्य देवी बन गईं।
साँपों की धार्मिक पौराणिक कथा सुनाते श्री सुभाष उज्जवल (दायें) और श्री जय मजूमदार (बाएं) (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
पीवणा से प्रभावित लोगों के उपचार को हमने एक चमत्कार ही माना और हम जोधपुर से पश्चिम की ओर बढ़ने लगे तथा परिदृश्य बदलने लगा। दूर-दूर तक कांटेदार झाड़ियों के लगातार अंतहीन सूखे क्षेत्र थे, जहाँ मौसमी बारिश से वंचित मक्का के काले कान, पतले हो जाते हैं तो कभी प्राचीन चट्टान के टिल्ले आ जाते। अब हर ओर हल्का हरा और स्पष्ट नीला रंग था, लाल, नारंगी, इंडिगो पगड़ी, सुन्दर ओढ़नियां, रंग-बिरंगे धागे, सुन्दर आभूषण और हर तरफ पिघला देने वाली गर्म हवा थी।
दोपहर के एक अच्छे भोजन के बाद, मैं बैकसीट पर थोड़ा सुस्त महसूस कर रहा था जब एक तेज मोड़ ने मुझे हिला दिया और मेरी सुस्ती उड़ा दी। मैंने कार की खिड़की से बाहर देखा और मैं हक्का-बक्का रह गया। बाड़मेर से केवल दो घंटे की दुरी पर कैर और खेजड़ी के यह एक जादुई भूमि थी। सभी दिशाओं में फैले सूर्यास्त के आसमान में जैसे की बहुत सारे उड़ता कालीन तैर रहे थे। सिर के ऊपर हज़ारो छोटे पक्षियों की चहचहाहट में हमारी अपनी आवाज डूब गई। मेरे पास खड़े डॉ. खांडल उनकी तस्वीरें लेने लगे। लेकिन वह जादू कहाँ कैमरा में समाता।
जब हम संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्रों में जाने के लिए परमिट के लिए बाड़मेर के जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय पहुँचे, तो कागजात धीरे आगे बढ़ रहे थे। लेकिन पीउणा पर राय तेजी से आगे बढ़ थी। जिला मजिस्ट्रेट के निजी सचिव ने उल्लेख किया कि कहीं चौतन नामक स्थान के पास एक आध्यात्मिक रूप से प्रतिभाशाली वृद्ध महिला रहती थी, जो पीउणा पीड़ितों का इलाज करने के लिए प्रसिद्ध थी। परन्तु एक अर्दली ने चेतावनी दी थी – पीउणा जहर का कोई इलाज नहीं है जब तक कि पीड़ित के गले के अंदर से जहर को खुद ही बाहर न निकाला जाये। सरकारी अधिकारी, जो कार्यालय के समय के बाद तक रोके जाने पर नाराज थे, बोले की अगर हम पीउणा के इलाके में खुले में सोते हैं तो हमारे जीवित रहने की बहुत कम संभावना है और अगर हममें चौतन से आगे जाने की हिम्मत है तो हमें खुले में ही सोना होगा। मेरी जेब में अनुमति थी और मैं बाड़मेर के कलिंग होटल में लाल मास खाने चल गया। रेगिस्तान के सबसे मशहूर इस मांस व्यंजन को तैयार करने का एक नियम था की प्रत्येक किलोग्राम मास में 60 लाल मिर्च का उपयोग करना जरुरी है। मैं इस बात की पुष्टि कर सकता हूं कि उस रात कलिंग महाराज का जायका बिलकुल सही था।
“शौबत अली” 6 फीट 6 इंच की लंबाई के साथ, आलमसर कि भीड़ में अलग पहचान लिए बड़ी उदारता के साथ हमारा स्वागत किया। चार शताब्दियों से, उनका परिवार अलमसार के पास एक पारंपरिक, अल्पविकसित खेत में सिंधी घोड़ों का प्रजनन करवाता था। अली ने हमें रात के खाने के लिए मटन बिरयानी और हमको को अपने स्टड फार्म में खुले में रात बिताने को चारपाई दी और हमें सेरवा की ओर रवाना किया।
जय मजूमदार शोबत अली के साथ चर्चा करते हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
बुजुर्ग स्नेकवूमन जिसके बारे में हमने बहुत सुना था, मरीजों को देखने के लिए अब बहुत कमजोर थी। लेकिन अब उसका सारा दायित्व कायम खान पर आ गया था, जो अपने बड़े भाई सुल्तान के साथ युनानी दवाओं का अभ्यास करता था। कायम सेरवा में अपने क्लिनिक-सह-निवास पर हमारा स्वागत करते हुए बोलता है की “मैं केवल एक ही हूँ जो यहाँ पीउणा पीड़ितों का इलाज करता हूँ। कल भी मैंने चार मामलों का इलाज किया था। ”
हमे बताया गया की पीउणा दो प्रकार का होता है, लाल और काला। जबकि कायम का मानना था कि काले पीउणा अधिक आक्रामक होते हैं, सुल्तान ने जोर देकर कहा कि लाल पीउणा तेजी से वार करते हैं । लक्षणों में सिरदर्द, सांस फूलना, चेहरे की सूजन, भारी जीभ, बदबूदार मुंह और सबसे महत्वपूर्ण, गले में एक छोटा छाला शामिल था।
खान ने समझाया की इसका उपचार सरल हैं, बस पीड़ित के मुँह में दो ऊँगली डालो और गले में से पस सहित छाले को बाहर निकाल दो। पीड़ित मवाद थूकता है – सुल्तान ने दावा किया कि यह मवाद ही पीउणा विष है – और लगभग आधे घंटे में में पीड़ित को आराम आ जाता है।
काइम ने यह भी बताया कि इस क्षेत्र में सॉ-स्केल वाइपर (Echis carinatus) के काटने के मामले भी आते हैं, लेकिन उन पीड़ितों का इलाज सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में एंटी-वेनम सीरम से किया जाता है। “लेकिन सीरम पीउणा विष के खिलाफ काम नहीं करता है। इसलिए पीवणा के पीड़ित कभी अस्पतालों में नहीं जाते, वे मेरे पास आते हैं।” हमने जिज्ञासा में पूछ लिया “क्या वे ठीक हो जाते हैं?” तो कायम बोले “जब वे देर से आते हैं तो पीड़ित मर जाते हैं। अन्यथा, मेरे हाथों में बहुत कम लोगों की मृत्यु हुई है“।
जय मजूमदार स्थानीय हकीम श्री खान के साथ पीवणा के इलाज पर विचार करते हुए (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
यह खान बंधु ही थे जिन्होंने हमें पीवणा को खोजने के लिए कोली समुदाय की मदद लेने का सुझाव दिया था तथा वे सांप की पहचान करने में हमारी मदद करेंगे यदि हम एक खोज लाये तो। सूर्यास्त के एक घंटे पहले, हम सेरवा से 7 किमी दूर सलारिया में एक कोली बस्ती में पहुंचे और समुदाय के छोटे सदस्य सांप दिखाने के लिए 200 रुपये के इनाम पर ख़ुशी से राजी हो गए। “कल हमें जल्दी शुरुआत करनी होगी। हवा से रेत के कर्ण उड़ जाते हैं और सांप के निशान सूर्योदय के कुछ घंटों के भीतर गायब हो जाते हैं। लेकिन क्या आप हमें हर उस सांप के लिए भुगतान करेंगे जो हमें दिखेगा या हर उस सांप के लिए जिसे आप पकड़ते हैं? ” गाँव का प्रधान भावाराम, ने हमसे पूछा।
बात पक्की कर के, हम रात के लिए शौबत अली के फार्महाउस पर वापस चले गए। बस जहाँ सड़क खत्म हो गयी और खेत शुरू हो गए, वहां एक मस्जिद ईद के लिए सजा रखी थी। उस रात कोई चाँद नहीं था, और डॉ खांडल ने पीवणा भूमि में खुले में हमारी पहली अंधेरी रात के लिए मुझे तैयार किया। जिस पल हम अपने स्लीपिंग बैग में लेटे और बैटरी बचाने के लिए अनिच्छा से अपनी टॉर्च बंद कि उसी पल काला अँधेरा आसमान में जग गया। मुझे मालूम भी नहीं है की लगभग कितनी देर तक मैं सितारों को देख रहा था तभी डॉ खांडल दोबारा बोले “अगर रात में सांप आपको सलामत छोड़ता है तो सुबह जूते में पैर डालने से पहले बिच्छू की जांच कर लेना।”
अगली सुबह का आसमान भी काला ही था जब हम कोलियों से मिले थे। वे पांच गुटों में बट गए और रेत में साँपों की लकीरे देखने लगे। मैं मन में बहुत सी उमीदे लिए अपनी टीम के साथ चल पड़ा। आधे घंटे बाद, एक छोटा कोली लड़का दौड़ता हुआ आया। डॉ. खांडल वाली टीम ने एक लाल पीवणा पकड़ा था, लेकिन वे अभी एक किलोमीटर दूर थे। एक घंटे बाद, एक और लड़का एक और लाल पीवणा की खबर लाया। जल्द ही, कोली ने रेत पर कुछ स्पष्ट रेखाएँ देखीं और खुदाई शुरू कर दी। घुमावदार बिल जमीन के अंदर गहराई में चला गया। कोली परेशान थे। अचानक, छेद से निकली एक जीभ ने कोली को चीखने पर मजबूर कर दिया। “इसे पकड़ो, इससे पहले कि यह हमला कर दे, पीवणा को पकड़ लो“। मैं बिल के पास झुका और कोली ने उस पर चढ़कर सांप को पकड़ लिया। कोली फिर से चिल्लाया और बोला “कसम खता हूँ यह लाल पीवणा ही है जैसे अन्य दो डॉ खांडल ने पकडे हैं।”
कोली लोगो द्वारा खोदे जा रहे एक बिल से एक टिमटिमाती हुई जीभ निकली और फिर एक चमकदार लाल सिर बाहर आया और तुरंत हमने उसको पकड़ लिया। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
मैं अच्छे से जानता था और मेरा दिल बैठ गया। यदि यह हानिरहित रेड स्पॉटेड रॉयल स्नेक (Spalerosophis arenarius) होने के बजाए खतरनाक पीवणा हुआ जो बिना काटे भी लोगों की जान ले लेता है, तो मैं वास्तव में चार दिनों से एक हजार किलोमीटर से अधिक का सफर तय कर एक बेवकूफ मिथक का पीछा कर रहा था।
कोली ने हमे पीवणा दिखाए और हम निशब्द रह गए क्यूंकि तीनो साँपों को प्लास्टिक के डिब्बे में बंद कर रखा था। हमने तुरंत पहचान करने के लिए सेवा के खान भाइयों को बुलाया। सुलतान ने साँपों को देखते ही एक क्षण में जवाब दिया “लाल पीवणा“! आपने यह कहाँ से कैसे पकड़ा? आँगन में बड़ी भीड़ जमा हो गई थी। हमने रॉयल स्नेक जो दूसरों के लिए पीवणा था को डिब्बे से बाहर निकाला – और बहादुर सदस्यों को आगे बढ़ने के लिए कहा। जल्द ही, ख़ान ने ख़ुशी से देखा, “खतरनाक” लाल पीवणा हाथ से हाथ पर घूम रहा था। लेकिन कायम ने अभी तक हार नहीं मानी थी। “शायद लाल एक हानिरहित है। लेकिन काले पीवणा को नज़रअंदाज मत करो। क्या आपने देखा नहीं मेरे पास कितने सारे पीड़ित आते हैं… ” भीड़ में किसी ने फिर जन्नो का नाम लिया, जो पास में ही रहती थी और लगभग दो हफ्ते पहले खानो के पास पीउणा के लक्षण लेकरआई थी। इससे पहले की हम जन्नो को खोज पाते, किसी बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति ने हमे तलब किया।
नारायण पाल बिश्नोई, जो कि सेरवा पुलिस स्टेशन के आंशिक रूप से थाना प्रभारी थे, एक मित्रता प्रेमी पुलिसकर्मी लगे। उन्होंने कहा “यह सेरवा एक बहुत ही शांतिपूर्ण पोस्टिंग है … ज्यादातर छोटे मामलों में, आप देख सकते हैं”। कुछ 17 बलात्कार के मामले, “छोटे” मामलों की सूची क्राइम चार्ट पर लगी हुई थी। मैंने उनसे पीउणा के बारे में पूछा। बिश्नोई ने तुरंत एक हिंदी दैनिक अखबार के साथ स्थानीय पत्रकार चुन्नीलाल को बुलाया, जिनके पास हमारे लिए पहले से ही खबर थी। “आज सुबह ही मैंने भारत-पाक सीमा की ओर लगभग 8-9 किमी दूर सड़क पर एक पीवणा को देखा है।” मैंने उनसे पूछा क्या वह काला सांप था? हाँ यह था।
वाधा गांव के पास से एकत्रित किया हुआ काला पीवणा “कॉमन करैत”। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
डॉ खांडल वाधा गांव के पास घटना स्थल पर पहुंचे और आधे घंटे में वापस आ गए। सड़क पर मरा हुआ सांप काफी अच्छी अवस्था में था। उसपर एक नज़र डालते ही हमें पता था कि यह एक क्रेट था। लेकिन क्या यह वास्तव में दुर्लभ सिंध किस्म थी? वह काला सुन्दर सांप लम्बाई में 3 फीट 10 इंच था। इसके शरीर पर दो-दो सफ़ेद धारियों की श्रृंखला होती है और हमने इसके स्केल्स की गिनती भी की और यह एक कॉमन क्रेट था। मुझे हर्पेटोलॉजिस्ट रोमुलस व्हिटकेर की बात भी याद है, जब उन्हें मिंटन और शर्मा द्वारा किए गए निष्कर्ष पर संदेह था कि कि सिंध क्रेट ही पीवणा है। हो सकता है, यह सिर्फ कॉमन क्रेट था।
हमने बिश्नोई का धन्यवाद किया और सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में डॉ दिनेश दत्त शर्मा से मिलने के लिए निकल पड़े। एक युवा मेडिकल स्नातक, उसने सर्पदंश के दर्जनों मामलों को सफलतापूर्वक संभाला था। पीड़ितों ने कहा, डॉ शर्मा, आमतौर पर सांप के साथ आते थे जिसने उनको काटा होता था। बांडी (सौ-स्केल्ड वाइपर), उन्होंने कहा पिछले दिनों में यही आम हत्यारा था। “मैंने किसी भी पीवणा पीड़ित को नहीं देखा है लेकिन यहाँ के लोग इसके बारे में बात करते हैं। यह पीवणा सांप काटता नहीं है बल्कि गले के अंदर एक फोड़ा बना देता है। शायद, यह कुछ ऐसा है जो विज्ञान समझा नहीं सकता … ”
देश का सबसे विषैला सांप “कॉमन करैत”। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
इसलिए हम खान के पास वापस चले गए। जब हमने उन्हें मृत क्रेट दिखाया तो उनके चेहरे खिल उठे। “हाँ, यह एक है। अब मुझे यह मत कहना कि यह भी हानिरहित है।
हमने उसे आश्वासन दिया कि क्रेट देश का सबसे विषैला सांप है। कायम खान अपनी जीत महसूस कर मुस्कुराया और हमें बताया कि उसने एक और मृत काले पीवणा के लिए कुछ लोगों को भेजा था। परन्तु, एक दिन पहले कुछ ग्रामीणों ने उस सांप को जला दिया था। जले हुए अवशेष कुछ ही मिनटों में हमारे पास पहुँच गए। डॉ खांडल ने मध्य शरीर के एक हिस्से को अच्छे से साफ़ किया और धोया ताकि उसके स्केल्स को स्पष्ट देखा जा सके। वह स्केल्स की गिनती के बाद उत्साहित दिखे। “मिड-बॉडी स्केल काउंट 17 है, यह हमारा सिंध क्रेट होना चाहिए। लेकिन मैं वेंट्रल्स स्केल्स की गिनती नहीं कर सकता। उन्हें इसे क्यों जलाना पड़ा?… ”
विजयी कायम खान ने अब हमें चाय के लिए पूछा लेकिन तभी चुन्नीलाल आ गया, और बोला की हमने पीउणा से बचने वाली जन्नो को खोज लिया है।
सेरवा से एक किलोमीटर की दूरी पर, अलीसरन का डेरा भील आदिवासियों की एक बस्ती थी जहाँ कुछ मुस्लिम परिवार भी बस गए थे। जन्नो मजबूत पुरुषों और महिलाओं के एक विस्तारित परिवार में बीमार अजीब आदमी निकला।
जन्नो ने बताया “एक पीवणा ने लगभग दो सप्ताह पहले रात में मेरी सांस ली। सुबह जब मैं उठा तो बहुत भयानक लगा। जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, मेरी हालत और बुरी होती गयी। परिवार के लोग शाम को मुझे कायम खान के पास ले गए। ” जन्नो के भाइयों ने बताया कि कैसे कायम खान ने जन्नो के गले से विष निकाला था। उन्होंने कहा, जन्नो एक घंटे के भीतर ठीक था। अगर उनका दावा सही था तो जन्नो रक्त प्रवाह में विष के प्रवेश करने के 18-20 घंटे बाद ठीक हो गया था। परन्तु यदि पीवणा वास्तव में क्रेट था, तो यह असंभव था। इसके अलावा, अब हमें “जहर-श्वास” तंत्र का पता लगाना था।
जैसे ही हम वापस आलमसर पहुंचे, अव्यवस्था साफ होने लगी थी। जबकि रेगिस्तान के लोगों ने सॉ-स्केल्ड वाइपर का एक हत्यारे साँप के रूप में उल्लेख किया, उन्हें क्रेट के बारे में पता नहीं था। लेकिन अगर हम दो दिनों में दो क्रेट खोज सकते हैं, तो यह स्पष्ट था कि पर्याप्त संख्या में मौतें होने के लिए यहाँ पर्याप्त क्रेट थे। परन्तु एक तथ्य यह भी था कि किसी ने भी क्रेट के काटने का नाम नहीं लिया था, जिसका मतलब है कि मामलों को कुछ और के रूप में समझा जा रहा था – जैसे कि पीउणा।
रोमुलस सही था। तो मिंटन और शर्मा भी सही थे। कॉमन और सिंध क्रेट दोनों ही इस मिथक के पीछे थे। वैसे भी, केवल उन्हें देखकर दोनों में अंतर करने के लिए बहुत कुछ नहीं था। ऑक्सफ़ोर्ड्स सेंटर फॉर ट्रॉपिकल मेडिसिन के संस्थापक निदेशक प्रोफेसर David A Warrell ने मुझे आगाह किया था कि पॉलीवलेंट सीरम (polyvalent serum) के सिंध क्रेट के जहर के खिलाफ प्रभावी होने के कोई सबूत नहीं थे। लेकिन कॉमन क्रेट के पीड़ित लोगों पर सीरम का कोई असर क्यों नहीं होता? निश्चित रूप से, सभी पीउना सिंध क्रेट नहीं थे। मुझे याद आया कि किस तरह सेरवा स्वास्थ्य केंद्र में एक व्यक्ति ने सांप के काटने का वर्णन किया था – बिना रुके लगातार खून का बहना, काटने की जगह पर असहनीय और एक सूजन – सभी एक सॉ-स्केल्ड वाइपर द्वारा काटे जाने के लक्षण। रात में सोते समय क्रेट द्वारा काटे जाने पर पीड़ितों को पता नहीं चलता था कि उन्हें काट लिया गया था। इसके अलावा, क्रेट के नुकीले दांत कोई निशान नहीं छोड़ते तथा किसी भी प्रकार की जलन नहीं होती। वाइपर सांप द्वारा दर्दनाक तर्रिके से कांटे जाने वाले लोगों के बीच में, क्रेट एक मिथक पीवणा था- “सांस-चूसने वाला” सांप जो काटता नहीं था!
जब तक क्रेट पीड़ित जागते थे, तब तक न्यूरोटॉक्सिन पहले ही काफी नुकसान पहुंचा चुका होता है। चूंकि पॉलीवलेंट सीरम विष के कारण होने वाले नुकसान को रिवर्स नहीं करता है – यह केवल बाद में होने वाली क्षति को रोक देता है – एक लेट स्टेज पीड़ित के जीवित रहने की संभावना हमेशा बहुत कम होती है। हमें कोई आश्चर्य नहीं था कि सरकारी क्लिनिक में डॉ शर्मा या उनके साथी एंटी-वेनम से तथाकथित पीवणा पीड़ितों की मदद नहीं कर पाते थे।
डॉ खांडल मेरे निष्कर्ष से सहमत थे, लेकिन उन्होंने मुझे पहेली के आखिरी हिस्से की याद दिला दी। “आप गले के अंदर छाले की व्याख्या कैसे करते हैं?” मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मेरे ज्ञान के अनुसार, एक क्रेट के काटने से सिरदर्द, ज्यादा नींद व् सुस्ती, भारी पलकें, धुंधली दृष्टि, हाथ-पैरों में लकवे जैसा, बेहोशी और कुल श्वसन विफलता होती है। मैंने मुँह से अधिक लार स्राव के बारे में भी पढ़ा था। लेकिन छाला नहीं।
मैं शोध करने के लिए वापस लौटा और महाराष्ट्र के महाड स्थित एक क्षेत्र चिकित्सक डॉ एचएस बावस्कर द्वारा ” The Lancet” में एक पेपर में लार के इकठे होने के बारे में पढ़ा। डॉ बावस्कर, वास्तव में, निगलने में कठिनाई या गाँठ, न्यूरोटॉक्सिन का एक लक्षण था। सीधे शब्दों में कहें, क्रेट वेनम से मांसपेशियों में लकवा हो जाता है जिससे गले में लार का जमाव होने लगता है। मैंने प्रोफेसर वॉरेल के साथ जाँच की और पुष्टि प्राप्त की। तो क्या लार की इस गाँठ को “पस” या “विष” कहा जा सकता है? जिसे खान भाई पीड़ित के गले से निकालने का दावा करते हैं? मैंने जोधपुर से डॉ बावसकर को बुलाया और वे सहमत हो गए।
लेकिन लार बाहर निकालने से एक क्रेट पीड़ित को नहीं बचाया जा सकता है। तो कैसे खान भाई एक उच्च सफलता दर का दावा कर सकते हैं? डॉ बावस्कर ने बताया की “जो लोग इस तरह के हमलों से ठीक हो जाते हैं, सबसे पहले तो उन्हें क्रेट ने कभी काटा ही नहीं होता है क्योंकि सर्पदंश गले में गाँठ बनने के लिए एकमात्र कारण नहीं होता है। इस तरह के रोगियों को कुछ अन्य बीमारी होती है और लार की गाँठ निकाल देने से वे कुछ समय के लिए बच जाते है और सर्पदंश के पीड़ित लोगों की तरह जल्दी नहीं मरते हैं”। मुझे जन्नो का मामला याद आया की यदि उसपर वास्तव में पीउना ने हमला किया था, तो क्या वह क्रेट काटने के 18 घंटे बाद भी जीवित होगा? वह भी बिना दवा के?
तथाकथित लाल पीवणा वास्तव में रेड स्पॉटेड रॉयल स्नेक (Spalerosophis arenarius) होता है और यह पूरी तरह से हानिरहित होता है (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
लौटते समय रास्ते में, हम डेजर्ट मेडिकल रिसर्च सेंटर के एक शीर्ष वैज्ञानिक डॉ फूलचंद कनौजिया से मिलने जोधपुर गए। वह रेगिस्तान के विषैले सांपों पर शोध की योजना बना रहे थे और हाल ही में उन्होंने चौतन की यात्रा के दौरान विभिन्न सरकारी चिकित्सा केंद्रों से कुछ मृत सॉ-स्केल्ड वाइपर एकत्र किए थे। डॉ खांडल ने एक बोतल में मरे हुए कॉमन क्रेट को बाहर निकाला। वैज्ञानिक की आँखें बड़ी हो गईं। “इतना बड़ा क्रेट! वहाँ रेगिस्तान में क्रेट हैं? ” हमने डॉ कनौजिया को संक्षिप्त में सारी बात बताई और डॉ खांडल ने डॉ कनोजिया के संग्रह के लिए अपनी खोज को उधार देने पर सहमति व्यक्त की। वापिस जयपुर आते समय हम एक अच्छे भोजन के लिए रुके।
“तो क्या हम खतरनाक पीवणा के बारे में समझा सकते है?” डॉ खांडल ने मेरे सवाल को अपनी आँखें बंद करके विचार किया। “जितना अधिक आप जानते हैं, उतना ही जिज्ञासु आप महसूस करते हैं।” मैं बता सकता था कि वह अपने घर ले जाने वाले जले हुए क्रेट पर एक और नज़र डालने की प्रतीक्षा कर रहा था। “कम से कम, तथाकथित लाल पीवणा अब सुरक्षित होना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि कोली उन मासूम साँपों को मारना बंद कर देंगे। ”
(मूल अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद प्रवीण कुमार द्वारा)
अंग्रेजी आलेख “In Search of the Snake Demon” का हिंदी अनुवाद जो सर्वप्रथम जून 2009 में Open magazine में प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेजी आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें: https://openthemagazine.com/features/india/in-search-of-the-snake-demon/
“कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते हैं , जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।”
प्रकृति में पाये जाने वाले अन्य सभी जीवों की तुलना में कुत्तों को इंसानों का सबसे भरोसेमंद साथी माना जाता है। कुत्तों की उत्पत्ति को मानव उद्विकास की कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रृंखला में एक प्रमुख कड़ी कहा जा सकता है। आनुवंशिक शोध के अनुसार कुत्तों की उत्पत्ति आज से लगभग 15000 से 40000 वर्ष पूर्व यूरोप, मध्य-पूर्व, व पूर्वी एशिया में भेड़ियों की एक से अधिक वंशावलियों से हुई मानी जाती हैं। कुत्ते एवं मानव के इस समानान्तर उद्विकास को सहजीविता का उत्तम उदाहरण कहा जा सकता है। आधुनिक मानव (Homo sapiens) ने अपनी शिकार एवं सुरक्षा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भेड़ियों को पालतू बनाया जिसके बदले भेड़ियों को भी सुरक्षा, आवास, एवं भोजन की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित हुई। तब से लेकर अब तक कुत्तों का इस्तेमाल व्यापक रूप से कई क्षेत्रों में होता आ रहा है , जैसे की शिकार में सहायता से लेकर पशु धन, सम्पदा, व खेतों की सुरक्षा, विस्फोटकों और रसायनों को सूंघने से लेकर बर्फीले स्थानों में परिवहन एवं सबसे महत्वपूर्ण, इंसान का सबसे वफादार दोस्त। कुत्तों व मानव के इस गहरे रिश्ते को अनको कहाँनियों, व फिल्मों के माध्यम से बड़े ही रोमांचित तरीके से दर्शाया गया है । इसी रोमांचित छवि से परे इसी रिश्ते का एक और महत्वपूर्ण पहलू भी है, जिसे सदैव नजरंदाज किया जाता है ।
कुत्तों की अनियंत्रित रूप से बढ़ती संख्या सम्पूर्ण विश्व में जन-स्वास्थ्य की दृष्टि के साथ-साथ वन्य जीवन के लिए भी एक बहुत बड़ा खतरा है । सिडनी विश्व विध्यालय के डॉ टिम एस. डोहरती के एक शोध के अनुसार दुनिया में अब तक कशेरुकी जीवों की 11 प्रजातियों जिसमें पंछी, स्तनधारी, व सरीसृप शामिल है के सम्पूर्ण विलुप्ति करण में कुत्तों का मुख्य योगदान रहा है। इसी के साथ 188 और संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए कुत्तों को सबसे बड़े संभावित खतरे के रूप में देखा जाता है। भारत में डॉ चंद्रिमा होम द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार कुल 80 वन्यजीवों की प्रजातियाँ कुत्तों के हमलों से प्रभावित पायी गयी जिनमें से 30 प्रजातियाँ IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में शामिल है। इसी शोध में कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर दर्ज कुल हमलों के 45% मामलों में पीड़ित प्राणी अंततः मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार राजस्थान में भी डॉ गोबिन्द सागर भारद्वाज व साथियों द्वारा Indian Forester में प्रकाशित एक अन्वेषण के अनुसार सन 2009 से 2016 के बीच थार रेगिस्तान में 3624 चिंकारा, 607 नील गाय, व 645 काले हिरण के विभिन्न कारणों से घायल होने के मामले दर्ज किए गए थे। इन कुल मामलों में 74.28% चिंकारा, 55.68% नील गाय, व 68.68% काले हिरण के घायल होने का कारण कुत्तों द्वारा हमला पाया गया था। दर्ज मामलों के आधार पर इन जीवों की मृत्यु दर बहुत ज्यादा 96.7% पायी गयी।
कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य की एक तस्वीर जिसमे आवारा कुत्तों और भेड़ियों के बीच भोजन को लेकर संघर्ष को देख सकते है। (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
बढ़ती आबादी के कारण:
एक पारिस्थितिकी तंत्र में किसी भी जीवों की संख्या भोजन की उपलब्धता, परभक्षियों से खतरा, एवं संक्रामक रोगोंके प्रकोप पर निर्भर करती है। कुत्ते मुख्यतः सर्वाहारी होते हैं, एवं भोजन हेतु सीधे तौर पर इंसान द्वारा उपलब्ध खाने, कचरे के ढेर,और मृत जीवों पर आश्रित रहते हैं। इसी कारण कचरा एवं मृत जीवों के प्रबंधन व निस्तारण की कुशल प्रणालियों का अभाव कुत्तों के लिए लंबे समय तक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करता है, परिणामस्वरूप कुत्तों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है।
पिछले कुछ दशकों में कुत्तों की बढ़ती संख्या को एक खास पारिस्थितिकी बदलाव से भी जोड़ के देखा गया है। 1990 के दशक में सर्वप्रथम कैवलादेवी राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर में गिद्धों की आबादी में अचानक से गिरावट दर्ज की गयी थी। गिद्ध प्रकृति के सबसे महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य रूप से मुर्दा खोर (Obligatory scavenger) जीव हैं, जो पर्यावरण में मृत जीवों को खाकर उनके निष्कासन में अहम भूमिका निभाते है। भारत में गिद्धों की तीन मुख्य प्रजातियों (Gyps indicus, Gyps bengalensis, and Gyps tenuirostris) की संख्या में ये गिरावट 95% से भी अधिक देखी गयी थी, जो की सबसे बहुतायत में पाये जाने वाले गिद्ध थे। गिद्धों की संख्या में इतनी भारी गिरावट के कारण मृत जीवों के निष्कासन की दर धीमी हो गयी, परिणाम स्वरूप मृत जीवों की उपलब्धता में एकाएक वृद्धि पायी गयी।
वैकल्पिक मुर्दा खोर (Facultative scavenger) होने के कारण मृत जीवों की इस उपलब्धता का लाभ कुत्तों को हुआ एवं उनकी आबादी में जबरदस्त बढ़त देखी गई। वैकल्पिक मुर्दाखोर वह जीव होते हैं जो मुख्य रूप से भोजन के लिए अन्य चीजों पर निर्भर होते हैं परंतु अवसर मिलने पर मृत जीवों का भी प्रमुखता से सेवन करते हैं। कुत्तों की यही बढ़ती संख्या अब संकटग्रस्त गिद्धों के संरक्षणव आबादी के पुनःस्थापन में सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि कुत्ते अपने उग्र व्यवहार व अधिक संख्या में होने के कारण गिद्धों को मृत जीवों से दूर रखते हैं। दूसरी और भारत के शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क घास के मैदानों में बड़े शिकारी वन्य जीवों की अनुपस्थिति के कारण कुत्ते सर्वोच्च शिकारी बन चुके हैं जिस कारण इनसे किसी जीव द्वारा परभक्षण का खतरा नहीं है। । मनुष्य द्वारा प्रदत्त भोजन की उपलब्धता, बड़े शिकारी वन्य जीवों का अभाव, एवं प्रबंधन की खामियों के कारण कुत्तों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
वन्य-जीवन पर विपरीत प्रभाव:
कुत्ते दुनिया भर में सबसे व्यापक व बहुतायत में पाये जाने वाले carnivore हैं, जिनकी वैश्विक आबादी लगभग 1 अरब है। इस आबादी में भारत का हिस्सा लगभग 6 करोड़ का माना जाता है। कुत्तों द्वारा वन्य जीवों पर हो रहे हानिकारक प्रभाव को उनके घुमन्तू व्यवहार एवं मानव पर उनकी निर्भरता के आधार पर समझा जा सकता है। इस आधार पर कुत्तों को निम्न भागों में बांटा गया है।
पालतू कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मुख्यतः उनके मालिक द्वारा तय परिसीमन के अन्दर ही होती हैएवं ये भोजन व आवास के लिए पूर्णतः अपने मालिक पर ही निर्भर होते है। सीमित गतिविधियों के कारण ये कुत्ते वन्यजीवों के सबसे कम संपर्क में आते हैं।
शहरी आवारा कुत्ते, जिनकी गतिविधियाँ मोहल्लों एवं गलियों तक सीमित रहती है। ये कुत्ते वन्यजीवों के लिए मुख्य खतरा नहीं है परंतु जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से जीव-जनित बीमारियों का सबसे बड़ा स्रोत हैं।
ग्रामीण आवारा कुत्तों,जो की गाँवों व उनके आस-पास के इलाकों में पाये जाते हैं। इसी श्रेणी के कुत्तों की एक बहुत बड़ी आबादी गाँवों व मानव बस्तियों से बहुत दूर तक स्वछंद विचरण करती है एवं वन्य जीवों को बहुत बड़े स्तर पर प्रभावित करती है। विश्व में पायी जाने वाली कुल कुत्तों की आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा इसी श्रेणी में आता है।
स्वछंद विचरण करने वाले कुत्तों की यही आबादी वन्यजीवों के सबसे अधिक संपर्क में आती है, परिणामस्वरूप वन्यजीवों के लिए बहुत बड़ा खतरा प्रस्तुत करती है। अपने क्षेत्रीय व्यवहार से प्रेरित कुत्ते अकसर अपने इलाकों के विस्तारण हेतु इंसानी बस्तियों से दूर संरक्षित और असंरक्षित वन्यजीव क्षेत्रों में घूमते वन्य जीवों को विभिन्न स्तरों पर प्रभावित करते हैं।
आवारा कुत्ते न सिर्फ वन्य-जीवों को सताते है बल्कि गुट में उनपर हमला कर घायल और कई बार जान से मार भी देते हैं (फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
कुत्ते मुख्य परभक्षी:
कुत्ते निःसंदेह अपने जंगली रिश्तेदारों (भेड़िये एवं जंगली कुत्ते) के समान कुशल शिकारी नहीं होते परंतु फिर भी शिकार के प्रयास में वन्य जीवों को गंभीर रूप से घायल जरूर कर देते जो अंततः अपने गंभीर चोटों के कारण मारे जाते हैं। कुत्तों का ये हानिकारक प्रभाव लगभग सभी छोटी व बड़ी सिम्पेट्रिक प्रजातियों पर देखा जा सकता है। सिम्पेट्रिक प्रजातीयाँ वह प्रजातीयाँ होती हैं जो एक ही आवास में रहकर समान संसाधनों का समान रूप से प्रयोग करती है। उदाहरण के लिए भारतीय-लोमड़ी, मरु-लोमड़ी, सियार, एवं कुत्ते सिम्पेट्रिक प्रजाति है। उसी प्रकार बाघ एवं तेंदुआ भी सिम्पेट्रिक प्रजाति है। सिम्पेट्रिक प्रजातियों से इस संघर्ष का परिणाम अकसर वन्य जीवों की मृत्यु ही होता है। चूंकि कुत्ते जीवित रहने के लिए हमेशा किसी न किसी रूप से मनुष्य पर ही निर्भर होते हैं इसीलिए इन्हें पारिस्थितिकी तंत्र में प्राकृतिक परभक्षी के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।
कुत्ते वन्य जीवों का भोजन:
सामान्यतः परभक्षी की भूमिका निभाने वाले कुत्ते कई स्थानों पर बड़े परभक्षियों के भोजन का मुख्य हिस्सा भी हैं। देश के कई स्थानों में मानव बस्तियों के आस-पास पाये जाने वाले तेंदुओं को कुत्तों का बहुतायत में शिकार करते पाया गया हैं। कुत्तों का शिकार करते हुए तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी अक्सर मानव बस्तियों में घुस आते हैं जो की बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष को जन्म देते हैं। इस संघर्ष का परिणाम मानव व वन्य जीवों दोनों के लिए हानिकारक होता हैं।
वन्य जीवों के व्यवहार में परिवर्तन एवं उसका प्रभाव:
कुत्तों न केवल प्रत्यक्ष रूप से शिकार कर वन्यजीवों की संख्या घटाते है परंतु परोक्ष रूप से उनके व्यवहार को भी बदलते है। संसाधन परिपूर्ण आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्या वन्य जीवों के संसाधन उपयोग को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। पारिस्थितिकी तंत्र में संसाधनों से तात्पर्य भोजन, पानी, व आश्रय स्थल की उपलब्धता से होता है। ऐसे आवासों में कुत्तों की बढ़ती संख्यावन्य जीवों को निम्न गुणवत्ता वाले संसाधन क्षेत्रों में विचरण करने को मजबूर करती है। इसका परोक्ष रूप से प्रभाव उनके स्वास्थ्य व प्रजनन क्षमता पर पड़ता है जो की अंततः वन्य जीवों की घटती आबादी का कारण बनता है।
कुत्ते संक्रामक बीमारियों के वाहक:
वन्य जीवों व कुत्तों के बीच किसी भी प्रकार का संपर्क, चाहे वह शिकार के तौर पर हो या शिकारी के तौर पर, कुत्तों द्वारा फैलने वाली संक्रामक बीमारियों का खतरा वन्यजीवों के लिए बढ़ाता ही है। अधिकांश मामलों में बीमारियों का यह संक्रमण किसी भी वन्यजीव की सम्पूर्ण आबादी मिटाने के लिए पर्याप्त होता है। कुत्तों में 358 प्रकार के रोग-जनक बैक्टीरिया, कवक, एवं वायरस के रूप में पाये जाते हैं। इनमें से तीन मुख्य वायरस विश्व में कई स्थानोंपर वन्यजीवों की संख्या में गिरावट के उत्तरदायी पाये गए हैं। यह है, रेबीज़ वायरस (RABV), Canine distemper virus (CDV) एवं Canine parvo virus (CPV)। सन 1989 में अफ्रीका के सेरंगेटी के घास के मैदानों में पाये जाने वाले अत्यंत संकटग्रस्त जंगली कुत्तों की कई स्थानीय आबादियों की विलुप्ति का कारण RABV के संक्रमण को पाया गया है। कुछ इसी तरह का प्रभाव 1994 में ईथोपीयन भेड़ियों पर भी देखा गया था। इसी साल सेरंगेटी में ही CDV के प्रकोप से एक हजार से अधिक शेर मारे गए थे जो की वहाँ की कुल शेरों की आबादी का एक तिहाई हिस्सा था।
भारत में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों में बीमारियों के संक्रमण से संबन्धित शोध का अत्यधिक अभाव एवं कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़ों की कमी के कारण इन संक्रामक बीमारियों का वन्य जीवों पर प्रभाव कम ही ज्ञात है। डॉ वानक द्वारा महाराष्ट्र के नानज में किए गए एक शोध में टेस्ट किए गए 93.3% कुत्तों में CPV तथा 90.7% कुत्तों में CDV से संबंधित एंटिबोडीज़ पाये गए। नानज में पायी गई कुछ मृत भारतीय लोमड़ियों में भी CDV का संक्रमण पाया गया था। तत्पश्चात भारतीय लोमड़ी पर की गई रेडियो टेलीमेट्री विधि से किए गए शोध में लोमड़ियों व कुत्तों में बढ़ते संपर्क के आधार पर लोमड़ियों की आबादी में बड़े स्तर पर CDV की संभावना व्यक्त की गई है।
Tiger Watch संस्था के वन्यजीव विशेषज्ञ डॉ धर्मेंद्र खांडल की एक जांच के अनुसार रणथम्भोर राष्ट्रीय उध्यान की सीमा के नजदीक भारतीय लोमड़ी का एक परिवार जिसमें नर व मादा के साथ उनके पाँच बच्चे थे की मृत्यु CDV के कारण पायी गयी। डॉ खांडल ने बताया की लोमड़ी के परिवार में मृत्यु से पहले CDV के लक्षण जैसे की आंखों में सूजन, तंत्रिका तंत्र (Nervous system)के ठप्प पड़ जाने के कारण चाल डगमगाना व डर की अनुभूति नहीं होना देखे गए थे।
राजस्थान में कुत्तों का गंभीर प्रभाव:
राजस्थान के परिपेक्ष्य में कुत्तों की समस्या वन्यजीवों के संरक्षण के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसका प्रमुख कारण राज्य में वन्य जीव संरक्षण क्षेत्रों की कम संख्या एवं अधिकांश वन्य जीवों का इन संरक्षित क्षेत्रों से बाहर गौचर, ओरण एवं कृषि भूमि में पाया जाना हैं। डॉ भट्टाचार्जी के एक शोध के अनुसार पश्चिम राजस्थान के इन्हीं असंरक्षित क्षेत्रों में संकटग्रस्त जीव जैसे चिंकारा व काले हिरणों का जनसंख्या घनत्व भारत के कई बड़े-बड़े वन्यजीव संरक्षित क्षेत्रों के बराबर हैं। इन क्षेत्रों में प्रबल मानवीय गतिविधियों के कारण कुत्तों की संख्या बहुत अधिक है जो की इन संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए निरंतर बढ़ता खतरा है। राजस्थान के इन शुष्क क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले बड़े परभक्षी जीवों के अभाव में कुत्ते खाद्य श्रृंखला में सर्वोच्च परभक्षी की भूमिका निभाते हैं।
राज्य के कई कस्बों व शहरों के बाह्य क्षेत्रों में मृत मवेशियों को डालने वाले स्थल भी आवारा कुत्तों की बहुत बड़ी संख्या को भोजन उपलब्ध कराते हैं। ये स्थान वन्यजीव क्षेत्रों के आस-पास ही होते हैं जो की कई प्रवासी व स्थानीय गिद्धों की बड़ी संख्या का भी बसेरा है, परंतु कुत्तों की बढ़ती तादाद अक्सर इन गिद्धो को उपलब्ध भोजन से वंचित रखती हैं। कई किसान इन क्षेत्रों में अपने खेतों की सुरक्षा हेतु बाड़ बनाने में महीन जाली का उपयोग करते हैं जो की कई वन्यजीवों के लिए लगभग अदृश्य होती है। परिणामस्वरूप चिंकारा एवं काले हिरण जैसे सींगो वाले जीव खेत पार करते समय इन जालियों में फंस आवारा कुत्तों का आसान शिकार बन जाते हैं। केवल स्थानीय स्तनधारी ही नहीं अपितु प्रति वर्ष हिमालय पार कर सर्दियों में आने वाली प्रवासी कुर जाएँ भी बड़ी संख्या में कुत्तों का शिकार बनी देखी जा सकती हैं । राजस्थान में कुत्तों का ये भयावह प्रकोप खरगोश जैसी छोटी प्रजाति से लेकर सियार व भेड़ियों जैसे मध्यम व बड़े आकार के शिकारियों पर भी बहुत प्रभावी रूप से देखा जा सकता हैं।
हालांकि तेंदुए जैसे बड़े परभक्षी कुत्तों का भोजन के रूप में शिकार करते हैं परंतु इन बड़े परभक्षियों के शावक संरक्षित वन्य क्षेत्रों में घूमने वाले कुत्तों से सुरक्षित नहीं होते तथा मारे जाते हैं।
वर्ष 2017 में कैलादेवी वन्यजीव अभ्यारण्य के पास कुत्तो के एक गुट ने लेपर्ड के दो छोटे शावकों को मौत के घाट उतार दिया था।(फोटो: डॉ धर्मेंद्र खांडल)
आबादी नियंत्रण व प्रबंधन संबंधी नीतियाँ:
वास्तव में हमारे देश में कुत्तों के प्रबंधन संबंधी नीतियाँ उनकी संख्या कम करने के उद्देश्य से नहीं अपितु उनपर हो रही क्रूरता के निवारण तथा जीव अधिकारों की रक्षा को मद्दे नजर रखते हुए बनाई गयी है। पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अंतर्गत पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम 2001 का उल्लेख किया गया है। इस नियम के अंतर्गत कुत्तों की आबादी नियंत्रण के उपायों को चार चरणों में बताया गया है। ये चरण हैं,उन्हें पकड़ना, नसबंदी करना, टिकाकरण, एवं पुन: उसी आवास में छोड़ देना है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस नियम में कुत्तों को पुन: उसी आवास में छोड़ने की बात पर ज़ोर दिया गया है अर्थात यह नीति गली मोहल्लों से कुत्तों की आबादी हटाने के लिए नहीं परंतु वास्तव में ये आबादी बनाए रखने को प्रेरित करती है। उपरोक्त नियमों में कुत्तों द्वारा वन्यजीवों पर पड़ रहे खतरनाक प्रभावों से निपटने के लिए किसी प्रकार के उपायों का ना तो उल्लेख है ना ही ये नियम इन प्रभावों को ध्यान में रखते हुए बनाये गये हैं।
कुत्तों की नसबंदी द्वारा जन्म दर नियंत्रण कर इनकी संख्या को कम करने का तरीका लंबे समय से अप्रभावी रहा है। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों की आबादी के प्रभावी नियंत्रण के लिए किसी भी स्थान में कुत्तों की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा एक निश्चित समय के अंदर (नए प्रजनन काल के शुरू होने से पहले ही) बंध्य करना आवश्यक है। ये तब ही संभव हो सकता हैं जब हमारे पास कुत्तों की आबादी के सटीक आंकड़े, उनके आवासों एवं आबादी को बढ़ाने वाले कारकों के संबंध में अधिक वैज्ञानिक शोध व जानकारी हो जिसका वास्तविकता में बहुत अभाव हैं। बंध्यकरण द्वारा कुत्तों का प्रभावी नियंत्रण भारत जैसी बड़ी आबादी वाले एक विकासशील देश के लिए बहुत खर्चीला विकल्प है।
कुत्तों की संख्या के नियंत्रण में विफलता के लिए न केवल प्रभावी नीतियों का अभाव बल्कि लोगों का गैर-जिम्मेदाराना रवैया भी एक मुख्य कारण है। हमारा संविधानबेशक आमजन को जीव-मात्र के प्रति करुणा दिखनेव भोजन उपलब्ध करवाने के लिए प्रेरित करता है परंतु इसी के साथ उन्हें उन जानवरों की ज़िम्मेदारी के लिए प्रतिबद्ध भी किया गया है। लोग अकसर कुत्तों को गली मोहल्ले में खाना देते वक़्त भूल जाते है की उन कुत्तों की टिकाकरण व उनके उग्र व्यवहार के कारण हुई जन-हानि की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है।
कुत्तों द्वारा वन्य जीवों व जन-स्वास्थ्य के खतरों कम करने के लिए इनकी संख्या को नियंत्रण करना अति-आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम कचरे का प्रभावी निस्तारण प्रमुख है जिससे उनकी भोजन की उपलब्धता में कमी आएगी जिसका प्रभाव इनकी संख्या पर पड़ेगा। इसके साथ आम-जन को गली मोहल्लों में कुत्तों को भोजन देना भी बंद करना होगा। आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के लिए लोगों व पशु प्रेमियों द्वारा स्वस्थ कुत्तों को अपनाने के लिए जागरूक करना होगा। प्रबंधन की ऐसी नीतियाँ बनानी होगी जिसमें कुत्तों के जीवन स्तर के साथ-साथ उनके जन-स्वास्थ्य एवं वन्य-जीवन पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों के निवारण की समीक्षा भी हो।
हमेशा से बाघों के अनुकूल रहा, राजस्थान का एक ऐसा क्षेत्र जो बाघ पर्यावास बनने को तैयार है लेकिन सरकारी अटकलों और तैयारियों कि कमी के कारण आधिकारिक तौर पर बाघों से वंचित है।
रामगढ़ विषधारी अभयारण्य राज्य के बूंदी जिले में 304 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत एक जलपूर्ण वन क्षेत्र है। राज्य ने इसे 20 मई 1982 को राजस्थान वन्य प्राणी और पक्षी संरक्षण अधिनियम, 1951 की धारा 5 के अंतर्गत अभयारण्य घोषित किया। रामगढ़, रणथंभोर टाइगर रिजर्व के दक्षिण कि ओर एक पहाड़ों से घिरा वन क्षेत्र है जो कि मेज नदी द्वारा दो असमान भागों में विभाजित होता है। मेज नदी इस वन क्षेत्र के कई जलश्रोत को जलपूर्ण कर इस वन क्षेत्र कि जीवन रेखा के रूप में काम करती है। रणथंभोर से जुड़ा होने के कारण यह बफर ज़ोन का भी काम करता है जिसकी वजह से रणथंभोर से निकले हुए बाघ अक्सर यहाँ पहुँच जाते है।
रामगढ़ का इतिहास:
रामगढ़ का इतिहास, वन्यजीवों से लेकर इंसानों के खूनी गाथाओं से भरा हुआ है।अधिकांश राजपूत शासक एक दूसरे के राज्यों में मेहमान के तौर पर शिकार, विशेष रूप से स्वयं के राज्यों में अनुपलब्ध जीवों के शिकार के लिए आमंत्रित करते रहते थे। अक्सर ये शिकार यात्राएँ उनके बीच घनिष्ठ संबंधों, विवाह, दोस्ती और साझा हित से जुड़ी रियासतों, के अस्तित्व को प्रतिबिंबित और प्रबलित करते थे।
बाघों की बड़ी आबादी कि वजह से, बूंदी बाघों के शिकार के लिए एक लोकप्रिय स्थान था। जबकि आम तौर पर बाघों का शिकार राज्यों द्वारा अपने आपसी संबंधों को मजबूत करने में मददगार साबित होता था, बूंदी के मामले में यह उसके विपरीत साबित हुआ है। ब्रिटिश एजेंट जेम्स टोड के ऐनल्ज़ एण्ड एंटीकुईटीस के अनुसार यहाँ अहेरिया (वसंत के समय का शिकार) का त्यौहार मेवाड़ के महारनाओं के लिए तीन बार घातक साबित हुआ (Hughes, 2013)। 1531 में एक शिकार के दौरान बूंदी के राव सूरजमल और मेवाड़ के महाराणा रतन सिंह के बीच एक झगड़े का उल्लेख है जिसमें दोनों महाराज एक दूसरे को मार डालते हैं। टोड के अनुसार महाराणा रतन सिंह द्वारा चोरी से हाड़ा महाराज सुरजमल कि बहन से विवाह करने के कारण बदले कि भावना में शिकार के दौरान झगड़े में एक दूसरे को मार डालते हैं। ऐसी ही एक घटना 1773 में दोहराई गई जब बूंदी के राव राजा अजीत सिंह ने मेवाड़ के महाराणा अरसी सिंह को शिकार के दौरान ही मार डाला। टोड के अनुसार महाराणा कि मौत मेवाड़ के रईसों द्वारा प्रभावित था जिन्हें महाराज अरसी स्वीकार नहीं थे (Crooke, 2018)।
Ramgarh Hunting Lodge: बूंदी के महाराज रामसिंह द्वारा मेज नदी के किनारे शिकार के महल का निर्माण करवाया गया था।ब्रिटिश एजेंट जेम्सटोड के अनुसार राजा राम को शिकार का जुनून उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला, और यहां तक कि इस ग्यारह वर्ष कि उम्र में उन्हें अपने पहले शिकार करने पर बूंदी के रईसों से नजर और बधाई मिली। (फोटो: प्रवीण कुमार)
महारजाओं के शिकार के साथ ही यहाँ बेहिसाब वन्यजीवों का भी शिकार हुआ है। जेम्स टॉड ने अपने ऐनल्ज़ में ही बताया है कि बूंदी के शासक राव राजा बिशन सिंह (मृत्यु 1821) ने 100 से अधिक शेर और कई बाघ मारे थे। बेशक शिकार के लिए ऐसा जुनून उस एक शेर के जितना ही खतरनाक साबित हो सकता है जिसका शिकार किया जाता था, और ऐसा हुआ भी जब अपने किसी शिकार अभियानों में से एक के दौरानएक शेर द्वारा राजा पर हमला किया गया जिसके परिणामस्वरूप महाराज ने एक अंग को खो दिया और जीवन भर के लिए अपंग होकर रह गए (Crooke, 2018)। इन बेहिसाब शिकारों के कारण 1830 तक यहाँ से शेर विलुप्त हो चुके थे (Singh & Reddy, 2016)I
रुडयार्ड किपलिंग अपने 1890 के दशक के बूंदी दौरे के बारे में बताते हैं कि जब अंग्रेज बूंदी आए तो उन्हे सुख महल में ठहराया गया जहां उन्होंने अपनी पुस्तक “किम” के कुछ अंश पूरा किया। उसी दौरान उन्होंने बूंदी के डिस्पेंसरी का दौरा किया, तो उन्होंने एक रजिस्टर पाया (ऑपरेशन बुक) जिसमें अस्पताल में आने वाले लोगों की बीमारियों को अंग्रेजी में सूचीबद्ध किया गया था। उनमें से एक सप्ताह में अक्सर तीन-चार मामले, शेर के काटने के होते थे, जिसे सूची में “लायन बाइट” के तौर पर सूचित किया गया था। जुलोजिकल सटीकता देखने पर उन्होंने इसमें बाघ के काटने की संभावना पाई (Kipling,1899)।
1899-90 में राज्य के बहुत से वन्यजीव, विशेष रूप से चीतल और सांभर जैसी प्रजातियां, एक गंभीर सूखे के कारण मारे गए। हालांकि, आने वाले वर्षों में शिकार पर रोक लगने के बाद, वन्यजीवों की आबादी वापस आ गई। 1960 के दशक में भी, बूंदी में 50 साल पहले जंगलों में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों का उचित प्रतिनिधित्व था। लेकिन, 1920 से बूंदी ने बाघों के शिकार के आगंतुकों का स्वागत करना शुरू किया जिससे राज्य ने शिकार का उच्च स्तर अनुभव किया। इस समय तक तत्कालीन शासक, महराओ राजा रघुबीर सिंह, पहले ही लगभग 100 बाघों को मार चुके थे। इस छोटे से राज्य में हर साल औसतन सात बाघ मारे जाते थे। हालांकि पूर्व नियमों के अनुसार बाघिनों के शिकार को हतोत्साहित किया गया था, लेकिन कुछ निजी रिकॉर्डों को देखते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि या तो नियम 1930 के दशक से बदल गए थे या उनका पालन नहीं हो रहा था। हालांकि, शिकार और पर्यावास में परिवर्तन के बावजूद यहाँ 1941 में 75 बाघ थे (Playne, et al.,1922)I
1945 में बाघ शिकार के नियमों में ढील दी गई और कई लोग शिकार के शाही खेल में भाग लेने के लिए शामिल होने लगे। 1950 के दशक में, एक बाघिन ने फूल सागर के आसपास के जंगल में दो शावकों को जन्म दिया। उसी अवधि के आसपास फूल सागर पैलेस में आमंत्रित लोगों के साथ क्रिसमस की शिकार पार्टियां लोकप्रिय हो गईं और 1950 के दशक के अंत से बाघों का अवैध शिकार भी शुरू हुआ। 1952 में, लॉर्ड माउंटबेटन ने बूंदी में दो बाघों का शिकार किया; एक फूल सागर में और दूसरा रामगढ़ में। 1955 और 1965 के बीच, महाराव राजा बहादुर सिंह ने अकेले बूंदी के जंगलों में 27 बाघों का शिकार किया। यहाँ के जंगलों में 1957 से 1967 के बीच नौ बाघों का शिकार अवैध शिकारियों द्वारा किया गया। 1960 के दशक तक बाघ काफी सीमित क्षेत्रों तक ही पाए जाते थे। हालांकि, ये बाघ और बाघ-शिकारियों के लिए बदलते समय थे क्यूँकि वन विभाग ने बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया था (Singh & Reddy, 2016)I
1982 में अभयारण्य घोषित होने के साथ इस क्षेत्र कि सुरक्षा और बढ़ी। इस क्षेत्र के बाघों में विशेष रुचि रखने वाले वन रक्षक लड्डू राम के अनुसार, 1983 में रामगढ़ और शिकार्बुरज ब्लॉक के बीच तीन बाघ थे, और 1986 में छह। 1990 में, उनका मानना है कि पूरे इलाके में 11 बाघ थे, जो बिजोलिया, बांद्रा पोल, मांडू और झारपीर में फैले थे- ये सभी रामगढ़ रेंज में हैं (Singh & Reddy, 2016)I
1985 में, लोहारपुरा घाटी में एक बाघ को अवैध रूप से मार दिया गया था। इसके बाद 1991 को एक और ऐसी घटना हुई जब पिपलिया मणिकचौथ में गोरधन की पहाड़ी पर एक और बाघ की मौत हो गई। तत्कालीन उप वन संरक्षक के एल सैनी और रेंज ऑफिसर पूरण मल जाट द्वारा, 23 – 24 जनवरी को शिकारी रंगलाल मीणा को बाघ के शिकार के संदेह में गिरफ्तार किया गया। हालांकि रंगलाल मीणा मोतीपुरा गाँव का एक माना हुआ शिकारी था, लेकिन उक्त शिकार में वह शामिल ना था। उस रेंज के तत्कालीन गार्ड भूरा मीणा कि रंगलाल से आपसी मतभेद के कारण अत्यधिक प्रतारणा के कारण मौत हो गई। हिरासत में मौत होने के कारण इस क्षेत्र में एक उग्र आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व किया वहाँ के विधायक राम नारायण मीणा ने। आंदोलन में लोगों ने रेंज ऑफिस जला दिया, गार्ड्स को बाहर निकाल दिया, और लगभग डेढ़ साल तक फॉरेस्ट गार्ड्स को अभयारण्य में प्रवेश न करने दिया। अभयारण्य अधिकारियों द्वारा पर्यवेक्षण और सक्रिय प्रबंधन के अभाव में वन्यजीवों की सुरक्षा बुरी तरह से विफल रही।
अभयारण्य कि सुरक्षा में वर्ष 2000 में सहायक वन संरक्षक मुकेश सैनी के नेतृत्व में बढ़ी। प्रारम्भिक अड़चनों के बाद उन्होंने अपनी सूज-बूझ से विधायक राम नारायण मीणा का समर्थन हासिल किया और अभयारण्य में कोयला बनाने पर रोक लगवाई। इनके बाद उप वन संरक्षक श्रुति शर्मा ने अभयारण्य में कैम्प करके स्वयं कि निगरानी में कई विकास कार्य करवाए।
रामगढ़ के वन:
यहाँ के जंगलों को चैंपियन और सेठ वन वर्गीकरण 1968 के अनुसार उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है। जलवायु स्थिति से परे, एडैफिक और बायोटिक कारक मुख्य रूप से इन वनों की संरचना, वितरण और गुणवत्ता का निर्धारण करते हैं। यहाँ के वन खंडों को पूर्णतया धोक (Anogeissus pendula) के वन, धोक के मिश्रित वन, धोक कि झाड़ियाँ, खैर (Acacia catechu) के वन, उष्णकटिबंधीय शुष्क मिश्रित वन, उष्णकटिबंधीय नम मिश्रित वन,घास के मैदान, आदि के रूप में पहचाना जा सकता है (Nawar, 2015)I
धोक के वन में लगभग 80%, Anogeissus pendula पाया जाता है जो कि यहाँ के पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक है, Grewia flavescens यहाँ धोक का एक सामान्य सहयोगी है। धोक के मिश्रित वनों में धोक, अन्य पर्णपाती प्रजातियों, जैसे कडाया (Sterculia urens), सालर (Boswellia serrata), पलाश (Butea monosperma), खैर (Acacia catechu), आदि के साथ पाया जाता है। धोक इन वनों कि भी प्रमुख प्रजाति है, सालर और कडाया ढलानों पर मौजूद हैं, जबकि पलाश घाटी क्षेत्रों में आता है। इन जंगलों में Grewia flavescens, Capparis decidua, Cassia tora, Calotropis procera आदि जैसी झाड़ी प्रजातियां भी शामिल है।
यहाँ शुष्क मिश्रित वनों के कुछ पैच भी मौजूद है जिसमें चुरेल (Holoptelea integrifolia), गुर्जन (Lannea coromandelica), पलाश, कड़ाया, धोक के साथ शामिल हैं। बबूल (Acacia nilotica) अवस्था परिवर्तन कालिक क्षेत्रों में और असमान सतहों पर पाया जाता है। नम मिश्रित वनों में Syzygium cumini, Ficus racemosa, Diospyros melanoxylon, Phoenix sylvestris,Flacourtia indica, Mallotus philippensis, Terminalia bellirica and Mangifera indica आदि पाए जाते हैं। इस तरह के जंगल पानी की धाराओं, झीलों और जलाशयों के आसपास के घाटी क्षेत्रों में आम हैं। जलीय वनस्पतियों में नेलुम्बो न्यूसीफेरा, निमफेया नौचली, अजोला पिनाटा, ट्रापा नटंस, इपोमिया एक्वाटिक, यूट्रीकुलरिया औरिया आदि शामिल हैं।
रामगढ़ के वन्यजीव:
रामगढ़ विषधारी वन्यजीव अभयारण्य रणथंभौर टाइगर रिजर्व के लिए सॅटॅलाइट क्षेत्र के रूप में विस्तारित होने की क्षमता रखता है। यह अभयारण्य रणथंभौर टाइगर रिजर्व से निकले हुए बाघों का पसंदीदा क्षेत्र है। बाघ के अलावा यहाँ मांसाहारी जीवों में बघेरा, भेड़िया, लकड़बग्धा, सियार, लोमड़ी, सियागोश, रस्टी स्पॉटेड कैट, और जंगल कैट आदि पाए जाते हैं।
मानसून के दौरान, अभ्यारण्य में पानी व्यापक होता है जिसके कारण वन्यजीव असुविधाजनक आर्द्रभूमि से बचने हेतु ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पलायन करते हैं। अक्टूबर और नवंबर के बाद वे नीचे घाटियों की ओर बढ़ना शुरू करते हैं और बाद में नदियों और नालों वाले क्षेत्रों में। मई और जून के शुष्क और गर्म महीनों के दौरान लगभग सभी जानवर सीमित वाटर हॉलस के पास ही पाए जाते हैं। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
शाकाहारी जीवों में हनुमान लंगूर, चीतल, सांभर, चिंकारा, नीलगाय, और खरगोश अच्छी संख्या में हैं और सभी मौसमों में आसानी से देखे जा सकते हैं। सर्वाहारी स्थानपाई जीवों में यहाँ भालू, जंगली सूअर, और इंडियन सॅमाल सिविट पाए जाते हैं। यहाँ नेवले की दो प्रजातियाँ इंडियन ग्रे मोंगूस एवं रडी मोंगूस, चींटीखोर, और साही भी पाए जाते हैं।
वन्यजीव गणना के दौरान रामगढ़ महल के पास जलश्रोतों पर भालू, बघेरा हनुमान लंगूर इत्यादि आसानी से एवं अच्छी संख्या में देखने को मील जाते हैं (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
अभयारण्य में स्थितः रामगढ़ गाँव कई प्रजातियों के सांपों के लिए जाना जाता है, संभवतः इसी कारण इसको विषधारी अभयारण्य कहा जाता है। है। यहाँ पक्षियों किभी काफी विविधता मौजूद हैं जिनमें कई प्रकार के शिकारी पक्षी जैसे भारतीय गिद्ध, बोनेलीज़ ईगल,आदि, विभिन्न प्रजातियों के पैराकीट, ओरिएण्टल व्हाइट आई, गोल्डन ओरिओल, पर्पल सनबर्ड, हरियल, पपीहा, नवरंग, कोयल, येलो थ्रोटेड स्पैरो, सरकीर मालकोहा, बुलबुल, फ्लाई कैचर्स इत्यादि शामिल हैं।
1899-90 में राज्य के बहुत से वन्यजीव, विशेष रूप से चीतल और सांभर जैसी प्रजातियां, एक गंभीर सूखे के कारण मारे गए। हालांकि, आने वाले वर्षों में शिकार पर रोक लगने के बाद, वन्यजीवों की आबादी वापस आ गई। 1960 के दशक में भी, बूंदी में 50 साल पहले जंगलों में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों का उचित प्रतिनिधित्व था। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
रामगढ़, रणथंभोर और बाघ:
रामगढ़-विषधारी और रणथंभौर के बीच मौजूदा वन कनेक्टिविटी, हालांकि कमजोर है, लेकिन फिर भी बाघों को इस पारंपरिक मार्ग से पलायन करने में काफी हद तक सहायक है। यह मार्ग बूंदी के उत्तरी हिस्सों में तलवास और अंतर्दा के जंगलों से गुजरता है। 2007 के आसपास, एक युवा क्षणस्थायी बाघ, युवराज, द्वारा रणथंभौर से बूंदी की दिशा में जाने का प्रयास किया गया लेकिन अपने गंतव्य तक पहुँचने से पहले ही सखावडा के पास बच्चू, मूल्या और सक्रमा नाम के तीन शिकारी भाइयों द्वारा उसका शिकार कर दिया गया। अगस्त 2013 में, एक और युवा क्षणस्थायी बाघ, T-62 कि मौजूदगी को तलवास के पास कैमरा ट्रैप द्वारा स्थापित किया गया था। अटकलें यह है कि बाघ रामगढ़-विषधारी वन्यजीव अभयारण्य में पशुधन शिकार पर 2015 की शुरुआत तक रहा और फिर रणथंभौर की दिशा में वापस यात्रा किया।
2017 में भी एक बाघ, T-91 रणथम्भोर से निकल कर रामगढ़ विषधारी अभयारण्य में पहुँच गया जिसको लगभग पाँच महीने कि निगरानी के बाद 3 अप्रैल 2018 को मुकंदरा टाइगर रिज़र्व में शिफ्ट किया गया। इसके बाद भी यहाँ 2 बाघों की उपस्थिति दर्ज हुई जिनमें से एक युवा नर T-115 चम्बल के किनारे व दूसरा बाघ T-110 जो कि पहले भी यहाँ अपना इलाका बना चुका है।
बाघ, T-91 रणथम्भोर से निकलकर रामगढ़ विषधारी अभयारण्य में पहुँच गया जिसको लगभग पाँच महीने कि निगरानी के बाद 3 अप्रैल 2018 को मुकंदरा टाइगर रिज़र्व में शिफ्ट किया गया। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
बाघों द्वारा इस पारंपरिक मार्ग के उपयोग को देखते हुए, जब रणथंभोर में बाघों कि आबादी बड़ी तो बाघ विशेषज्ञ वाल्मीक थापर और वर्तमान प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन सेना प्रमुख) डॉ जी.वी रेड्डी ने रामगढ़ विषधारी अभयारण्य को रणथंभोर के तीसरे डिवीजन के रूप में विकसित करने कि परियोजना पर विचार किया। जिसका प्रस्ताव वाई के साहू के निर्देशन में धर्मेन्द्र खांडल ने तैयार किया।
रणथंभोर के बफर एरिया को, जो कि इन्दरगढ़ के वनों से लेकर रामगढ़ अभ्यारण्य तक को पहले टाइगर रिजर्व के खंड के रूप विकसित करने पर बल दिया गया। प्रस्तावित किया गया कि पूर्ण रूप से विकसित होने के पश्चात रामगढ़ को स्वतंत्र टाइगर रिजर्व घोषित किया जाए। इस प्रस्ताव के पीछे का तर्क था कि रणथंभोर के हिस्सा होने पर विभाग द्वारा संचालित रणथंभौर बाघ संरक्षण फाउंडेशन (RTCF) कि धनराशि को रामगढ़ के विकास के लिए उपयोग किया जा सकेगा।
रामगढ़ का रणथंभोर के तीसरे खंड के रूप में विकसित होने से, डॉ धर्मेन्द्र खांडल के अनुसार, सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि बाघों के स्थानांतरण में आने वाली वैधानिक अड़चनें समाप्त हो जाएंगी। आमतौर पर बाघों को एक रिजर्व से दूसरे तक पहुंचाने में कई वैधानिक समस्याएं आती हैं जैसे कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा स्वीकृति लेना आदि। रणथंभोर का हिस्सा होने से बाघों को आसानी से बिना किसी विलंब के बाघों कि बढ़ती आबादी को रामगढ़ स्थानांतरित किया जा सकेगा।
आज रामगढ़ पुन: अपने गौरवशाली अतीत की ओर अग्रसर हो रहा है। NTCA द्वारा यहाँ रणथम्भौर से 2 बाघों को पुनर्वासित करने की मंजूरी पहले ही दी जा चुकी है। शिफ्टिंग के प्रथम चरण में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए यहाँ सुरक्षा की दृष्टी से वन्यजीव विभाग ने अतिरिक्त वनकर्मियों को तैनात करने के साथ ही जिन विचरण मार्गो से पूर्व में ‘युवराज’ नाम का बाघ, T-62, T-91 रणथम्भौर से निकलकर रामगढ़ तक पहुंचे थे, को भी दुरुस्त करने का कार्य किया गया है।वन्यजीव संरक्षण में वर्षों से प्रयासरत बूंदी जिले के विट्ठल सनाढ्य, पृथ्वी सिंह राजावत, ओम प्रकाश “कुकी” आदि जैसे वरिष्ठ संरक्षणवादी, एन.टी.सी.ए. की मन्जूरी के बाद आशा में हैं कि फिर से रामगढ़ में बाघों की दहाड़ गुंजायमान होगी।
सन्दर्भ:
Hughes, J. (2013). Animal Kingdoms: Hunting, the Environment, and Power in the Indian Princely States. Permanent Black, Ranikhet.
Crooke, William. (Ed.). (2018). Annals and Antiquities of Rajasthan, v. 3 of 3 by James Tod. eBook, Public domain in the USA. http://www.gutenberg.org/ebooks/57376
Singh, P., Reddy, G.V. (2016). Lost Tigers Plundered Forests: A report tracing the decline of the tiger across the state of Rajasthan (1900 to present), WWF-India, New Delhi.
Rudyard Kipling. (1899).“The Comedy of Errors and the Exploitation of Boondi,” in From Sea to Sea; Letters of Travel, vol. 1 (New York: Doubleday & McClure Company), 151.
Playne, S., Solomon, R.V., Bond, J.V. and Wright, A. (1922). Indian States: A Biographical, Historical and Administrative Survey. Asian Educational Services, New Delhi.
Nawar, K. (2015). Floristic and Ethnobotanical Studies ofRamgarh Vishdhari Wild Life Sanctuary ofBundi (Rajasthan). A THESISSubmitted for The Award of Ph.D. Degreein The Faculty of Science ofUNIVERSITY OF KOTA, KOTA., pg. 64.
जाने वो कौनसे कारण है की लार्क की एक प्रजाति ऐशी-क्राउंड स्पैरो-लार्क जहाँ मिलना बंद होती है वहां दूसरी ब्लैक-क्राउंड स्पैरो-लार्क शुरू होती है। यह पारिस्थितिक कारण जानना और इनके पर्यावास में आये बदलाव का अध्ययन करना अत्यंत रोचक होगा।
लार्क, पेसेराइन पक्षियों का वह समूह है जो लगभग सभी देशों में पाया जाता है। भारत में भी लार्क की कई प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमे से सबसे व्यापक लगभग पूरे भारत में पायी जाने वाली प्रजाति है ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क। यह प्रजाति 1000 मीटर की ऊंचाई से नीचे के क्षेत्रों तक ही सीमित है और यह हिमालय के दक्षिण से श्रीलंका तक और पश्चिम में सिंधु नदी प्रणाली तक और पूर्व में असम तक पाई जाती है। जहाँ यह छोटी झाड़ियों, बंजर भूमि, नदियों के किनारे रेत में पायी जाती है, तथा यह हमेशा नर-मादा की जोड़ी में देखने को मिलती है। परन्तु यह प्रजाति राजस्थान के थार रेगिस्तान में नहीं पायी जाती है, और राजस्थान के इसी भाग में लार्क की एक अन्य प्रजाति मिलती है जिसे कहते है ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क जो अक्सर थार-रेगिस्तान में जमीन पर बैठे हुए दिखाई देते हैं। यह दो प्रजातियां आंशिक रूप से राजस्थान के कुछ इलाकों में परस्पर पायी जाती हैं, हालांकि ये एक साथ कभी भी नहीं देखी जाती।
ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क में वयस्क नरों में मुख्यरूप से एक पाइड हेड पैटर्न होता है जिसमें काले सिर पर सफ़ेद माथा तथा गालों पर सफ़ेद पैच होता है। (फोटो: श्री. नीरव भट्ट)
ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क का माथा ज्यादा भूरा होता है तथा आँखों के पास काली पट्टी थोड़ी पतली होती है जो मुख्यतः भौहे जैसी लगती है। (फोटो: श्री. नीरव भट्ट)
वर्गिकी एवं व्युत्पत्ति-विषयक (Taxonomy & Etymology):
ब्लैक क्राउंड स्पैरो लार्क (Eremopterix nigriceps) एक मध्यम आकार का पक्षी है जो पक्षी जगत के Alaudidae परिवार का सदस्य है। इसे कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे की ब्लैक क्राउंड फिंच लार्क, व्हाइट-क्रस्टेड फिंच-लार्क, व्हाइट-क्रस्टेड स्पैरो-लार्क, और व्हाइट-फ्रंटेड स्पैरो-लार्क। वर्ष 1839 में अंग्रेजी पक्षी विशेषज्ञ “John Gould” ने इसे द्विपद नामकरण पद्धति के अनुसार Eremopterix nigriceps नाम दिया था। Gould, एक बहुत ही नामी पक्षी चित्रकार भी थे, उन्होंने पक्षियों पर कई मोनोग्राफ प्रकाशित किए, जो प्लेटों द्वारा चित्रित किए गए थे।
बहुत ही व्यापकरूप से वितरित होने की कारण अलग-अलग भौगिलिक स्थितियों में इसके रंग-रूप में थोड़े-बहुत अंतर मिलते हैं और इन्ही अंतरों के आधार पर कुछ वैज्ञानिको ने समय-समय पर इसकी कुछ उप-प्रजातियां घोषित की हैं। इनमे से ईस्टर्न ब्लैक क्राउंड स्पैरो लार्क (E. n. melanauchen), भारत में पायी जाने वाली उप-प्रजाति है, जिसे एक जर्मन पक्षी विशेषज्ञ Jean Louis Cabanis ने वर्ष 1851 में रिपोर्ट किया तथा यह पूर्वी सूडान से सोमालिया, अरब, दक्षिणी इराक, ईरान, पाकिस्तान और भारत तक पायी जाती है।
निरूपण (Description):
ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क में नर और मादा रंग-रूप में एक दूसरे से बिलकुल भिन्न होते है जहाँ वयस्क नरों में मुख्यरूप से एक पाइड हेड पैटर्न होता है जिसमें काले सिर पर सफ़ेद माथा तथा गालों पर सफ़ेद पैच होता है। इसका पृष्ठ भाग ग्रे-भूरे तथा अधर भाग व् अंडरविंग्स काले रंग के होते हैं, जो छाती की किनारों पर एक सफेद पैच के साथ बिलकुल विपरीत होते हैं। इसकी काली पूँछ के सिरे भूरे रंग के होते है तथा पूँछ के बीच वाले पंख ग्रे रंग के होते हैं। वहीँ दूसरी और मादा में पृष्ठ भाग पीले-भूरे मटमैले रंग के होते हैं सिर पर हल्की धारियां (streaking), आँख के पास व् गर्दन के बगल में सफ़ेद पैच होता हैं। मादा के पृष्ठ भाग हल्के-पीले भूरे रंग के होते हैं और सिर पर हल्की लकीरे (streakings) होती हैं। इनकी आंख के चारों ओर और गर्दन के पास एक सफ़ेद पैच होता है तथा इसके अधर भाग सफ़ेद व् छाती के पास एक हल्के भूरे रंग की पट्टी होती है। इसके किशोर कुछ हद्द तक मादा जैसे दीखते हैं परन्तु किशोरों के सिर के पंखों के सिरे हल्के-भूरे रंग के होते हैं। नर की आवाज काफी परिवर्तनशील होती है, जिसमें आम तौर पर सरल, मीठे नोटों की एक छोटी श्रृंखला होती है, जो या तो उड़ान के दौरान या एक झाड़ी में या एक चट्टान पर बैठ कर निकाली जाती है।
कई बार इस पक्षी को लगभग इसके जैसे दिखने वाला ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क समझ लिया जाता है, जो भारत और पाकिस्तान के शुष्क क्षेत्रों में इस प्रजाति की वितरण सीमा के साथ आंशिक रूप से परस्पर पायी जाती है। परन्तु ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क का माथा ज्यादा भूरा होता है तथा आँखों के पास काली पट्टी थोड़ी पतली होती है जो मुख्यतः भौहे जैसी लगती है। मादा भूरे रंग की होती है और घरेलू गौरैया के समान होती है।
ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, मादा के पृष्ठ भाग हल्के-पीले भूरे रंग के होते हैं तथा आंख के चारों ओर और गर्दन के पास एक सफ़ेद पैच होता है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
ऐशी-क्राउंड स्पैरो लार्क, मादा भूरे-भूरे रंग की होती है और गौरैया के समान प्रतीत होती है। (फोटो: डॉ. धर्मेंद्र खांडल)
वितरण व आवास (Distribution & Habitat):
ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, उत्तरी-पूर्वी अफ्रीका में, उत्तरी-अफ्रीका के साहेल से अरब प्रायद्वीप, पकिस्तान और भारत में वितरित हैं। भारत में यह थार-रेगिस्तान में पायी जाती है। यह बिखरी हुई छोटी घासों, झाड़ियों व् अन्य वनस्पतियों वाले शुष्क व् अर्ध-शुष्क मैदानों में पायी जाती है, तथा कई बार इसे नमक की खेती वाले इलाकों में भी देखा गया है।
ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क का वितरण क्षेत्र (Source: Grimett et al 2014 and Birdlife.org)
व्यवहार एवं परिस्थितिकी (Behaviour & Ecology):
शुष्क प्रदेश में पाए जाने वाला यह पक्षी अपने पर्यावास के अनुसार अपने जल संतुलन को बहुत ही अच्छे से संचालित करता है, जैसे की दोपहर की गर्मी में छाया में रहकर पानी के नुकसान को कम करते हैं तथा कई बार बड़ी छिपकलियों के बिलों के अंदर आश्रय लेते भी इसको देखा गया है। यह अपने शरीर के तापमान को संचालित करने के लिए अपनी टांगों को निचे लटका कर उड़ान भरते है ताकि इनके अधर भाग पर सीधे हवा लगे तथा कई बार यह हवा के सामने वाले स्थान पर भी बैठ जाते हैं। प्रजनन काल के मौसम के अलावा, बाकी सरे समय में यह 50 पक्षियों तक के झुंड बना सकते हैं जो एक साथ रहते हैं परन्तु कई हजार के बड़े झुंड भी रिकॉर्ड किए गए हैं।
प्रजनन (Breeding):
ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, के प्रजनन काल में नर एक बहुत ही ख़ास हवाई उड़ान का प्रदर्शन करता है, जिसमे नर गोल-गोल चक्कर लगते हुए साथ ही आवाज करते हुए तेजी से ऊपर जाता है और फिर छोटी पत्नियों वाली उड़ान की एक श्रृंखला धीरे-धीरे निचे गिरता है। कभी-कभी नर और मादा दोनों साथ में उड़ान का प्रदर्शन करते है जिसमें नर धीरे घूमते हुए मादा का पीछा करता है। वे आमतौर पर गर्मियों के महीनों के दौरान प्रजनन करते हैं, और अक्सर बारिश से इनका प्रजनन शुरू होता है तथा लगभग जब भी परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, इनका प्रजनन शुरू होता हैं। इनके घोंसले आकार में छोटे, कम गहरे और पौधे व् अन्य सामग्री के साथ पंक्तिबद्ध होता है, तथा उसके मुँह की किनार पर छोटे पत्थर व् मिटटी के छोटे ढेले रखे होते हैं। घोंसला आमतौर पर एक झाड़ी या घास के नीचे स्थित होता है ताकि उसे कुछ छाया प्रदान की जा सके। नर व् मादा दोनों लगभग 11 से 12 दिनों के लिए, 2 से 3 अंडे के क्लच को सेते हैं।
आहार व्यवहार (Feeding habits):
ब्लैक-क्राउंड स्पैरो लार्क, एक बीज कहानी वाला पक्षी है, लेकिन यह कीटों और अन्य अकशेरुकी जीवों को भी खा लेता है। घोंसले में रहने वाले छोटे किशोरों को मुख्यरूप से कीड़े ही खिलाये जाते है। राजस्थान जैसे गर्म व् शुष्क वातावरण में यह पक्षी सुबह और शाम के समय में ही भोजन का शिकार करते हैं, जहाँ आमतौर पर इन्हे जमीन पर शिकार मिल जाते हैं तथा कई बार उड़ने वाले कीड़ों को यह हवा में उड़ कर भी पकड़ लेते हैं।
बस तो फिर थार में जाने से पहले अपनी दूरबीनों को तैयार कर लीजिये और इस छोटे फुर्तीले पक्षी को देखने के लिए सतर्क रहिये…
सन्दर्भ:
Cover Image Picture Courtesy Dr. Dharmendra Khandal.
Gould, J. 1839. Part 3 Birds. In: The Zoology of the voyage of H.M.S. Beagle, under the command of Captain Fitzroy, R.N., during the years 1832-1836. Edited and superintended by Charles Darwin. Smith, Elder & Co. London. 1841. 156 pp., 50 tt.
Grimmett, R., Inskipp, C. and Inskipp, T. 2014. Birds of Indian Subcontinent.